و يتفكرون فى خلق السموات والارض ربنا ما خلقت هذا باطلا
और वह आसमान व ज़मीन की ख़िलक़त के बारे में ग़ौर व फ़िक्र करते हैं, परवर दिगार तूने इन्हें बेहूदा ख़ल्क़ नही किया है।
सूरा ए निसा आयत न. 189
घर के माहौल में ज़िन्दगी बसर करना बहुत आसान है, क्योंकि घर में गिने चुने अफ़राद ही होते हैं। इसके अलावा माँ बाप, भाई बहन के साथ रहने में कोई परेशानी भी नही होती है, क्योंकि भाई बहन के दिल ख़ूनी रिश्ते की वजह से एक दूसरे के लिए मुहब्बत की कान होते हैं। इसी तरह माँ बाप के साथ रहना भी आसान है क्योंकि वह भी अपनी पूरी क़ूवत व ताक़त के साथ अपनी औलाद की देख रेख करते हैं।
लेकिन समाजी ज़िन्दगी एक ला महदूद दरिया है। समाज में मुख़तलिफ़ क़िस्म के अफ़राद व गिरोह पाये जाते हैं, जैसे आलिम व जाहिल, मोमिन व काफ़िर, अक़्लमंद व अहमक़, इन तमाम अफ़राद के साथ रहना आसान काम नही है, इसी लिए समाज में रहने के लिए इंसान को अक़्ल की ज़रूरत होती है। इंसान में लोगों के मिज़ाज को समझने और ग़ौर व फ़िक्र करने की सलाहियत होनी चाहिए ताकि वह मुख़तलिफ़ तबक़ात के दरमियान ज़िन्दगी बसर कर सके। ज़ाहिर है कि दरिया में हर तैराक तैराकी नही कर सकता, बल्कि कुछ गिने चुने जियाले ही होते हैं जो दरिया में तैराकी करते हैं।
समाजी ज़िन्दगी के लिए कूवत व ताक़त की ज़रूरत होती है लेकिन इसके लिए सिर्फ़ ज़िस्मानी ताक़त ही काफ़ी नही है बल्कि ग़ौर व फ़िक्र की ताक़त की भी ज़रूरत है।
जो आमिल इंसान को समाजी ़इन्दगी में कामयाब बना सकता है वह उसकी अक़्ल व फ़िक्र है। पढ़े लिखे आदमी भी अगर अक़्ल व फ़िक्र को छोड़ कर समाज में ज़िन्दगी बसर करना चाहेंगे तो इसमें कोई शक नही है कि वह नाकाम हो जायेंगे। क्योंकि जज़बाती ज़िन्दगी इंसान की सआदत की ज़ामिन नही बन सकती है इस लिए समाजी ज़िन्दगी के लिए इंसान को ग़ौर व फ़िक्र की ज़रूरत होती है, ताकि उसके ज़रिये इंसान अपने नफ़े नुक़्सान और अंजामे कार को समझ कर किसी काम को करने या न करने का फ़ैसला कर सके। हर काम की ऊँच नीच को समझना और उसके तारीक पहलुओं को रोशन करना ग़ौर व फ़िक्र के ज़रिये ही मुमकिन है।
मिसाल के तौर पर इस्लाम हुक्म देता है कि जब इंसान अपना घर बसाना चाहे तो बीवी के इन्तेख़ाब में जज़्बात से काम न ले बल्कि पहले ग़ौर व फ़िक्र करे कि किस तरह की लड़की से शादी करनी चाहिए, वह किस लड़की को अपनी शरीके हयात बनाना चाहता है, किस लड़की को अपना राज़दार बना रहा है और किस लड़की को अपने बच्चों की तरबियत के लिए मुरब्बी मुऐयन कर रहा है।
हज़रत इमाम ज़ाफ़र सादिक़ अलैहिस्सलाम ने फ़रमाया कि:
المراة قلادة فانطر ما تتقلده
बीवी गले के हार की मिस्ल है, लिहाज़ा अच्छी तरह देखों व ग़ौर करो कि तुम अपने गले में किस तरह का हार डाल रहे हो।
थोड़ा ग़ौर करने पर यह बात ज़ाहिर हो जाती है कि इंसान जिस दिन से इजतेमाई ज़िन्दगी शुरू करना चाहता है इस्लाम उसी दिन से उसे अक़्ल से काम लेने और ग़ैर व फ़िक्र करने की नसीहत करता है।
इस्लाम का एक हुक्म यह है कि किसी काम को करने के लिए पहले मशवरा करो और उसे शुरू करने से पहले अच्छी तरह ग़ौर व फ़िक्र करो।
شاور قبل ان تعزم و فكر قبل ان تقدم
यानी अज़्म से पहले मशवरा करो और उसके बारे में इक़दाम करने से पहले ग़ौर व फ़िक्र।
ज़ाहिर है कि इल्म के हर पहलु से ग़ौर व फ़िक्र करने से अच्छाई, बुराई, तारीकी, रौशनी सब आशकार हो जायेंगी और इंसान बसीरत हासिल करने के बाद उस काम को करने या न करने का फ़ैसला करेगा।
जज़बात, अक़्ल के साथ तो मुफ़ीद होते हैं लेकिन अक़्ल के बग़ैर इंसान को गुमराह कर देते हैं। क्योंकि जज़बात किसी अमल के फ़कत एक पहलु पर नज़र करते हैं और उस अमल की बुराईयों व तारीक गौशों को छुपाये रखते हैं जिसकी वजह से उस काम को करने के बाद उसकी बुराईयाँ ज़ाहिर होती हैं।
माँ बाप की ज़िम्मेदारी है कि अपनी औलाद की अक़्ली तौर पर बचपन से ही परवरिश करें और उनके ग़ौर व फ़िक्र को बेदार रखें ताकि वह तदरीजन अक़्लमंद बन जाये।
खाली वक़्त में उन्हें ग़ौर व फ़िक्र करने की फ़ुर्सत दें और उनकी ्च्छी फ़िक्र की तारीफ़ करें ताकि आहिस्ता आहिस्ता उनमें ग़ौर व फ़िक्र का शौक़ पैदा हो जाये।
कुछ मौक़ों पर बच्चों से काम के नतीजे को बयान न करें बल्कि पूरा काम उन्हीँ पर छोड़ दें जिससे कि वह उसके बारे में ख़ुद ग़ौर करें ताकि वह ग़ौर व फ़िक्र करना सीखें और ्गर वह नुक़्सान उठायें तो ग़ैरे मुस्तक़ीम तौर पर उनकी राहनुमाई करें ताकि वह आइन्दा अपनी उसी नाक़िस फ़िक्र के बल बूते पर काम करते हुए उसके बुरे नतीजों में गिरफ़्तार न हो सकें।
ज़िमनन इस नुक्ते पर भी तवज्जो देनी चाहिए कि ्ल्लाह ने तमाम बन्दों को ग़ौर व फ़िक्र की नेमत से नवाज़ा है। अक़्ल मंद अफ़राद वही हैं जो शुरू से ही ग़ौर व फ़िक्र से काम लेते हुए अपनी ्क़्ल को पुख़्ता बना लेते हैं। जो लोग जज़बात के तहत बग़ैर सोचे समझे काम करते हैं वह आहिस्ता आहिस्ता ग़ौर व फ़िक्र की कूवत को खो देते हैं।
उस्तादों और मुरब्बियों की ज़िम्मेदारी
मदर्से के उस्तादों और मुरब्बियों की ज़िम्मेदारी यह है कि वह तालीम व तरबियत के दौरान बच्चों को रटाने के बजाय सही तरह से ग़ौर व फ़िक्र करना सिखायें। इस बिना पर मदर्से की सबसे अहम ज़िम्मेदारी शागिर्दों को फ़िक्री एतेबार से मज़बूत बनाना है। मगर हम अफ़सोस के साथ यह बात क़बूल करने पर मजबूर हैं कि तालीमी मैदान में फ़िक्री तरबियत की तरफ़ कम तवज्जो दी जाती है और शागिर्दों के इल्मी इरतक़ा का मेयार शिर्फ़ रटी हुई चीज़ों को क़रार दिया जाता है और वह उसी के बल बूते पर वह यूनिवर्सिटी तक पहुँचते हैं।
आगाही के तौर पर तमाम ही वालदैन को सलाह दी जाती है कि हमारे बच्चों के मुस्तक़बिल की सआदत ग़ौर व फ़िक्र पर मुनहसिर हैं, असनाद पर नही।
बहुत ज़्यादा देखने में आया है कि कुछ लोग पढ़ लिखने के बाद भी इजतेमाई ज़िन्दगी में कामयाब नही हो सके हैं और कुछ लोग बग़ैर पढ़े लिखे होने के बावुजूद भी ग़ौर व फ़िक्र के नतीजे में इजतेमाई ज़िन्दगी में कामयाब रहे हैं। इससे यह बात ज़ाहिर होती है कि समाजी ज़िन्दगी के लिए ग़ैर व फ़िक्र की बहुत ज़रूरत है।
ग़ौर व फ़िक्र इस्लाम की नज़र में
क़ुरआने करीम की आयतों के मुताले से पता चलता है कि क़ुरान ने इंसानों को ग़ौर व फ़िक्र की बहुत ज़्यादा दावत दी है। उन्हें मुख़्तलिफ़ तरीक़ों से आसमान, ज़मीन और तरह तरह की मख़लूक़ की ख़िलक़त के बारे में ग़ौर करने को कहा है।
क़ुरआने करीम की आयतों से यह बात भी ज़ाहिर होती है कि वही अफ़राद कामयाब हैं जो ग़ौर व फ़िक्र से काम लेते हैं और जो लोग ग़ौर व फ़िक्र नही करते वह कामयाब नही हो सकते।
जो अफ़राद अपनी अक़्ल से काम लेते हैं उन्हें क़ुरआने करीम में اولوالالباب कहा गया है, यानी साहिबाने अक़्ल।
हज़रत इमाम ज़ाफ़र सादिक़ अलैहिस्सलाम से नक़्ल हुआ है कि :
قال انا لنحب من كان عاقلا فهما
बेशक हम अक़लमंद व फ़हीम अफ़राद से मुहब्बत करते हैं।
हज़रत अली अलैहिस्सलाम ने फ़रमाया कि :
نبه بالتفكر قلبك
यानी ग़ौर व फ़िक्र के ज़रिये अपने क़ल्ब को तन्बीह करो।
ज़ाहिर है कि इस हदीस से यही महफ़ूम निकलता है कि जो लोग ग़ौर व फ़िक्र नही करते उनके क़ल्ब ख़ाबे ग़फ़लत में हैं।
हज़रत इमाम अली रिज़ा अलैहिस्सलाम ने फ़रमाया कि :
ليس العبادة كقرة الصلاة و الصوم انما العبادة التفكر فى امر الله عزو جل
ज़्यादा नमाज़ रोज़े का नाम इबादत नही है, बल्कि अल्लाह के अम्र में ग़ौर व फ़िक्र करना है। इससे मालूम होता है कि ग़ौर व फ़िक्र की अहमियत नमाज़ रोज़े से ज़्यादा है।
हज़रत इमाम जाफ़र अलैहिस्सलाम ने फ़रमाया कि :
افضل العبادة ادمان التفكر فى الله و فى قدرته
सबसे अच्छी इबादत हमेशा अल्लाह और उसकी क़ुदरत के बारे में ग़ौर व फ़िक्र करना है।
बाज़ रिवायतों का मज़मून इस बात पर दलालत करता है कि एक लहज़े का ग़ौर व फ़िक्र एक साल की इबादत से अफ़ज़ल है।
ग़ौर व फ़िक्र की इस फज़ीलत के बारे में दो दलीलें पेश की जासकती है :
पहली यह कि इबादत की अहमियत का रब्त मुस्तक़ीमन इबादत करने वाले इंसान से है। यानी इबादत करने वाले की अक़्ल की जितनी अहमियत होगी उसके ज़रिये की गयी इबादत की अहमियत भी उतनी ही होगी। लिहाज़ा इबादत की ्हमियत का मेयार पहले दर्जे में इबादत करने वाले की अक़्ल से मुरतबित है। इससे मालूम होता है कि अक़्ल व ख़िरद यानी ग़ौर व फ़िक्र का मक़ाम बहुत ऊँचा है।
दूसरी यह कि इंसान ने अपनी एक मुस्तक़िल नो बनाई है और ख़ुद को हैवानात के ज़ुमरे से बाहर निकाला है। ज़ाहिर है कि इस इस्तक़लाल की इल्लत व वजह इंसान की फ़िक्र करने की कूवत है। यानी इंसान में अक़्ल व ख़िरद की ताक़त इतनी है कि इसी ताक़त के बल बूते पर उसने अपने लिए हैवाने नातिक़ नामी एक मुस्तक़िल नो बनाली है। यह बात भी ज़ाहिर है कि नातिक़ होने से मुराद ग़ौर व फ़िक्र करना है। लिहाज़ा जो अफ़राद ग़ौर व फ़िक्र के मैदान से दूर रहते हैं वह रस्मी तौर पर तो इंसान गिने जाते है मगर उन्हें अपनी इंसानियत से कोई फ़ायदा नही होता।
दूसरी तरफ़ आदमी ग़ौर व फ़िक्र की ताक़त में जितना ज़्यादा सरशार होगा उसका इंसान कहलाना उतना ही ज़्यादा सही होगा। इसी लिए जिन लोगों ने अपनी ख़ुदा दाद अक़्ल से काम नही लिया है क़ुराने करीम में उन्हें हैवानात के ज़ुमरे में शुमार किया है बल्कि हैवानात से भी पस्ततर व बे अहमियत।
आख़िर में इस अहम नुक्ते की तरफ़ इशारा करते हैं कि औलाद की तरबियत में ख़ास तौर पर जवान लड़को लड़कियों की तरबियत में माँ बाप का किरदार बहुत अहम है। क्योंकि सभी लड़के और लड़कियाँ जब बालिग़ होने के क़रीब पहुँचते हैं या ताज़े बालिग़ हुए होते हैं तो वह जज़बात और एहसासात से सरशार होते हैं। ऐसे वक़्त में समाजी मसाइल में उनकी रहनुमाई करना और उन्हें ग़ैर व फ़िक्र के मैदान में दाख़िल करना एक सख़्त काम होता है।
हमें याद रखना चाहिए कि माँ बाप को अपने बच्चों से यह उम्मीद नही रखनी चाहिए कि वह अपने रोज़ मर्रा के कामों को बुज़ुर्गों की तरह अक़्ल व फ़िक्र के मीज़ान पर परखने के बाद अंजाम दें। क्योंकि जवानों के जज़बात को बिल्कुल नज़र अन्दाज़ नही किया जा सकता है बल्कि उनके अन्दर तदरीजन ग़ौर व फ़िक्र करने का शौक़ पैदा किया जाये और थोड़ा वक़्त गुज़रने का भी इन्तेज़ार किया जाये ताकि हमारे बच्चे अपने जज़बात को मोतदिल करके अपनी अक़्ल को पुख़्ता बनालें।
हमें यह बात नही भूलनी चाहिए कि जब हम अपनी औलाद की उम्र में थे तो हम भी जज़बात से खाली नही थे। हमें भी समाजी ज़िन्दगी के तजरबों ने ही जीने का अंदाज़ सिखाया। दूसरे लफ़ज़ों में यह कहा जा सकता है कि तमाम बातों को घर व मदरसे के अन्दर नही सीखा जा सकता है, बल्कि कुछ बातें हम समाज में रह कर ही सीखते हैं।