قرآن کریم : تلك حدود الله فلا تعتدوها و من يتعد حدود الله فاولئك هم الظالمون
क़ुरआने मजीद : यह अल्लाह की हुदूद हैं इनसे आगे न बढ़ो जो आल्लाह की हुदूद से आगे बढ़े वह सब ज़ालेमीन में से हैं।
सूरए बक़रः आयत न. 229
अगर हम यह मानलें कि यह पूरी ज़मीन एक इंसान के हाथ में है तो इसमें कोई शक नही है कि वह इंसान ज़िन्दगी के हर पहलु में बहुत ज़्यादा आज़ाद होगा। जहाँ उसका दिल चाहेगा मकान बनायेगा, जिस हिस्से में चाहेगा खेती करेगा, जिस जगह बाग़ लगाना चाहेगा लगा लेगा क्योंकि वह ज़मीन पर रहने वाला तन्हा इंसान होगा। लेकिन इसके बावजूद भी वह खाने पीने, काम करने वग़ैरा में महदूद ही रहेगा। इस बिन पर अगर इंसान इस ज़मीन पर तन्हा रहेगा तब भी उसे मजबूरन कुछ हुदूद की रिआयत करनी होगी। क्योंकि वह उस हालत में किसी ख़ास जगह पर आराम करने और कुछ खास चीज़े खाने पर मजबूर होगा। इस मुक़द्दमे से यह बात ज़ाहिर होती है कि समाजी ज़िन्दगी में सबसे पहली ज़रूरत एक क़ानूनी ज़िन्दगी की है। दूसरे लफ़्ज़ों में इस तरह कहा जा सकता है कि जब इंसान की फ़रदी ज़िन्दगी इजतेमाई ज़िन्दगी में तबदील हो जाती है तो इंसानों के इख़्तियार महदूद हो जाते हैं क्योंकि समाज में एक निज़ाम व क़ानून का दौर दौरा हो जाता है।
इस अस्ले अव्वल के लिहाज़ से इजतेमाई ज़िन्दगी से जो चीज़ वुजूद में आती है, वह क़ानूनी ज़िन्दगी व हद व हुदूद की रिआयत है, चाहे यह इजतेमा दो इंसानों पर ही मुशतमिल हो। मिसाल के तौर पर अगर पूरी ज़मीन पर फ़क़त दो इंसान रहे तो उनकी ज़िम्मेदारी है कि वह क़ानून के मुताबिक़ ज़िन्दगी बसर करें, यानी उनमें से हर एक की ज़िम्मेदारी है कि अपनी हद व हुदूद की रिआयत करें और अपनी हद से आगे न बढ़ें।
लिहाज़ा इजतेमाई ज़िन्दगी का बुनियादी मसला क़ानून की ज़रूरत और उनकी रिआयत है।
ख़ुदा वन्दे आलम ने इस बारे में फ़रमाया है कि जो हुदूद से आगे बढ़े उसने खुद अपने ऊपर ज़ुल्म किया है। जाहिर है कि एक बेक़ानूनी समाज़ को मफ़लूज बना देती है और जब समाज मफ़लूज हो जायेगा तो उसका नुक़्सान समाज के हर फ़र्द होगा। लिहाज़ा जो लोग क़ानून तोड़ते हैं, वह हक़ीक़त में अपने ऊपर ज़ुल्म करते हैं। इस लिए आराम व सुकून पाने के लिए समाज के हर फ़र्द को क़ानून का एहतेराम करते हुए उसकी पैरवी करनी चाहिए।
अफ़सोस है कि बाज़ समाज में समाजी ज़िन्दगी तो पाई जाती हैं लेकिन उनके अफ़राद को क़ानून की रिआयत की मालूमात नही है। इससे मालूम होता है कि उनका समाज तरकीब के लिहाज़ से तो इजतेमाई हो गया है लेकिन उसके अफ़राद में अभी तक इजतेमाई ज़िन्दगी की क़ाबिलियत पैदा नही हुई है। दूसरे लफ़ज़ों में इस तरह कहा जा सकता है कि ऐसा समाज उस इंसान की तरह है जिसने जिस्मानी एतेबार से तो रुश्द कर लिया हो लेकिन अक़्ली व फ़िक्री एतेबार से रुश्द के मरहले तक न पहुँचा हो।
इस तरह के समाज़ में क़ानून तोड़ने की आदत पाई जाती है। ज़ाहिर है कि इंसानों के ज़ाती फ़ायदे इस बात का सबब बनते हैं कि ज़वाबित को नज़र अंदाज़ करके रवाबित को नज़र में रखा जाता है। इसे उसे देख कर क़ानून की रिआयत किये बिना अपना काम करने की कोशिश की जाती है। इस तरह के अफ़राद अपने फ़ायदे के लिए समाजी निज़ाम व ज़वाबित को पामाल करके रवाबित से काम निकालते है।
आज एक ऐसी मुश्किल को हल करने की सआदत हासिल की है जो न ताग़ूत के ज़माने में हल हुई थी और न अब तक जमहूरी इस्लामी के दौर में और वह है ट्रैफिक की मुश्किल। आज तेहरान शहर में कुछ गिने चुने हज़रात के अलावा बाक़ी लोग ड्राइविंग के क़ानूनों की रिआयत नही करते। बल्कि हालत यह है कि ड्राइवर हर तरह की ख़िलाफ़ वरज़ी करते हुए आपना रास्ता साफ़ करके आगे बढ़ने की कोशिश करता है। जबकि ट्रैफ़िक पुलिस के अफ़सर क़ानूनों की ख़िलाफ़ वरज़ी करने वाले ड्राइवरों पर जुर्माना जहाँ तहाँ नक़द जुर्माना करते रहते हैं, लेकिन इसके बावजूद भी ड्राइवर ख़िलाफ़ वरज़ी करते रहते हैं। याद रखना चाहिए कि जुर्माने या जेल की सज़ा के ज़रिये किसी को क़ानून का ताबे नही बनाया जा सकता, बल्कि इसके लिए ज़रूरी है कि उसकी समाजी फ़िक्र को इतना वसी बना देना चाहिए कि उसके अन्दर क़ानून की पैरवी करने का जज़बा पैदा हो जाये। कोई ऐसा काम करना चाहिए कि ड्राइवर मुकम्मल तौर पर क़ानूनों की रिआयत करने पर ईमान ले आयें ताकि बाद में पुलिस के मौजूद रहने और जुर्माना करने की ज़रूरत न रहे। ड्राइवर अपने दिल के उस ईमान की वजह से ख़िलाफ़ वरज़ी की तरफ़ मायल न हों।
समाजी ज़िन्दगी यानी शख़्सी उम्मीदों की नफ़ी
हमारे समाज में कुछ अफ़राद को छोड़ कर सभी में तवक़्क़ो पाई जाती है। लोग, ख़ुद को समाज के दूसरे लोगों से बड़ा मानते हुए यह चाहते हैं कि सब काम ताल्लुक़ात की बिना पर हल हो जायें। इस तरह के लोग अपने आपको सबसे अलग समझते हैं और किसी भी समाजी पहलु में क़ानून की रिआयत नही करते और क़ानून तोड़कर अपनी चाहत को पूरा करते हैं। लोगों का यह रवैया इस बात की हिकायत करता है कि क़ानून कमज़ोर लोगों के लिए है, उन्हें हुकूमत के तमाम ख़र्चों को पूरा करना चाहिए और बदले में क़ानून की रिआयत भी। हक़ीक़त यह है कि क़ानून तोड़ने वाले अफ़राद ख़ुद को समाज के आम लोगों से बड़ा समझते हैं और अपने लिए एक ख़ास वज़अ के क़ायल होते हैं। उनका यह रवैया राजा, प्रजा और ग़ुलाम व मालिक के निज़ाम से पनपा है। आज इस्लाम तमाम लोगों को क़ानून के सामने बराबर समझता है और किसी को भी यह हक़ नही देता कि वह ख़ुद को किसी तरह भी दूसरों से बड़ा समझे। इस्लाम ने तबईज़ के तमाम अवामिल को इंसानों के दरमियान से ख़त्म करके तमाम मख़लूक़ को बराबर कर दिया है। जिस तरह इबादत में समाज का एक आली इंसान (ज़िम्मेदारी के एतेबार से) नमाज़े जमाअत की पहली सफ़ में खड़ा हो सकता है इसी तरह समाजके एक सादे इंसान को भी उसकी बराबर में खड़े होकर नमाज़ पढ़ने का पूरा पूरा हक़ है। दूसरी जंगे जहानी के दौरान मग़रिबी मुमालिक के एक अख़बार में एक तस्वीर छपी जिसमें यह दिखाया गया कि ब्रितानी वज़ीरे आज़म लाइन में खड़ा अपनी बारी का इंतेज़ार कर रहा है ताकि अपने हिस्से का खाना ले सके। किसी भी समाज का तकामुल व तरक़्क़ी क़ानून व मुक़र्रेरात की रिआयत में नहुफ़्ता हैं। जिस मुआशरे की समाजी सतह और नज़रियात ऊँचे होते हैं उसमें वसी पैमाने पर क़ानून की पैरवी का जज़्बा पाया जाता है। आख़िर में हम कह सकते हैं कि क़ानून तोड़ना जहाँ एक ग़ैरे इंसानी अमल है, वहीँ इस्लाम की नज़र में दूसरों के हुक़ूक़ की पामाली है। इस्लामी अहकाम में मिलता है कि अगर कोई इंसान नमाज़ की सफ़ में अपनी जानमाज़ बिछादे तो फिर दूसरों को वहाँ नमाज़ पढ़ने और अल्लाह की इबादत करने का हक़ नही है।