एक बार हज के समय बसरा शहर से लोगों का गुट हज के लिए मक्का गया।
जब वे लोग मक्का पहुंचे तो देखा कि मक्कावासियों को बहुत कठिनाइयों का सामना है। मक्के में पानी की बहुत कमी थी। मौसम बहुत गर्म था और पानी कमी की वजह से मक्कावासी बहुत परेशान थे। बसरा के कुछ लोग काबे के पास गए ताकि परिक्रमा करें। उन्होंने ईश्वर से बहुत गिड़गिड़ा के दुआ कि वह मक्कवासियों के लिए अपनी कृपा से वर्षा भेजे। उन्होंने बहुत दुआ की लेकिन उनकी दुआ क़ुबूल होने का कोई चिन्ह ज़ाहिर न हुआ। लोग बेबस थे। समझ में नहीं आ रहा था कि क्या करें। उस दौरान एक जवान काबे की ओर बढ़ा। उस जवान ने कहाः ईश्वर जिसे दोस्त रखता है उसकी दुआ स्वीकार करेगा। यह कहकर जवान काबे के पास गया। अपना माथा सजदे में रखा और ईश्वर से दुआ की।
वह जवान सजदे में ईश्वर से कह रहा थाः "हे मेरे स्वामी! तुम्हें मेरी मित्रता की क़सम इन लोगों की बारिश के पानी से प्यास बुझा दे।" अभी जवाब की दुआ पूरी भी न हुयी था कि मौसम बदलने लगा। बादल ज़ाहिर हुआ और बारिश होने लगी। बारिश इतनी मुसलाधार हो रही थी मानो मश्क से पानी बह रहा हो। जवान ने सजदे से सिर उठाया। एक व्यक्ति ने उस जवान से कहाः हे जवान! आपको कहां से पता चला कि ईश्वर आपको दोस्त रखता है, इसलिए आपकी दुआ क़ुबूल करेगा।
जवान ने कहाः चूंकि ईश्वर ने मुझे अपने दर्शन के लिए बुलाया था, इसलिए मैं समझ गया कि वह मुझे दोस्त रखता है। इसलिए मैंने ईश्वर से अपनी दोस्ती के अधिकार के तहत बारिश का निवेदन किया और मेहरबान ईश्वर ने मेरी दुआ सुन ली। यह कह कर जवान वहां से चला गया।
बसरावासियों में से एक व्यक्ति ने पूछाः हे मक्कावासियो! क्या इस जवान को पहचानते हो? लोगों ने कहाः ये पैग़म्बरे इस्लाम के परपौत्र अली बिन हुसैन अलैहिस्सलाम हैं।
ईश्वर के घर के सच्चे दर्शनार्थी उसकी कृपा के पात्र होते हैं और ईश्वर उनकी दुआ क़ुबूल करता है।
पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल लाहो अलैहि व आलेही व सल्लम ने फ़रमायाः "जो भी काबे को उसके अधिकार को समझते हुए देखे तो ईश्वर उसके पापों को क्षमा कर देता है और जीवन के ज़रूरी मामलों को हर देता है। जो कोई हज या उम्रा अर्थात ग़ैर अनिवार्य हज के लिए अपने घर से निकले, तो घर से निकलने के समय से लौटने तक ईश्वर उसके कर्म पत्र में दस लाख भलाई लिखता और 10 लाख बुराई को मिटा देता है।"
पैग़म्बरे इस्लाम आगे फ़रमाते हैः "और वह ईश्वर के संरक्षण में होगा। अगर इस सफ़र में मर जाए तो ईश्वर उसे स्वर्ग में भेजेगा। उसके पाप माफ़ कर दिए गए, उसकी दुआ क़ुबूल होती है तो उसकी दुआ को अहम समझो क्योंकि ईश्वर उसकी दुआ को रद्द नहीं करता और प्रलय के दिन ईश्वर उसे एक लाख लोगों की सिफ़ारिश करने की इजाज़त देगा।"
कार्यक्रम के इस भाग में इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के जीवन के अंतिम हज के बारे में बताएंगे जो पूरा नहीं हो पाया था।
यह साठ हिजरी का समय था। यज़ीद बिन मोआविया सिंहासन पर बैठा था। उसके एक हाथ में शराब का जाम होता था तो दूसरे हाथ से वह अपने बंदर के सिर को सहलाता था जिसे वह अबाक़ैस के नाम से पुकारता था। यज़ीद बंदर को इतना पसंद करता था कि उसे रेशन के कपड़े पहनाता था। उसे दूसरों से ऊपर अपने बग़ल में बिठाता था। यज़ीद भी अपने बाप मुआविया की तरह बादशाही क़ायम करने की इच्छा रखता था लेकिन उसके विपरीत वह इस्लाम के आदेश का विदित रूप से भी पालन नहीं करता था। इस्लामी जगत के लोग इसलिए सीरिया या बग़दाद की हुकुमत का पालन करते थे कि उसे इस्लामी ख़िलाफ़त समझते थे लेकिन दूसरे के मुक़ाबले में यज़ीद का मामला अलग था। वह ज़ाहिरी तौर पर भी इस्लामी आदेशों का पालन करने के लिए तय्यार नहीं था और खुल्लम खुल्लम इस्लाम के आदेशों का उल्लंघन करता था।
मोआविया ने 15 रजब सन 60 हिजरी में दुनिया से जाने से पहले बहुत कोशिश की कि कूफ़ा और मदीना के लोगों से अपने बेटे यज़ीद के आज्ञापालन का वचन ले ले मगर इसमें उसे कामयाबी न मिल सकी। वह मदीना के कुलीन वर्ग के लोगों के पास गया और अपनी मीठी मीठी बातों से इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम, अब्दुल्लाह बिन ज़ुबैर और अब्दुल्लाह बिन उमर से जिनका मदीनावासी सम्मान करते थे, यज़ीद की आज्ञापालन का प्रण लेने की कोशिश की लेकिन इन लोगों ने इंकार कर दिया। मोआविया ने अपनी मौत के वक़्त यज़ीद को नसीहत करते हुए कहाः "हुसैन बिन अली अलैहिस्सलाम के साथ नर्म रवैया अपनाना। वह पैग़म्बरे इस्लाम की संतान हैं और मुसलमानों में उनका ऊंचा स्थान है।" मोआविया जानता था कि अगर यज़ीद ने हुसैन बिन अली अलैहिस्सलाम से दुर्व्यवहार किया और अपने हाथ को उनके ख़ून से साना तो वह हुकूमत नहीं कर पाएगा और सत्ता अबू सुफ़ियान के परिवार से निकल जाएगी। यज़ीद खुल्लम खुल्ला पाप करता था, वह भोग विलास के माहौल में पला बढ़ा था और इन्हीं चीज़ों में वह मस्त रहता था। उसमें राजनीति की समझ न थी। वह जवानी व धन के नशे में चूर था।
मोआविया की मौत के बाद यज़ीद ने अपने पिता की नसीहत के विपरीत मदीना के गवर्नर को एक ख़त लिखा जिसमें उसने अपने पिता की मौत की सूचना दी और उसे आदेश दिया कि वह मदीना वासियों से उसके आज्ञापालन का प्रण ले जिसे बैअत कहते हैं। यज़ीद ने मदीना के राज्यपाल को लिखा कि हुसैन बिन अली से भी आज्ञापालन का प्रण लो अगर वह प्रण न लें तो उनका सिर क़लम करके मेरे पास भेज दो। मदीना के राज्यपाल ने हुसैन बिन अली अलैहिस्सलाम को अपने पास बुलवाया और उन्हें मोआविया की मौत की सूचना दी और उनसे कहा कि वह यज़ीद के आज्ञापालन का प्रण लें। इसके जवाब में इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम ने फ़रमायाः "हे शासक! हम पैग़म्बरे इस्लाम के ख़ानदान से हैं। वह ख़ानदान जिनके घर फ़रिश्तों के आने जाने का स्थान है। यज़ीद शराबी, क़ातिल और खुल्लम खुल्ला पाप करता है। खुल्लम खुल्ला अपराध करता है। मुझ जैसा उस जैसे का आज्ञापालन नहीं कर सकता।" इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम ने मदीना छोड़ने कर मक्का जाने का फ़ैसला किया। वह 28 रजब सन 60 हिजरी को मदीने से मक्का चले गए।
कूफ़े के लोगों को इस बात का पता चल गया कि पैग़म्बरे इस्लाम के नाति हुसैन बिन अली अलैहिस्सलाम ने यज़ीद की आज्ञापालन का प्रण लेने से इंकार किया है। इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के अनुयाइयों ने उन्हें बहुत से ख़त लिखे और उनसे कूफ़ा आने का निवेदन किया। कूफ़ेवासियों ने अपने ख़त में लिखाः "हमारी ओर आइये हमने आपकी मदद के लिए बहुत बड़ा लश्कर तय्यार कर रखा है।" 8 ज़िलहिज सन 60 हिजरी को उमर बिन साद एक बड़े लश्कर के साथ मक्के में दाख़िल हुआ। उसे हुसैन बिन अली अलैहिस्सलाम को हज के दौरान जान से मारने के लिए कहा गया था। 8 ज़िलहिज जिसे तरविया दिवस कहा जाता और इस दिन हाजी अपना हज शुरु करते हैं, इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम अपने हज को उम्रे से बदल कर मक्के से निकलने पर मजबूर हुए ताकि पवित्र काबे का सम्मान बना रहे। दूसरी बात यह कि अगर इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम हज के दौरान क़त्ल हो जाते तो लोग यह न समझ पाते कि उन्हें अत्याचारी यज़ीद का आज्ञापालन न करने की वजह से शहीद किया गया है।
इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम जानते थे कि कूफ़ावासी वचन के पक्के नहीं हैं। वह जानते थे कि उनका अंजाम शहादत है लेकिन वह यज़ीद जैसे अत्याचारी की हुकूमत के संबंध में चुप नहीं रह सकते थे। उन्होंने मक्के से निकलने से पहले अपना वसीयत नामा अपने भाई मोहम्मद बिन हन्फ़िया को दिखा जिसमें आपने फ़रमायाः "लोगो! जान लो कि मै सत्तालोभी, भ्रष्ट व अत्याचारी नहीं हूं और न ही ऐसा कोई लक्ष्य रखता हूं। मेरा आंदोलन सुधार लाने के लिए है। मैं उठ खड़ा हुआ हूं ताकि अपने नाना के अनुयाइयों को सुधारूं। मैं भलाई का आदेश देना और बुराई से रोकना चाहता हूं।" इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम ने मक्के से निकलते वक़्त लोगों से बात की और अपनी बातों से उन्हें समझाया कि उन्होंने यह मार्ग पूरी सूझबूझ से चुना है और जानते हैं कि इसका अंजाम ईश्वर के मार्ग में शहादत है। जो लोग इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम की मदद करना चाहते थे वे उनसे रास्ते में कहते रहते थे कि इस आंदोलन का अंजाम सत्ता की प्राप्ति नहीं है।
इसलिए इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम अपने साथ चलने वालों से कहते थे "आपमें से वहीं मेरे साथ चले जो अपनी जान को ईश्वर के मार्ग में क़ुर्बान करने और उससे मुलाक़ात करने का इच्छुक हो।"
यह वादा कितनी जल्दी पूरा हुआ और 10 मोहर्रम सन 61 हिजरी क़मरी को आशूर के दिन इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम अपने साथियों के साथ ईश्वर के मार्ग में शहीद हो गए लेकिन अत्याचार को सहन न किया। श्रोताओ! इन्हीं हस्तियों पर पवित्र क़ुरआन के क़मर नामक सूरे की आयत नंबर 54 और 55 चरितार्थ होती है जिसमें ईश्वर कहता हैः "निःसंदेह सदाचारी स्वर्ग के बाग़ में रहेंगे। उस पवित्र स्थान पर जो सर्वशक्तिमान ईश्वर के पास है।"