हज एक ऐसी सर्वाधिक वैभवशाली व प्रभावी उपासना है जिसे ईश्वर की पहचान की दृष्टि से अनुपम रहस्यों और तत्वदर्शिताओं का स्वामी कहा जा सकता है। हज के संस्कार नैतिक सदगुणों का प्रतिबिंबन हैं। ये संस्कार, ईश्वर से सामिप्य तथा आत्मा के प्रशिक्षण एवं शुद्धि के सबसे अच्छे गंतव्य का मार्ग बन सकते हैं। ये पावन संस्कार, ईश्वर की बंदगी और विनम्रता के सुंदरतम दृश्य हैं। इस संबंध में ईरान के एक उच्च धर्मगुरू मीरज़ा जवाद मलेकी तबरेज़ी लिखते हैं। हज्ज और अन्य उपासनाओं का वास्तविक लक्ष्य आध्यात्मिक आयाम को सुदृढ़ बनाना है ताकि मनुष्य भौतिक चरण से आध्यात्मिक चरण की ओर बढ़े तथा ईश्वर की पहचान, उससे मित्रता और लगाव को अपने भीतर उत्पन्न करे और इस प्रकार उसके प्रिय बंदों की परिधि में आ जाए।
हज की एक महत्वपूर्ण तत्वदर्शिता, ईश्वर की बंदगी को परखना और मनुष्य के भीतर इस भावना को सुदृढ़ बनाना है। अब लोग मीक़ात में हज का सफ़ेद एहराम पहन कर एक साथ और समान रूप से मक्के की ओर प्रस्थान के लिए तैयार हैं। एक भी व्यक्ति किसी दूसरे रंग का वस्त्र धारण नहीं किए हुए है। लब्बैक अल्लाहुम्मा लब्बैक अर्थात प्रभुवर! मैं तेरी पुकार का उत्तर देने के लिए तत्पर हूं कि आवाज़ें सभी हाजियों की ज़बान पर हैं। पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम ने लब्बैक कहने के पुण्य के बारे में कहा है कि जो कोई किसी दिन सूर्यास्त तक लब्बैक कहे तो उसके सारे पाप समाप्त हो जाते हैं और वह उस दिन की भांति हो जाता है जब उसकी मां ने उसे जन्म दिया था।
मीक़ात में एहराम पहनने के बाद हाजी, मक्का नगर में प्रविष्ट होता है। यह नगर ईश्वर के प्रिय फ़रिश्ते जिब्रईल की आवाजाही का स्थल और महान पैग़म्बरों की उदय स्थली है। ईश्वर के अंतिम पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम ने का प्रकाश भी इसी नगर से पूरे संसार में फैला था और ईश्वर का संपूर्ण धर्म इस्लाम भी इसी नगर से संसार के अन्य क्षेत्रों तक गया था। पैग़म्बरे इस्लाम को अबू सुफ़यान व अबू जहल सरीखे लोगों के हाथों मक्का नगर में कितने कष्ट व कठिनाइयां सहन करनी पड़ी थीं किंतु वे अपने मार्ग से डिगे नहीं और उन्होंने इस्लाम की कोंपल को एक मज़बूत पेड़ में परिवर्तित कर दिया। हज के लिए जाने वाले लोग मक्का नगर में प्रवेश के बाद मस्जिदुल हराम पहुंचते हैं जिसके बीच काबा स्थित है, इस प्रकार वे ईश्वर द्वारा सुरक्षित किए गए स्थान पर क़दम रखते हैं, यह वह स्थान है जहां हर कोई सुरक्षित है, चाहे वह मनुष्य हो, पशु हो या फिर पेड़ पौधा ही क्यों न हो, यहां हर व्यक्ति व हर वस्तु सुरक्षित है क्योंकि यहां हर वस्तु ईश्वर की शरण में है।
अब वह समय निकट है जिसकी सबको प्रतीक्षा है। सभी के हृदय, ईश्वर के घर को देखने के लिए बेताब हैं, तड़प रहे हैं। काबे पर दृष्टि डाल कर हृदय में उसकी महानता का आभास होना चाहिए। काबा, ईश्वर का घर, एकेश्वरवादियों के मन में बसा हुआ है। उसका अनुपम आकर्षण एक मज़बूत चुंबक की भांति दिलों को अपनी ओर खींचता है और हाजियों के तन मन उसकी प्रक्रिमा के लिए मचलने लगते हैं। काबा वह घर है जिसे ईश्वर ने हृदयों की शांति के लिए बनाया है। अधिकांश ऐतिहासिक स्रोतों के अनुसार इसका निर्माण प्रथम इंसान हज़रत आदम अलैहिस्सलाम के काल में हुआ था। उन्होंने काबे का निर्माण करने के बाद उसका तवाफ़ किया अर्थात उसकी परिक्रमा की। इसका अर्थ यह है कि यह घर हज़रत इब्राहीम अलैहिस्सलाम से पूर्व ही, हज़रत आदम के धरती पर आने के समय ईश्वर की उपासना व गुणगान के लिए चुना जा चुका था। इस स्थान पर ईश्वर के अनेक पैग़म्बरों ने उपासना की है। ईश्वर ने हज़रत इब्राहीम अलैहिस्सलाम को दायित्व सौंपा कि वे एकेश्वरवाद के जलवे के रूप में काबे का पुनर्निर्माण करें तथा लोगों को ईश्वर की उपासना के लिए वहां बुलाएं। उन्होंने अपनी पत्नी और पुत्र को एकेश्वरवाद के घर के निकट बसाया ताकि वे वहां नमाज़ स्थापित करें और यह घर पूरे संसार के एकेश्वरवादियों का ठिकाना रहे।
काबा, पत्थरों से बना एक चौकोर घर है। इसकी ऊंचाई लगभग पंद्रह मीटर, लम्बाई बारह मीटर और चौड़ाई दस मीटर है। यह घर एक बड़े आंगन में स्थित है जिसे चारों ओर से मस्जिदुल हराम ने घेर रखा है। काबा, ख़ानए ख़ुदा, बैतुल्लाह या ईश्वर का घर हर प्रकार की सजावट और आभूषणों से रिक्त है। आज उसके चारों ओर बनाई जाने वाली शानदार इमारतों के विपरीत काबा एक बहुत ऊंची व सुंदर इमारत नहीं है बल्कि बड़ी ही सादा किंतु दिल में उतर जाने वाली इमारत है। इस इमारत का वैभव इसकी सादगी में है। हज़रत अली अलैहिस्सलाम काबे के बारे में कहते हैं कि ईश्वर ने अपने घर को, जो लोगों की सुदृढ़ता का कारण है, धरती के सबसे अधिक कड़े पत्थरों पर रखा जो ऊंची भूमियों से सबसे कम उपजाऊ है, जो फैलाव की दृष्टि से सबसे अधिक संकरी घाटी है, उसे कठोर पहाड़ों और नर्म रेतों, कम पानी वाले सोतों और एक दूसरे से कटे गांवों के मध्य रखा। फिर उसने आदम और उनके बेटों को आदेश दिया कि वे उस पर इमारत बनाएं, अपने हृदयों को उसकी ओर आकृष्ट रखें तथा ला इलाहा इल्लल्लाह कहते हुए उसकी परिक्रमा करें। यदि ईश्वर चाहता तो अपने सम्मानीय घर को संसार के सबसे उत्तम स्थान पर और हरे पन्ने एवं लाल मणि से बना सकता था किंतु ईश्वर तो अपने दासों की विभिन्न दुखों द्वारा परीक्षा लेता है, उन्हें विभिन्न प्रकार की कठिनाइयों द्वारा सुधारता है और उन्हें विभिन्न प्रकार की अप्रिय दशाओं में ग्रस्त करता है ताकि उनके हृदय से घमंड निकल जाए और विनम्रता उनके मन में समा जाए।
ईरान के एक प्रख्यात धर्मगुरू मुल्ला महदी नराक़ी काबे के निकट हाजियों के जमावड़े के बारे में लिखते हैं कि ईश्वर ने काबे का संबंध स्वयं से जोड़ कर उसे प्रतिष्ठा प्रदान की, उसे अपने दासों की उपासना के लिए चुना, उसके आस-पास के क्षेत्र को अपना सुरक्षित ठिकाना बनाया और वहां शिकार करने और पेड़-पौधों को तोड़ने को वर्जित करके अपने घर के सम्मान में वृद्धि की। उसने इस बात को आवश्यक बनाया कि उसके घर के दर्शन को आने वाले दूर से ही उसका संकल्प करें तथा घर के मालिक के प्रति विनम्रता प्रकट करें और उसकी महानता व सम्मान के समक्ष स्वयं को हीन समझें।
काबे की सबसे बड़ी प्रतिष्ठा यह है कि यह घर, एकेश्वरवाद का घर है और इसे बनाने और बाक़ी रखने में ईश्वरीय भावना के अतिरिक्त किसी भी अन्य भावना की कोई भूमिका नहीं रही है। हाजी, ऐसे घर की परिक्रमा करते हैं जो फ़रिश्तों की परिक्रमा का स्थान है और ईश्वर के पैग़म्बरों तथा अन्य प्रिय बंदों ने इसके निकट ईश्वर का गुणगान किया है। काबे का दर्शन, जिसके आधारों को हज़रत इब्राहीम अलैहिस्सलाम ने सुदृढ़ किया है, मनुष्य के कंधों पर एकेश्वरवादी विचारधारा की रक्षा तथा अनेकेश्वरवाद के प्रतीकों से संघर्ष का दायित्व डालता है। काबा, इस्लामी उपासनाओं तथा मुसलमानों के सामाजिक जीवन में मूल भूमिका का स्वामी है। मुसलमान प्रतिदिन पांच बार काबे की ओर मुख करके नमाज़ अदा करते हैं। संसार के दसियों करोड़ मुसलमान जब एक निर्धारित समय में और एक निर्धारित दिशा में एक साथ नमाज़ अदा करते हैं तो इससे उनके बीच समरसता उत्पन्न होती है और उनके हृदय एक दूसरे के निकट आते हैं। ईश्वर ने मुसलमानों से कहा है कि वे संसार के जिस स्थान पर भी रहें काबे की ओर उन्मुख हों क्योंकि इस घर को सभी एकेश्वरवादियों की एकता का केंद्र होना चाहिए। ईश्वर की बंदगी का सबसे सुंदर दृश्य, काबे की परिक्रमा के रूप में सामने आता है। पैग़म्बरे इस्लाम हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम का कथन है कि जो कोई सात बार काबे की परिक्रमा करे तो उसके हर क़दम के बदले में एक पुण्य लिखा जाता है, उसके एक पाप को समाप्त कर दिया जाता तथा उसका एक दर्जा बढ़ जाता है।
काबे की परिक्रमा हर समय जारी रहती है। काबे के चारों ओर रोते और गिड़गिड़ाते हुए लोगों के हाथ ईश्वर से प्रार्थना के लिए उठे रहते हैं। मनुष्य स्वयं को, लोगों के उमंडते हुए सागर में खो देता है, एक बूंद की भांति इस सागर में समा जाता है तथा केवल ईश्वर की खोज में रह कर अपनी वास्तविक पहचान को प्राप्त करता है। काबे को ध्रुव बनाने और उसकी परिक्रमा का सबसे महत्वपूर्ण संदेश यह है कि मनुष्य के जीवन में ईश्वर और उसकी प्रसन्नता, हर वस्तु का आधार है। यही कारण है कि हाजी, ईश्वर के घर के समक्ष विनम्रता से शीश नवाता है। इमाम ख़ुमैनी रहमतुल्लाह अलैह काबे की परिक्रमा का लक्ष्य मोहमाया से स्वतंत्रता को बताते हुए लिखते हैं कि ईश्वर के घर की परिक्रमा में, जो ईश्वर से प्रेम व लगाव का चिन्ह है अपने मन को दूसरी सभी बातों से रिक्त करना चाहिए, दूसरों से भय से अपने हृदय को पवित्र करना चाहिए और ईश्वर से प्रेम के साथ ही अत्याचारी शासकों और उनके पिट्ठुओं जैसी छोटी बड़ी मूर्तियों से स्वयं की विरक्तता का प्रदर्शन करना चाहिए कि ईश्वर और उसके प्रिय बंदे भी उनसे विरक्त हैं।
इस प्रकार काबे की परिक्रमा के दौरान, मनुष्य एकेश्वरवाद की धुरी पर आ जाता है और हर प्रकार के अनेकेश्वरवाद व बुराई से दूर हो जाता है। वह अपने पूरे अस्तित्व के साथ चकोर की भांति सत्य के चंद्रमा की चारों और घूमने लगता है और हर प्रकार के दिखावे व अनेकेश्वरवाद से दूर होकर शुद्ध एकेश्वरवाद की ओर उन्मुख हो जाता है। इसके बाद वह नमाज़ पढ़ता है और अपने कृपाशील व अनन्य ईश्वर के समक्ष शीश नवा कर उसका गुणगान करता है। इसके बाद वह अपनी इस आध्यात्मिक यात्रा के अगले चरण के लिए तैयार हो जाता है।