हर आंदोलन और क्रांति के आरंभ और अंत का एक बिंदु होता है।
इस्लामी क्रांति की मुख्य चिंगारी भी उसकी सफलता से पंद्रह साल पहले वर्ष 1963 में फूटी थी। यद्यपि इमाम ख़ुमैनी रहमतुल्लाह अलैह का चेतनापूर्ण आंदोलन कुछ समय पहले ही शुरू हो चुका था लेकिन 1963 के जून महीने के आरंभ में ईरानी जनता का रक्तरंजित आंदोलन ही था जिसने अत्याचारी शाही सरकार के विरुद्ध उन्हें इस्लामी आंदोलन के नेता के रूप में पेश किया। अत्याचारी शाही सरकार के विरुद्ध इमाम ख़ुमैनी के पूरे संघर्षपूर्ण जीवन में 15 ख़ुर्दाद या पांच जून का आंदोलन एक अहम मोड़ समझा जाता है और इस्लामी क्रांति को इसी आंदोलन का क्रम बताया जाता है।
यह आंदोलन एक ऐसा संघर्ष था जिसके तीन अहम स्तंभ इस्लाम, इमाम ख़ुमैनी व जनता थे। यद्यपि जून 1963 के इस आंदोलन को बुरी तरह कुचल दिया गया और उसके एक साल बाद इमाम ख़ुमैनी को तुर्की और वहां से इराक़ निर्वासित कर दिया गया था लेकिन इसी आंदोलन के बाद ईरान में अत्याचारी शासक मुहम्मद रज़ा पहलवी और उसके अमरीकी समर्थकों के ख़िलाफ़ संघर्ष ने व्यापक रूप धारण कर लिया। पंद्रह ख़ुर्दाद के आंदोलन के अस्तित्व में आने की वजह ईरान में नहीं बल्कि ईरान के बाहर थी। 1960 में अमरीका में हुए राष्ट्रपति चुनाव के बाद, जिसमें डेमोक्रेट प्रत्याशी जॉन एफ़ केनेडी विजयी हुए थे, अमरीका की विदेश नीति में काफ़ी बदलाव आया।
केनेडी, रिपब्लिकंज़ के विपरीत तीसरी दुनिया में अपने पिट्ठू देशों के संकटों से निपटने के बारे में अधिक लचकपूर्ण नीति में विश्वास रखते थे। उनका मानना था कि अमरीका की पिट्ठू सरकारों में सैनिक समझौतों के बजाए आर्थिक समझौते किए जाने चाहिए, सेना के प्रयोग के बजाए सुरक्षा व गुप्तचर तंत्र को अधिक सक्रिय बनाना चाहिए, सांस्कृतिक कार्यक्रमों का प्रचलन किया जाना चाहिए, नियंत्रित चुनावों का प्रचार होना चाहिए और तय मानकों वाले प्रजातंत्र को प्रचलित किया जाना चाहिए। असैनिक पिट्ठू सरकारों को सत्ता में लाना इस लक्ष्य को पूरा करने के लिए केनेडी सरकार के मुख्य हथकंडों में शामिल था।
तत्कालीन ईरानी शासक मुहम्मद रज़ा पहलवी वर्ष 1953 में अमरीका व ब्रिटेन द्वारा ईरान में कराए गए विद्रोह और डाक्टर मुसद्दिक़ की सरकार गिरने के बाद अमरीका की छत्रछाया में आ गया था। उसके पास अपना शाही शासन जारी रखने और अमरीका को ख़ुश करने के लिए केनेडी की नीतियों को लागू करने और दिखावे के सुधार करने के अलावा और कोई मार्ग नहीं था। ये सुधार, श्वेत क्रांति के नाम से ईरानी समाज से इस्लाम को समाप्त करने और पश्चिमी संस्कृति को प्रचलित करने के उद्देश्य से किए जा रहे थे। इमाम ख़ुमैनी रहमतुल्लाह अलैह ने शाह के इस्लाम विरोधी षड्यंत्रों की ओर सचेत करते हुए देश की जनता को पिट्ठू सरकार की इन साज़िशों से अवगत कराने का प्रयास किया।
इमाम ख़ुमैनी के भाषणों के कारण श्वेत क्रांति के नाम से शाह के तथाकथित सुधारों के ख़िलाफ़ आपत्ति और विरोध की लहर निकल पड़ी। शाह ने कोशिश की कि फ़ैज़िया नामक मदरसे पर हमला करके और धार्मिक छात्रों व धर्मगुरुओं को मार पीट कर इन आपत्तियों को दबा दे लेकिन हुआ इसके विपरीत और उसकी इन दमनकारी नीतियों के कारण जनता के विरोध में और अधिक वृद्धि हो गई। तेहरान और ईरान के अन्य शहरों व ग्रामीण क्षेत्रों में हर दिन शाह के ख़िलाफ़ जुलूस निकलने लगे, दीवारों पर उसकी सरकार के ख़िलाफ़ क्रांतिकारी नारे लिखे जाने लगे और इमाम ख़ुमैनी के समर्थन में वृद्धि होने लगी। वर्ष 1342 हिजरी शमसी में आशूरा के दिन इमाम ख़ुमैनी ने फ़ैज़िया मदरसे में जो क्रांतिकारी भाषण दिया उसके बाद से जनता के आंदोलन में विशेष रूप से क़ुम, तेहरान और कुछ अन्य शहरों में वृद्धि हो गई।
शाह की सरकार और उसके इस्लाम विरोधी कार्यक्रमों में वृद्धि के बाद, शासन ने समझा के उसके पास इमाम ख़ुमैनी को गिरफ़्तार करने के अलावा कोई मार्ग नहीं है और उसने उन्हें गिरफ़्तार कर लिया। क़ुम नगर में इमाम ख़ुमैनी की गिरफ़्तारी के बाद इस नगर में और फिर तेहरान व अन्य नगरों में जनता के विरोध प्रदर्शनों में अभूतपूर्व वृद्धि हो गई। शाह की सरकार ने बड़ी निर्दयता व क्रूरता से इन प्रदर्शनों को कुचलने की कोशिश की और सैकड़ों लोगों का जनसंहार कर दिया जबकि हज़ारों लोगों को गिरफ़्तार किया गया। शाह सोच रहा था कि इमाम ख़ुमैनी और उनके साथियों को गिरफ़्तार और पंद्रह ख़ुर्दाद के आंदोलन का दमन करके उसने अपने विरोध को समाप्त कर दिया है।
यह ऐसी स्थिति में था कि इमाम ख़ुमैनी के रुख़ में कोई परिवर्तन नहीं आया था, उनकी लोकप्रियता में कमी नहीं आई थी और न ही लोग मैदान से हटे थे। इमाम ख़ुमैनी के, जो अब आंदोलन के नेता के रूप में पूरी तरह से स्थापित हो चुके थे, भाषण जारी रहे। इमाम ख़ुमैनी के नेतृत्व में क़ुम के उच्च धार्मिक शिक्षा केंद्र में जो आंदोलन आरंभ हुआ था, वह शाह की अत्याचारी सरकार की ओर से निर्दयतापूर्ण दमन के बावजूद समाप्त नहीं हुआ बल्कि वह ईरान की धरती में एक बीज की तरह समा गया जो पंद्रह साल बाद फ़रवरी 1979 में एक घने पेड़ की भांति उठ खड़ा हुआ और उसने ईरान में अत्याचारी तानाशाही व्यवस्था का अंत कर दिया।
इमाम ख़ुमैनी ने सन 1979 में इस्लामी क्रांति की सफलता के बरसों बाद पंद्रह ख़ुर्दाद के आंदोलन के बारे में कहा था कि यह आंदोलन इस वास्तविकता का परिचायक था कि अगर किसी राष्ट्र के ख़िलाफ़ कुछ तानाशाही शक्तियां अतिक्रमण और धौंस धांधली करें तो सिर्फ़ उस राष्ट्र का संकल्प है जो अत्याचारों के मुक़ाबले में डट सकता है और उसके भविष्य का निर्धारण कर सकता है। पंद्रह ख़ुर्दाद, ईरानी राष्ट्र का भविष्य बदलने का एक शुभ आरंभ था जो यद्यपि इस धरती के युवाओं के पवित्र ख़ून से रंग गया लेकिन समाज में राजनैतिक व सामाजिक जीवन की दृष्टि से एक नई आत्मा फूंक गया।
इस्लामी क्रांति के संस्थापक स्वर्गीय इमाम ख़ुमैनी ने इसी प्रकार कहा थाः पंद्रह ख़ुर्दाद के आंदोलन में जो चीज़ बहुत अहम है वह शाही सरकार की दिखावे की शक्ति का चूर चूर होना था जो अपने विचार में स्वयं को जनता का स्वामी समझ बैठी थी लेकिन एक समन्वित क़दम और एक राष्ट्रीय एकता के माध्यम से अत्याचारी शाही सरकार का सारा वैभव अचानक ही धराशायी हो गया और उसका तख़्ता उलट गया।
पंद्रह ख़ुर्दाद के आंदोलन ने इसी तरह शाह की सरकार से संघर्ष करने वाले इस्लामी धड़े और अन्य राजनैतिक धड़ों के अंतर को भी पारदर्शी कर दिया। यह आंदोलन ईरानी जनता के बीच एक ऐसे संघर्ष का आरंभ बन गया जो पूरी तरह से इस्लामी था। इस आंदोलन का इस्लामी होना, इसके नेता के व्यक्तित्व से ही पूरी तरह उजागर था क्योंकि इसके नेता इमाम ख़ुमैनी एक वरिष्ठ धर्मगुरू थे। इमाम ख़ुमैनी के नेतृत्व के कारण शाह की सरकार द्वारा बरसों से धर्म और राजनीति को अलग अलग बताने के लिए किया जा रहा कुप्रचार भी व्यवहारिक रूप से विफल हो गया और ईरान के मुसलमानों ने एक ऐसे संघर्ष में क़दम रखा जिस पर चलना उनके लिए नमाज़ और रोज़े की तरह ही अनिवार्य था।
इस्लाम, इस संघर्ष की विचारधारा था और इसके सिद्धांत, क़ुरआन और पैग़म्बर व उनके परिजनों के चरित्र से लिए गए थे। पंद्रह ख़ुर्दाद के आंदोलन की दूसरी विशेषता, शाह की सरकार से संघर्ष के इस्लामी आंदोलन के नेता के रूप में इमाम ख़ुमैनी की भूमिका का अधिक प्रभावी होना था। इमाम ख़ुमैनी के नेतृत्व ने राजनीति से धर्म के अलग होने के विचार को हमेशा के लिए समाप्त कर दिया। शाह की सरकार से संघर्ष में इमाम ख़ुमैनी का रुख़, संसार में साम्राज्य विरोधी वामपंथी व धर्म विरोधी संघर्षकर्ताओं जैसा नहीं था बल्कि उनके विचार में यह एक ईश्वरीय आंदोलन था जो धार्मिक दायित्व के आधार पर पूरी निष्ठा के साथ चलाया गया था। इस आंदोलन की तीसरी विशेषता इसका जनाधारित होना था। पंद्रह खुर्दाद के आंदोलन का संबंध किसी ख़ास वर्ग से नहीं था बल्कि समाज के सभी वर्ग इसमें शामिल थे जिनमें शहर के लोग, गांव के लोग, व्यापारी, छात्र, महिला, पुरुष, बूढ़े और युवा सभी मौजूद थे। जिस बात ने इन सभी लोगों को मैदान में पहुंचाया और आपस में जोड़ा था, वह इस्लाम था।
इमाम ख़ुमैनी ने क्रांति के आरंभ में ही अमरीका, ब्रिटेन और सोवियत यूनियन को ईरानी जनता के पिछड़ेपन के लिए दोषी बताया था और विदेशी शक्तियों के साथ संघर्ष आरंभ किया था। ईरान की जनता, इमाम ख़ुमैनी के नेतृत्व में राजनैतिक स्वाधीनता का सबसे बड़ा जलवा देख रही थी। यही वह बातें थीं जो पंद्रह ख़ुर्दाद के आंदोलन का कारण बनीं थीं और इन्हीं के कारण ईरान की इस्लामी क्रांति भी सफल हुई और इस समय भी यही बातें इस्लामी गणतंत्र ईरान की प्रगति और विकास का आधार बनी हुई हैं। ईरान की क्रांति का इस्लामी होना, जनाधारित होना और जनता की ओर से क्रांति के नेतृत्व का भरपूर समर्थन करना वे कारक हैं जिनके चलते इस्लामी गणतंत्र ईरान पिछले तीस बरसों में अमरीका और उसके घटकों की विभिन्न शत्रुतापूर्ण कार्यवाहियों के मुक़ाबले में सफल रहा है। यही विशेषताएं, क्षेत्रीय राष्ट्रों के लिए ईरान के आदर्श बनने और अत्याचारी व अमरीका की पिट्ठू सरकारों के ख़िलाफ़ आंदोलन आरंभ होने का कारण बनी हैं।