संयुक्त राष्ट्र संघ ने एक प्रस्ताव को पारित कर जिसमें म्यांमार सरकार से इस देश के उत्पीड़ित रोहिंग्या मुसलमानों को पूरी नागरिकता देने की मांग की गयी है, इस देश पर विवादास्पद पहचान योजना को रद्द करने के लिए दबाव बढ़ा दिया है।
संयुक्त राष्ट्र महासभा की मानवाधिकार समिति ने शुक्रवार को सर्सम्मति से एक अबाध्यकारी प्रस्ताव पारित किया ताकि दक्षिण-पूर्वी एशिया के देश म्यांमार पर रोहिंग्या मुसलमानों के संबंध में उसके व्यवहार को बदलने के लिए दबाव डाल सके। म्यांमार के अधिकारी इस देश में रहने वाले 13 लाख रोहिंग्या मुसलमानों को बंगालियों के रूप में वर्गीकृत करना चाहता है ताकि उन्हें पड़ोसी देश बंग्लादेश से अवैध प्रवासी दर्शाए। जो मुसलमान इस पहचान को रद्द करेंगे उन्हें या तो जेल में डाल दिया जाएगा या फिर निर्वासित कर दिया जाएगा।
संयुक्त राष्ट्र संघ में म्यांमार के दूत टिम क्याव ने इस प्रस्ताव की प्रतिक्रिया में कहा कि इस प्रस्ताव में मुसलमानों और दूसरे धार्मिक अल्पसंख्यकों पर हमले की भाषा, गुमराह करने वाली है।
रिपोर्टों के अनुसार म्यांमार में लाखों मुसलमान को खाने की चीज़ों और पानी की भारी कमी का सामना है। राख़ीन राज्य में जहां बड़ी संख्या में मुसलमान रहते हैं, हिंसा बढ़ने के कारण राहत सामग्री पहुंचाने की प्रक्रिया धीमी पड़ गयी है।
संयुक्त राष्ट्र संघ म्यांमार के रोहिंग्या मुसलमानों को दुनिया के सबसे ज़्यादा उत्पीड़ित संप्रदाय मानती है। 1948 में म्यांमार की आज़ादी के बाद से इसदेश में मुसलमानों को यातनाओं, उपेक्षा और दमन का सामना है।
म्यांमार सरकार, रोहिंग्या मुसलमानों की रक्षा में नाकाम रहने के कारण मानवाधिकार संगठन की बारंबार आलोचनाओं के निशाने पर रही है।
रोहिंग्या मुसलमानों के पूर्वज लगभग आठ शातब्दी पूर्व राख़ीन में बसे थे। रोहिंग्या मुसलमानों के पूर्वज, ईरानी, तुर्क, बंगाली और पठान थे। पंद्रहवीं शताब्दी के आरंभ में अराकान के बौद्ध राजा नरामेख़ला (Narameikhla) के दरबार में बहुत से मुलमान सलाहकार व मंत्री थे