
رضوی
हज़रत इमाम ज़ैनुल आबेदीन की ज़िन्दगी इमामों की ज़िन्दगी के जगमगाते अध्याय की झलक
हज़रत इमाम ज़ैनुल आबेदीन अलैहिस्सलाम तीन किरदार अदा कर रहे थे दो किरदार उनके और बाक़ी इमामों के बीच कॉमन हैं। इस्लाम और इस्लामी समाज के सिलसिले में अपनी इमामत के 250 साल के दौर में सारे इमाम जो अहम फ़रीज़ा अदा कर रहे थे, उनमें से एक इस्लामी ज्ञान, इस्लामी ज्यूरिसप्रूडेंस का प्रचार और इस्लाम पर थोपी जाने वाली ख़ुराफ़ातों से उसकी रक्षा थी।
हज़रत इमाम ज़ैनुल आबेदीन अलैहिस्सलाम तीन किरदार अदा कर रहे थे दो किरदार उनके और बाक़ी इमामों के बीच कॉमन हैं।
इस्लाम और इस्लामी समाज के सिलसिले में अपनी इमामत के 250 साल के दौर में सारे इमाम जो अहम फ़रीज़ा अदा कर रहे थे, उनमें से एक इस्लामी ज्ञान, इस्लामी ज्यूरिसप्रूडेंस का प्रचार और इस्लाम पर थोपी जाने वाली ख़ुराफ़ातों से उसकी रक्षा थी और दूसरा इस्लामी समाज के गठन के लिए रास्ता समतल करना था, एक ऐसा समाज जिसे अलवी हुकूमत के तहत चलाया जाए।
हज़रत इमाम ज़ैनुल आबेदीन अलैहिस्सलाम पर अपनी इमामत के दौरान दूसरा फ़रीज़ा करबला की घटना की याद को ज़िन्दा रखने का भी था और यह भी एक पाठ है। करबला का वाक़या, ऐसा वाक़या था जो इसलिए घटा ताकि इतिहास, आने वाली नस्लें और आख़िरी ज़माने तक के मुसलमान इससे सबक़ हासिल करें।
हज़रत इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.) और खेती (8)
अहादीस में है कि ज़राअत (खेती) व काश्त कारी सुन्नत है। हज़रत इदरीस के अलावा कि वह ख़य्याती करते थे। तक़रीबन जुमला अम्बिया ज़राअत किया करते थे। हज़रात आइम्माए ताहेरीन (अ.स.) का भी यही पेशा रहा है लेकिन यह हज़रात इस काश्त कारी से ख़ुद फ़ायदा नहीं उठाते थे बल्कि इस से ग़ुरबा, फ़ुक़रा और तयूर के लिये रोज़ी फ़राहम किया करते थे। हज़रत इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.) फ़रमाते हैं ‘‘ माअजरा अलज़रा लतालब अलफ़ज़ल फ़ीह वमाअज़रा अलालैतना वलहू अल फ़क़ीरो जुल हाजता वलैतना वल मना अलक़बरता ख़सता मन अल तैर ’’ मैं अपना फ़ायदा हासिल करते के लिये ज़राअत नहीं किया करता बल्कि मैं इस लिये ज़राअत करता हूँ कि इस से ग़रीबों , फ़क़ीरों मोहताजों और ताएरों ख़ुसूसन कु़बर्रहू को रोज़ी फ़राहम करूँ। (सफ़ीनतुल बेहार जिल्द 1 सफ़ा 549)
वाज़े हो कि कु़बरहू वह ताएर हैं जो अपने महले इबादत में कहा करता है ‘‘ अल्लाह हुम्मा लाअन मबग़ज़ी आले मोहम्मद ’’ ख़ुदाया उन लोगों पर लानत कर जो आले मोहम्मद (स.अ.) से बुग़्ज़ रखते हैं। (लबाब अल तावील बग़वी)
इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.) और फ़ित्नाए इब्ने ज़ुबैर
मुवर्रिख़ मि0 ज़ाकिर हुसैन लिखते हैं कि अब्दुल्लाह बिन ज़ुबैर जो आले मोहम्मद (स. अ.) का शदीद दुश्मन था 3 हिजरी में हज़रत अबू बकर की बड़ी साहब ज़ादी असमा के बतन से पैदा हुआ, इसे खि़लाफ़त की बड़ी फ़िक्र थी। इसी लिये जंगे जमल में मैदान गरम करने में उसने पूरी सई से काम लिया था। यह शख़्स इन्तेहाई कन्जूस और बनी हाशिम का सख़्त दुश्मन था और उन्हें बहुत सताता था। बरवाएते मसूदी उसने जाफ़र बिन अब्बास से कहा कि मैं चालीस बरस से तुम बनी हाशिम से दुश्मनी रखता हूँ। इमाम हुसैन (अ.स.) की शहादत के बाद 61 हिजरी में मक्का में और रजब 64 हिजरी में मुल्के शाम के बाज़ इलाक़ों के अलावा तमाम मुमालिके इस्लाम में इसकी बैअत कर ली गई। अक़दुल फ़रीद और मरूज उज़ ज़हब में है कि जब इसकी कु़व्वत बहुत बढ़ गई तो उसने ख़ुतबे में हज़रत अली (अ.स.) की मज़म्मत की और चालीस रोज़ तक ख़ुत्बे में दुरूद नहीं पढ़ा और मोहम्मद हनफ़िया और इब्ने अब्बास और दीगर बनी हाशिम को बैअत के लिये बुलाया उन्होंने इन्कार किया तो बरसरे मिम्बर उनको गालियां दीं और ख़ुत्बे से रसूल अल्लाह (स. अ.) का नाम निकाल डाला और जब इसके बारे में इस पर एतिराज़ किया गया तो जवाब दिया कि इस से बनी हाशिम बहुत फ़ुलते हैं, मैं दिल में कह लिया करता हूँ। इसके बाद उस ने मोहम्मद हनफ़िया और इब्ने अब्बास को हब्से बेजा में मय 15 बनी हाशिम के क़ैद कर दिया और लकड़िया क़ैद ख़ाने के दरवाज़े पर चिन दीं और कहा कि अगर बैअत न करोगे तो मैं आग लगा दूंगा। जिस तरह बनी हाशिम के इन्कारे बैअत पर लकड़िया चिनवा दी गई थीं। इतने में वह फ़ौज वहां पहुँच गई जिसे मुख़्तार ने उनकी मदद के लिये अब्दुल्लाह जदली की सर करदगी में भेजी थी और उसने इन मोहतरम लोगों को बचा लिया और वहां से ताएफ़ पहुँचा दिया। (अक़दे फ़रीद व मसूदी)
उन्हीं हालात की बिना पर हज़रत ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.) अकसर फ़ित्नाए इब्ने ज़ुबैर का ज़िक्र फ़रमाते थे। आलिमे अहले सुन्न्त अल्लामा शिबली लिखते हैं कि अबू हमज़ा शुमाली का बयान है कि एक दिन हज़रत की खि़दमत में हाज़िर हुआ और चाहा कि आपसे मुलाक़ात करूँ लेकिन चूंकि आप घर के अन्दर थे, इस लिये सुए अदब समझते हुए मैंने आवाज़ न दी। थोड़ी देर के बाद ख़ुद बाहर तशरीफ़ लाए और मुझे हमराह ले कर एक जानिब रवाना हो गए। रास्ते में आपने एक दिवार की तरफ़ इशारा करते हुए फ़रमाया, ऐ अबू हमज़ा ! मैं एक दिन सख़्त रंजो अलम में इस दीवार से टेक लगाए खड़ा था और सोच रहा था कि इब्ने ज़ुबैर के फ़ितने से बनी हाशिम को क्यों कर बचाया जाए। इतने में एक शरीफ़ और मुकद्दस बुज़ुर्ग साफ़ सुथरे कपड़े पहने हुए मेरे पास आए और कहने लगे आखि़र क्यों परेशान खड़े हैं? मैंने कहा मुझे फ़ितनाए इब्ने ज़ुबैर का ग़म और उसकी फ़िक्र है। वह बोले, ऐ अली इब्नुल हुसैन (अ.स.) ! घबराओ नहीं जो ख़ुदा से डरता है, ख़ुदा उसकी मद्द करता है। जो उससे तलब करता है वह उसे देता है। यह कह कर वह मुक़द्दस शख़्स मेरी नज़रों से ग़ाएब हो गये और हातिफ़े ग़ैबी ने आवाज़ दी। ‘‘ हाज़ल खि़ज़्र ना हबाक़ा ’’ कि यह जो आपसे बातें कर रहे थे वह जनाबे खि़ज्ऱ (अ.स.) थे। (नुरूल अबसार सफ़ा 129, मतालेबुल सुवेल सफ़ा 264, शवाहेदुन नबूवत सफ़ा 178) वाज़े हो कि यह रवायत बरादराने अहले सुन्नत की है। हमारे नज़दीक इमाम कायनात की हर चीज़ से वाक़िफ़ होता है।
हज़रत इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.) की अपने पदरे बुज़ुर्गवार के क़र्ज़े से सुबुक दोशी
उलेमा का बयान है कि हज़रत इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.) क़ैद ख़ाना ए शाम से छूट कर मदीने पहुँचने के बाद से अपने पदरे बुज़ुर्गवार हज़रत इमाम हुसैन (अ.स.) के क़र्ज़े की अदाएगी की फ़िक्र में रहा करते थे और चाहते थे कि किसी न किसी सूरत से 75 हज़ार दीनार जो हज़रत सय्यदुश शोहदा का क़र्ज़ा है मैं अदा कर दूं। बिल आखि़र आपने ‘‘ चश्मए तहनस ’’ को जो कि इमाम हुसैन (अ.स.) का बामक़ाम ‘‘ ज़ी ख़शब ’’ बनवाया हुआ था फ़रोख़्त कर के क़रज़े की अदाएगी से सुबुक दोशी हासिल फ़रमाई। चशमे के बेचने में यह शर्त थी कि शबे शम्बा को पानी लेने का हक़ ख़रीदने वाले को न होगा बल्कि उसकी हक़दार सिर्फ़ इमाम (अ.स.) की हमशीरा होंगी।
(बेहारूल अनवार, वफ़ा अल वफ़ा जिल्द 2 सफ़ा 249 व मनाक़िब जिल्द 4 सफ़ा 114)
माविया इब्ने यज़ीद की तख़्त नशीनी और इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.)
यज़ीद के मरने के बाद उसका बेटा अबू लैला, माविया बिन यज़ीद ख़लीफ़ा ए वक़्त बना दिया गया। वह इस ओहदे को क़बूल करने पर राज़ी न था क्यों कि वह फ़ितरतन हज़रत अली (अ.स.) की मोहब्बत पर पैदा हुआ था और उनकी औलाद को दोस्त रखता था। बा रवायत हबीब अल सैर उसने लोगों से कहा कि मेरे लिये खि़लाफ़त सज़ावार और मुनासिब नहीं है मैं ज़रूरी समझता हूँ कि इस मामले में तुम्हारी रहबरी करूँ और बता दूं कि यह मन्सब किस के लिये ज़ेबा है, सुनो ! इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.) मौजूद हैं उन में किसी तरह का कोई ऐब निकाला नहीं जा सकता। वह इस के हक़ दार और मुस्तहक़ हैं, तुम लोग उनसे मिलो और उन्हें राज़ी करो अगरचे मैं जानता हूँ कि वह इसे क़ुबूल न करेंगे।
मिस्टर ज़ाकिर हुसैन लिखते हैं कि 64 हिजरी में यज़ीद के मरते ही माविया बिन यज़ीद की बैअत शाम में, अब्दुल्लाह इब्ने ज़ुबैर की हिजाज़ और यमन में हो गई और अब्दुल्लाह इब्ने ज़ियाद ईराक़ में ख़लीफ़ा बन गया।
माविया इब्ने यज़ीद हिल्म व सलीम अल बतआ जवाने सालेह था। वह अपने ख़ानदान की ख़ताओं और बुराईयों को नफ़रत की नज़र से देखता और अली (अ.स.) और औलादे अली (अ.स.) को मुस्तहक़े खि़लाफ़त समझता था। (तारीख़े इस्लाम जिल्द 1 सफ़ा 37) अल्लामा मआसिर रक़म तराज़ हैं कि 64 हिजरी में यज़ीद मरा तो उसका बेटा माविया ख़लीफ़ा बनाया गया। उसने चालीस रोज़ और बाज़ क़ौल के मुताबिक़ 5 माह खि़लाफ़त की। उसके बाद ख़ुद खि़लाफ़त छोड़ दी और अपने को खि़लाफ़त से अलग कर लिया। इस तरह कि एक रोज़ मिम्बर पर चढ़ कर देर तक ख़ामोश बैठा रहा फिर कहा, ‘‘ लोगों ! ’’ मुझे तुम लोगों पर हुकूमत करने की ख़्वाहिश नहीं है क्यों कि मैं तुम लोगों की जिस बात (गुमराही और बे ईमानी) को ना पसन्द करता हूँ वह मामूली दरजे की नहीं बल्कि बहुत बड़ी है और यह भी जानता हूँ कि तुम लोग भी मुझे ना पसन्द करते हो इस लिये कि मैं तुम लोगों की खि़लाफ़त से बड़े अज़ाब में मुब्तिला और गिरफ़्तार हूँ और तुम लोग भी मेरी हुकूमत के सबब मुमराही की सख़्त मुसीबत में पड़े हो। ‘‘ सुन लो ’’ कि मेरे दादा माविया ने इस खि़लाफ़त के लिये उस बुज़ुर्ग से जंगो जदल की जो इस खि़लाफ़त के लिये उस से कहीं ज़्यादा सज़ावार और मुस्तहक़ थे और वह हज़रत इस खि़लाफ़त के लिये सिर्फ़ माविया ही नहीं बल्कि दूसरे लोगों से भी अफ़ज़ल थे इस सबब से कि हज़रत को हज़रत रसूले ख़ुदा (स. अ.) से क़राबते क़रीबिया हासिल थी। हज़रत के फ़जा़एल बहुत थे। ख़ुदा के यहां हज़रत को सब से ज़्यादा तक़र्रूब हासिल था। हज़रत तमाम सहाबा, महाजेरीन से ज़्यादा अज़ीम उल क़द्र, सब से ज़्यादा बहादुर, सब से ज़्यादा साहेबे इल्म, सब से पहले ईमान लोने वाले, सब से आला अशरफ़ दर्जा रखने वाले और सब से पहले हज़रत रसूले ख़ुदा (स. अ.) की सोहबत का फ़ख्ऱ हासिल करने वाले थे। अलावा इन फ़ज़ाएल व मनाक़िब के वह जनाबे हज़रत रसूले ख़ुदा (स. अ.) के चचा ज़ाद भाई, हज़रत के दामाद और हज़रत के दीनी भाई थे जिनसे हज़रत ने कई बार मवाख़ात फ़रमाई। जनाबे हसनैन (अ.स.) जवानाने अहले बेहिश्त के सरदार और इस उम्मत में सब से अफ़ज़ल और परवरदए रसूल (स. अ.) और फ़ात्मा बुतूल (स. अ.) के दो लाल यानी पाको पाकीज़ा दरख़ते रिसालत के फूल थे। उनके पदरे बुज़ुर्गवार हज़रत अली (अ.स.) ही थे। ऐसे बुज़ुर्ग से मेरा दादा जिस तरह सरकशी पर आमादा हुआ उसको तुम लोग ख़ूब जानते हो और मेरे दादा की वजह से तुम लोग जिस गुमराही में पड़े उस से भी तुम लोग बे ख़बर नहीं हो। यहां तक कि मेरे दादा को उसके इरादे में कामयाबी हुई और उसके दुनिया के सब काम बन गए मगर जब उसकी अजल उसके क़रीब पहुँच गई और मौत के पंजों ने उसको अपने शिकंजे में कस लिया तो वह अपने आमाल में इस तरह गिरफ़्तार हो कर रह गया कि अपनी क़ब्र में अकेला पड़ा है और जो ज़ुल्म कर चुका था उन सब को अपने सामने पा रहा है और जो शैतनत व फ़िरऔनियत उसने इख़्तेयार कर रखी थी उन सब को अपनी आख़ों से देख रहा है। फिर यह खि़लाफ़त मेरे बाप यज़ीद के सिपुर्द हुई तो जिस गुमराही में मेरा दादा था उसी ज़लालत में पड़ कर मेरा बाप भी ख़लीफ़ा बन बैठा और तुम लोगों की हुकूमत अपने हाथ में ले ली हालां कि मेरा बाप यज़ीद भी इस्लाम कुश बातों दीन सोज़ हरकतों और अपनी रूसियाहियो की वजह से किसी तरह उसका अहल न था कि हज़रत रसूले करीम (स. अ.) की उम्मत का ख़लीफ़ा और उनका सरदार बन सके, मगर वह अपनी नफ़्स परस्ती की वजह से इस गुमराही पर आमादा हो गया और उसने अपने ग़लत कामों को अच्छा समझा जिसके बाद उसने दुनियां में जो अंधेरा किया उस से ज़माना वाक़िफ़ है कि अल्लाह से मुक़ाबला और सरकशी करने तक पर आमादा हो गया और हज़रत रसूले ख़ुदा (स. अ.) से इतनी बग़ावत की कि हज़रत की औलाद का ख़ून बहाने पर कमर बांध ली, मगर उसकी मुद्दत कर रही और उसका ज़ुल्म ख़त्म हो गया। वह अपने आमाल के मज़े चख रहा है और अपने गढ़े (क़ब्र्र) से लिपटा हुआ और अपने गुनाहांे की बलाओं में फंसा हुआ पड़ा है। अलबत्ता उसकी सफ़ाकियों के नतीजे जारी और उसकी ख़ूं रेज़ियों की अलामतें बाक़ी हैं। अब वह भी वहां पहुँच गया जहां के लिये अपने करतूतों का ज़ख़ीरा मोहय्या किया था और अब किये पर नादिम हो रहा है। मगर कब? जब किसी निदामत का कोई फ़ायदा नहीं और वह इस अज़ाब में पड़ गया कि हम लोग उसकी मौत को भूल गये और उसकी जुदाई पर हमें अफ़सोस नहीं होता बल्कि उसका ग़म है कि अब वह किस आफ़त में गिरफ़्तार है, काश मालूम हो जाता कि वहां उसने क्या उज़्र तराशा और फिर उससे क्या कहा गया, क्या वह अपने गुनाहों के अज़ाब में डाल दिया गया और अपने आमाल की सज़ा भुगत रहा है? मेरा गुमान तो यही है कि ऐसा ही होगा। उसके बाद गिरया उसके गुलूगीर हो गया और वह देर तक रोता रहा और ज़ोर ज़ोर से चीख़ता रहा।
फिर बोला, अब मैं अपने ज़ालिम ख़ानदान बनी उमय्या का तीसरा ख़लीफ़ा बनाया गया हूँ हालां कि जो लोग मुझ पर मेरे दादा और बाप के ज़ुल्मों की वजह से ग़ज़ब नाक हैं उनकी तादाद उन लोगों से कहीं ज़्यादा है जो मुझ से राज़ी हैं।
भाईयों मैं तुम लोगों के गुनाहों के बार उठाने की ताक़त नहीं रखता और ख़ुदा वह दिन भी मुझे न दिखाए कि मैं तुम लोगों की गुमराहियांे और बुराईयों के बार से लदा हुआ उसकी दरगाह में पहुँचूँ। अब तुम लोगों को अपनी हुकूमत के बारे में इख़्तेयार है उसे मुझ से ले लो और जिसे पसन्द करो अपना बादशाह बना लो कि मैंने तुम लोगों की गरदनों से अपनी बैअत उठा ली । वस्सलाम । जिस मिम्बर पर माविया इब्ने यज़ीद ख़ुत्बा दे रहा था उसके नीचे मरवान बिन हकम भी बैठा हुआ था। ख़ुत्बा ख़त्म होने पर वह बोला, क्या हज़रत उमर की सुन्नत जारी करने का इरादा है कि जिस तरह उन्होंने अपने बाद खि़लाफ़त को ‘‘ शूरा ’’ के हवाले किया था तुम भी इसे शूरा के सिपुर्द करते हो। इस पर माविया बोला, आप मेरे पास से तशरीफ़ ले जायें, क्या आप मुझे भी मेरे दीन मंे धोखा देना चाहते हैं। ख़ुदा की क़सम मैं तुम लोगों की खि़लाफ़त का कोई मज़ा नहीं पाता अलबत्ता इसकी तलखि़यां बराबर चख रहा हूँ। जैसे लोग उमर के ज़माने में थे, वैसे ही लोगों को मेरे पास भी लाओ। इसके अलावा जिस तारीख़ से उन्होंने खि़लाफ़त को शूरा के सिपुर्द किया और जिस बुज़ुर्ग हज़रत अली (अ.स.) की अदालत में किसी क़िस्म का शुब्हा किसी को हो भी नहीं सकता, इसको उस से हटा दिया। उस वक़्त से वह भी ऐसा करने की वजह से क्या ज़ालिम नहीं समझे गये। ख़ुदा की क़सम अगर खि़लाफ़त कोई नफ़े की चीज़ है तो मेरे बाप ने उस से नुक़सान उठाया और गुनाह ही का ज़ख़ीरा मोहय्या किया और अगर खि़लाफ़त कोई और वबाल की चीज़ है तो मेरे बाप को उस से जिस क़द्र बुराई हासिल हुई वही काफ़ी है।
यह कह कर माविया उतर आया, फिर उसकी माँ और दूसरे रिश्ते दार उसके पास गये तो देखा कि वह रो रहा है। उसकी मां ने कहा कि काश तू हैज़ ही में ख़त्म हो जाता और इस दिन की नौबत न आती । माविया ने कहा ख़ुदा की क़सम मैं भी यही तमन्ना करता हूँ फिर कहा मेरे रब ने मुझ पर रहम नहीं किया तो मेरी नजात किसी तरह नहीं हो सकती। उसके बाद बनी उमय्या उसके उस्ताद उमर मक़सूस से कहने लगे कि तू ही ने माविया को यह बातें सिखाई हैं और उसको खि़लाफ़त से अलग किया है और अली (अ.स.) व औलादे अली (अ.स.) की मोहब्बत उसके दिल में रासिख़ कर दी है। ग़र्ज़ उसने हम लोगों के जो अयूब व मज़ालिम बयान किये उन सब का बाएस तू ही है और तू ही ने इन बिदअतों को उसकी नज़र में पसंदीदा क़रार दे दिया है जिस पर उस ने यह ख़ुत्बा बयान किया है। मक़सूस ने जवाब दिया ख़ुदा की क़सम मुझ से उसका कोई वास्ता नहीं है बल्कि वह बचपन ही से हज़रत अली (अ.स.) की मोहब्बत पर पैदा हुआ है लेकिन उन लोगों ने बेचारे का कोई उज्ऱ नहीं सुना और क़ब्र खोद कर उसे ज़िन्दा दफ़्न कर दिया।
(तहरीर अल शहादतैन सफ़ा 102, सवाएक़े मोहर्रेक़ा सफ़ा 122, हैवातुल हैवान जिल्द 1 सफ़ा 55, तारीख़े ख़मीस जिल्द 2 सफ़ा 232, तारीख़े आइम्मा सफ़ा 391)
मुवर्रिख़ मिस्टर ज़ाकिर हुसैन लिखते हैं, इसके बाद बनी उमय्या ने माविया बिन यज़ीद को भी ज़हर से शहीद कर दिया। उसकी उम्र 21 साल 18 दिन की थी। उसकी खि़लाफ़त का ज़माना चार महीने और बा रवायते चालीस यौम शुमार किया जाता है। माविया सानी के साथ बनी उमय्या की सुफ़यानी शाख़ की हुकूमत का ख़ात्मा हो गयाा और मरवानी शाख़ की दाग़ बेल पड़ गई। (तारीख़े इस्लाम जिल्द 1 सफ़ा 38) मुवर्रिख़ इब्नुल वरदी अपनी तारीख़ में लिखते हैं कि माविया इब्ने यज़ीद के मरने के बाद शाम में बनी उमय्या ने मुतफ़्फ़ेक़ा तौर पर मरवान बिन हकम को ख़लीफ़ा बना लिया।
मरवान की हुकूमत सिर्फ़ एक साल क़ायम रही फिर उसके इन्तेक़ाल के बाद उसका लड़का अब्दुल मलिक इब्ने मरवान ख़लीफ़ाए वक़्त क़रार दिया गया।
इमाम ज़ैनुल आबेदीन अलैहिस्सलाम की शहादत
इमाम ज़ैनुल आबेदीन अलैहिस्सलाम ने कर्बला की महान घटना के बाद लोगों के मार्गदर्शन का ईश्वरीय दायित्व संभाला। सज्जाद, इमाम ज़ैनुल आबेदीन अलैहिस्सलाम को एक प्रसिद्ध उपाधि थी। महान ईश्वर की इच्छा से इमाम ज़ैनुल आबेदीन अलैहिस्सलाम कर्बला में जीवित बच गये था ताकि वह कर्बला की महान घटना के अमर संदेश को लोगों तक पहुंचा सकें।
इमाम ज़ैनुल आबेदीन अलैहिस्सलाम इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के ज्येष्ठ सुपुत्र हैं और 36 हिजरी क़मरी में उनका जन्म पवित्र नगर मदीने में हुआ और 57 वर्षों तक आप जीवित रहे। इमाम ज़ैनुल आबेदीन अलैहिस्सलाम के जीवन का महत्वपूर्ण भाग कर्बला में इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम की शहादत के बाद आरंभ हुआ। कर्बला की महान घटना के समय इमाम सज्जाद अलैहिस्सलाम बीमार थे और इसी कारण वे कर्बला में सत्य व असत्य के युद्ध में भाग न ले सके।
कर्बला की घटना का एक लेखक हमीद बिन मुस्लिम लिखता है “आशूर के दिन इमाम हुसैन अलैहिस्लाम के शहीद हो जाने के बाद यज़ीद के सैनिक इमाम ज़ैनुल आबेदीन अलैहिस्सलाम के पास आये। वह बीमार और बिस्तर पर सोये हुए थे। चूंकि यज़ीद की सैनिकों को यह आदेश दिया गया था कि वे इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के परिवार के समस्त पुरुषों की हत्या कर दें इसलिए उन्होंने इमाम ज़ैनुल आबेदीन अलैहिस्सलाम को भी शहीद करना चाहा परंतु उन्होंने इमाम को बीमारी के बिस्तर पर देखकर उन्हें छोड़ दिया।
इस बात में कोई संदेह नहीं है कि आशूर के दिन इमाम ज़ैनुल आबेदीन अलैहिस्सलाम के बीमार होने में ईश्वरीय रहस्य व तत्वदर्शिता नीहित है ताकि वह अपने पिता के मार्ग को जारी रख सकें। इमाम ज़ैनुल आबेदीन अलैहिस्सलाम की इमामत 34 वर्षों तक थी और उनकी ज़िम्मेदारियों का एक महत्वपूर्ण भाग इस्लामी जगत तक कर्बला की महत्वपूर्ण घटना के संदेशों को पहुंचाना था।
कर्बला की घटना और इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम की शहादत के बाद इस्लामी समाज की स्थिति बहुत ही संवेदनशील चरण में प्रविष्ट हो गयी थी। एक ओर इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के आंदोलन के संदेशों को लोगों के लिए बयान किये जाने और बनी उमय्या के झूठे दावों के प्रचार से मुकाबला किये जाने की आवश्यकता थी और दूसरी ओर इस्लाम की विशुद्ध शिक्षाओं को बयान करके उन ग़लत बातों से मुकाबले की ज़रूरत थी जो इस्लाम की शिक्षाओं के लिए ख़तरा बनी हुई थीं। इमाम ज़ैनुल आबेदीन अलैहिस्सलाम ने इस प्रकार की परिस्थिति में अपने कार्यक्रम को एक नियत समय में पूरा किया। आरंभ में कुछ समय तक इमाम ज़ैनुल आबेदीन अलैहिस्सलाम ने अपने खुत्बों व भाषणों के माध्यम से लोगों को सच्चाई से अवगत करके अपने पिता के मार्ग को जारी रखा और अपेक्षाकृत लंबे समय तक इस्लाम धर्म की विशुद्ध शिक्षाओं को बयान करके लोगों की सोच और व्यवहार को बेहतर बनाने का प्रयास किया।
आशूर के बाद की घटनाओं में आया है कि सन 61 हिजरी क़मरी में 12 मोहर्रम को इमाम ज़ैनुल आबेदीन अलैहिस्सलाम बंदियों के काफिले के साथ कूफा आये। बंदियों का जो काफिला था उसमें कर्बला की घटना में बच जाने वाले बच्चे और महिलाएं थीं। इस काफिले में दो महान हस्तियां एक इमाम ज़ैनुल आबेदीन अलैहिस्सलाम और दूसरे हज़रत ज़ैनब सलामुल्लाह अलैहा थीं। इन दो महान हस्तियों की मौजूदगी बंदियों की ढ़ारस और उनकी शक्ति का कारण थी। जब यह काफिला कर्बला से कूफा पहुंचा तो बंदियों को देखने के लिए बहुत बड़ी भीड़ एकत्रित थी। इमाम ज़ैनुल आबेदीन अलैहिस्सलाम ने उस समय अवसर को उचित समझा और लोगों को संबोधित करके कहा हे लोगो! मैं हुसैन का बेटा अली हूं। मैं उसका बेटा हूं जिसकी प्रतिष्ठा का तुमने अनादर किया। लोगों, ईश्वर ने हम अहलेबैत की परीक्षा ले ली है। सफलता, न्याय और सदाचारिता को हमारे अंदर रख दिया है और गुमराही एवं बर्बादी को हमारे दुश्मनों को दे दिया है। क्या तुम लोगों ने हमारे पिता को पत्र नहीं लिखा था और उनसे बैअत नहीं की थी अर्थात उनकी आज्ञापालन का वचन नहीं दिया था? किन्तु उसके बाद तुम लोगों ने धोखा दिया और उनके विरुद्ध युद्ध करने के लिए खड़े हो गये। कितना बुरा कार्य किये और कितना बुरा सोचे। अगर पैग़म्बरे इस्लाम तुमसे कहें कि मेरे बेटे की हत्या कर दी मेरा अनादर किया और तुम मेरी क़ौम व अनुयाई नहीं हो तो तुम किस मुंह से उन्हें देखोगे?
एक दूसरे अवसर पर जब इमाम ज़ैनुल आबेदीन अलैहिस्सलाम काफिले के साथ शाम पहुंचे तो उन्होंने अत्याचारी व भ्रष्ट शासक यज़ीक के सामने अदम्य साहस का परिचय देते हुए कहा हे लोगो जो मुझे पहचानता है वह पहचानता है और जो नहीं जानता उसके लिए मैं अपना परिचय कर रहा हूं ताकि वह पहचान जाये। मैं उसका बेटा हूं जो बेहतरीन हज करने वाला था यानी मैं पैग़म्बरे इस्लाम का बेटा हूं जो जिब्राईल के साथ मेराज अर्थात आसमान पर गये और वहां उसने आसमान के फरिश्तों के साथ नमाज़ पढ़ी। वह ईश्वरीय संदेश प्राप्त करने वाला था मैं लोक-परलोक की महिला फातेमा का बेटा हूं और कर्बला की भूमि में ख़ून से रंगीन व लतपथ होने वाले का बेटा हूं।“
जब इमाम ज़ैनुल आबेदीन अलैहिस्सलाम का भाषण यहां तक पहुंचा जो यज़ीद के दरबार में मौजूद लोग बहुत प्रभावित हुए और कुछ लोगों ने रोना शुरू कर दिया। अत्याचारी शासक यज़ीद की सरकार के आधार हिल गये। इमाम ज़ैनुल आबेदीन अलैहिस्सलाम के अलावा हज़रत ज़ैनब ने भी यज़ीद के दरबार में जो भाषण दिया था वह लोगों की जागरुकता का कारण बना इस प्रकार से कि कुछ लोगों ने यज़ीद के दरबार में ही आपत्ति जताई। इमाम ज़ैनुल आबेदीन अलैहिस्सलाम और हज़रत ज़ैनब के वास्तविकता प्रेमी भाषणों ने बनी उमय्या की सरकार के प्रति लोगों की घृणा में वृद्धि कर दी। इमाम ज़ैनुल आबेदीन अलैहिस्सलाम के भाषण से यज़ीद बहुत चिंतित हो गया। उसने इमाम को चुप कराने और परिस्थिति को बदलने के लिए मोअज़्ज़िन को अज़ान देने के लिए कहा। इमाम अज़ान की आवाज़ सुनकर चुप हो गये और अज़ान देने वाला जब इस वाक्य पर पहुंचा कि मैं गवाही देता हूं कि मोहम्मद ईश्वर के दूत हैं तो इमाम ने यज़ीद से कहा क्या यह पैग़म्बर मेरे पूर्वज का नाम है या तेरे? अगर तू यह कहे कि मेरे पूर्वज का नाम है तो सब जान जायेंगे कि तू झूठ बोल रहा है और अगर तू यह कहे कि मेरे पूर्वज का नाम है तो तुमने किस दोष में मेरे पिता की हत्या की और उनके माल को लूट लिया और उनकी महिलाओं को बंदी बनाया? प्रलय के दिन तुझ पर धिक्कार हो।“
इतिहास में आया है कि इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के परिजनों ने यज़ीद की उसी सभा में इमाम हुसैन और दूसरे शहीदों के साथ कर्बला में जो कुछ हुआ था उसे बयान करना आरंभ कर दिया। यज़ीद इस सभा के माध्यम से अपनी प्रतिष्ठा व रोब में वृद्धि की कुचेष्टा में था परंतु स्थिति उसकी अपेक्षा के बिल्कुल विपरीत हो गयी जिससे वह बहुत चिंतित हो गया। जब शाम के लोग कर्बला में शहीद होने वाली हस्तियों और उनके अतीत से अवगत हो गये और बनी उमय्या के अपराधों से पर्दा उठ गया तो भ्रष्ट शासक यज़ीद जनमत को गुमराह करने की सोच में पड़ गया। उसने बंदियों के साथ अपने अत्याचारपूर्ण व्यवहार को परिवर्तित और उनके साथ सम्मान पूर्वक व्यवहार करने का प्रयास किया। वह इस बात से भयभीत था कि कहीं लोग उसकी सरकार के विरुद्ध आंदोलन न कर दें इसीलिए उसने कर्बला के बंदियों को ढ़ारस बधाने का प्रयास किया और इस तरीक़े से उसने अपने पापों पर पर्दा डालने की चेष्टा की।
अतः वह कर्बला के बंदियों की उस इच्छा के समक्ष घुटने टेक देने पर बाध्य हो गया कि वे इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम का शोक मनाना चाहते हैं और उसने इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम का शोक मनाने के लिए “दारूल हिजारह” नामक स्थान को विशेष कर दिया और बंदियों ने सात दिनों तक इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम का शोक मनाया। धीरे-2 इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम शहादत व कर्बला की घटना की ख़बर पूरे शहर में फैल गयी। यज़ीद ने जब स्थिति को ख़राब होते देखा तो उसने कारवां को मदीने भेजने का निर्णय किया। जब यह कारवां शाम से मदीना पहुंचा तो नगर के लोग उनके स्वागत के लिए उमड़ पड़े। इमाम ज़ैनुल आबेदीन अलैहिस्सलाम शोकाकुल लोगों के मध्य मिम्बर पर गये और ईश्वर की प्रशंसा करने के बाद फरमाया हे लोगो! ईश्वर ने बहुत बड़ी विपत्ति से हमारी परीक्षा ली है। इस विपत्ति का कोई उदाहरण नहीं है। हे लोगो! कौन है जो इस महा त्रासदी को सुनकर प्रसन्न होगा? कौन दिल है जो हुसैन बिन अली की शहादत की ख़बर सुनकर दुःखी नहीं होगा? कौन आंख है जो आंसू नहीं बहायेगी? हम ईश्वर की ओर से आये हैं और ईश्वर की ही ओर पलट कर जायेंगे। इस हृदयविदारक मुसीबत में हम ईश्वर की ओर ध्यान देते हैं और उसके मार्ग में समस्त मुसीबतों को सहन करने के लिए तैयार हैं और हम जानते हैं कि ईश्वर प्रतिशोध लेने वाला है।“
इमाम ज़ैनुल आबेदीन अलैहिस्सलाम ने पवित्र नगर मदीना में कर्बला की घटना की याद को जीवित रखा और वास्तविकताओं को बयान करके कर्बला के बाद के आंदोलनों की भूमि तैयार कर दी। इमाम ज़ैनुल आबेदीन अलैहिस्सलाम ने अपने प्रयास से अमवी शासकों के चेहरों पर पड़ी नक़ाब को हटा दिया। साथ ही उन्होंने इस्लाम की विशुद्ध शिक्षाओं के प्रचार-प्रचार के लिए काफी प्रयास किया। इस प्रकार इमाम ज़ैनुल आबेदीन अलैहिस्सलाम ने अपनी इमामत के 34 वर्षों के दौरान उस समय के समाज में विभिन्न रूपों में जागरूकता की लहर पैदा कर दी। जब अमवी शासक वलीद बिन अब्दुल मलिक ने स्वयं को इस जागरूकता की लहर के मुक़ाबले में अक्षम देखा तो उसने जागरूकता के स्रोत इमाम ज़ैनुल आबेदीन अलैहिस्सलाम को शहीद करने का षडयंत्र रचा परंतु वह इस बात से अचेत था कि सच्चाई का दीप कभी बुझता नहीं है और वह हमेशा प्रज्वलित व प्रकाशमयी रहेगा। अंततः अमवी शासक वलीद ने एक षडयंत्र रचकर इमाम ज़ैनुल आबेदीन अलैहिस्सलाम को वर्ष 94 हिजरी क़मरी में शहीद करवा दिया।
इमाम ज़ैनुल आबेदीन अलैहिस्सलाम: दुआ के ज़रिए इस्लाम के संदेश को दुनिया तक पहुंचाया
एक रिवायत के मुताबिक़, 25 मोहर्रम का दिन पैग़म्बरे इस्लाम (स) के प्राणप्रिय नवासे हज़रत इमाम हुसैन (अ) के बेटे और शिया मुसलमानों के चौथे इमाम, अली इब्ने हुसैन इमाम ज़ैनुल इमाम अली इब्ने हुसैन (अ) के कई उपनाम थे जिनमें सज्जाद, सय्यादुस्साजेदीन और ज़ैनुल आबेदीन प्रमुख हैं। उनकी इमामत का काल कर्बला की घटना और इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम की शहादत के बाद शुरू हुआ। इस काल की ध्यानयोग्य विशेषताएं हैं। इमाम सज्जाद ने इस काल में अत्यंत अहम और निर्णायक भूमिका निभाई। कर्बला की हृद्यविदारक घटना के समय उनकी उम्र 24 साल थी और इस घटना के बाद वे 34 साल तक जीवित रहे। इस अवधि में उन्होंने इस्लामी समाज के नेतृत्व की ज़िम्मेदारी संभाली और विभिन्न मार्गों से अत्याचार व अज्ञानता के प्रतीकों से मुक़ाबला किया। इस मुक़ाबले के दौरान इमाम ज़ैनुल आबेदीन अलैहिस्सलाम के बारे में जो बात सबसे अधिक स्पष्ट रूप से देखी जा सकती है वह कर्बला के आंदोलन की याद को जीवित रखना और इस अमर घटना के संदेश को दुनिया तक पहुंचाना है। इमाम ज़ैनुल आबेदीन को वर्ष 95 हिजरी में 25 मुहर्रम को उमवी शासक वलीद इब्ने अब्दुल मलिक के आदेश पर एक षड्यंत्र द्वारा ज़हर देकर शहीद कर दिया गया था।उल्लेखनीय है कि इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ) कर्बला के संघर्ष में शहीद नहीं हुए थे। इसलिए कि वे उस समय बीमार थे। कर्बला में बीमारी के कारण वे अत्यधिक कमज़ोर हो चुके थे, यहां तक कि दुश्मनों को लग रहा था कि आपकी प्राकृतिक मौत निकट है और आपको शहीद करने की कोई ज़रूरत नहीं है। हालांकि इमाम सज्जाद की यह स्थिति ईश्वरीय योजना के अनुसार थी, ताकि धरती ईश्वरीय दूत से ख़ाली न रहे और दुनिया ईश्वरीय दूत के प्रकाश से प्रकाशमय रहे। आबेदीन अलैहिस्सलाम की शहादत का दिन है।
ऐसे समय में कि जब रोटी और अज्ञानता ने लोगों को उलझा रखा था और इस्लाम की शिक्षाओं में बदलाव किया जा रहा था, पैग़म्बरे इस्लाम (स) के परिजनों में से एक व्यक्ति उठा और उसने दुआ के सुन्दर शब्दों में इस्लाम की अद्वितीय शिक्षाओं एवं नैतिक सिद्धांतों को दुनिया के सामने पेश किया। ऐसा समय कि जब कर्बला में अमानवीय अपराधों के बाद बनी उमय्या ने समाज के वातावरण को संदेहपूर्ण एवं ज़हरीले प्रचारों से दूषित कर रखा था, इमाम ज़ैनुल आबेदीन अलैहिस्सलाम ने उच्च मानवीय व्यवहार एवं अर्थपूर्ण दुआओं द्वारा अपनी महत्वपूर्ण ज़िम्मेदारी को अदा किया। ऐसे ज़हरीले वातावरण में अनैतिकता एवं भ्रष्टाचार अपने चरम पर थे, इसीलिए इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ) ने लोगों का नैतिक प्रशिक्षण किया और उन्हें शुद्ध धार्मिक सिद्धांतों की शिक्षा दी।
हज़रत हज्जाज इब्ने मसरूक़ अलमदहजी की महान कुर्बानी मैदाने कर्बला में
हज्जाज इब्ने मसरूक़ इब्ने जअफ इब्ने सअद अशीरा था आप का कबीला मदहज के एक अज़ीम फर्द थे आप का शुमार हजरत अली अलै० के खास शियों में था। आप कूफे में रहते और हजरत अली अ.स. की खिदमत करते थे।
आप का पूरा नाम हज्जाज इब्ने मसरूक़ इब्ने जअफ इब्ने सअद अशीरा था। आप का कबीला मदहज के एक अज़ीम फर्द थे आप का शुमार हजरत अली अलै० के खास शियों में था आप कूफे में रहते और हजरत अली अलै० की खिदमत करते थे।
इमामे हुसैन अलै० की मक्के से रवानगी के वक्त हज्जाज भी कूफे से रवाना हुए और मंजिले कसर बनी मकातिल में शरफे मुलाकात हासिल किया ।जब अब्दुल्लाह इब्ने हुर्र जअफ़ी (जिन का खेमा कसर इब्ने मकतिल में पहले से नसब था ) को दावते नुसरत देने के लिए इमामे हुसैन अलै० खुद के खेमे में तशरीफ़ ले गए तो हज्जाज आप के हमराह थे।
जनाबे हज्जाज यौमे आशुरा इमामे हुसैन अलै० की खिदमत में हाजिर हो कर अर्ज़ की मौला! मरने की इजाज़त दीजिये इमामे हुसैन ने इजने जिहाद अता फरमाया और हज्जाज मैदान में तशरीफ़ लाये और नबर्द आज़माई शुरु की आप ने 15 दुश्मनों को क़त्ल करने के बाद हाजिरे खिदमते इमाम हुए और थोड़ी देर मौला की खिदमत में ठहर कर मैदाने जंग में फिर तशरीफ़ लाये और अपने गुलाम "मुबारक” के साथ मिलकर दुश्मनों से लड़ते रहे। आखिरकार एक सौ पचास (150) दुश्मनों को कत्ल करके शहीद हो गए।
स्वीदा में एक हफ़्ते से चल रही झड़पों के बाद अरब कबीलों की वापसी
दक्षिणी सीरियाई शहर स्वीदा में एक हफ़्ते से चल रही भीषण झड़पें अरब कबीलों की वापसी के बाद थम गई हैं और शहर में अपेक्षाकृत शांति स्थापित हो गई है।
रिपोर्ट के अनुसार, दक्षिणी सीरियाई शहर स्वीदा में एक हफ़्ते से चल रही भीषण झड़पें अरब कबीलों की वापसी के बाद थम गई हैं और शहर में अपेक्षाकृत शांति स्थापित हो गई है।
गृह मंत्रालय के प्रवक्ता ने घोषणा की है कि अरब कबीलों के सभी सशस्त्र बल शहर छोड़ चुके हैं। इसी तरह, सीरियाई कबीलों की सर्वोच्च परिषद ने भी युद्धविराम के पूर्ण कार्यान्वयन की पुष्टि की है और चेतावनी दी है कि अगर ड्रूज़ समूह द्वारा युद्धविराम का उल्लंघन किया गया, तो कड़ा जवाब दिया जाएगा।
इस बीच, गोलानी सरकार ने स्वीदा के आसपास अपने सैनिकों की संख्या बढ़ा दी है, जबकि घायलों के इलाज के लिए 20 एम्बुलेंस भी भेजी गई हैं।
यह याद रखना चाहिए कि ये झड़पें 13 जुलाई को शुरू हुईं जब एक ड्रूज़ व्यापारी का अरब आदिवासियों के साथ झगड़ा हुआ और बाद में उसे गिरफ़्तार कर लिया गया। स्थिति तब और बिगड़ गई जब सीरियाई सरकार के सशस्त्र बलों ने शांति स्थापित करने के बजाय, ड्रूज़ लोगों पर अत्याचार करना शुरू कर दिया। ज़ायोनी सरकार ने भी इस मौके का फ़ायदा उठाया और सीरिया में व्यापक हमले शुरू कर दिए।
इन झड़पों में अब तक 940 से ज़्यादा लोग मारे जा चुके हैं, जिनमें से ज़्यादातर आम नागरिक हैं, जबकि कुछ सूत्रों के अनुसार, 182 लोग ज़मीनी गोलीबारी का निशाना बने, जिनमें महिलाएँ, बच्चे और बुज़ुर्ग शामिल हैं।
समाचार मे परिवर्तन राष्ट्रीय एकता को कैसे निशाना बनाता है?
मनोवैज्ञानिक युद्ध और समाचार परिवर्तन दुश्मन के सबसे परिष्कृत हथियार हैं, जो सैन्य संकटों में निराशा और अराजकता पैदा करके राष्ट्रीय एकता को कमज़ोर करने की कोशिश करते हैं। धार्मिक छात्र मीडिया साक्षरता बढ़ाकर और आशावादी सामग्री तैयार करके इस मौन युद्ध में सबसे आगे हैं।
मनोवैज्ञानिक युद्ध और समाचार परिवर्तन सैन्य संकटों में दुश्मन के सबसे परिष्कृत और प्रभावी हथियारों में से हैं, जिनका इस्तेमाल राष्ट्रों के संकल्प, विश्वास और प्रतिरोध को कमज़ोर करने के लिए किया जाता है।
ये युद्ध समाज की चेतना और विश्वासों में घुसपैठ करके लोगों में अराजकता, चिंता, निराशा और अनिश्चितता फैलाने के लिए सोच-समझकर रचे जाते हैं, जिससे सामाजिक स्थिरता और राष्ट्रीय एकता हिल जाती है।
ऐसे क्षेत्रों में, धार्मिक छात्र बौद्धिक और सांस्कृतिक सीमाओं के संरक्षक के रूप में एक केंद्रीय और रणनीतिक भूमिका निभाते हैं। इस जटिल खतरे से निपटने के लिए, उनकी मीडिया रणनीतियों की समीक्षा और व्याख्या एक अनिवार्य आवश्यकता है, जिसे उच्च, विश्लेषणात्मक और आशावादी भाषा में प्रस्तुत किया जाना चाहिए।
सबसे पहले, मनोवैज्ञानिक युद्ध और समाचार विकृति की प्रकृति का स्पष्ट परिचय आवश्यक है।
मनोवैज्ञानिक युद्ध वास्तव में पहचान और मीडिया क्रियाओं का एक समूह है जो किसी व्यक्ति या समाज के व्यवहार, सोच और मनोबल को बदलने के उद्देश्य से आयोजित किया जाता है। यह युद्ध अनुनय-विनय के गुप्त तरीकों, भ्रामक जानकारी प्रकाशित करने, कृत्रिम सामग्री तैयार करने और संबोधित व्यक्ति की मनोवैज्ञानिक और सामाजिक कमज़ोरियों का लाभ उठाकर सामूहिक धारणा और निर्णय लेने की शक्ति को प्रभावित करता है।
दूसरी ओर, समाचार विकृति का अर्थ है अधूरी, चुनिंदा, असत्य या पक्षपातपूर्ण जानकारी प्रदान करना ताकि जनता की चेतना और निर्णयों को वास्तविकता से भटकाकर उन्हें गुमराह किया जा सके। इन दोनों हथियारों का व्यापक रूप से उपयोग किया जाता है, खासकर संकट और सैन्य स्थितियों में।
धार्मिक छात्र मीडिया साक्षरता बढ़ाकर और आशावादी सामग्री तैयार करके इस मौन युद्ध में सबसे आगे हैं। इसलिए, छात्रों को मीडिया की संरचना और भाषा को समझने, संदेशों की छिपी परतों का विश्लेषण करने, मनोवैज्ञानिक प्रभाव तकनीकों को पहचानने और नकली और विकृत समाचारों की पहचान करने में कौशल हासिल करने के लिए प्रशिक्षित किया जाना चाहिए। यह क्षमता न केवल उन्हें प्रभावी भूमिका निभाने वाला बनाएगी, बल्कि वे इस जागरूकता को जनता तक बेहतर ढंग से पहुंचाने में भी सक्षम होंगे।
पश्चिम, इस्लामी दुनिया की स्वतंत्रता को स्वीकार नहीं करता, आयतुल्लाह आरफ़ी
धार्मिक मदरसो के अधिकारियों की एक बैठक को संबोधित करते हुए, हौज़ा हाए इल्मिया के प्रमुख ने कहा कि पश्चिम का लक्ष्य है कि पूर्व और इस्लामी दुनिया में कोई शक्ति न हो, या यदि हो भी, तो वह पूरी तरह से पश्चिम से संबद्ध हो।
हाए इल्मिया के प्रमुख, आयतुल्लाह अली रज़ा आरफ़ी ने वर्तमान स्थिति और 12-दिवसीय थोपे गए युद्ध तथा पवित्र रक्षा पर एक राष्ट्रव्यापी बैठक में भाग लिया और वर्तमान जटिल परिस्थितियों के संदर्भ में इस्लामी दुनिया के जागरण और वैश्विक अहंकार की योजनाओं के विरुद्ध प्रतिरोध की आवश्यकता पर बल दिया।
वर्तमान स्थिति को एक "ऐतिहासिक मोड़" बताते हुए, उन्होंने अभूतपूर्व चुनौतियों का उल्लेख किया और इन जटिलताओं से 14 बिंदुओं पर प्रकाश डाला। इनमें आधुनिक हथियारों, प्रौद्योगिकी और कृत्रिम बुद्धिमत्ता का उपयोग, आंतरिक और बाहरी स्तरों पर नेटवर्किंग, और प्रतिरोध धुरी को कमजोर करने की दशकों पुरानी योजनाएँ शामिल हैं।
दुश्मन के मीडिया और धारणा युद्ध का ज़िक्र करते हुए, अयातुल्ला अराफ़ी ने कहा कि पश्चिम भारी दुष्प्रचार के ज़रिए प्रतिरोध धुरी की कमज़ोरी को बढ़ावा देने की कोशिश कर रहा है। उन्होंने क्षेत्र के देशों को ख़रीदने और राजनीतिक व सामाजिक विभाजन भड़काने की दुश्मन की कोशिशों की ओर भी इशारा किया और कहा कि द्वितीय विश्व युद्ध के बाद बनाई गई योजनाओं को आज फिर से पढ़ा और लागू किया जा रहा है।
पश्चिम का लक्ष्य: इस्लामी दुनिया का विभाजन
हौज़ा हाए इल्मिया के प्रमुख ने पश्चिम का मुख्य लक्ष्य इस्लामी दुनिया का विभाजन बताया और कहा कि क्षेत्र के कुछ देशों की सैन्य, सुरक्षा और सूचना प्रणालियों पर अमेरिका का नियंत्रण है, लेकिन इस्लामी गणराज्य ईरान की जनता और क्रांति के नेता इन साज़िशों के सामने पहाड़ की तरह डटे हुए हैं।
उन्होंने कहा कि प्रतिरोध धुरी भविष्य में नया जीवन पाएगी और इसमें यमन और इराक की महत्वपूर्ण भूमिका की ओर इशारा किया।
विद्वानों का कर्तव्य; हृदय को सुदृढ़ करना और दृढ़ संकल्प को सुदृढ़ करना
अयातुल्ला आरफ़ी ने विद्वानों की मुख्य ज़िम्मेदारियों को "हृदय को सुदृढ़ करना, बौद्धिक मार्गदर्शन और समाज के दृढ़ संकल्प को सुदृढ़ करना" बताया और इस बात पर ज़ोर दिया कि यदि समाज में सही विश्लेषण, दृढ़ विश्वास और दृढ़ संकल्प हो, तो कोई भी हथियार, यहाँ तक कि परमाणु हथियार भी, उसे पीछे नहीं धकेल सकता।
उन्होंने प्रतिरोध के चार मूल स्तंभों की पहचान "ज्ञान और समझ", "अदृश्य में विश्वास", "राजनीतिक और सामाजिक जागरूकता" और "राष्ट्रीय दृढ़ संकल्प" के रूप में की।
धार्मिक विद्यालयों के सफल प्रशासन की विशेषताएँ
उन्होंने एक सफल प्रशासक की विशेषताओं का उल्लेख किया, जिनमें "तर्क और विचारधारा का होना", "कार्यकारी दल बनाने की क्षमता", "सभी ज़िम्मेदारियों को संतुलित रूप से देखना", "बौद्धिक और व्यावहारिक अनुशासन", "दबाव सहन करना", "ज़िम्मेदारियों का उचित वितरण" और "समस्याओं को हल करने की क्षमता" जैसे महत्वपूर्ण बिंदु शामिल हैं।
आर्टिफ़िश्यिल इंटेलीजेस; अवसर और खतरे
कृत्रिम बुद्धिमत्ता के विकास का उल्लेख करते हुए, अयातुल्ला अराफ़ी ने इस्लामी विज्ञान के प्रचार में इस तकनीक के उपयोग पर ज़ोर दिया और कहा कि धार्मिक स्कूलों को इस तकनीक में महारत हासिल करनी चाहिए और शिक्षा, अनुसंधान और धार्मिक प्रचार में इसका लाभ उठाना चाहिए।
अरबईन हुसैनी के लिए धार्मिक स्कूलों का संदेश
बैठक के अंत में, उन्होंने अरबईन के अवसर पर धार्मिक स्कूलों की भूमिका पर ज़ोर दिया और कहा कि अच्छे विद्वानों को प्रशिक्षित करना और धार्मिक स्कूलों के क्रांतिकारी संदेश का प्रसार करना इस वैश्विक आंदोलन में विद्वानों की प्राथमिक ज़िम्मेदारी है।
उल्लेखनीय है कि इस बैठक में धार्मिक स्कूलों की सर्वोच्च परिषद के सदस्यों ने भाग लिया। यह बैठक सहायकों, प्रांतीय प्रशासकों और धार्मिक स्कूलों के प्रमुखों की उपस्थिति में आयोजित की गई थी।
जब तक हम जीवित हैं, इजरायल अपने लक्ष्यों में कभी सफल नहीं हो सकता
हिजबुल्लाह के महासचिव ने कहा: अमेरिका और इजरायल वर्तमान युद्धविराम समझौते को अपने हितों के विरुद्ध मानते हैं और इसीलिए वे एक नया समझौता प्रस्तावित कर रहे हैं, जिसका मुख्य उद्देश्य पूरे लेबनान में हिजबुल्लाह को निहत्था करना है। प्रतिरोध के हथियार हमारे अस्तित्व का हिस्सा हैं, जिन्हें छीनने का ज़ायोनी सपना अधूरा ही रह जाएगा।
हिजबुल्लाह के महासचिव शेख नईम कासिम ने कहा है कि ज़ायोनी सरकार हिजबुल्लाह के हथियार छीनने में कभी सफल नहीं हो सकती और हम हर संभव आक्रामकता का मुकाबला करने के लिए तैयार हैं।
उन्होंने कमांडर अली करकी की याद में आयोजित एक कार्यक्रम में संबोधन करते हुए कहा,शहीद कमांडर अली करकी हिजबुल्लाह के संस्थापकों में से थे और सैयद हसन नसरुल्लाह के साथ शहीद हुए।
शेख नईम कासिम ने लेबनान में प्रतिरोध की प्रभावशीलता पर सवाल उठाने वालों को संबोधित करते हुए कहा, हिजबुल्लाह ने 1982 से लेकर आज तक असंख्य सफलताएं हासिल की हैं। इजरायल कभी भी हमारे हथियार नहीं छीन सकता यदि वे आक्रमण करेंगा, तो हम पूरी ताकत से बचाव करेंगे। जब तक हम जीवित हैं, इजरायल अपने लक्ष्यों में कभी सफल नहीं हो सकेगा।
उन्होंने कहा, यह सही है कि प्रतिरोध इजरायल के युद्ध को रोकने में पूरी तरह सफल नहीं हो सका, लेकिन उसने दुश्मन को सीमावर्ती क्षेत्र से आगे बढ़ने से रोक दिया और युद्ध को फैलने नहीं दिया। हिजबुल्लाह ने पिछले 17 वर्षों से लेबनान की सुरक्षा और स्थिरता को बनाए रखा है।
हिजबुल्लाह के महासचिव ने कहा, हम हिजबुल्लाह के खिलाफ सभी नई साजिशों को लेबनानी राष्ट्र के लिए एक खतरा मानते हैं, और हमें इसका सामना करना होगा। यदि हमने हथियार डाल दिए, तो दुश्मन पूरे देश पर कब्जा कर लेगा।
उन्होंने आगे कहा,अमेरिका और इजरायल वर्तमान युद्धविराम समझौते को अपने हितों के विरुद्ध मानते हैं और इसीलिए वे एक नया समझौता प्रस्तावित कर रहे हैं, जिसका मुख्य उद्देश्य पूरे लेबनान में हिजबुल्लाह को निहत्था करना है।
ईरानी विदेश मंत्री ने सीरिया पर ज़ायोनी आक्रमण की निंदा की
ईरान के विदेश मंत्री ने कहा: हम सीरिया पर ज़ायोनी शासन के आक्रमण की निंदा करते हैं।
ईरानी विदेश मंत्री सैय्यद अब्बास अराकची ने कहा है कि सीरिया में इज़राइली हस्तक्षेप और आक्रमण का विस्तार अप्रत्याशित नहीं है।
उन्होंने सीरिया के विरुद्ध ज़ायोनी शासन के आक्रमण की निंदा की और कहा: इज़राइली हस्तक्षेप सीरिया में अशांति और रक्तपात को बढ़ाएगा।
विदेश मंत्री सैय्यद अब्बास अराकची का कहना है कि अवैध ज़ायोनी शासन के आक्रमण का सामना करने के लिए वैश्विक एकता आवश्यक है।
उन्होंने कहा: सीरिया में इज़राइली आक्रमण और हस्तक्षेप से क्षेत्र में तनाव बढ़ेगा।