
رضوی
कर्बला में हबीब इब्ने मज़ाहिर अलअसदी की शहादत
हबीब इब्ने मज़ाहिर अलअसदी आपके अलकाब में फाज़िल, कारी, हाफ़िज़ और फकीह बहुत ज्यादा मशहूर है इनका सिलसिला-ऐ-नसब यह है की हबीब इब्ने मज़ाहिर इब्ने रियाब इब्ने अशतर इब्ने इब्ने जुनवान इब्ने फकअस इब्ने तरीफ इब्ने उम्र इब्ने कैस इब्ने हरस इब्ने सअलबता इब्ने दवान इब्ने असद अबुल कासिम असदी फ़कअसी हबीब के पद्रे बुजुर्गवार जनाबे मज़ाहिर हजरते रसूले करीम स० की निगाह में बड़ी इज्ज़त रखते थे रसूले करीम स० इनकी दावत कभी रद्द नहीं फरमाते थे।
आपके अलकाब में फाज़िल, कारी, हाफ़िज़ और फकीह बहुत ज्यादा मशहूर है इनका सिलसिला-ऐ-नसब यह है की हबीब इब्ने मज़ाहिर इब्ने रियाब इब्ने अशतर इब्ने इब्ने जुनवान इब्ने फकअस इब्ने तरीफ इब्ने उम्र इब्ने कैस इब्ने हरस इब्ने सअलबता इब्ने दवान इब्ने असद अबुल कासिम असदी फ़कअसी हबीब के पद्रे बुजुर्गवार जनाबे मज़ाहिर हजरते रसूले करीम स० की निगाह में बड़ी इज्ज़त रखते थे रसूले करीम स० इनकी दावत कभी रद्द नहीं फरमाते थे।
शहीदे सालिस अल्लमा नूर-उल्लाह-शुस्तरी मजलिस-अल-मोमिनीन में लिखते है की हबीब इब्ने मज़ाहिर को सरकारे दो आलम की सोहबत में रहने का भी शरफ हासिल हुआ था उन्होंने उनसे हदीसे सुनी थी।
वो अली इब्ने अबू तालिब अल० की खिदमत में रहे और तमाम लड़ाइयों (जलम,सिफ्फिन,नहरवान) में उन के शरीक रहे शेख तूसी ने इमाम अली इब्ने अबू तालिब और इमाम हसन अलै० और इमाम हुसैन अलै० सब के असहाब में उन का जिक्र किया है।
शबे आशूर एक शब् की मोहलत के लिए जब हजरत अब्बास उमरे सअद की तरफ गए तो हबीब इब्ने मज़ाहिर आप के हमराह थे।
नमाज़े जोहर आशुरा के मौके पर हसीन ल० इब्ने न्मीर की बद-कलामी का जवाब आप ही ने दे दिया था और इसके कहने पर की ‘हुसैन की नमाज़ क़ुबूल न होगी “आप ने बढ़ कर घोड़े के मुंह पर तलवार लगाईं थी और ब-रिवायत नासेख एक जरब से हसीन की नाक उड़ा दी थी।
आप ने मौका-ऐ-जंग में कारे-नुमाया किये थे। आप इज्ने जिहाद लेकर मैदान में निकले और नबर्द आजमाई में मशगूल हो गए यहाँ तक की बासठ (62) दुश्मनों को कत्ल करके शहीद हो गए।
कर्बला में इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम का अमर आंदोलन
कर्बला में इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के आन्दोलन पर दृष्टि डालने से ज्ञात होता है कि यह न तो दस दिन के भीतर लिए गए किसी अचानक निर्णय का परिणाम था और न ही इसकी योजना यज़ीद के शासन को देखकर तैयार की गई थी। पैग़म्बरे इस्लाम हज़रत मुहम्मद मुस्तफ़ा सल्लल्लाहो अलैहे वआलेही वसल्लम के जीवन में ही इस स्थिति का अनुमान लगा लिया गया था कि इस्लाम के समानता और जनाधिकारों पर आधारित मानवीय सिद्धांत, जब भी किसी अत्याचारी के मार्ग में बाधा उत्पन्न करेंगे, उन्हें मिटाने का प्रयास किया जाएगा और इस्लाम के नाम पर अपनी मनमानी तथा एश्वर्य का मार्ग प्रशस्त किया जाएगा। पैग़म्बरे इस्लाम हज़रत मुहम्मद मुस्तफ़ा सल्लल्लाहो अलैहे वआलेही वसल्लम के जीवन में अनके अन्यायी और दुराचारी व्यक्तियों ने वाह्य रूप से तो इस्लाम स्वीकार कर लिया था परन्तु वे सदैव पैग़म्बरे इस्लाम और उनकी शिक्षाओं को अपने हितों के विपरीत समझते रहे और इसी कारण उनसे और उनके परिजनों से सदैव शत्रुता करते रहे। दूसरी ओर हज़रत मुहम्मद मुस्तफ़ा सल्लल्लाहो अलैहे वआलेही वसल्लम ने अपने परिजनों का पालन-पोषण, शिक्षा-दीक्षा और चरित्र निर्माण सबकुछ ईश्वरीय धर्म के अनुसार किया था और उनको एसी आध्यात्मिक एवं मानसिक परिपक्वता प्रदान कर दी थी कि वे बचपन से ही अपने महान सिद्धांतों पर अडिग रहते थे। यह रीति उनके समस्त परिवार में प्रचलित थी। इस विषय में पुत्र और पुत्रियों में किसी भी प्रकार का भेदभाव नहीं था। इसीलिए जिस गोदी में पलने वाले पुत्र हसन व हुसैन बनकर मानव जाति के लिए आदर्श बन गए उसी प्रकार उसी गोदी और उसी घर में पलने वाली बेटियों ने ज़ैनब और उम्मे कुल्सूम बनकर यज़ीदी शासन की चूलें हिला दीं। इस परिवार में पुरुषों और महिलाओं के महत्व में कोई अंतर नही था। यदि अंतर था तो बस उनके कार्यक्षेत्रों में। इस्लामी आदर्शों की सुरक्षा के क्षेत्र में ही यही अंतर देखने में आता है। बचपन मे तीन महीने की अवधि में नाना और फिर माता के स्वर्गवास के पश्चात समाज तथा राजनीति के विभिन्न रूप, लोगों के बदलते रंग और इस्लाम को मिटाने के अत्याचारियों के समस्त प्रयास हुसैन और ज़ैनब ने साथ-साथ देखे थे और उनसे निबटने का ढंग भी उन्होंने साथ-साथ सीखा था।
हज़रत ज़ैनब का विवाह अपने चाचा जाफ़र के पुत्र अब्दुल्लाह से हुआ था। अब्दुल्लाह स्वयं भी अद्वितीय व्यक्तित्व के स्वामी थे और अली व फ़ातिमा की सुपुत्री ज़ैनब भी अनुदाहरणीय थीं। विवाह के समय उन्होंने शर्त रखी थी कि उनको उनके भाइयों से उन्हें अलग रखने पर विवश नहीं किय जाएगा और यदि भाई हुसैन कभी मदीना नगर छोड़कर गए तो वे भी उनके साथ जाएंगी। पति ने विवाह की इस शर्त का सदैव सम्मान किया। हज़रत ज़ैनब, अब्दुल्लाह इब्ने जाफ़र के दो पुत्रों, औन और मुहम्मद की माता थीं। यह बच्चे अभी दस बारह वर्ष ही के थे कि इमाम हुसैन को यज़ीद का समर्थन न करने के कारण मदीना नगर छोड़ना पड़ा। हज़रत ज़ैनब अपने काल की राजनैतिक परिस्थितियों को भी भलि-भांति समझ रही थीं और यज़ीद की बैअत अर्थात आज्ञापालन न करने का परिणाम भी जानती थीं। वे व्याकुल थीं परन्तु पति की बीमारी को देखकर चुप थीं। इसी बीच अब्दुल्लाह इब्ने जाफ़र ने स्वयं ही उनसे इस संवेदनशील स्थिति में भाई के साथ जाने को कहा और यह भी कहा कि बच्चों को भी अपने साथ ले जाओ तथा यदि समय आजाए, जिसकी संभावना है, तो एक बेटे को अपनी ओर से और दूसरे की मेरी ओर से पैग़म्बरे इस्लाम से सुपुत्र हुसैन पर से न्योछावर कर देना। इन बातों से एसा प्रतीत होता है कि अब्दुल्लाह इब्ने जाफ़र भी जानते थे कि इमाम हुसैन का मिशन, ज़ैनब के बिना पूरा नहीं हो सकता।
ज़ैनब कर्बला में आ गईं। कर्बला में उनके साथ आने वाले अपने बच्चे ही नहीं बल्कि भाइयों के बच्चे भी उन्ही की गोदी मे पलकर बड़े हुए थे और यही नहीं माता उम्मुलबनीन की कोख से जन्में चारों भाइयों का बचपन भी उन्ही की गोदी में खेला था।
ज़ैनब कर्बला में अपने भाई हुसैन के लिए पल-पल बढ़ते ख़तरों का आभास करके ही कांप जाती थीं। इसीलिए वे भाई से कहती थीं कि पत्र लिखकर अपने मित्रों को सहायता के लिए बुला लीजिए। विभिन्न अवसरों पर देखा गया कि इमाम हुसैन अपनी बहन से संवेदनशील विषयों पर राय लिया करते थे और परिस्थितियों को नियंत्रित करने में भी हज़रत ज़ैनब सदैव अपने भाई के साथ रहीं।
नौ मुहर्रम की रात्रि जो हुसैन और उनके साथियों के जीवन की अन्तिम रात्रि थी, हज़रत ज़ैनब ने अपने दोनों बच्चों को इस बात पर पूरी तरह से तैयार कर लिया था कि उन्हें इमाम हुसैन की रक्षा के लिए रणक्षेत्र मे शत्रु का सामना करना होगा और इस लक्ष्य के लिए मृत्यु को गले लगाना होगा। बच्चों ने भी इमाम हुसैन के सिद्धांतों की महानता को इस सीमा तक समझ लिया था कि मृत्यु उनकी दृष्टि में आकर्षक बन गई थी।
आशूर के दिन जनाब ज़ैनब ने अपने हाथों से बच्चों को युद्ध के लिए तैयार किया और उनसे कहा था कि औन और मुहम्मद हे मेरे प्रिय बच्चो! हुसैन और उनके लक्ष्य की सुरक्षा के लिए तुम्हारा बलिदान अत्यंत आवश्यक है वरना यह मां तुम्हें कभी मौत की घाटी में नहीं जाने देती। देखो रणक्षेत्र में मेरी लाज रख लेना। और बच्चों ने एसा ही किया।
अरबईन के मुबल्लेगीन का सबसे महत्वपूर्ण कर्तव्य लोगों के साथ अच्छा व्यवहार
हौज़ा इलमिया खुरासान के शिक्षक ने अरबईन हुसैनी (अ) में धर्म का प्रचार करने का सबसे अच्छा अवसर का उल्लेख किया और कहा: धार्मिक मदरसों और उनके मिशन के प्रचारकों के लिए अरबईन हुसैनी (अ) के अवसर पर जो मिशन की पूर्ति के लिए एक उपयुक्त एवं सर्वोत्कृष्ट मंच प्रदान किया जाता है।
हौज़ा-इल्मिया खुरासान के शिक्षक, हुज्जतुल-इस्लाम वल-मुस्लेमीन मालेकी ने एक साक्षात्कार देते हुए उन्होंने अरबईन हुसैनी (अ) के अवसर पर धर्म प्रचार करते हुए उन्हें श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए कहा: ज्ञान के क्षेत्र के छात्रों और प्रचारकों को धार्मिक शिक्षा प्राप्त करने के बाद ईश्वर का संदेश समाज तक पहुंचाना चाहिए।
उन्होंने कहा: अरबईन हुसैनी (अ) के अवसर पर, धार्मिक स्कूलों और प्रचारकों को उनके दिव्य मिशन, जो पैगंबरों का मिशन है, को पूरा करने के लिए एक उपयुक्त और सर्वोत्तम मंच प्रदान किया जाता है।
हौज़ा इल्मिया खुरासान के शिक्षक ने कहा: वास्तव में, छात्रों और विद्वानों को सामाजिक समस्याओं पर नज़र रखनी चाहिए और अस्पताल में ड्यूटी पर मौजूद डॉक्टर और मार्गदर्शन करने वालों की तरह समाज की ज़रूरतों को पहचानना और उनका इलाज करना चाहिए। जो लोग इस्लाम की शिक्षाओं को जानना चाहते हैं।
हुज्जतुल-इस्लाम वल-मुस्लेमीन मालेकी ने अरबईन के तरीके में धैर्य और दृढ़ता के महत्व का उल्लेख किया और कहा: शायद धैर्य और दृढ़ता के लिए सबसे महत्वपूर्ण चीज भगवान के सेवकों के साथ सबसे अच्छा संबंध और अच्छा व्यवहार है।
अरबाईन वॉक असल में यज़ीदीयत की हार
अल्लामा अशफ़ाक़ वाहिदी ने कहा: नजफ़ से कर्बला तक मार्च वास्तव में यज़ीदी की हार है। युवा पीढ़ी को कर्बला और कर्बला के उद्देश्यों तथा विलायत फकीह की व्यवस्था से अवगत कराने की जरूरत है।
हुज्जतुल इस्लाम अशफ़ाक़ वाहिदी ने कहा: उत्पीड़ित, वंचित और वंचितों के अधिकारों के लिए संघर्ष केवल निज़ाम विलायत के माध्यम से किया जा सकता है।
उन्होंने कहा: इमाम खुमैनी ने दुनिया को जो व्यवस्था पेश की, वह समाज में इस्लामी सिद्धांतों के अनुसार जीने के अच्छे शिष्टाचार सिखाती है।
हुज्जतुल-इस्लाम अशफाक वाहिदी ने युवा पीढ़ी के भविष्य और समाज में बढ़ती बुराइयों पर अपने विचार व्यक्त करते हुए कहा: आज अगर लोग इमाम खुमैनी के व्यक्तित्व से प्यार करते हैं और प्यार करते हैं, तो यह केवल उनके द्वारा बनाई गई व्यवस्था के कारण है। पूरी दुनिया में पेश किया गया. यही कारण है कि अधिनायकवादी और उपनिवेशवादी शक्तियाँ इस वास्तविक व्यवस्था को नष्ट करने के लिए एक साथ आ गई हैं।
उन्होंने आगे कहा, हर दिन नए प्रतिबंधों के रूप में मुश्किलें पैदा करना उपनिवेशवाद की हार का प्रमाण है।
अल्लामा अशफ़ाक़ वाहिदी ने कहा: अहल अल-बैत (उन पर शांति) के स्कूल के अनुयायियों ने कर्बला से झूठ से लड़ने का सबक सीखा है। इस्लाम के इतिहास पर नजर डालें तो हमेशा हक और मजलूमों की जीत हुई है।
उन्होंने कहा: हमें ऐसी न्यायपूर्ण व्यवस्था के लिए प्रयास करना चाहिए, जिससे समाज का हर व्यक्ति सम्मान और प्रतिष्ठा का जीवन जी सके.
अल्लामा अशफाक वाहिदी ने कहा: लोगों में जागरूकता पैदा की जा रही है। वह समय दूर नहीं जब पूरी दुनिया में विलायत फकीह व्यवस्था के रूप में इन्साफ और इन्साफ का परचम लहरायेगा।
इमाम हुसैन (अ) के आंदोलन का उद्देश्य मीडिया द्वारा वर्णित किया जाना चाहिए
हुज्जतुल-इस्लाम वल-मुस्लेमीन सैयद सदरुद्दीन क़बांची ने कहा: हमें इस युग के दौरान मीडिया के माध्यम से इमाम हुसैन (अ) के आंदोलन के उद्देश्य को समझाने की ज़रूरत है, इसलिए हमें इसे सार्वजनिक करना चाहिए और इसे सभी तक फैलाना चाहिए।
नजफ अशरफ के इमामे जुमा हुज्जतुल-इस्लाम वल-मुस्लेमीन सैयद सदरुद्दीन कबांची ने नजफ अशरफ में हुसैनियाह फातिमा में नमाज जुमा के खुत्बे मे कहा: हमारा लक्ष्य मीडिया के माध्यम से इमाम हुसैन (अ) को बढ़ावा देना है। मुझे समझाने की जरूरत है इसलिए हमें इसे पूरी दुनिया में प्रचारित और प्रसारित करना चाहिए।
अंतर्राष्ट्रीय युवा दिवस के अवसर पर बोलते हुए, उन्होंने कहा: इस्लाम कहता है कि युवाओं को मार्गदर्शन करने के अलावा, उनके पास कुछ अन्य अधिकार भी हैं, अल्लाह के रसूल (स) एक हदीस में कहा गया है: मैं आपकी कामना करता हूं युवाओं के प्रति दयालु रहें, क्योंकि युवा सबसे दयालु लोग हैं।
इमाम जुमा नजफ अशरफ ने कहा: लेकिन पश्चिमी सभ्यता कहती है कि युवाओं को भटकने का पूरा अधिकार है।
हुज्जतुल-इस्लाम वल-मुस्लेमीन कबानची ने कहा: गाजा के शहीदों की संख्या 40 हजार तक पहुंच गई है और यहूदियों का कहना है कि गाजा के लोगों और उनके बच्चों का नरसंहार किया जाना चाहिए और यह नरसंहार हमारा अधिकार है और न्याय कहता है कि हम उनका नरसंहार करते हैं।
उन्होंने कहा: इज़राइल के सामने आत्मसमर्पण करने का मतलब है दो मिलियन फ़िलिस्तीनियों को मारना, इसलिए प्रतिरोध हर कीमत पर जारी रहना चाहिए और भगवान ने हमें जीत का वादा किया है और हमारी जीत होगी।
नजफ अशरफ के इमाम जुमा ने कहा: इमाम हुसैन (अ) का दौरा करना बहुत सराहनीय है और इस संबंध में इमाम अतहर (अ) की ओर से अनगिनत परंपराएं रही हैं।
ईरान के मुक़ाबले में अमेरिकी स्ट्रैटेजी की विफ़लता की वजह क्या है?
Brandeis University के अध्ययनकर्ता अपने अध्ययन में इस परिणाम पर पहुंचे हैं कि ईरान के ख़िलाफ़ अमेरिकी प्रतिबंध का उल्टा असर निकला है।
अमेरिका के वाशिंग्टन पोस्ट समाचार पत्र में एक मशहूर लेखक फ़रीद ज़करिया ने एक लेख लिखा है जिसका शीर्षक है" ईरान के मुक़ाबले में अमेरिका की विफ़ल नीति को वास्तव में स्ट्रैटेजी नहीं कहा जा सकता" इस लेख में उन्होंने ईरान के मुक़ाबले में अमेरिकी नीति की विफ़लता के कारणों की समीक्षा की है।
उन्होंने अपने लेख में इस बिन्दु की ओर संकेत किया है कि ईरान के मुक़ाबले में वाशिंग्टन की नीति एकजुट स्ट्रैटेजी के बजाये दबाव डालने वाले दृष्टिकोण में परिवर्तित हो गयी है।
हालिया वर्षों में ईरान के मुक़ाबले में अमेरिकी स्ट्रैटेजी की विफ़लता को स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। इस नीति के विफ़ल होने का कारण यह है कि एक एकजुट स्ट्रैटेजी के बजाये वह दबाव डालने की अधिकतम नीति हो गयी है। अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप मई 2018 में ईरान के साथ होने वाले परमाणु समझौते से निकल गये थे उसके बाद से उन्होंने ईरान के ख़िलाफ़ अधिकतम दबाव की नीति अपनाई।
अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति बराक ओबामा के ज़माने में 370 प्रतिबंध थे जो डोनाल्ड ट्रंप के ज़माने में बढ़कर 1500 हो गये। इस प्रकार ईरान विश्व के उस देश में परिवर्तित हो गया जिस पर सबसे अधिक प्रतिबंध हैं। यह उस हालत में है जब परमाणु वार्ता की दूसरी शक्तियां जैसे यूरोपीय देश, रूस और चीन अमेरिका की इस नीति के विरोधी थे।
अमेरिका ने दोबारा ईरान के ख़िलाफ़ प्रतिबंध लगाकर व्यवहारिक रूप से इन देशों को ईरान के साथ व्यापार करने से रोक दिया किन्तु अमेरिका की इस नीति का नतीजा क्या हुआ? ईरान परमाणु सीमितता से आज़ाद हुआ था उसने बड़ी तेज़ी से अपने परमाणु कार्यक्रम में प्रगति की। परमाणु ऊर्जा की अंतरराष्ट्रीय एजेन्सी IAEA के अनुसार जिस समय परमाणु समझौता हुआ था उसकी अपेक्षा इस समय ईरान के पास उससे 30 गुना अधिक संवर्द्धित यूरेनियम है।
जिस समय परमाणु समझौता हुआ था उस समय परमाणु हथियार बनाने के लिए जिस मात्रा में संवर्धित यूरेनियम की आवश्यकता थी उसके लिए एक वर्ष समय की आवश्यकता थी परंतु अमेरिका के विदेशमंत्री एंटनी ब्लिंकन ने पिछले महीने एलान किया है कि ईरान परमाणु हथियार बनाने से एक या दो हफ़्ते की दूरी पर है।
दूसरी ओर ईरान ने विदेशी दबावों को बर्दाश्त करने के साथ क्षेत्रीय गुटों के साथ अपने संबंधों को मज़बूत किया है। इन गुटों में लेबनान का हिज़्बुल्लाह, ग़ज़ा में हमास, यमन में हूसी और इराक़ एवं सीरिया में प्रतिरोधक गुट हैं। इन गुटों के प्रतिरोध के कारण इस्राईल को लंबी और ख़तरे से भरी लड़ाई का सामना है। लालसागर से इस्राईल जाने वाले लगभग 70 प्रतिशत जहानों की आवाजाही में विघ्न उत्पन्न हो गया है और ईरान ने इराक़ और सीरिया को अपने साथ कर लिया है। हम किसी भी दृष्टि से देखें ईरान के संबंध में वाशिंग्टन की नीति विफ़ल व नाकाम हो गयी है।
ईरान के ख़िलाफ़ अधिकतम दबाव की नाकामी का कारण क्या है? Brandeis University के एक अन्य अध्ययनकर्ता हादी काहिलज़ादे अपने अध्ययन में इस नतीजे पर पहुंचे हैं कि अमेरिका ने जो प्रतिबंध लगाया है उसका ईरान के मध्यम वर्ग पर उल्टा असर पड़ा है। बहुत से ईरानी आरंभ से ही परमाणु वार्ता के पक्ष में नहीं थे और उनका मानना था कि इसका कोई लाभ नहीं है और जब अमेरिका एकपक्षीय रूप से परमाणु समझौते से निकल गया तो उन्होंने इसे अपने दृष्टिकोण की सच्चाई और हक़्क़ानियत के रूप में देखा। इसी प्रकार यह विषय इस बात का कारण बना कि ईरानियों ने अपने दरवाज़ों को चीनी निवेशकों के लिए खोल दिया।
परिणाम स्वरूप वाशिंग्टन ने ईरान के मुक़ाबले में अधिकतम दबाव की जो नीति अपनाई है नाकामी और विफ़लता के सिवा उसका कोई अन्य परिणाम नहीं निकला है। दबाव के तरीक़ों व माध्यमों पर ध्यान देने के बजाये अमेरिका और उसके घटकों को एक ऐसी अपनाये जाने की ज़रूरत है जिसमें ईरान को एक वास्तविकता के रूप में स्वीकार कर लिये जाने की ज़रूरत है और वे ऐसी नीति अपनायें जो तनावों को कम करने का कारण बने। संभव है कि ऐसी नीति का अपनाया जाना तनाव के कम होने का कारण न बने परंतु लंबे समय तक चलने वाले युद्ध और क्षेत्र में ख़ूनी हिंसा की रोकथाम का कारण ज़रूर करेगी
प्रतिरोध धुरी दोहा बैठक का पुरजोर बहिष्कार करती है
इंटरनेशनल यूनियन ऑफ रेज़िस्टेंस स्कॉलर्स के प्रमुख ने कहा: यह प्रतिरोध दिव्य है, यह कठिन परिस्थितियों का सामना करता है, कांटों के बीच फूल उगाता है, ड्रेगन की गोद में रेंगता है, इसलिए यह दोहा बैठक का बहिष्कार भी कर सकता है।
लेबनान में इंटरनेशनल यूनियन ऑफ रेसिस्टेंस स्कॉलर्स के प्रमुख शेख माहिर हम्मूद ने दोहा बैठक के संबंध में अपने विचार व्यक्त किए और कहा: जब हम फिलिस्तीन, लेबनान और इस साहसी प्रतिरोध की स्थितियों और स्थितियों पर चर्चा करते हैं। अन्य कुल्हाड़ियों, तो हम देखते हैं कि यह प्रतिरोध दिव्य है, यह कठिन परिस्थितियों का सामना करता है, कांटों के बीच फूल उगाता है, ड्रेगन की गोद में रेंगता है, इसलिए यह दोहा बैठक का बहिष्कार भी कर सकता है।
उन्होंने कहा: जिस बैठक से कोई फ़ायदा नहीं होता और जिसमें ज़ायोनीवादियों पर दबाव बनाने की शक्ति भी नहीं होती, प्रतिरोध धुरी बड़े गर्व और सम्मान के साथ इस बैठक का बहिष्कार करती है।
शेख हम्मूद ने इस संबंध में पूछा: यह कौन सी शक्ति है कि ईरान पिछले कई वर्षों से विभिन्न युद्धों और घेराबंदी के खिलाफ मजबूत और प्रतिरोधी रहा है? आज भी वह आक्रमणकारियों के जवाब में परमाणु हथियार से हमला करने की धमकी देने में सक्षम है और क्रांति के सर्वोच्च नेता कहते हैं कि हम इन सभी समस्याओं से निपटने के लिए तैयार हैं।
वहदत-ए-इस्लामी का सबसे अच्छा उदाहरण "अरबईन वॉक"
ईरान के फ़ार्स प्रांत में हौज़ा उलमिया के निदेशक ने अरबईन हुसैनी को सामूहिक मामलों का एक उत्कृष्ट उदाहरण बताया और कहा: अरबईन वॉक इस्लामी संस्कारों में से एक है, यहां तक कि अरबईन वॉक इस्लामी एकता का सबसे अच्छा उदाहरण है।
ईरान के फ़ार्स प्रांत में हौज़ा उलमिया के निदेशक होजतुल-इस्लाम वल-मुस्लिमीन अब्दुल रज़ा महमूदी ने हरम मुतहर शाहचराघ (ए.एस.) में आयोजित "हरम से हराम" सम्मेलन में पैदल तीर्थयात्रा का इतिहास बताया। हज़रत अल-शाहदा (ए.एस.) की और इसकी पृष्ठभूमि की ओर इशारा करते हुए उन्होंने कहा: इतिहासकारों की परंपराओं में जो स्पष्ट रूप से कहा गया है वह यह है कि यह पूजा शेख अंसारी के समय से विद्वानों और लोगों के बीच मौजूद है।
उन्होंने आगे कहा: शेख अंसारी एक महान व्यक्तित्व हैं जो अपने मामलों, प्रयासों के प्रति गंभीर थे और उनके शिक्षण में कोई भी क्षण ऐसा नहीं था जब वह छात्रों के अध्ययन, अध्यापन और शिक्षा में संलग्न न रहे हों.
फ़ार्स मदरसा के निदेशक ने अरबईन वॉक की महिमा का वर्णन किया और कहा: एक छोटा कार्यक्रम आयोजित करने के लिए लोगों के बीच कई दिनों तक समन्वय और घोषणा आदि की आवश्यकता होती है, लेकिन अरबईन हुसैनी (एएस) देखें जहां इश्क-ए- हुसैन बिना किसी तालमेल के 2 करोड़ की भीड़ को अपनी ओर खींच लेते हैं.
होज़ा उलमिया के संपादक ने कहा: अरबईन वॉक इस्लामी संस्कारों में से एक है, यहां तक कि अरबईन वॉक इस्लामी एकता का सबसे अच्छा उदाहरण है।
शोहदा ए कर्बला में जुहैर इब्ने कैन अलजबली की महान कुर्बानी
जुहैर इब्ने कैन इब्ने क़ीस अल अम्मारी जबली अपनी कौम के शरीफ और रईस थे आपने कूफे में सुकूनत इख्तेयार की थी और वहीँ पर रहते थे आप बड़े शुजा और बहादुर थे अक्सर लड़ाइयों में शरीक रहते थे पहले उस्मानी थे फिर 60 हिजरी में हुस्सैनी अलअल्वी हो गए ।
जुहैर इब्ने कैन इब्ने क़ीस अल अम्मारी जबली अपनी कौम के शरीफ और रईस थे आपने कूफे में सुकूनत इख्तेयार की थी और वहीँ पर रहते थे आप बड़े शुजा और बहादुर थे अक्सर लड़ाइयों में शरीक रहते थे पहले उस्मानी थे फिर 60 हिजरी में हुस्सैनी अलअल्वी हो गए।
60 हिजरी में हज के लिए अहलो अयाल समेत गए थे । वहां से वापस कूफे आ रहे थे की रास्ते में इमाम हुसैन अलै० से मुलाकात हो गई । एक दिन ऐसी जगह उनके ख्याम नसब हुए की इमाम हुसैन अलै० के खेमे भी सामने थे।
जब जुहैर खाना खाने के लिए बैठे तो इमाम हुसैन अलै० का कासिद पहुच गया। उसने सलाम के बाद कहा जुहैर तुम को फ़रज़न्दे रसूल ने याद किया है यह सुन कर सबको सकता हो गया और हाथों से निवाले गिर पड़े।
जुहैर की बीवी जिस का नाम ‘वलहम बिनते उमर , था जुहैर की तरफ मुतावज्जे हो कर कहने लगीं जुहैर क्या सोचते हो? खुशनसीब तुमको फ़रज़न्दे रसूल ने याद किया है उठो और उनकी खिदमत में हाजिर हो जाओ।
जुहैर उठे और खिदमते इमाम हुसैन अलै० में हाजिर हुए थोड़ी देर के बाद जो वापिस आये तो उनका चेरा निहायत बश्शाश था। ख़ुशी के साथ आसार उनके चेहरे से जाहिर थे।
उन्होंने वापस आतें ही हुक्म दिया की सब खेमे इमाम हुसैन अलै० के खयाम के करीब नसब कर दे और बीवी से कहा मै तुमको तलाक दिए देता हूँ तुम अपने कबीले को वापिस चली जाओ मगर एक वाक़या मुझ से सुन लो।
जब लश्करे इस्लाम ने बल्खजर पर चढ़ाई की और फतहयाब हुए तो सब खुश थे और मै भी खुश था मुझे मसरूर देखकर सुलेमान फ़ारसी ने कहा की जुहैर तुम उस दिन इससे ज्यादा खुश होगे जिस दिन फरज़न्दे रसूल के साथ होकर जंग करोगे “।(अल-बसार अल-एन)
मै तुम्हे खुदा हाफिज कहता हुं और इमाम हुसैन अलै० के लश्कर में शरीक होता हूँ इसके बाद आप इमाम हुसैन अलै० की खिदमत में हाजिर हुए और मरते दम तक साथ रहें यहाँ तक की शहीद हो गए
मोअर्खींन का बयान है की जनाबे जुहैर इमाम हुसैन अलै० के हमराह चल रहे थे मकामे “जौह्शम” पर हुर्र की आमद के बाद आप ने खुतबे में असहाब से फरमाया की तुम वापस चले जाओ उन्हें सिर्फ मेरी जान से मतलब है इस जवाब में जुहैर ने ही कहा था की हम हर हाल में आप पर कुर्बान होंगे।
जब हुर्र ने इमाम हुसैन अलै० की से मुज़हेमत की थी तो जनाब जुहैर ने इमाम हुसैंन की बारगाह में दरखास्त की थी अभी ये एक ही हजार है हुकुम दीजिये की उनका खातेमा कर दे। जिस के जवाब में इमामे हुसैन ने फ़रमाया था की हम इब्तेदाए जंग नहीं कर सकते । मोर्रखींन का ये बयान है की जब हजरते अब्बास एक शब की मोहलत लेने के लिए शबे आशुर निकले थे तो जनाबे जुहैर भी आप के साथ थे ।
शबे आशुर के ख़ुत्बे के जवाब में जनाबे जुहैर ने कमाले दिलेरी से अर्ज़ की थी की आप “मौला अगर 70 मर्तबा भी हम आप की मोहब्बत में कत्ल किये जाए तो भी कोई परवाह नही।
मोअर्र्खींन का इत्तेफाक है की सुबह आशुर जब इमाम हुसैन अलै0 ने अपने छोटे से लश्कर की तरतीब दी तो मैमना जनाबे जुहैर ही के सुपुर्द किया था ।
यौमे आशुर आपने जो कारे-नुमाया किया है वह तारीखे कर्बला के वर्को में मौजूद है। नमाज़े जोहर की जद्दो-जहद में भी आप आप का हिस्सा है। आपने पै-दर-पै दुश्मनों पर कई हमले किये और 150 को फना के घाट उतार दिया बिल आखिर अब्दुल्लाह इब्ने शबइ और मुहाजिर इब्ने अदस तमीमी के हाथो शहीद हुए।
अगर रूसी, इस्राईल की तरह रिपोर्टरों की हत्या करते
सात अक्तूबर 2023 से आरंभ होने वाले ग़ज़ा युद्ध से अब तक ज़ायोनी सैनिकों का कर्मपत्र अनगिनत अपराधों से भरा होने के अतिरिक्त उन्होंने लगभग 170 फ़िलिस्तीनी रिपोर्टरों को भी शहीद कर दिया और उनमें से बहुत को घायल कर दिया है ताकि ग़ज़ा में जो युद्ध और ज़ायोनी सैनिकों का आतंक व अपराध जारी है दुनिया तक उसे पहुंचाने की प्रक्रिया में विघ्न उत्पन्न किया जा सके।
ईरान की मेहर न्यूज़ एजेन्सी ने अमेरिका के मशहूर रिपोर्टर और लेखक मार्क ग्लेन से इसी संबंध में और फ़िलिस्तीन मामले के संबंध में पश्चिम के दोहरे मापदंड के बारे में इंटरव्यू किया है जो इस प्रकार है।
ग़ज़ा युद्ध के दौरान दसियों पत्रकारों को लक्ष्य बनाकर मार दिया गया। क्या इतनी बड़ी संख्या में ज़ायोनी सैनिकों के हाथों रिपोर्टरों की हत्या संयोगवश है? या जानबूझ कर उन्हें लक्ष्य बनाया गया?
समझदार और तार्किक लोगों विशेष उन लोगों के लिए जो ज़ायोनी सरकार के क्रियाकलापों से अवगत हैं पूरी तरह स्पष्ट है कि ज़ायोनी सैनिक जानबूझ कर पत्रकारों की हत्या करते हैं। इस्राईल की ग़ैर क़ानूनी बुनियाद झूठ और पाखंड पर रखी गयी है। जब ज़ायोनी सरकार ग़ज़ा पट्टी के ताबेईन स्कूल पर बमबारी करती है या रिपोर्टों की हत्या करती है तो ग़लती से ऐसा होने का दावा करती है जबकि यह ज़ायोनी सरकार के अपराधों का एक भाग है। ज़ायोनी सैनिक जानबूझकर न केवल रिपोर्टों की हत्या करते हैं बल्कि इस काम से उन्हें आनंद भी आता है।
सवाल यह उठता है कि क्यों ज़ायोनी सैनिक रिपोर्टरों को निशाना बनाते हैं विशेषकर इस बात के दृष्टिगत कि पूरी दुनिया में डेमोक्रेसी में विस्तार के लिए पत्रकारों और संचार माध्यमों के अस्तित्व को ज़रूरी समझा जाता है?
यूनान, रोम, यूरोप, मध्यपूर्व और सुदूरपूर्व सहित विभिन्न क्षेत्रों व कालों में यहूदियों ने यह सीख लिया कि ग़ैर यहूदी किस प्रकार या क्या सोचते हैं और उनकी सोच को ध्यान में रखकर वे व्यवहार करते हैं। इसी कारण वर्ष 1897 में थ्यूडर हर्तज़ेल द्वारा ज़ायोनियों की पहली कांग्रेस के आयोजन के कुछ समय बाद फ़िलिस्तीन और मध्यपूर्व के दूसरे हिस्सों पर क़ब्ज़ा लेने का विचार उनके दिल में पैदा हुआ और बड़ी तेज़ी से उस समय मौजूद संचार माध्यमों विशेषकर अमेरिका और पश्चिम में मौजूद संचार माध्यमों पर क़ब्ज़ा और अपने नियंत्रण में कर लिया। यहूदियों ने यह बात समझ लिया कि जो कुछ उनके दिमाग़ में है उसे व्यवहारिक बनाने के लिए उन देशों के लोगों के ज़ेहनों पर क़ब्ज़ा करना ज़रूरी है। इसका अर्थ लोग, जो देखते हैं, सुनते हैं, पढ़ते हैं और कल्पना करते हैं उन सब पर क़ब्ज़ा करना है।
अब सवाल यह उठता है कि जब रिपोर्ट पहुंचाने के लिए पत्रकारों और संचार माध्यमों का होना ज़रूरी है तो फ़िर ज़ायोनी सरकार रिपोर्टरों को क्यों लक्ष्य बनाती है? वास्तविकता यह है कि इस्राईल को डेमोक्रेसी से कुछ लेनादेना नहीं है और उसे कभी भी न तो डेमोक्रेसी पसंद थी और न है। ठीक उस भ्रष्ट और गंदे इंसान की भांति जो दुर्गन्ध को छिपाने व दबाने के लिए इत्र का सहारा लेते हैं इस्राईल भी ठीक उसी तरह अपने कृत्यों व अपराधों को छिपाने के लिए डेमोक्रेसी जैसे शब्दों का सहारा लेता है जबकि उसकी वास्तविक पहचान दाइश जैसे ख़ूख़ार आतंकवादी से अधिक मिलती है और वह अपने किसी विरोधी की बात सुनने के लिए तैयार नहीं है।
जैसाकि आप जानते हैं कि रिपोर्टर वास्तविकताओं के साक्षी और उसे लोगों तक पहुंचाना उनकी ज़िम्मेदारी है परंतु ज़ायोनी सरकार के हाथों रिपोर्टरों र्की हत्या पर पश्चिमी व यूरोपीय देशों ने क्यों चुप्पी साध रखी है? इस प्रकार के दोहरे मापदंड का औचित्य कैसे दर्शाया जा सकता है? अगर रूसी सैनिक यूक्रेन युद्ध में लगभग 170 रिपोर्टरों की हत्या करते तो पश्चिमी संचार माध्यम क्या करते?
जैसाकि इससे पहले हमने कहा कि ज़ायोनिज़्म एक प्रायोजित संगठन है जिसने पिछली एक शताब्दी से सामूहिक और ग़ैर सामूहिक संचार माध्यमों पर क़ब्ज़ा करना आरंभ कर दिया और इस लक्ष्य को उसने प्राप्त भी कर लिया है और धीरे- धीरे ज़ायोनियों ने संचार माध्यमों और रिपोर्टों के लिए क़ानून बना दिया और उन संचार माध्यमों और रिपोर्टों को रिपोर्ट देने से मना कर दिया जाता है जो उनके द्वारा निर्धारित नियमों व क़ानूनों का उल्लंघन करते हैं जबकि संचार माध्यमों और रिपोर्टरों को इससे पहले उन विषयों के बारे में बहस करने और रिपोर्ट देने का पूरा अधिकार था।
यहूदियों को अपने विरोधियों की आवाज़ सुनने की ताक़त नहीं है यानी वे इस बात को बर्दाश्त नहीं कर सकते कि उनके ख़िलाफ़ कोई आवाज उठाये। इसी तरह वे अपने दृष्टिकोणों पर आपत्ति जताने वालों को भी सहन नहीं कर सकते और मध्यपूर्व पर क़ब्ज़ा उनकी सूची में पहले नंबर पर है।
वास्तव में प्रशंसा व सराहना इंसान की आंतरिक इच्छा है और इंसान आसान व सरल कार्यों की अपेक्षा नैतिक कार्यों की ओर अधिक रुझान रखता है और रिपोर्टर भी इस नियम व क़ानून से अपवाद नहीं हैं। हम पूरे विश्वास से इस बात की गवाही दे सकते हैं कि जब रिपोर्टर हक़ीक़त बताते व कहते हैं और सिस्टम को चुनौती देते हैं तो उनके लिए क्या और कौन सी घटनायें पेश आ सकती हैं।
वास्तविकता यह है कि दुनिया में स्वतंत्र संचार माध्यमों की संख्या बहुत कम है यानी उन संचार माध्यमों की संख्या बहुत कम है जो किसी घटना को पूरी सच्चाई से बयान करना चाहते हैं।
इंटरनेश्नल सतह के अधिकांश संचार माध्यम दावा करते हैं कि वास्तविकता बयान करने से वे नहीं डरते हैं परंतु जब वास्तविकता को पूरी तरह सच्चाई से बयान करने का समय आता है तो वे पूरी ईमानदारी से ख़बर नहीं देते हैं क्योंकि वे इस बात को जानते हैं कि अगर सच्चाई से पूरी बात बता दी जायेगी तो पूरा मामला बदल जायेगा। किस विशेष रिपोर्टर या संचार माध्यम पर भरोसा किया जा सकता है या नहीं तो इस बारे में हमारा कहना यह है कि सबसे पहले यह देखें कि इस मामले के बारे में ज़ायोनियों का दृष्टिकोण क्या है? अगर यह रिपोर्टर या संचार माध्यम वह नहीं कहता है जो ज़ायोनी कहते हैं तो मेरे अनुसार उस समय रिपोर्टर या संचार माध्यम अपनी पहली परीक्षा में कामयाब रहा है।