नसीहतें

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सैरो सलूक की राह बहुत दुशवार है इसमें बहुत से नशेबो फ़राज़ व पेचो ख़म पाये जाते हैं अगरचे इस राह में हर मंज़िल पर जलवे हैं और मोमिने सालिक को( बेदारी या ख़वाब की हालत में शाद कर देने वाले उन्स, माअरेफ़त और यक़ीन) के दिल कश नज़ारों का मुशाहेदा होता रहता है

 

सैरो सलूक की राह बहुत दुशवार है इसमें बहुत से नशेबो फ़राज़ व पेचो ख़म पाये जाते हैं अगरचे इस राह में हर मंज़िल पर जलवे हैं और मोमिने सालिक को( बेदारी या ख़वाब की हालत में शाद कर देने वाले उन्स, माअरेफ़त और यक़ीन) के दिल कश नज़ारों का मुशाहेदा होता रहता है, लेकिन यह जलवे और मन्ज़र उस वक़्त अपने कमाल को पहुँचते हैं जब सालिके ख़ुदा जू अपनी ज़िन्दगी का एक बड़ा हिस्सा इस राह में सर्फ़ कर देता है और इस राह का पुराना राही हो जाता है। क्योंकि-

 

1- इन मनाज़िल में, सबसे ज़्यादा रंज लिक़ा उल्लाह की नशोबो फ़राज़ वाली राह में(या अय्युहल इंसानु इन्नका कादिहुन इला रब्बिका कदहन फ़मुलाक़ीहि)[1] की शक्ल में, हरमें रब के दिफ़ाअ और उसके दीन की हिफ़ाज़त में बर्दाश्त करने पड़ते हैं लिहाज़ा यह बात तबई है कि उसको लिक़ा उल्लाह से ख़ुशी भी उतनी ही ज़्यादा होगी और उसको अपने महबूब के जमाल का दीदार भी उतना ही ज़्यादा होगा।

 

2- इस मुद्दत में उसके वुजूद में जो ज़रफ़ियत और वुसअत पैदजा होती है वह गुज़िश्ता की निसबत कहीँ ज़्यादा होती है। और इस कहावत की बुनियाद पर“हर के बामश बीश, बर्फ़श बीशतर ” उसके वुजूद की सरज़मीन पर आसमाने मलाकूत से नज़ूलात भी ज़्यादा होते है।

 

3- इस मुद्दत में वह पुख़्ता और तजर्बे कार हो जाता है उसके पास तजर्बों का एक ख़ज़ाना होता है दुनिया की बेवफ़ाईयों और अहले दुनिया की मक्कारियों के तजुर्बे,इंसान को बेदार करने वाली मातों के तजुर्बे, सराबों के तजुर्बे “कसराबिन बिक़ीअतिन यहसबुहु अज़्ज़मानु माअन”[2] ग़रूरों के तजुर्बे “मा अल हयातिद्दुनिया इल्ला मताईल ग़रूर ”[3], अन्दर से ख़ाली और दूर से अच्छी लगने वाली दुनिया के तजुर्बे “कुल्लु शैइन मिन अद्दुनिया समाउहु आज़मु मिन अयानिहि.... ”[4], यह तजुर्बे उसके ज़ाती तजुर्बे हैं उसके वुजूद के ज़र्रा ज़र्रा इन तजुर्बात से आशना है उसने इनको अपनी या दूसरों की ज़िन्दगी में नज़दीक से महसूस किया है। ज़ाहिर है कि इन तजुर्बों का नतीजा इस फ़ानी दुनिया की तमाम रंगीनियो, सराबों और वाबस्तगीयों से क़तए ताल्लुक़ हो कर कभी फ़ना न होने वाली ज़ात से क़ल्बी लगाव पैदा करना है। “कुल्लु शैइन हालिकुन इल्ला वजहुहु

 

ज़हिर है कि उपर बयान किये गये तीनों आमिल और कुछ दिगर अवामिल सालिक राहे ख़ुदा की ख़वाब की सदाक़त, हज़ूरो शहूद की हक़्क़ानियत, यक़ीनो माअरफ़त की ख़ुशियों को एक नया रंग देते है और उसको एक अनोखी क़िस्म की कुव्वत, एतबार व शिद्दत अता करते हैं। इसमें कोई शक नही है कि दो चीज़ें ऐसी है जो इस तकामुल, पुख़्तगी, सफ़ा व शफ़्फ़ाफ़ियत के लिए तजल्ली गाह बन सकती हैं इनमें से एक नसीहतें हैं।

 

नसीहतें

 

वह रंज और ज़हमते जो सालिके मोमिन अहयाए दीने ख़ुदा और मकतबे अहले बैत अलैहिमुस्सलाम में बर्दाश्त करता है इस से उसके अन्दर जहाँ ज़रफ़ियत का इज़ाफ़ा होता है वहीँ दुनिया से बहुत ज़्यादा ला तअल्लुक़ी पैदा हो जाती है। इस बात से कतए नज़र कि आम तौर पर मोमिन सालिक के बयान और तहरीर में शऊर, हिकमत व हक़्क़ानियत का इज़ाफ़ा हो जाता (इस तरह कि जहाँ उसकी नस्र में सोज़ व पयाम पैदा हो जाता है वहीँ उसकी नज़्म भी हिकमत व माअरफ़त से माला माल होती है। इसकी वज़ाहत अगले हिस्समें की जायेगी) उसकी नसीहतों में एक ख़ास क़िस्म का जलवा पैदा हो जाता है जो नसीहत की तासीर को बढ़ा देता है। क्यों कि उम्र के इस मरहले में वह दिल की गहराईयों से नसीहतें करता है जो कि सिद्क़ो सदाक़त व सोज़ो गुदाज़ से पुर होती है लिहाज़ उसके कलाम में तसन्नो व तकल्लुफ़ नही पाये जाते और वह पढ़ने व सुन ने वाले को उलझन में डालने वाली बे फ़साहतो बलाग़त लफ़्फ़ाजीयो से दूर रहता है।

 

इस छोटे से मुक़द्दमें के बाद अब अगर आप यह चाहते हो कि और इन सतरों के लिखने वाले की तरह रोते हुए अपनी थकी हारी रूह पर सैक़ल करो और अपने नफ़्स की प्यास को पीरे राह रफ़ता के कौसरे ज़ुलाल से सेराब करो तो हमारे उस्ताद की नसीहतों को सुन ने के लिए बैढो और इसके हर बन्द व हर सतर को ग़ौर से सुनो और उनके “नसीहत नामें” को पढ़ कर मसीरे क़ुर्बे ख़ुदा पर चलो, तक़वाए इलाही की रिआयत करते हुए माद्दियात की दुनिया से बाहर आओ क्योँ कि उसकी इतनी अहमियत नही है जितनी तुम समझते हो, अपने तजुर्बात से ग़ाफ़िल न हो, अपनी ग़लतीयों का इयादा करो। अच्छी तरह समझ लो कि हर रोज़ एक नया क़दम उठाओ और वसवसों से जंग करते हुए सकून व इतमिना हासिल करो, हमेशा अपने खोये हुए असली सरमाये को तलाश करने की जुस्तुजू मे लगे रहो। ख़ुद ख़वाही, ख़ुद पसंदी, ख़ुद महवरी और तकब्बुर को छोड़ कर अपनी आँखों के सामने से हिजाबे अकबर को हटा दो और फिर औलिया ए ख़ुदा की तरह गिड़गिड़ाते हुए ज़ाते अक़दस के सामने अपनी वाबस्तगी व फ़क़्र को पूरी तरह ज़ाहिर करो और शिर्को रिया को छोड़ कर इस राह के आखिरी मानेअ को ख़त्म कर दो।

 

(यह इबारत “नीम क़र्ने ख़िदमत बेह मकतबे अहलिबैत (अ.) ” नामक किताब से ली गई है जिसके लेखक हुज्जतुल इस्लाम वल मुस्लेमीन अहमद क़ुदसी हैं।

 

उस्ताद नसीहत नामा

 

“बहुत से अफ़राद मखसूसन जवान जब हमारे पास आते हैं तो नसीहतें चाहते हैं ताकि उनको अपनी ज़िन्दगी के लिए मशले राह बना कर क़ुर्बे ख़ुदा के रास्ते पर आगे बढ़ें। ( इस गुमान के साथ के हमने यह रास्ता पा लिया है और हम इसके शाह राहों व गली कूचों से आगाह हैं, काश के ऐसा होता !) लेकिन जहाँ से हर दरख़वास्त का जवाब मिलता है वहाँ से किसी को बग़ैर जवाब के नही पलटाना चाहिए मखसूसन अहले ईमान, हक़ीक़त जू और राहे हक़ से मुतमस्सिक होने वाले अफ़राद को आयात क़ुरआने करीम की आयात,मसूमीन के अक़ावाल,बुज़ुर्गाने दीन के हालात से इस्तेफ़ादा करते हुए और अपनी ज़िन्दगी के तजर्बों की बिना पर यह चन्द सतरें लिखीं जिनको “बिज़ाअत मज़जात” की शक्ल में आप हज़रात को हदिया कर रहाँ हूँ मैं तमाम हज़रात से इस बात की गुज़ारिश करता हूँ कि जिस तरह मैं आपकी कामयाबी की दुआ करता हूँ इसी तरह आप भी मुझे दुआए ख़ैर में याद रखें।

 

1- तक़वाए इलाही

सब से पहले मैं अपनी ज़ात को और आप तमाम हज़रात को तक़वाए इलाही की वसीयत करता हूँ उस तक़वे की वसीयत जो अल्लाह का मोहकम क़िला और रोज़े क़ियामत का बेहतरीन सरमाया ही नही बल्कि “ख़ैर उज़्ज़ाद इला ख़ालिक़िल इबाद” है। वह तक़वा जो हमारी रगो जाँ मे सरायत कर जाता है और हमारी तमाम हरकातो सकनात को अपने रंग मे रंग लेता है। “मन अहसना मिन सिबग़ति अल्लाह ” ऐसा तक़वा जो हमारी तमाम आरज़ूओं को पूरा करता है,हमारी ज़िन्दगी की राह को मुशख़्ख़स करता है और फिर राह को रौशन कर के हमारे हदफ़ को आली बनाता है।

 

वह तक़वा जो सब से बड़ा सरमाया और बुलन्द तरीन इफ़तेख़ार है, वह तक़वा जो इंसान को अल्लाह से जोड़ता और उसके ख़ास बन्दों मे शामिल करा देता है फ़िर उसके दिल की गहराईयों से यह सदा बलन्द होती है “इलाही कफ़ा बी इज़्ज़न अन अकूना लका अब्दन व कफ़ा बी फ़ख़रन अन तकूना ली रब्बन” ऐ मेरे अल्लाह मेरी इज़्ज़त के लिए यह काफ़ी है कि मैं तेरा बन्दा हूँ और मेरे फ़ख़्र के लिए यह काफ़ी है कि तू मेरा रब है। यानी मेरी सबसे बड़ी इज़्ज़त तेरी बन्दगी में और मेरा सबसे बड़ा फ़ख़्र तेरी रबूबियत है।[5]

 

2-माद्दी मक़ामात उस से कहीँ ज़्यादा कम अहमियत हैं जितना तुम सोचते हो

 

मेरे अज़ीजो ! मैने अपनी इस मुख़तसर सी ज़िन्दगी में जिन्दगी के नशेबो फ़राज़ को देख है और इस ज़िन्दगी की तलख़ीयों, इज़्ज़त व ज़िल्लत, मालदारी व फ़क़ीरी, ऐशो इशरत व परेशानियों का तजुर्बा करने के बाद क़ुरआने करीम में बयान की गई इस हक़ीक़त को महसूस किया है कि “ व मा अल हयातु अद्दुनिया इल्ला मताउल ग़ुरूर”[6] हाँ दुनिया मताए ग़ुरूर व फ़रेब है जो तुम सोचते हो ऐसा नही है बल्कि यह अन्दर से ख़ाली है।

 

फ़ार्सी ज़बान में शाईर ने क्या ख़ूब कहा है-

ज़िन्दगी नुक़्तए मरमूज़ी नीस्त।

ग़ैरे तबदील शबो रोज़ी नास्त ।।

तलख़ो शौरी के बे नामे उम्र अस्त ।

रास्ती आश दहन सोज़ी नीस्त।।

 

आख़ेरत की हयाते जावेदीनी का अक़ीदह ही वहब तन्हा आमिल है जो इस दुनिया की ज़िन्दगी को वा मफ़हूम बनाता है और अगर हयाते उख़तवी न होती तो इस दुनिया की ज़िन्दगी का न कोई मफ़हूम होता न हदफ़ !

मैने अपनी तमाम उम्र मे उन चीज़ों के अलावा जिन में मानवीयत पाई जाती है या इंसानी अक़दार मौजूद है कोई बा अहमियत चीज़ नही देखी। तमाम माद्दी अरज़िशें सराब की तरह हैं, इंसान सो रहा है, उसके तमाम ख़यालात पानी पर नक़्शा बनाने की मानिन्द हैं, इंसान इस ज़िन्दगी में हमेशा रंजो ग़म व परेशानियो में घिरा रहता है।

कल के बच्चे आज के जवान हैं और आज के जवान कल के बूढ़े हैं, और कल के बूढ़े अपनी क़ब्रो में सो रहे हैं, तुम जो कहते हो ऐसा हर गिज़ नही है।

 

जब हम माज़ी के किसी बुज़ुर्ग आलिम दीन या किसी और अहम शख़्सित के माकान के पास से गुज़रते हैं तो याद आता है कि कल इस मकान में कैसी चहल पहल रौनक़ थी लेकिन आज इसी मकान पर उदासी और ख़ामौशी छायी हुई है। कभी नहजुल बलाग़ा में मौजूद हज़रत अली अलैहिस्सलाम का मुतनब्बेह करने वाला यह क़ौल याद आता है कि “फ़कअन्नाहुम लम यकूनू लिद दुनिया उम्मारन व कअन्ना अल आख़िरता लम तज़ल लहुम दारन”[7] गौया यह लोग हरगिज़ इस दुनिया के रहने वाले नही थे और हमेशा से आख़िरत ही उनका ठिकाना था।

 

हम बलन्द क़ामत दोस्तों की झ़ुकी हुई कमरों को देखते हैं, जो आज कल छड़ी के सहारे चल रहे हैं, वह चन्द क़दम चलते हैं और थक कर रुक जाते हैं, फिर थोड़ा सा सस्ताने के बाद आहिस्ता आहिस्ता आगे क़दम बढ़ाने लगते हैं। उनकी जवानी का ज़माना नज़रों में घूमने लगता है कि वह कितना बलन्द क़द थे, उनमें कितना जोश व जज़बा पाया जाता था, वह किस तरह हंस हंस कर बाते किया करते थे लेकिन आज उनके चेहरों पर इस तरह मायूसी छायी हुई है जैसे इन को कभी ख़ुशियोँ ने दूर से भी न छूआ हो।

 

यह सब चीज़ों देख कर अल्लाह के बेदार करने वाले कलाम “व मा हाज़िहि अल हयातु अद्दुनिया इल्ला लहवुन व लइबुन”[8] (इस दुनिया की ज़िन्दगी लहबो लअब के अलावा कुछ नही है) के मफ़हूम को अच्छी तरह दर्क करता हूँ और मुतमइन हो जाता हूँ कि दूसरे लोग मेरी उम्र मे पहुँच कर अगर थोड़ भी ग़ौरो फ़िक्र करेंगे तो वह भी सब कुछ समझ जायेंगे। इन सब बातों के ज़ाहिर होने के बाद मालो मक़ाम, जाहो जलाल के लिए आपस में लड़ाई झगड़े क्यों है ? यह हंगामे किस लिए हो रहे है ? यह ग़फ़लत क्यों तारी रही हो है ?

 

मखसूसन आज का यह दौर जो तग़य्युरात को बहुत जल्द क़बूल करता है और जिसमें बहुत से बदलाव आ चुके हैं।

मैं बहुत से ऐसे ख़ानदानों को जानता हूँ जिनकी अपना एक अलग ही दुनिया थी, तमाम अफ़राद एक साथ रहते थे लेकिन आज सब बिखर गये हैं कोई अमरीका में है तो कोई यूरोप में जिन्दगी बसर कर रहा है और बूढ़े माँ बाप घर में तन्हाँ रह गये हैं। महीनों गुज़र जाते हैं न माँ बाप को औलाद की ख़ैरियत मिल पाती है और न औलाद को माँ बाप की, यह सब देख कर इमाम का पुर नूर कलाम याद आता है कि “इन्ना शैयन हाज़ा आख़िरुहु लहक़ीक़ुन अन युज़हदा फ़ी अव्वलिहि ” जिस चीज़ का नतीजा यह हो बेहतर है कि उससे शुरु से ही परहेज़ किया जाये।

 

कभी-कभी मुरदों की ज़ियारत के लिए क़ब्रिस्तान जाता हूँ मख़सूसन उलमा व फ़ुज़ला के मक़बरों पर तो देखता हूँ कि वहाँ पर क़दीमी दोस्त और आशना अफ़राद एक बहुत बड़ी तादाद में यहाँ पर आराम कर रहे है। उन की कब्रो पर लगे हुए फ़ोटो देख कर माज़ी में गुम हो जाता हूँ। कहीँ ऐसा तो नही है कि मैं भी उन्हीँ के दरमियान मौजूद हूँ लेकिन ख़ुद को ज़िन्दा तसव्वुर कर रहा हूँ और फिर मुझे शाइर का यह शेर याद आ जाता है कि-

हर के बाशी व हर जा बेरसी।

आख़रीन मन्ज़िले हस्ति ईन अस्त।।

3-तजुर्बे

अज़ीजों ज़िन्दगी तजुर्बों का ही नाम है, तजर्बे इंसान की ग़लतीयो की इस्लाह करते हैं और इंसान को ज़िन्दगी बसर करने के बेहतरीन तरीक़े सिखाते हैं। तजर्बे, हर तरह की शको तरदीद को दूर कर के इंसान के सामने ज़िन्दगी की हक़ीक़त को आशकार कर देते हैं। यही वजह है कि कुछ साहिबाने इल्मो फ़हम हज़रात ने अल्लाह से दुबारह ज़िन्दगी की भीख माँगी है।

लेकिन यह उम्र मुजद्दद, सिर्फ़ ख़वाबो ख़याल है। जब इंसान पुख़्ता हो जाता है और जब वह अपनी उम्र की आख़री मन्ज़िल में होती है तो उसकी वही कौफ़ियत होती है जो इस नुक्ता दाँ शाइर ने कहा कि-

 

अफ़सोस के सौदा-ए- मन सौख़ता-ए-, ख़ाम अस्त।

ता पुख़्ता शवद ख़ामी-ए- मन, उम्र तमाम अस्त।।

हमें दूसरा रास्ता तय करना चाहिए वह रास्ता जो हमारे मौला व मुक़्तदा हज़रत अली अलैहिस्सलाम ने हमें बताया है और उम्र मुजद्दद की मुश्किल को हमारे लिए बेहतरीन तरीक़े से हल कर दिया है। आपने अपने फ़रज़न्दे अरजुमन्द हज़रत इमाम हसने मुजतबा अलैहिस्सलाम से फ़रमाया कि “ऐ बेटे मैंने गुज़िश्ता लोगों की तारीख़ पर ग़ौरो फ़िक्र किया, उनके अहवाल से आगाही हासिल की, उनके बे शुमार तजर्बों से फ़ायदा उठाया और इस नज़र से मैंने उनकी हज़ारों साल की उम्र को अपनी उम्र में इस तरह ज़मीमा कर लिया कि जैसे इंसान की ख़िलक़त के पहले दिन से आज तक मैंने उन्हीँ के साथ ज़िन्दगी बसर की हो। मैं उनकी ज़िन्दगी का शीरनी और तल्ख़ीयों से, उनकी कामयाबी के अवामिल और शिकस्त के असबाब से आगाह हो गया हूँ।”[9]

 

अज़ीज़म मैं तुम को ताकीद करता हूँ कि क़ुरआने करीम ने अम्बियाए सलफ़ और गुज़िश्ता उम्मतों के जो हालात तारीख़ के दामन से बयान किये हैं उनको बहुत ज़्यादा अहमियत दो क्योँ कि उन में वह अज़ीम हक़ाइक़ छुपे हुए हैं जो रहबरान व सालिकाने तरीक़े इला अल्लाह का अज़ीम सरमाया माने जाते हैं। लेकिन कुछ लोग बहुत ज़िद्दी और बद सलीक़ा होते हैं वह हर चीज़ का ख़ुद तजर्बा करना चाहते हैं पता नही वह दूसरों के तजर्बों को क्योँ क़बूल नही करते जबकि वह इस हालत में अपनी तमाम उम्र के तजर्बों से चन्द सतरें या चन्द सफ़हे ही दूसरों की तरफ़ मुन्तक़िल करते हैं। इस तरह के ग़ाफ़िल लोग अभी चन्द तजर्बे भी नही कर पाते कि उनकी उम्र तमाम हो जाती है और वह इस दुनिया को अल विदा कह देते हैं।

अज़ीज़म तुम यह अमल अंजाम न देना ,बल्कि साहिबाने अक़्ल की रविश पर चलना, जिन के बारे में क़ुरआने करीम फ़रमाता है कि “लक़द काना फ़ी क़िससे हिम इबरतुन लि उलिल अलबाबि।”[10] (उनके क़िस्सों में साहिबाने अक़्लो फ़हम के लिए इबरतें हैं।) लिहाज़ा गुज़िश्ता लोगों की ज़िन्दगीयों के बारे में ग़ौरो फ़िक्र कर के उनसे इबरत हासिल करो।

मख़सूसन गुज़िश्ता उलमा, साहिबाने इल्मो अदब, साहिबाने तक़वा, सालिकाने राहे ख़ुदा की ज़िन्दगी के हालात को ज़रूर पढ़ो उनमें बहुत से नुक्तें पौशीदा हैं और हर नुक्ता एक गौहरे गराँ बहा की हैसियत रखता है। मैंने उनकी ज़िन्दगी के मुताले से हमेशा बहुत अहम तजर्बों को हासिल किया है।

 

4- ग़लतियों का इज़ाला

इस के बाद इस बात की मंज़िल है कि हम यह जानें कि मासूम के अलावा तमाम इंसान ख़ाती हैं और उनसे बहुत सी ग़लतियाँ सर ज़द होती हैं।

इस मंज़िल पर अहम बात यह है कि इंसान अपनी ग़लतियों की इस्लाह के बारे में भी ग़ौर करे, ग़लतियों व गुनाहों की तकरार न करे, तास्सुब और ज़िद को छोड़े, ख़ुद अपने गुनाहों से चश्म पोशी करने और अपने बारे में हुस्ने ज़न रखने को एक बड़ी ग़लती तसव्वुर करे।

 

शैतान जो कि एक बड़े गुनाह का मुरतकिब हुआ, जिसने अल्लाह की हिकमत पर एतराज़ किया, हज़रत आदम अलैहिस्सलाम को सजदे के हुक्म को ग़ैरे हकीमाना माना, जो सरकशी की आख़री मंज़िलों को भी अबूर कर गया, अगर वह भी अपनी अक़्ल के सामने से तास्सुब व ज़िद के पर्दों को हटा कर किब्रो ग़ुरूर को छोड़ देता तो उस के लिए भी तौबा का दरवाज़ा खुला हुआ था। लेकिन उसकी ज़िद्द व ग़रूर तौबा की राह मे माने क़रार पाये नतीजा यह हुआ कि आज तमाम गुनाहगारों के गुनाह में शरीक रहता है और सब के गुनाहों के बार को अपने दोश पर उठाये फिरता है, उस बार को जिसको उठाने की किसी में भी ताक़त नही है।

 

इसी वजह से हमारे मौला अमीरुल मोमेनीन हज़रत अली अलैहिस्सलाम ने ख़ुत्ब-ए-क़ासिया में उसको “फ़अदुवु अल्लाहि इमामुल मुतास्सेबीन व सलाफ़ुल मुस्तकबरीन”[11] अल्लाह का दुश्मन, मुतास्सिब लोगों का इमाम,तकब्बुर करने वालों का पेशवा कहा है। और आपने नसीहत भी फ़रमाई है कि उसके हालात से सब को इबरत हासिल करनी चाहिए कि उसने थोड़ी देर की ज़िद्द और तकब्बुर के ज़रिये अपनी हज़ारों साल की इबादत को इस तरह ख़ाक में मिला दिया, कि उसको बज़्में मलाएका से निकाल कर असफ़ालु अस्साफ़ेलीन में में डाल दिया गया।

 

ऐ अज़ीज़म अगर तुम से कोई ग़लती या गुनाह सरज़द हो जाये, तो अल्लाह की बारगाह में शुजाअत के साथ उसका इक़रार करो और साफ़ साफ़ कहो कि ऐ अल्लाह मुझ से ख़ता हुई है इसको बख़्श दे, मेरे उज्र को क़बूल कर ले और मुझे हवाए नफ़्स व शैतान के जाल से रिहाई दे, माबूद तू तो अरहमुर्राहीमीन और ग़फ़्फ़ारज़ ज़नूब है।

 

इस तरह ग़लती के इक़रार और माफ़ी की इलतजा जहाँ तुम को सुकून हासिल होगा वहीँ तुम्हारे लिए इस्लाह और कुर्बे ख़ुदा का रास्ता भी हमवार हो जायेगा। इस के बाद ग़लतीयों के इज़ाले और अपनी इस्लाह के लिए कोशिश करो, और यह भी जान लो कि इस काम से इंसान का मक़ाम तनज़्ज़ुली नही आती बल्कि इसके बर अक्स इंसान का मक़ाम और बढ़ जाता है।

अल्लाह से क़ुर्ब का रास्ता वह रास्ता है जिसमें तकब्बुर और ज़िद्द की कोई गुंजाइश नही है, ऐसे बहुत से लोग लोग मौजूद हैं जो इस राह पर चलने में दूसरों से सबक़त हासिल कर सकते थे लेकिन इन्हीँ अख़लाक़ी बुराईयों (ज़िद्द व ग़ुरूर) की वजह से इस राह पर नही चल सके और गुमराही में मुबतला हो गये। यही नही कि तकब्बुर और ज़िद इंसान की ख़ुद साज़ी की राह के असली मानें(रुकावटें) हैं बल्कि यह इंसान को समाजी, सियासी और इल्मी कामयाबी के मैदान में भी आगे नही बढ़ने देते। ऐसे लोग हमेशा ख़यालात की दुनिया में रहते हैं यहाँ तक की उनको इसी हालत में मौत आ जाती है। अजीब बात यह है कि इस तरह के लोग अपनी नाकामी और शिकस्त के असबाब को हमेशा बाहर तलाश करते हैं जबकि इनकी नाकामी और बदनसीबी का असली सबब ख़ुद उन्हीँ के वुजूद में छुपा होता है, और यह उनकी बद बख़ती को और बढ़ा देता है।

5- हर रोज़ एक नया क़दम उठाना चाहिए

 

अज़ीज़ो ! किसी भी वुजूद के ज़िंदा होने की सब से आसान और साफ़ निशानी उसका नमुव्व व रुश्द करना है। जब भी उसका नमुव्व रुक जाये समझलो कि उसकी मौत का ज़माना क़रीब आ गया है। और जब भी कोई ज़िन्दा वुजूद इंहेतात (गिरावट) के किनारे पर जा खड़ा हो तो समझलो कि उसकी तदरीजी मौत का आग़ाज़ हो गया है। और यह क़ानून किसी एक इंसान की मानवी और माद्दी ज़िन्दगी पर ही नही बल्कि पूरे समाज पर लागू है। (इस बात पर ग़ौर करने की ज़रूरत है।)

 

इस नुक्ते से फ़ायदा उठाते हुए- अगर हम हर रोज़ एक क़दम आगे न बढ़ायें और अज़ नज़रे ईमान, तक़वा, अखलाक़, अदब ,पाकीज़गी व दुरुस्त कारी के मैदान में रुश्दो तकामुल हासिल न करें और हर साल गुज़रे हुए साल पर अफ़सोस करें तो हमें समझ लेना चाहिए कि हमने एक बहुत बड़ा नुक़्सान हुआ है और हम अपनी राह से भटक गये हैं। लिहाज़ा इस हालत में हमें ला परवाही नही बरतनी चाहिए बल्कि संजीदगी के साथ ख़तरे को महसूस करना चाहिए।

 

अमीरुल मोमेनीन हज़रत अली अलैहिस्सलाम ने इस बारे में कितना अच्छा जुमला बयान फ़रमाया है, एक मशहूर रिवायत में है कि आपने फ़रमाया “मन इस्तवा यौमाहु फ़हुवा मग़बून”[12] यानी जिसके दो दिन एक से हो गये हो ग़ब्न हो गया(क्यों कि उसने ज़िन्दगी के सरमाये को तो अपने हाथ से गवाँ दिया मगर कोई तिजारत नही की नतीजा में हसरत और रंज के अलावा उसे कुछ भी नही मिला।) “व मन काना फ़ी नक़सिन फ़ल मौतु ख़ैरुन लहु।”[13] यानी जो नुक़्सान की मंज़िल में चला गया उसके लिए तो मौत ही बेहतर है(क्योँ कि कम से कम इंसान नुक़्सान से ही बचा रहे, इस लिए कि नुक़्सान से बचा रहना भी एक बहुत बड़ी नेअमत है।)

 

आरिफ़ाने ख़ुदा और सालिकाने राहे ख़ुदा हर सालिक के लिए हर रोज़ सुबह के वक़्त “मुशारेते” पूरे दिन “मुहासेबे” और फिर शाम को “मुआक़िबे” को जो ज़रूरी मानते हैं तो वह इस लिए है ताकि राहरवाने राहे हक़ ग़ाफ़िल न होने पाये और अगर कहीँ पर कोई ऐब या नक़्स वाकेअ हो तो उसका इज़ला कर सकें। और इस तरीक़े से हर रोज़ अपने चेहरे को अनवारे इलाहिय्या का उफ़ुक़ क़रार दे और जन्नती अफ़राद की तरह सुबह शाम अल्लाह के लुत्फ़ शाहिद बनें। “व लहुम रिज़्क़ु हुम फ़ीहा बुकरतन व अशीय्यन ”[14] यानी उनके लिए जन्नत में सुबह शाम रिज़्क़ है।

लिहाज़ा ऐ अज़ीज़म अपने हाल से ग़ाफ़िल न रहो ताकि ज़िन्दगी की तिजारत में उम्र के बेतरीन सरमाये को बलन्दतरीन अर्ज़िशों से बदला जा सके। और “इन्नल इंसाना लफ़ी ख़ुसरिन” (जान लो कि तमाम इंसान घाटे में है।) का मिसदाक़ न बनो। और यह तिजारत तो वह है जिस में हर इंसान एक बड़ा नफ़ा हासिल कर सकता है। अपने नफ़्स के मुहासबे से ग़ाफ़िल न रहो और इस से पहले कि तुम से तुम्हारे आमाल का हिसाब लिया जाये हर रोज़ व हर माह अपने आमाल का हिसाब करते रहो।

6- लोगों के रंग में रंगा जाना रुसवाई है

अक्सर ऐसा होता है कि इंसान किसी इस्लामी या ग़ैरे इस्लामी मुल्क में शरीयत के क़ानून की पाबन्दी न करने वाले किसी गिरोह में फँस जाता है और इस गिरोह के अफ़राद उसे अपने रंग में रंगना चाहते हैं। बस शैतानी और नफ़्सी वसवसे यहीँ से शुरू होते हैं जैसे यह कि इनके रंग में रगें जाने के अलावा और कोई रास्ता ही नही है, और इस काम को करने के लिए बहुत से फज़ूल बहाने घढ़ लेता है।

इंसान के अखलाक़ी रुश्द, शख़्सियत के इस्तक़लाल और ईमान की पुख़्तगी का इल्म ऐसे ही माहोल में होता है। वह अफ़राद जो तिनको की तरह हवा के रुख़ पर उड़ते हैं बुराईयों में ग़र्क़ हो जाते हैं इस तरह के अफ़राद बुरे लोगों के रंग में रगें जाने को ही रुसवाई से बचने का ज़रिया समझते हैं। ऐसे लोग बे अहमियत होते हैं उनके शक्लो सूरत तो आदमीयों वाले होते हैं मगर उनमें जोहरे आदमीयत नही पाया जाता।

लेकिन अज़ीज़म अगर तुम ऐसे माहोल में जाना तो अपनी अहमियत का मुज़ाहिरा करना अपने ईमान की क़ुदरत, तक़वे की ताक़त और शख़्सियत के इस्तक़लाल को ज़ाहिर करना और अपने आप से कहना कि “दूसरों के रंग में रगें जाना ही रुसवाई है।”

अम्बिया, औलिया और उनकी राह पर चलने वाले अफ़राद अपने अपने ज़मानों में इसी मुशकिल से रू बरू थे। लेकिन उन्होने सब्रो इस्तेक़ामत के ज़रिये न सिर्फ़ यह कि उनके रंग को क़बूल नही किया बल्कि सब को अपने रंग में रंग कर पूरे माहौल को ही बदल दिया।

अपने आप को माहोल के मुताबिक़ ढाल लेना और दूसरों के रंग में रगाँ जाना कमज़ोर इरादा लोगों का काम है, लेकिन माहोल को बदल कर उसको एक नया मुसबत रंग दे देना ताक़तवर और शुजा मोमिनों का काम है।

पहला गिरोह (दूसरों के रंग में रगेँ जाने वाला) अँधी तक़लीद करता है और नारा लगाता है कि “ इन्ना वजदना आबाअना अला उम्मतिन व इन्ना अला आसारि हिम मुक़तदूना ”[15](हमने अपने बाप दादा को एक तरीक़े पर पाया और हम यक़ीनन उनके क़दम ब क़दम चल रहे हैं।) लेकिन दूसरे गिरोह के अफ़राद तदब्बुर व तफ़क्कुर कर के अच्छाई का इंतख़ाब करते है। इन लोगों का नारा है कि “ ला तजिदु क़ौमन युमिनूना बिल्लाहि व अलयौमिल आख़िरि युवाद्दूना मन हाद्दा अल्लाह व रसूलहु व लव कानू आबा अहुम अव अबना आहुम व अशीरता हुम उलाइका कतबा फ़ी क़ुलूबिहिम अलईमान व अय्यदा हुम बिरुहिन मिन्हु”[16] (जो लोग ख़ुदा और रोज़े आख़ेरत पर ईमान रखते हैं तुम उनको ख़ुदा और उसके रसूल के दुश्मनों से दोस्ती करते हुए नही देख़ोगो, अगरचे वह उनके बाप या बेटे या भाई या ख़ानदान वाले ही क्योँ न हो, यही वह लोग हैं जिनके दिलों में अल्लाह ने ईमान को साबित कर दिया है और रूह के ज़रिये उनकी ताईद की है।) हाँ रुहुल क़ुद्स उनकी मदद के लिए आता है, अल्लाह के फ़रिश्ते उनकी हिफ़ाज़त करते हैं, उनकी हिम्मत बढ़ाते हैं और उनको डटे रहने के लिए तशवीक़ करते है।

ऐ अज़ीज़म अगर कभी ऐसे माहोल में रहने पर मजबूर हुए तो अपने आप को अल्लाह के हवाले कर देना, उसकी ज़ात पाक पर तवक्कुल रखना, ख़बासतों (बुराईयों) की कसरत से न घबराना और इस आज़माइश से कामयाबी के साथ गुज़रजाना ताकि अल्लाह की बरकतों से फ़ैज़याब हो सको और कहना कि “ क़ुल ला यस्तवा अलख़बीसो व अत्तय्यिबु व लव आजबका कस्रतुल ख़बीसि फ़अत्तक़ु अल्लाहा या उलिल अलबाबा लअल्लाकुम तुफ़लिहूना ”[17](ऐ रसूल कह दो कि पाक और नापाक बराबर नही हो सकता चाहे नापाकों की कसरत तुम को ताज्जुब में ही क्योँ न डाल दे, तो ऐ साहिबाने अक़्ल अल्लाह से डरते रहो ताकि कामयाब हो सको।) पाक और नापाक एक जैसे नही हैं जब भी तुम्हें नापाक लोगों की कसरत ताज्जुब में डाले तो ऐ साहिबाने अक़्ल तुम तक़वाए ईलाही को इख़्तियार करना ता कि कामयाब हो सके।

अल्लाह की तरफ़ से होने वाली यह आज़माइश आज के ज़माने में बहुत अहम है ख़ास तौर पर जवानों के लिए, क्योँ कि जवान अफ़राद वह हैं जो इस अज़ीम इम्तेहान में कामयाबी हासिल कर के, फ़रिश्तगाने रहमत के परों पर सवार हो कर आसमाने क़ुर्बे ख़ुदा की बुलन्दियों पर परवाज़ कर सकते हैं।

7- अपनी खोई हुई असल चीज़ की जुस्तुजू करो

जब इंसान अपने दिल में झाँक कर देखता है तो महसूस करता है कि उसकी कोई चीज़ खोई हुई है जिसकी उसे तलाश है, और चूँकि वह अपनी खोई हुई चीज़ के बारे मे सही से नही जानता इस लिए उसको हर जगह और हर चीज़ में तलाश करने की कोशिश करता है।

वह कभी तो यह सोचता है कि मेरी खोई हुई असली चीज़ मालो दौलत है, लिहाज़ा अगर इसको जमा कर लिया जाये तो दुनिया का सब से ख़ुश क़िस्मत इंसान बन जाउँगा। लोकिन जब वह एक बड़ी तादाद में दौलत जमा कर लेता है तो एक रोज़ इस तरफ़ मुतवज्जेह होता है कि लालची लोगों की निगाहें, चापलूस लोगों की ज़बानें, चोरों के संगीन जाल और हासिद लोगों की ज़ख़्मी कर देने वाली ज़बानें उसकी ताक में हैं।और कभी कभी तो ऐसा होता है कि उस माल की हिफ़ाज़ उस को हासिल करने से ज़्यादा मुश्किल हो जाती है जिस से इज़तराब में इज़ाफ़ा हो जाता है। तब वह समझता है कि मैनें ग़लती की है, मेरी खोई हुई असली चीज़ मालो दौलत नही है।

कभी वह यह सोचता है कि अगर एक ख़ूबसूरत और माल दार बीवी मिल जाये तो मेरी ख़ुशहाली में कोई कमी बाक़ी नही रहेगी। लेकिन उस को हासिल कर ने के बाद जब उसके सामने उसकी हिफ़ाज़त, और ला महदूद तमन्नाओं को पूरा करने का मसला आता है तो उस की आँख़े खुल रह जाती हैं और वह समझता है कि उसने जो सोचा था वह तो सिर्फ़ एक ख़वाब था।

शोहरत व मक़ाम, का मंज़र इन सबसे ज़्यादा लुभावना है इनके ज़रिये खुश हाल बनने का ख़्याल कुछ ज़्यादा ही पाया जाता है जबकि हक़ीक़त यह है कि मक़ाम हासिल करने के बाद उसकी मुश्किलात, सर दर्दीयों ,ज़िम्मेदारियोँ में (चाहें वह इंसानों के लिए जवाब देह हो या अल्लाह के सामने) इज़ाफ़ा हो जाता है।

पाको पाकीज़ा आलिमे दीन मरहूम आयतुल्लाहि अल उज़मा बरूजर्दी जो कि जहाने तशय्यु के मरजाए अलल इतलाक़ और अपने ज़माने के बे नज़ीर आलम थे जब उन्होंने मक़ामो शोहरत की मुशकिलों को महसूस किया तो फ़रमाया कि “ अगर कोई रिज़ायत खुदा के लिए नही, बल्कि हवाए नफ़्स की ख़ातिर इस मक़ामों मंज़िल को हासिल करने की कोशिश करे जिस पर मैं हूँ तो उसके कम अक़्ल होने के बारे में शक न करना। ”

यह तमाम मक़ामात सराब की तरह हैं जब इंसान इन तक पहुँचता है तो न सिर्फ़ यह कि, उसकी प्यास नही बुझती बल्कि वह इस ज़िन्दगी के बयाबान में और ज़्यादा प्यासा भटकने लगता है। क़ुरआने करीम इस बारे में क्या ख़ूब बयान फ़रमाता है “कसराबिन बक़ीअतिन यहसबुहु अज़्ज़मानु माअन हत्ता इज़ा जाअहु लम यजिदहु शैयन..... ”[18](वह सराब की तरह है कि प्यासा उसको दूर से तो पानी ख़याल करता है लेकिन जब उसके क़रीब पहुँचता है तो कुछ भी नही पाता)

क्या यह बात मुमकिन है कि हिकमते ख़िल्क़त के तहत तो इंसान के वुजूद में किसी चीज़ के गुम होने के एहसास को तो रख दिया गया हो, लेकिन उस गुम हुई चीज़ के मिलने कोई ठिकाना न हो ? बे शक प्यास पानी के वजूद के बग़ैर अल्लाह की हिकमत में ठीक उसी तरह ग़ैर मुमकिन है जिस तरह प्यास के बग़ैर पानी का वुजूद बे माअना है !

मगर होशियार इंसान आहिस्ता आहिस्ता समझ जाते हैं कि उनकी वह खोई हुई चीज़ जिसकी तलाश में वह चारो तरफ भटक रहे हैं और नही मिल रही है वह तो हमेशा से उनके साथ है, उनके पूरे वजूद पर छायी हुई है और उनकी रगे गर्दन से भी ज़्यादा क़रीब है। बस उन्होंने कभी उसकी तरफ़ तवज्जोह नही दी है। “ व नहनु अक़रबु इलैहि मिन हबलिल वरीदि ”[19]

हाफ़िज़ शीराज़ी ने क्या खूब कहा है कि –

सालहा दिल तलबे जामे जम अज़ मा मी कर्ज।

आनचे ख़ुद दाश्त अज़ बेगाने तमन्ना मी कर्द।।

गौहरी के अज़ सदफ़े कोनो मकाँ बीरून बूद।

तलब अज़ गुमशुदेगाने लबे दरिया मी कर्द।।

और सादी ने भी क्या खूब कहा है कि-

ईन सुख़न बा के तवान गुफ़्त के दोस्त।

दर किनारे मन व मन महजूरम !

हाँ इंसान की खोई हुई चीज़ हर जगह और हर ज़माने में उसके साथ है लेकिन हिजाब (पर्दे) उसको देखने की इजाज़त नही देते, क्योँ कि इंसान तबीअत के पंजो में जकड़ा हुआ लिहाज़ वह उसे हक़ीक़त जान ने से दूर रखती हैं।

तू के अज़ सराई तबीअत नमा रवी बीरून।

कुजा बे कूई हक़ीक़त गुज़र तवानी कर्द ?!।।

ऐ अज़ीज़म तुम्हारी खोई हुई चीज़ तुम्हारे पास है , बस अपने सामने से हिजाब को हटाने की कोशिश करो ताकि दिल के हुस्ने आरा को देख सको, आप की रूहो जान उस से सेराब हो सके, आप अपने तमाम वुजूद में चैनों सकून का एहसास कर सको और ज़मीनों आसमान के तमाम लश्करो को अपने इख़्तियार में पा सको। आप की खोई हुई चीज़ वाक़ेअन वह वुजूद है जिसका परतू यह तमाम आलमे हस्ति है। “ हुवल लज़ी अनज़ला अस्सकीनता फ़ी क़ुलूबि अलमोमेनीना लियज़दादू ईमानन मअ ईमानिहिम व लिल्लाहि जुनूदु अस्समावाति वल अर्ज़ि व काना अल्लाहु अलीमन हकीमन।”[20]

8- वसवसों से मुक़ाबला

अज़ीज़ो ! रूहो रवान के सकून की बात हो रही थी, यह एक ऐसा गोहरे बे बहा है जिसको हासिल करने के लिए ख़लील उल अल्लाह (हज़रत इब्राहीम अ.) कभी आसमाने मलाकूत की तरफ़ देखते थे और कभी ज़मीन पर नज़र करते थे।

“व कज़ालिका नुरिया इब्राहीमा मलाकूता अस्समावाति व अल अर्ज़िव लि यकूना मिन अल मोक़िनीना ”[21] (और इसी तरह हमने इब्राहीम को ज़मीनो आसमान के मलाकूत दिखाए ताकि वह यक़ीन करने वालों में से हो जाये।)

और कभी उन्होंने चार परिन्दों के सरों को काटा और फिर उनका क़ीमा बना कर सबको आपस में मिला दिया ताकि ज़िन्दगीए मुजद्दद और मआद के बारे में मुतमइन हो कर सकूने क़ल्ब हासिल कर सकें। “लियतमाइन्ना क़ल्बी। ”[22] कुछ मुफ़स्सेरीन ने कहा है कि यह चारो परिन्दे वह थे जिनमें से हर एक में इंसान की एक बुरी सिफ़त पायी जाती थी जैसे -( मोर जिसमें ख़ुद नुमाई और ग़ुरूर पाया जाता है, मुर्ग़ जिसमें बहुत ज़्यादा जिन्सी रुझान पाया जाता है, कबूतर जिसमें लहबो लअब पाया जाता है, कोआ जो कि बड़ी बड़ी आरज़ुऐं रखता है।)

अब सवाल यह है कि सकून के इस गोहरे गरान बहा को कैसे हासिल किया जाये ?और इस को किस समुन्द्र में तलाश किया जाये ?

आप की ख़िदमत में अर्ज़ करता हूँ कि इसको हासिल करना बहुत आसान भी है और बहुत मुश्किल भी और इस बात को आप इस मिसाल के ज़रिये आसानी के साथ समझ सकते हैं।

क्या आप ने कभी ऐसे वक़्त हवाई जहाज़ का सफ़र किया है जब आसमान पर घटा छाई हो ? ऐसे में हवाई जहाज़ तदरीजन ऊपर की तरफ़ उड़ता हुआ आहिस्ता आहिस्ता बादलों से गुज़र कर जब उपर पहुँच जाता है, तो वहाँ पर आफताबे आलम ताब अपने पुर शिकोह चेहरे के साथ चमकता रहता है और सब जगह रौशनी फैली होती है। इस मक़ाम पर पूरे साल कभी भी काले बादल नही छाते और सूरज अपनी पूरी आबो ताब के साथ चमकता रहता है क्योँ कि यह मक़ाम बादलों से ऊपर है।

ख़लिक़े जहान की मुक़द्दस ज़ात, आफ़ताबे आलम ताब की तरह है जो हर जगह पर नूर की बारिश करती है और हिजाब, बादलो की तरह है जो जमाले हक़ को देखने की राह में मानेअ हो जाते हैं। यह हिजाब कोई दूसरी चीज़ नही है बल्कि हमारे बुरे आमाल और हमारी तमन्नाऐं ही हैं।

इमामे आरेफ़ान हज़रत अली अलैहिस्सलाम ने क्या ख़ूब फ़रमाया है “इन्नका ला तहतजिब व मिन ख़लक़िका इल्ला अन तहजुबाहुमु अलआमालु दूनका ”[23]

यह हिजाब वह शयातीन हैं जिन्हों ने हमारे आमाल की वजह से हमारे अन्दर नफ़ूज़(घुस) कर के हमारे दिल के चारों तरफ़ से घेर लिया है। जैसा हदीस में भी आया है कि “लव ला अन्ना शयातीना यहूमूना अला क़लूबि बनी आदम लनज़रु इला मलकूति अस्समावात ” यानी अगर शयातीन बनी आदम के दिलों का आहाता न करते तो वह आसमान के मलाकूत को देखा करते।

यह हिजाबात वह बुत हैं जिन को हम नें हवाओ हवस के चक्कर में ख़ुद अपने हाथों से बना कर अपने दिलों में बैठाया है। बुज़ुर्गों का क़ौल है कि “कुल्लु मा शग़लका अनि अल्लाह फ़हुवा सनमुक ” जो चीज़ तुमको अपने में मशग़ूल कर के ख़ुदा से ग़ाफ़िल कर दे वही तुम्हारा बुत है।

बुत साख़तीम दर दिल व ख़न्दीदीम।

बर कीशे बद ब्रह्मण व बौद्धा रा ।।

ऐ अज़ीज़म इब्राहीम की तरह ईमानो तक़वे का तबर लेकर उठो और इन बुतों को तोड़ डालो ताकि आसमानों के मलाकूत को देख सको और मोक़ेनीन में क़रार पा सको जिस तरह जनाबे इब्राहीम (अ.) मोक़ेनीन में हो गये।

“...व लि यकूना मिनल मोक़िनीन ”[24]

हवा व हवस के ग़ुबार ने हमारी रूह को तीरह व तार कर दिया है जो कि बातिन को देखने की राह में हमारी आँख़ों के सामने हायल है। लिहाज़ा हिम्मत कर के उठो और इस ग़ुबार को साफ़ करो ताकि नज़र की तवानाई बढ़े।

यह ताज्जुब की बात है कि अल्लाह तो हम से बहुत नज़दीक है ; लेकिन हम उस से दूर हैं, आख़िर ऐसा क्योँ ? जब वह हमारे पास है फिर हम उस से जुदा क्यों हैं ? क्या यह बिल कुल ऐसा ही नही है कि हमारा दोस्त हमारे घर में बैठा है और हम उसे पूरे जहान में ढूँढ रहे हैं।

और यह हमारा सब से बड़ा दर्द, मुश्किल और बद क़िस्मती है जब कि इसके इलाज का तरीक़ा मौजूद है।

9- हिजाबे आज़म

इँसान का वह मुहिम तरीन हिजाब क्या है जो लिक़ाउल्लाह की राह में माने है ?

यह बात यक़ीन के साथ कही जा सकती है कि ख़ुद ख़वाही (फ़क़त अपने आप को चाहना), ख़ुद बरतर बीनी(अपने आप को दूसरों से बेहतर समझना),व ख़ुद महवरी से बदतर कोई हिजाब नही है। इल्में अख़लाक़ के कुछ बुज़ुर्ग उलमा का कहना है कि सालिकाने राहे ख़ुदा के लिए “अनानियत ” सब से बड़ा मानेअ है। और लिक़ाउल्लाह की की मन्ज़िल तक पहुँचने के लिए इस “अनानियत ” को कुचलना बहुत ज़रूरी है लेकिन यह काम आसान नही है क्यों कि यह एक तरह से अपने आप से जुदा होना है।

हाफ़िज़ ने क्या ख़ूब कहा है

तू ख़ुद हिजाबे ख़ुदी , हाफ़िज़ अज़ मयान बर ख़ेज़।

लेकिन यह काम मश्क़, ख़ुद साज़ी , हक़ से मददमाँग ने और औलिया अल्लाह से तवस्सुल के ज़रिये आसान हो सकता है। हाँ यह बात क़ाबिले ग़ौर है कि अल्लाह की मुहब्बत का यह ताज़ा लगाया हुआ पोधा उस वक़्त तक नही फूल फल सकेगा जब तक दिल की सर ज़मीन से ग़ैरे ख़ुदा की मुहब्बत के सबज़े को जड़ से उखाड़ कर न फ़ेँक दिया जाये।

एक वलीये ख़ुदा की ज़िन्दगी के हालात में मिलता है कि अपनी जवानी के दौरान वह नामी गिरामी पहलवानो के ज़ुमरे में आते थे एक दिन यह पेश कश की गई कि इस जवान पहलवान को एक पुराने मशहूरे ज़माना पहलवान के साथ कुश्ती लड़ाई जाये। जब तमाम इँतज़ामात पूरे हो गये और दोनों पहलवान कुश्ती लड़ने के लिए उख़ाड़े में उतर गये तो उस पुराने पहलवान की माँ जवान पहलवान के पास गई और उस के कान में कुछ कह कर पलट गई । उसने कहा था कि ऐ जवान क़राइन से ऐसा लगता है कि तू कामयाब होगा लेकिन तू इस बात पर राज़ी न हो कि एक ज़माने से हमारी आबरू जो बरक़रार है वह ख़ाक में मिल जाये और हमारी रोज़ी रोटी छिन जाये। यह सुन कर

जवान पहलवान सख़्त कशमकश में मुबतला हो गया एक तरफ़ उसकी अपनी “अनानियत ” व “नामवर शख़्सियतों को शिकस्त देने ” का वलवला दूसरी जानिब उस औरत की बात, आख़िर कार उसने एक फ़ैसला ले ही लिया और अपने फ़ैसले के मुताबिक़ कुश्ती के दौरान एक हस्सास मौक़े पर उसने अपने आप को ढीला छोड़ दिया ताकि उसका हरीफ़ उसको चित कर दे और लोगों की नज़रों में ज़लील होने से बच जाये।

अब ख़ुद उसकी ज़बान से सुनो वह कहता है कि “उसी लम्हे जब मेरी कमर ज़मीन को लगी अचानक मेरी निगाहों के सामने से हिजाबात हट गये और मेरे दिल में हक़ की तजल्लियां नुमायाँ हो गई, और हम को जो कुछ भी दिल की आँखों से देखना चाहिए वह सब मैंनें देखा। ” यह बात सही है “अनानियत ” के बुत को तोड़ देने से तौहीद के आसार नुमायाँ हो जाते हैं।

10- ज़िक्रे ख़ुदा

ऐ अज़ीज़म ! इस राह को तै करने के लिए पहले सबसे पहले लुत्फ़े ख़ुदा को हासिल करने की कोशिश करो और कुरआने करीम के वह पुर माअना अज़कार जो आइम्माए मासूमीन अलैहिम अस्सलाम ने बयान फ़रमाये हैं, उनके वसीले से क़दम बा क़दम अल्लाह की ज़ाते मुक़द्दस से करीब हो, मख़सूसन उन अज़कार के मफ़ाही को अपनी ज़ात में बसा लो जिन में इँसान के फक़्र और अल्लाह की ज़ात से मुकम्मल तौर पर वा बस्ता होने को बयान किया गया है। और हज़रत मूसा (अ.) की तरह अर्ज़ करो कि “रब्बि इन्नी लिमा अनज़लता इलय्या मिन ख़ैरिन फ़क़ीरुन ”[25] पालने वाले मुझ पर उस ख़ैर को नाज़िल कर जिसका मैं नियाज़ मन्द हूँ।

या हज़रत अय्यूब (अ.) की तरह अर्ज़ करो कि-“रब्बि इन्नी मस्सन्नी अज़्ज़र्रु व अन्ता अर्हमुर राहीमीन ”[26] पालने वाले मैं घाटे में मुबतला हो गया हूँ और तू अरहमर्राहेमीन है।

या हज़रत नूह (अ.) की तरह दरख़्वास्त करो कि----- “रब्बि इन्नी मग़लूबुन फ़न्तसिर ”[27] पालने वाले मैं (दुश्मन व हवाए नफ़्स से) मग़लूब हो गया हूँ मेरी मद फ़रमा।

या हज़रत यूसुफ़ (अ.) की तरह दुआ करो कि- “या फ़ातिरा अस्समावाति वल अर्ज़ि अन्ता वलिय्यी फ़ी अद्दुनिया वल आख़िरति तवफ़्फ़नी मुस्लिमन वल हिक़नी बिस्सालीहीन।[28] ऐ आसमानों ज़मीन के पैदा करने वाले तू दुनिया और आख़ेरत में मेरा वली है मुझे मुसलमान होने की हालत में मौत देना और सालेहीन से मुलहक़ कर देना।

या फिर जनाबे तालूत व उनके साथियों की तरह इलतजा करो कि “ रब्बना अफ़रिग़ अलैना सब्रा व सब्बित अक़दामना वन सुरना अला क़ौमिल काफ़ीरीना ”[29] पालने वाले हमको सब्र अता कर और हमें साबित क़दम रख और हमें क़ौमे काफ़िर पर फ़तहयाब फ़रमा।

या फिर साहिबाने अक़्ल की तरह अर्ज़ करो कि “रब्बिना इन्नना समिअना मुनादियन युनादी लिल ईमानि अन आमिनु बिरब्बिकुम फ़आमन्ना रब्बना फ़ग़फ़िर लना ज़ुनूबना व कफ़्फ़िर अन्ना सय्यिआतना व तवफ़्फ़ना मअल अबरारि।”[30] पालने वाले हमने, ईमान की दावत देने वाले तेरे मुनादियों की आवाज़ को सुना और ईमान ले आये, पालने वाले हमारे गुनाहों को बख़्श दे, हमारे गुज़िश्ता गुनाहों को पौशीदा कर दे और हम को नेक लोगों के साथ मौत दे।

इन में से जिस जुमले पर भी ग़ौर किया जाये वही मआरिफ़ व नूरे इलाही का एक दरिया है, हर जुमला इस आलमे हस्ति के मबदा से मुहब्बतो इश्क़ की हिकायत कर रहा है। वह इश्क़ो मुहब्बत जिसने इंसान को हर ज़माने में अल्लाह से नज़दीक किया है।

मासूमीन अलैहिमुस्सलाम के अज़कार , ज़ियारते आशूरा,ज़ियारते आले यासीन, दुआ-ए- सबाह, दुआ-ए- नुदबा, दुआ-ए- कुमैल वग़ैरह से मदद हासिल करो, यहाँ तक कि दुआ-ए अरफ़ा के जुमलात को अपनी नमाज़ों में पढ़ सकते हो। नमाज़े शब को हर गिज़ फ़रामोश न करो चाहे उसके मुस्तहब्बात के बग़ैर ही पढ़ो क्योँ कि यह वह किमया-ए बुज़ुर्ग और अक्सीरे अज़ीम है जिसके बग़ैर कोई भी मक़ाम हासिल नही किया जा सकता और जहाँ तक मुमकिन हो ख़ल्क़े ख़ुदा की मदद करो (चाहे जिस तरीक़े से भी हो) कि यह रूह की परवरिश और मानवी मक़ामात की बलन्दी पर पहुँच ने में बहुत मोस्सिर है।

इन दुआओं के लिए अपने दिल को आमादा कर के अपने हाथों को उस मबदा-ए-फ़य्याज़ की बारगाह में दराज़ करो क्योँ कि उसकी याद के बग़ैर हर दिल मुरदा और बे जान है।

इसके बाद तय्यबो ताहिर अफ़राद (पैग़म्बरान व आइम्मा-ए-मासूमीन अलैहिमुस्सलाम) और इनकी राह पर चलने वाले अफ़राद यानी बुज़ुर्ग उलमा व आरेफ़ान बिल्लाह के दामन से मुतमस्सिक हो जाओ और उन के हालात पर ग़ौर करो इस से मुहाकात (बाहमी बात चीत) की बिना पर उनके बातिनी नूर का परतू तुम्हारे दिल में भी चमकने लगेगा और इस तरह तुम भी उनकी राह पर गाम ज़न हो जाओ गे।

बुज़ुर्गों की तारीख़ पर ग़ौर करना, ख़ुद उनके साथ बैठने और बात चीत करने के मुतरादिफ़ है। इसी तरह बुरे लोगों की ज़िदन्गी की तारीख़ का मुतालआ बुरे लोगों के साथ बैठने के मानिन्द है ! इन दोनो बातो में से जहाँ एक के सबब अक़्लो दीन में इज़ाफ़ा होता है वहीँ दूसरी की वजह से बदबख़्ती तारी होती है।

वैसे तो इमाम रिज़ा अलैहिस्सलाम की ज़ियारत के लिए जितने भी सफ़र किये तमाम ही पुर नूर और पुर सफ़ा रहे मगर इन में से एक सफ़र को मैं इस लिए नही भूल सकता क्योँ कि उस में मुझे फ़ुर्सत के लम्हात कुछ ज़्यादा ही नसीब हुए और मैंने फ़ुर्सत के इन लम्हात में अपने ज़माने के एक आरिफ़े इस्लामी (कि जिनकी ज़ात नुकाते आमुज़न्दह से ममलू है) के हालात का मुतालआ किया तो अचानक मेरे वुजूद में एक ऐसा शोर और इँक़लाब पैदा हुआ जो इस से पहले कभी भी महसूस नही हुआ था। मैंने अपने आपको एक नई दुनिया में महसूस किया ऐसी दुनिया में जहाँ की हर चीज़ इलाही रँग मे रँगी हुई थी मैं इश्क़े इलाही के अलावा किसी भी चीज़ के बारे में नही सोच रहा था और मामूली सी तवज्जोह और तवस्सुल से आँखों से अश्को का दरिया जारी हो रहा था।

लेकिन अफ़सोस कि यह हालत चन्द हफ़्तो के बाद जारी न रह सकी है, जैसे ही हालात बदले वह मानमवी जज़बा बी बदल गया, काश के वह हालात पायदार होते उस हालत का एक लम्हा भी एक पूरे जहान से ज़्यादा अहमियत रखता था !

और आख़री बात राह के आख़री मानेअ के बारे में है !

रहरवाने राहे ख़ुदा के सामने सबसे मुश्किल काम “इख़लास ” है और इस राह में सबसे ख़तरनाक मानेअ शिर्क में आलूदगी और “रिया” हैं।

यह मशहूर हदीस तमाम रहरवाने राहे ख़ुदा की कमर को लरज़ा देती है कि “ इन्ना अश्शिर्का अख़फ़ा मिन दबीबि अन्नमलि अला सफ़वानतिन सवदा फ़ी लैलति ज़लमाइन ”[31]

और एक हदीस यह भी है कि “ हलका अलआमिलूना इल्ला अलआबिदूना व हलका अलआबिदूना इल्ला अलआलिमूना.....व हलका अस्सादिक़ूना इल्ला अलमुख़लीसूना...व इन्ना अलमोक़िनीना लअला ख़तरिन अज़ीमिन ”[32] यह हदीस इँसान को सख़्त परेशानी और फ़िक्र में डाल देती हैक्योँ कि यह तो उलमा-ए आमेलीन को भी हलाक होने वालों के ज़ुमरे में शुमार करती है और मुख़लेसीन को भी अज़ीम ख़तरे में गरदानती है।

लेकिन अल्लाह की आमों ख़ास रहमत से तमस्सुक उदास दिलों को जिला बख़्श कर एक नई हयात अता करता है। ख़ुदा वन्दे आलम का फ़रमान है कि “ इन्नहु ला यय्असु मिन रवहि अल्लाहि इल्ला अल क़ौमु अलकाफ़िरूना ”[33](काफ़िरों के अलावा कोई रहमते ख़ुदा से मायूस नही होता।)

हाँ यह इख़लास ही है जो इनफ़ाक़ (अल्लाह की राह में ख़र्च करना) के बदले को सत्तर गुणा या इस से भी ज़्यादा कर देता है और बा बरकत ख़ोशे (बालिया) इख़लास के पानी से ही परवान चढ़ती हैं। “फ़ी कुल्लि सुम्बुलतिन मिअतु हब्बातिन”[34] (हर बालि में सौ सौ दाने)

बाराने इख़लास जब दिल की सर ज़मीन पर बरसती है तो ईमानो यक़ीन के मेवों को दुगना कर देती है। “असाबहा वाबिलुन फ़आतत उकुलहा ज़ेफ़ैनि ”[35]

लेकिन इख़्लास पैदा करना बहुत मुश्किल काम है, अगरचे राहे इख़्लास रौशन है मगर फिर भी इस को तै करना बहुत दुशवार है।

जैसे जैसे अल्लाह के सिफ़ाते जमालियह व जलालियह और इल्म व क़ुदरत की मारेफ़त बढ़ती जायेगी हमारा इख़्लास भी ज्यादा हो जायेगा।

अगर हम यह जान लें कि इज़्ज़त ,ज़िल्लत उसके हाथ में है और तमाम नेकियों की कुँजियाँ उसकी मुठ्ठी में है “क़ुल अल्लाहुम्मा मालिकल मुल्कि तुतिल मुल्का मन तशाउ व तनज़उल मुल्का मिम मन तशाउ वतुज़िल्लु मन तशाउ व तुज़िल्लु मन तशाउ बियदिकल ख़ैरि इन्नका अला कुल्लि शैइन क़दीरुन ”[36] (कहो कि ऐ अल्लाह!ऐ हुकुमतों के मालिक!तू जिसको चाहता है हुकूमत अता करता है और जिस से चाहता है हुकूमत छीन लेता है, जिसको चाहता है इज़्ज़त देता है और जिसको चाहता है रुसवा कर देता है, तमाम नेकियाँ तेरे हाथ में हैं और तू हर चीज़ पर क़ादिर है।)

इसके बाद शिर्को रिया, ग़ैरे ख़ुदा के लिए अमल, और इज़्ज़त को उसके ग़ैर से हासिल करने की कोई गुँजाइश ही बाक़ी नही रह जाती।

जब हम यह समझ लेंगे कि जब तक उसकी मशियत और इरादा न हो कोई काम नही हो सकता। “ व मा तशाऊना इल्ला अन यशा अल्लाह ”[37] तो फिर उसके अलावा किसी दूसरे से उम्मीद नही रखेंगे।

और जब यह समझ जायेंगे कि वह हमारे ज़ाहिर और बातिन से आगाह है “यअलमु ख़इनतल आयुनि व मा तुख़फ़ी अस्सुदूरु ” तो अपनी बहुत ज़्यादा मुराक़ेबत करेंगे।

हाँ अगर इन तमाम बातों का हमारे तमाम वुजूद को यक़ीन पैदा हो जाये तो परेशानियों, मुश्किलों और इख़्लास के ख़तरों से सही हो सालिम गुज़र जायेंगे, इस शर्त के साथ कि इस माद्दी दुनिया के ज़र्क़ बर्क़ वसवसों के मुक़ाबिले में हम अपने आप को अल्लाह के सपुर्द कर दें और हमारी ज़बान पर यह कलमें हों कि ऐ अल्लाह हमें दुनिया और आख़ेरत में एक लम्हे के लिए भी अपने से दूर न रखना। “ रब्बि ला तक्लिनी इला नफ़्सी तरफ़ता ऐनिन अबदन ला अक़ल्ला मिन ज़ालिक व ला अक्सरा ”[38]

ऐ अज़ीज़म अपने कामों को अल्लाह के सपुर्द करने का मतलब कार व कोशिश को छोड़ कर हाथ पर हाथ रख कर बैठना नही है बल्कि मतलब यह है कि जितना तुम कर सकते हो ख़ुद साज़ी के लिए अंजाम दो और जो तुम्हारी ताक़त से बाहर हो उस को उस पर छोड़ दो, तमाम हालत में अपने आप को उसके सपुर्द कर दो और तुम्हारी ज़बान पर यह कलमें जारी रहने चाहिए –

इलाही क़व्वि अला ख़िदमतिका जवारिही

व अशदुद अला अलअज़ीमति जवानिहि

व हबलिया अलजिद्दा फ़ी ख़शयतिक

व अद्दवामा फ़ी अल इत्तिसालि बिख़िदमतिक।

 

[1] सूरए इंशेक़ाक़ आयत न. 6

[2]सूरए नूर आयत न.39

[3] सूरए आलि इमरान आयत न. 185

[4] बिहार उल अनवार जिल्द 8 पेज न.191 हदीस 164

[5] बिहारुल अनवार जिल्द 76 पेज न. 402 हदीस न. 23 क़ौले अमीरूल मोमेनीन हज़रत अली अलैहिस्सलाम।

[6] सूरए आलि इमरान आयत न. 185

[7] नहजुल बलाग़ा ख़ुत्बा न. 188

[8] सूरए अनकबूत आयत न. 64

[9] नहजुल बलाग़ा नामा न. 31 वसीयत बे इमामे हसन मुजतबा अलैहिस्सलाम।

[10]सूरए यूसुफ़ आयत न. 111

[11] नहजुल बलाग़ा ख़ुत्बा न.192

[12] बिहारुल अनवार जिल्द 68 पेज न.173 हदीस न. 5

[13] बिहारुल अनवार जिल्द न. 67 पेज न. 64 हदीस न. 3

[14] सूरए मरयम आयत न. 62

[15] सूरए ज़ुख़रुफ़ आयत न. 23

[16] सूरए मुजादिलह आयत न. 22

[17] सूरए मायदा आयत न. 100

[18] सूरए नूर आयत न. 39

[19] सूरए क़ाफ़ आयत न. 16

[20] सूरए फ़त्ह आयत न. 4

[21] अनआम आयत न. 75

[22] सूरए बक़रा आयत न. 260

[23] दुआए अबि हम्ज़ाए समाली

[24] सूरए अनआम आयत न. 75

[25] सूरए क़िसस आयत न. 24

[26] सूरए अम्बिया आयत न. 83

[27] सूरए क़मर आयत न. 10

[28] सूरए यूसुफ़ आयत न. 110

[29] सूरए बक़रा आयत न. 250

[30] सूरए आलि इमरान आयत न. 193

[31] बिहारुल अनवार जिल्द 18पेज न. 158

[32] मुस्तदरक अल वसाइल जिल्द 1 पेज न.99 हदीस 86, बिहारुल अनवार जिल्द 70 पोज न. 245

[33] सूरए यूसुफ़ आयत न.87

[34] सूरए बक़रह आयत न. 261

[35] सूरए बक़रह आयत न. 265

[36] सूरए आलि इमरान आयत न. 26

[37] सूरए इँसान आयत न. 30

[38] बिहारुल अनवार जिल्द 14 पेज न. 387 हदीस न. 6

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