हदीस-
क़ाला रसूलुल्लाहि सल्लल्लाहु अलैहि व आलिहि वसल्लम “अय्युहा अन्नासु! ला तोतूल हिकमता ग़ैरा अहलिहा फ़तज़लिमुहा, व ला तमनऊहा अहलहा फ़तज़लिमुहुम, व ला तुआक़िबु ज़ालिमन फ़यबतुला फ़ज़लुकुम, व ला तुराऊ अन्नासा फ़यहबता अमलुकुम, व ला तमनऊ अलमौजूदा फ़यक़िल्ला खैरु कुम, अय्युहन नास! इन्नल अशयाआ सलासतुन- अमरुन इस्तबाना रुशदुहु फ़त्तबिऊहु, व अमरुन इस्तबाना ग़ैय्युहु फ़जतनिबुहु, व अमरुन उख़तुलिफ़ा अलैकुम फ़रुद्दुहु इला अल्लाहि........”[1]
तर्जमा-
हज़रत रसूले अकरम सल्लल्लाहु अलैहि व आलिहि वसल्लम ने फरमाया “ ऐ लोगो ! नाअहल अफ़राद को इल्मो हिकमत ना सिख़ाओ क्योंकि यह इल्मो हिकमत पर ज़ुल्म होगा, और अहल अफ़राद को इल्मो हिकमत अता करने से मना न करो क्योंकि यह उन पर ज़ुल्म होगा। सितम करने वाले से (जिसने आपके हक़ को पामाल किया है) बदला न लो क्योंकि इससे आपकी अहमियत ख़त्म हो जायेगी। अपने अमल को ख़ालिस रख़ो और लोगों को खुश करने के लिए कोई काम अंजाम न दो, क्योंकि अगर रिया करोगे तो आपके आमाल हब्त (नष्ट) हो जायेंगे।जो तुमेहारे पास मौजूद है उसमें से अल्लाह की राह में ख़र्च करने से न बचो, क्योंकि अगर उसकी राह में ख़र्च करने से बचोगे तो अल्लाह आपकी ख़ैर को कम कर देगा। ऐ लोगों ! कामों की तीन क़िस्में हैं। कुछ काम ऐसे हैं जिनका रुश्द ज़ाहिर है लिहाज़ा उनको अनजाम दो, कुछ काम ऐसे हैं जिनका बातिल होना ज़ाहिर लिहाज़ा उनसेपरहेज़ करो और कुछ काम ऐसे हैं जो तिम्हारी नज़र में मुशतबेह( जिनमें शुबाह पाया जाता हो) हैं बस उनको समझने के लिए उनको अल्लाह की तरफ़ पलटा दो।”
हदीस की शरह-
यह हदीस दो हिस्सों पर मुश्तमिल है।
हदीस का पहला हिस्सा-
हदीस के पहले हिस्से में पैग़म्बरे अकरम सल्लल्लाहु अलैहि व आलिहि वसल्लम पाँच हुक्म बयान फ़रमा रहे हैं।
1- ना अहल लोगों को इल्म अता न करों कियोंकि यह इल्म पर ज़ुल्म होगा।
2- इल्म के अहल लोग़ों को इल्म अता करने से मना न करो क्योंकि यह अहल अफ़राद पर ज़ुल्म होगा। इस ताबीर से यह मालूम होता है कि तालिबे इल्म के लिए कुछ ज़रूरी शर्तें हैं, उनमें से एक शर्त उसकी ज़ाती क़ाबलियत है। क्योंकि जिस शख़्स में क़ाबलियत नही पायी जाती उसके पास इल्म हासिल करने का सलीक़ा भी नही होता। और इल्म वह चीज़ है जिसके लिए बहुत ज़्यादा सवाब बयान किया गया है।
पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहु अलैहि व आलिहि वसल्लम फ़रमाते हैं कि जो इल्म हासिल करने के क़ाबिल नही है उसको कोई चाज़ न सिख़ाओ क्योंकि अगर उसने कुछ सीख़ लिया ते वह उसको ग़लत कामों में इस्तेमाल करेगा और दुनिया को तबाह कर देगा क्योंकि जाहिल आदमी ना किसी जगह को ख़राब करता है न आबाद। मौजूदा ज़माने में इस्तेमारी हुकुमत के वह सरकरदा अफ़राद जो दुनिया में फ़साद फैला रहे हैं ऐसे ही आलिम हैं।
क़ुरआन में मुख़तलिफ़ ताबीरें पायी जाती हैं जो यह समझाती हैं कि तहज़ीब के बग़ैर इल्म का कोई फ़ायदा नही है। कहीँ इरशाद होता “हुदन लिल मुत्तक़ीन ”[2] यह मुत्तक़ीन के लिए हिदायत है। कहीँ फ़रमाया जाता है “....इन्ना फ़ी ज़ालिका लआयातिन लिक़ौमिन यसमऊन”[3] दिन और रात में उन लोग़ों के लिए निशानियाँ हैं जिनके पास सुनने वाले कान हैं।
इससे मालूम होता है कि हिदायत उन लोगों से मख़सूस है जो इसके लिए पहले से आमादा हों। इसी ताबीर की बिना पर गुज़िश्ता ज़माने में उलमा हर शागिर्द को अपने दर्स में शिरकत की इजाज़त नही देते थे। बल्कि पहले उसको अख़लाक़ी ऐतबार से परखते थे ताकि यह ज़ाहिर हो जाये कि उसमें किस हद तक तक़वा पाया जाता है।
अलबत्ता किसी को भी अपने इल्म को छुपाना नही चाहिए बल्कि उसे अहल अफ़राद को सिखाना चाहिए और अपने इल्म के ज़रिये लोगों के दुख दर्द को दूर करना चाहिए, चाहे वह दुख दर्द माद्दी हो या मानवी। मानवी दुख दर्द ज़्यादा अहम हैं क्योंकि अल्लाह इस बारे में हिसाब लेगा। रिवायत में मिलता है कि “ मा अख़ज़ा अल्लाहु अला अहलिल जहलि अन यतअल्लमु, हत्ता अख़ज़ा अला अहलिल इल्मि अन युअल्लिमु।” [4] अल्लाह ने जाहिलों से यह वादा लेने से पहले कि वह सीख़े, आलिमों से वादा लिया कि वह सिखायें।
इस्लाम में पढ़ना और पढ़ाना दोनो वाजिब हैं। और यह दोनों वाजिब एक दूसरे से जुदा नही हैं क्योंकि आपस में लाज़िम व मलज़ूम हैं।
अगर कोई ज़ालिम आप पर ज़ुल्म करे और आप उससे बदला लें तो आपकी अहमियत ख़त्म हो जायेगी और आप भी उसी जैसे हो जायेंगे। अलबत्ता यह उस मक़ाम पर है जब ज़ालिम उस माफ़ी से ग़लत फ़ायदा न उठाये, या इस माफ़ी से समाज पर बुरा असर न पड़े।
4- अपने अमल को ख़ालिस और बग़ैर रिया के अंजाम दो। यह काम बहुत मुश्किल है, क्योंकि रिया, अमल के फसाद के सरचश्मों में से फ़क़त एक सर चश्मा है वरना दूसरे आमिल जैसे उज्ब, शहवाते नफ़सानी वग़ैरह भी अमल के फ़साद में दख़ील हैं और अमल को तबाह व बर्बाद कर देते हैं। मसलन कभी मैं इस लिए नमाज़ पढ़ूँ कि खुद अपने आप से राज़ी हो जाऊँ, दूसरे लोगों से कोई मतलब वास्ता नही, ख़ुद यह काम भी अमल के फ़साद की एक किस्म का सबब बनता है। या नमाज़ को आदतन पढ़ूँ या नमाज़े शब को इस लिए पढ़ूँ ताकि दूसरों से अफ़ज़ल हो जाऊ....., यह इल्लतें भी अमल को फ़ासिद करती हैं।
5- अगर कोई तुम से कोई चीज़ माँगे और वह चीज़ आपके पास हो तो देने से मना न करो। क्योँकि अगर देने से मना करोगे तो अल्लाह आपके ख़ैर को कम कर देगा। क्योंकि “कमालुल जूदि बज़लुल मौजूद ” है यानी जो चीज़ मौजूद हो उसको दे देना ही सख़ावत का कमाल है। मेज़बान के पास जो चीज़ मौजूद है अगर मेहमान के सामने न रख़े तो ज़ुल्म है, और इसी तरह अगर मेहमान उससे ज़यादा माँगे जो मेजबान के पास मौजूद है तो वह ज़ालिम है।
हदीस का दूसरा हिस्सा
हदीस के दूसरे हिस्से में कामों की सहगाना तकसीम की तरफ़ इशारा किया गया है।
1- वह काम जिनका सही होना ज़ाहिर है।
2- वह काम जिनका ग़लत होना ज़ाहिर है।
3- वह काम जो मुश्तबेह हैं। यह मुश्तबेह काम भी दो हिस्सों में तक़सीम होते हैं।
अ- शुबहाते मोज़ूय्यह
आ- शुबहाते हुक्मिय्यह
यह हदीस शुबहाते हुक्मिय्यह की तरफ़ इशारा कर रही है। कुछ रिवायतों में “ अल्लाह की तरफ़ पलटा दो ” की जगह “मुश्तबेह कामों में एहतियात करो क्योँकि मुश्तबिहात मुहर्रेमात का पेश ख़ेमा है।” बयान हुआ है। कुछ लोगों को यह कहने की आदत होती है कि “ कुल्लु मकरूहिन जायज़ुन” यानी हर मकरूह जायज़ है। ऐसे लोगों से कहना चाहिए कि सही है आप जाहरी हुक्म पर अमल कर सकते हैं लेकिन जहाँ पर शुबहा क़तई है अगर वहाँ पर इंसान अपने आपको शुबहात में आलूदा करे तो आहिस्ता आहिस्ता उसके नज़दीक गुनाह की बुराई कम हो जायेगी और वह हराम में मुबतला हो जायेगा। अल्लाह ने जो यह फ़रमाया है कि “शैतानी अक़दाम से डरो” शैतानी क़दम यही मुश्तबेहात हैं। नमाज़े शब पढ़ने वाले मुक़द्दस इंसान को शैतीन एक ख़ास तरीक़े से फ़रेब देता है । वह उससे यह नही कहता कि जाकर शराब पियो, बल्कि पहले यह कहता है कि नमाज़े शब को छोड़ो यह जुज़े वाजिबात नही है। अगर इस बात को क़बूल कर लिया तो आहिस्ता आहिस्ता वाजिब नमाज़ को अव्वले वक़्त पढ़ने के सिलसिले में क़दम बढ़येगा और कहेगा कि अव्वले वक़्त पढ़ना तो नमाज़ की शर्त नही है। और फिर इसी तरह धीरे धीरे उसको अल्लाह से दूर कर देगा।
अगर इंसान वाक़ियन यह चाहता हो कि निशाते रूही और मानवी हालत हासिल करे तो उसे चाहिए कि मुश्तबेह ग़िज़ा,जलसात व बातों से परहेज़ करे और मक़ामे अमल में एहतियात करे।
[1] बिहारुल अनवार जिल्द 74/179
[2] सूरए बक़रह आयत न.2
[3] सूरए यूनुस आयत न. 67
[4] बिहारुल अनवार जिल्द 2/80