यह आयत मुसलमानों को अल्लाह और उसके रसूल की आज्ञा मानने का महत्व बताती है। साथ ही, यह अल्लाह की दया और क्षमा के व्यापक द्वार की ओर ले जाता है। इस आयत के माध्यम से एक मुसलमान को यह संदेश दिया गया है कि वह पश्चाताप और क्षमा के माध्यम से अपनी गलतियों को सुधार सकता है और अल्लाह की दया से लाभ उठा सकता है।
بسم الله الرحـــمن الرحــــیم बिस्मिल्लाह अल-रहमान अल-रहीम
وَمَا أَرْسَلْنَا مِنْ رَسُولٍ إِلَّا لِيُطَاعَ بِإِذْنِ اللَّهِ ۚ وَلَوْ أَنَّهُمْ إِذْ ظَلَمُوا أَنْفُسَهُمْ جَاءُوكَ فَاسْتَغْفَرُوا اللَّهَ وَاسْتَغْفَرَ لَهُمُ الرَّسُولُ لَوَجَدُوا اللَّهَ تَوَّابًا رَحِيمًا. वमा अरसलना मिन रसूलिन इल्ला लेयोताआ बेइज़्निल्लाहे वलौ अन्नहुम इज़ ज़लमू अन्फ़ोसहुम जाऊका फ़स्तग़फ़ोरुल्लाहा वसतग़फ़रा लहोमुर रसूलो ला वजदुल्लाहा तव्वाबर रहीमा (नेसा 64)
अनुवाद: और हमने कोई पैगम्बर नहीं भेजा, सिवाय इसके कि वह बुद्धिमान ईश्वर की आज्ञा का पालन करे, और यदि वे लोग तुम्हारे पास आते और अपने पापों की क्षमा माँगते, यदि वे ऐसा करते और रसूल भी उनकी ओर से क्षमा माँगते , तो वे ईश्वर को बहुत पश्चाताप स्वीकार करने वाला और दयालु पाएंगे।
विषय:
पैग़म्बर मुहम्मद (स) की आज्ञाकारिता और हिमायत की भूमिका
पृष्ठभूमि:
इस आयत मे अल्लाह ने अपने रसूल (स) की स्थिति और गरिमा को स्पष्ट किया है। आयत इस बात पर जोर देती है कि सभी पैगंबरों को भेजने का उद्देश्य अल्लाह के आदेश का पालन करना है। आयत में एक और महत्वपूर्ण पहलू यह है कि जब लोग अपने कार्यों से पाप करते हैं, तो उनके लिए पश्चाताप करने और अल्लाह के रसूल (स) की हिमायत करने का द्वार खुला होता है।
तफ़सीर:
- रसूल की आज्ञापालन की आवश्यकता: आयत में कहा गया है कि अल्लाह ने रसूल को आज्ञापालन के लिए भेजा है। यह आज्ञापालन अल्लाह के आदेश के अधीन है और पैगम्बर अल्लाह के आदेशों की अभिव्यक्ति हैं।
- तौबा का तरीका: अगर लोग कोई गुनाह करते हैं तो उन्हें अल्लाह के रसूल (सल्ल.) के पास आना चाहिए, अल्लाह से माफ़ी मांगनी चाहिए और रसूल को उनके लिए माफ़ी मांगनी चाहिए।
- ईश्वरीय दया का द्वार: आयत के अंत में अल्लाह की दया और क्षमा का उल्लेख किया गया है। अल्लाह दयालु है और अपने बंदों की तौबा स्वीकार करने वाला है।
महत्वपूर्ण बिंदु:
- रसूल की आज्ञाकारिता अल्लाह की आज्ञाकारिता है: यह आयत पैगंबर (PBUH) की आज्ञाकारिता को अल्लाह की आज्ञाकारिता से जोड़ती है, जो विश्वास का मूल सिद्धांत है।
- रसूल की मध्यस्थता की भूमिका: अल्लाह के रसूल (स) पापियों के लिए अल्लाह के सामने मध्यस्थता करते हैं। यह उम्मत के लिए बहुत बड़ी सुविधा है।
- तौबा का महत्व: मनुष्य का अपने पापों का एहसास करना और अल्लाह की ओर फिरना ही उसकी क्षमा का साधन है।
परिणाम:
यह आयत मुसलमानों को अल्लाह और उसके रसूल की आज्ञा मानने का महत्व बताती है। साथ ही, यह अल्लाह की दया और क्षमा के व्यापक द्वार की ओर ले जाता है। इस आयत के माध्यम से एक मुसलमान को यह संदेश दिया गया है कि वह पश्चाताप और क्षमा के माध्यम से अपनी गलतियों को सुधार सकता है और अल्लाह की दया से लाभ उठा सकता है।