अज़ा-ए-फ़ातेमिया: जनाब-ए-फ़ातिमा ज़हरा की मज़लूमियत की याद

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अज़ा-ए-फ़ातेमिया: जनाब-ए-फ़ातिमा ज़हरा की मज़लूमियत की याद

जनाब-ए-फ़ातमा ज़हरा (स.) ने अपनी वसीयत में इमाम अली (अ.) से फ़रमाया कि मुझे रात में दफ़न करना ताकि ज़ालिमों को मेरी तद्फीन में हिस्सा न मिले। आपकी क़ब्र आज भी दुनिया से छुपी हुई है, जो आपकी मज़लूमियत का सबूत है।

अय्याम -ए-फ़ातेमिया, जनाब-ए-फ़ातमा ज़हरा सलामुल्लाह अलैहा की शहादत की याद में मनाया जाता है। ये दिन उस दुख भरी दास्तान की याद दिलाते हैं जो हज़रत ज़हरा (स.) ने रसूलुल्लाह (स.अ.व.) की वफ़ात के बाद बर्दाश्त किए थे। ऐयाम-ए-फ़ातेमिया में, पूरी दुनिया के शिया जनाब-ए-ज़हरा (स.) की मज़लूमियत की याद में मजलिसें आयोजित करते हैं, नौहा पढ़ते हैं और सोग मनाते हैं। यह मातम सिर्फ़ उनके लिए नहीं है, बल्कि उनके हक़ और अद्ल की आवाज़ को ज़िंदा रखने के लिए है।

जनाब-ए-फ़ातमा ज़हरा (स.) की मज़लूमियत:

हज़रत फ़ातमा ज़हरा (स.) रसूलुल्लाह (स.अ.व.) की सबसे प्यारी बेटी थीं, जिन्हें "उम्म-ए-अबीहा" (अपने पिता की माँ) कहा जाता था। आपने इस्लाम के शुरुआती दौर में नबी करीम (स.अ.व.) का पूरा साथ दिया। लेकिन नबी (स.अ.व.) की वफ़ात के बाद, दुनिया ने आपको उस एहतेराम से  नहीं नवाज़ा जिसकी आप हक़दार थीं। आपने अपने हक़ और विलायत-ए-अली (अ.) के लिए आवाज़ उठाई, लेकिन आपके साथ नाइंसाफ़ी की गई। आपके घर का दरवाज़ा जलाया गया, आपके घर पर हमला किया गया, और आपको शारीरिक रूप से चोट पहुँचाई गई।

जब रसूलुल्लाह (स.अ.व.) ने फ़रमाया था, "फ़ातिमा मेरा हिस्सा हैं," तो क्या ये वही लोग थे जो इस बात को भूल गए? जनाब-ए-ज़हरा (स.) ने अपने हक़ के लिए 'ख़ुत्बा-ए-फ़दक' दिया, जिसमें आपने न केवल फ़दक की बात की, बल्कि दीन के असल उसूलों पर रोशनी डाली। लेकिन आपका हक़ छीना गया और आपकी आवाज़ को दबाया गया।

शहादत की रात:

जनाब-ए-फ़ातमा ज़हरा (स.) ने अपनी वसीयत में इमाम अली (अ.) से फ़रमाया कि मुझे रात में दफ़न करना ताकि ज़ालिमों को मेरी तद्फीन में हिस्सा न मिले। आपकी क़ब्र आज भी दुनिया से छुपी हुई है, जो आपकी मज़लूमियत का सबूत है।

अय्याम-ए-अज़ा-ए-फ़ातेमिया की अहमियत:

ये दिन हमें याद दिलाते हैं कि हम जनाब-ए-फ़ातिमा ज़हरा (स.) की कुर्बानियों और उनके हक़ की लड़ाई को कभी नहीं भूल सकते। इन दिनों में, हम उनकी मज़लूमियत को याद करके, अपनी अक़ीदत (आस्था) को और मजबूत करते हैं। इस मौके पर नौहा, मर्सिया और मातम के ज़रिए उनकी तकलीफ़ों को बयान किया जाता है, ताकि दुनिया को उनकी मज़लूमियत की दास्तान मालूम हो सके।

हमारी ज़िम्मेदारी

आज हमारी ये ज़िम्मेदारी बनती है कि हम ऐयाम-ए-फ़ातेमिया के दौरान जनाब-ए-फ़ातमा ज़हरा (स.) के फ़ज़ाइल और मसायब को आम करें। हमें उनकी सीरत को अपनाना चाहिए और उनके बताए हुए रास्ते पर चलना चाहिए। जनाब-ए-ज़हरा (स.) ने हमें सिखाया कि हक़ और अद्ल के लिए खड़े होना चाहिए, चाहे परिस्थितियाँ कैसी भी हों।

ये दिन हमें रसूलुल्लाह (स.अ.व.) के इस फ़रमान की याद दिलाते हैं: "फ़ातिमा जन्नत की औरतों की सरदार हैं।" आज हम उनकी याद में आँसू बहाते हैं, उनके मसायब पर ग़मगीन होते हैं, और उनकी कुर्बानी के आगे सर झुकाते हैं।

या ज़हरा (स.), हमें आपकी शिफ़ाअत नसीब हो और आपकी मज़लूमी का दर्द हमारे दिलों में हमेशा ज़िंदा रहे।

 

 

 

 

 

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