सलाम हो सम्मानीय काबे पर जो एकेश्वरवाद का केन्द्र, मोमिनों का परिक्रमा स्थल और फ़रिश्तों के उतरने की जगह है, और सलाम हो पवित्र मस्जिदुल हराम, अरफ़ात, मशअर और मिना पर, और सलाम हो ईश्वरीय भय से सहमे दिलों पर, ईश्वर का गुणगान करती ज़बानों पर, ज्ञान की खुली आँखों पर और पाठ सीखने के बाद पैदा होने वाले विचारों पर, और सलाम हो आप हज का सौभाग्य प्राप्त करने वालों पर कि जिन्हें, ईश्वरीय बुलावे के अवसर पर “हम हाज़िर हैं” कहने और कृपा से भरे इस वातावरण में उपस्थित रहने का अवसर मिला।
सब से पहला कर्तव्य, इस वैश्विक, ऐतिहासिक व हमेशा से जारी "हम हाज़िर हैं" की पुकार पर विचार करना है। "निश्चित रूप से गुणगान, नेमत और सत्ता भी तेरे लिए है, कोई तेरा भागीदार नहीं है हम हाज़िर हैं।" सभी गुणगान उसके लिए, सभी नेमतें उसकी तरफ़ से हैं और हर प्रकार की सत्ता पर उसी का अधिकार है, यह है वह विचारधारा, जो हाजियों को, इस अर्थपूर्ण उपासना के आरंभ में दी जाती है और इस संस्कार के अगले चरण, इसी आधार पर आगे बढ़ते हैं और इसी लिए यह एक कभी न भुलाई जाने वाली शिक्षा और कभी न भूलने वाले पाठ की भांति हाजी के सामने रखा जाता और अपने जीवन को उसके साथ मिलाने का आदेश दिया जाता है। इस महापाठ को सीखना और उसे व्यवहारिक बनाना वही विभूतिपूर्ण स्रोत है जो मुसलमानों के जीवन में ताज़गी, नए प्राण और प्रफुल्लता भर सकता और उन्हें उन समस्याओं से जिनमें वे –आज या जब भी- फंसे हैं, निकाल सकता है।
आत्ममुग्धता के दानव का, घमंड व इच्छाओं के दानव का, वर्चस्व जमाने और स्वीकार करने के दानव का, विश्व साम्राज्य के दानव का, सुस्ती व दायित्वहीनता के दानव का और मनुष्य की प्रतिष्ठा को अपमान में बदलने वाले सभी दानवों का, हृदय की गहराई से निकल कर मनुष्य की जीवन शैली बनने वाली इस इब्राहीमी उपासना द्वारा, अंत किया जा सकता है और इस प्रकार स्वतंत्रता, सम्मान और सुरक्षा; निर्भरता, कठिनाई व समयस्या का स्थान ले लेगी।
हज करने वाले भाइयो व बहनो! आप जिस देश या जिस राष्ट्र से हों, इस शिक्षाप्रद ईश्वरीय आदेश पर चिंतन करें और इस्लामी जगत की समस्याओं विशेषकर पश्चिमी एशिया और उत्तरी अफ़्रीक़ा की समस्याओं पर ध्यान देकर, अपनी क्षमता व संभावनाओं के अनुसार, अपने लिए कर्तव्यों का निर्धारण करें और फिर उसके पालन का प्रयास करें।
आज इस क्षेत्र में एक ओर अमरीका की दुष्टतापूर्ण नीतियाँ, जो इस क्षेत्र में युद्ध, रक्तपात, तबाही, विस्थापन, निर्धनता, पिछड़ेपन और जातीय व सांप्रदायिक मतभेदों का कारण बनी हैं, और दूसरी ओर ज़ायोनी शासन के अपराध, जिसने फ़िलिस्तीनी देश में अपनी अतिग्रहणकारी नीतियों को दुष्टता व कठोरता के चरम पर पहुंचा दिया है और मस्जिदुल अक़्सा की पवित्रता की बार–बार अवमानना तथा पीड़ित फ़िलिस्तीनियों की धन-संपत्ति व जीवन का दमन, आप सभी मुसलमानों के लिए प्रथम मुद्दा है जिस पर आप सब को विचार करना और इसके प्रति अपने इस्लामी कर्तव्य को पहचानना चाहिए। इस संदर्भ में धर्मगुरुओं और सांस्कृतिक व राजनीतिक बुद्धिजीवियों का दायित्व, अत्यधिक भारी है और खेद की बात है कि अधिकांश इसकी अनदेखी करते हैं। धर्मगुरुओं को, धार्मिक मतभेद की आग भड़काने के बजाए और राजनेताओं को दुश्मन के सामने रक्षात्मक नीति अपनाने के बजाए और सांस्कृतिक बुद्धिजीवीयों को कम महत्व वाले मुद्दों में व्यस्त होने के बजाए इस्लामी जगत की बड़ी पीड़ा को समझना चाहिए और अपनी उस भारी ज़िम्मेदारी को, जिसके पालन के बारे में ईश्वरीय अदालत में उनसे सवाल किया जाएगा, स्वीकार करना और उसे पूरा करना चाहिए। क्षेत्र में, इराक़ में, सीरिया में, यमन में, बहरैन में और पश्चिमी तट में, ग़ज़्ज़ा में और एशिया व अफ़्रीक़ा के अन्य देशों में पीड़ादायक घटनाएं, इस्लामी राष्ट्र की मुख्य समस्याएं हैं जिनके पीछे, साम्राज्यवादियों के हाथ को देखना और उनका समाधान खोजना चाहिए। राष्ट्रों को इन सब चीज़ों की, अपनी-अपनी सरकारों से मांग करनी चाहिए और सरकारों को अपनी इस भारी ज़िम्मेदारी के प्रति वफ़ादार रहना चाहिए।
हज और उसके महान संस्कार, इस ऐतिहासिक कर्तव्य के आदान-प्रदान व प्रकट होने का सर्वश्रेष्ठ स्थान हैं और अनेकेश्वरवादियों से विरक्तता का अवसर, जिसे हर जगह के सभी हाजियों की भागीदारी से आयोजित होना चाहिए, इस व्यापक उपासना की एक अत्यधिक स्पष्ट राजनीतिक क्रिया है।
इस वर्ष, मस्जिदुल हराम में घटने वाली पीड़ादायक व विनाशकारी घटना से हाजियों और उनके राष्ट्रों को दुख पहुँचा है। यह सही है कि इस घटना का शिकार होने वालों को, जो नमाज़, तवाफ़ और उपासना के दौरान, अपने ईश्वर के पास चले गए, बहुत बड़ी सफलता मिली और वे ईश्वरीय शांति व कृपा की छाया में सो गए और यह विचार, उनके परिजनों के लिए बहुत बड़ी सांत्वना है किंतु यह चीज़ ईश्वरीय अतिथियों की सुरक्षा के ज़िम्मेदारों के दायित्व में कमी का कारण नहीं बन सकती। इस दायित्व का पालन और इस ज़िम्मेदारी को निभाना, हमारी निश्चित मांग है।
सलाम हो आप सब पर
सैयद अली ख़ामेनई
4 ज़िलहिज्जा 1436 हिजरी क़मरी बराबर 18 सितम्बर 2015