शाह का तख्तापलट और इमाम खुमैनी के नेतृत्व में ईरान में इस्लामी व्यवस्था का शासन, ऐसा घातक और भीषण झटका था जिसने ज़ायोनीवादियों के विस्तारवादी लक्ष्यों को गंभीर रूप से ख़तरे में डाल दिया था।
शाह का तख्तापलट और इमाम खुमैनी के नेतृत्व में ईरान में इस्लामी व्यवस्था का शासन, ऐसा घातक और भीषण झटका था जिसने ज़ायोनीवादियों के विस्तारवादी लक्ष्यों को गंभीर रूप से ख़तरे में डाल दिया था।
ईरान में इस्लामी क्रांति की सफलता से मुसलमानों के ज़ायोनी-विरोधी संघर्ष तेज़ हो गए और फ़िलिस्तीनियों के संघर्ष की दिशा बदल गई। शाह के शासन को पश्चिम एशिया के संवेदनशील क्षेत्र में पश्चिम और इस्राईल का एक मज़बूत सहयोगी माना जाता था।
शाह के समय में ईरान, इस्राईली वस्तुओं और उत्पादों के आयात का एक बड़ा बाज़ार था जिससे अवैध अतिग्रहणकारी शासन की अर्थव्यवस्था मज़बूत हो रही थी जबकि दूसरी ओर शाह ने इस्राईल की ज़रूरत के तेल का निर्यात करके और उसकी ज़रूरतों को पूरा करके इस शासन की मदद की। दूसरे शब्दों में यूं कहा जा सकता है कि ईरानी तेल, इस्राईली अर्थव्यवस्था और उद्योगों में वह गोली और हथियार बन गया जो फ़िलिस्तीनियों के सीनों को निशाना बना रहे थे।
ईरान, इस्राईली जासूसी अभियानों और क्षेत्र में अरबों के नियंत्रण का अड्डा बन चुका था। इस्राईल के साथ शाह के गुप्त और खुले संबंधों को उजागर करना और मुसलमानों के संयुक्त दुश्मन को शाह की निसंकोच सहायता का विरोध करना, इमाम खुमैनी के आंदोलन के मक़सदों में था। वह ख़ुद ही इस बारे में कहते थे: शाह का विरोध करने के कारणों में एक जिसने हमें शाह के मुक़ाबले में खड़ा कर दिया है, वह शाह द्वारा इस्राईल की मदद थी।
मैंने हमेशा अपने लेखों में कहा है कि शाह ने आरंभ से ही इस्राईल का सहयोग किया है और जब इस्राईल और मुसलमानों के बीच युद्ध अपने चरम पर पहुंचा तो शाह ने मुसलमानों का तेल हड़पना और उसे इस्राईल को देना जारी रखा, मेरे शाह के विरोध का यह ख़ुद ही एक कारण है।
शाह का तख्तापलट और इमाम खुमैनी के नेतृत्व में ईरान में इस्लामी व्यवस्था का शासन, ऐसा घातक और भीषण झटका था जिसने ज़ायोनीवादियों के विस्तारवादी लक्ष्यों को गंभीर रूप से ख़तरे में डाल दिया था।
इस्लामी क्रांति के संदेश और उसके नेतृत्व का जनमत पर प्रभाव इतना व्यापक था कि जब अनवर सादात ने कैंप डेविड में समझौते पर हस्ताक्षर किए तो मिस्र सरकार को अरब जिरगा और यहां तक कि रूढ़ीवादी अरब शासन के ग्रुप से निकाल दिया गया और मिस्र पूरी तरह से अलग थलग पड़ गया।
बैतुल मुक़द्दस पर क़ब्ज़ा करने वाले शासन के मुख्य समर्थक अमेरिका और यूरोपीय सरकारें जब इमाम खुमैनी के आंदोलन का सामना करने में हार गयीं तो वे ईरान की इस्लामी क्रांति को रोकने और स्थिति को बदलने के लिए एक प्लेटफ़ार्म पर जमा हो गयीं।
इन्होंने अपने पूर्वी प्रतिद्वंद्वी (पूर्व सोवियत संघ) के साथ गठबंधन कर लिया जोड़ लिया और इस मुद्दे पर इतनी हद तक बढ़ गये कि उन्होंने ईरानी क्षेत्रों पर क़ब्ज़ा करने के लिए सद्दाम को उकसाया और ईरान की नवआधार क्रांति और इराक़ के बीच लंबे युद्ध के सभी चरणों में इराक़ के लिए दो महाशक्तियों का भरपूर समर्थन देखने को मिला।
ए युद्ध को इस्लामी क्रांति को समाप्त करने, ईरान के टुकड़े करने और उसपर क़ब्ज़ा करने के उद्देश्शय से आंरभ किया गया था। इस्लामी गणतंत्र ईरान जो, दुनिया के वंचितों के लिए संघर्ष करने के उद्देश्य से भूमिका निभाना चाहता था और जो इस नारे के साथ आगे बढ़ना चाहता था कि "आज ईरान, कल फ़िलिस्तीन"। अब वह अपनी क्रांति के अस्तित्व की सुरक्षा के लिए न चाहते हुए भी युद्ध में खीच लिया गया। यह थोपा गया युद्ध पश्चिमी और अन्य नेताओं के कथनानुसार इस्लामी क्रांति को समाप्त करने के लिए शुरू किया गया था। इसका एक अन्य उद्देश्य, मुसलमान राष्ट्रों को इस्लामी क्रांति से रोकना था। इस तरह से सद्दाम ने इस्लाम दुश्मन शक्तियों के उकसावे में आकर एक लंबा युद्ध आरंभ किया। इस बारे में इमाम ख़ुमैनी कहते हैं कि जो बहुत खेद का विषय है वह यह है कि महाशक्तियां विशेषकर अमरीका ने सद्दाम को उकसाकर हमारे देश पर हमला करवाया ताकि ईरान की सरकार को अपने देश की सुरक्षा करने में व्यस्त कर दिया जाए जिससे अवैध ज़ायोनी शासन को वृहत्तर इस्राईल के गठन का मौक़ा मिल जाए जो नील से फ़ुरात तक निर्धारित है।
शाह की अत्याचारी सरकार के दौर में इमाम ख़ुमैनी ने इस्राईल और शाह के शासन के बीच संबन्धों का पर्दाफ़ाश किया था। वे इस्लामी जगत के लिए इस्राईल को बड़ा ख़तरा मानते थे। स्वर्गीय इमाम ख़ुमैनी ही वे पहले वरिष्ठ धर्मगुरू थे जिन्होंने फ़िलिस्तीन के लिए संघर्ष को ज़कात और सदक़े के माध्यम से जारी रखने का समर्थन किया था। आरंभ से ही उन्होंने सताए गए फ़िलिस्तीनी राष्ट्र को संगठित करने और उनसे मुस्लिम राष्ट्रों का समर्थन प्राप्त करने के लिए सबसे अधिक प्रभावशाली तरीक़ा पेश किया। उन्होंने अरब जाति की वरिष्ठता, राष्ट्रवादी दृष्टिकोण और दूसरी आयातित ग़ैर इस्लामी विचारधाराओं पर भरोसा करके बैतुल मुक़द्दस की आज़ादी के लिए संघर्ष को, मार्ग से भटकना बताया।
उनको कुछ इस्लामी देशों के नेताओं की अक्षमता तथा निर्भर्ता की जानकारी थी और साथ ही वे इस्लामी जगत की आंतरिक समस्याओं से भलिभांति अवगत थे। इसी के साथ वे धार्मिक मतभेदों के विरोधी थे और इस्लामी राष्ट्रों के नेताओं को एकता का आहवान करते थे। उनका यह भी मानना था कि जबतक सरकारें आम मुसलमानों की इच्छाओं के हिसाब से उनके साथ रहेंगी उस समय तक वे उनका नेतृत्व कर सकती हैं। यदि एसा न हो तो उन राष्ट्रों को वैसा ही करना चाहिए जैसा कि ईरानी राष्ट्र ने शाह के साथ किया।
यहां पर फ़िलिस्तीन के विषय के संदर्भ में ज़ायोनी दुश्मन के विरुद्ध संघर्ष को लेकर इमाम ख़ुमैनी ने कुछ बिदु पेश किये हैं।
अमरीका और इस्राईल के विरुद्ध तेल रणनीति का प्रयोगः
उनहोंने नवंबर 1973 के युद्ध की वर्षगांठ पर इस्लामी देशों को संबोधित करते हुए अपने संदेश में कहा थाः तेल से संपन्न इस्लामी देशों को चाहिए कि वे अपने पास मौजूद सारी संभावनाओं को इस्राईल के विरुद्ध हथकण्डे के रूप में प्रयोग करें। वे उन सरकारों को तेल न बेचें जो इस्राईल की सहायता करते हैं। फ़िलिस्तीन की आज़ादी, इस्लामी पहचान की बहाली पर निर्भरः
हम जबतक इस्लाम की ओर वापस नहीं आते, रसूल अल्लाह के इस्लाम की ओर, उस समय तक मुश्क़िलें बाक़ी रहेंगी। ऐसे में हम न तो फ़िलिस्तीन समस्या का समाधान करा पाएंगे न अफ़ग़ानिस्तान का और न ही किसी दूसरे विषय का।
बारंबार वृहत्तर इस्राईल के गठन का रहस्योदघाटनः
इस्राईल की संसद का मुख्य नारा यह था कि इस्राईल की सीमाएं नील से फ़ुरात तक हैं। उनका यह नारा उस समय भी था जब अवैध ज़ायोनी शासन के गठन के समय ज़ायोनियों की संख्या कम थी। स्वभाविक सी बात है कि शक्ति आने पर वे उसको व्यवहारिक बनाने के प्रयास अवश्य करेंगे।
इमाम ख़ुमैनी ने हमेशा ही इस्राईल की विस्तारवादी नीतियों के ख़तरों और उसका अपनी वर्तमान सीमाओं तक सीमित न रहने के प्रति सचेत किया। वे यह भी कहा करते थे कि इस लक्ष्य पर इस्राईल की ओर से पर्दा डालने का काम आम जनमत को धोखा देने के उद्देश्य से है जबकि इसको चरणबद्ध ढंग से हासिल करने की वह कोशिश करता रहेगा।
ज़ायोनिज़्म और यहूदी में अंतरः
वास्तव में ज़ायोनिज़्म, यहूदी धर्म की आड़ में विस्तारवादी, जातिवादी और वर्चस्ववादी एक एसी प्रक्रिया है जो धर्म के चोले में यहूदी धर्म के लक्ष्यों को पूरा करने का दिखावा करता है। हालांकि जानकार इस बात से भलिभांति अवगत हैं कि इस नाटक के अन्तर्गत ज़ायोनी, फ़िलिस्तीनियों पर अत्याचार करने और उनकी ज़मीनों पर क़ब्ज़ा करने का औचित्य पेश कर सकें। यह काम आरंभ में ब्रिटेन के माध्यम से शुरू हुआ था किंतु वर्तमान समय में यह, वाइट हाउस को सौंप दिया गया है। यह बात बहुत ही स्पष्ट है कि नया साम्राज्यवाद, केवल अपने निजी हितों पर ही नज़र रखता है। इमाम ख़ुमैनी, इस वास्तविकता को समझते हुए हमेशा ही ज़ायोनिज़म और यहूदियत में फ़र्क़ के क़ाएल थे। वे ज़ायोनिज़्म को एक राजनीतिक प्रक्रिया मानते थे जो ईश्वरीय दूतों की शिक्षाओं से बिल्कुल अलग और दूर है।
फ़िलिस्तीन की मुक्ति का रास्ताः
एक अरब से अधिक मुसलमानों पर ज़ायोनियों के एक छोटे से गुट के शासन को इमाम ख़ुमैनी बहुत शर्मनाक मानते थे। वे कहते थे कि एसा क्यों है कि वे देश जो सबकुछ रखते हैं और उनके पास शक्ति भी है, उनपर इस्राईल जैसा हुकूमत करे? एसा क्यों है? यह इसलिए है कि राष्ट्र, एक-दूसरे से अलग हैं। सरकारें और राष्ट्र अलग हैं। एक अरब मुसलमान अपनी सारी संभावनाओं के बावजूद बैठे हुए हैं और इस्राईल, लेबनान और फ़िलिस्तीन पर अत्याचार कर रहे है।
ज़ायोनिज़्म के विरुद्ध राष्ट्रों का आन्दोलन और अमरीका पर निर्भर न रहनाः
इमाम ख़ुमैनी ने 16 दिसंबर 1981 को न्यायपालिका के अधिकारियों के साथ मुलाक़ात में इस ओर संकेत किया था कि मुसलमान सरकारों की अमरीका पर निर्भर्ता ही मुसलमानों की समस्याओं का मुख्य कारण हैं। उन्होंने कहा कि मुसलमान बैठे न रहें कि उनकी सरकारें, इस्लाम को ज़ायोनियों के पंजों से मुक्ति दिलाएं। वे न बैठे रहें कि अन्तर्राष्ट्रीय संगठन उनके लिए काम करें। राष्ट्रों को इस्राईल के सामने उठना होगा। राष्ट्र स्वयं आन्दोलन करके अपनी सरकारों को इस्राईल के मुक़ाबले में खड़ा करें। वे केवल मौखिक भर्त्सना को काफी न समझें। वे लोग जिन्होंने इस्राईल के साथ भाइयों जैसे संबन्ध बनाए हैं वे ही उसकी भर्त्सना भी करते हैं किंतु वास्तव में यह निंदा तो मज़ाक़ की तरह है। अगर मुसलमान बैठकर यह सोचने लगें कि अमरीका या उसके पिट्ठू उनके लिए काम करेंगे तो फिर यह काफ़ला हमेशा ही लंगड़ाता रहेगा।