पवित्र महीना रमज़ान, बंदों की डायरी के पेज की भांति है जो साल में एक बार बार खोली जाती है।
इस डायरी में प्यास की कहानी लिखी होती और इसमें महान ईश्वर से मांगी गयी हर हर दुआ और उपासना के हर हर क्षण लिखे हुए हैं। रमज़ान का महीना, परिज्ञान के सांचे में इंसान के व्यस्क होने का महीना है। परिज्ञान, रमज़ान की सीमा में प्रविष्ट होने की चाभी का नाम है।
रमज़ान का सूर्य अपनी बरकतों के साथ उदय हो रहा है और जैसे ही यह सूरज दुनिया पर अपनी पहली किरण बिखरता है तभी लाखों हाथ आकाश की ओर उठ जाते हैं और कहते हैं कि हे मेरे पालनकार मैंने तुझसे सृष्टि के आरंभ में जो वादा किया था उसे अपने पापों की आग से तोड़ दिया, अब जब कि आसमान के द्वार खुले हुए हैं, रोज़े और नत्मस्तक होने के स्वाद से मेरे अंगों को स्वादिष्ट कर दे, मेरी आंख तेरे अलावा किसी को न देखे, मेरे कान तेरे अतिरिक्त किसी का न सुनें, मैं एक बार फिर तेरे दस्तरख़ान पर आ गया, क्योंकि तुझने ही मुझे आमंत्रित किया है।
रमज़ान का महीना चल रहा है, हर ओर से दुआओं की आवाज़े सुनाई दे रही हैं, हे मेरे पालनहार मुझे क्षमा कर दे और मेरे पापों को माफ़ कर दे, दुआएं, प्रेम और संदेशों का आदान प्रदान करने वाली होती हैं। दुआ में ही व्यक्ति अपने पालनहार के समक्ष, गिड़गिड़ाकर अपने दिल को खोलकर रख देता है, अपने दिल के भीतर मौजूद सारी चीज़ों को सामने रख देता है, अपने पापों की क्षमायाचना करता है, अपने लिए दुआएं करता है, ख़ुद को पापी समझता है और ईश्वर से अपने पिछड़ने का दर्द बयान करता है, ईश्वर से अपना शिकवा और शिकायत करता है, धोखा दिए जाने, मक्कारी में फंसने और बेवफ़ाइयों की कहानियां सुनाता है, इस प्रकार से वह अपने दिल में छिपे दर्दों को शांत करता है। सूरए ग़ाफ़िर की आयत संख्या 60 में ईश्वर कहता है कि तुम्हारे पालनहार ने तुमसे कहा है कि दुआ करो मैं तुम्हारी दुआओं को स्वीकार करूंगा।
ईश्वर से दुआ है कि इस पवित्र महीने में हमारी उपासनाओं और दुआओं को स्वीकार करे और हमें भले काम करने का सामर्थ्य प्रदान करे। मनुष्य अपने जीवन में हमेशा से दुआओं से लगा रहा है और इतिहास इस बात का साक्षी है कि उसने दुआओं के ज़रिए ही अपने मन की बात ईश्वर के सामने रखी है।
यह बात केवल मुसलमानों से विशेष नहीं है, इंसान दुआ द्वारा अपने अक्षम अस्तित्व को कभी समाप्त न होने वाले गंतव्य से जोड़ देता है और इस प्रकार वह हर प्रकार की समस्याओं के मुक़ाबले में डट जाता है और इस आत्मिक व अध्यात्मिक शक्ति द्वारा अपनी समस्त समस्याओं और आवश्यकताओं को सर्वसमर्थ ईश्वर के दरबार में तुच्छ समझता है और सिर्फ़ उससे ही सहायता की गुहार लगाता है और इस प्रकार से वह अपने लक्ष्यों की प्राप्ति में अधिक मज़बूत हो जाता है।
यद्यपि बंदे की ओर से आवश्यकता का आभास और उसकी आवश्यकताओं को दूर करने की शक्ति ईश्वर में पायी जाती है किन्तु दोनों को एक दूसरे से जोड़ने के लिए दुआ और दिल की बात करने का क्रम और अधिक मज़बूत होता है। इस विषय की मनोचिकित्सक और विद्वान भी पुष्टि करते हैं। यही काफ़ी है कि मनुष्य अपनी आवश्यकता और ग़रीबी को पहचाने और उसे यह विश्वास होना चाहिए कि उसकी दुआओं को सुनने वाला कोई है और अपनी शक्ति और दया तथा कृपा से उसकी दुआओं को सुनेगा। पवित्र क़ुरआन के सूरए बक़रा की आयत संख्या 186 में कहा गया है कि और हे पैग़म्बर, यदि मेरे बंदे तुमसे मेरे बारे में सवाल करें तो मैं उनसे निकट हूं, पुकारने वाले की आवाज़ सुनता हूं जब भी पुकारता है, इसीलिए मुझसे मांगे और मुझपर ही ईमान व विश्वास रखें कि शायद इस प्रकार सही मार्ग पर आ जाएं।
अगर रोज़ेदार इस महीने में अपने भीतर किसी परिवर्तन का आभास न करे तो उसे यह समझ लेना चाहिए कि यह स्वयं उसकी ग़लती है। इसलिए कि रमज़ान ईश्वरीय अनुकंपाओं और रहमत का महीना है और इस महीने में आसमान के द्वार ज़मीन वालों के लिए खुल जाते हैं। अतः वह कितना आलसी बंदा है जो ईश्वरीय बरकतों और रहमतों में से कुछ भी हासिल नहीं कर सका। अगर यह सही है तो इंसान को ईश्वर से दुआ करना चाहिए कि उसके पापों को क्षमा कर दे और उसे अपनी असीम दया कर पात्र बनाए।
रमज़ान मुबारक व्यक्तिगत और सामाजिक नैतिकता में सुधार का बेहतरीन अवसर है। अगर इंसान इस महीने में अपने व्यवहार पर नज़र डाले और नैतिकता को अपने मन में बसा ले तो इस महीने के बाद भी वह इसे जारी रख सकता है। इन नैतिकताओं में से एक अपने मातहतों के साथ अच्छा बर्ताव करना है। इस्लामी शिक्षाओं में अपने अधीन लोगों के साथ कठोरतापूर्ण व्यवहार न करने को ईमान वालों का गुण और अपने अधीन लोगों पर अत्याचार करने को नादान लोगों की विशेषता क़रार दिया गया है। पैग़म्बरे इस्लाम ने इस संदर्भ में फ़रमाया है, इस महीने में जो कोई भी अधीन लोगों के साथ विनम्रतापूर्ण व्यवहार करेगा, ईश्वर उसके साथ विनम्रता से पेश आएगा।
प्रसिद्ध शायर और विचारक अल्लामा इक़बाल लिखते हैं कि दुआ चाहे व्यक्तिगत हो या सामूहिक, ख़ामोशी में जवाब हासिल करने के लिए मनुष्य की भीतरी उत्सुकता का चिन्ह है। ऐसे लोग कम नहीं हैं जो ईश्वर पर विश्वास नहीं रखते हैं किन्तु भीतर दुखों और दर्दों को शांत करने के लिए अपने दिल की आवाज़ को दुआ की सांचे में पेश करते हैं। इन हालात में यद्यपि इस प्रकार के पुकारने को दुआ तो नहीं कहा जा सकता किन्तु यह मनुष्य के लिए दुआ की आवश्यता को ज़ाहिर करता है।
इस आधार पर यदि हम दुआ की समग्र और व्यापक परिभाषा पेश करना चाहें तो यह कहना पड़ेगा कि दुआ, आवश्यकताओं को पूरा करने और अपने लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए ईश्वर के लिए प्रेम ज़ाहिर करना है। फ़्रांसीसी डाक्टर कार्ल का कहना है कि दुआ अपने उच्च चरण में, अपनी मांग की सतह से ऊपर जाती है, मनुष्य अपने पालनहार के समक्ष यह दिखाता है कि वह उसे पसंद करता है, उसकी अनुकंपाओं पर आभार व्यक्त करता है और इस बात के लिए तैयार है अपनी मांग को चाहे जो भी हो, अंजाम दे।
ईश्वरीय महापुरुषों की नज़र में दुआ, उपासना के अतिरिक्त कुछ और नहीं है यहां तक कि दुआ में अधिक ध्यान दिया जाता है, इस बात के दृष्टिगत इसीलिए कुछ उपासनाओं पर इसको प्राथमिकता प्राप्त है। पैग़म्बरे इस्लाम के हवाले से एक रिवायत है कि दुआ उपासना की बुद्धि की जगह है।
ईश्वर की उपासना और उसकी इबादत का स्रोत, इंसान की प्रवृत्ति में पाया जाता है। इस प्रकार से दुनिया के समस्त मनुष्यों में उपासना और बंदगी की भूमिका पायी जाती है किन्तु कुछ लोग उसके कारकों को सक्रिय बना देते हैं और सर्वसमर्थ व अनन्य ईश्वर के समक्ष नतमस्तक हो जाते हैं और कुछ लोग इसकी परवाह ही नहीं करते। हज़रत अली अलैहिस्सलाम ज्ञान और दूरदर्शिता को इबादत और उपासना की मुख्य भूमिका क़रार देते और कहते हैं कि ज्ञान का फल, उपासना है।
उपासना, त्याग और बलिदान का पाठ सिखाती है, यह हालत उस समय मनुष्य में पैदा होती है जब वह महान व सर्वसमर्थ ईश्वर की महानता, वैभता और उसकी दयालुता को समझ जाता है। इस आधार पर ईश्वर की उपासना और बंदगी, ईश्वर की सही पहचान से निकलती है। इस संबंध में पैग़म्बरे इस्लाम हज़रत अली अलैहिस्सलाम को संबोधित करते हुए कहते हैं कि ज्ञान के साथ दो रकअत नमाज़, अज्ञानता के साथ सत्तर रकअत नमाज़ से बेहतर है।
मार्गदर्शन और परिपूर्णता के मार्ग में इंसान के सामने आने वाली बुराइयों में से एक ईश्वर से आवश्यकता मुक्ति का आभास होना है। आवश्यकता मुक्ति की भावना मनुष्य और ईश्वर के संबंधों को विच्छेद कर देती है और इसके परिणाम में ईश्वरीय मार्गदर्शन से लाभ उठाने का अवसर हाथ से निकल जाता है। यही कारण है कि जो व्यक्ति स्वयं को आवश्यकता मुक्त समझने लगता है वह बाग़ी और विद्रोही हो जाता है। पवित्र क़ुरआन की आयत में आया है कि हे लोगो तुम सभी को ईश्वर की आवश्यकता है और वह आवश्यकता मुक्त है।
पवित्र रमज़ान की सुबह सभी विशेषताओं और गुणों को एक साथ एकत्रित कर देती हैं क्योंकि रात के अंतिम समय में उपासना का महत्व ही अलग है और वह रमज़ान में हो तो अलग ही है। इसीलिए पवित्र रमज़ान की रात के अंतिम समय में इबादत का सवाब ही अलग है और इस समय दुआएं स्वीकार होती हैं।
पैग़म्बरे इस्लाम के हवाले से रिवायत है कि रात के तीसरे पहर से सुबह होने तक ईश्वर पुकारता है क्या कोई मांगने वाला है जिसकी मांग मैं पूरी करूं, क्या कोई पापों की क्षमा मांगने वाला है जिसके पापों को मैं माफ़ कर दूं? क्या कोई आशा रखे हुए है जिसकी आशा मैं पूरी कर दूं? क्या किसी के दिल में कोई कामना है कि उसकी कामना मैं पूरी कर दूं?