रमज़ान का पवित्र महीना तक़वे, ईश्वर की उपासना और आत्ममंथन का महीना है।
इस महीने में अन्य महीनों की तुलना में ईश्वर के बंदों पर उसकी अनुकंपाएं अधिक होती हैं। रमज़ान में लोगों पर ईश्वर की कृपा, तुल्नात्मक रूप में अधिक रहती है। इस महीने में हर रोज़ेदार का यह प्रयास रहता है कि वह ईश्वरीय आदेशों पर अधिक से अधिक पालन करके उसकी अधिक से अधिक अनुकंपाओं को हासिल करे और ईश्वर से निकट हो जाए। इस्लामी शिक्षाओं में बताया गया है कि रोज़े का अर्थ केवल यह नहीं है कि मनुष्य खाना-पीना छोड़ दे बल्कि इस महीने में उसके शरीर के सारे अंग भी रोज़ेदार रहें अर्थात वह हर प्रकार के बुरे कामों से बचता रहे। रमज़ान का बेहतरीन काम यह है कि रोज़ा रखने वाला ईश्वर की उपासना करते हुए हर प्रकार की बुराइयों से बचता रहे।
रमज़ान के पवित्र महीने में रोज़ा रखने वाले ईश्वर के अतिथि होते हैं इसलिए पवित्र हृदय और ईश्वरीय प्रेरणा से उसकी मेहमानी में जाने की कोशिश करें। रमज़ान के दौरान मुसलमान, इसके पवित्र दिनों में आध्यात्मिक क्षणों का आभास करते हुए धैर्य का पाठ सीखते हैं। बहुत से समाजशास्त्रियों का मानना है कि रमज़ान में ऐसी भूमिका प्रशस्त होती है जिसके माध्यम से रोज़ेदार सच्चाई, परोपकार और मानवजाति से प्रेम की भावना में वृद्धि होती है। इसका परिणाम यह निकलता है कि लोगों के भीतर अपने समाज और परिवार के सदस्यों के साथ प्रेम बढ़ता है और ख़तरे कम होते हैं।
एक समाजशास्त्री डाक्टर मजीद अबहरी का मानना है कि रमज़ान का माहौल, बुराइयों से दूरी की भी भूमिका प्रशस्त करता है। इसका मुख्य कारण यह है कि जब कोई व्यक्ति ईश्वर की प्रशंसा के कारण घण्टों तक भूखा और प्यासा रहता है तो फिर वह नैतिक मूल्यों को क्षति नहीं पहुंचाएगा। रोज़ा रखने से पाप करने की इच्छा प्रभावित होती है जिसके परिणाम स्वरूप पाप और अपराध कम होते हैं। रोज़े में भूखा रहकर मनुष्य के मन में ग़रीबों, भूखों, दीन-दुखियों और वंचितों के लिए सहानुभूति उत्पन्न होती है। ऐसा व्यक्ति इन लोगों की अधिक से अधिक सहायता करना चाहता है। इस महीने में न केवल रोज़ेदार ही रमज़ान से लाभान्वित होते हैं बल्कि दूसरे लोग भी रोज़ेदारों को देखकर भलाई की ओर उन्मुख होते हैं। इस दौरान लोगों के भीतर एक विशेष प्रकार का बदलाव आता है। लोगों के प्रति अधिक कृपालू होना, दूसरों के साथ अच्छा व्यवहार करना, मानवजाति की सहायता के लिए सदैव तत्पर रहना और नैतिकता का ध्यान वे बातें हैं जो रमज़ान की ही देन होती हैं।
पवित्र रमज़ान और रोज़ा रखने का एक बहुत प्रभावी असर यह है कि इससे, अपने जैसे इंसानों के प्रति दोस्ती की भावना जागृत होती है। रोज़े के ज़रिए दूसरों को किसी हद तक मदद अवश्य मिलती है। हक़ीक़त में रोज़ा रखने से इंसान, दूसरों के दुख-दर्द को समझने लगता है। इंसान की ज़िन्दगी में नाना प्रकार के दुख व दर्द होते हैं। इस बात की कल्पना नहीं की जा सकती कि सभी इंसान सभी प्रकार के दुखों का शिकार हों। जब मनुष्य हर प्रकार के दुख का शिकार नहीं होगा तो वह उनको समझेगा कैसे? जैसे कुछ लाइलाज बीमारियां होती हैं जो बहुत कम लोगों को होती हैं। कुछ ख़ास प्रकार की मुश्किलें और संकट होते हैं जिनसे कुछ विशेष वर्ग को सामना होता है लेकिन एक पीड़ा ऐसी है जिसे प्राचीन समय से लेकर आज के इस आधुनिक युग में सभी इंसान महसूस करता है और वह है भूख व प्यास की पीड़ा। ईश्वर ने पवित्र रमज़ान के महीने में भूख और प्यास की मुसीबत को बर्दाश्त करने का आदेश दिया है ताकि सभी लोग भूख और प्यास की मुसीबत को समझें। शायद अगर पवित्र रमज़ान का महीना न होता तो धनवान कभी भी निर्धन की मुश्किलों के बारे में न सोचता। इसलिए पैग़म्बरे इस्लाम (स) ने रमज़ान से पहले शाबान के महीने में पवित्र रमज़ान के महत्व के बारे में अपने भाषण में कहा था कि "इस महीने में भूख और प्यास के ज़रिए प्रलय के दिन की भूख-प्यास को याद करो। निर्धनों व ज़रूरतमंद लोगों की मदद करो।" इसी प्रकार पैग़म्बरे इस्लाम (स) ने अपने जैसे लोगों से मेलजोल के महत्व को समझाने के लिए कहा है, “हे लोगो! तुममे से जो भी इस महीने अपने किसी मोमिन भाई को इफ़्तार कराए तो उसे एक क़ैदी को आज़ाद कराने का पुण्य तथा पापों के क्षमा होने का बदला मिलेगा।”
पवित्र रमज़ान का वातावरण समाज के भीतर आध्यात्म को अधिक से अधिक सुदृढ़ करता है। इस महीने का वातावरण पाप और अपराध की भावना को कुचल देता है। रमज़ान के दौरान ईश्वर और उसके दास के बीच संबन्धों के मज़बूत होने के कारण मनुष्य के व्यवहार पर इसके सकारात्मक प्रभाव पड़ते हैं।
रमज़ान का एक लाभ यह भी है कि इस में खाने और पीने पर नियंत्रण करने से आंतरिक इच्छाएं नियंत्रित रहती हैं। इसका परिणाम यह निकलता है कि पाप और अपराध की भावना कम होती है और समाज के भीतर फैली बहुत सी बुराइयां कम हो जाती हैं। यह वे बुराइयां हैं जो दूसरे अन्य महीनों में अधिक दिखाई देती हैं। एक अन्य बिंदु यह भी है कि खाने-पीने पर नियंत्रण से आंतरिक इच्छाएं दबने लगती है और जिसके नतीजे में बुरे कामों की ओर झुकाव में कमी आ जाती है। विशेषज्ञों का कहना है कि समाजिक बुराइयों को कम करने का यह बहुत बड़ा कारण है। बहुत से पाप और अपराध एसे हैं जो मनुष्य एकदम से अंजाम देता है और उसके लिए वह पहले से कोई योजना नहीं बनाता। कभी एसा होता है कि मनुष्य किसी बात पर एकदम से क्रोधित हो जाता है और झगड़ा करने लगता है। यही झगड़ा कभी-कभी हत्या का भी कारण बन जाता है। रोज़े की स्थिति में ऐसी भावना का उत्पन्न होना लगभग असंभव होता है क्योंकि एक तो मनुष्य भूखा और प्यासा होता है दूसरे उसके मन में सदैव यह रहता है कि किसी भी प्रकार के ग़लत काम से उसका रोज़ा बातिल हो जाएगा इसलिए वह कोई भी अनुचित हरकत करने से बचता है।
शरीर पर रोज़े के प्रभाव के बारे में हालांकि अबतक बहुत से शोध किये गए हैं किंतु मनुष्य के मन पर पड़ने वाले इसके प्रभाव एसे हैं जिन्हें अनेदखा नहीं किया जा सकता। इस बारे में ईरान में किये जाने वाले शोध से पता चलता है कि रोज़ा रखने से तनाव, चिंता और अवसाद जैसी समस्याओं के समाधान में सहायता मिलती है। इस बारे में डाक्टर अब्बास इस्लामी कहते हैं कि रोज़ा सामाजिक एकता और एकजुटता का कारण बनता है। जब एसा वातावरण बन जाता है तो लोगों के भीतर परस्पर सहयोग की भावना बढ़ जाती है। जब सब लोग एक प्रकार से सोचने लगते हैं तो बहुत सी सामाजिक समस्याएं हल होने लगती हैं।
रमज़ान में मस्जिदों में जब लोग एकसाथ मिलकर उपासना में व्यस्त होते हैं तो उसका दृश्य बहुत ही मनमोहक होता है। इससे एक प्रकार की सामाजिक एकता का प्रदर्शन होता है। यह भावना संसार के बहुत से हिस्सों में बहुत ही कम देखने को मिलती है। एसे दृश्यों को केवल उन स्थानों पर ही देखा जा सकता है जहां पर बड़ी संख्या में नमाज़ी, उपासना में व्यस्त हों।
मनुष्य अपने जीवन में चाहे कोई भी काम करे, उस काम को करने के लिए उसके भीतर किसी भावना का पाया जाना ज़रूरी है। अच्छा या बुरा कोई भी काम हो उसके करने की अगर भावना या कारक नहीं है तो वह काम हो ही नहीं सकता। रोज़े की एक विशेषता यह है कि वह रोज़ेदार के भीतर सदकर्म करने की भावना जागृत करता है। रोज़े से ईमान को भी मज़बूत किया जा सकता है। ईमान को मज़बूत करके कई प्रकार की बुराइयों से बचा जा सकता है। यदि ईमान को मज़बूत करने के साथ ही आंतरिक इच्छाओं का भी दमन किया जाए तो भी मनुष्य निश्चित रूप से सफलता की ओर बढ़ेगा। रोज़े से मनुष्य के भीतर तक़वे या ईश्वरी भय की भावना बढ़ती है जो हर अच्छाई की कुंजी है। इस बारे में सूरे बक़रा की आयत संख्या 183 में ईश्वर कहता है कि हे ईमान लाने वालो! रोज़े तुम्हारे लिए निर्धारित कर दिये गए उसी प्रकार से जैसे कि तुमसे पहले वालों पर निर्धारित किये गए थे। हो सकता है कि तुम परहेज़गार बन जाओ।
तक़वे का अर्थ होता है स्वयं को पापों से सुरक्षित रखना। कहते हैं कि अधिकांश पाप, दो चीज़ों से अस्तितव में आते हैं क्रोध और वासना से। रोज़े की एक विशेषता यह है कि वह इन दोनों को नियंत्रित करता है। रोज़े की देन तक़वा या ईश्वरीय भय है और यही तक़वा मनुष्य का मुक्तिदाता है।