ईश्वरीय आतिथ्य- 15

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ईश्वरीय आतिथ्य- 15

हमें ईश्वर की ओर से हर साल मेहमानी के लिए बुलाया जाता है।

यह मेहमानी किसी एक दिन की नहीं बल्कि पूरे महीने की होती है।  यह अवसर, स्वयं को सुधारने का उचित अवसर है।  एक महीने की ईश्वरीय मेहमानी में लोगों के हृदय नर्म हो जाते हैं, आत्मशुद्धि का अवसर प्राप्त होता है और लोग आत्मनिर्माण के लिए अधिक तैयार होते हैं।  हर व्यक्ति, अपनी योग्यता और क्षमता के अनुसार ईश्वर की मेहमानी से लाभ उठाने के प्रयास करता है।  इसमें मेहमानों के मन, से पाप दूर होने लगते हैं जिसके कारण दिल प्रकाशमान होते हैं।

यह मेहमानी वास्तव में रमज़ान का पवित्र महीना है।  यह महीना मनुष्य के भीतर सुधार के लिए है।  रमज़ान का महीना एसा अवसर है जिसमें मनुष्य के पास यह मौक़ा होता है कि वह आत्मसुधार कर सके।  इस महीने में मनुष्य, ईश्वर की कृपा का साक्षी होता है।  रमज़ान का महीना इसलिए भी है कि ज़रूरतमंद लोगों की सहायता की जाए।  यदि हमारे हाथ से किसी के मन को ठेस पहुंची है तो उससे क्षमा मांग ली जाए।  विगत में जो बुराइयां की हैं उनकी भरपाई, उपासना के माध्यम से की जाए।  यह इतना विभूतियों वाला महीना है जिसमें सांस लेना भी इबादत है।

वे लोग जो किसी भी पद पर आसीन हैं उनके लिए भांति-भांति से पाप में पड़ने की संभावना पाई जाती है।  उदाहरण स्वरूप वे लोग जो आर्थिक गतिविधियों में लगे रहते हैं उनके बारे में यह संभावना पाई जाती है कि वे आर्थिक मामलों से संबन्धित किसी बुराई में पड़ जाएं।  इसी प्रकार से अन्य क्षत्रों में कार्यरत लोगों के उस क्षेत्र से संबन्धित बुराई में पड़ने की संभावना पाई जाती है।  यहां पर विशेष बात यह है कि अगर कोई व्यक्ति किसी भी प्रकार का पाप करता है और समय गुज़रने के साथ पाप करना उसके लिए सामान्य सी बात हो जाती है तो यह स्थिति मनुष्य के लिए बहुत ख़तरनाक स्थिति है।  इस्लामी शिक्षाओं में हर प्रकार के पाप से रूकने की बात कही गई है।  मनुष्य को चाहिए कि वह पापों से बचने की कोशिश करता रहे।

कुछ लोग ऐसे होते हैं कि वे पाप करते हैं और बाद में प्रायश्चित कर लेते हैं।  इसके विपरीत कुछ एसे लोग भी होते हैं जो इतना अधिक पाप कर लेते हैं कि उनके लिए पाप करना एक सामान्य सी बात होती है।  ऐसा व्यक्ति जिसके लिए पाप करना एक सामान्य बात है वह धीरे-धीरे ईश्वर की रहमत से दूर होता जाता है।  इस प्रकार से वह ग़लत रास्ते पर बढ़ता जाता है।  यही कारण है कि मनुष्य को सदैव बुराइयों से बचते रहना चाहिए।  सदैव ही स्वयं को बुराइयों से दूर करने की प्रक्रिया को ही तक़वा या ईश्वरीय भय कहा जाता है।  एसा व्यक्ति जो अपनेआप को हमेशा बुराइयों से दूर रखता है उसे "मुत्तक़ी" कहते हैं।

इस बारे में इस्लामी क्रांति के नेता आयतुल्लाहिल उज़्मा सैयद अली ख़ामेनेई कहते हैं कि ईश्वर से निकट होने का सबसे अच्छा रास्ता, पापों से दूरी है।  मुख्य मार्ग यही है।  इसके अतिरिक्त किसी भी मार्ग को प्रमुख मार्ग नहीं कहा जा सकता।  ख़ास बात यह है कि हर स्थिति में पापों से बचा जाए।  यही वास्तविक तक़वा है।  तक़वा प्राप्त करने या उसे मज़बूत करने का सबसे अच्छा अवसर रमज़ान है।  जैसाकि पवित्र क़ुरआन के सूरे बक़रा की आयत संख्या 183 में ईश्वर कहता है कि हे ईमान लाने वालो! तुम्हारे लिए रोज़ा अनिवार्य किया गया जिस प्रकार तुमसे पहले वाले लोगों पर अनिवार्य किया गया था ताकि शायद तुम पवित्र और भले बन सको।

तक़वा या ईश्वरीय भय के बारे में पवित्र क़ुरआन में जो आयतें हैं उनके आधार पर यह कहा जा सकता है कि तक़वा, एक बार में प्राप्त होने वाली चीज़ नहीं है बल्कि यह धीरे-धीरे हासिल होता है।  मनुष्य, कठिन अभ्यास करके ही ईश्वरीय भय को अपने मन में स्थान दे सकता है।  रमज़ान के पवित्र महीने में मनुष्य के पास यह अवसर होता है कि वह इस दौरान तक़वा हासिल करके उसे मज़बूत बनाए।  इस दौरान मनुष्य को आत्मज्ञान प्राप्त करने के प्रयास करने चाहिए।  ऐसा व्यक्ति अपनी आंतरिक पहचान करके उन बुराइयों को स्वयं से दूर कर सकता है जो उसके भीतर मौजूद हैं।  इसके लिए थोड़ा प्रयास तो करना पड़ेगा किंतु यह कोई असंभव काम नहीं है।

इस बारे में इस्लामी क्रांति के नेता आयतुल्लाहिल उज़्मा सैयद अली ख़ामेनेई कहते हैं कि मेरे दोस्तो, आइए हम अपनी बुराइयों पर ग़ौर करें।  इन बुराइयों को हमें सूचिबद्ध करना चाहिए।  रमज़ान के महीने में हमारे पास यह अवसर रहता है कि हम अपनी इन बुराइयों को स्वंय से दूर करें।  हम अगर ईर्ष्यालु हैं तो ईर्ष्या को, अगर ज़िद्दी हैं तो ज़िद को, अगर आलसी हैं तो आलस को और अगर किसी के प्रति द्वेष है तो द्वेष को समाप्त किया जाए।  इस प्रकार हमें अपने भीतर पाई जाने वाली बुराइयों को दूर करने के प्रयास करने चाहिए।  हमे अपने भीतर की सारी नैतिक बुराइयों को दूर करना चाहिए।  हमको यह जानना चाहिए कि यदि रजमज़ान के महीने में हम अपनी बुराइयों को दूर करने के प्रयास करेंगे तो ईश्वर हमारी सहायता करेगा।  ईश्वर सुधार के मार्ग में हमारी सहायता अवश्य करेगा।

तक़वे का शाब्दिक अर्थ होता है ईश्वरीय भय लेकिन यह भय से पहले स्वयं को हर प्रकार की बुराई और पाप से दूर करने के अर्थ में है।  मनुष्य को केवल बाहरी तक़वे को पर्याप्त नहीं समझना चाहिए बल्कि आंतरिक तक़वे की ओर अवश्य ध्यान देना चाहिए।  इसका अर्थ होता है कि रमज़ान के पवित्र महीने में अपने भीतर से ईर्ष्या, क्रोध, मोह, भ्रष्टाचार, छल-कपट, धोखाधड़ी, उत्पीड़न, विश्वासघात और शोषण सहित अन्य नैतिक बुराइयों को दूर करके अच्छी विशेषताओं को अपनाना चाहिए।  मनुष्य के भीतर पाई जाने वाली अच्छी बातें स्वस्थ मन की परिचायक हैं।  नैतिकशास्त्र के गुरूओं का कहना है कि यदि कोई अपने भीतर से बुरी बातों को नहीं निकालता तो दिखावे की बातों से कुछ होने वाला नहीं है।  कितना अच्छा हो कि मनुष्य रमज़ान के पवित्र महीने में स्वयं से मन की बीमारियों को दूर करते हुए तक़वे को अधिक मज़बूत बनाए।

आयतुल्लाहिल उज़्मा सैयद अली ख़ामेनेई तक़वे के बारे में कहते हैं कि दूसरे शब्दों में यह कहा जा सकता है कि तक़वा एक एसी स्थिति का नाम है जो मनुष्य को हर प्रकार की बुराइयों से रोके रखती है ताकि वह ग़लत रास्ते पर अग्रसर न होने पाए।  यह एक कवच की भांति है जो मनुष्य को हर हमले से बचाए रखती है।  यह बात केवल धार्मिक या आध्यात्मि मामलों तक सीमित नहीं है बल्कि जीवन के हर क्षेत्र में मनुष्य को सुरक्षित करती है।

वास्तविकता यह है कि हर वह मुत्तक़ी व्यक्ति, ईश्वर के भय से बुरे कामों से बचे तो ईश्वर भी उसकी सहायता करता है।  ईश्वर एसे व्यक्ति के लिए समस्याओं के समय मुक्ति के मार्ग पैदा करता है।  एसे व्यक्ति के लिए ईश्वर उन स्थानों से उसके लिए मदद पहुंचाता है जिसके बारे में उसने सोचा भी नहीं होगा।  वह व्यक्ति जो कल्याण और परिणपूर्णता के मार्ग पर अग्रसर हो एसा व्यक्ति, अपने प्रयास से पीछे नहीं हटता।

 

नैतिक विषय के जानकारों का कहना है कि तक़वा प्राप्त करने का प्रमुख मार्ग, अपनी ज़बान पर नियंत्रण रखना है।  इस बारे में हज़रत अली अलैहिस्सलाम कहते हैं कि ईश्वर की सौगंध, ईश्वर का भय रखने वाले उस व्यक्ति के लिए तक़वा कभी भी लाभदाय नहीं हो सकता जो अपनी ज़बान पर लगाम न रखता हो।  आपका एक अन्य कथन यह है कि मोमिन की ज़बान उसके हृदय के पीछे होती है जबकि मुनाफ़िक़ की ज़बान उसके हृदय के आगे होती है।  अर्थोत मोमिन पहले सोचता है फिर बोलता है और मुनाफ़िक़ पहले बोलता है फिर सोचता है।

एक मुसलमान का कर्तव्य बनता है कि वह सदैव अपनी ज़बान के बारे में सचेत रहे।  इस्लामी शिक्षाओं में बताया गया है कि ज़बान मनुष्य के कल्याण का कारण बनती है और ज़बान ही उसे विनाश की ओर ले जाती है।  इसलिए मनुष्य को बहुत ही सोच-समझकर बात करनी चाहिए।  सूरे क़ाफ़ की आयत संख्या 18 में ईश्वर कहता है कि मनुष्य जो भी बात करता है उसे ईश्वर का फ़रिश्ता लिखता जाता है।

पैग़म्बरे इस्लाम (स) कहते हैं कि वह व्यक्ति जो अपनी ज़बान को बुरी बातों से बचाए रखे मैं उसके लिए स्वर्ग की गारेंटी देता हूं।  अगर ग्यारह महीनों तक हम अपनी ज़बान पर नियंत्रण नहीं कर पाए तो कम से कम हमें रमज़ान के महीने में अपनी ज़बान पर ध्यान रखना चाहिए।  यदि कोई रोज़ेदार रोज़े की स्थिति में अपनी ज़बान पर नियंत्रण नहीं कर पाए तो उसका रोज़ा ही व्यर्थ चला जाएगा।  ज़बान पर नियंत्रण का अर्थ है स्वंय को झूठ, गाली-गलौज, ग़ीबत अर्थात दूसरों की बुराई आरोप लगाने, उकसावे की बातें करने, दूसरों का मज़ाक उड़ाने और इसी प्रकार की बातों से बचाना है।  हमको पूरा प्रयास करना चाहिए कि रोज़े के दौरान हर प्रकार की बुराई से बचते हुए एसे रोज़ा रखें जैसा ईश्वर चाहता है।

 

 

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