उस समाज को अच्छा समाज कहा जा सकता है कि जहांपर लोगों के बीच भाईचारा पाया जाता हो।
ऐसे समाजों में लोग एक-दूसरे से अधिक निकट होते हैं। इस प्रकार के समाजों में रहने वाले हमेशा एक-दूसरे की सहायता करने को तत्पर रहते हैं। उनका यह प्रयास रहता है हमारे समाज के लोग परेशान न रहें। ऐसी भावना से समाज के भीतर मानवताप्रेम, परोपकार, सहायता करना, लोगों की बुरी बातों को अनदेखा करना और ऐसी ही बहुत सी अन्य विशेषताएं जन्म लेती हैं। सूरे बक़रा की आयत संख्या 265 में ईश्वर कहता हैः और उन लोगों का उदाहरण कि जो अल्लाह को प्रसन्न करने और अपनी आत्मा को दृढ़ करने के लिए दान करते हैं उस उद्यान की भांति होता है कि जो ऊंचे स्थान पर हो और सदैव वर्षा होती रहे जिससे उसमें दुगने फल हों और अगर भारी वर्षा न भी हो तो भी फुहार पड़ती रहे और तुम जो कुछ भी करते हो अल्लाह उससे अवगत है। इस आयत में उन लोगों के दान का उदाहरण पेश किया गया है जो पवित्र भावना और मानव प्रेम के अन्तर्गत काम करते हैं। यह दान उस बीज की भांति है जो ऊंची और उपजाऊ भूमि में बोया गया हो। वर्षा चाहे तेज़ हो या हल्की न केवल यह कि उस बीज को नहीं धोती बल्कि उसके कई गुना बढ़ने का कारण बन जाती है क्योंकि भूमि उपजाऊ होती है। यह भूमि वर्षा का पानी भलीभांति सोख लेती है जिसके परिणाम स्वरूप पौधे की जड़ें गहराई तक चली जाती हैं।
रमज़ान का महीना मुसलमानों के बीच मित्रता और भाईचारे को बढ़ावा देने वाला महीना है। इस महीने में पूरे संसार के मुसलमानों के बीच अधिक से अधिक दोस्ती बढ़ती है। रमज़ान में लोगों से अपनी भूख और प्यास को नियंत्रित करने का आह्वान किया गया है। इस काम से लोगों के बीच अपनी इच्छाओं को नियंत्रित करने की भावना बढ़ती है और वे निर्धनों तथा आवश्यकता रखने वालों की सहायता करने को तैयार रहते हैं। रोज़ा रखने से मनुष्य को दूसरों की स्थिति का भी आभास होता है और उनको पता चलता है कि समाज के बहुत से लोग, बड़ी विषम परिस्थितियों में जीवन गुज़ार रहे हैं। एसे में वे उनकी सहायता करने को तैयार रहते हैं। रमज़ान का महीना रोज़दारों के भीतर अध्यात्म को बढ़ावा देने के साथ ही परोपकार की भावना को भी बढ़ाता है। इस बात को रमज़ान में बहुत ही स्पष्ट रूप में देखा जा सकता है कि इस महीने के दौरान लोगों के इफ़्तारी देने का चलन बहुत अधिक है।
पैग़म्बरे इस्लाम (स) कहते हैं कि मुसलमान आपस में ऐसे हैं जैसे एक शरीर। जब शरीर के किसी अंग में दर्द होता है तो उसका प्रभाव दूसरे अंगों पर भी पड़ता है। इसी संदर्भ में इमाम जाफ़र सादिक़ अलैहिस्सलाम का कहना है कि मोमिन, मोमिन का भाई है ठीक वैसे ही जैसे शरीर। जब इसके किसी एक भाग में पीड़ा होती है तो उसका प्रभाव शरीर के अन्य भागों पर पड़ता है।
दूसरों की सहायता करना ऐसी विशेषता है जो मनुष्य की प्रवृत्ति में निहित है। इस बात पर ईश्वरीय धर्मों विशेषकर इस्लाम में विशेष रूप से ध्यान दिया गया है। इस महीने में ग़रीबों व निर्धनों की सहायता करने की भावना में वृद्धि होती है। रोज़ा रखने का एक रहस्य निर्धनों, गरीबों, अनाथों, भूखों और प्यासों की सहायता है क्योंकि जब इंसान भूखा और प्यासा होता है तो ग़रीबों और वंचितों की भूख व प्यास को बेहतर ढंग से समझता है। इस स्थिति में वह उनकी समस्याओं के निदान के लिए उत्तम ढंग से प्रयास करने लगता है। रमज़ान के पवित्र महीने में ग़रीबों और वंचितों की सहायता की बहुत सिफारिश की गयी है और दूसरी ओर रोज़े की भूख तथा प्यास वंचितों एवं परेशान व्यक्तियों की स्थिति के और बेहतर ढंग से समझने का कारण बनती है। इस प्रकार धनी, निर्धन के निकट हो जाता है और उसकी भावनाएं नर्म व कोमल हो जाती हैं और वह अधिक भलाई व उपकार करता है।
ईरान में पिछले कई वर्षों से "इकराम व इतआमे यतीमान" के नाम से एक कार्यक्रम, रमज़ान के दौरान आरंभ होता है। यह कार्यक्रम प्रतिवर्ष रमज़ान के दौरान जनता के माध्यम से चलाया जाता है। इसको आगे बढ़ाने में समाज के बहुत से परोपकारी लोग भाग लेते हैं। इन लोगों का यह प्रयास रहता है कि वे अपनी क्षमता के अनुसार लोगों के दिलों को एक-दूसरे से निकट करें। उनका प्रयास रहता है कि अनाथ बच्चों के मुख पर हंसी दिखाई दे और उनके भीतर जीवन के प्रति आशा जागृत हो सके। इस योजना के अन्तर्गत लोग किसी अनाथ बच्चे का ख़्रर्च उठाते हैं।
यह एक वास्तविकता है कि दूसरों की सहायता करना ऐसी विशेषता है जो हरएक के भीतर नहीं पाई जाती। एसा देखा गया है कि कुछ लोगों की आर्थिक स्थिति बहुत ही अच्छी होती है। वे बहुत ही ठाटबाट से जीवन गुज़ारते हैं किंतु उनके भीतर दूसरों की सहायता करने की भावना नहीं पाई जाती। कुछ लोग कंजूसी तो कुछ अन्य अपव्यय करने के कारण ग़रीबों की सहायता नहीं करते। यह कोई ज़रूरी नहीं है कि दूसरों की सहायता केवल रुपये-पैसे से ही की जाए। कभी-कभी मनुष्य के मुख से निकले दो वाक्य ही किसी दूसरे की समस्या का समाधान बन जाते हैं। इस संदर्भ में इमाम मूसा काज़िम अलैहिस्सलाम कहते हैं कि मनुष्य का विकास, प्रेम और दूसरों की सहायता से अधिक होता है। वे कहते हैं कि जबतक धरती पर रहने वाले एक-दूसरे से प्रेम करेंगे, दूसरों की अमानतों को उनतक पहुंचाएंगे और सत्य के मार्ग पर अग्रसर रहेंगे उस समय तक वे ईश्वर की अनुकंपाओं से लाभान्वित होते रहेंगे। धरती पर ऐसे लोग पाए जाते हैं जिनका सदैव यह प्रयास रहता है कि वे लोगों की आवश्यकताओं को पूरा कर सकें। यह वे लोग हैं जो सत्य और प्रलय के दिन पर विश्वास रखते हैं। जो भी किसी मोमिन को प्रसन्न करे तो प्रलय के दिन ईश्वर उसके मन को प्रसन्न करेगा।
पवित्र क़ुरआन में लोगों की सहायता करने की बहुत अनुशंसा की गई है। ईश्वर ऐसे लोगों की प्रशंसा करता है जो हर स्थिति में दूसरों की सहायता करने के लिए तैयार रहते हैं। परोपकारी वे लोग होते हैं जो अच्छी या बुरी हर स्थिति में समस्याग्रस्त लोगों की समस्याओं का निदान करने के लिए व्याकुल रहते हैं। लोगों के भीतर परोपकार की भावना का महत्व इतना अधिक है कि हमारे महापुरूषों ने उसे अपने जीवन में अपनाया था। इस काम में पैग़म्बरे इस्लाम (स) और उनके पवित्र परिजन सबसे आगे रहे हैं। इस बारे में इब्ने अब्बास से एक कथन मिलता है कि एक बार हज़रत अली अलैहिस्सलाम के पास केवल चार दिरहम ही थे। उन्होंने एक दिरहम रात में दान कर दिया और एक दिरहम दिन में। बाद में आपने एक दिरहम छिपाकर जबकि दूसरे को सार्वजनिक रूप में दान किया। इस घटना के बाद सूरे बक़रा की आयत नंबर 274 में ईश्वर कहता है कि वे लोग जो अपने पैसे को दिन-रात या छिपाकर और दिखाकर दान करते हैं उनका पारितोषिक ईश्वर के पास है। वे लोग न तो डरते हैं और न ही दुखी होते हैं।
रमज़ान में परोपकार का एक अन्य उदाहरण लोगों को इफ़्तारी देना है। इस काम को ईश्वर बहुत पसंद करता है। यह ऐसा काम है जिसपर इस्लाम में बहुत बल दिया गया है। इसका महत्व इस बात से समझा जा सकता है कि अगर मनुष्य की आर्थिक स्थिति इतनी न हो कि वह दूसरों को खाना खिला सके तो वह केवल एक ग्लास पानी ही पिला सकता है। इस्लाम में अकेले खाना खाने को अच्छा नहीं समझा गया है बल्कि यह कहा गया है कि अपने खाने में दूसरों को भी शामिल करो। इस बात के दृष्टिगत इफ़्तारी बहुत अच्छी चीज़ है। एक तो यह है कि इसे सामूहिक रूप में अंजाम दिया जाता है दूसरे यह कि बहुत से भूखे लोग एकसाथ बैठकर खाते हैं जो इस्लाम के अनुसार पशंसनीय काम है।
दूसरों के लिए ईश्वर से प्रार्थना करना मानवता की निशानी है। जो किसी की समस्या के समाधान के लिए दुआ करता है और उसके लिए भलाई की मांग करता और स्वयं के लिए दुआ करने से पहले दूसरों के लिए दुआ करता है तो वास्तव में उसने अपनी आत्ममुग्धता को कुचल दिया है। इस प्रकार का व्यक्ति ईश्वर की प्रसन्नता से अधिक निकट होता है। इस प्रकार से उसकी दुआएं शीघ्र स्वीकार होती हैं। पैग़म्बरे इस्लाम (स) का कहना है कि जिसने भी अपनी दुआ से पहले चालीस मोमिनों के लिए दुआ की तो उसकी और उन चालीस लोगों की दुआएं पूरी होंगी। हदीस में आया है कि इमाम जाफ़र सादिक़ अलैहिस्सलाम कहते हैं कि जो भी किसी मोमिन की अनुपस्थिति में उसके लिए दुआ करे तो आकाश से उसके लिए आवाज़ आती है कि हे उपासक तुने जो अपने भाई के लिए दुआ की वह उसे दी जाएगी बल्कि उससे एक लाख गुना अधिक तुझको दिया जाएगा।