पवित्र रमज़ान अब अपने अंत की ओर बढ़ रहा है।
लगभग आधा रमज़ान गुज़र चुका है। अब हम शबेक़द्र से बहुत निकट हो चुके हैं। शबेक़द्र, ईश्वर से प्रार्थना और उसकी उपासना की राते हैं। इन रातों में पालनहार की उपासना करके दिलों को ज़िंदा किया जा सकता है। रमज़ान के अंत की दस रातों में से कुछ रातों को शबेक़द्र अर्थात मूल्यवान या महत्व वाली रातों के रूप में जाना जाता है। 19-21-23 और 27 की रातों को शबेक़द्र कहा जाता है। इन रातों का आरंभ रमज़ान की उन्नीसवीं रात से होता है। मुसलमानों के बीच इन रातों को विशेष महत्व हासिल है। इन रातों के दौरान सामान्यतः रोज़ेदार अधिक से अधिक उपासना करने का प्रयास करते हैं। इस्लामी शिक्षाओं के अनुसार यह रातें आत्म निरीक्षण के लिए बहुत अच्छा अवसर है। इन्हीं रातों में से एक रात में हज़रत अली अलैहिस्सलाम के सिर पर तलवार से वार किया गया जिसके परिणाम स्वरूप वे शहीद हो गए।
इमाम अली अलैहिस्सलाम की शहादत के बारे में कहा जाता है कि जिस रात नमाज़ के दौरान उनके सिर पर तलवार से वार किया गया उस रात वे अपनी एक बेटी "उम्मे कुलसूम" के घर इफ़तार पर मेहमान थे। इफ़तार के समय उन्होंने बहुत ही कम खाना खाया। हज़रत अली ने केवल तीन निवाले खाए और वे उपासना करने में लीन हो गए। इस रात वे बहुत ही व्याकुल दिखाई दे रहे थे। उस रात वे बारबार आसमान की ओर देखते थे। जैसे-जैसे इफ़्तार का समय निकट होता जा रहा था उनकी व्याकुलता बढ़ती जा रही थी। इसी रात उन्होंने कहा था कि न तो मैं झूठ बोलता हूं और न ही जिसने मुझको ख़बर दी है वह झूठ बोलता है। जिस रात का मुझसे शहादत का वादा किया गया है वह यही रात है। अंततः रात अपने अंत की ओ बढ़ी और हज़रत अली फज्र की नमाज पढ़ने के उद्देश्य से मस्जिद की ओर बढ़े।
जिस समय हज़रत अली अलैहिस्सलाम नमाज़ पढ़ने के लिए अपने घर से मस्जिद के लिए निकल रहे थे तो घर में पली हुई बत्तख़ों ने इस प्रकार से उनका रास्ता रोका कि वे उन्होंने अपनी चोंच से इमाम की अबा को पकड़ लिया। घरवालों ने जब इन बत्तख़ों को इमाम से दूर करना चाहा तो उन्होंने कहा कि उनको छोड़ दो। इनको इनके हाल पर छोड़ दो। अपने पिता के व्यवहार और उनकी बातों को सुनकर उम्मे कुलसूम परेशान हो गई। उनको संबोधित करते हुए इमाम अली ने कहा कि ईश्वर ने जो लिख दिया उसे काटा नहीं जा सकता। इतना कहने के बाद हज़रत अली पूरी दृढ़ता के साथ मस्जिद की ओर बढ़े।
हज़रत अली अलैहिस्साम मस्जिद पहुंचे और उन्होंने नमाज़ पढ़ना शूर की। वे जैसे ही सजदे में गए, "इब्ने मुल्जिम" नामक दुष्ट व्यक्ति ने ज़हर से बुझी तलवार से हज़रत अली के सिर पर वार किया। तलवार के सिर पर लगते ही उससे ख़ून निकलने लगा। तलवार का घाव बहुत गहरा था जिसके कारण उनके शरीर का बहुत सा ख़ून वहीं पर बह गया। अपने सिर पर तलवार का वार पड़ने के बाद हज़रत अली ने कहा था कि काबे के रब की सौगंध में सफल हो गया।
हज़रत अली और ईश्वर के बीच नमाज़ सबसे अच्छा संपर्क थी। नमाज़ की हालत में वे ईश्वर के अतिरिक्त किसी अन्य के बारे में नहीं सोचते थे। नमाज़ की हालत में सिर पर ज़हरीली तलवार खाने के बाद उन्होंने अपने परिजनों के लिए जो वसीयत की उसमें उन्होंने कहा था कि नमाज़ें पढ़ों और उनकी सुरक्षा करो क्योंकि वे धर्म का स्तंभ हैं। नमाज़ के संदर्भ में शेख अबूबक्र शीराज़ी अपनी एक पुस्तक में लिखते हैं कि परहेज़ करने वालों के बारे में सूरे ज़ारेयात की आयत संख्या 17 और 18 में ईश्वर कहता है कि वे लोग रात में बहुत ही कम सोते हैं और भोर समय ईश्वर से पश्चाताप करते हैं। यह आयतें हज़रत अली के बारे में हैं। इसका कारण यह है कि हज़रत अली अलैहिस्सलाम, रात के अधिकांश भाग में उपासना करते थे और रात के आरंभिक हिस्से में सोते थे। नमाज़ के बारे में हज़रत अली अलैहिस्सलाम का बहुत ही मश्हूर कथन है कि इससे पहले कि कोई भी मुसलमान नमाज़ पढ़ता, मैं सात वर्षों तक पैग़म्बरे इस्लाम (स) के साथ नमाज़ पढ़ चुका था।
हज़रत अली अलैहिस्सलाम ने कूफे की मस्जिद में अपनी अन्तिम नमाज़ में यह बात कही थी कि मैं सफल हो गया। उन्होंने एक छोटे से वाक्य के माध्यम से यह बताया कि शहादत के लिए वे कितने व्याकुल थे। तलवार से घायल हो जाने के बाद जब कूफ़ावासियों ने इमाम अली के बारे में जानना चाहा तो आपने कहा कि ईश्वर की सौगंध मेरे साथ एसा कुछ नहीं हुआ जो मैं न चाहता हूं। मुझको शहादत की प्रतीक्षा थी जो मुझको हासिल हो गई। मेरी स्थिति वैसी ही है जैसे कोई अंधेरी रात में किसी मरूस्थल में पानी की खोज में हो और एकदम से उसे पानी का सोता मिल जाए। उन्होंने कहा कि मेरी मिसाल उस ढूंढने वाले व्यक्ति की सी है जिसे अपनी मेहनत का फल मिल जाए।
शबेक़द्र की रातों में उपासना और प्रार्थना का विशेष महत्व है। अगर देखा जाए तो पता चलेगा कि मनुष्य को सदा ही ईश्वर की सहायता की आवश्यकता रहती है। ईश्वर पर आस्था रखने वाले जहां एक ओर उसकी दी हुई अनुकंपाओं का आभार व्यक्त करते हैं वहीं पर वे अपनी आवश्यकताओं की भी मांग उससे करते हैं। इसीलिए कहा गया है कि दुआ के माध्यम से बंदा अपने ईश्वर से अपने मन की बातें कहता है। ईश्वर ने भी अपने दासों को विश्वास दिलाया है कि वह उनकी मांगों को पूरा करता है। सूरे बक़रा की आयत संख्या 186 में कहा गया है कि जब मेरे बंदे तुमसे मेरे बारे में सवाल करें तो उनसे कह दीजिए कि मैं उनके निकट हूं। जब वह मुझसे सवाल करता है तो मैं उसका जवाब देता हूं। बस लोगों को मेरे निमंत्रण को स्वीकार करना चाहिए और मुझपर ईमान लाना चाहिए ताकि उनको रास्ता मिल जाए।
ईश्वर और उसके दास के बीच संपर्क का सबसे उत्तम साधान दुआ है। दुआ के माध्यम से लोग ईश्वर से तरह-तरह से सवाल करते हैं। कोई उससे सांसारिक आवश्यकताओं की मांग करता है तो कोई दूसरा अपनी परेशानियों का उल्लेख करता है। कोई बीमारी से मुक्ति चाहता है तो कोई धन-दौलत की इच्छा रखता है। कुछ एसे भी लोग होते हैं जो ईश्वर से प्रायश्चित करते हुए अपने मोक्ष की कामना करते हैं। दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है कि दुआ अर्थात अपनी आवश्यकताओं का उल्लेख।
धर्मगुरूओं का कहना है कि वास्तव में मनुष्य प्रकृतिक रूप में एक एसी शक्ति पर विश्वास रखता है जो उससे बहुत अधिक सशक्त है और जो उसकी आवश्यकताओं को पूरा करने में सक्षम है। वह शक्ति लोगों की मांगों को सुनती है और उनकी मनोकामनाओं को पूरा करती है। दुआ का एक अन्य अर्थ है अपनी आंतरिक पहचान। ईश्वर के महान बंदों की दुआएं एसी ही होती हैं जिनमें वे ईश्वर की अधिक से अधिक पहचान की बात करते हैं।
दुआ को उस चाभी की भांति कहा गया है जो मनुष्य की आवश्यकताओं को बिना किसी माध्यम के पूरा करती है। दुआ, ईश्वर से विशेष संपर्क का नाम है। जब कोई व्यक्ति या अल्लाह या यारब कहकर ईश्वर को संबोधित करता है तो यह आवाज़ ईश्वर बहुत ही सरलता से सुन लेता है। हज़रत अली अलैहिस्सलाम इस संबन्ध में नहजुल बलाग़ा में कहते हैं कि तुम जब भी उसको पुकारते हो तो वह उसे सुनता है। जब तुम उससे अपने मन की बात बहुत धीरे-धीरे अकेले में कहते हो तो उसे भी वह सुन लेता है। जब तुम उससे कुछ मांगते हो तो वह उसे पूरा करता है।
पवित्र रमज़ान की इन महत्वपूर्ण रातों में हमें ईश्वर से प्रार्थना करनी चाहिए कि वह हमें अपनी उपासना का सामर्थ्य प्रदान करते हुए हमपर अपनी अनुकंपाओं की वर्षा करे।