ईश्वरीय आतिथ्य- 28

Rate this item
(0 votes)
ईश्वरीय आतिथ्य- 28

रमज़ान का पवित्र महीना ईश्वरीय उपहार है और महान ईश्वर ने समस्त आसमानी धर्मों के अनुयाइयों को यह उपहार दिया है।

यह वह महीना है जिसमें इंसान महान ईश्वर से अधिक निकट हो सकता है। इंसान का दिल हर दूसरे समय से अधिक इस महीने महान ईश्वर का सामिप्य प्राप्त करने के लिए तैयार होता है और शैतान हर दूसरे समय से अधिक मोमिनों और महान ईश्वर के बंदों से दूर होता है। अतः इस महीने में महान ईश्वर और उसके बंदों के मध्य संपर्क की संभावना हर दूसरे महीने से अधिक है। इस आधार पर पवित्र रमज़ान महीने में दुआओं का कबूल होने की संभावना अधिक निकट है। यह वह महीना है जिसके बारे में पैग़म्बरे इस्लाम ने फ़रमाया है” रमज़ान वह महीना है जिसमें तुम्हें ईश्वरीय मेहमानी के लिए आमंत्रित किया गया है और तुम्हें इस महीने में प्रतिष्ठित लोगों में करार दिया गया है। इस महीने में तुम्हारी सांसों को तस्बीह अर्थात ईश्वर गुणगान करार दिया गया है, तुम्हारी नींद को उपासना करार दिया गया है। इस महीने में तुम्हारे कार्यों को कबूल किया गया है, इस महीने में तुम्हारी दुआएं कबूल होती हैं। इस महीने में नमाज़ के समय अपने हाथों को दुआओं के लिए ईश्वर की ओर उठाओ। इन वक्तों में ईश्वर अपने बंदों को कृपा दृष्टि से देखता है। अगर उसे बुलाया जाता है तो वह जवाब देता है अगर उससे मांगा जाता है तो वह देता है।"

रमज़ान का महीना ईश्वरीय कृपा के द्वार खुलने का महीना है। रमज़ान का महीना मांगने और स्वीकार करने का महीना है। पैग़म्बरे इस्लाम ने फरमाया रमज़ान की पहली रात को आसमान के दरवाज़े खुल जाते हैं और रमज़ान महीने की अंतिम रात तक बंद नहीं होते हैं। महान ईरानी रहस्यवादी आयतुल्लाह मुजतबा तेहरानी इस हदीस की व्याख्या में कहते हैं” इस समय समस्त द्वार खुले हुए हैं यानी ईश्वर और उसके बंदों के दौरान जो दूरियां हैं ईश्वर की ओर से उसे ख़त्म कर दिया जाता है और ईश्वर से भौतिक एवं आध्यात्मिक जो चीज़ भी कही जाती है वह उस तक पहुंचती है। उसका नतीजा यह है कि उससे जो चीज़ें भी मांगी जाती है वह निरुत्तर नहीं रहती हैं। आज जो बात कही जाती है उसके अनुसार ठंडे बस्ते में नहीं डाली जाती बल्कि वह सीधे तौर पर ईश्वर तक पहुंचती हैं।

रमज़ान के पवित्र महीने को महानता, प्रतिष्ठा और अध्यात्म की दृष्टि से सबसे अच्छा महीना कहा जाता है। महान ईश्वर पवित्र कुरआन के सूरे बकरा की आयत नंबर 185 के एक भाग में इस महीने की विशेषता के बारे में कहता है” रमज़ान वह महीना है जिसमें कुरआन नाज़िल किया गया। यह लोगों के लिए मार्ग दर्शन है। यह सत्य को असत्य से अलग करने वाला है।“

दूसरी ओर महान ईश्वर ने इस महीने में जो नेअमतें व अनुकंपायें प्रदान की हैं उससे मोमिनों के लिए आत्म निरीक्षण व स्वयं को पवित्र बनाना सरल हो गया है। इस महीने में इस प्रकार की विशेषता का होना इस बात का कारण बनता है कि मोमिनों का ध्यान महान ईश्वर की ओर अधिक जाता है और उनकी दुआएं कबूल होने के अधिक निकट होती हैं। इस आधार पर हम देखते हैं कि महान ईश्वर पवित्र कुरआन के सूरे बक़रा की 183 से 185 तक कि आयतों में रमज़ान के रोज़े की अनिवार्यता और कुछ धार्मिक आदेशों को बयान करता और इसी सूरे की आयत नंबर 186 में कहता है” जब मेरे बंदे आप से मेरे बारे में पूछें तो कह दीजिये कि मैं बहुत समीप हूं जब मुझे पुकारा जाता है तो मैं पुकारने वालों का जवाब देता हूं तो उन्हें चाहिये कि मेरे आदेशों का पालन करें और मुझ पर ईमान रखें ताकि उनका मार्गदर्शन किया जाये।"

इस आयत में महान ईश्वर ने दुआ को कबूल करने का वादा किया है। अलबत्ता इसके लिए दो महत्वपूर्ण शर्तें ज़रूरी हैं। पहला यह कि दुआ वास्तव में दुआ हो। यानी दुआ करने वाले का दिल और ज़बान एक हो। एसा न हो कि ज़बान पर कुछ हो और दिल में कुछ और। दूसरी शर्त यह है कि वह दुआ कबूल होती है जो केवल महान ईश्वर से की जाती है न कि किसी और से! तो कोई ईश्वर से ज़बान से दुआ करे और वह दुनिया की चीज़ों से आशा लगाये हो तो इस प्रकार के व्यक्ति ने दिल से ईश्वर को नहीं पुकारा है और दुआ के कबूल होने की शर्त पर ध्यान नहीं दिया है पर इसके विपरीत जो व्यक्ति सच्चे दिल से ईश्वर को पुकारता है निश्चित रूप से उसकी दुआ कबूल होती है। रमज़ान के पवित्र महीने में दुआ के लिए भूमि प्रशस्त है और रोज़ादार अधिक निष्ठा व सच्चे दिल से दुआ कर सकता है कि उसकी दुआ कबूल होने के निकट है।

इमाम सज्जाद अलैहिस्सलाम रमज़ान के पवित्र महीने में दुआये सहर में दुआ के कबूल होने को इस प्रकार बयान करते हैं“ यह कि तू अपने बंदों से कहे कि वे मुझसे मांगे किन्तु तू उनकी मांगों को पूरा न करे यह संभव नहीं है।“

जब महान ईश्वर दुआ करने का आदेश देता है और कहता है कि उससे मांगा जाये तो इसका अर्थ यह है कि हम जो कुछ मांगेंगे ईश्वर उसे देना चाहता है। अतः रवायत में है कि ईश्वर उससे महान है कि दुआ का द्वार खोले और देने का द्वार बंद करे। इमाम सज्जाद अलैहिस्सलाम दुआये सहर में एक अन्य स्थान पर दुआ के कबूल होने के रहस्य के बारे में कहते हैं” तेरी आदत यह है कि तू अपने बंदों के साथ प्रेम व दया के साथ व्यवहार करता है” यानी सही है कि तूने कहा है कि मुझसे मांगो और मांगने वाले को रद्द नहीं करता यह केवल उस कृपा व दया की वजह से है जो तू अपने बंदों के साथ करता है इसलिए नहीं कि हम उसके पात्र हैं।

रमज़ान का पवित्र महीना दुआ करने और दुआ कबूल होने का सुनहरा अवसर है किन्तु जो चीज़ बहुत महत्वपूर्ण है वह दुआ की वास्तविकता पर ध्यान देना और दुआ के महत्व को समझना है। दुआ केवल ज़रुरत को पा लेने या पा जाने के लिए नहीं होती है बल्कि दुआ दावत से लिया गया है और दुआ में इंसान महान ईश्वर से दावत व आह्वान करता है कि वह उसके दिल को सदगुणों से सुसज्जित कर दे। इस आधार पर दुआ करने वाले की दुआ कबूल हो या न हो उसने महान ईश्वर की उपासना की है और वह महान ईश्वर के निकट हो गया है। पवित्र कुरआन ने हज़रत इब्राहिम को आवा,,,, अर्थात बहुत अधिक दुआ करने वाले की उपाधि दी है। हज़रत इब्राहीम महान ईश्वर को ब्रह्मांड का सब कुछ समझते थे और अपनी हर ज़रूरत महान ईश्वर से कहते थे। अतः वे केवल महान ईश्वर का द्वार खटखटाते थे। अलबत्ता बहुत अधिक खटखटाते थे और उन्हें महान ईश्वर से दुआ करने में बहुत आनंद मिलता था।

दुआ ईश्वरीय खज़ाने की कुंजी है। जब महान ईश्वर अपने बंदों से कहता है कि वे उससे मांगे तो इसका अर्थ यह है कि जो भी ईश्वर की बारगाह में दुआ करेगा ईश्वर उसे पूरा करेगा। जैसाकि हज़रत अली अलैहिस्सलाम ने अपने सुपुत्र से फरमाया है” जान लो कि जिसके हाथ में लोक- परलोक की कुंजी है उसने तुमसे कहा है कि उसे बुलाओ और उसने तुम्हारी दुआ को कबूल करने की गैरेन्टी दी है और उसने तुम्हें आदेश दिया है कि उससे मांगो कि ताकि वह तुम्हें दे और वह कृपालु व दयालु है। उसने अपने और तुम्हारे बीच कोई पर्दा नहीं रखा है और उसने तुम्हें मध्यस्थ लाने के लिए मजबूर नहीं किया है। तो उसने खज़ानों की कुंजी जो वही दुआ है तुम्हें दे दी है तो तुम जब भी मांगोगे दुआ करने से उसके खज़ानों के द्वार को खोल लोगे।

यहां यह सवाल किया जा सकता है कि हमने बहुत से अवसरों पर दुआ किया परंतु दुआ कबूल नहीं हुई? अगर दुआ ईश्वरीय दया व कृपा की कुंजी है तो जो इस कुंजी का प्रयोग करे उसे उसका नतीजा मिलना चाहिये। तो हमारी दुआ क्यों कबूल नहीं हुई? हज़रत अली अलैहिस्सलाम इस प्रश्न के उत्तर में कहते हैं” दुआ करने में आग्रह करो इस प्रकार न हो कि अगर एक बार दुआ किये और दुआ कबूल नहीं हुई तो दुआ करना ही छोड़ दो।“

इस बात को भी ध्यान में रखना चाहिये कि दुआ के विलंब से कबूल होने में भी रहस्य हैं। यानी अगर आपकी दुआ पहली ही बार में कबूल नहीं हुई तो निराश नहीं होना चाहिये। क्योंकि यह संभव है कि महान ईश्वर ने किसी रहस्य की वजह से दुआ को कबूल करने को विलंबित कर दिया है। तो अगर इंसान दोबारा दुआ करता है वह अधिक ईश्वरीय कृपा व दया का पात्र बनता है। अगर पहली ही बार में महान ईश्वर इंसान की दुआ को कबूल कर ले तो वह दूसरी बार महान ईश्वर से दुआ नहीं करेगा और जब वह दुआ नहीं करेगा तो अधिक दया व कृपा का पात्र नहीं बनेगा जबकि महान ईश्वर यह चाहता है कि उसका बंदा अधिक कृपा व दया का पात्र बने।

कभी ऐसा होता है कि इंसान अपनी आदत के अनुसार दुआ करता है।  एसी स्थिति में दुआ करने वाले इंसान के अंदर कोई परिवर्तन उत्पन्न नहीं होता है किन्तु कुछ अवसरों पर विशेषकर परेशानी के समय न केवल इंसान अपनी ज़बान से दुआ करता है बल्कि दिल और उसके शरीर के दूसरे अंग भी महान ईश्वर से दुआ करते हैं ऐसी हालत में इंसान के अंदर परिवर्तन उत्पन्न होता है और इंसान महान ईश्वर को उसके विशेष नामों की कसम देता है और वह बार बार दुआ करता है और यह वही चीज़ है जिसे महान ईश्वर चाहता है। हदीसे कुद्सी में आया है” महान ईश्वर हज़रत ईसा मसीह से कहता है हे ईसा! जब मुझे बुलाते हो तो उस इंसान की तरह बुलाओ जो पानी में डूब रहा हो और कोई भी उसकी सहायता करने वाला न हो और मेरी बारगाह में आओ हे ईसा अकेले में मुझे बहुत याद करो और उसके बाद अपनी दुआओं में दिल को मेरे सामने नतमस्तक कर लो और मुझे पुकारो।“

 

 

 

 

Read 125 times