बंदगी की बहार- 29

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बंदगी की बहार- 29

आज पवित्र रमज़ान या दूसरे शब्दों में ईश्वर के दस्तरख़ान पर मेहमान होने का आख़िरी दिन है।

ईश्वर हम सभी रोज़ा रखने वालों को इस महीने की बर्कतों से मालामाल करे। हम सभी आध्यात्मिक मन के साथ ईदुल फ़ित्र का स्वागत करें। इस साल पवित्र रमज़ान के अंतिम दिन इस्लामी क्रान्ति के संस्थापाक स्वर्गीय इमाम ख़ुमैनी रहमतुल्लाह अलैह की बरसी पड़ रही है। ईरानी जनता इस्लामी क्रान्ति के संस्थापाक की तीसवीं बरसी का शोक मना रही है। दोनों घटनाओं का एक साथ होना इस बात का बहाना बना कि हम इस पवित्र महीने में निहित व्यापक बर्कतों को महाआत्मज्ञानी इमाम ख़ुमैनी के शब्दों में बयान करें ताकि हमें इस विशाल दस्तरख़ान से ज़्यादा से ज़्यादा लाभान्वित होने में मदद मिले और इस महीने में कुछ हासिल करके निकलें।

इमाम ख़ुमैनी रहमतुल्लाह अलैह ने पवित्र क़ुरआन की आयतों, पैग़म्बरे इस्लाम और उनके पवित्र परिजनों की रिवायतों के आधार पर रमज़ान के महीने को ईश्वर की मेहमानी के महीने का नाम दिया है और ईश्वर का मेहमान बनने के अर्थ की व्याख्या में सांसारिक इच्छाओं को छोड़ने को इस मेहमानी में दाख़िल होने और इस महीने से लाभान्वित होने की शर्त बताया है। इस बारे में इमाम ख़ुमैनी फ़रमाते हैः "ईश्वर की मेज़बानी क्या है? ईश्वर की मेज़बानी भौतिक जगत में सभी सांसारिक इच्छाओं को छोड़ना है। जो भी इस मेहमानी में बुलाए गए हैं, जान लें कि ईश्वर का मेहमान बनने के इस चरण में इच्छाओं से दूरी करना है। शारीरिक इच्छाओं को छोड़ना, मानसिक इच्छाओं को छोड़ने से आसान है। ईश्वर का मेहमान बनने का अर्थ इन इच्छाओं को छोड़ना है।"

इमाम ख़ुमैनी ईश्वर का मेहमान बनने की शर्त ग़लत इच्छाओं को छोड़ना बताते हुए कहते हैं कि अगर इंसान के मन में तनिक भी बुरी इच्छाएं होंगी तो वह ईश्वर का मेहमान नहीं बन सकता और अगर मेहमान बन भी जाए तो उस मेहमानी से वह ज़रूरी फ़ायदा नहीं उठा पाएगा। इमाम ख़ुमैनी कहते हैः आप सब ईश्वर की मेहमानी के लिए बुलाए गए हैं। सभी ईश्वर के मेहमान हैं। अगर मन में तनिक भी बुरी इच्छा होगी तो ईश्वर की मेहमानी में दाख़िल नहीं हुए और अगर हुए भी तो उससे फ़ायदा नहीं उठा पाए। यह दुनिया में नज़र आने वाले लड़ाई झगड़े इस वजह से हैं कि आप ने ईश्वर की मेहमानी से फ़ायदा नहीं उठाया। इस मेहमानी में पहुंचे ही नहीं। ईश्वर के निमंत्रण को स्वीकार ही नहीं किया। कोशिश कीजिए इस निमंत्रण को स्वीकार कीजिए ताकि आपको यहां जाने दें और अगर जाने दिया तो सारे मामले हल हैं। ये हमारे मामले हल नहीं होते इसकी वजह यह है कि हम ईश्वर की मेहमानी में पहुंचे ही नहीं। दरअस्ल हम पवित्र रमज़ान में दाख़िल ही नहीं हुए हैं।      

इमाम ख़ुमैनी आम दावत और ईश्वर की मेहमानी में अंतर को स्पष्ट करने के लिए इस बिन्दु की ओर इशारा करते हैं कि ईश्वर की मेहमानी में लोग अलौकिक दस्तरख़ान की नेमतों से फ़ायदा उठाते हैं ताकि इच्छाओं से मुक़ाबला करने के लिए अपने इरादे को मज़बूत करें और ख़ुद को शबे क़द्र नामक विशेष रात में दाख़िल होने के लिए तय्यार कर सकें। इमाम ख़ुमैनी के शब्दों मेः लोगों की मेहमानी और ईश्वर की मेहमानी में अंतर यह है कि जब कोई आदमी आप को दावत देता है तो आपके लिए खाने पीने और मनोरंजन की चीज़ें मुहैया करता है लेकिन ईश्वर की मेहमानी का एक हिस्सा रोज़ा है और उसकी एक अहम चीज़ आसमानी व अलौकिक दस्तरख़ान क़ुरआन है। आपके मेज़बान ने आपको रोज़ा रखने के लिए कहा है ताकि अपनी इच्छाओं पर क़ाबू पाइये और शबे क़द्र के लिए तय्यार हो जाइये।

 

इमाम ख़ुमैनी पवित्र क़ुरआन से लगाव और शाबान और रमज़ान महीनों की दुआएं पढ़ने पर बल देते हैं ताकि पवित्र रमज़ान की बर्कतें ज़्यादा से ज़्यादा हासिल हो सकें। इस बारे में इमाम ख़ुमैनी कहते हैः "पवित्र रमज़ान और शाबान के महीनों से विशेष दुआएं हमारा गंतव्य की ओर मार्गदर्शन करने वाली हैं। इन दुआओं में जिन सूक्ष्म बातों का उल्लेख है वह कहीं नहीं है। इन बिन्दुओं पर ध्यान दीजिए। ये दुआएं इंसान को हरकत में ला सकती हैं।"

इमाम ख़ुमैनी ईदुल फ़ित्र को उस व्यक्ति के लिए वास्तविक ईद मानते हैं जो ईश्वर की मेहमानी में शामिल होने में सफल हुआ और अपने मन में सुधार किया। मन में सुधार का चिन्ह यह है कि इंसान दुनिया में घटने वाली घटनाओं को चाहे वह सफलता हो या असफलता, ख़ुशी हो या दुख उसे अस्थायी व सामयिक समझता है। इमाम ख़ुमैनी कहते हैः "मुझे उम्मीद है कि यह ईदुल फ़ित्र सभी मुसलमानों के लिए वास्तविक अर्थ में ईद होगी। वास्तविक ईद तब होगी जब इंसान ईश्वर की प्रसन्नता प्राप्त और मन में सुधार कर ले। इस दुनिया से जुड़े मामले जल्द ही ख़त्म हो जाते हैं। इस दुनिया की सफलता, असफलता, ख़ुशियां और दुख कुछ दिनों के होते हैं। जो चीज़ हमारे और आपके लिए बाक़ी रहेगी वह जो हमने अपने भीतर हासिल की हैं। हमें यह विश्वास होना चाहिए कि ईश्वर हर जगह मौजूद है। हमें यह विश्वास होना चाहिए कि सब कुछ उसी के हाथ में है। हम कुछ नहीं हैं। हमें यह विश्वास होना चाहिए कि हम ईश्वर की अनुकंपाओं का आभार व्यक्त करने में नाकाम हैं।"           

इमाम ख़ुमैनी मानसिक सुधार को पवित्र रमज़ान की उपलब्धियों में बताते हुए कहते हैः रमज़ान के महीने में हमें ख़ुद को सुधारने की ज़रूरत है। हमें मन को सुधारने की ज़रूरत है। बड़े पैग़म्बरों को भी इस बात की ज़रूरत थी। उन्होंने इसे समझा और उसके अनुसार कर्म किया। हमारी बुद्धि के सामने चूंकि पर्दे पड़े हुए हैं इसलिए हम नहीं समझ पाए और अपने कर्तव्य के अनुसार कर्म नहीं कर सके। पवित्र रमज़ान के बर्कतों वाला महीना होने का अर्थ यही है कि ईश्वर ने जो कर्तव्य निर्धारित किए हैं उन्हे पूरा करें।"

इमाम ख़ुमैनी कहते हैं कि किसी के मन के पवित्र रमज़ान के महीने में सुधरने का एक नतीजा यह है कि ऐसा व्यक्ति अत्याचार और अत्याचारियों का विरोध करता है। आप इस्लामी सरकारों और मुसलमानों को संबोधित करते हुए कहते हैः "अगर पवित्र रमज़ान के महीने में मुसलमान सामूहिक रूप से ईश्वर की मेहमानी में पहुंचे होते, मन को पवित्र किया होता तो मुमकिन नहीं था कि वे अत्याचार को सहन करते। अत्याचार को सहन करना भी अत्याचार की मदद है। इन दोनों का विदित कारण मन का पवित्र न होना है। अगर हम इस स्थिति में होते तो कभी भी अत्याचार और अत्याचारियों को सहन न करते। इन सबकी वजह यह है कि हमने अपने मन को पाक ही नहीं किया। सरकारें सही नहीं हैं। वही राष्ट्र अत्याचार सहन करते हैं जिनका मन पवित्र नहीं होता।"

इमाम ख़ुमैनी पवित्र रमज़ान के दिन और रात की मन की शुद्धि के लिए अहमियत के मद्देनज़र, अपने व्यक्तिगत जीवन में पवित्र रमज़ान के लिए विशेष कार्यक्रम बनाते थे। वह रमज़ान के पूरे महीने दूसरों से भेंट के कार्यक्रम को स्थगित कर देते थे ताकि ईश्वर की मेहमानी के इस महीने से ज़्यादा से ज़्यादा लाभान्वित हो सकें। इमाम ख़ुमैनी के निकट रहने वाले बहुत से लोगों का कहना है कि इमाम ख़ुमैनी अपने बहुत से काम रमज़ान के महीने में छोड़ देते थे। जब उनसे इस बारे में कोई पूछता था तो कहते थेः "पवित्र रमज़ान का महीना ख़ुद एक काम है।" इमाम ख़ुमैनी के पवित्र रमज़ान के कार्यक्रम में एक, पवित्र क़ुरआन की कई बार तिलावत करना शामिल था। जिन दिनों इमाम ख़ुमैनी नजफ़ में थे, उनके साथ रहने वाले एक व्यक्ति का कहना है कि इमाम ख़ुमैनी एक दिन में एक तिहाई क़ुरआन की तिलावत करते थे अर्थात तीन दिन में पूरे क़ुरआन की तिलावत करते थे। इसी तरह जब नजफ़ में इमाम ख़ुमैनी आंख के डॉक्टर के पास गए तो चिकित्सक ने उनसे कहा कि आप अपनी आंख को सुकून देने के लिए कई दिन क़ुरआन की तिलावत छोड़ दें। चिकित्सक के इस मशविरे पर इमाम ख़ुमैनी ने कहा कि मैं पवित्र क़ुरआन की तिलावत के लिए चाहता हूं कि मेरी आंख अच्छी हो जाए। उस आंख से क्या फ़ायदा जिसके होने के बाद भी क़ुरआन न पढ़ सकूं। कुछ ऐसा कीजिए कि मैं क़ुरआन पढ़ सकूं।

इमाम ख़ुमैनी इसी तरह रात की विशेष नमाज़ जिसे नमाज़े शब या तहज्जुद की नमाज़ कहते हैं, पूरी ज़िन्दगी ख़ास तौर पर पवित्र रमज़ान के महीने में पढ़ते थे। इमाम ख़ुमैनी के एक निकटवर्ती शख़्स का कहना है कि जब मैं रात के अंधेरे में आधी रात को इमाम के कमरे में जाता तो उन्हें ईश्वर की याद में लीन पाता। उन्हें बड़ी तनमयता से नमाज़ पढ़ने में लीन पाता तो मैं सोचता था कि आज की रात शबे क़द्र है। इमाम ख़ुमैनी की यह हालत एक दो रात नहीं बल्कि पूरी उम्र रही। इमाम ख़ुमैनी ने पचास साल नमाज़े शब पढ़ी । इमाम ख़ुमैनी के कार्यालय के एक व्यक्ति का कहना है कि इमाम ख़ुमैनी स्वस्थ, बीमार, जेल, रिहाई, देशनिकाला यहां तक कि अस्पताल के बेड पर भी नमाज़ शब पढ़ते रहे। इमाम ख़ुमैनी की पवित्र रमज़ान के महीने में उपासना का अलग ही जलवा था। इमाम ख़ुमैनी के एक अंगरक्षक का कहना है कि पवित्र रमज़ान की एक रात आधी रात को मुझे मजबूरन इमाम के कमरे के सामने से गुज़रना पड़ा। जिस समय मैं गुज़र रहा था तो मुझे लगा कि इमाम रो रहे हें। इमाम के रोने की आवाज़ का मुझ पर बहुत असर पड़ा कि किस तरह इमाम उस रात को अपने ईश्वर की उपासना में लीन थे।

इमाम ख़ुमैनी क़द्र की रात को ईश्वरीय कृपा के उतरने की रात बताते हुए सभी को इस रात से फ़ायदा उठाने के लिए प्रेरित करते थे ताकि आत्मा पवित्र हो जाए। इमाम ख़ुमैनी के शब्दों में हमें इस महीने और दूसरे महीनों में अंतर को समझना चाहिए। हमें शबे क़द्र को पाने की कोशिश करनी चाहिए कि इस रात में ही ईश्वरीय कृपा की वर्षा होती है। इस दृष्टि से यह दुनिया की सभी रातों से बेहतर है और उस ईश्वरीय दस्तरख़ान से जो क़ुरआन और दुआएं हैं, लाभान्वित होना चाहिए। पवित्र मन के साथ हमें दाख़िल होना चाहिए।

इमाम ख़ुमैनी पवित्र रमज़ान के महीने में नाफ़िला नामक विशेष नमाज़ को ज़रूर पढ़ते और दूसरों को भी इसके लिए प्रेरित करते थे। कहते हैं कि जिन दिनों इमाम ख़ुमैनी पवित्र नगर नजफ़ में थे, उस भीषण गर्मी में भी उस समय तक रोज़ा इफ़्तार नहीं करते थे जब तक मग़रिब की नमाज़ को नाफ़िले के साथ नहीं पढ़ लेते थे। पूरी रात सुबह की नमाज़ तक नमाज़ें और दुआएं पढ़ते थे।

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