पैग़म्बरे इस्लाम हज़रत मुहम्मद मुस्तफ़ा सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही वसल्लम ने शाबान महीने के अन्तिम शुक्रवार को एक भाषण दिया था जो इतिहास में ख़ुत्बए शाबानिया के नाम से प्रसिद्ध है। इस भाषण में पवित्र रमज़ान के महत्व, उसकी विशेषताओं और इस महीने में ईश्वर की ओर से मनुष्य पर की जाने वाली अनुकंपाओं का उल्लेख किया गया है। इसमे रोज़ा रखने वाले के कर्तव्यों, ईश्वर की ओर से उसको प्रदान की जाने वाली अनुकंपाओं, आत्मनिर्माण, आत्ममंथन, समाजसुधार, दूसरों की सहायता और इसी प्रकार की एसी बहुत सी महत्वपूर्ण बातों को प्रस्तुत किया गया है जो सत्य के खोजियों के लिए बहुत ही लाभदायक हैं।
ख़ुत्बए शाबानिये का आरंभ इस प्रकार से होता हैः- हे लोगो, ईश्वर का महीना अपनी विभूतियों, अनुकंपाओं और पापों से क्षमा के साथ तुम्हारी ओर आ गया है। यह वह महीना है जो ईश्वर के निकट समस्त महीनों से महत्वपूर्ण है। इसके दिन भी बहुत मूल्यवान दिन हैं और इसकी रातें भी बहुत महत्वपूर्ण हैं। इसका प्रत्येक क्षण अन्य क्षणों की तुलना में बहुमूल्य है। यह वह महीना है जिसमें ईश्वर ने तुम्हें दावत पर निमंत्रित किया है और इसमें ईश्वर ने तुमको महत्व एवं सम्मान प्रदान किया है। /ईश्वर ने मनुष्य को अपनी उत्तम रचना कहा है और इसीलिए उससे चाहा है कि वह अपने रचयिता तथा पालनहार से निरंतर संपर्क बनाए रखे। इसी संपर्क का नाम उपासना है। यह संपर्क मनुष्य को संतुष्ट और निर्भीक बनाए रखता है क्योंकि मनुष्य यह जानता है कि उसका पालनहार समस्याओं के समाधान तथा हर संकट के निवारण में सक्षम है और वह उसे इस जीवन में कभी अकेला नहीं छोड़ेगा। साल के बारह महीनों में की जाने वाली उपासनाएं, मनुष्य के चरित्र निर्माण में बहुत ही सहायक होती हैं। यह उपासनाएं मनुष्य के भीतर घमंड नहीं आने देतीं क्योंकि वह जानता है कि उसकी शक्ति, ज्ञान और सौंदर्य आदि सब कुछ ईश्वर की ही देन है और केवल ईश्वर ही है जो महान है। इसी आधार पर वह किसी भी सांसारिक शक्ति से भयभीत और प्रभावित नहीं होता तथा अपने परमात्मा को दृष्टि में रखकर ही किसी भी ईश्वरीय रचना पर अत्याचार नहीं करता। दूसरी ओर ईश्वर भी अपने बंदों की इन भावनाओं को प्रबल बनाने में उनकी सहायता करता है। नमाज़ का आदेश देकर जहां वह अपने बंदे, अपनी रचना अर्थात मनुष्य की, केवल अपने समक्ष सिर झुकाने की आदत डालता है और दूसरों से न डरने का साहस प्रदान करता है वहीं रोज़ा रखने का आदेश देकर मनुष्य में आत्मनिर्माण की भावना को सुदृढ़ करता है।
रोज़ा क्या है? रोज़े का सबसे सरल आयाम, भोर समय से लेकर रात की कालिमा के आरंभ होने तक खाने-पीने से दूर रहना है। यह सरल आयाम मनुष्य को भूख सहन करने, भूखे रहने पर विवश लोगों के दुख को समझने और निराशा व कामना के टकराव की उस स्थिति के पूर्ण आभास का पाठ सिखाता है जो एक भूखे और निर्धन के मन में उस समय उत्पन्न होती है जब दूसरे तो खार रहे होते हैं और वह तथा उसके बच्चे भूखे होते हैं।
जी हां। रोज़ा जीवन के विभिन्न महत्वपूर्ण आयामों को पूर्ण रूप से समझने का एक मार्ग है। जब एक महीने तक अभ्यास किया जाए तो फिर कठिन से कठिन पाठ भी पूर्ण रूप से याद हो जाता है और मनुष्य उस कार्य में पूर्ण रूप से दक्ष हो जाता है जिसका प्रशिक्षण एक महीने तक प्राप्त करता है। आत्मनिर्माण, रोज़े का एसा विस्तृत आयाम है जिसपर यदि ध्यान दिया जाए तो इससे मनुष्य के व्यक्तित्व को निखारने वाले अनगिनत आयाम सामने आने लगते हैं।
रोज़ा केवल भूख और प्यास सहन करने का नाम नहीं है। रोज़ा/ इच्छाओं, भावनाओं, विचारों, शब्दों, आंखों, कानों और हाथों तथा पैरों सबको पूरे शरीर को इस प्रकार ईश्वर के समक्ष समर्पित करने का नाम है कि यह सभी भावनाएं और अंग, बस ईश्वर के लिए ही, उसकी इच्छानुसार ही काम करें।