अमेरिकी विदेश नीति के अंग के रूप में यहूदी लॉबी को विशेष स्थान प्राप्त है।
हालांकि यहूदी, अमेरिकी आबादी का केवल तीन प्रतिशत ही हैं, फिर भी वे अमेरिकी सत्ता संरचना में सबसे प्रभावशाली जातीय अल्पसंख्यक बनने में कामयाब रहे हैं। अमेरिका में यहूदी लॉबी के अलग-अलग एजेंडे हैं लेकिन उसका मुख्य ध्यान, अमेरिका-इस्राईल संबंधों पर केन्द्रित है।
इस्राईल के समर्थन में लॉबी के प्रयास कई यहूदी संगठनों के संयुक्त प्रयास का नतीजा हैं जिनमें सबसे शक्तिशाली और प्रसिद्ध अमेरिकी यहूदी संगठन के रूप में अमेरिकन-इस्राईल पब्लिक अफेयर्स कमेटी (एआईपीएसी) की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण है।
यह संगठन अमेरिका में अधिकांश यहूदी संगठनों की गतिविधियों की योजना और समन्वय के लिए ज़िम्मेदार है और ज़ायोनी हितों के साथ अमेरिकी नीतियों के समन्वय में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।
यह समन्वय कांग्रेस के सदस्यों और कार्यकारी शाखा के उच्च पदस्थ अधिकारियों के साथ संपर्क और रचनात्मक संचार के माध्यम से होता है जिससे इस्राईल के पक्ष में विधायी पहल की शुरुआत होती है जो इस शासन के अस्तित्व, बाक़ी रहने और सुरक्षा की गारंटी देता है।
आज अमेरिका और इस्राईल को एक ख़ास रिश्ते के पक्ष के तौर पर जाना जाता है। इस विशेष रिश्ते और इस्राईल के लिए अमेरिका के व्यापक समर्थन का सबसे महत्वपूर्ण कारण, एआईपीएसी जैसे संगठनों का अस्तित्व है, जो हमेशा वाशिंगटन और तेल अवीव के लिए सामान्य ख़तरों की ओर इशारा करते हैं और अमेरिकी राजनेता दोनों के रणनीतिक सहयोग की घोषणा करते हैं और कहते हैं कि दोनों पक्षों का लक्ष्य, इन ख़तरों को ख़त्म करना है।
कई यहूदी संगठनों का गठन करके यह ग्रुप बहुत व्यापक धार्मिक और जातीय संबंधों का उपयोग करते हुए संयुक्त राज्य अमेरिका के निर्णय लेने वाले निकाय में अपने प्रभाव को सुचारू करने की कोशिश कर रहा है और अपने लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए अमेरिका की विदेश नीति तंत्र का मार्गदर्शन करना चाहता है।
एआईपीएसी (AIPAC) अमेरिकी चुनाव के उम्मीदवारों चाहे कांग्रेस के चुनाव हों या राष्ट्रपति पद के चुनाव, के समर्थन में अपनी व्यापक आर्थिक और विज्ञापन शक्ति के उपयोग के माध्यम से उन समाधानों को आगे बढ़ाता है, जिनकी राय इस संगठन की राय से मेल खाती है।
इस प्रकार एआईपीएसी की प्रभावशीलता का एक मुख्य कारण अमेरिकी कांग्रेस में इसका प्रभाव है जहां इस्राईल किसी भी आलोचना से लगभग अछूता है।
हालांकि कांग्रेस कभी भी विवादास्पद मुद्दों पर चर्चा करने से नहीं कतराती है लेकिन जब इस्राईल की बात आती है तो संभावित आलोचकों को चुप करा दिया जाता है और शायद ही कभी चर्चा होती है।
एआईपीएसी की सफलता उसके कार्यक्रमों का समर्थन करने वाले सांसदों और कांग्रेस के उम्मीदवारों को पुरस्कृत करने की क्षमता और उसके कार्यक्रमों का विरोध करने वालों को दंडित करने की क्षमता की वजह से है।
इसके अलावा कार्यकारी शाखा में एआईपीएसी का प्रभाव आंशिक रूप से अमेरिकी राष्ट्रपति चुनावों में यहूदी मतदाताओं के प्रभाव से ही पैदा होता है। यहूदी, अपनी कम संख्या के बावजूद भी दोनों पार्टियों के उम्मीदवारों को बड़ा वित्तीय योगदान देते हैं।
इसके अलावा, चुनावों में यहूदी प्रत्याशियों की दर अधिक है और वे कैलिफोर्निया, फ्लोरिडा, इलिनोइस, न्यूयॉर्क और पेंसिल्वेनिया जैसे महत्वपूर्ण राज्यों में केंद्रित हैं।
यह संगठन इस्राईल और दुनिया के सबसे विवादास्पद क्षेत्र, विशेषकर पश्चिम एशियाई क्षेत्र से संबंधित मामलों में दुनिया की महान शक्तियों की नीतियों को प्रभावित करने के लिए अमेरिका में ज़ायोनियों का सबसे महत्वपूर्ण उपकरण और हथकंडा है।
यह विषय इतना महत्वपूर्ण है इसीलिए इसके बारे में यह उल्लेख किया जाना चाहिए कि "इस्राईल प्रेशर ग्रुप और अमेरिकी विदेश नीति" नामक पुस्तक में "जॉन मर्सहाइमर" और "स्टीफन वॉल्ट" का मानना है कि इस तथ्य के बावजूद कि कोई भी रणनीतिक या नैतिक विचार, इस्राईल के लिए अमेरिकी समर्थन के वर्तमान स्तर को कम नहीं कर सकता है लेकिन उनका दावा है कि इस असामान्य स्थिति का मुख्य कारण अमेरिका में यहूदी लॉबी का प्रभाव है।
उनका मानना है कि 2003 में इराक़ में विनाशकारी युद्ध में अमेरिका को घसीटने और ईरान तथा सीरिया के साथ संबंध स्थापित करने के प्रयासों को ख़राब करने में इस्राईली लॉबी ने प्रमुख भूमिका निभाई थी।
इसीलिए पुस्तक के लेखक मध्यपूर्व में अमेरिकी विदेश नीति की मुख्य दिशा के रूप में इस्राईली लॉबी का परिचय देते हैं जो एआईपीएसी के केंद्र में है।
एआईपीएसी का प्रभाव और असर ऐसा रहा है कि कई मामलों में उसने अमेरिकी अधिकारियों को उनकी इच्छा के विरुद्ध अपनी नीतियों को इस्राईल की नीतियों के साथ तैयार करने करने के लिए प्रेरित किया है।
इसका एक स्पष्ट उदाहरण एआईपीएसी के दबाव के तहत पिछले अमेरिकी राष्ट्रपतियों द्वारा फ़िलिस्तीनी राज्य स्थापित करने के अपने वादे से पीछे हटना है।
यह ऐसी हालत में है कि जब बुश ने इराक़ पर क़ब्ज़े के बाद एक स्वतंत्र फ़िलिस्तीनी राज्य की स्थापना का समर्थन करने का वादा किया था और फ़िलिस्तीनियों और इस्राईल के बीच संघर्ष को हल करने के लिए एक रोड मैप नामक कार्यक्रम भी तैयार किया था लेकिन ज़्यादा समय नहीं बीता कि एआईपीएसी गुस्सा और चिंता बढ़ गयी जिसके बाद वाशिंग्टन इस वादे से पीछे हट गया और एक स्वतंत्र फ़िलिस्तीनी राज्य की स्थापना का मुद्दा फिर से ठंडे बस्ते में चला गया।
इसके अलावा, एआईपीएसी की वार्षिक बैठक में ओबामा के भाषण से न केवल मध्यपूर्व संकट का समाधान नहीं निकला, बल्कि क्षेत्र के मुस्लिम देशों की नाराज़गी में वृद्धि ही हुई।
यह भाषण क्षेत्र के देशों को संबोधित करने के बजाय संयुक्त राज्य अमेरिका में ज़ायोनी लॉबी का समर्थन हासिल करने के लिए दिया गया था। हालिया वर्षों में किसी ने भी इस्राईल की उतनी सेवा नहीं की जितनी ट्रम्प ने की है।
इस तरह से कि मध्यपूर्व में ट्रम्प के सभी काम या तो नेतन्याहू द्वारा वांछित दो-सरकारी योजना को एक-सरकारी योजना से बदलने के बारे संदर्भ में हो या अमेरिकी दूतावास को तेल अवीव से बैतुल मुक़द्दस स्थानांतरित करने के बारे में हो या जेसीपीओए से निकलने और ईरान के ख़िलाफ़ ज़्याद से ज़्यादा दबाव और प्रतिबंध लगाने के संदर्भ में हो या आईएसआईएस के ख़िलाफ़ जंग के कमांडर जनरल कासिम सुलेमानी की हत्या का मामला हो, यह सभी मामलों को नेतन्याहू ने ही तय किया था जिसे एआईपीएसी के प्रभुत्व के माध्यम से ट्रम्प प्रशासन को सूचित किया गया था।
यह लेख पारसा जाफ़री ने लिखा है जिसे ईरानी डिप्लोमेसी वेबसाइट से लिया गया है