इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.) अख़लाख की दुनियां मे (10)

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इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.) अख़लाख की दुनियां मे   (10)

इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.) चूंकि फ़रज़न्दे रसूल (स. अ.) थे इस लिये आप में सीरते मोहम्मदिया का होना लाज़मी था। अल्लामा मोहम्मद इब्ने तल्हा शाफ़ेई लिखते हैं कि एक शख़्स ने आपको बुरा भला कहा, आपने फ़रमाया , भाई मैंने तो तेरा कुछ नहीं बिगाड़ा अगर कोई हाजत रखता हो तो बता ताकि मैं पूरी करूं। वह शरमिन्दा हो कर आपके अख़लाख का कलमा पढ़ने लगा।

(मतालेबुल सुवेल सफ़ा 267)

अल्लामा हजरे मक्की लिखते हैं, एक शख़्स ने आपकी बुराई आपके मुंह पर की, आपने उस से बे तवज्जीही बरती। उसने मुख़ातिब कर के कहा मैं तुम को कह रह हूँ। आप ने फ़रमाया मैं हुक्मे ख़ुदा ‘‘ वा अर्ज़ अनालन जाहेलीन ’’ जाहिलों की बात की परवाह न करो, पर अमल कर रहा हूँ। (सवाएक़े मोहर्रेक़ा सफ़ा 120)

अल्लामा शिब्लन्जी लिखते हैं कि एक शख़्स ने आप से आ कर कहा कि फ़लां शख़्स आपकी बुराई कर रहा था। आपने फ़रमाया कि मुझे उसके पास ले चलो, जब वहां पहुँचे, तो उस से फ़रमाया भाई जो बात तूने मेरे लिये कही है, अगर मैंने ऐसा किया हो तो खु़दा मुझे बख़्शे और अगर नहीं किया तो ख़ुदा तुझे बख़्शे कि तूने बोहतान लगाया।

एक रवायत में है कि आप मस्जिद से निकल कर चले तो एक शख़्श आपको सख़्त अल्फ़ाज़ में गालियां देने लगा। आपने फ़रमाया कि अगर कोई हाजत रखता है तो मैं पूरी करूँ, ‘‘ अच्छा ले ’’ यह पांच हज़ार दिरहम। वह शरमिन्दा हो गया।

एक रवायत में है कि एक शख़्स ने आप पर बोहतान बांधा। आपने फ़रमाया मेरे और जहन्नम के दरमियान एक खाई है अगर मैंने उसे तय कर लिया तो परवाह नहीं, जो जी चाहे कहो और अगर उसे पार न कर सकूं तो मैं इस से ज़्यादा बुराई का मुस्तहक़ हूँ जो तुमने की। (नूरूल अबसार सफ़ा 126- 127)

अल्लामा दमीरी लिखते हैं कि एक शामी हज़रत अली (अ.स.) को गालियां दे रहा था। इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.) ने फ़रमाया, भाई तुम मुसाफ़िर मालूम होते हो, अच्छा मेरे साथ चलो, मेरे यहां क़याम करो और जो हाजत रखते हो बताओ ताकि मैं पूरी करूं। वह शरमिन्दा हो कर चला गया। (हैवातुल हैवान जिल्द 1 सफ़ा 121)

अल्लामा तबरिसी लिखते हैं कि एक शख़्स ने आपसे बयान किया कि फ़लां शख़्स आपको गुमराह और बिदअती कहता है। आपने फ़रमाया अफ़सोस है कि तुम ने उसकी हम नशीनी और दोस्ती का कोई ख़्याल न रखा और उसकी बुराई मुझसे बयान कर दी। देखो यह ग़ीबत है अब ऐसा कभी न करना। (एहतेजाज सफ़ा 304)

जब कोई सायल आपके पास आता तो ख़ुश व मसरूर हो जाते थे और फ़रमाते थे कि ख़ुदा तेरा भला करे कि तू मेरा ज़ादे राहे आख़ेरत उठाने के लिये आ गया है। (मतालेबुल सुवेल सफ़ा 263)

इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.) सहीफ़ा ए कामेला में इरशाद फ़रमाते हंै, ख़ुदा वन्दा मेरा कोई दरजा न बढ़ा, मगर यह कि इतना ही खुद मेरे नज़दीक मुझको घटा और मेरे लिये कोई ज़ाहिरी इज़्ज़त न पैदा कर मगर यह कि ख़ुद मेरे नज़दीक इतनी ही बातनी लज़्ज़त पैदा कर दे।

इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.) और सहीफ़ा ए कामेला

किताब सहीफ़ा ए कामेला आपकी दुआओं का मजमूआ है। इसमें बेशुमार उलूम व फ़ुनून के जौहर मौजूद हैं। यह पहली सदी की तसनीफ़ है। (मआलिम अल उलेमा सफ़ा 1 तबआ ईरान) इसे उलेमा ए इस्लाम ने ज़ुबूरे आले मोहम्मद (स.अ.) और इन्जीले अहलेबैत (अ.स.) कहा है। (नेयाबुल मोअद्दता सफ़ा 499 व फ़ेहरिस्त कुतुब ख़ाना ए तेहरान सफ़ा 36) और उसकी फ़साहत व बलाग़त मआनी को देख कर उसे कुतुबे समाविया और सहफ़े लौहिया व अरशिया का दरजा दिया गया है। (रियाज़ुल सालीक़ैन सफ़ा 1) इसकी चालीस हज़ार शरहें हैं जिनमें मेरे नज़दीक रियाज़ुल सालीकैन को फ़ौकी़यत हासिल है।

हश्शाम बिन अब्दुल मलिक और क़सीदा ए फ़रज़दक़

अब्दुल मलिक इब्ने मरवान का सन् 105 में ख़लीफ़ा होने वाला बेटा हश्शाम बिन अब्दुल मलिक अपने बा पके अहदे हुकूमत में एक मरतबा हज्जे बैतुल्लाह के लिये मक्के मोअज़्ज़मा गया। मनासिके हज बजा लाने के सिलसिले में तवाफ़ से फ़राग़त के बाद हजरे असवद का बोसा देने आगे बढ़ा और पूरी कोशिश के बवजूद हाजियों की कसरत की वजह से हजरे असवद के पास न पहुँच सका। आखि़र कार एक कुर्सी पर बैठ कर मजमे के छटने का इन्तेज़ार करने लगा। हश्शाम के गिर्द उसके मानने वालों का अम्बोह कसीर था। यह बैठा हुआ इन्तेज़ार ही कर रहा था कि नागाह एक तरफ़ से फ़रज़न्दे रसूल (स. अ.) हज़रत इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.) बरामद हुए। आपने तवाफ़ के बाद ज्यों ही हजरे असवद की तरफ़ रूख़ किया मजमा फटना लगा, हाजी हटने लगे, रास्ता साफ़ हो गया और आप क़रीब पहुँच कर तक़बील फ़रमाने लगे। हश्शाम जो कुर्सी पर बैठा हुआ था हालात का मुतालेआ कर रहा था जल भुन कर ख़ाक हो गया और उसके साथी बहरे हैरत में ग़र्क़ हो गये। एक मुंह चढ़े ने हश्शाम से पूछा, हुज़ूर यह कौन हैं? हश्शाम ने यह समझते हुए कि अगर तअर्रूफ़ करा दिया और इन्हें बता दिया कि यह ख़ानदाने रिसालत के चश्मों चिराग़ हैं तो कहीं मेरे मानने वालों की निगाह मेरी तरफ़ से फिर कर उनकी तरफ़ मुड़ न जाये। तजाहुले आरोफ़ाना के तौर पर कहने लगा, ‘‘ मआ अरफ़ा ’’ मैं नहीं पहचानता। यह सुन कर शायरे दरबार जनाब फ़रज़दक़ से न रहा गया और उन्होंने शामियों की तरफ़ मुख़ातिब हो कर कहा, ‘‘ अना अराफ़ा ’’ इसे मैं जानता हूँ कि यह कौन हैं, ‘‘ मुझ से सुनो ’’ यह कह कर उन्होंने इरतेजालन और फ़िल बदीहा एक अज़ीम उश्शान क़सीदा पढ़ना शुरू कर दिया जिसका पहला शेर यह है तरजुमा यह वह शख़्स है जिस को खाना ए काबा हिल्लो हरम सब पहचानते हैं और उसके क़दम रखने की जगह, क़दम की चाप को ज़मीन बतहा भी महसूस कर लेती है। मैं इस रदीफ़ में इस क़सीदे का उर्दू मनजूम तरजुमा र्दजे ज़ैल करता हूँ।

यह वह है जानता है मक्का जिसके नक़्शे क़दम

ख़ुदा का घर भी है, आगाह और हिल्लो हरम

जो बेहतरीन ख़लाएक़ है उस का है फ़रज़न्द

है पाक व ज़ाहिद व पाकीज़ा व बुलन्द हशम

कु़रैश लिखते हैं जब , इसे तू कहते हैं

बुर्ज़ुगियों पे हुई इसकी इन्तेहाए करम

इस क़सीदे के तमाम नाक़ेलीन ने पहला शेर यह लिखा है।

हाज़ल लज़ी ताअररूफ अल बतहा व तातहू

वाअल बैतया अरफ़हू वाअलहलव अलहरम

लेकिन यह मालूम होने के बाद कि क़सीदे के लिये मतला ज़रूरी होता है। उसे पहला शेर क़रार नहीं दिया जा सकता, अल बत्ता यह मुम्किन है कि यह समझा जाए कि शायर ने मौक़े के लेहाज़ से अपने क़सीदे की इस वक़्त पढ़ने की इब्तेदा इसी शेर से की थी और मुवर्रेख़ीन ने इसी शेर को पहला शेर क़रार दे दिया। अल्लामा अब्दुल्लाह इब्ने मोहम्मद इब्ने यूसुफ़ ज़ाज़नी अल मौतूफ़ी 231 हिजरी शरहे सबहे मुअल्लेक़ात में लिखते हैं कि इस क़सीदे का पहला शेर यह है।

या साएली एन हल अलजदू व अल करम

अन्दी बयान अज़ा, तलाबहा क़दम

क़सीदाऐ फ़रज़दक़ के मुतालिक़ एक ग़लत फ़हमी और उसका इज़ाला

इमामे अहले सुन्नत मोहम्मद अब्दुल क़ादिर सईद अलराफ़ई ने 1927 ई0 में शाएर अरब अबू अलतमाम हबीब अदस बिन हारस ताई आमली शामी बग़दाद के कीवान ‘‘ हमासह ’’ के मिस्र तबा कराया है। इसकी जिल्द 2 सफ़ा 284 पर इस क़सीदे के इब्तेदाई 6 अश्आर को नक़ल कर के लिखा है कि यह अश्आर ‘‘ हज़ीन अल कनानी ’’ के हैं। इसने उन्हें अब्दुल्लाह बिन अब्दुल मलिक बिन मरवान की मदह में कहे थे, साथ ही साथ यह भी लिखा है ‘‘व अलनास यरोदन हाज़ह अल बयात अलप फ़रज़ोक़ यमदह बहा अली इबनुल हुसैन बिन अबी तालिब व हैग़लतमन रदहाफ़ह लान हाज़ा लेस ममायदहा बेही मिस्ल अली बिन अल हुसैन व लहमन अल फ़ज़ल अलबा हरमालैसा ला हद फ़ी वक़तहू ’’ और लोेग जो इन अबयात के मुताअल्लिक़ यह रवायत करते हैं कि यह फ़रज़दक़ के हैं और उसने उन्हें मदहे ‘‘ इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.) ‘‘ में कहा है ग़लत है क्यों कि यह अशआर उनके शायाने शान नहीं हैं वह तो अपने वक़्त के सब से बड़े साहेबे फ़ज़ीलत थे। मैं कहता हूँ कि यह अशआर फ़रज़दक ही के हैं क्यों कि इसे बेशुमार फ़हूल उलमा व मुवर्रेख़ीन ने उन्हीं के अश्आर तसलीम किए हैं जिनमें इमाम अल मोहक़ेक़ीन अल्लामा शेख़ मुफ़ीद अलै हिर रहमा मौतूफ़ी 413 हिजरी व इमाम ज़दज़नी अल मौतूफ़ी 431 हिजरी व अल्लामा इब्ने हजर मक्की व हाफ़िज़ अबू नईम और साहेबे मज़ा फिल अदब शामिल हैं। मुलाहेज़ा हो इरशाद मुफ़ीद सफ़ा 399 तबा ईरान 1303 इन उलमा के तसलीम करने के बाद किसी फ़रदे वाहिद के इनकार से कोई असर नहीं पड़ा।

पहुँच गया है यह इज़्ज़त की उस बुलन्दी पर

जहां पर जा सके इस्लाम के अरब व अजम

                 यह चाहता है कि ले हाथों हाथ रूकने हतीम

                 जो चूमने हजरे असवद , आए निज़्दे हरम

छड़ी है हाथ में , जिसके महकती है ख़ुशबू

व्ह हाथ जो नहीं इज़्ज़त में और शान में कम

                 नज़र झुकाए हैं सब यह हया है रोब से लोग

                 जो मुस्कुराए तो आजाए, बात करने का दम

जबीं के नूरे हिदायत से , कुफ्ऱ घटता है यूँ

ज़ियाए महर से तारीकियाँ,  हों जैसे कम

                 फ़ज़ीलत और नबीयो की इसके जद से है पस्त

                 तमाम उम्मतें, उम्मत से इसके रूतबे में कम

यह वह दरख़्त है जिसकी है जड़ खुदा का रसूल

इसी से फ़ितरत व आदात भी हैं पाक बहम

                 यह फ़ात्मा का है , फ़रज़न्द ‘‘ तू नहीं वाक़िफ़ ’’

                 इसी के जद से नबियों का बढ़ सका न क़दम

अज़ल से लिखी है , हक़ ने शराफ़तों अज़्ज़त

चला इसी के लिये लौह पर खु़दा का क़लम

                 जो कोई ग़ैज़ दिला दे , तो शेर से बढ़ जाए

                 सितम करे कोई इस पर तो मौत का नहीं ग़म

ज़र्र न होगा उसे तू , बने हज़ार अन्जान

इसे तो जानते हैं सब अरब तमाम अजम

                बरसते हब्र हैं हाथ इसके जिनका फ़ैज़ है आम

 

                 वह बरसा करते हैं , यकसाँ कभी नहीं हुए कम

वह नरम है, कि डर जल्द बाज़ियों का नहीं

है हुसने ख़ुल्क, इसी की तो ज़ीनते बाहम

                 मुसिबतों में क़बीलों के , बार उठाता है

                 हैं जितने खूब शमाएल, हैं इतने खूब करम

कभी न उसने कहा ‘‘ ला ’’ बजुज़ तशहुद के

अगर न होता तशहुद तो होता ‘‘ ला ’’ भी नअम

                 खि़लाफ़े वादा नहीं करता , यह मुबारक ज़ात

                 है मेज़ बान भी, अक़ल व इरादह भी है बहम

तमाम ख़लक़ पे एहसाने आम है इसका

इसी से उठ गया अफ़लासो रंजो फ़क्रा क़दम

            मोहब्बत इसकी है ‘‘ दीन ’’ और अदावत इसकी है कुफ़्र

है क़ुरबा इसका , निजातो पनाह का आलम

शुमार ज़ाहिदों का हो , तो पेशवा यहा हो

कि बेहतरीन ख़लाएक़ , इसीको कहते है हम

                 पहुँचना इसकी सख़ावत , ग़ैर मुम्किन है

                 सख़ी हों लाख न पांएगे इसकी गरदे क़दम

जो क़हत की हो  यह अबरे बारां हैं

जो भड़के जंग की आतिश यह शेर से नहीं कम

                 न मुफ़लिसी का असर है , फ़राग़ दस्ती पर

                 कि इसको ज़र की ख़ुशी है न बेज़री का अलम

इसी की चाह से जाती है आफ़त और बदी

इसी की वजह से आती है नेकी और करम

                 इसी का ज़िक्र मुक़द्दम है बाद ज़िक्रे खु़दा

                 इसी के नाम से हर बात ख़त्म करते हैं हम

मज़म्मत आने से इसके क़रीब भागती है

करीमे ख़लक़ हैं होती नहीं सख़ावत कम

                 ख़ुदा बन्दों में है कौन ऐसा जिसका सर

                 इसी घराने के एहसान से हुआ न हो ख़म

ख़ुदा को जानता है जो इसे भी जानता है

इसी के घर से मिला उम्मतों को दीन बहम

इस क़सीदे को सुन कर हश्शाम ग़ैज़ो ग़ज़ब से पेचो ताब खाने लगा और उसका नाम दरबारी शोअरा की फ़ेहरीस्त से निकाल कर उसे बमुक़ाम असफ़ान क़ैद कर दिया। हज़रत इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.) को जब इसकी क़ैद का हाल मालूम हुआ तो आपने बारह हज़ार दिरहम उसके पास भेजा। फ़रज़दक़ ने यह कह कर वापिस कर दिया कि मैंने दुनियावी उजरत के लिये क़सीदा नहीं कहा है इस से मैं क़सदे सवाब का इरादा रखता हूँ। हज़रत ने फ़रमाया कि हम आले मोहम्मद (अ.स.) का यह उसूल है कि जो चीज़ दे देते हैं फिर उसे वापस नहीं लेते। तुम इसे ले लो। खुदा तुम्हारी नियत का अजरे अज़ीम देगा, वह सब कुछ जानता है। ‘‘ फ़ा क़बलहल फ़रज़दक़ ’’ फ़रज़दक़ ने उसे क़ुबूल कर लिया। (सवाएक़े मोहर्रेक़ा सफ़ा 120 मतालेबुल सुवेल सफ़ा 226, अर हज्जुल मतालिब सफ़ा 403, मजालिसे अदब, जिल्द 6 सफ़ा 254, वसीलतुन नजात सफ़ा 320, तारीख़े अहमदी सफ़ा 328, तारीख़े आइम्मा सफ़ा 369, हुलयतुल अवलिया हाफ़िज़ अबू नईम रिसाला हक़ाएक लख़नऊ)

अल्लामा इब्ने हसन जारचवी लिखते हैं कि ‘‘ हश्शाम उनको एक हज़ार दीनार सालाना दिया करता था जब उसने यह रक़म बन्द कर दी तो यह बहुत परेशान हुए। माविया बिने अब्दुल्लाह इब्ने जाफ़रे तय्यार ने कहा, फ़रज़दक़ घबराते क्यों हो , कितने साल ज़िन्दा रहने की उम्मीद है? उन्होंने कहा यही बीस साल। फ़रमाया कि यह बीस हज़ार दीनार ले लो और हश्शाम का ख़्याल छोड़ दो। उन्होंने कहा मुझे अबू मोहम्मद अली इब्नुल हुसैन (अ.स.) ने भी रक़म इनायत फ़रमाने का इरादा किया था मगर मैंने क़बूल नहीं किया। मैं दुनिया का नहीं आख़ेरत के अज्र का उम्मीदवार हूँ।

बेहारूल अनवार में है कि हज़रत इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.) ने चालीस दीनार अता फ़रमाये और हुआ भी ऐसी ही कि फ़रज़दक़ उसके बाद चालीस साल और ज़िन्दा रहे। (तज़किरा मोहम्मद (स. .अ.) व आले मोहम्मद (अ.स.) जिल्द 2 सफ़ा 190)

 

 

 

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