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ग़ज़्ज़ा में विस्थापित हुए बेघर लोगों के आवास वाले स्कूल पर ज़ायोनी सेना के बर्बर हमले में कम से कम 90 लोगों की मौत हो गई। इस्राईल ने दावा किया है कि यह हमला का हमास कमांड सेंटर पर किया गया था।

ग़ज़्ज़ा की नागरिक सुरक्षा एजेंसी ने शनिवार को कहा कि ग़ज़्ज़ा शहर में स्कूल पर तीन ज़ायोनी रॉकेट गिरे। उसने इस घटना को भयानक नरसंहार बताया, जिसमें कुछ शवों में आग लग गई। ज़ायोनी सेना ने शनिवार को कहा कि उसने अल-ताबेईन स्कूल में स्थित हमास कमांड और कंट्रोल सेंटर में सक्रिय हमास पर सटीक हमला किया।

इस हमले से 2 दिन पहले ही ग़ज़्ज़ा के अधिकारियों ने कहा था कि ग़ज़्ज़ा शहर में दो अन्य स्कूलों पर ज़ायोनी हमलों में 18 से अधिक लोग मारे गए हैं जबकि ज़ायोनी सेना ने उस वक्त भी कहा था कि उसने हमास के कमांड सेंटर पर हमला किया था। 

 

हुज्जतुल इस्लाम वल मुस्लिमीन मुसवी ने कहां,इज़राईलीयों में इंसानियत, सम्मान और गरिमा जैसी कोई चीज़ नहीं है,यदि वे फ़िलिस्तीन में रहे तो न केवल फ़िलिस्तीन, बल्कि पूरी दुनिया की सुख और शांति छीन लेंगे।

एक रिपोर्ट के अनुसार , हमदान के इमाम ए जुमआ हुज्जतुल इस्लाम वल मुस्लिमीन सैयद महमूद मुसवी ने अपने खुत्बे मे कहां,आज फिलिस्तीन और गाज़ा को एक महत्वपूर्ण हिस्सा मानते हुए इस्लामी जगत की इसकी रक्षा की जानी चाहिए।

हुज्जतुल इस्लाम वल मुस्लिमीन सैयद महमूद मुसवी ने कहां,इज़राईलीयों में इंसानियत, सम्मान और गरिमा जैसी कोई चीज़ नहीं है,यदि वे फ़िलिस्तीन में रहे तो न केवल फ़िलिस्तीन, बल्कि पूरी दुनिया की सुख और शांति छीन लेंगे।

उन्होंने आगे कहा पश्चिमी देश और अमेरिका केवल अपना हित देख रहे हैं उन्हें लगता है कि वे इजराइल जैसे कैंसरग्रस्त ट्यूमर को नियंत्रित कर सकते हैं, लेकिन वास्तविकता कुछ और है और वे ऐसा कभी नहीं कर पाएंगे, एक दिन ऐसा आएगा जब यही इजराइल उनके लिए भी सज़ा बन जाए।

उन्होंने कहा,इज़राईल किसी समझौते या नियम या क़ानून का पालन नहीं करता इज़राईल ईसा मसीह के धर्म या यहूदी धर्म में विश्वास नहीं करता लेकिन अगर यह कहा जाए कि इज़राईल ईश्वर में भी विश्वास नहीं करता तो गलत नहीं होगा।

इमाम ए जुमआ हमदान ने कहा,इजराइल के अपराधों के सामने क्षेत्र के विश्वासघाती देशों की चुप्पी निंदनीय है इन देशों ने ईरान के जंग के दौरान भी सद्दाम की मदद की थी।

बहरैन, हज़रत इमाम हुसैन (अ.स) की कमसिन शहज़ादी हज़रत सकीना की शहादत के शोक में बहरैन के कजकान गाँव में शोक जुलूस निकाला गया जिसमे बड़ी संख्या में अहले बैते नबी (अ.स.) के चाहने वालों ने हिस्सा लिया।

बांग्लादेश की सत्ता से शैख़ हसीना को बेदखल करने के बाद अब प्रदर्शनकारियों के निशाने पर देश की न्यायपालिका है।

बांग्लादेश में अब प्रदर्शनकारी छात्रों ने सुप्रीम कोर्ट को निशाना बनाया है और मांग की है कि चीफ जस्टिस सहित सभी जज अपना इस्तीफा दें। सैकड़ों प्रदर्शनकारी जिन्होंने बांग्लादेश के सुप्रीम कोर्ट को घेर लिया, जिसके बाद चीफ जस्टिस ने अपने पद से इस्तीफा देने का फैसला किया है।

 

ब्रिटेन से लगातार हिंसा की खबरें आ रही है। एक बार फिर कई जगहों पर हिंसा की आग भड़क गई है। साउथपोर्ट में चाकू से हमला किए जाने की झूठी सूचना के विरोध में दक्षिणपंथी समूहों द्वारा आयोजित विरोध प्रदर्शनों ने ब्रिटेन के कई शहरों में अराजकता फैला दी है।

मीडिया रिपोर्ट के अनुसार लिवरपूल, मैनचेस्टर, सुंदरलैंड, हल, बेलफास्ट और लीड्स सहित कई स्थानों पर हिंसा और अशांति फैली है, और पूरे दिन प्रदर्शनकारियों और पुलिस के बीच झड़पें तेज होती जा रही हैं।

वहीं सरकार ने दंगाईयों को चेतावनी दी है। सरकार ने शनिवार को चेतावनी देते हुए कहा है कि ब्रिटेन में फैली हिंसक झड़पों की लहर के लिए दंगाइयों को “कीमत चुकानी पड़ेगी”।

ब्रिटेन के गृह सचिव यवेट कूपर ने कहा कि पुलिस को यथासंभव कठोर कार्रवाई करने के लिए सरकार का पूरा समर्थन प्राप्त होगा। उन्होंने कहा, “ब्रिटेन की सड़कों पर आपराधिक हिंसा और अव्यवस्था के लिए कोई जगह नहीं है।

 

 

हज़रत इमाम हुसैन अ.स. की कमसिन शहज़ादी हज़रत सकीना की शहादत के शोक में इराक की मस्जिदे कूफ़ा में शोक सभा आयोजित की गई जिसमे बड़ी संख्या में अहले बैते नबी अ.स. के चाहने वालों ने हिस्सा लिया।

 

संयुक्त राष्ट्र संघ में इस्लामी गणतंत्र ईरान के प्रतिनिधि ने साइबर हमलों के माध्यम से 2024 के अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव में तेहरान के हस्तक्षेप के बारे में "माइक्रोसॉफ्ट" कंपनी की रिपोर्ट को ख़ारिज करते हुए कहा कि: अमेरिकी चुनाव इस देश का आंतरिक मुद्दा है।

अमेरिकी कंपनी "माइक्रोसॉफ्ट" ने हाल ही में एक रिपोर्ट में दावा किया है कि ईरान ने अमेरिका के नवम्बर के चुनावों में हस्तक्षेप करने और अपने हैकरों और फ़र्ज़ी समाचार वेबसाइटों सहित देश के राजनीतिक समाज के ध्रुवीकरण को मज़बूत करने के अपने प्रयास बढ़ा दिए हैं।

संयुक्त राष्ट्र संघ में ईरान के प्रतिनिधिमंडल ने माइक्रोसॉफ्ट के दावे को ख़ारिज करते हुए एक बयान में घोषणा की: ईरान, अपने देश के बुनियादी ढांचे, सार्वजनिक सेवा केंद्रों और उद्योगों के खिलाफ विभिन्न साइबर हमलावर आप्रेशन्ज़ का शिकार रहा है और ईरान की साइबर शक्ति रक्षात्मक और आनुपातिक है और उसका सामना खतरों से होता रहता है।

संयुक्त राष्ट्र संघ में ईरान के प्रतिनिधिमंडल ने इस बयान में बल देकर कहा: ईरान के पास साइबर हमले का कोई लक्ष्य या योजना नहीं है क्योंकि अमेरिकी चुनाव का मुद्दा, इस देश का आंतरिक मुद्दा है और ईरान की इसमें कोई भागीदारी नहीं है।

इससे पहले, संयुक्त राष्ट्र संघ में ईरान के प्रतिनिधि ने अमेरिकी चुनावों को बाधित करने के ईरान के प्रयासों और 2024 के चुनावों के लिए रिपब्लिकन पार्टी के उम्मीदवार डोनल्ड ट्रम्प के चुनाव अभियानों पर नकारात्मक प्रभाव के बारे में अमेरिकी खुफिया अधिकारियों के दावों के बारे में एक सवाल के जवाब में कहा था कि इनमें से अधिकांश आरोप चुनाव अभियानों को ग़लत गति देने के लिए मनोवैज्ञानिक ऑपरेशन का हिस्सा हैं।

ज्ञात हो कि अमेरिका के 46वें राष्ट्रपति के रूप में 81 वर्षीय जो बाइडेन, जिन्होंने डोनल्ड ट्रम्प के साथ अपनी हालिया डिबेट के दौरान बेइज़्ज़ती का सामना किया था, अंततः दबाव में आकर 21 जुलाई, 2024 को राष्ट्रपति चुनाव से हट गए और डेमोक्रेटिक पार्टी से "कमला हैरिस" ने उनकी जगह ले ली।

अमेरिका के अगले राष्ट्रपति का चुनाव करने के लिए अमेरिकी जनता 5 नवम्बर 2024 को मतदान करेगी। इस चुनाव का विजेता जनवरी 2025 से राष्ट्रपति के रूप में अपना चार साल का कार्यकाल शुरू करेगा।

 

 

भाजपा की पुरानी सहयोगी पार्टी अकाली दल की लोकसभा सांसद हरसिमरत कौर बादल ने भाजपा को समाज न बाँटने की नसीहत करते हुए कहा कि बीजेपी को अल्पसंख्यक समाज के धर्म और धार्मिक संस्थाओं में दखल देने की ज़रूरत नहीं है।

वक्फ संशोधन बिल पर हरसिमरत कौर ने बीजेपी को घेरा। उन्होंने कहा कि ये सरकार किसी अल्पसंख्यक समाज को जीने नहीं देना चाहती है। बीजेपी अपनी ध्रुवीकरण की राजनीति से बाज नहीं आ रही है। बीजेपी लोगों का ध्रुवीकरण करके समाज को बांटने का काम कर रही है।

उन्होंने कहा कि देश में हर अल्पसंख्यक समाज के लोगों में सरकार के खिलाफ गुस्सा है। बीजेपी जिस तरह से क्षेत्रीय पार्टियों को खत्म करने की कोशिश कर रही है उसी तरह से अल्पसंख्यकों को भी समाप्त करने की कोशिश कर रहे हैं। सरकार को ध्यान देना चाहिए कि आसपास के देशों में क्या हालात हैं और हमारे देश में ऐसे हालात न बनें।

गुरुवार, 08 अगस्त 2024 18:14

इस्लाम में मां-बाप के आदर

मां-बाप की सेवा और उनके साथ भलाई के प्रतिफल के परिणाम स्वरूप इंसान की आयु में वृद्धि होती है, इंसान की आजीविका में वृद्धि होती है, इंसान की मौत के समय का कष्ट आसान हो जाता है।

यद्यपि मां-बाप हर हालत में अपनी संतान का भला चाहते हैं और कभी उसके लिए बुरा नहीं सोचते, लेकिन उनके दिल से उसी संतान के लिए दुआ निकलती है, जो सेवा और आदर से उनका दिल जीत लेती है। ऐसी संतान के हक़ में दुआ के लिए जब मां-बाप के हाथ आसमान की तरफ़ उठते हैं, तो ईश्वर उन्हें कभी ख़ाली हाथ नहीं लौटाता और निराश नहीं करता है। निःसंदेह इंसान को जीवन के हर मोड़ पर ईश्वर से प्रार्थना और बड़ों विशेष रूप से मां-बाप के आशीर्वाद की ज़रूरत होती है। स्वयं ईश्वर ने अपने बंदों से दुआ और प्रार्थना की सिफ़ारिश की है। क़ुराने मजीद के सूरए बक़रा में ईश्वर कहता है, प्रार्थना करने वाला जब मुझे पुकारता है, तो मैं उसकी प्रार्थना को स्वीकार कर लेता हूं। ईश्वर जिन दुआओं को कभी रद्द नहीं करता, उन्हीं में से एक मां-बाप के लिए संतान की दुआ और संतान के लिए मां-बाप की दुआ है। संतान के लिए मां-बाप की दुआ के संबंध में इमाम जाफ़र सादिक़ (अ) फ़रमाते हैं, ईश्वर तीन लोगों की दुआ को रद्द नहीं करता है, संतान के लिए बाप की दुआ जब वह उससे कोई भलाई देखे, संतान के लिए बाप की बद-दुआ अर्थात अभिशाप जब संतान से उसे कोई दुख पहुंचे और पीड़ित की बद-दुआ अत्याचारी के लिए।

मां-बाप के साथ भलाई करने का एक प्रतिफल यह है कि ऐसे व्यक्ति के साथ उसकी संतान भी भलाई करती है। इसलिए कि नैतिकता की दृष्टि से मां-बाप का अपनी संतान पर काफ़ी प्रभाव पड़ता है। इंसान के जीवन में मां-बाप ही पहली वह हस्ती होते हैं, जिसे वह अपना आदर्श बनाता है। इसलिए जो कोई यह चाहता है कि उसकी संतान उसके अधिकारों का सम्मान करे और उसका आदर करे, तो यही काम उसे अपने मां-बाप और बड़ों के साथ करना चाहिए, आरम्भ उसे ही करना होगा, ताकि छोटे भी सीख सकें। जो कोई अपने मां-बाप और बुज़ुर्गों का आदर करेगा, परिणाम स्वरूप उसके छोटे और उसकी संतान उसका आदर करेगी। जब बच्चे देखेंगे कि उनके मां-बाप हमेशा अपने मां-बाप का आदर करते हैं और इस विषय को काफ़ी महत्व देते हैं तो वे भी यही सीखेंगे और इसे अपना आदर्श बनायेंगे। जैसा कि इमाम जाफ़र सादिक़ (अ) ने फ़रमाया है, अपने बच्चों के साथ भलाई करो, ताकि वे भी तुम्हारे साथ भलाई करें। 

मां-बाप के साथ भलाई का परलोक में प्राप्त होने वाला एक प्रतिफल स्वर्ग में उच्च स्थान का प्राप्त होना है। ईश्वरीय किताब क़ुरान में उल्लेख है कि हर कर्म का फल है, जैसा इंसान का कर्म होगा वैसा ही उसे उसका फल मिलेगा। मां-बाप की सेवा और उनका आदर ईश्वर के निकट सबसे बड़ा कर्म है, इसलिए उसका प्रतिफल भी सबसे बड़ा होगा। यही कारण है कि मां-बाप की सेवा और उनका आदर करने वाली संतान को ईश्वर न केवल स्वर्ग प्रदान करता है, बल्कि स्वर्ग में वह उच्च स्थान देता है, जो उसके दूतों और विशिष्ट बंदों से विशेष है।

इस संदर्भ में इमाम मोहम्मद बाक़िर (अ) फ़रमाते हैं, अगर किसी व्यक्ति में चार विशेषताएं होंगी तो ईश्वर उसे उत्तम व उच्चतम स्थान प्रदान करेगा। जो कोई किसी अनाथ को शरण देता है और उसे बाप की नज़र से देखता है, जो कोई किसी कमज़ोर और वृद्ध पर कृपा करता है और उसकी पर्याप्त सहायता करता है, जो कोई अपने मां-बाप की सेवा करता है और उनकी ज़रूरतों को पूरा करता है और उनके साथ भलाई करता है और उन्हें दुखी नहीं करता।

मां-बाप की सेवा और उनके साथ भलाई करने वाली संतान को ईश्वर स्वर्ग में अपने विशिष्ट बंदों का साथी बनाता है। उल्लेखनीय है कि धर्म में गहरी आस्था रखने वालों की सबसे महत्वपूर्ण इच्छा लोक व परलोक में ईश्वर के विशिष्ट एवं नेक बंदों की संगत प्राप्त करना है। ईश्वर से उनकी प्रार्थना होती है कि उन्हें उसके नेक बंदों के साथ मौत आए और प्रलय के दिन उन्हीं के साथ उनका हिसाब किताब हो।

धर्म में गहरी आस्था रखने वाला व्यक्ति, ईश्वर की कृपा एवं प्रसन्नता प्राप्त करने के लिए अथक प्रयास करता है। ईश्वर की कृपा का पात्र बनने और उसकी प्रसन्नता प्राप्ति के एक मार्ग मां-बाप की सेवा और उनका आदर है। इसके प्रतिफल के रूप में ईश्वर उसे अपने नेक और भले बंदों का साथी बना देता है। पैग़म्बरे इस्लाम फ़रमाते हैं, जो कोई अपने मां-बाप की ओर से हज करता है और उनका क़र्ज़ अदा करता है, प्रलय के दिन ईश्वर उसे नेक बंदों का साथी बना देता है।

मां-बाप की सेवा और आदर के परिणाम स्वरूप प्राप्त होने वाले प्रतिफल के रूप में कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि परलोक में स्वर्ग एवं अन्य ईश्वरीय अनुकंपाओं की प्राप्ति के अलावा, इससे इस दुनिया में भी हमारा जीवन और भाग्य प्रभावित होता है और जीवन के अनेक सुख प्राप्त होते हैं। यहां इस बिंदु की ओर संकेत करना उचित होगा कि मां-बाप की सेवा प्रत्येक स्थिति में एक सराहनीय कार्य है, लेकिन संतान अगर स्वयं अपने हाथों से यह कार्य करती है तो उसका विशेष महत्व होता है। इस्लामी इतिहास में है कि इब्राहीम नामक एक व्यक्ति ने इमाम जाफ़र सादिक़ (अ) की सेवा में उपस्थित होकर कहा, हे इमाम मेरे पिता बहुत बूढ़े और कमज़ोर हैं, इस प्रकार से कि वे अपनी प्राकृतिक ज़रूरतों को भी स्वयं अंजाम देने में असमर्थ हैं, इसी कारण मैं ख़ुद उन्हें अपने कांधों पर उठाता हूं और इस प्रकार उनकी सहायता करता हूं। इमाम ने फ़रमाया, जहां तक संभव हो स्वयं ही यह सेवा करो और भोजन कराते समय स्वयं अपने हाथों से उनके लिए निवाला बनाओ, इसलिए कि इस प्रकार की सेवा प्रलय के दिन नरक की आग की ढाल बनेगी।

मां-बाप की सेवा और उनके आदर का जहां इंसान को यह प्रतिफल मिलता है, वहीं उन्हें दुख पहुंचाना और उनका अनादर करना, सबसे बड़ा पाप है। यह एक ऐसा पाप है जिसका दंड देने के लिए ईश्वर प्रलय के दिन की प्रतीक्षा नहीं करता है, बल्कि ऐसे पापी को इस दुनिया में ही उसकी कुछ सज़ा मिल जाती है। इस संदर्भ में पैग़म्बरे इस्लाम (स) फ़रमाते हैं, तीन पाप ऐसे हैं, जिनके दंड के लिए प्रलय की प्रतीक्षा नहीं की जाती है, मां-बाप का अभिशाप, लोगों पर अत्याचार करना और दूसरों की भलाई एवं अच्छाई का आभार व्यक्त नहीं करना।

आज के आधुनिक दौर में चीज़ें तेज़ी से बदल रही हैं। पारिवारिक एवं सामाजिक मूल्य भी इन परिवर्तनों से अछूते नहीं हैं। कुछ समाजों में पारिवारिक रिश्तों में अब वह गरमी महसूस नहीं की जाती है। मां-बाप और बच्चे एक परिवार में रहते हुए भी कई कई दिन एक दूसरे से नहीं मिल पाते हैं। इस प्रकार की जीवन शैली भावनाओं को समाप्त कर देती है।

दुर्भाग्यवश हम देखते हैं कि इस तरह के माहौल में बड़े होने वाले बच्चे मां-बाप की सेवा भावना से बहुत दूर होते हैं, यहां तक कि उनका आदर तक नहीं करते। वे अपने बूढ़े मां-बाप को अपने पैरों की ज़ंजीर समझते हैं और हमेशा उनसे दूरी बनाकर रखना चाहते हैं। निश्चित रूप से इस स्थिति के लिए मां-बाप ही ज़िम्मेदार होते हैं, इसलिए कि उन्होंने अपने बच्चों के पालन-पोषण में व्यवाहरिक सिद्धांतों की उपेक्षा की है या अपने मां-बाप की अवहेलना करके अपने बच्चों के लिए इस तरह का आदर्श पेश किया है।

नैतिकता की जड़ें परिवार और पालन-पोषण की शैली में होती हैं। परिवार जितना मानवीय एवं नैतिक मूल्यों से दूर होगा परिवार उतना ही बिखरा हुआ होगा। लेकिन इसके लिए केवल मां-बाप को ही ज़िम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता, बल्कि सामाजिक एवं सांस्कृतिक नियमों की भी इसमें महत्वपूर्ण भूमिका है। उदाहरण स्वरूप, पश्चिम में मां-बाप को अपने बच्चों के निजी जीवन में हस्तक्षेप तक का अधिकार नहीं है। पश्चिम के सामाजिक नियम मां-बाप और संतान को एक दूसरे के मुक़ाबले में ला खड़ा करते हैं।

बहरहाल मां-बाप की सेवा और आदर का जितना महत्व है और संतान के जीवन पर उसका जितना प्रभाव पड़ता है, उन्हें दुखी करने और उनके अनादर का उतना ही अधिक नकारात्मक प्रभाव भी पड़ता है। इतिहास में है कि एक युवा की मौत के समय पैग़म्बरे इस्लाम (स) उसके पास गए और उससे कहा, कहो, अल्लाह के अलावा कोई ईश्वर नहीं है, लेकिन युवक की ज़बान बंद हो गई और वह कुछ बोल नहीं पाया। पैग़म्बरे इस्लाम ने कई बार उससे दोहराने के लिए कहा, लेकिन वह दोहरा नहीं सका। पैग़म्बरे इस्लाम ने निकट बैठी महिला से पूछा, क्या इस युवक की मां है? उस महिला ने कहा, हां, मैं ही इस युवक की मां हूं। पैग़म्बर ने उससे पूछा क्या तुम उससे अप्रसन्न हो? महिला ने उत्तर दिया, हां, 6 वर्ष हो गए हैं, मैंने उससे बात नहीं की है। पैग़म्बरे इस्लाम ने उस महिला से कहा अपने बेटे को क्षमा कर दो, महिला ने कहा हे ईश्वरीय दूत आप की प्रसन्नता के कारण मैंने उसे क्षमा किया। उसके बाद पैग़म्बरे इस्लाम ने युवक की ओर देखकर फ़रमाया, कहो अल्लाह के अलावा कोई ईश्वर नहीं है। इस समय युवक ने यह दोहराया और कुछ समय बाद उसका निधन हो गया।

 

 

 

 

ईरान की इस्लामी क्रांति के दूसरे सुप्रीम लीडर सैयद अली ख़ामेनई पुत्र सैयद जवाद (पैदाइशः 19 अप्रैल 1939 ईसवी/ 29 फ़रवरदीन 1318 हिजरी शमसी/ 28 सफ़र 1358 हिजरी क़मरी)

​सैयद अली हुसैनी ख़ामेनई पुत्र स्वर्गीय हुज्जतुल इस्लाम वल मुस्लेमीन अलहाज सैयद जवाद हुसैनी ख़ामेनई, 29 फ़रवरदीन सन 1318 हिजरी शमसी बराबर 1358 हिजरी क़मरी (19 अप्रैल 1939 ईसवी) को पवित्र नगर मशहद में पैदा हुए।    

वह अपने भाई बहनों में दूसरे नंबर पर हैं। स्वर्गीय सैयद जवाद ख़ामेनई की ज़िन्दगी भी दूसरे धर्मगुरुओं और धार्मिक शिक्षा केन्द्रों के उस्तादों की तरह बहुत सादा थी। “हमारे पिता मशहूर धर्मगुरू थे, मगर बहुत ही नेक थे। हमारी ज़िन्दगी बहुत कठिनाई में गुज़रती थी। मुझे याद है, ऐसी रातें भी आती थीं जब हमारे घर में रात का खाना नहीं होता था। हमारी माँ बहुत मुश्किल से हमारे लिए रात के खाने का इंतेज़ाम करती थीं। रात के खाने में बस रोटी और किशमिश होती थी।”

जिस घर में सैयद जवाद का परिवार रहता था, वह मशहद के ग़रीबों के मोहल्ले में था। “मेरे वालिद का घर जहाँ मैं पैदा हुआ और 4-5 साल तक जहाँ रहा, 60-70 वर्गमीटर का घर था जो मशहद के ग़रीबों के मोहल्ले में था। उसमें एक कमरा था और घुप अंधेरे वाला तहख़ाना जहाँ घुटन महसूस होती थी।

चूंकि पिता धर्मगुरू थे और लोग उनसे मिलने और धार्मिक सवाल पूछने आते थे, इसलिए आम तौर पर आना जाना रहता था। जब हमारे पिता का कोई मेहमान आ जाता था तो हम सबको मेहमान के जाने तक तहख़ाने में रहना होता था। बाद में कुछ लोगों ने जो पिता को मानते थे, उसी घर से मिली ज़मीन का एक टुकड़ा ख़रीद कर उसी घर में शामिल कर दिया। इस तरह हमारे पास तीन कमरे हो गए।”

1 परिवार

पिता:

उनके पिता सैयद जवाद ख़ामेनेई 20 जमादिस्सानी सन 1313 हिजरी क़मरी, 16 आज़र सन 1274 हिजरी शमसी, बराबर 7 दिसंबर 1895 ईसवी को पैदा हुए। उनका देहांत 14 तीर सन 1365 हिजरी शमसी बराबर 5 जुलाई 1986 ईसवी को हुआ। वह अपने दौर में बड़े धर्मगुरूओं में गिने जाते थे। वह इराक़ के पवित्र नगर नजफ़ में पैदा हुए और बचपन में अपने परिवार के साथ ईरान के तबरेज़ शहर आ गए। इस्लामी धर्मशास्त्र में इज्तेहाद नामी दर्जे से पहले की शिक्षा पूरी करके क़रीब 1955 में पवित्र नगर मशहद चले गए। (8) वहाँ धर्मगुरू आग़ा हुसैन क़ुम्मी, मीर्ज़ा मोहम्मद आक़ाज़ादे ख़ुरासानी (कफ़ाई) मीर्ज़ा महदी इस्फ़हानी और हाजी फ़ाज़िल ख़ुरासानी से धर्मशास्त्र और उसके नियम की शिक्षा तथा आक़ा बुज़ुर्ग हकीम शहीदी और शैख़ असदुल्लाह यज़्दी से दर्शनशास्त्र की शिक्षा हासिल की। (9) उसके बाद सन 1964 में इराक़ के पवित्र नगर नजफ़ अशरफ़ चले गए और वहाँ मीर्ज़ा मोहम्मद हुसैन नाईनी, सैयद अबुल हसन इस्फ़हानी और आक़ा ज़ियाउद्दीन इराक़ी से ज्ञान हासिल किया और इन तीनों बड़े धर्मगुरूओं से ‘इज्तेहाद’ की इजाज़त भी ली।(10) उन्होंने ईरान वापस आने का इरादा किया और मशहद गए और फिर वहीं बस गए। वहां पढ़ाने के साथ ही मशहद के बाज़ार की मस्जिद सिद्दीक़ीहा या आज़राबाइजानिहा मस्जिद में इमाम हो गए।(11) वह इसी तरह जामा मस्जिद गौहर शाद के इमामों में भी गिने जाते थे। उन्हें किताबें पढ़ने का बहुत शौक़ था। अपने बराबर के धर्मगुरूओं जैसे हाजी मीर्ज़ा हुसैन अबाई, हाजी सैयद अली अकबर ख़ूई, हाजी मीर्ज़ा हबीब मलेकी वग़ैरह के साथ ग्रुप स्टडी दसियों साल जारी रही। वह बहुत ही परहेज़गार और दुनिया की मोह माया से दूर रहने वाले इंसान थे। उन्होंने संतों की तरह सादा ज़िन्दगी गुज़ारी।(13)

इस्लामी क्रांति की कामयाबी के बाद उनके बेटे उच्च राजनैतिक व प्रशासनिक पदों पर थे, लेकिन इसके बावजूद उन्होंने अपनी सादी ज़िन्दगी की शैली बाक़ी रखी। उनकी शख़्सियत उच्च मानवीय गुणों से सुसज्जित थी जिसकी वजह से लोग उनका बहुत सम्मान करते थे। उन्हें इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम की मुबारक ज़रीह के पीछे बरामदे में दफ़्न किया गया। (14)

आयतुल्लाहिल उज़मा ख़ामेनेई के पिता के देहांत पर आपके नाम इमाम ख़ुमैनी ने शोक संदेश में आयतुल्लाह सैयद जवाद ख़ामेनेई को परहेज़गार धर्मगुरू के नाम से याद किया।(15)

आयतुल्लाहिल उज़मा ख़ामेनेई के परदादा सैयद मोहम्मद हुसैनी तफ़रेशी थे जिनका शजरा या फ़ैमिली ट्री अफ़तसी सादात से मिलता है और अफ़तसी सादात का फ़ैमिली ट्री सुल्तानुल उलमा अहमद तक जाता है जो सुल्तान सैयद अमहद के नाम से मशहूर थे और फिर पांच नसलों के बाद पैग़म्बरे इस्लाम के चौथे उत्तराधिकारी इमाम ज़ैनुल आबेदीन अलैहिस्सलाम से मिलता है।

आयतुल्लाहिल उज़मा ख़ामेनेई के दादा सैयद हुसैन ख़ामेनेई (पैदाइश क़रीब 1259 हिजरी क़मरी, देहांत 20 रबीउस सानी 1325 हिजरी क़मरी) ख़ामेना में पैदा हुए और नजफ़ अशरफ़ में बड़े धर्मगुरूओं जैसे सैयद हुसैन कोह कमरई, फ़ाज़िल ईरवानी, फ़ाज़िल शर्बियानी, मीर्ज़ा बाक़िर शकी और मीर्ज़ा मोहम्मद हुसैन शीराज़ी से ज्ञान हासिल किया। नजफ़ अशरफ़ के धार्मिक केन्द्र में शिक्षा व तत्वदर्शिता के दर्जे तय करने के बाद, शिक्षकों व वरिष्ठ धर्मगुरुओं के हल्क़े में शामिल हो गए। सन 1316 हिजरी क़मरी में वह तबरेज़ आए (1) और तालेबिया मदरसे में उस्ताद और शहर में जुमे की नमाज़ के इमाम नियुक्त हुए। (2) वह उच्च राजनैतिक व सामाजिक विचार रखने वाले धर्मगुरू थे। वह संवैधानिक क्रांति के समर्थक धर्मगुरूओं में थे। वह लोगों को हमेशा संवैधानिक क्रांति के आंदोलन का समर्थन करने के लिए प्रेरित करते रहते थे। (3) ज्ञान के क्षेत्र में उनकी रचनाओं को जिसमें रियाज़ुल मसाएल, क़वानीनुल उसूल, शैख़ अंसारी की मकासिब, फ़राएदुल उसूल और शरहे लुमा किताबों पर लिखे गए हाशिए को नजफ़ में शूश्तरी इमामबाड़े की लाइब्रेरी में वक़्फ़ कर दिया गया।(4) संवैधानिक क्रांति के क्रांतिकारी धर्मगुरू व संग्रामी शैख़ मोहम्मद ख़याबानी उनके शिष्य और दामाद थे।(5) आयतुल्लाहिल उज़मा ख़ामेनेई के चाचा सैयद मोहम्मद ख़ामेनेई उर्फ़ पैग़म्बर (पैदाइश 1293 हिजरी क़मरी नजफ़ अशरफ़, देहांत शाबानुल मोअज़्ज़म 1353 नजफ़ अशरफ़, आख़ुन्द ख़ुरासानी, शरीअत इस्फ़हानी और नजफ़ के दूसरे बड़े धर्मगुरूओं के शिष्य थे। वह अपने दौर के मामलों के बारे में पूरी तरह जागरुक थे और संवैधानिक क्रांति के समर्थकों में गिने जाते थे। (7)

माँ

आयतुल्लाहिल उज़मा ख़ामेनेई की माँ बानो मीर दामादी (पैदाइश 1239 हिजरी शमसी बराबर 1914 ईसवी, देहांत 1368 हिजरी शमसी बराबर 1989 ईसवी) सादा व पाक जीवन बिताने वाली, इस्लामी शरीआ, क़ुरआन और हदीस की पाबंद, इतिहास और साहित्य से लगाव रखने वाली महिला थीं। वह पहलवी शासन के ख़िलाफ़ आंदोलन के दौरान, अपने संग्रामी व क्रांतिकारी बेटों ख़ास तौर पर सैयद अली ख़ामेनेई के साथ रहीं। (16)

आयतुल्लाहिल उज़मा ख़ामेनेई अपनी माँ के बारे में बताते हैः मेरी माँ बहुत ही समझदार व शिक्षित थी, सेल्फ़ स्टडी और शायरी में लगाव था, हाफ़िज़ शीराज़ी के शेरों की अच्छी समझ थी, कुरआन अच्छी तरह समझती थीं, उनकी आवाज़ बहुत मीठी थी।

जब हम छोटे थे तो सब उनके पास बैठ जाते थे और माँ बहुत ही मधुर व मीठे अंदाज़ में पवित्र क़ुरआन की तिलावत करती थीं। हम सारे बच्चे उनके पास इकट्ठा हो जाते थे और वह ख़ास मौक़ों पर पैग़म्बरों की ज़िन्दगी के बारे में हमें आयतें सुनाती थीं। हम ने ख़ुद हज़रत मूसा की ज़िन्दगी, हज़रत इब्राहीम की ज़िन्दगी और दूसरे पैग़म्बरों की ज़िन्दगी के बारे में आयतें और बातें अपनी माँ से सुनीं। क़ुरआन की तिलावत करते वक़्त जब उन आयतों पर पहुंचती थीं, जिन में पैग़म्बरों के नाम हैं, तो उन आयतों के बारे में तफ़सील से बताती थीं।

आयतुल्लाह सैयद हाशिम नजफ़ाबादी (मीर दामादी, पैदाइश 1303 हिजरी क़मरी, देहांत 1380 हिजरी क़मरी) आयतुल्लाहिल उज़मा ख़ामेनेई के नाना थे। (वह सफ़वी काल के मशहूर दर्शनशास्त्री मीर दामाद के ख़ानदान से थे) वह आख़ुन्द ख़ुरासानी और मीर्ज़ा मोहम्मद हुसैन नाइनी के शिष्यों में थे। उनका बड़े धर्मगुरुओं में शुमार होता था। वह पवित्र क़ुरआन के व्याख्याकार और गौहर शाद मस्जिद के इमामों में थे। (17) वह लोगों को बुराई से रोकने और अच्छाई के लिए प्रेरित करने पर ख़ास तौर पर अमल करते थे। गौहर शाद मस्जिद में नरसंहार पर एतेराज़ करने पर शासक रज़ा शाह के शासन काल में उन्हें जिला वतन करके सेमनान भेज दिया गया था। (18) माँ के फ़ैमिली ट्री की नज़र से आयतुल्लाहिल उज़मा ख़ामेनेई का फ़ैमिली ट्री इमाम जाफ़र सादिक़ के बेटे मोहम्मद दीबाज से मिलता है। (19)

2 ज्ञान और संस्कृति के क्षेत्र में ज़िन्दगी

2.1 शिक्षा हासिल करना और पढ़ाना

मशहद में पढ़ाई

सैयद अली ख़ामेनेई ने 4 साल की उम्र से मकतब में कुरआन की शिक्षा हासिल करना शुरू किया। मशहद के पहले इस्लामी स्कूल दारुत्तालीम दियानती में प्राइमरी की शिक्षा हासिल की। (20) साथ ही उन्होंने मशहद के कुछ क़ारियों के पास जाकर क़ुरआन को पढ़ने के तरीक़े का ज्ञान हासिल किया जिसे क़ेरत व तजवीद कहते हैं। (21) प्राइमरी में पांचवीं क्लास में पहुंचे तो धार्मिक शिक्षा भी शुरू कर दी। धार्मिक शिक्षा ले लगाव और माँ-बाप की तरफ़ से प्रोत्साहन मिलने के नतीजे में प्राइमरी के बाद वह पूरी तरह धार्मिक शिक्षा के छात्र बन गए और सुलैमान ख़ान मदरसे में धार्मिक शिक्षा हासिल करने लगे। उन्होंने कुछ आरंभिक किताबें अपने पिता से पढ़ीं। फिर उन्होंने नव्वाब स्कूल में दाख़िला लिया और इज्तेहाद के दर्जे से पहले की पढ़ाई पूरी की। इसी बीच आयतुल्लाहिल उज़मा ख़ामेनेई ने हाई स्कूल की भी पढ़ाई की। (22)

उन्होंने धर्मशास्त्र के नियम की किताब मआलेमुल उसूल आयतुल्लाह सैयद जलील हुसैनी सीस्तानी से पढ़ी और धर्मशास्त्र की अहम किताब शरहे लुमा पिता और मीर्ज़ा अहमद मुदर्रिस यज़्दी से पढ़ी।  धर्मशास्त्र के नियम की एक और अहम किताब रसाएल और धर्मशास्त्र की सबसे बड़ी किताब मकासिब और धर्मशास्त्र के नियम की आख़िरी दर्जे की किताब किफ़ाया अपने पिता और आयतुल्लाह हाजी शैख़ हाशिम क़ज़वीनी से पढ़ी। सन 1334 हिजरी शमसी मुताबिक़ 1955 को आयतुल्लाह सैयद मोहम्मह हादी मीलानी की इज्तेहाद की क्लास में भाग लिया।

नजफ़ में पढ़ाई

सन 1336 हिजरी शमसी बराबर 1957 ईसवी को सैयद अली ख़ामेनेई अपने परिवार के साथ नजफ़ अशरफ़ गए। नजफ़ अशरफ़ के धार्मिक शिक्षा केन्द्र के मशहूर उस्तादों जैसे आयतुल्लाह सैयद मोहसिन अलहकीम, आयतुल्लाह सैयद अबुल क़ासिम अलख़ूई, आयतुल्लाह सैयद महमूद शाहरूदी, आयतुल्लाह मीर्ज़ा बाक़िर ज़न्जानी और आयतुल्लाह मीर्ज़ा हसन बुजनोर्दी की क्लासों में शामिल हुए, मगर पिता वहाँ ठहरना नहीं चाहते थे, इसलिए मशहद वापस आ गए। (23) और एक साल तक आयतुल्लाह मीलानी की क्लास में भाग लेते रहे। उसके  बाद सन 1958 को धार्मिक शिक्षा को जारी रखने के लिए क़ुम के धार्मिक शिक्षा केन्द्र में दाख़िला लिया। (24) उसी साल क़ुम जाने से पहले आयतुल्लाह मोहम्मद हादी मीलानी ने आयतुल्लाह ख़ामेनेई को रवायतें सुनाने की इजाज़त दे दी थी। (25)

क़ुम के धार्मिक शिक्षा केन्द्र में

सैयद अली ख़ामेनेई ने क़ुम में हाजी आक़ा हुसैन बुरूजर्दी, इमाम ख़ुमैनी, हाजी शैख़ मुर्तज़ा हायरी यज़्दी, सैयद मोहम्मद मोहक़्क़िक़ दामाद और अल्लामा तबातबाई जैसे महान धर्मगुरूओं के शिष्य बनने का गौरव हासिल किया। (26) क़ुम में पढ़ाई के दौरान आयतुल्लाह ख़ामेनेई का ज़्यादातर वक़्त सेल्फ़ स्टडी और पढ़ाने में गुज़रता।

मशहद वापसी

आयतुल्लाहिल उज़मा ख़ामेनेई सन 1964 हिजरी शमसी को पिता की आँखों की रौशनी चली जाने की वजह से उनकी ख़िदमत और मदद के लिए क़ुम से मशहद लौट गए और वहां एक बार फिर आयतुल्लाह मीलानी की क्लास में जाने लगे। यह सिलसिला 1970 तक जारी रहा। मशहद लौटने के फ़ौरन बाद ही आयतुल्लाहिल उज़मा ख़ामेनेई ने धर्मशास्त्र (फ़िक़ह) और धर्मशास्त्र के नियम (उसूले फ़िक़ह) की उच्च स्तरीय किताबें (रसाएल, मकासिब, किफ़ाया) पढ़ाना शुरू कर दिया और तफ़सीर की क्लासें भी शुरू की। इन क्लासों में नौजवान और ख़ास तौर पर यूनिवर्सिटी के स्टूडेंट्स शामिल होते थे। (27) आयतुल्लाहिल उज़मा ख़ामेनेई क़ुरआन की तफ़सीर की क्लास में इस्लाम के नज़रिये और इस्लाम की वैचारिक बुनियादों को बयान करते और उद्दंडी शाही हुकूमत के ख़िलाफ़ संघर्ष करते और उसे गिराने के लिए कार्यवाही की ज़रूरत के विचार को फैलाते थे। तफ़सीर की क्लास में शामिल होने वाला इस नतीजे पर पहुंच जाता था कि देश में इस्लाम और इस्लामी शिक्षाओं पर आधारित शासन का गठन ज़रूरी है। तफ़सीर की क्लासों का एक अहम मक़सद इस्लामी क्रांति की वैचारिक बुनियादों को समाज में फैलाना था। सन 1968 ईसवी से आयतुल्लाहिल उज़मा ख़ामेनेई ने धार्मिक स्टूडेंट्स के लिए तफ़सीर की ख़ास क्लासेज़ शुरू की। ये क्लासें सन 1977 में उनकी गिरफ़्तारी और जिला वतन के रूप में उन्हें ईरान शहर भेजे जाने तक जारी रहीं। (28) बाद में राष्ट्रपति बनने के कुछ बरसों में फिर तफ़सीर की क्लासों का सिलसिला शुरू हुआ।......