
رضوی
आशूरा के पैग़ाम को फैलाने में महिलाओं की भूमिका
कर्बला वालों की शहादत और रसूले इस्लाम (स) के अहलेबैत (अ) को बंदी बनाये जाने के दौरान औरतों ने अपनी व़फादारी, त्याग व बलिदान द्वारा इस्लामी आंदोलन में वह रंग भरे हैं जिनकी अहमियत का अनुमान लगाना भी मुश्किल है। बाप, भाई, पति और कलेजे के टुकड़ों को इस्लाम व कुरआन की बक़ा के लिए अल्लाह की राह में मरने की अनुमति दे देना और घाव और खून से रंगीन जनाज़ों पर शुक्र का सजदा करना आसान बात नहीं है इसी बात ने अंतरात्मा के दुश्मन हत्यारों को मानवता की नज़रों में अपमानित कर दिया, माँओं, बहनों और बेटियों के आंसू न बहाने ने मुरदा दिलों को भी झिंझोड़ कर रख दिया मगर वह खुद पूरे सम्मान और महिमा के साथ क़ैद व बंद के सभी चरणों से गुजर गईं और शिकवे का एक शब्द भी ज़बान पर नहीं आया, इस्लाम की मदद की राह में पहाड़ की तरह दृढ़ रहीं और अपने संकल्प व हिम्मत के तहत कूफ़े व शाम के बाजारों और दरबारों में हुसैनियत की जीत के झंडे लहरा दिये।
हज़रत ज़ैनब (स) और उनके हम क़दम और हम आवाज़ उम्मे कुलसूम (स) रुक़य्या (स) रबाब (स) लैला (स) उम्मे फ़रवह (स) सकीना (स) फ़ातिमा (स) और आतेका (स) तथा इमाम (अ) के असहाब व अंसार की त्यागी औरतों ने बहादुरी और त्याग व बलिदान के वह इतिहास रचा है जिसको किसी भी सूरत इतिहास के पन्नों से मिटाया नहीं जा सकता इसलिए आशूरा को इमाम हुसैन (अ) की शहादत के बाद जब अहले हरम के ख़ैमों में आग लगा दी गई बीबियों के सरों से चादरें छीन ली गईं तो जलते खैमों से निकलकर मज़लूम औरतें और बच्चे कर्बला की जलती रेत पर बैठ गए।
ज़ै इमाम सैयद सज्जाद (अ) बेहोशी की हालत में थे जनाब नब अ. ने अपनी बहन उम्मे कुलसूम (स) के साथ आग के शोलों से खुद को बचा बचा कर भागते बच्चों को एक जगह जमा किया, किसी बच्चे के पैर में आग लगी थी तो किसी के गाल पर तमांचों के निशान थे कोई ज़ालिमों के हमलों के दौरान पैर तले दब कर जान दे चुका था तो कोई प्यास की शिद्दत से दम तोड़ रहा था।
क़यामत की रात जिसे शामे ग़रीबा कहा जाता है, हुसैन (अ) की बहनों ने अब्बास (अ) की तरह पहरा देते हुए टहल टहल कर गुज़ार दी। ग्यारह मुहर्रम की सुबह यज़ीद की फ़ौज, शिम्र और ख़ूली के नेतृत्व में रस्सियों और ज़नजीरे लेकर आ गया। औरतें रस्सियों में जकड़ दी गईं और सैयद सज्जाद अ. के गले में तौक़ और हाथों और पैरों में ज़नजीरें डाल दी गईं। बे कजावा ऊंटों पर सवार, औरतों और बच्चों को मक़तल से लेकर गुज़रे और बीबियां कर्बला की जलती रेत पर अपने वारिसों और बच्चों के बे सर लाशे छोड़कर कूफ़ा रवाना हो गईं लेकिन इस मुसीबत में भी अहले हरम के चेहरों पर दृढ़ता व ईमान की किरणें बिखरे हुई थीं न घबराहट, न चिंता, न पछतावा, न शिकवा।
मज़लूमियत का यही वह मोड़ है जो बताता है कि इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम अपने इस क्रांतिकारी अभियान में अहले हरम को साथ लेकर क्यों निकले थे? और जनाबे ज़ैनब (स) को क्यों भाई की हमराही पर इतना इसरार था? और इब्ने अब्बास के मना करने पर क्यों इमाम हुसैन (अ) ने कहा था कि “अल्लाह उन्हें बंदी देखना चाहता है” केवल मांओ की गोदीं से दूध पीते बच्चों की क़ुर्बानियां, उनके करबला आने का असली मक़सद नहीं हो सकतीं, जवान बेटों और भाइयों और नौनेहालों की लाशों पर सब्र व शुक्र के सजदे भी उनकी हमराही का असली मक़सद नहीं कहे जा सकते।
बल्कि अहले हरम की असीरी, कर्बला का एक पूरा अध्याय है अगर हुसैन (अ) औरतों को साथ न लाते और उन्हें असीरों की तरह कूफ़ा व शाम न ले जाया जाता तो बनी उमय्या के शातिर नौकर, कर्बला में दिये गये रसूल इस्लाम स. के परिवार के महान बलिदान को बर्बाद कर देते।
यज़ीदी जुल्म व तानाशाही के दौर में जान-माल के ख़ौफ़ और घुटन के साथ दुनिया की लालच व हवस का जो बाजार गर्म था।
और कूफ़ा व शाम में बसे आले उमय्या के नौकरों के लिये बैतुलमाल का दहाना जिस तरह खोला गया था अगर हुसैन (अ) के अहले हरम न होते और हज़रत ज़ैनब (अ) और इमाम सज्जाद (अ) के नेतृत्व में कर्बला के बंदियों ने ख़ुतबों और तक़रीरों से जिहाद न किया होता तो कर्बला की ज़मीन पर बहने वाला शहीदों का खून बर्बाद हो जाता और दुनिया को ख़बर न होती कि आबादी से मीलों दूर कर्बला की गर्म रेत पर किया घटना घटी और इस्लाम व कुरआन को कैसे भालों और तलवारों से ज़िबह कर दिया गया।
दरअसल यज़ीद लश्कर अहले हरम को बाजारों और दरबारों में ज़लील व रुसवा कर देने के लिए ले गया था मगर रसूल स. के अहलेबैत ने अपने बयान व ख़ुत्बों से खुद यज़ीद और यज़ीदियों को क़यामत तक के लिए अपमानित व नाकाम कर दिया। जनाबे ज़ैनब ने ज़ालिम को मुंह छिपाने की मोहलत नहीं दी और यज़ीद का असली चेहरा बेनक़ाब कर दिया।
इंतेख़ाबे शहादत
वाक़ेया ए करबला रज़्म व बज़्म, सोज़ व गुदाज़ के तास्सुरात का मजमूआ नही, बल्कि इंसानी कमालात के जितने पहलु हो सकते हैं और नफ़सानी इम्तियाज़ात के जो भी असरार मुमकिन हैं उन सब का ख़ज़ीनादार है, सानेहा ए करबला तारीख़ का एक दिल ख़राश वाक़ेया ही नही, ज़ुल्म व बरबरियत और ज़िन्दगी की एक ख़ूँ चकाँ दास्तान ही नही, फ़रमाने शाही में दर्ज नंगी ख़्वाहिशों की रुदादे फ़ितना ही नही बल्कि हुर्रियते फ़िक्र, निफ़ाज़े अदल और इंसान के बुनियादी हुक़ूक़ की बहाली की एक अज़ीमुश शान तहरीक भी है।
वाक़ेया ए करबला बाक़ी तारीख़ी वक़ायए में एक मुम्ताज़ मक़ाम और जुदागाना हैसियत रखता है चुनाँचे वह अपने मुनफ़रिद वसायल व ज़रायेअ और बुलंद व वाज़ेह अहदाफ़ व मकासिद ले कर तारीख़ की पेशानी पर चमकते हुए सितारे की मानिन्द नुमायाँ हुआ और ज़ुल्म व बरबरियत, ला क़ानूनियत, जाहिलियत के अफ़कार व नज़रियात, मुलूकियत के तारीक और इस्लाम दुश्मन अनासिर के बनाए ज़ुल्मत कदों में रौशन चिराग़ बन कर ज़हूर पज़ीर हुआ।
जब इस्लाम का चिराग़ ख़ामोंश किया जा रहा था और बनामे इस्लाम ख़िलाफ़े दीन व शरीयत अमल अंजाम दिये जा रहे थे, ज़लालत की तारीकी ने जहान को अपनी आग़ोश में समेट लिया था इंसान के बुनियादी हुक़ूक़ की ख़िलाफ़ वर्ज़ी आमेराना सोच को जन्म दे चुकी थी आमिरे मुतलक़ की ज़बान से निकला हुआ हर लफ़्ज़ क़ानून का दर्जा इख़्तियार कर चुका था और गुलशने हस्ती से सर उठा कर चलने का दिल नवाज़ मौसम रुख़सत हो चुका था, सिर्फ़ इस्लाम का नाम बाक़ी था, वह भी ऐसा इस्लाम कि जिस का रहबर यज़ीदे पलीद था, लोग कुफ़्र को ईमान, ज़ुल्म को अद्ल, झूट को सदाक़त, मयनोशी व ज़ेनाकारी को तक़वा व फ़ज़ीलत, फ़रेबकारी को इफ़्तेख़ार समझते थे और हक़ को उस के हमराह जानते थे कि जो क़ुदरत के साथ शमशीर ब कफ़ हो, अपने और बेगाने यही तसव्वुर करते थे कि यज़ीद ख़लीफ़ ए पैग़म्बर, हाकिमे इस्लाम और मुजरी ए अहकामे क़ुरआन है चूँ कि उस के क़ब्ज़ा ए क़ुदरत में हुकूमत और ताक़त है और हमेशा ऐसे ही रहेगी क्योकि यह हुकूमते इस्लामी है जिस का शेयार यह है कि व ला ख़बरुन जाआ व ला वहीयुन नज़ल।
गोया नक़्शे इस्लाम हमेशा के लिये सफ़ह ए हस्ती से मिटने वाला था और इंसानियत के लिये कोई उम्मीद बाक़ी न रह गई थी हर तरफ़ तारीकी अपने गेसू फ़ैलाए हुए थी।
ऐसे वक़्त में ख़ुरशीदे शहादत ने तूलू हो कर शहादत की शाहराह पर अज़्म व जुरअत के ऐसे बहत्तर चिराग़ रौशन किये कि जो महकूम अक़वाम, मज़लूम तबक़ात और इस्तेमार के ख़िलाफ़ अपनी आज़ादी की जंग लड़ने वाले हुर्रियत पसंदों के लिये मीनार ए नूर बन गये। इमाम हुसैन (अ) ने अपनी शहादत के ज़रिये ऐलान कर दिया तारीकी नही है, इस्लाम सिर्फ़ ताक़त का नाम नही है, हक़ व हक़ीक़त आशकार हो गई और हुज्जत ख़ल्क़ पर तमाम हो गई।
जब इमाम हुसैन (अ) ने यह देखा कि इस्लाम के पाकीज़ा व आला तरीन निज़ाम की हिफ़ाज़त की ज़मानत फ़राहम करने का सिर्फ़ एक ही रास्ता है तो आप ने दिल व जान से शहादत को क़बूल फ़रमाया क्योकि उसूल व अक़ायद तमाम चीज़ों से बरतर हैं हर शय उन पर क़ुर्बान की जा सकती है मगर उन्हे किसी शय पर क़ुर्बान नही किया जा सकता।
इमाम हुसैन (अ) ने शहादत को इस लिये इख़्तियार किया क्योकि शहादत में वह राज़ मुज़मर थे कि जो ज़ाहिरी फ़तहयाबी में नही थे, फ़तह के अंदर दरख़्शंदी ए शहादत नही थी, फ़तह गौहर को संग से जुदा नही कर सकती थी, शहादत दिल में जगह बनाती है जब कि फ़तह दिल पर असर करती भी है और कभी नही भी करती, शहादत दिलों को तसख़ीर करती है फ़तहयाबी पैकर को, शहादत ईमान को दिल में डालती है, शहादत से हिम्मत व जुरअत लाती है।
शहादत मुक़द्दस तरीन शय है उस को आशकारा होना चाहिये, अगर शहादत अलनी व आशकारा न हो तो हलाकत से नज़दीक होती है।
इमाम हुसैन (अ) शहादत के रास्ते को इख़्तियार व इंतेख़ाब करने में आज़ाद थे, दलील आप का मकतूब है:
हुसैन बिन अली (अ) की जानिब से मुहम्मद हनफ़िया और तमाम बनी हाशिम के नाम:
तुम में से जो हम से आ मिलेगा वह शहीद हो जायेगा और जो हमारे साथ नही आ मिलेगा वह फ़तह व कामयाबी व कामरानी से हम किनार नही होगा।
(कामिलुज़ ज़ियारात पेज 75, बिहारुल अनवार जिल्द 44 पेज 230)
अगर इमाम हुसैन अलैहिस सलाम ज़ाहिरी फ़तह को इंतेख़ाब करते तो दुनिया में शायद पहचाने नही जाते और हुसैन बिन अली (अ) का वह किरदार कि जो किलीदे शआदत था बशरीयत पर आशकार न हो पाता। इमाम हुसैन (अ) चाहते थे कि नबी ए अकरम (स) का दीन मिटने न पाये और इंसानियत तकामुल की राहों को तय कर जाये। लिहाज़ा फ़तहे ज़ाहिरी को छोड़ कर शहादते उज़मा को इख़्तियार किया कि जिस ने फिक्रे बशर की रहनुमाई और अख़लाक़ व किरदार को बुलंद व बाला कर के जुँबिशे फिक्री व जुँबिशे आतिफ़ी को दुनिया में ईजाद कर दिया, अज़ादारी इमाम हुसैन (अ) जुँबिशे आतिफ़ी का एक जावेदान नमूना है।
शहादते हुसैनी (अ) के असरात में मशहूर है कि आशूर के दिन सूरज को ऐसा गहन लगा कि उस दिन दोपहर को सितारे निकल आये।
(नफ़सुल महमूम पेज 484)
ख़ूने हुसैन (अ) आबे हयात था कि जिस ने इस्लाम को जावेद कर के मारेफ़त के गराँ बहाँ दुर को बशरीयत के सामने पेश करते हुए सही राह दिखा कर इंसानियत को हमेशा के लिये अपना मरहूने मिन्नत कर दिया।
पेशवाए शहीदान पेज 97
इमाम सज्जाद (अ) की पहचान को केवल 'कर्बला के मरीज़' तक सीमित रखना उनकी अज़मत के साथ अन्याय है
इमाम सज्जाद (अ) की शहादत के अवसर पर, हौज़ा न्यूज़ एजेंसी ने मौलाना सैयद ग़ाफ़िर रिज़वी फ़लक छौलसी के साथ एक गहन बातचीत की, जिसमें इमाम (अ) के महान व्यक्तित्व के बौद्धिक और आध्यात्मिक पहलुओं पर प्रकाश डाला गया, जो अक्सर नज़रों से ओझल रह जाते हैं।
मौलाना सैयद ग़ाफ़िर रिज़वी फ़लक छौलसी भारत के उन विद्वानों में से एक हैं जो धर्म पर गंभीरता से बात करते हैं और लोगों को सोचने पर मजबूर करते हैं। वे एक अच्छे वक्ता, लेखक और धर्म के विद्वान हैं, जिनकी समझ और अंतर्दृष्टि है। मौलाना अपने लेखों और वक्तव्यों के माध्यम से युवाओं में धार्मिक जागरूकता, सही मान्यताओं और बौद्धिक जागरूकता पैदा करने का निरंतर प्रयास कर रहे हैं। इमाम सज्जाद (अ) की शहादत के अवसर पर आपसे हुई बातचीत पाठकों की बौद्धिक और आध्यात्मिक प्यास बुझाने के लिए प्रस्तुत है।
हौज़ा: मौलाना! इमाम सज्जाद (अ) को आमतौर पर "कर्बला के मरीज़" के रूप में याद किया जाता है। क्या यह लक़ब उनके संपूर्ण व्यक्तित्व को दर्शाती है?
मौलाना ग़ाफ़िर रिज़वी: यह लक़ब केवल एक ऐतिहासिक क्षण से जुड़ा है, न कि इमाम के संपूर्ण व्यक्तित्व का आईना है। इमाम ज़ैनुल-आबेदीन (अ) की असली पहचान "ज़ैनुल-आबेदीन" और "सैय्यद अल-सज्जाद" है, यानी वह जो नमाज़ियों का श्रृंगार और सजदा करने वालों का नेता हो।
जब हम "बीमार" की अवधारणा में फंस जाते हैं, तो हम उनके सजदों, दुआओं, उपदेशों और बौद्धिक नेतृत्व को भूल जाते हैं। इमाम का जीवन इबादत, धैर्य और जागरूकता का एक सुंदर संयोजन है, जिसे किसी एक उपाधि तक सीमित नहीं किया जा सकता।
इमाम की बीमारी कोई कमज़ोरी नहीं, बल्कि इमामत की रक्षा के लिए एक ईश्वरीय व्यवस्था थी।
हौज़ा: क्या कर्बला में इमाम की बीमारी शारीरिक कमज़ोरी थी या ईश्वरीय कृपा?
मौलाना ग़ाफ़िर रिज़वी: यह बीमारी किसी शारीरिक कमज़ोरी का संकेत नहीं, बल्कि ईश्वरीय ज्ञान थी। अगर इमाम सज्जाद (अ) स्वस्थ होते, तो उन पर जिहाद अनिवार्य होता और वे भी कर्बला के शहीदों में शामिल होते।
इस प्रकार, इमामत का सिलसिला टूटता नहीं, बल्कि टूट जाता। उस समय इमाम मुहम्मद बाक़िर (अ) जीवित थे, और इमाम ज़ैन अल-आबेदीन (अ) की शहादत की स्थिति में, इमामत की निरंतरता, जिसे पवित्र पैगंबर (स) ने "बारह" कहा था, प्रभावित होती।
इसलिए, इमाम की बीमारी वास्तव में एक सुरक्षित मार्ग थी जिसके माध्यम से इमामत की पवित्र निरंतरता जारी रह सकती थी।
हौज़ा: क्या आपको लगता है कि हमारे धार्मिक जलसों में इमाम सज्जाद (अ) की विद्वत्तापूर्ण और आध्यात्मिक सेवाओं की उपेक्षा की जा रही है?
मौलाना ग़ाफ़िर रिज़वी: बिल्कुल! इमाम सज्जाद (अ) के व्यक्तित्व को केवल विलाप, आँसुओं और बीमारी से जोड़ना एक बहुत बड़ा विद्वत्तापूर्ण विश्वासघात है। इमाम सज्जाद (अ) ने "साहिफ़ा-ए-सज्जादिया" जैसी आध्यात्मिक पुस्तक दी, जिसमें इल्मे इलाही, आत्म-ज्ञान, सामाजिक अधिकार और सामाजिक जागरूकता के सिद्धांत समाहित हैं।
सहीफ़ा सज्जादिया केवल दुाओं का संग्रह नहीं है, बल्कि बौद्धिक जागृति, सामाजिक सुधार और ईश्वरीय ज्ञान का एक संविधान है।
उनकी इबादत,दुआएँ, रात्रिकालीन सजदा और दरबारों में दिए जाने वाले जोशीले उपदेश—ये सब उनकी सच्ची विरासत हैं, जो आज की दुनिया में मार्गदर्शन का स्रोत बन सकती हैं। लेकिन दुर्भाग्य से, ये पहलू जलसों और विलापों में कहीं खो गए हैं।
इमाम सज्जाद (अ) कूफ़ा और सीरिया में एक मूक कैदी नहीं, बल्कि एक बौद्धिक विजेता थे।
हौज़ा: आप कूफ़ा और सीरिया के दरबार में इमाम सज्जाद की उपस्थिति को कैसे देखते हैं? क्या वह सिर्फ़ एक उत्पीड़ित कैदी थे?
मौलाना ग़ाफ़िर रिज़वी: इमाम सज्जाद (अ) कूफ़ा और सीरिया के दरबार में सिर्फ़ एक उत्पीड़ित कैदी नहीं थे, बल्कि हुसैनी मिशन के एक जागरूक नेता, ईश्वरीय व्याख्याता और संरक्षक थे।
उनके उपदेश, उनका लहजा, उनका धैर्य, ये सब इस बात की गवाही देते हैं कि वह एक कैदी नहीं, बल्कि एक विजयी हृदय थे।
जिस साहस के साथ उन्होंने यज़ीद के दरबार में खड़े होकर अपने वंश और इमाम हुसैन (अ) के पद का ऐलान किया, वह केवल एक विद्वान, जागरूक और आध्यात्मिक रूप से महान इमाम ही कर सकता था।
हौज़ा: आज के युवा इमाम सज्जाद (अ.स.) के जीवन से क्या सीख सकते हैं?
मौलाना ग़ाफ़िर रिज़वी: अगर आज के युवा इमाम सज्जाद (अ.स.) को सिर्फ़ बीमारी का प्रतीक समझते हैं, तो वे सिर्फ़ मातम मनाएँगे, लेकिन अगर वे इमाम (अ) को "ज़ैनुल आबेदीनी" मानते हैं, तो वे अमल करेंगे, सजदा करेंगे, दुआ करेंगे और समाज को बदलेंगे।
युवाओं को इमाम की बीमारी से ज़्यादा उनकी खिदमत से सीखना चाहिए।
इमाम सज्जाद (अ) हमें सिखाते हैं कि क़ैद में भी, कोई अपना सिर ऊँचा रख सकता है, खामोशी से नेतृत्व कर सकता है और आँसुओं को विरोध में बदल सकता है।
ज़रूरत बस इतनी है कि हम उनकी दुआओं और सजदों को सिर्फ़ दुआ न समझें, बल्कि उन्हें एक प्रकाश स्तंभ समझें।
संकट में पेंटागन, अमेरिका में मिसाइलों की कमी से लेकर ईरानी ड्रोन की कॉपी तक
पेंटागन के पूर्व सलाहकार ने बताया है कि अमेरिका के पास सिर्फ़ 8 दिन की जंग के लिए ही मिसाइलें बची हैं।
विश्लेषकों का मानना है कि वाशिंगटन द्वारा जारी सैन्य सहायता जो कि अमेरिका की युद्धभड़काने वाली नीतियों का नतीजा है, ज़ायोनी शासन और यूक्रेन को दी जा रही है, तो अमेरिका को या तो अपनी विदेशी सैन्य प्रतिबद्धताएं कम करनी पड़ेंगी या फिर रक्षा बजट और हथियारों के उत्पादन में भारी बढ़ोतरी करनी होगी। इन दोनों ही विकल्पों के गंभीर आर्थिक और भू-राजनीतिक नतीजे सामने आएंगे।
अमेरिकी रक्षा विभाग (पेंटागन) के पूर्व सलाहकार डगलस मैकग्रेगर ने शुक्रवार को चेतावनी दी कि अगर अमेरिका विदेशों को हथियारों की आपूर्ति (ज़ायोनी शासन और यूक्रेन को भारी सहायता) का यही सिलसिला जारी रखा, तो उसके पास सिर्फ 8 दिन की लड़ाई के लिए ही मिसाइलें बचेंगी, और उसके बाद उसे "परमाणु विकल्प का सहारा लेना पड़ेगा!"
मैकग्रेगर ने यह भी कहा कि उन्हें यकीन नहीं है कि डोनल्ड ट्रम्प को इस स्थिति की जानकारी है। उन्होंने अमेरिकी राष्ट्रपति से मांग की कि वे अमेरिका के कम होते मिसाइल भंडार की वास्तविक स्थिति के बारे में जानकारी हासिल करें।
अमेरिकी नेशनल गार्ड में सुरक्षा चूक
इस बीच, अमेरिकी रक्षा विभाग ने हाल ही में एक रिपोर्ट में बताया है कि उसके नेशनल गार्ड का नेटवर्क हैक हो गया है। पेंटागन ने दावा किया कि यह हैकिंग चीनी हैकर ग्रुप ने की है।
पेंटागन की रिपोर्ट में कहा गया है: इस ग्रुप को सैन्य और सुरक्षा संबंधी जानकारी तक पहुंच हासिल हो गई है, और अधिकारी अभी भी इस बात की जांच कर रहे हैं कि हैकर्स डेटा के स्तर तक पहुंचने में कामयाब रहे।
पेंटागन अस्थिरता की चपेट में
पेंटागन में लॉयड ऑस्टिन के नेतृत्व में जारी अराजकता के बीच, अमेरिकी रक्षा मंत्री के एक और वरिष्ठ सलाहकार जस्टिन फोल्चर ने, जिसे महज तीन महीने पहले नियुक्त किया गया था, शनिवार को अपने पद से इस्तीफा दे दिया। इस संबंध में, वाशिंगटन पोस्ट ने लिखा है कि ऑस्टिन ने सत्ता में आने के बाद और सिग्नल गेट नामक महत्वपूर्ण जानकारी लीक होने के घोटाले के बाद, अपने कार्यालय के कुछ सलाहकारों और वरिष्ठ सदस्यों को हटा दिया था।
विशेषज्ञों का कहना है कि ये इस्तीफे सिर्फ़ कर्मचारियों में एक साधारण बदलाव नहीं हैं, बल्कि अमेरिकी सेना और सुरक्षा एजेंसियों में वाइट हाउस की हालिया नीतियों से गहरी नाराजगी को दर्शाते हैं। इससे पहले, अप्रैल में अमेरिकी रक्षा विभाग के कई अन्य अधिकारियों, जिनमें डैन कैल्डवेल, कॉलिन कैरोल और डैरेन सेलनिक शामिल थे, को भी बर्खास्त कर दिया गया था।
पेंटागन ने ईरानी 'शाहिद-136' ड्रोन की कॉपी की
अमेरिकी रक्षा विभाग ने हाल ही में 'LUCAS' नामक एक नया ड्रोन पेश किया है, जिसमें ईरानी शाहेद-136 ड्रोन से चौंकाने वाली समानताएं हैं। यह ड्रोन, जिसे उन्नत F-35 लड़ाकू विमान के निर्माता द्वारा डिज़ाइन किया गया है, ईरान के कामिकाज़े ड्रोन तकनीक की स्पष्ट कॉपी की एक मिसाल है।
इस ड्रोन का डिजाइन पूरी तरह से ईरानी शाहिद-136 जैसा ही है, और यह तब सामने आया है जब ट्रम्प ने अमेरिकी ड्रोनों की उत्पादन लागत की आलोचना करते हुए कहा था कि अमेरिकी ड्रोन बहुत बड़ी क़ीमत पर बनते हैं, जबकि ईरानी मॉडल समान क्षमताओं के साथ ही बहुत कम लागत पर तैयार हो जाता है।
ट्रम्प ने इस अंतर को 35-40 हज़ार डॉलर (ईरानी ड्रोन की लागत) बनाम अमेरिकी मॉडलों की लाखों डॉलर की लागत बताया था। (
शहीदों का संदेश लोगों तक पहुँचाने की ज़िम्मेदारी किसकी है?
अगर कर्बला में हज़रत इमाम हुसैन (अ) की अन्याय पूर्ण शहादत न हुई होती, और अगर हज़रत ज़ैनब (स) और इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ) ने कूफ़ा और शाम में वे सच्चे और जागरूकता भरे उपदेश न दिए होते, तो लोगों पर सच्चाई ज़ाहिर न होती, और बनी उम्य्या की अंदरूनी गंदगी और उनके अविश्वास से भरे चेहरे साफ़ न होते।
अस सलामो अलैका या अबा अब्दिल्लाहिल हुसैन (अ)
कभी-कभी पाखंड और छल का चेहरा तब तक उजागर नहीं होता जब तक कि उत्पीड़ितों का खून न बहाया जाए और शहादत न हो जाए।
अगर कर्बला में इमाम हुसैन (अ) की अन्याया पूर्ण शहादत न हुई होती, और अगर हज़रत ज़ैनब (स) और इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ) ने कूफ़ा और शाम में वे सच्चे और जागरूकता भरे उपदेश न दिए होते, तो लोगों पर सच्चाई ज़ाहिर न होती, और बनी उम्याय की अंदरूनी गंदगी और उनके कुफ़्र से भरे चेहरे साफ़ न होते।
कभी-कभी सच्चाई को उजागर करने और मुनाफ़िक़ों को बदनाम करने के लिए ख़ून बहाना और अपनी जान कुर्बान करना ज़रूरी हो जाता है। या कम से कम, शहीदों के ख़ून का पैगाम बेख़बर जनता तक पहुँचाना ज़रूरी है।
यह काम जागरूक, जागरूक और धार्मिक रूप से जागरूक व्यक्तियों की ज़िम्मेदारी है, और इसे "जिहाद-ए-तबीन" कहा जाता है; ताकि दुश्मन के झूठे प्रचार की लहर के पीछे सच्चाई छिपी न रहे।
लेखक: हुज्जतुल इस्लाम वल मुस्लेमीन जवाद मुहद्देसी
भूख और प्यास से बेहाल फिलिस्तीनियों पर इजरायली गोलीबारी
संयुक्त राष्ट्र के विश्व भोजन कार्यक्रम WFP ने एक बयान में गाजा में खाद्य सहायता प्राप्त करने के लिए कतार में खड़े नागरिकों पर इजरायली हमलों की कड़ी निंदा की है बयान के अनुसार, भूख से तड़प रहे फिलिस्तीनी नागरिकों पर इजरायली टैंकों, स्नाइपर्स और अन्य सैन्य साधनों से हमले किए गए।
संयुक्त राष्ट्र के विश्व भोजन कार्यक्रम WFP ने एक बयान में गाजा में खाद्य सहायता प्राप्त करने के लिए कतार में खड़े नागरिकों पर इजरायली हमलों की कड़ी निंदा की है बयान के अनुसार, भूख से तड़प रहे फिलिस्तीनी नागरिकों पर इजरायली टैंकों, स्नाइपर्स और अन्य सैन्य साधनों से हमले किए गए।
WFP ने कहा कि जो लोग शहीद हुए वे सिर्फ अपने परिवार के लिए आटा लेने की कोशिश कर रहे थे, जबकि वे गंभीर भूख का सामना कर रहे थे संयुक्त राष्ट्र के इस कार्यक्रम के अनुसार, गाजा में खाद्य संकट अपने सबसे खराब स्तर पर पहुंच चुका है, जहां हर तीन में से एक व्यक्ति कई दिनों तक भूखा रहता है।
संयुक्त राष्ट्र ने अंतर्राष्ट्रीय समुदाय और सभी संबंधित पक्षों से आग्रह किया है कि वे भूख से तड़पते गाजा के नागरिकों तक तुरंत और सुरक्षित खाद्य सहायता पहुंचाना सुनिश्चित करें। संस्था ने आगे कहा कि रविवार को सहायता कार्यकर्ताओं पर जायोनी गोलीबारी मानवीय सेवाओं के लिए खतरनाक हालात को दर्शाती है।
यह हमला उत्तरी गाजा के ज़ीकीम इलाके में हुआ, जब फिलिस्तीनी शरणार्थियों की एक बड़ी संख्या खाद्य सहायता के वितरण का इंतज़ार कर रही थी इस कायराना हमले में कम से कम 18 फिलिस्तीनी शहीद हो गए और दर्जनों घायल हो गए।
यह मजलूम लोग सिर्फ एक किलो आटे के लिए अपनी जान जोखिम में डालकर खड़े थे और इजरायली जुल्म ने उन्हें खून में नहला दिया।
बाल हत्यारा ग़ज़्ज़ा में भी घुटने टेकने पर मजबूर
ग़ासिब इज़राइल ने अपनी नापाक नीतियों में बदलाव करते हुए गाजा में युद्धविराम के लिए इस्लामी प्रतिरोध आंदोलन हमास के साथ गंभीर बातचीत शुरू कर दी है।
हिब्रू दैनिक हारेत्ज़ ने कहा है कि तेल अवीव ने गाजा युद्ध को समाप्त करने के लिए पहली बार हमास के साथ सीधी बातचीत शुरू की है।
मीडिया सूत्रों के अनुसार, इस बार की बातचीत पिछली बातचीत से अलग है, क्योंकि इसका मुख्य ध्यान युद्धविराम और स्थायी समाधान की दिशा में प्रगति पर है।
जानकारी के अनुसार, कब्ज़ा करने वाली सरकार ने इस बार ज़ायोनी प्रतिनिधिमंडल को काफ़ी व्यापक अधिकार दिए हैं, ताकि इस मुद्दे पर एक स्वीकार्य समझौते पर पहुँचा जा सके।
सूत्रों ने कहा है कि दोहा में चल रही बातचीत कई जटिल मुद्दों के कारण आसान नहीं है, हालाँकि, कतर में ज़ायोनी प्रतिनिधिमंडल की उपस्थिति एक सकारात्मक संकेत है कि एक समझौते की उम्मीद की जा सकती है।
यह ध्यान देने योग्य बात है कि इस संबंध में हिब्रू समाचार पत्र येदिओथ अहरोनोथ ने भी कल रात जिम्मेदार सूत्रों का हवाला देते हुए खबर दी थी कि अगले दो सप्ताह के भीतर गाजा के संबंध में समझौता संभव प्रतीत होता है।
ज़ायोनिज़्म और साम्राज्यवादी ताक़तों के ख़िलाफ़ जीत नज़दीक है :अमेरिकी पत्रकार
अमेरिकी स्वतंत्र पत्रकार और राजनीतिक कार्यकर्ता ने ज़ायोनिज़्म और साम्राज्यवाद के ख़िलाफ़ ईरानी जनता की सफलता का रहस्य एकजुटता और दृढ़ता को बताया।
कैला वॉल्श ने जो अंतर्राष्ट्रीय मीडिया फेस्टिवल "सोबह" में भाग लेने के लिए तेहरान आई हैं, ईरानी समाचार एजेंसी से हुई बातचीत में अपने विचार साझा किए। यह साक्षात्कार रविवार को प्रकाशित हुआ था।
आपको ईरान और इजरायल के बीच युद्ध की खबर कैसे मिली और आपकी प्रतिक्रिया क्या थी?
मैं लंबे समय से, यहां तक कि "तूफ़ान अल-अक्सा" से पहले भी, इस क्षेत्र की घटनाओं को फॉलो कर रही थी। फिलिस्तीन में 75 साल से जारी नरसंहार हो रहा है लेकिन इससे भी महत्वपूर्ण है इस नरसंहार, ज़ायोनिज़्म और अमेरिकी साम्राज्यवाद के ख़िलाफ सामने आने वाला प्रतिरोध। "ऑप्रेशन ट्रुथ प्रामिस-3" और 12-दिवसीय युद्ध शुरू होने पर मेरी पहली प्रतिक्रिया थी कि आखिरकार ज़ायोनी शासन को अपने कर्मों का फल मिल रहा है।
सिर्फ़ ज़ायोनी शासन ही नहीं, बल्कि पूरी अमेरिकी साम्राज्यवादी व्यवस्था, जिसने न सिर्फ फिलिस्तीन बल्कि यमन, लेबनान, सीरिया, ईरान, इराक और दुनिया के सभी उत्पीड़ित देशों के खिलाफ युद्ध छेड़ रखा है।
क्या आपको लगता है कि इज़राइल को ईरान पर हमले में सफलता मिली?
बिल्कुल नहीं। यहां आकर मैंने देखा कि ईरान के लोग कितने दृढ़, एकजुट और मजबूत हैं। यहां एकजुटता और संघर्ष की भावना बहुत प्रबल है। ईरान ने अपनी सैन्य क्षमताओं को स्वदेशी तकनीक से विकसित किया है, प्रतिबंधों के बावजूद उत्पादन किया है। ज़ायोनी शासन और अमेरिकी सरकार अपने हमलों के प्रभाव के बारे में झूठ बोल रहे हैं। वे अपनी ताक़त को बढ़ा-चढ़ाकर दिखाना चाहते हैं, लेकिन वास्तव में वे कागजी शेर से ज्यादा कुछ नहीं हैं।
ईरान ने 50 साल से अधिक समय तक, सभी कठिनाइयों के बावजूद, प्रतिरोध किया है, राज्य परिवर्तन के प्रयासों, थोपे गए युद्धों और यहां तक कि पश्चिम द्वारा किए गए नरसंहार के खिलाफ। मुझे पूरा विश्वास है कि सियोनिज़्म और साम्राज्यवादी ताकतों के खिलाफ जीत नज़दीक है।
युद्ध अभी खत्म नहीं हुआ है। यह दावा कि ईरान की परमाणु क्षमता नष्ट हो गई है, झूठ है। अमेरिका और ज़ायोनी यह प्रोपेगैंडा कर रहे हैं क्योंकि उनके कोई भी लक्ष्य पूरे नहीं हुए हैं।
ईरान की मिसाइल क्षमता के बारे में आपकी क्या राय है? जब ईरान ने इज़राइल पर हमला किया, तो आपको कैसा लगा?
मुझे लगा कि अंततः इजरायल के अपराधों का जवाब ईरानी मिसाइल हमले से मिल रहा है। अमेरिकी कार्यकर्ता माल्कम एक्स ने इसे "चिड़ियाँ घोंसले में लौट आई हैं" कहा था।
ज़ायोनी सैनिकों को मलबे से निकाले जाने के दृश्य देखना जबकि उन्होंने पूरे प्रतिरोध की धुरी में तबाही मचाई है, यह सिर्फ़ एक छोटी शुरुआत है, उससे कहीं बड़ा इन ज़ायोनियों और साम्राज्यवादियों को क़ीमत चुकानी पड़ी।
12 दिन का युद्ध तनाव को बढ़ाने वाला था। अमेरिका में, ज़ायोनी शासन पर हमले देखकर हमें बहुत संतुष्टि हुई। अमेरिका में ईरान और प्रतिरोध की धुरी के साथ एकजुटता दिखाने के लिए ईरानी झंडे लेकर विरोध प्रदर्शन हुए लेकिन हम अमेरिकियों का कर्तव्य है कि हम अपने विरोध को और बढ़ाएं क्योंकि नरसंहार और युद्ध और तेज हो रहा है।
मीडिया फेस्टिवल और अंतर्राष्ट्रीय प्रतिक्रिया
कई देशों के पत्रकार "मीडिया के ख़िलाफ आतंकवाद की निंदा" कार्यक्रम में भाग लेने तेहरान आए हैं। यह आयोजन 12 दिवसीय युद्ध के दौरान इज़राइली हमलों का सामना करने वाले स्थलों का दौरा करने और शहीद पत्रकारों को श्रद्धांजलि देने के लिए किया गया है।
अंतर्राष्ट्रीय मीडिया फेस्टिवल "सुबह" का उद्देश्य वैश्विक मीडिया में सकारात्मक बदलाव लाने के लिए अंतर्राष्ट्रीय पत्रकारों और मीडिया कर्मियों के बीच सहयोग बढ़ाना है। यह फेस्टिवल 2023 से सक्रिय है और प्रतिभाशाली मीडिया पेशेवरों को पहचानने का प्रयास करता है और साथ ही उन्हें अपनी कलात्मक रचना और सृजनात्मकता को जारी रखने के लिए उचित अवसर प्रदान करता है।
जब तक खतरा मौजूद है, हथियारों पर बहस बेमानी है
लेबनान के सूरू उलेमा संघ के प्रमुख हुज्जतुल इस्लाम शेख अली यासीन अलआमिली ने इस बात पर जोर दिया है कि सरकार के पास इजरायल की किसी भी आक्रामकता का जवाब देने की ताकत नहीं है, ऐसे में प्रतिरोध को निहत्था करने की बातें आत्महत्या के समान हैं और कोई समझदार व्यक्ति ऐसा नहीं करेगा।
अंजुमने उलेमा ए लेबनान के प्रमुख हुज्जतुल इस्लाम शेख अली यासीन अलआमिली ने कहा कि जब तक इन हथियारों की ज़रूरत मौजूद है इन्हें सौंपने के बारे में बहस करना बेमानी है। खास तौर पर हम दुश्मनों की तरफ से नरसंहार के गवाह हैं जो हर तरफ से हमें घेरे हुए हैं और लेबनान के सभी इलाकों में कत्लेआम की लहर जारी है और जायोनी-अमेरिकी साजिश आतंकवाद के एक अकल्पनीय स्तर तक पहुंच चुकी है।
शेख यासीन ने कहा कि लोगों का सब्र इजरायल के हमलों को रोकने में सरकार की बेरुखी पर एक हद तक पहुंच चुका है और यह नामंजूर है कि हमारे लोगों का खून बहाया जाए और कोई जवाब या रुकावट न हो।
सूरू उलेमा संघ के प्रमुख ने आगे कहा कि जो लोग निहत्था होने की बात करते हैं, वे लेबनान के लोगों के कत्लेआम के इंतजार में हैं, जैसे गाजा में, स्वीडा और सीरियाई तटों पर हो रहा है, इसलिए वे वतन से मोहब्बत, इंसानियत और यहां तक कि अक्ल से भी महरूम हैं।
शेख यासीन ने लेबनान की सरकार से मांग की कि वह नेतृत्व संभाले और इजरायल की ताजा आक्रामकता के प्रभावित शरणार्थियों के लिए राष्ट्रपति से लेकर कर्मचारी तक अपनी जिम्मेदारी अदा करे।
उन्होंने कहा कि शरणार्थियों की वापसी का मामला किसी राजदूत के दौरे या किसी भी तरह के गैर-जरूरी इंतजार से कहीं ज्यादा अहम है।
अंत में, शेख यासीन ने इराक के वासित प्रांत के शहर कूत में आगजनी के प्रभावितों के प्रति संवेदना जताई और लेबनान की मदद में इराक की भूमिका पर जोर देते हुए इराक और उसके लोगों की लगातार हिमायत पर बल दिया है।
क्या ज़ायोनियों को इज़राइली शासन के भविष्य की कोई उम्मीद है?
हिब्रू अख़बार मआरीव ने ज़ायोनियों के नज़दीक भविष्य को लेकर एक सर्वेक्षण के नतीजे जारी किए।
हिब्रू अख़बार मआरीव के एक सर्वेक्षण के अनुसार, जिसके नतीजे रविवार को जारी किए गए, 66 प्रतिशत ज़ायोनियों ने "इज़राइल" के भविष्य को लेकर अपनी निराशा ज़ाहिर की है।
इस सर्वेक्षण में 73 प्रतिशत ज़ायोनियों का मानना है कि नेतन्याहू की सरकार को हालात सुधारने के लिए ग़ज़ा युद्ध खत्म करना चाहिए और सभी बंदियों को वापस लाना चाहिए।
मआरीव के सर्वेक्षण में यह भी पता चला है कि 79 प्रतिशत ज़ायोनी, इज़राइल के भविष्य की सुरक्षा के लिए हरेदी यहूदियों को भी सैन्य सेवा में भेजना ज़रूरी मानते हैं।
इस सर्वेक्षण के अनुसार, 39 प्रतिशत ज़ायोनियों का यह भी मानना है कि इज़राइल में अगले 20 सालों में जीवन स्तर आज से भी बदतर या बहुत बदतर हो जाएगा।