वास्तविकता क्या है ? शिया समुदाय

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एक दूसरे से पहचान की आवश्यकता

और फिर तुम में शाख़ाएं और क़बीले क़रार दिये हैं ताकि आपस में एक दूसरे को

पहचान सको।

(सूर ए हुजरात आयत 13)

इस्लाम जब आया तो आपस में लोग अलग अलग और बहुत से गिरोहों में बटे हुए ही नही थे बल्कि एक दूसरे से लड़ाई, झगड़े और ख़ून ख़राबे में लगे रहते थे मगर इस्लामी शिक्षाओं के आधार पर आपसी शत्रुता और एक दूसरे से दूर होने के स्थान पर मेल जोल और शत्रुता के स्थान पर एक दूसरे की सहायता और सम्बंध तोड़ने की बजाए निकटता पैदा हुई और इसका परिणाम यह हुआ कि इस्लामी शासन एक महान राष्ट्र के रूप में सामने आया।

जिसने उस समय महान इस्लामी संस्कृति व सभ्यता को प्रस्तुत किया और इस्लाम से सम्बंधित गिरोहों को हर अत्याचारी से बचा लिया और उनका समर्थन किया। जिस के आधार पर यह राष्ट्र दुनिया के समस्त राष्ट्रों में आदरणीय एंव सम्मानित करार पाया और अत्याचारियों के सम्मुख रोब व दबदबे और भय के साथ प्रकट हुवा।

परन्तु यह सब चीज़ें वुजूद में नही आयीं मगर इस्लामी राष्ट्र के मध्य आपस की एकता व भाईचारगी और समस्त गिरोहों का एक दूसरे से सम्बंध रखने के आधार पर जो कि इस्लाम धर्म की छाया में प्राप्त हुवा था, हालाँकि इन की नागरिकता, मत, संस्कृति व सभ्यता, पहचान और अनुसरण में भिन्नता थी। यद्धपि सिद्धांतों व मौलिक उत्तरदायित्तों में समानता व एकता पर्याप्त सीमा तक मौजूद थी। निसंदेह एकता, शक्ति और विरोध व विभिन्नता कमज़ोरी का कारण है।

अस्तु यह समस्या इसी प्रकार प्रचलित रही यहाँ तक कि एक दूसरे से जान पहचान और आपसी मेल जोल के स्थान पर विरोध व लडाई झगडे और एक दूसरे के समझने का स्थान घृणा ने ले लिया और एक गिरोह दूसरे गिरोह के बारे में कुफ़्र के फ़तवे देने लगा इस प्रकार फ़ासले पर फ़ासले बढ़ते गये। जिसकी वजह से जो रहा सहा सम्मान व आदर था वह भी विदा हो गया और मुसलमानों की सारी वैभव व प्रतिष्ठा समाप्त हो गई और सारा रोब व दबदबा जाता रहा और हालत यह हुई कि प्रलय की ध्वजावाहक राष्ट्र अत्याचारियों के हाथों तिरस्कार व अपयश होने पर मजबूर हो गया। यहाँ तक कि उनके विकास एंव उन्नति के दहानों में लोमड़ी और भेड़िये सिफ़त लोग विराजमान हो गए। यही नही बल्कि उनके घरों के अँदर समस्त प्रकार की बुराईयाँ, और दुनिया के सबसे बुरे और ख़राब लोग घुस आये। परिणाम यह हुआ मुसलमानों का सारा धन व वैभव लूट लिया गया और उनकी पवित्र स्मृतियों व धार्मिक कृत्यों का अपमान होने लगा और उनका मान व उनकी मर्यादा दुराचारियों और पापियों के उपकार के अधीन हो गई और निम्नता के बाद निम्नता और असफलता के बाद असफलता होने लगी। कहीं अंदुलुस में खुली हुई असफलता का सामना हुआ तो कहीं बुख़ारा और समरकंद, ताशकंद, बग़दाद, भूतकाल और वर्तमान काल में फ़िलिस्तीन और अफ़ग़ानिस्तान में असफलता पर असफलता का सामना करना पड़ा है।

और स्थिति यह हो गई कि लोग सहायता के लिये बुलाते थे परन्तु कोई उत्तर देने वाला नही था, दुहाई देने वाले थे मगर कोई उनकी दुहाई सुनने वाला नही था।

ऐसा क्यों हुआ, इसलिये कि बीमारी कुछ और थी दवा कुछ और, ईश्वर ने समस्त कामों की बागडोर उनके ज़ाहिरी कारणों पर छोड़ रखी है, क्या इस राष्ट्र का संशोधन उस चीज़ के अतिरिक्त किसी और चीज़ से भी हो सकता है कि जिससे आरम्भ में हुवा था?

आज इस्लामी राष्ट्र अपने विरूद्ध किये जाने वाले समाजी, सैद्धांतिक और एकता विरोधी सबसे कठोर और भयानक आक्रमण से जूझ रही है, धार्मिक मैदानों में अंदर से विरोध किया जा रहा है, मार्ग दर्शन से सम्बंधित प्रयासों को मतभेदी चीज़ों के रूप में प्रस्तुत किया जा रहा है और यह प्रहार ऐसा है कि इसके बुरे परिणाम प्रकट होने वाले हैं, क्या ऐसे अवसर पर हम लोगों के लिये उचित एंव उत्तम नही है कि अपनी एकता की कतारों को सन्निकट रखें और आपसी सम्बंधों को स्थावर व मज़बूत करें? हम मानते हैं कि यद्धपि हमारी कुछ प्रथाएं व परम्पराएं अलग अलग हैं मगर हमारे मध्य बहुत सी चीज़ें ऐसी हैं जो एक और संयुक्त हैं जैसे किताब व सुन्नत जो कि हमारा केंद्र और स्रोत हैं, वह संयुक्त चीजें हैं तौहीद अर्थात एकेश्वरवाद व नबुव्वत अर्थात ईशदौत्य, अंतत अर्थात प्रलोक जिन पर सब का विश्वास है, नमाज़ व रोज़ा, हज व ज़कात अर्थात धर्मदाय, जिहाद अर्थात धर्मयुद्ध और हलाल व हराम अर्थात वैध व अवैध यह सब धर्म के आदेश हैं जो सब के लिये एक और संयुक्त है, नबी ए अकरम (स) और उनके अहले बैत (अ) से प्रेम और उनके दुश्मनों से घृणा करना हमारे संयुक्त कर्तव्यों में से हैं। यद्धपि इसमे कमी व ज़ियादती ज़रुर पाई जाती है, कोई अधिक प्रेम और शत्रुता का दावा करता है और कोई कम, परन्तु यह ऐसा ही है जैसे कि एक हाथ की समस्त उँगलियाँ अंत में एक ही जगह (जोड़ से) जाकर मिलती हैं, हालाँकि यह लम्बाई व चौडाई और रूप में एक दूसरे से विभिन्न हैं या उसका उदाहरण एक शरीर जैसा है, जिसके अवयव व अंग विभिन्न होते हैं, मगर मानवी स्वभाव के अनुसार शारीरिक ढांचे के अंदर हर एक की भूमिका भिन्न भिन्न होती है और उनकी शक्लों में विरोध व विभिन्नता पाई जाती है, मगर इसके बावजूद एक दूसरे के सहायक होते हैं और उनका संग्रह एक ही शरीर कहलाता है।

चुनाँचे असंभव नही है कि इस्लामी राष्ट्र की उपमा जो एक हाथ और एक शरीर से दी गई है इस में इसी वास्तविकता की ओर इशारा किया गया हो।

गत में विभिन्न इस्लामी समुदायों और धर्मों के विद्धान एक दूसरे के साथ बग़ैर किसी विरोध व विभिन्नता के जीवन व्यवतीत करते थे बल्कि सदैव एक दूसरे की सहायता किया करते थे, यहां तक कि कुछ ने एक दूसरे के अक़ायदी या फ़िक़ही किताबों के शरह अर्थात व्याख्या तक की है और एक दूसरे से शिष्ता का सम्मान प्राप्त किया, यहाँ तक कि कुछ तो दूसरे की सम्मान के आधार पर खडे हुए हैं और एक दूसरे के मत का समर्थन करते थे, कुछ कुछ को रिवायत बयान करने की अनुमति देते या एक दूसरे से रिवायत बयान करने की अनुमति लेते थे ताकि उनके समुदाय और धर्म की किताबों से रिवायत नक़्ल कर सकें और एक दूसरे के पीछे नमाज़ पढ़ते थे, उन्हे इमाम बनाते, दूसरे को ज़कात अर्थात धर्मदाय देते, एक दूसरे के धर्म को मानते थे, सारांश यह कि समस्त गिरोह बड़े प्यार व प्रेम से एक दूसरे के साथ ऐसे जीवन व्यवतीत करते थे, यहाँ तक कि ऐसा आभास होता था कि जैसे उनके मध्य कोई विरोध व विभिन्नता ही नही है, जबकि उन के मध्य आलोचनाएं और आपत्तियां भी होती थीं परन्तु यह आपत्तियां व आलोचनाएं सभ्य व सुशील शैली में किसी ज्ञानात्मक तरीक़े से रद्द होती थी।

इस के लिये जीवित और इतिहासिक तर्क व प्रमाणक मौजूद हैं, जो इस गहन और विस्तृत सहायता पर दलालत करते हैं, मुस्लिम विद्धानों ने इसी सहायता के द्वारा इस्लामी संस्कृति व सभ्यता और सम्पित को तृप्त किया है, उन्ही चीज़ों के द्वारा धार्मिक स्वतंत्रा के मैदान में उन्होने आश्चर्यजनक उदाहरण स्थापित किए हैं बल्कि वह इसी सहायता के द्वारा दुनिया में सम्मानित हुए हैं।

यह कठिन समस्या नही है कि मुस्लिम विद्धान एक जगह जमा न हो सकें और संधि व सफ़ाई से किसी मसअले में वादविवाद व तर्क वितर्क न कर सकें और किसी मतभेदी मसअले में निःस्वार्थता व सच्चे संकल्प के साथ मनन चिन्तन न कर सकें, तथा हर गिरोह को न पहचान सकें।

जैसे यह बात कितनी उचित और सुंदर है कि हर समुदाय अपने धार्मिक सिद्धांतों और फ़िक़ही व बौद्धिक दृष्टिकोण को स्वतंत्रता पूर्वक स्पष्ट वातावरण में प्रस्तुत करे, ता कि उनके विरूद्ध जो मिथ्यारोपण, विरोध व आपत्ति, शत्रुता और अनुचित जोश में आने के, जो कार्य कारण बनते हैं वह स्पष्ट व रौशन हो जायें और इस बात को सभी जान लें कि हमारे मध्य संयुक्त और मतभेदी मसायल क्या हैं ता कि लोग उस से जान लें कि मुसलमानों के मध्य ऐसी चीज़ें अधिक हैं जिन में सब समान है और उनके मुक़ाबले में मतभेदी चीज़ें कम हैं, इससे मुसलमानों के मध्य मौजूद विरोध व विभिन्नता और फ़ासले कम होगें और वह एक दूसरे के निकट आ जायें।

यह लेख इसी रास्ते का एक क़दम है, ता कि वास्तविकता रौशन हो जाये और उस को सब लोग अच्छे प्रकार पहचान लें, निः संदेह ईश्वर क्षमता देने वाला है।

1. वर्तमान युग में शिया समुदाय मुसलमानों का बड़ा समुदाय है, जिसकी कुल संख्या मुसलमानों की प्रायः एक चौथाई है और इस समुदाय की इतिहासिक जड़ें सदरे इस्लाम के उस दिन से शुरु होती हैं कि जिस समय सूर ए बय्यनह की यह आयत अवतीर्ण हुई थी:

(सूर ए बय्यना आयत 7)

निः संदेह जो लोग विश्वास लाये और अमले सालेह अर्थात अच्छे कार्य अंजाम दिया वही सर्वश्रेष्ठ व उत्तम प्राणी हैं।

चुनाँचे जब यह आयत अवतीर्ण हुई तो रसूले इस्लाम (स) ने अपना हाथ अली (अ) के शाने पर रखा उस समय सखागण व मित्रगण भी वहाँ मौजूद थे और आपने फ़रमाया:

ऐ अली, तुम और तुम्हारे शिया सर्वश्रेष्ठ व उत्तम प्राणी हैं।

इस आयत की व्याख्या के निम्न में देखिये, तफ़सीरे तबरी (जामेउल बयान), दुर्रे मंसूर (तालीफ़, अल्लामा जलालुद्दीन सुयुती शाफ़ेई), तफ़सीरे रुहुल मआनी तालीफ़ आलूसी बग़दादी शाफ़ेई।

इसी वजह से यह समुदाय जो कि इमाम जाफ़रे सादिक़ (अ) की फ़िक़ह में उनका अनुगामी होने के आधार पर उनसे सम्बंधित है। शिया समुदाय के नाम से प्रसिद्ध हुआ।

2. शिया समुदाय बड़ी संख्या में ईरान, इराक़, पाकिस्तान, हिन्दुस्तान, में जीवन व्यवतीत करता है, इसी प्रकार उस की एक बड़ी संख्या खाड़ी देशों तुर्की, सीरिया (शाम), लेबनान, रूस और उससे अलग होने वाले बहुत से नये देशों में मौजूद हैं, तथा यह समुदाय यूरोपी देशों जैसे इँगलैंड, फ़्रास, जर्मनी और अमेरिका, इसी प्रकार अफ़्रीक़ा के देशों और पूर्वी एशिया में भी फ़ैला हुआ है, उन स्थानों पर उनकी मस्जिदें और ज्ञानात्मक, सांस्कृतिक और समाजी केंद्र भी हैं।

3. इस समुदाय के लोग यद्धपि विभिन्न देशों, राष्ट्रों और रंग व वंश से सम्बंध रखते हैं परन्तु इसके बावजूद अपने दूसरे मुसलमान भाईयों के साथ बड़े प्यार व प्रेम से रहते हैं और समस्त सरल या कठिन मैदानों में सच्चे दिल और निःस्वार्थता के साथ उनकी सहायता करते हैं और यह सब ईश्वर के इस आदेश पर अमल करते हुए इसे अंजाम देते हैं:

(सूर ए हुजरात आयत 10)

मोमिनीन अर्थात आस्तिक आपस में भाई भाई हैं।

या इस ईश्वर के कथन पर अमल करते हैं:

नेकी और तक़वा अर्थात आत्मनिग्रह में एक दूसरे की सहायता करो।

(सूर ए मायदा आयत 2)

और ईश्वर के रसूल (अ) के इस कथन की पाबंदी करते हुए:

1. (.................................................)

(मुसनदे महत्वपूर्णद बिन हम्बल जिल्द 1 पेज 215)

मुसलमान आपस में एक दूसरे के लिये एक हाथ के प्रकार हैं।

()

या आपका यह कथन उन के लिये मार्ग दर्शन है:

2. (...................................................)

मुसलमान सब आपस में एक शरीर के प्रकार हैं।

(अस सहीहुल बुख़ारी, जिल्द 1 किताबुल साहित्य पेज 27)

4. पूरे इस्लामी इतिहास में ईश्वरीय धर्म और इस्लामी राष्ट्र की प्रतिक्षा के बारे में इस समुदाय की एक महत्वपूर्ण और स्पष्ट भूमिका रही है जैसे उसकी हुकुमतों, रियासतों ने इस्लामी संस्कृति व सभ्यता की सदैव सेवा की है, तथा इस समुदाय के विद्धानों और बुद्धिजीवियों ने इस्लामी सम्पित को धनी बनाने और बचाने के बारे में विभिन्न ज्ञानात्मक और प्रायोगिक मैदानों में जैसे हदीस, तफसार, धार्मिक सिद्धांत, फ़िक्ही सिद्धांत, नैतिक, देराया, रेजाल, दर्शन शास्त्र, उपदेश, शासन, सामाजिक कार्य, भाषा व साहित्य बल्कि चिकित्सा व भौतिक विज्ञान रसायन विज्ञान, गणित, ज्योतिष और उसके अतिरिक्त बहुत ज्ञानों के बारे में लाख़ों किताबें लिखके इस बारे में बहुत महत्वपूर्ण भूमिका अदा की है बल्कि बहुत से ज्ञानों का आधार रखने वाले विद्धान इसी समुदाय से सम्बंध रखते हैं।[1]

5. शिया समुदाय विश्वस्नीय है कि ईश्वर अहद व समद अर्थात एक व निःसपृह है, न उसने किसी को जना है और न उसे किसी ने जन्म दिया है और न ही कोई उसका समकक्ष है और उससे जिस्मानियत, दिशा, स्थान, समय, परिवर्तन, गतिविधि, उतार व चढाव आदि जैसी विशेषताएं जो उसकी महिमा, गौरव व सुंदरता के अनुकूल नही हैं, उनको नकारता है।

और शिया यह विश्वास रखते हैं कि उसके अतिरिक्त कोई पूज्य एंव उपास्य नही है, आदेश और तशरीअ (धर्म शास्त्र के क़ानून बनाना) केवल उसी के हाथ में है और हर प्रकार का शिर्क अर्थात अनेकेश्वरवाद चाहे वह गुप्त हो या प्रकट, एक महान अत्याचार और एक अक्षम्य पाप है।

और शियों ने यह धार्मिक सिद्धांत: शुद्ध बुद्धि से प्राप्त किये है,जिनका पुष्ठि ईश्वर की किताब और सुन्नते शरीफ़ से भी होती है।

और शियों ने अपने धार्मिक सिद्धांतों के मैदान में उन हदीसों पर भरोसा नही किया है जिन में इसराईलियात (जाली तौरेत और इंजील) और मजूसीयत की गढी हुई बातों का मिश्रण है, जिन्होने ईश्वर को इंसान के प्रकार माना है और वह उसकी उपमा मख़लूक़ अर्थात सृष्टि से देते हैं या फ़िर उसकी ओर अत्याचार और व्यर्थ व निष्क्रय जैसे कार्यों को उससे जोडते हैं, हालाँकि ईश्वर इन समस्त बातों से अत्यन्त उच्च व त्रेष्ठ है या यह लोग ईश्वर के पवित्र, मासूम अर्थात निर्दोष नबियों की ओर बुराईयों और कुरूप बातों की निस्बत देते हैं।

6. शिया विश्वास रखते हैं कि ईश्वर न्यायशील व नीतिज्ञ है और उसने न्याय व नीति से पैदा किया है, चाहे वह निश्चल हो या वनस्पति, पशु हो या मानव, आकाश हो या धरती, उसने कोई चीज व्यर्थ नही पैदा की है, क्योकि व्यर्थ (फ़ुज़ूल या बेकार होना) न केवल उसके न्याय व नीति के विरूद्ध है बल्कि उसके ईश्वरत्व के भी विरूद्ध है जिसका लाज़िमा है कि ईश्वर के लिये समस्त उपलब्धियों को प्रमाणित किया जाये और उससे हर प्रकार के अभाव और कमी को नकारा जाये।

7. शिया यह विश्वास रखते हैं कि ईश्वर ने न्याय व नीति के साथ प्रकृति के आरम्भ से ही उसकी ओर अंबिया अर्थात ईशदूतों और रसूलों को मासूम अर्थात निर्दोष बना कर भेजा और फिर उन्हे विस्तृत ज्ञान से सुसज्जित किया जो वही अर्थात ईस्वरीय वाणी के द्वारा ईश्वर की ओर से उन्हे प्रदान किया गया और यह सब कुछ इंसान के मार्ग दर्शन और उसे उसकी खोई हुई सुंदरता तक पहुचाने के लिये था ता कि उसके द्वारा ऐसे आज्ञा पालन की ओर भी उसका मार्ग दर्शन हो जाये जो उसे स्वर्गीय बनाने के साथ साथ प्रतिपालक की प्रसन्नता और उसकी कृपा का पात्र क़रार दे और उन अंबिया अर्थात ईशदूतों के मध्य आदम, नूह, इब्राहीम, मूसा, ईसा और हज़रत मुहम्मद मुसतफ़ा (स) सबसे प्रसिद्ध हैं जिनका वर्णन क़ुरआने मजीद में आया है या जिन के नाम और विशेषताएं हदीसों में बयान हुई हैं।

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