बंदगी की बहार- 6

Rate this item
(0 votes)
बंदगी की बहार- 6

पवित्र रमज़ान, ईश्वर का महीना है।

 

इस महीने में रोज़ा रखने वाला ईश्वर का मेहमान होता है।  मेहमानी एसी चीज़ है जिसके बारे में कुछ बातों की जानकारी बहुत आवश्यक है जैसे मेज़बान कौन है, मेहमानी का समय और स्थान क्या है।  इसके अतिरिक्त यह भी ज्ञात चाहिये कि मेहमानी में जाने के लिए किस प्रकार की तैयारी की जाए? यह ज़रूरी है कि ईश्वर की मेहमानी के लिए रोज़ेदार को स्वयं को भीतरी और बाहरी हिसाब से तैयार करना चाहिए।  इस महीने की हमें पहले से तैयारी करनी चाहिए।  सूरे बक़रा की आयत संख्या 185 में ईश्वर कहता हैः रमज़ान का महीना वह महीना है जिसमें ईश्वर की ओर से क़ुरआन उतरा है जो लोगों का मार्गदर्शक है तथा, असत्य से सत्य को अलग करने हेतु स्पष्ट तर्कों व मार्गदर्शन को लिए हुए है, तो तुम में से जो कोई भी ये महीना पाए तो उसे रोज़ा रखना चाहिए और जो कोई बीमार या यात्रा में हो तो वह उतने ही दिन किसी अन्य महीने में रोज़ा रखे, ईश्वर तुम्हारे लिए सरलता चाहता है, कठिनाई नहीं, तो तुम रोज़ा रखो यहां तक कि दिनों की संख्या पूरी हो जाए और मार्गदर्शन देने के लिए तुम ईश्वर का महिमागान करो और शायद तुम (ईश्वर के प्रति) कृतज्ञ हो।

 

एक महत्वपूर्ण बिंदु यह है कि रोज़े का अर्थ स्वयं को खाने और पीने से रोकना मात्र नहीं है।  खाने और पीने से रुकने के अतिरिक्त कुछ अन्य शर्तें भी हैं जिनका अनुपालन किया जाना चाहिए।

 

रोज़ा रखने की पहली शर्त उसकी नियत करना है।  वास्तव में नियत हर काम की आत्मा होती है।  इसका कारण यह है कि कोई भी उपासना बिना नियत के सही नहीं है और जो काम ईश्वर की प्रसन्नता प्राप्त करने के उद्देश्य से किया जाए वह काम सबसे सही काम होता है।  पैग़म्बरे इस्लाम (स) अपने एक साथी हज़रत अबूज़र को संबोधित करते हुए कहते हैं कि हे अबूज़र! हर काम के लिए मनुष्य को पवित्र नीयत करनी चाहिए।  नियत या उद्देश्य के पवित्र होने से उसका महत्व बढ़ता है।  जो काम जितनी अच्छी नियत से किया जाएगा उसका महत्व उतना ही अधिक होगा।  अच्छी या शद्ध नियत की तुलना में बुरी नियत होती है।  बुरी नियत से अगर कोई अच्छा काम भी किया जाएगा तो भी उसका कोई महत्व नहीं होगा।  इस बारे में पैग़म्बरे इस्लाम (स) का कहना है कि प्रत्येक कर्म के लिए नियत होनी आवश्यक है।

रोज़ा रखने का मामला भी नियत से अपवाद नहीं है।  रोज़े को ईश्वर का समीपता की नियत से करना चाहिए।  जब मनुष्य यह सोच कर कोई काम करेगा कि वह इसे केवल ईश्वर की प्रसन्ता के लिए कर रहा है तो उसका महत्व बढ़ जाता है। रोज़ की नियत जितनी पाक होगी उसका महत्व उतना ही अधिक बढ़ता जाएगा।  अगर ईश्वर की उपासना पूरी निष्ठा के साथ की जाए तो उसे ईश्वर अवश्य स्वीकार करता है।  इस बारे में पैग़म्बरे इस्लाम की सुपुत्री हज़रत ज़हरा (स) अपने एक ख़ुत्बे में कहती हैं कि ईश्वर ने रोज़े को तुम्हारे भीतर निष्ठा उत्पन्न करने के लिए अनिवार्य किया है।  इमाम सज्जाद अलैहिस्सलाम भी इस संबन्ध में कहते हैं कि ईश्वर ने रमज़ान के महीने को आत्मा की शुद्धता और विचारों की पवित्रता के लिए निर्धारित किया है।

रोज़े की एक अन्य शर्त एटीकेट या संस्कारों का ध्यान रखना है।  संस्कार, दूसरों के साथ किये जाने वाले उस व्यवहार को कहते हैं जिसमें शालीनता भी सम्मिलित हो।  इस प्रकार के व्यवहार का संबन्ध मनुष्य के प्रशिक्षण से होता है।  इसमें चाल-चलन, वार्ता, लोगों के साथ व्यवहार और इसी प्रकार की बहुत सी चीजें आती हैं।  रोज़े के दौरान अच्छे व्यवहार का अर्थ है पापों से बचना, प्रायश्चित करना, झूठ से दूर रहना, पर नारी पर दृष्टि न डालना और हर प्रकार की बुराई से बचने का प्रयास करते रहना।  रमज़ान में यह काम करना किसी सीमा तक सरल हो जाता है।  रमज़ान के पवित्र महीने में पवित्र क़ुरआन पढ़ने, प्रायश्चित करने, दान-दक्षिणा करने, लोगों की सहायता करने और अन्य भले काम करने से मनुष्य उच्च स्थान तक पहुंच सकता है।

रोज़ा रखने वाले के हृदय को रोज़े के दौरान रोज़े के साथ रहना चाहिए।  जिस प्रकार से रोज़ेदार को कई प्रकार के कामों से बचना चाहिए उसी प्रकार से उसे अपने मन को भी हर बुरी सोच से दूर रखना चाहिए।  इमाम जाफ़र सादिक़ अलैहिस्सलाम कहते हैं कि ईश्वर, तौरेत में कहता है कि हे आदम की संतान! अपने समय और मन को मेरे लिए स्वच्छ करो।  यदि तू एसा करता है तो हम तुम्हारे हृदय को संतोष्ट देते हुए तुमको आवश्यकता मुक्त कर देंगे।  हम तुमको तुम्हारी आंतरिक इच्छाओं के बंधन से मुक्ति दिलाएंगे।  तुम्हें जिस चीज़ की ज़रूरत होगी उसे हम स्वय उपलब्ध करवाएंगे और हम तुमको दूसरों पर निर्भर नहीं होने देंगे।  हम तुम्हारे हृदय को अपने भय से भर देंगे ताकि किसी अन्य का भय तुम्हारे भीतर न रहने पाए।

रोज़े के लिए यह बहुत आवश्यक है कि रोज़ा केवल मनुष्य का न हो बल्कि उसके शरीर के सारे ही अंगों का भी रोज़ा होना चाहिए।  इस बारे में इमाम जाफ़र सादिक़ अलैहिस्सलाम कहते हैं कि जब तुम रोज़ा रखते हो तो फिर तुम्हारे शरीर के अंगों का भी रोज़ा होना चाहिए जैसे कानों, आखों, ज़बान और अन्य अंगों का रोज़ा।  एक अन्य स्थान पर वे कहते हैं कि तुम्हारे लिए आवश्यक है कि तुम रोज़े के दौरान एक-दूसरे से झगड़ा न करो, हसद न करो, ग़ीबत न करो, झूठी क़सम न खाओ, गाली न बको, दूसरों का अपमान न करो, अत्याचार से बचो, आशान्वित रहो निराशा से बचो, सदैव ईश्वर की याद में रहो, उसकी उपासना करते रहो।  जहां तक हो सके शांत रहो। व्यर्थ की बातें करने से बचो, तुम्हारे मन में ईश्वर का भय होना चाहिए।  अपने हृदय और आंखों को ईश्वर की याद में लगा दो।  कुल मिलाकर तुमको स्वयं को शुद्ध करना चाहिए।  जो बातें बताई गईं अगर उनका ध्यान रखा जाए तो रोज़ेदार ने वास्तव में ईश्वर के आदेश का पालन किया है।  अब यदि इन बातों का अनुपालन न किया जाए या उनमें से कुछ पर अमल न किया जाए तो उसी अनुपात में उसका महत्व कम होता है।

ग़ीबत अर्थात पीठ पीछे बुराई करने से हालांकि रोज़ा बातिल नहीं होता किंतु इससे रोज़े के सकारात्मक प्रभाव कम होते हैं।  इस प्रकार रोज़े का लक्ष्य ही प्रभावित होता है और मनुष्य तक़वे से दूर हो जाता है।  झूठ बोलना, आरोप लगाना, मज़ाक़ उड़ाना, अनुचित बातें करना, विश्वासघात करना और इसी प्रकार की बुराइयां रोज़े के प्रभाव को कम करती हैं और उससे होने वाले लाभ में कमी आती है।  वास्तविक रोज़ेदार वह होता है जो रोज़े के लक्ष्य को समझता है और उसे प्राप्त करने के लिए निरंतर प्रयास करता रहता है।  इस प्रकार से वह रोज़े के मूल लक्ष्य को प्राप्त कर लेता है।  पैग़म्बरे इस्लाम (स) कहते हैं कि जो व्यक्ति रोज़े की स्थिति में अपने कानों, आखों और ज़बान पर नियंत्रण रखे तो ईश्वर उसके रोज़े को स्वीकार करेगा।

रोज़े के संबन्ध में एक रोचक बात यह है कि जहां रोज़े में खाने और पीने से रोका गया है वहीं सहर और इफ़्तार में खाने पर बल भी दिय गया है।  इस्लामी शिक्षाओं में सहर के समय खाने की बहुत अनुशंसा की गई है।  कहा गया है कि सहर के समय कुछ न कुछ अवश्य खाना चाहिए चाहे एक खजूर ही क्यों न हो।  इसी प्रकार उस रोज़े से रोक भी गया है जिसमें इफ़्तार में कुछ भी न खाया जाए और फिर सहर में भी कुछ न खाया जाए।

विख्यात धर्मगुरू शेख मुफ़ीद अपनी पुस्तक "मक़ना" में लिखते हैं कि पैग़म्बरे इस्लाम (स) और उनके पवित्र परिजनों के कथनों में आया है कि सहर खाना चाहिए चाहे एक खजूर या एक घूंट पानी हो क्यों न हो।  रोज़ा खोलने या सहर के समय जो चीज़ खाई जाए उसका हलाल होना आवश्यक है।  तफ़सीरे अलबयान में कहा गया है कि इफ़्तार के समय हलाल से कमाया हुआ एक लुक़्मा ईश्वर के निकट पूरी रात में उपासना करने से अधिक प्रिय है अतः रोज़ेदार को हराम खानों से बचना चाहिए क्योंकि हराम खाना, धर्म की दृष्टि में विष समान है।

पवित्र रमज़ान में पैग़म्बरे इस्लाम (स) की उपासना के बारे में हज़रत अली अलैहिस्सलाम कहते हैं कि रसूले ख़ुदा, रमज़ान के अन्तिम दस दिनों में अपने सोने के बिस्तर को अलग रख देते थे और ईश्वर की उपासना में लग जाया करते थे।  22 रमज़ान की रात जब आ जाती थी तो वे अपने घरवालों को रात में सोने नहीं देते और उनसे उपासना करने को कहते।  जब किसी को नींद आती तो उसपर पानी की छींटे डालते थे।  इसी प्रकार से हज़रत फ़ातेमा ज़हरा भी रमज़ान में रातों को उपासना करतीं।  वे अपने घरवालों को रात में जागने के लिए प्रेरित करती थीं।  वे रात में घरवालों को खाना कम ही देती थीं ताकि उनको नींद न आए।  पैग़म्बरे इस्लाम की सुपुत्री हज़रत फ़ातेमा कहती थीं कि खेद है उस व्यक्ति पर जो इस महत्वपूर्ण रात की अनुकंपाओं से वंचित रह जाए।

अंत में यह कहा जा सकता है कि पवित्र रमज़ान में हमें अधिक से अधिक ईश्वर की उपासना करनी चाहिए, सांसारिक मायामोह से बचना चाहिए, बुराइयों से दूरी बनानी चाहिए, निर्धनों की अधिक से अधिक सहायता करते हुए लोगों के लिए भलाई करते रहना चाहिए।

Read 172 times