ईश्वरीय आतिथ्य-5

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ईश्वरीय आतिथ्य-5

रोज़ा और जनसेवा

सैद्धांतिक रुप से हर समाज को भलाई और परोपकार की आवश्यकता होती है। उस समाज को उत्तम समाज कहा जाता है जिसमें लोगों के संबंध आपस में प्रेम, सदभावना और सदगुणों पर आधारित होते हैं। ऐसे समाज में लोग एक दूसरे के निकट होते हैं और समस्याओं के समाधान तथा कठिनाइयों को दूर करने में वे आपस में एक-दूसरे के साथ सहयोग करते हैं। इस प्रकार से समाज में भाईचारे, उपकार, क्षमादान और ऐसे ही अनेक सदगुण फलते-फूलते और विकसित होते हैं। प्रत्येक धर्म अपने मानने वालों को दूसरों की सहायता करने, दान-दक्षिणा करने तथा परोपकार के लिए बहुत अधिक प्रेरित करता है। वह एक स्वस्थ्य और आदर्श समाज का इच्छुक होता है। इस्लाम ने भूखों को खाना खिलाने तथा कमज़ोरों की सहायता करने को प्रशंसनीय कार्य बताया है। इस्लामी शिक्षाओं के अनुसार आवश्यकता रखने वालों की आवश्यकताओं को पूरा करना पुण्य है। इस्लाम में दूसरों विशेषकर असहाय लोगों की सहायता करने को बहुत अधिक महत्व प्राप्त है। ईश्वर ने मुसलमानों पर रोज़े को अनिवार्य किया है। ईश्वर द्वारा रोज़ा अनिवार्य करने का एक कारण यह है कि रोज़ा रखने से भूख और प्यास की पीड़ा का आभास होता है। प्रत्येक समाज में धनी और निर्धन दोनों ही प्रकार के लोग पाए जाते हैं। धनवानों में बहुत से लोग एसे हैं जिन्होंने संभवतः भूख की पीड़ा का आभास ही न किया हो क्योंकि अपनी आर्थिक स्थिति के कारण उन्हें कभी भूख का सामना ही नहीं करना पड़ा। किंतु रोज़ा रखने पर उन्हें भी भूख और प्यास की पीड़ा का आभास हो जाता है। इस प्रकार रोज़ा रखकर उनके मन में समाज के उन लोगों के प्रति करूणा उत्पन्न होती है जिनको अपने जीवन में बार-बार भूख का सामना करना पड़ता है। इस प्रकार पता चलता है कि रोज़ा अनिवार्य करने का एक कारण यह भी है कि रोज़ा रखकर रोज़ेदारों के भीतर भूख की पीड़ा का आभास उत्पन्न किया जाए। इस संबन्ध में पैग़म्बरे इस्लाम हज़रत मुहम्मद (स) के पौत्र इमाम जाफ़र सादिक़ अलैहिस्सलाम कहते हैं कि रोज़े को इसिलए अनिवार्य किया गया है ताकि इसके द्वारा धनी और निर्धन दोनों के बीच समानता लाई जा सके।

सामाजिक समरस्ता एवं एकता की भावना उत्पन्न करना भी रोज़े के प्रभावों में से एक है। इस्लाम की दृष्टि में ईश्वर का सामिप्य एवं उसकी उपासना केवल नमाज़ और रोज़े तक ही सीमित नहीं है बल्कि इसके साथ-साथ सामाजिक कर्तव्यों का निर्वाह और ईश्वर के दासों की सेवा तथा उनकी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए प्रयासरत रहना भी अत्यंत आवश्यक है। बहुत से स्थानों पर जनसेवा को इबादत कहा गया है। जनसेवा करने से भी महत्वपूर्ण, जनसेवा की भावना है और यह भावना रोज़े से अधिक सुदृढ़ होती है। वर्तमान समय में हम देखते हैं कि समाजों को विभिन्न प्रकार की समस्याओं का सामना है। नैतिकता का पतन बहुत तेज़ी से हो रहा है। इस युग का मनुष्य आध्यात्म से दूर होता जा रहा है और भौतिकवाद की ओर बहुत तेज़ी से बढ़ रहा है। लोग व्यक्तिगत लाभ की ओर दौड़ रहे हैं और सामूहिक या सामाजिक लाभ की उन्हें कोई चिंता नहीं है। यदि निजी हितों और समाजिक हितों में टकराव की स्थिति उत्पन्न होती है तो एसे में मनुष्य अपने निजी हितों को वरीयता देता है और सामाजिक हितों को अनदेखा कर देता है। कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि अत्याधिक समस्याओं के कारण विश्व की वर्तमान स्थिति विस्फोटक होती जा रही है। इन समस्याओं को दृष्टिगत रखते हुए यह कहा जा सकता है कि रोज़े के माध्यम से समाज की बहुत सी समस्याओं का समाधान किया जा सकता है। उदाहरण जब हम रोज़ा रखते हैं तो स्वयं भूखे और प्यासे रहने की स्थिति में हमको दूसरों की भूख और प्यास का अंदाज़ा होता है फिर हम इसके समाधान के लिए क़दम उठाते हैं। यह कार्य जब व्यक्तिगत स्तर पर किया जाता है तो कुछ सीमित होता है किंतु जब पवित्र रमज़ान में रोज़ा रखने वाले इस कार्य को आरंभ करते हैं तो फिर इसकी परिधि बढ़ जाती है और बड़ी संख्या में भूखों और निर्धनों की सहायता होती है। इसी प्रक्रिया को यदि रमज़ान के बाद भी जारी रखा जाए तो स्थिति में बहुत अधिक सुधार आ सकता है।

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