
رضوی
मैराजे पैग़म्बर
किताबे मुन्तहल आमाल मे बयान किया गया है कि आयाते क़ुराने करीम और अहादीसे मुतावातिरा से साबित होता है कि परवरदिगारे आलम ने रसुले अकरम स.अ.व.व. को मक्का ए मोअज़्ज़मा से मस्जिदे अक़सा और वहा से आसमानो और सिदरतुल मुन्तहा व अर्शे आला की सैर कराई और आसमानो की अजीबो ग़रीब मख़्लुक़ात रसुले अकरम स.अ.व.व. को दिखाई और पोशीदा राज़ो और न तमाम होने वाले मआरिफ आपको अता किये।
रसूले अकरम स.अ.व.व. ने बैते मामूर मे खुदा वंदे आलम की इबादत की और तमाम अंबिया से मुलाक़ात की और जन्नत मे दाखिल हुऐ और अहले बहीश्त की मंज़िलो को देखा।
शिया और सुन्नी दोनो की अहादीसे मुतावातिरा मे आया है की रसूले अकरम स.अ.व.व. की मैराज जिस्मानी थी न कि रुहानी।
किताबे चौदह सितारे मे नजमुल हसन कर्रारवी साहब ने तफसीरे क़ुम्मी के हवाले से नक़ल किया कि बैसत के बारहवे साल मे सत्ताइस रजब को खुदा वंदे आलम ने जिबरईल को भेज कर बुर्राक़ के ज़रीऐ रसूले अकरम स.अ.व.व. को क़ाबा क़ौसेन की मंज़िल पर बुलाया और वहा इमाम अली (अ.स.) की खिलाफतो इमामत के बारे मे हिदायते दीं।
उसुले काफी मे इमाम सादिक़ (अ.स.) से रिवायत है कि जो शख्स भी चार चीज़ो का इंकार करे वो हमारे शियो मे से नही हैः
मैराजे रसूले अकरम स.अ.व.व.
खिलक़ते जन्नतो जहन्नम
क़र्ब मे होने वाले सवाल जवाब
शिफाअत
और इसके बाद इमाम रज़ा (अ.स.) से रिवायत है कि जो भी मैराजे रसूले अकरम स.अ.व.व.
को झूठ मानता है उसने रसूले अकरम स.अ.व.
पैग़म्बर (स) की सीरत के जलते चराग़
1- हमेशा ग़ोर व फ़िक्र करते थे।
2- ज़्यादा तर चुप रहते थे।
3- अच्छे अख़लाक़ के मालिक थे।
4- किसी का भी अपमान नहीं करते थे।
5- दुनिया की मुशकिलात पर कभी ग़ुस्सा नहीं करते थे।
6- अगर किसी का हक़ पामाल होता देखते थे तो जब तक हक़ न मिल जाऐ ग़ुस्सा रहते थे और उन को कोई पहचान नहीं पाता था।
7- इशारा करते समय पूरे हाथ से इशारा करते थे।
8- जब वह खुश होते थे तो पलकों को बन्द कर लिया करते थे।
9- ज़ौर से हसने की जगह आप सिर्फ़ मुसकुराते थे।
10- फ़रमाते थे जो कोई ज़रूरत मन्द मुझ तक नहीं पहुंच सकता तुम उस तक पहुंचो।
11- जिस के पास जितना ईमान होता था रसूल उसका उतना ही ऐहतेराम किया करते थे।
12- लोगों से प्रेम करते थे और उन को कभी अपने आप से दूर नहीं करते थे।
13- हर काम में ऐतेदाल पसन्द थे और कमी और ज़्यादती का परहेज़ करते थे।
14- बिला वजह की बातों से परहेज़ करते थे।
15- ज़िम्मेदारी को अंजाम देने में किसी भी तरह की सुसती नहीं करते थे।
16- रसूल (स.) के नज़दीक सब से अच्छा शख़्स वोह है जो लोगों की भलाई चाहता है।
17- पैग़म्बर (स.) किसी मेहफ़िल, अंजुमन, और जलसे में नहीं बेठते थे जो यादे ख़ुदा से ख़ाली हो।
18- मजलिस में अपने लिये कोई ख़ास जगह मोअय्यन नहीं करते थे।
19- जब किसी मजमे में जाते थे तो ख़ाली जगह ठूंड कर बैठ जाते थे और अपने असहाब को भी हुक्म देते थे कि इस तरह किया करें।
20- जब कोई ज़रूरत मन्द आप के पास आता था तो उसकी ज़रूरत को पूरा करते थे या फिर अपनी बातों से उसको राज़ी कर लेते थे।
21- आप का तर्ज़े अमल इतना अच्छा था कि लोग आपको एक शफ़ीक़ बाप समझते थे और सब लोग उन के नज़दीक एक जैसे थे
22- आप की नशिस्त व बरख़्वास्त बुर्दबारी, शर्म व हया, सच्चाई और अमानत पर होती थी।
23- किसी की बुराई नहीं करते थे और न किसी की ज़्यादा तारीफ़ करते थे।
24- रसूले ख़ुदा (स.) तीन चीज़ों से परहेज़ करते थे झगड़ा, बिला वजह बोलना, बिना ज़रूरत के बात करना।
25- कभी किसी को बुरा भला नहीं कहते थे।
26- लोगों की बुराईयों को तलाश नहीं करते थे।
27- बिना किसी ज़रूरत के गुफ़तगू नहीं करते थे।
28- किसी की बात नहीं काटते थे मगर यह कि ज़रूरत से ज़्यादा हो।
29- बड़े इतमेनान और आराम के साथ क़दम उठाते थे।
30- आप की गुफ़तगू मुख़तसर, जामे और पुर सुकून और मझी हुई होती थी और आप की आवाज़ तमाम लोगों से अच्छी और दिल नशीन होती थी।
31- रसूले ख़ुदा (स.) सब से ज़्यादा बहादुर, और सब से ज़्यादा सख़ी थे।
32- पैग़म्बर (स.) तमाम मुशकिलात में सब्र से काम लिया करते थे।
33- पैग़म्बर (स.) ज़मीर पर बैठ कर ख़ाना ख़ाते थे।
34- अपने हाथों से अपने जूते टांकते और कपड़े सिलते थे।
35- इतना ख़ुदा से डरते थे कि आंसूओं से जानमाज़ भीग जाया करती थी।
36- हर रोज़ सत्तर बार इसतग़फ़ार पढ़ते थे।
37- अपनी ज़िन्दगी का एक लमहा भी बेकार नहीं गुज़ारा।
38- तमाम लोगों के बाद रसूल को ग़ुस्सा आता था और सब से पहले राज़ी होते थे।
39- आप मालदार और फ़क़ीर दोनों से एक ही तरह से मिलते थे और मुसाफ़ेहा (हाथ मिलाते) करते थे और अपने हाथ को दूसरों से पहले नहीं खींचते थे।
40- आप लोगों से मिज़ाह (हसी मज़ाक) फ़रमाते थे ताकि लोगों को ख़ुश कर सकें
इमामे सादिक़ अलैहिस्सलाम ने फ़रमायाः मैं उसको पसन्द नहीं करता कि जिस इंसान को मौत आ जाऐ और वह रसूल (स.) की सीरत पर अमल न करता हो।
पैग़म्बरे इस्लाम की बेसत
वह एक रहस्यमय रात थी। चांद का मंद प्रकाश नूर नामक पर्वत और उसके दक्षिण में स्थित मरूस्थल पर फैला हुआ था। मक्का और उसके आसपास की प्रकृति पर गहरी निद्रा छायी हुई थी। हर ओर आश्चर्य में डालने वाला एक मौन व्याप्त था। उन रहस्यम क्षणों में अचानक एक अनोखा और बिजली जैसा प्रकाश, आसमान में चमका और पैग़म्बरे इस्लाम हज़रत मुहम्मद मुस्तफ़ा सल्लल्लाहो अलैहे वआलेही वसल्लम के सामने क्षतिज पर छा गया। आपको अपने अस्तित्व में एक अजीब सी भावना का आभास हुआ। अचानक एक वैभवशाली अस्तित्व हज़रत मुहम्मद (स) के सामने प्रकट हुआ। पैग़म्बरे इस्लाम आकाश में जिस ओर भी दृष्टि दौड़ाते वह अस्तित्व हर क्षितिज पर दिखायी देता। वह ईश्वरीय दूतों तक ईश्वरीय संदेश वही पहुंचाने वाला फ़रिश्ता, जिबरईल था। जिरईल ने कहाः पढ़िये अपने प्रभु का नाम लेकर। वह प्रभु जिसने आपको और सभी मनुष्यों को पैदा किया। पढ़िये और उसको बड़ाई के साथ याद कीजिए। जिसने आपको पढ़ना सिखाया। अपने प्रभु का नामक लेकर पढ़िये जिसने सृष्टि की रचना की। जिसने मनुष्य को जमे हुए ख़ून से पैदा किया। पढ़िये कि आपका प्रभु सबसे महान है। जिसने क़लम द्वारा शिक्षा दी और मनुष्य को वह सब बताया जो वह नहीं जानता था। हज़रत मुहम्मद (स) ने, जिनका पूरा अस्तित्व ईश्वरीय प्रेम में डूबा हुआ था, उस आसमानी अस्तित्व के साथ पढ़ना आरंभ किया।
एक बार फिर आत्मा में समा जाने वाली आवाज़ वातावरण में गूंजी। हे मोहम्मद, आप ईश्वर के पैग़म्बर हैं और मैं उसका फ़रिश्ता जिबरईल हूं। पैग़म्बरे इस्लाम (स) उन विचित्र क्षणों में, कि जब संसार नींद में डूबा हुआ था, ईश्वर ने मक्के में अमीन अर्थात अमानतदार व ईमानदार के नाम से विख्यात हज़रत मोहम्मद (स) को पैग़म्बरी के महान पद पर सुशोभित कर दिया।
इस महाघटना के पश्चात पैग़म्बरे इस्लाम हेरा नामक गुफा से बाहर निकले। तारे अभी भी झिलमिला रहे थे और पैग़म्बरे इस्लाम (स) के सामने चांद अपने बारीक रूप में छटा बिखेर रहा था और मक्के का वातावरण शांत था। किन्तु यह मौन एक ऐसे आंदोलन की पृष्टठभूमि था जिसने संसार के अस्तित्व में फिर से प्राण डाल दिए। पूरी सृष्टि ईश्वर द्वारा पैग़म्बरे इस्लाम (स) के इस सम्मान पर गुनगुना रही थी। मानो पहाड़, मरुस्थल और जो कुछ आकाश व पृथ्वी पर था सबकुछ धीमे स्वर में कह रहे हों सलाम हो आप पर हे ईश्वर के सर्वश्रेष्ठ बंदे!
पैग़म्बरे इस्लाम (स) सोच-विचार में डूबे धीरे-धीरे क़दम बढ़ा रहे थे। वह अपने घर पहुंचना चाहते थे ताकि थोड़ा आराम करके इस महा-रहस्य को अपनी जीवनसाथी हज़रत ख़दीजा को बताएं। यह सोच कर पैग़म्बरे इस्लाम (स) अपने घर की ओर चल पड़े।
जब हज़रत ख़दीजा ने घर का द्वार खोला तो उन्हें पैग़म्बरे इस्लाम की काली व तेज भरी आखों में विशेष चमक दिखायी दी। उनके दमकते हुए चेहरे का तेज कई गुना हो गया था। हज़रत ख़दीजा समझ गयीं कि कोई घटना घटी है। पैग़म्बरे इस्लाम (स) ने थोड़ा आराम करने के पश्चात हज़रत ख़दीजा को वह सब कुछ बताया जिसे उन्होंने देखा था। हज़रत ख़दीजा के मन में एक हलचल मच गयी। उन्होंने पैग़म्बरे इस्लाम (स) से कहाः सलाम हो आप पर हे ईश्वर के पैग़म्बर! ईश्वर की सौगंध! जिसके हाथ में ख़दीजा का प्राण है, यह आपकी सदाचारिता व कठिनाइयां सहन करने का बदला है। इस प्रकार हज़रत ख़दीजा पैग़म्बरे इस्लाम (स) पर सबसे पहले ईमान लायीं।
अंधकार पर प्रकाश के प्रभुत्व व मानवता के पुनर्जीवन के इस दिवस पर एक बार फिर आप सबको हार्दिक बधाइयां।
जिस समय पैग़म्बरे इस्लाम (स) को ईश्वर ने अंतिम ईश्वरीय दूत बनाया उस समय संसार में उहापोह मची हुयी थी। अंधविश्वास व अज्ञानता के अंधकार ने मानवीय मूल्यों को इस प्रकार कुचल दिया था कि उसके चिन्ह दिखायी नहीं पड़ते थे। मनुष्य अपने मौलिक अधिकारों से वंचित था। हेजाज़ अर्थात वर्तमान सउदी अरब के एक बड़े भूभाग में महिला को पिता, पति या बड़े पुत्र की संपति समझा जाता था और वह उसे मीरास के रूप में अपने साथ ले जाता था। मनुष्य को वस्तु समझने का सबसे घृणित रूप, रीति-रिवाजो व धर्म के नाम पर होने वाले समारोहों में दिखायी देता था। कुछ क़बीलों में बेटियों को जीवित क़ब्र में दफ़्न करने का दृष्य बड़ा ही हृदय विदारक होता था। हर बुराई में निर्दयता व नृशंसता मौजूद थी। मनुष्य के सीने में ऐसा कठोर हृदय था कि वह ईश्वर के बजाए पत्थर व सितारों को पूजता था। धरती के दूसरे क्षेत्रों में लोगों की हत्या करना और युवराजों व अपदस्थ राजाओं को अंधा करना राजनैतिक प्रतिस्पर्धियों की एक आम शैली थी। ईश्वर को साकार रूप में देखने की अपनी इच्छा के कारण मनुष्य सूर्य और चंद्रमा, जैसी आसमानी चीज़ों, नाना प्रकार के पशुओं यहां तक कि मनुष्य को पूजने लगा था और इस अंधकार से बुद्धिमत्ता की ओर बढ़ना बहुत कठिन लग रहा था।
हर ओर फैले हुए इस संकटमय वातावरण में पैग़म्बरे इस्लाम हज़रत मोहम्मद मुस्तफ़ा सल्लल लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम ने सुधार का ध्वज फहराया।
इतिहास में है कि मक्के का एक निवासी कहता हैः मैंने पैग़म्बरे इस्लाम को देखा कि वह लोगों से अनन्य ईश्वर की उपासना के लिए कह रहे थे ताकि उन्हें मोक्ष मिल जाए। किन्तु कुछ लोग उनका मखौल उड़ा रहे थे और कुछ उनपर धूल-मिटटी फेंक रहे थे। कुछ दूसरे उन्हें गालियां दे रहे थे। इसी बीच एक बच्ची जिसके चेहरे से चिंता झलक रही थी, पानी से भरा एक बर्तन लायी। पैग़म्बरे इस्लाम ने अपना हाथ और चेहरा धोया और उस बच्ची से कहाः बेटी! चिंतित न हो! धैर्य रखो! अपने पिता के पराजित होने का भय न रखो। ईश्वर के धर्म की ही विजय होगी।
एक दिन पैग़म्बरे इस्लाम (स) मस्जिद में लोगों के बीच भाषण देते हुए कह रहे थेः हे लोगो! एक दूसरे के अधिकारों का सम्मान करो। सच बोलो और आपसी फूट से बचो! इस बीच एक गुट ताली बजाने लगा ताकि पैग़म्बरे इस्लाम (स) की आवाज़ लोगों के कानों तक न पहुंचे और उसने मखौल भरे स्वर में पैग़म्बरे इस्लाम से कहाः मोहम्मद! तुम्हारे प्रभु ने और क्या कहा है? कहो, ताकि हम हंसें। किन्तु पैग़म्बरे इस्लाम ने, शत्रु की यातनाओं पर ध्यान दिए बिना, धैर्य व स्नेह भरे मन से अपना हाथ आसमान की ओर उठाया और कहाः हे प्रभु! लोगों का मार्गदर्शन कर। इन्हें मार्ग दिखा! ये लोग अज्ञानी हैं।
वास्तव में मनुष्य का मार्गदर्शन व मोक्ष पैग़म्बरे इस्लाम की पैग़म्बरी के दायित्व का मुख्य संदेश है। पैग़म्बरे इस्लाम की पैग़म्बरी अज्ञानता, अनेकेश्वरवाद, अंधविश्वास और दूसरों के अधिकारों पर अतिक्रमण रोकने की दिशा में महाक्रांति लायी। इसीलिए बुद्धिजीवी, पैग़म्बरे इस्लाम (स) को मानव जीवन के इतिहास में आध्यात्म, मूल्यों के पालन और सामाजिक जीवन के क्षेत्र में सबसे बड़ी क्रान्ति का आधार मानते हैं। उन्होंने लोक-परलोक, दायित्वबोध, अर्थव्यवस्था और राजनीति, नैतिकता तथा आध्यात्म सहित हर छोटे-बड़े मामलों में मनुष्य के सामने उपाय पेश किए हैं। पैग़म्बरे इस्लाम (स) ने मानवता, न्याय और तर्क के माध्यम से मनुष्य को सर्वश्रेष्ठ मार्ग दिखाया।
पवित्र क़ुरआन के शब्दों में पैग़म्बरे इस्लाम (स) की पैग़म्बरी ने मनुष्य के सामने नया मार्ग खोला और उसका अत्याचार व अज्ञानता के अंधकार से प्रकाश व मोक्ष की ओर मार्गदर्शन किया। जैसाकि पवित्र क़ुरआन के सूरए अहज़ाब की आयत क्रमांक 43 में ईश्वर कहता हैः वह, वह है जो स्वंय और उसके फ़रिश्ते तुम मोमिनों पर सलाम भेजते हैं ताकि तुम्हें अंधकार से प्रकाश की ओर ले जाएं। इस अंधकार से अभिप्राय हर प्रकार का अंधकार है जिसका प्रभाव पूरे विश्व में, मनुष्य के जीवन में और इतिहास के सभी कालखंडों में दिखाई देता है। जैसे अनेकेश्वरवाद व नास्तिकता का अधंकार, अज्ञानता व अत्याचार का अंधकार, अन्याय व भेदभाव का अधंकार, नैतिकता से दूरी का अधंकार, भाई बंधुओं को मारने का अंधकार और ग़लत सोच का अन्धकार, जो भौतिकता का परिणाम है और जिसमें आज का मनुष्य ग्रस्त हो चुका है।
यह कहना उचित होगा कि आज के समाज को, जो आध्यात्मिक शून्य व बहुत अधिक अनैतिकता में ग्रस्त है, समय के किसी भी कालखंड की तुलना में ईश्वरीय दूतों की शिक्षाओं की बहुत अधिक आवश्यकता है। आज के युग में देशों के पास विगत की तुलना में बेहतर व व्यापक नियम हैं किन्तु अनुभवों ने यह दर्शा दिया है कि मानव द्वारा बनाए गए नियम उसके आत्मिक रोग के निदान के लिए पर्याप्त नहीं हैं। सामाजिक, आर्थिक व सुरक्षा संबंधी परिस्थितियां किसी भी समय की तुलना में इस समय अधिक जटिल हो चुकी हैं और यह सबकुछ वर्चस्ववादी शक्तियों के वर्चस्व की देन है। दूसरी ओर आजके मनुष्य का मानसिक स्तर पैग़म्बरे इस्लाम (स) के संदेश को समझने के लिए अधिक परिपक्व हो चुका है। ज्ञान जितना अधिक विस्तृत होगा इस्लाम का संदेश भी उतना ही फैलता जाएगा और बड़ी शक्तियां मानवीय भावनाओं के दमन और मनुष्य को अपने वश में करने के लिए पाश्विक हथकंडे जितना अधिक अपनाएंगी इस्लाम का प्रकाश उतना ही अधिक चमकेगा और मनुष्य को अपनी आत्मा की तृप्ति के लिए इसकी उतनी ही अधिक आवश्यकता पड़ेगी। आज इस्लाम के संदेश को समझने और अपनाने के लिए मनुष्य में व्याकुलता दिखाई पड़ रही है। वही संदेश जो एकेश्वरवाद, आध्यात्म, न्याय और मानवीय मूल्यों का संदेश है। जैसा कि लोगों विशेषकर वर्तमान समय के लोगों ने अपनी महाक्रान्तियों से यह दर्शा दिया है कि उन्हें आध्यात्म और नैतिकता की आवश्यकता है जो केवल ईश्वरीय दूतों की शिक्षा में ही मिलेगी।
पैग़म्बरे इस्लाम अपनी पैग़म्बरी का उद्देश्य, संसार में नैतिकता को उसके चरम पर पहुंचाना बताते हुए कहा करते थेः मुझे नैतिकता को संपूर्ण चरण तक पहुंचाने के लिए भेजा गया है। यह इस भौतिक संसार की ज़जीर की खोई हुई वह कड़ी है जिसे अंतिम ईश्वरीय दूत मानवता के लिए उपहार में लाया है।
हज़रत रसूल अल्लाह स.ल.व.व. की बेसत का लक्ष्य
हज़रत रसूल अल्लाह स.अ.की बेसत का सबसे महत्वपूर्ण लक्ष्य न्याय प्रणाली और समानता को स्थापित करना था जैसा कि क़ुरआन फ़रमाता है कि, हम ने अपने पैग़म्बरों को लोगों की हिदायत और उन्हें सही दिशा दिखाने के लिए दलीलों और न्याय प्रणाली के साथ भेजा ता कि लोग न्याय और समानता के उसूलों पर चलें।
आपकी बेसत का सबसे अहम लक्ष्य लोगों को हिदायत का रास्ता दिखाया जाना है, जिस से लोगों को असली सुख, सफ़लता और निजात प्राप्त हो सके।
इंसान नबियों और अल्लाह की ओर से नबियों पर आने वाली ख़बरों के बिना उन सुख, सफ़लता और निजात तक नहीं पहुँत सकता, क्योंकि इंसान की अपनी बुध्दि और ज्ञान उसके जीवन की बहुत सी आवश्यकताओं को तो पूरा कर सकते हैं लेकिन व्यक्तिगत, सामाजिक, आध्यात्मिक, दुनिया और आख़ेरत सुख और सफ़लता और निजात तक नहीं पहुँचा सकते, इसलिए अगर इंसानी बुध्दि और उसके निजी ज्ञान के अलावा इन तक पहुँचने के लिए कोई और रास्ता न हो तो अल्लाह की रचना पर सवाल खड़ा हो जाएगा।
ऊपर दिये गए विश्लेषण के बाद यह परिणाम सामने आता है कि अल्लाह की हिकमत ने इस आवश्यकता को समझते हुए इंसानी बुध्दि और ज्ञान से मज़बूत चीज़ को इंसान के जीवन के सभी क्षेत्र के विकास के लिए रखा, अब इंसान ख़ुद अपने आपको इतना पवित्र कर ले कि उस स्थान तक पहुँच जाए या कुछ दूसरे पवित्र लोगों द्वारा वह फ़ार्मूला हासिल कर ले, और उस सिलसिले का नाम वही (وحی)है,
जिसको अल्लाह ने नबियों से विशेष कर रखा है, नबी सीधे अल्लाह से और बाक़ी सभी नबियों के द्वारा अल्लाह के संदेश को हासिल करते हैं, और वह सारी चीज़ें जो असली सुख, सफ़लता औल निजात के लिए अनिवार्य हैं उन्हें हासिल कर लेते हैं। (आमूज़िशे अक़ाएद, पेज 178)
आपकी बेसत का दूसरा सबसे महत्वपूर्ण लक्ष्य न्याय प्रणाली और समानता को स्थापित करना था, जैसा कि क़ुर्आन फ़रमाता है कि, हम ने अपने पैग़म्बरों को लोगों की हिदायत और उन्हें सही दिशा दिखाने के लिए दलीलों और न्याय प्रणाली के साथ भेजा ता कि लोग न्याय और समानता के उसूलों पर चलें। (सूरए हदीद, आयत 25)
क्या आप जानते हैं कि, अल्लाह ने नबियों और रसूलों क्या लक्ष्य दे कर भेजा है, क्या बेसत पूजा से रोकें? या बेसत का लक्ष्य यह था कि हर दौर से अन्याय, अत्याचार और जेहालत को हमेशा के लिए उखाड़ कर इंसानी सभ्यता को स्थापित कर सकें? या लक्ष्य यह था कि लोगों को नैतिक सिध्दांत और समाजिक प्रावधानों से परिचित करा सकें जिस से लोग इसी आधार पर अपने जीवन संबंधों को सुधार सकें?
इस सवाल का जवाब इस प्रकार उचित होगा कि ऊपर जो भी कहा गया नबी का लक्ष्य और उद्देश्य इन सब से ऊँचे स्तर का होता है, ऊपर लक्ष्यों का नाम लिया गया है वह नबी के लक्ष्य और उद्देश्य का एक हिस्सा है, और वह लक्ष्य अत्याचार और अन्याय का सफ़ाया कर के व्यक्तिगत और समाजिक क्षेत्र में न्याय प्रणाली की स्थापना है, और हक़ीकत में यह लक्ष्य दूसरे तमाम लक्ष्यों को हासिल करने का बुनियादी ढ़ाँचा और पेड़ है,
बाकी लक्ष्य इसी के टहनी हैं, क्योंकि अल्लाह की इबादत, नैतिक सिध्दांत, समाजिक प्रावधान और इंसानी सभ्यता से दूरी का कारण सही न्याय प्रणाली का न होना है।
शब ए मेराज का हैरत अंगेज़ वाक़िया और सफ़र का वक़्त
आज 27 रजब की वह शब है जब हज़रत मुहम्मदे मुस्तफ़ा स.अ व. ने अपना आसमानी सफ़र किया था जिसे हम शबे मेराज कहते हैं।
आज 27 रजब की वह शब है जब हज़रत मुहम्मदे मुस्तफ़ा स.अ व. ने अपना आसमानी सफ़र किया था जिसे हम शबे मेराज कहते हैं।
आइये इस वाक़िये को हम साइंस की मदद से समझने की कोशिश करते हैं! आज की साइंसी तहक़ीक़ का सबसे बड़ा मौज़ू Time Travel है कि क्या रौशनी की रफ़्तार को पाकर वक़्त में सफ़र किया जा सकता है?
Time Travel पर बहुत सी किताबें भी लिखी गई हैं और फ़िल्में भी बनाई गई हैं! क्या इंसान कोई ऐसी टाईम मशीन बना सकता है जिसके ज़रिये वह माज़ी और मुस्तक़बिल में सफ़र कर सके और फिर हाल में वापस लौट आए?
आइंस्टीन की जनरल थ्योरी ऑफ़ रिलेटिविटी हमें यह बताती है कि ऐसा मुम्किन है लेकिन इसके लिए जो सूरत-ए-हाल दरकार हैं वह फ़िलहाल इंसान की पहुँच से बाहर हैं! वक़्त और ख़ला में सफ़र के तसव्वुर यानी Time Travel में मेराज का हैरत अंगेज़ वाक़िया भी शामिल है।
सूरए इसरा की पहली आयत में इरशाद है: "वह क़ादिरे मुतलक़ हर ख़ामी से पाक है, एक रात अपने बन्दे को मस्जिद अल हराम (यानी ख़ानए काबा) से मस्जिदे अक़्सा (यानी बैतुल मुक़द्दस) जिसके चारों तरफ़ हमने बरकतें रखी हैं ले गया ताकि हम उसे अपनी (क़ुदरत की) अज़ीम निशानियाँ दिखाएं, बेशक वह सुनने वाला (और) देखने वाला है!
चलिए अब हम वाक़ेए शबे मेराज पर रौशनी डालते हैं और जानते हैं कि आज की जदीद तरीन फ़िज़िक्स इस बारे में क्या कहती है? हुज़ूरे पाक (स) ने अपनी मुबारक ज़िंदगी का सबसे बड़ा सफ़र हज़रत जिब्रईल अलैहिस्सलाम के साथ तय किया जिसमें ज़मीनी और आसमानी दोनों मरहले शामिल हैं यानी आप (स) वक़्त के एक बहुत मुख़्तसर से अरसे में मस्जिदे हराम से मस्जिदे अक़्सा और फिर मस्जिदे अक़्सा से सिदरतुल मुन्तहा यानी सातवें आसमान की आख़िरी हद पहुंचे जिसके पार किसी भी मख़लूक़ को जाने की इजाज़त नहीं है न ही कोई वहाँ तक पहुँच सकता है।
यह वाक़िया उस क़ादिरे मुतलक़ की निशानियों में से एक निशानी था जिसमें उसने यह पूरी सैर वक़्त के उस मुख़्तसर से लम्हे में करवाई! यह वक़्त हमारे लिए क़लील था लेकिन आप हुज़ूर (स) ने शबे मेराज में काफ़ी वक़्त बिताया, अम्बिया-ए-इकराम से मिले लेकिन जब आप ज़मीन पर वापिस लौटे तो कोई भी तब्दीली नहीं आई थी यानी आप (स) जिस तरह और जिस हालत में कुछ भी छोड़कर गए थे वह बिल्कुल वैसा ही उसी तरह और उसी हालत में मौजूद था
मतलब यह कि ज़मीन पर वक़्त में कोई तब्दीली नहीं आई थी जबकि आप (स) के लिए वक़्त मुसलसल चलता रहा! जहाँ एक तरफ़ इंसानी अक़्ल इसको तस्लीम करने से कतराती है वहीं दूसरी तरफ 20 वीं सदी इसे तहलका ख़ेज़ साबित हुई है जिसने ज़मान व मकान (Space & Time) का एक ऐसा तसव्वुर और नक़्शा खींचकर सामने रखा जिसे हज़म करना बहुत ही ज़ियादा मुश्किल है।
हम जानते हैं कि आइंस्टीन का ख़ास और आम नज़रिय-ए-इज़ाफ़ियत (Special and General Theory of Relativity) महज़ एजाज़ व शुमार तक ही महदूद नहीं है बल्कि अगर कोई इन theories की शराएत को अमली जामा पहना दे तो सफ़रे वक़्त हरगिज़ मुम्किन है! यह तो हम सब जानते हैं कि आप (स) को मस्जिदे अक़्सा की तरफ़ बुर्राक़ की मदद से ले जाया गया था! यहाँ पर बुर्राक़ का मतलब है बिजली, नूर या रौशनी से है।
बुर्राक़ की ख़ास बात यह थी कि यह सवारी रौशनी से भी ज़ियादा तेज़ रफ़्तार से हरकत कर सकती थी! मगर यहाँ एक बहुत ही बड़ा मसला दरपेश आता है वह यह कि नज़रिया-ए-इज़ाफ़ियत (Theory of Relativity) के मुताबिक़ हमारे fourth डायमेंशन वाली दुनियाँ में कोई भी शै रौशनी की रफ़्तार से तेज़ हरकत नहीं कर सकती है यानी कि नज़रिया-ए-इज़ाफ़ियत के मुताबिक़ रफ़्तार की आख़िरी हद रौशनी की रफ़्तार है जो कि तीन लाख किलोमीटर फ़ी सेकण्ड है।
तो क्या यहाँ हमारी इस तहक़ीक़ में कुछ missing है यानी कि क्या अब हम इस वाक़िये को आगे explain नहीं कर सकते? क्या बुर्राक़ की रफ़्तार रौशनी से तेज़ नहीं थी? आइए दोस्तों! इस मसले का हल निकालते हैं कि आया हमारी क़ाएनात में महज़ रौशनी की रफ़्तार ही रफ़्तार की आख़िरी हद है या इसकी हद से तजावुज़ किया जा सकता है? इस पेचीदगी से भरी क़ाएनात में कई ऐसी तब्दीलियाँ रूकू पज़ीर हो रही हैं जो रौशनी से भी ज़ियादा तेज़ हैं! साइंसदानों को इस बात के सबूत मिलने लगे हैं कि रौशनी की रफ़्तार से ज़ियादा तेज़ रफ़्तार मुम्किन है! यानी कि अब इस बात में कोई हैरानगी नहीं कि बुर्राक़ की रफ़्तार रौशनी से भी ज़ियादा तेज़ रही होगी! स्ट्रिंग थ्योरी भी ऐसे पार्टिकल्स का ज़िक्र करती है जो रौशनी से भी ज़ियादा तेज़ हरकत कर सकते हैं और इस पार्टकिल का नाम है टैकीऑन! इससे यह बात ज़ाहिर होती है कि बुर्राक़ की रफ़्तार बहुत ज़ियादा तेज़ थी और आप (स) को यह मस्जिदे हराम से मस्जिदे अक़्सा की तरफ़ ले गई! दोस्तों अगर हम अब हाल की दुनियां की तरफ़ रुजू करें तो बात सामने आती है कि मस्जिदे अक़्सा और मस्जिदे हराम का फ़ासला 1461 किलोमीटर है जो कि बहुत ही ज़ियादा है और अगर फ़ासले को एक गाड़ी से तय करें तो हमे तक़रीबन 16 घण्टे दरकार होंगे और अगर हम गाड़ी के बजाएं इसी फ़ासले को जहाज़ से तय करें तो हमें तक़रीबन 2 या 3 घंटे दरकार होंगे! यानी कि जैसे जैसे हम रफ़्तार बढ़ाते चले जायेंगे वैसे वैसे वक़्त भी कम होता जा रहा है! आइये दोस्तों! अब कि सादा फ़ार्मूला की मदद लेते हैं जो कि आपने भी कभी पढ़ा होगा S = V X T. यानी फ़ासला बराबर है रफ़्तार ज़र्बे वक़्त! दोस्तों हमने यह तो जाना कि एक मामूली गाड़ी 1461 किलोमीटर के फ़ासले के लिहाज़ से 16 घण्टे में मस्जिदे हराम से मस्जिदे अक़्सा पहुंचेगी! लेकिन हमारा यहाँ वास्ता मामूली रफ़्तार से नहीं बल्कि तसव्वुर की जाने वाली रफ़्तार से भी ज़ियादा रफ़्तार से है! यानी फ़ासला 1461 किलोमीटर तो है लेकिन रफ़्तार तीन लाख किलोमीटर फी सेकंड है और अब अगर हम इस फ़ासले और रफ़्तार को तक़सीम करके वक़्त निकालें तो यह 0.00487 सेकंड के क़रीब आता है जो कि वक़्त की बहुत ही ज़ियादा क़लील मिक़दार है! अब तसव्वुर कीजिये तो वह बुर्राक़ जो रौशनी से भी ज़ियादा तेज़ थी इसे कितना वक़्त लगा होगा यह फ़ासला तय करने में लेकिन अगर रौशनी ही यह फ़ासला इतने क़लील वक़्त में तय करवा सकती है तो बहस क्यों हो रही है कि बुर्राक़ की रफ़्तार रौशनी से ज़ियादा तेज़ थी?
आइए इसे भी जान लेते हैं! अगर हम बुर्राक़ की रफ़्तार को रौशनी की रफ़्तार तसव्वुर करके चलें तो यहाँ थ्योरी ऑफ़ रिलेटिविटी हमारे सामने एक बार फिर एक बड़ा मसला पेश करती है जबकि इसी मसले को मुख़्तलिफ़ websites और स्कॉलर्स शबे मेराज का हल बताते हैं जो कि बिल्कुल ग़लत है! थ्योरी ऑफ़ रिलेटिविटी के मुताबिक़ अगर कोई मफ़ऊल रौशनी की रफ़्तार के 99 फ़ीसद से हरकत करने लगे तो इसके लिए वक़्त आहिस्ता हो जाता है जबकि गिर्द व नवाँ का वक़्त तेज़ हो जाता है यानि एक जहाज़ 99.99 फ़ीसद या रौशनी की रफ़्तार की ऐन बराबर हरकत करने लगे तो इसके लिए वक़्त बहुत आहिस्ता हो जायेगा बनिस्बत इसके गिर्द व नवां कि और अगर यह जहाज़ इसी रफ़्तार से हरकत करता रहे तो ज़मीन पर एक हफ़्ता गुज़र जायेगा! जबकि जहाज़ के अंदर महज़ 24 घंटे गुज़रे होंगे! यानी रौशनी की रफ़्तार से हरकत करते हुए जहाज़ के लिए वक़्त आहिस्ता होगा न की गिर्द व नवाँ का लेकिन अगर हम इसी उसूल को मेराज-उन-नबी (स) पर लागू करें तो इसका मतलब बुर्राक़ की रफ़्तार अगर रौशनी की रफ़्तार के बराबर थी तो आप (स) के लिए वक़्त आहिस्ता होना चाहिए था! जबकि ज़मीन का वक़्त तेज़ होना चाहिए था! लेकिन हक़ीक़तन ऐसा नहीं बल्कि मामला इसके बरअक्स है यानी आप हुज़ूर (स) के लिए वक़्त चलता रहा जबकि गिर्द व नवाँ का वक़्त रुक चुका था! यानी आप हुज़ूर (स) ने वक़्त की इन्तेहाई क़लील मिक़दार में यह सैर और सफ़र मुकम्मल किया! लिहाज़ा थ्योरी ऑफ़ रिलेटिविटी यहाँ एक बार फिर रुकावट पैदा करती है! जो कि यह कि रौशनी की रफ़्तार से हरकत करता मफ़ऊल वक़्त को अपने लिए आहिस्ता महसूस करता है लेकिन मेरे अज़ीज़ दोस्तों! आप के इल्म में इज़ाफ़े के लिए अर्ज़ है कि इसी उसूल को तोड़ने के लिए बुर्राक़ की रफ़्तार को रौशनी की रफ़्तार से तेज़ रखा गया था! क्योंकि थ्योरी ऑफ़ रिलेटिविटी उसी वक़्त लागू होती है जब कि ऑब्जेक्ट रौशनी की रफ़्तार या इसके 99 फ़ीसद रफ़्तार तक हरकत करे! चूँकि दोस्तों बुर्राक़ की रफ़्तार रौशनी से ज़ियादा थी इसलिए अब यहाँ नजरिया-ए-इज़ाफ़ियत लागू नहीं कर सकते यानी इस मर्तबा नज़रिया-ए-इज़ाफ़ियत के मुताबिक़ वक़्त न तो आप हुज़ूर (स) आहिस्ता होगा और न ही गिर्द व नवाँ के लिए! लेहाज़ा हम तसव्वुर कर सकते हैं कि बुर्राक़ की रफ़्तार रौशनी की रफ़्तार का दोगुना है जोकि 6 लाख किलोमीटर फ़ी सेकंड है और अगर हिसाब से मस्जिदे हराम और मस्जिदे अक़्सा के दरमियान दरकार वक़्त निकालें तो जवाब 0.002435 सेकंड आएगा! लिहाज़ा दोस्तों! इससे हम यह अंदाज़ा लगा सकते हैं कि आप हुज़ूर (स) को मस्जिदे अक़्सा तक पहुँचने में महज़ 0.002435 सेकंड का वक़्त लगा होगा! लेकिन मैं यहाँ पर थ्योरी ऑफ़ रिलेटिविटी को ध्यान में रखते हुए बुर्राक़ की रफ़्तार को रौशनी की रफ़्तार के बराबर मान रहा हूँ जिसके हिसाब से बुर्राक़ को मस्जिदे हराम से मस्जिदे अक़्सा तक पहुँचने में महज़ 0.00487 सेकण्ड लगे! जब आप हुज़ूर (स) मस्जिदे अक़्सा पहुंचे तो आप ने वहां जमात भी करवाई और फिर सात आसमानों का सफ़र भी तय किया और फिर क़ाएनात के इख़्तेतामी मुक़ाम सिदरतुल मुंतहा भी पहुंचे और दोस्तों अगर हम यही मानें कि बुर्राक़ की रफ़्तार रौशनी की दोगुना थी तो फिर भी बुर्राक़ को सिदरतुल मुंतहा पहुँचने में अरबों साल दरकार होंगे! क्योंकि दोस्तों इस लिहाज़ से बुर्राक़ को सूरज तक पहुँचने में 8 मिनट लगेंगे जो की सिदरतुल मुंतहा के मुक़ाबले ज़मीन के बहुत नज़दीक है! इसकी वजह यह है कि सूरज से ज़मीन तक रौशनी पहुँचने में 8 मिनट से कुछ ज़ियादा का वक़्त लेती है और इसी लिहाज़ से बुर्राक़ भी 8 मिनट लेगी! लिहाज़ा सिदरतुल मुंतहा जो कि खरबों खरबों नूरी साल या तसव्वुर की जाने वाली किसी भी दूरी से भी ज़ियादा नूरी साल दूर है वहाँ बुर्राक़ को जाने में कई अरबों साल दरकार होंगे जबकि आप हुज़ूर (स) ने यह सफ़र पलक झपकते ही तय कर लिया लिहाज़ा अभी भी सवाल बहुत बाक़ी हैं! अगर आप हुज़ूर (स) बुर्राक़ पर ही आसमानी सफ़र करते जो आज तक भी बुर्राक़ सिदरतुल मुन्तहा तक नहीं पहुँच पाता लेकिन अल्लाह ने यही सफ़र आप हुज़ूर (स) को उसी रात के उसी सेकंड से भी कम वक़्त में मुकम्मल करवाया! आख़िर यह कैसे मुम्किन है? दोस्तों! अगर हम ग़ौर करें तो हमें मालूम होता है कि आप हुज़ूर (स) जब मस्जिदे अक़्सा उतरे तो बुर्राक़ को वहाँ बांध दिया गया था! यानी इसके बाद बुर्राक़ पर मज़ीद सफ़र नहीं किया गया बल्कि आप हुज़ूर (स) को एक आसमानी सीढ़ी की मदद से सातों आसमानों की सैर करवाई गई! लेकिन दोस्तों अगर हम सात सीढ़ियों को भी सात आसमानों से मुनसलीक़ करें तो भी सिदरतुल मुन्तहा और ज़मीन के दरमियान का फ़ासला बहुत ही ज़ियादा होगा क्योंकि हम जानते हैं कि एक सीढ़ी फ़ासला कम नहीं करती बल्कि वह तो हमें निचली ज़मीनी सतह से ऊंचाई उपरी सतह तक ले जाने में मदद देती है! तो अब हम यह कैसे मान लें कि मस्जिदे अक़्सा और आसमानी सफ़र सीढ़ी की मदद से मुकम्मल हुआ? क्योंकि बुर्राक़ का इस्तेमाल तो इस मरतबा नहीं किया गया और अगर सीढ़ी को भी सच मानें तो भी सफ़र बहुत तवील फ़ासले की वजह से आज भी जारी होता! मगर घबराईए नहीं इसका जवाब यह है कि यह सीढ़ी हमारी तसव्वुर की जाने वाली सीढ़ी नहीं बल्कि यह वह सीढ़ी है जो आइंस्टीन और थ्योरी ऑफ़ रिलेटिविटी की कैलकुलेशन के दौरान कैलकुलेट की थी! जी हाँ! यह हक़ीक़त है और इस सीढ़ी को जदीद फ़िज़िक्स की ज़बान में नाम 'वॉर्म होल' कहते है!
आइये अब जान लेते हैं कि कैसे यह सीढ़ी एक वॉर्म होल है और क्या इसका क़ुरआन में कोई ज़िक्र मौजूद है? दोस्तों जब आप (स) ने मस्जिदे अक़्सा से आसमानी सफ़र किया तो वह क़ाएनात के इख़्तेतामी मुक़ाम पर पहुंचे और मज़ीद आप (स) ने जन्नत और जहन्नम को भी देखा और कई लोग भी देखे जो जहन्नम में अपने किये की सज़ा काट रहे थे! अब यहाँ यह मसला आता है कि क़यामत तो अभी आयी ही नहीं तो यानी इंसानों के जन्नती और जहन्नमी होने का फ़ैसला तो हुआ ही नहीं तो फिर यह कैसे मुम्किन हुआ कि आप हुज़ूर (स) ने इंसानों को जहन्नम में देखा मगर मेरे अज़ीज़ों मेरा यक़ीन कीजिये कि यही सवाल हमारे इस वाक़िये का सबसे बड़ा हल है! जी हाँ! जब आप हुज़ूर (स) ने जहन्नमियों को देखा तो दरअसल उस वक़्त आप हुज़ूर (स) मुस्तक़बिल (भविष्य) में मौजूद थे! यक़ीनन आप को यह सब कुछ अजीब सा मालूम हो रहा होगा! मगर यह हक़ीक़त है! दोस्तों आज साइन्स यह साबित करती है कि माज़ी मुस्तक़बिल और हाल (भूतकाल, वर्तमान, भविष्यकाल) ब एक वक़्त मौजूद होते हैं लिहाज़ा अब सवाल यह है कि आप हुज़ूर (स) मुस्तक़बिल (भविष्य) में कैसे पहुँचे? आइये इसे तफ़सील से जान लेते हैं और इस मक़सद के लिए वॉर्म होल को टटोलते हैं!
दोस्तों! वॉर्म होल ख़ला ए वक़्त यानी मकान व ज़मान में एक ऐसा शार्ट कट और मुख़्तसर तरीन रास्ता बनाते हैं जिनका तसव्वुर इंसानी सोच को हैरान कर देता है! वॉर्म होल एक ऐसा क़ुदरती सुराख़ है जो कि वक़्त के मुख़्तलिफ़ हिस्सों को आपस में जोड़ता है यानी वॉर्म हॉल स्पेस में पाए जाने वाले ऐसे होल्स हैं जो खरबों खरबों और ट्रिलियन नूरानी सालों के फ़ासले को महज़ क़दमों की मुसाफ़त में तब्दील करने की क़ुव्वत रखते हैं और साथ ही यह वक़्त के मुख़्तलिफ़ पहलुओं को आपस में मुन्सलीक़ करते हैं यानी अगर एक वॉर्म होल के एक सिरा सन एक हज़ार में खुलता है तो इसका दूसरा सिरा मुम्किन है कि सन चार हज़ार यानी मुस्तबील में खुले! और यह कोई तसव्वुराती ख़याल नहीं बल्कि थ्योरी ऑफ़ रिलेटिविटी इस बात को सच साबित करती है लिहाज़ा इससे हम यह मान सकते हैं कि आप हुज़ूर (स) मस्जिदे अक़्सा से रवाना हुए तो दरअसल वह सीढ़ी एक वॉर्म होल थी जो मस्जिदे अक़्सा से आसमानों की तरफ़ आप को ले गई! क्योंकि आप हुज़ूर (स) ने इस तसव्वुर भी न किये जाने वाले फ़ासले को महज़ चंद लम्हात में ही मुकम्मल कर लिया और वह सात दरवाज़े जहाँ से आप हुज़ूर (स) गुज़रे वह सात मुख़्तलिफ़ वॉर्म होल्स थे जो मतलूब जगहों और वक़्त में खुलते गए!
मैं आपको मज़ीद बताता चलूँ कि वॉर्म होल्स मकान व ज़मान (Space & Time) में पाए जाने वाले ऐसे शॉर्टकट व खुफ़िया रास्ते हैं जिनकी मदद से क़ाएनात की बहुत लम्बी-लम्बी दूरियों को पल भर में तय किया जा सकता है! वॉर्म होल्स के बारे में आइंस्टीन की जनरल थ्योरी ऑफ़ रिलेटिविटी हमें बहुत कुछ बताती है कि कैसे वॉर्म होल्स के ज़रिये स्पेस-टाईम में शार्ट कट पैदाकर के बहुत तवील सफ़र पल भर में तय किया जा सकता है!
वॉर्म होल्स का तस्सव्वुर सबसे पहले 20 वीं सदी के सबसे ज़हीन तरीन साइंसदान अल्बर्ट आइंस्टीन ने सन 1905 में अपनी जनरल थ्योरी ऑफ़ रिलेटिविटी में किया था! बाद में 1935 में आइंस्टीन और एक दूसरे साइंसदान नाथन रोसेन ने जनरल थ्योरी ऑफ़ रिलेटिविटी के इस तसव्वुर की मदद से इस पर मज़ीद रौशनी डाली और स्पेस-टाईम के दरमियान कुछ तरह के ब्रिजों (Bridges) या सीढियों का तसव्वुर पेश किया! यह ब्रिज स्पेस-टाईम दो अलग अलग हिस्सों को आपस में जोड़ने का काम करते हैं और नज़रियाती तौर पर स्पेस-टाईम के दरमियान एक ऐसा शार्ट कट पैदा करते हैं जो दूरी और सफ़र के वक़्त को घटा देते हैं! इन शॉर्टकट्स को हम Einstein-Rosen Bridges या wormholes भी कहते हैं! वॉर्महोल्स स्पेस-टाईम के दरमियान एक तरह के tunnel के जैसे होते हैं जिसके एक सिरे से अगर आप अंदर जाओगे तो दूसरा सिरा अरबों नूरानी साल दूर खुलेगा और यह सफ़र आप चंद लम्हों में तय कर सकते हैं! यह सब आपको जादुई तिलिस्मी दुनियाँ के जैसा लगता है लेकिन यह महज़ साइंस फ़िक्शन नहीं बल्कि आइंस्टीन की जनरल थ्योरी ऑफ़ रिलेटिविटी ख़ला में इनकी मौजूदगी की निशानदेही और मौजूद होने की पेशनगोई करती है!
अब वॉर्म होल्स की मौजूदगी के लिहाज़ से क़ुरआन की यह आयत मुलाहेज़ा फ़रमाएं: "और इन्साफ़ का दिन ज़रूर वाक़ेह होगा और आसमान की क़सम जिसमें कई रास्ते हैं! (सूरए ज़र्रियत, आयत 6)
इस आयत में अल्लाह ने महज़ आसमानों में रास्तों का हल्का सा इशारा दिया है। क़ुरआन में मज़ीद इरशाद है: "और अगर हम आसमान का कोई दरवाज़ा उन पर खोल दें और वह उसमें चढ़ने भी लगें तो भी वह यही कहेंगे कि हमारी आँखें बाँध दी गई हैं बल्कि हम पर जादू कर दिया गया है! और हमने आसमान में बुर्ज बनाए हैं और देखने वालों के लिए उसको सजा दिया है! (सूरए हिज्र, आयत 13, 17)
इस आयत में हक़ीक़त खुलकर सामने आती है क्योंकि यह आयतें साफ़ तौर पर दरवाज़ों और फिर इन पर चलने का ज़िक्र भी करती है! यही आसमानी दरवाज़े आज की थ्योरी ऑफ़ रिलेटिविटी के मुताबिक़ वॉर्म होल्स हैं! दोस्तों अब अच्छी समझ के लिए सात दरवाज़ों के बजाए महज़ दो दरवाज़ों यानी दो वॉर्म होल्स का तसव्वुर कीजिये! पहला वह जिसका एक सिरा मस्जिदे अक़्सा से मुन्सलीक़ था और दूसरा वह जो आप हुज़ूर (स) को सबसे आख़िरी मुक़ाम सिदरतुल मुन्तहा तक ले गया! इन्हीं वॉर्महोल्स का तसव्वुर ध्यान में रखते हुए मज़ीद तसव्वुर कीजिये कि आप हुज़ूर (स) बुर्राक़ की मदद से मस्जिदे हराम से मग़रिब की नमाज़ के बाद 8 बजे निकले और मस्जिदे अक़्सा पहुँचने में 0.00487 सेकंड लगे! और हम जानते हैं कि हुज़ूर (स) ने वहाँ नमाज़ भी पढ़ाई! मान लीजिये कि आप हुज़ूर (स) को नमाज़ पढ़ाने में 10 मिनट का भी वक़्त लगा होगा! यानी वक़्त अब 8 बजकर 10 मिनट और 0.00487 सेकण्ड रहा होगा और इसी वक़्त नमाज़ की अदाएगी के बाद आप हुज़ूर (स) ने अपना आसमानी सफ़र शुरू किया जोकि आसमानी सीढ़ी यानी वॉर्महोल्स की मदद से हुआ! यहाँ एक बात क़ाबिले ग़ौर है वह यह कि ज़मीन और सिदरतुल मुन्तहा के दरमियान फ़ासला जितना तवील था मगर वॉर्महोल की मदद से वह फ़ासला बिल्कुल ना कि बराबर था! क्योंकि वॉर्महोल के दोनों सिरे मतलूब जगह पर फ़िक्स होते हैं और इनके दरमियान में कोई फ़ासला नहीं यानी जैसे ही एक सिरे से दाख़िल हुआ जायेगा वैसे ही तवील फ़ासला पलक झपकते ही तय हो जाएगा और इंसान दूसरे सिरे से ख़ारिज हो चुका होगा लिहाज़ा इस आसमानी सीढ़ी ने आप हुज़ूर (स) को मस्जिदे अक़्सा से सिदरतुल मुन्तहा बाआसानी पहुँचा दिया और वहीं दूसरी तरफ़ आप हुज़ूर (स) मुस्तक़बिल में पहुँचे जहाँ आप हुज़ूर (स) ने जहन्नमियों को देखा! जैसा कि मैंने आप को बताया ख़ुद यहाँ माज़ी, मुस्तक़बिल व हाल ब एक वक़्त एक साथ मौजूद रहते हैं!
आइये इसे थोड़ा तफ़सील से जान लेते हैं! तसव्वुर कीजिये कि जंगल में एक शेर अपनी ख़ुराक (हिरन) की तलाश में निकलता है मगर वह यह नहीं जानता कि ख़ुराक इससे दो दिन की दूरी पर मौजूद है! यानी अगर वह दो दिन तक मुसलसल चले तो ही इसे ख़ुराक मिलेगी! इसका मतलब यह हुआ कि दो दिन के बाद मुस्तक़बिल में ख़ुराक इसके पास मौजूद होगी लेकिन फ़िलहाल शेर को यूँ मालूम हो रहा है ख़ुराक इस दुनियां में इसके लिए आयी ही नहीं जबकि दो दिन बाद वह ख़ुराक इसके पास होगी यानी मुस्तक़बिल में वह ख़ुराक अभी भी मौजूद है! दोस्तों अब शेर और इसका मुस्तक़बिल यानी कि ख़ुराक ख़ुदा के यहाँ ब एक वक़्त एक साथ मौजूद हैं! इसी तरह दोस्तों आज के इंसान और मुस्तक़बिल जहाँ वह जन्नत में होगा या दोज़क में होगा ख़ुदा के यहाँ ब एक वक़्त मौजूद हैं और इसी वक़्त के दो पहलुओं को अल्लाह वॉर्म होल्स के ज़रिये आपस में जोड़कर आप हुज़ूर (स) को मुस्तक़बिल के जहन्नमियों को दिखाया क्योंकि थ्योरी ऑफ़ रिलेटिविटी इस बात की ऐन इजाज़त देती है कि वॉर्म होल्स हमें माज़ी, मुस्तक़बिल और हाल तीनों में पहुँचा सकते हैं यानी अब अगर हम यह मानकर आगे चलते हैं कि आप हुज़ूर (स) मस्जिदे अक़्सा से 8 बज के 10 मिनट और 0.00487 सेकण्ड पर अपना आसमानी सफ़र शुरू करते हैं और फिर चन्द ही लम्हों में सिदरतुल मुन्तहा तक पहुँचते हैं और अपनी आसमानी सैर जारी रखते हैं और जब आप हुज़ूर (स) यह सैर मुकम्मल करके दोबारा मस्जिदे अक़्सा आते हैं तो फिर वही वॉर्म होल का इस्तेमाल करते हैं! जिसका ज़िक्र आसमानी सीढ़ी के नाम से किया जाता है चूंकि दोस्तों इस सीढ़ी का सिरा मस्जिदे अक़्सा से मुन्सलिक़ था तो यहाँ यह बात भी क़ाबिले ग़ौर है कि वही वॉर्म होल यानी आसमानी सीढ़ी वक़्त के उसी पहलू पर खुलती थी जब वक़्त 8 बज के 10 मिनट और 0.00487 सेकण्ड था यानी जब आप हुज़ूर (स) 8 बज के 10 मिनट और 0.00487 सेकण्ड पर आसमानी सीढ़ी का इस्तेमाल करते हैं तो आप हुज़ूर (स) चन्द लम्हात में ही क़ाएनात के आख़िरी मुक़ाम तक पहुँच जाते हैं और फिर तक़रीबन 27 साल का सफ़र मुकम्मल करके ज़मीन पर वापस आ जाते हैं!
आइये दोस्तों! हम अब कुल वक़्त टोटल करते हैं यानी जब आप हुज़ूर (स) मस्जिदे हराम से मस्जिदे अक़्सा रवाना हुए तो आप हुज़ूर (स) को 0.00487 लगे फिर मस्जिदे अक़्सा में नमाज़ की अदायगी में 10 मिनट लगे और फिर मस्जिदे अक़्सा से आसमानी सफ़र में ज़ीरो सेकंड लगे क्योंकि वॉर्म होल यानी आसमानी सीढ़ी ने मस्जिदे अक़्सा वाले सिरे को 8 बज के 10 मिनट और 0.00487 सेकण्ड पर फ़िक्स किया था! थ्योरी ऑफ़ रिलेटिविटी भी यही कहती है कि वॉर्म होल के हम एक सिरे से दाख़िल होकर हाल से मुस्तक़बिल में और मुस्तक़बिल से दोबारा हाल के उसी वक़्त में वापिस लौट सकते हैं और ऐन यह ही शबे मेराज के आसमानी सफ़र में हुआ यानी कि दोस्तों अब आसमानी सफ़र के लिए वक़्त ज़ीरो सेकण्ड लगा! इस कैलकुलेशन के लिहाज़ से आप हुज़ूर (स) को इस पूरे सफ़र में 600.00487 सेकण्ड लगे लेकिन दोस्तों यह वक़्त बहुत ज़ियादा है जबकि इस्लामी तालीमात के लिहाज़ से आप हुज़ूर (स) ने पलक झपकने के दौरान यह सफ़र मुकम्मल कर लिया जबकि 10 मिनट में ज़मीन पर बहुत कुछ किया जा सकता है लिहाज़ा यह कैलकुलेशन भी ग़लत हैं! और एक बार फिर हमारी कोशिश पर पूरी तरह से पानी फेर देती है! पर मेरा एतबार कीजिये कि हम इसे बिल्कुल ठीक कर सकते हैं! चलिए थोड़ा सा पीछे चलते हैं! यह तो मैंने आपको बताया कि 'वॉर्म होल' हाल और मुस्तक़बिल (वर्तमान और भविष्य) को जोड़ते हैं लेकिन ध्यान देने वाली बात यह थी कि मैंने आपको यह भी ज़िक्र किया था कि वॉर्म होल्स मुस्तक़बिल व हाल को तो जोड़ता ही है लेकिन साथ ही वह मुस्तक़बिल को माज़ी (भविष्य को भूतकाल) के साथ भी जोड़ता है यानी कि वह आसमानी सीढ़ी जिसे हम वॉर्म होल कह रहे हैं और जिसका सिरा सिदरतुल मुन्तहा और मस्जिदे अक़्सा से मुन्सलिख़ था वह आसमानी सफ़र के इब्तेदा में 8 बज के 10 मिनट और 0.00487 सेकण्ड के वक़्त से मुन्सलिख़ था लेकिन जब आप हुज़ूर (स) वापस लौटे तो वह सिरा 8 बज कर 10 मिनट और 0.00487 की बजाएं 8 बजकर 0.00487 सेकण्ड के वक़्त से मुन्सलिख़ था! ऐन वह वक़्त जब आप (स) बुर्राक़ से उतरे ही थे क्योंकि अगर 8 बज के 10 मिनट और 0.00487 सेकण्ड से मुन्सलिख़ होता तो इस हिसाब से आप (स) को 10 मिनट और एक सेकंड का भी बहुत छोटा हिस्सा लगता जो कि ग़लत है लिहाज़ा इस मरतबा हमारी कॅल्क्युलेशन्स कुछ इस तरह से होंगी! मस्जिदे अक़्सा तक पहुँचने का वक़्त, नमाज़ की अदाएगी का वक़्त और फिर मस्जिदे अक़्सा से सिदरतुल मुन्तहा तक का वक़्त जो कि ज़ीरो सेकण्ड है! सिदरतुल मुन्तहा से मस्जिदे अक़्सा तक का वापसी का सफ़र जोकि ज़ीरो सेकंड की बजाएं (-10 मिनट) होगा क्यों इस मर्तबा वॉर्म होल का सिरा 8 बजकर 10 मिनट और 0.00487 सेकण्ड की बजाएं माज़ी के 8 बजकर 0.00487 सेकण्ड खुला जिसके लिए हम 10 मिनट घटा देंगे! इन सब कैलक्युलेशन्स के बाद वक़्त की यह मिक़दार बहुत ही ज़ियादा क़लील है और यह वक़्त की वह मिक़दार है जिसमें न तो परिंदा पर मार सकता है और न ही कोई इंसान पलक झपक सकता है जबकि आप हुज़ूर (स) ने वक़्त के इसी हिस्से में जो कि एक सेकण्ड से भी कम है में पूरा ज़मीनी और आसमानी सफ़र इत्मीनान और ख़ुशी से मुकम्मल किया! लिहाज़ा यह ही वजह थी कि जब आप हुज़ूर (स) वापस लौटे तो आप का बिस्तरे मुबारक गर्म था और ज़ंजीर अभी भी हिल रही थी क्योंकि दोस्तों वक़्त की इस क़लील मिक़दार में कोई भी इंसान कोई काम नहीं कर सकता है इसीलिए आप हुज़ूर (स) जब वापस लौटे तो ज़मीन पर कोई तब्दीली नहीं हुई थी!
मैं आपको मज़ीद बताता चलूँ कि अभी हमें बुर्राक़ की असल रफ़्तार का अंदाज़ा नहीं है कि वह कितनी थी लेकिन इतना अंदाज़ा है कि वह रौशनी से ज़ियादा तेज़ थी और अगर हम इस लिहाज़ से बुर्राक़ की रफ़्तार को बिजली की रफ़्तार के दोगुना के बजाए 10 गुना या इससे भी ज़ियादा मानें तो इस लिहाज़ से हमारे पास इस सैर और सफ़र का वक़्त एक सेकण्ड के करोड़वें हिस्से या इससे भी ज़ियादा कम आएगा जो कि तक़रीबन ज़ीरो सेकण्ड के बराबर है और यही बात इस्लामी तालीमात भी बयान करती हैं कि आप (स) पलक झपकने के ही पहले यह सफ़र मुकम्मल कर गए और इसी बात को हम ने तफ़सीलन कैलकुलेशन से भी जान लिया!
इधर एक सवाल ज़हन में आ सकता है कि क़ुरआन के मुताबिक़ नबी ए करीम (स) ज़ाहिरी तौर पर एक इंसान हैं तो यह कैसे मुम्किन है कि कोई इंसान इतनी तेज़ रफ़्तार और वॉर्म होल की ज़बरदस्त ग्रेविटी को बर्दाश्त करें!? जवाब: इससे साबित होता है कि रसूले ख़ुदा (स) को अल्लाह ने अपने नूर से ख़ल्क़ किया तभी तो इतनी तेज़ रफ़्तार और वॉर्म होल की ज़बरदस्त ग्रेविटी को बर्दाश्त कर सके और सहीह सलामत फिर उसी वक़्त में लौट आए...
ईमाने अबू तालिब बा ज़बाने अबू तालिब
अबू तालिब ने पैगम्बर मुहम्मद (स) का समर्थन और बचाव का वह अवसर है जब कुरैश ने अल्लाह के रसूल पर ओझड़ी और दूसरी गंदी चीजें फेंकी थीं। इस अवसर पर, उन्होंने सभी काफिरों को इकट्ठा करके उनकी दाहड़ीयो को पकड़ कर खून आलूद किया।
इतिहास नस्र और नज़्म दोनों में पैगंबर मुहम्मद (स) और उनके संदेश की रक्षा में अबू तालिब के कार्यों और रुख के विवरणों से भरा पड़ा है।
इस्लाम के पैगम्बर (स) के प्रति अबू तालिब के प्रेम तथा उनके प्रति आस्था के रुख को दर्शाने के लिए हम यहां उनकी रचित कुछ पक्तियो का अनुवाद प्रस्तुत करेंगे।
ऐ अल्लाह की तरफ़ से हमारे लिए गवाह गवाही दे कि मैं अल्लाह के पैग़म्बर अहमद के स्पष्ट धर्म पर हूँ।
एक अन्य शेर में आप कहते हैं, "अल्लाह की कसम, मैं काफिरों के समूह को आपके पास तब तक नहीं पहुंचने दूंगा जब तक कि मैं मिट्टी के नीचे दफन न हो जाऊं। दृढ़ निश्चय के साथ अपना काम जारी रखो, और तुम पर कोई प्रतिबंध नहीं है। इस काम की सफलता की कामना करता हूं और आपकी आंखें ठंडी रहें। मैं जानता हूं कि मुहम्मद उन सभी धर्मों से बेहतर हैं जो मानवता के लिए आए हैं। "क्या तुम नहीं जानते कि हमने मुहम्मद को मूसा जैसा एक रसूल पाया है, जो कि पहली किताब का एक अक्षर है?" अलम तअलमू अन्ना वजदना मुहम्दन * रसूलन कमूसा खत्त फ़ि अव्वलिल किताब
क्या ये लोग नहीं जानते कि मैंने मूसा की तरह अल्लाह के पैगम्बर मुहम्मद को पा लिया है?
इसी तरह, अबू तालिब ने पैगम्बरे इस्लाम (स) का समर्थन और और बचाव का वह अवसर है जब कुरैश ने अल्लाह के रसूल पर ओझड़ी और दूसरी गंदी चीजें फेंकी थीं। इस अवसर पर, उन्होंने सभी काफिरों को इकट्ठा करके उनकी दाहड़ीयो को पकड़ कर खून आलूद किया, अल्लाह के रसूल ने कहा, "आप अल्लाह के पैगंबर, मुहम्मद (स), एक नेता और एक धर्मी व्यक्ति के बेटे हैं। वे भी पवित्र थे, और आपका जन्म पवित्र है।"
आप सदैव सही और धार्मिक मार्ग पर चलेंगे, भले ही आप अभी भी एक बच्चे हैं।
अबू तालिब ने अपने और पवित्र पैगंबर के चचेरे भाई हज़रत अली (अ) से कहा कि आपको हमेशा अपने चचेरे भाई का साथ देना चाहिए। उन्होंने कहा, "ऐ अली और जाफ़र, जब हालात मुश्किल होते हैं तो आप हमारे विश्वासपात्र होते हैं। जब दिन आए तो तुम दोनों मुहम्मद मुस्तफा (स) को अकेला न छोड़ो और उनकी मदद करो। उनके पिता मेरे मामा और पिता के सौतेले भाई हैं।
अल्लाह की कसम, मैंने कभी पैगम्बर को अकेला नहीं छोड़ा, न ही उनके कुलीन परिवार के सदस्य उन्हें छोड़ेंगे।
उनकी अज़मत तब भी स्पष्ट हुई जब उनके बेटे अली इब्न अबी तालिब (अ) अबू तालिब के गांव में उनके बिस्तर पर सोते थे ताकि अल्लाह के रसूल इस्लाम के पैगंबर की रक्षा कर सकें।
आपका यह व्यवहार किसी रिश्तेदारी पर आधारित नहीं था। आपने अपने बेटे हज़रत अली (अ) से कहा था, "मेरे बेटे, सब्र करो। सब्र एक जिंदादिल और सक्रिय इंसान के लिए बेहतर है। मैंने अपनी सारी कोशिशें अपने बेटे की जान की हिफ़ाज़त के लिए लगा दीं।" प्रिय पुत्र हबीब।" हज़रत अली (अ) ने उत्तर दिया, "मैं भी हज़रत मुहम्मद मुस्तफ़ा (स) का समर्थन करने के लिए अपना सर्वोत्तम प्रयास समर्पित करूंगा।
अबू तालिब और रसूल अल्लाह जैसा प्रेम
शिर्क करने वाला बड़ा ज़ालिम होता है इस लिए जो लोग हजरत अबू तालिब को ईमान वाला नहीं मानते वो माज अल्लाह हजरत अबू तालिब को मुशरिक समझते हैं यानी बड़ा ज़ालिम समझते हैं।
हजरत अबू तालिब को मोमिन न मानने वाले नीचे लिखी हुई कुरानी आयतों पर गौर फिक्र कर के तौबा करें और फिर से कलमा पढ़ कर मुसलमान बनें।
याद रखिए जो लोग हजरत अबुतालिब को मोमिन नहीं मानते वो अपने इस अमल से रसूल अल्लाह को माज अल्लाह जहन्नम की आग में जलने वाला साबित करते हैं।
कुराने मजीद ने सूरए लुकमान की आयत नंबर 13 में शिर्क को बड़ा जुल्म कहा है और अल्लाह ताला ने साफ साफ एलान कर दिया है की।
"अल्लाह के साथ किसी को शरीक मत करना,शिर्क ज़ुल्मे अज़ीम है।
क्यों की शिर्क करने वाला बड़ा ज़ालिम होता है इस लिए जो लोग हजरत अबू तालिब को ईमान वाला नहीं मानते वो माज अल्लाह हजरत अबू तालिब को मुशरिक समझते हैं यानी बड़ा ज़ालिम समझते हैं।
सूरए हूद की आयत नंबर 113 में रसूल अल्लाह को हुक्म दिया गया है।
"और जालिमों की ओर न झुकना,अन्यथा तुम्हें भी अग्नि स्पर्श कर लेगी और अल्लाह के सिवा तुम्हारा कोई सहायक नहीं है,फिर तुम्हारी सहायता नहीं की जायेगी"।
दोनों आयतों ने साफ कर दिया की क्यों की मुशरिक ज़ालिम है इस लिए जालिम की तरफ झुकने वाले को जहन्नम की आग जलाए गी ये किसी और का नहीं अल्लाह का फैसला है जिसे कोई बदल नहीं सकता।
दुनिया का कोई भी मौलाना ये नहीं साबित कर सकता की रसूल अल्लाह का झुकाओ हजरत अबू तालिब की तरफ नही था? या रसूल अल्लाह अपने चचा हजरत अबू तालिब और अपनी चची जनाबे फातिमा बिनते असद को दिल से नहीं चाहते थे ? उनकी इज़्जत नहीं करते थे?
सब जानते हैं की रसूल अल्लाह के दिल में हजरत अबू तालिब की और हजरत अबू तालिब के दिल में रसूल अल्लाह की बेपनाह मोहब्बत थी, सब जानते हैं की दोनो का झुकाओ एक दूसरे की तरफ बहुत ज्यादा था इतना था की हजरत अबू तालिब के इंतकाल के साल को रसूल अल्लाह ने "आमुल हुजन" बना दिया यानी गम का साल कहा और रसूल अल्लाह ने खुद साल भर हजरत अबू तालिब का गम मनाया और गम मानने को कहा भी। इसका मतलब हजरत अबू तालिब के इंतेकाल के बाद भी रसूल अल्लाह का दिल हजरत अबू तालिब की तरफ पूरी तरह से झुका हुआ था और इसी लिए साल भर रसूल अल्लाह ने उनका गम मनाया और गम मानने का हुक्म दिया। इससे बड़ा ईमाने अबू तालिब के लिए और क्या सुबूत हो सकता है।
आखरी वक्त में कलमा पढवाने के इसरार की रवायत बुग्जे अली में गढ़ लेने वाले जाहिलों क्या कुरान के हुक्म के बाद भी रसूल अल्लाह किसी ईमान न रखने वाले मुशरिक की मौत के बाद भी उसकी तरफ झुक सकते थे? याद रखिए हजरत अबू तालिब और रसूल अल्लाह जैसी मोहब्बत की कोई मिसाल दुनिया नहीं पेश कर सकती।
दोनों आयतों और सीरते अबु तालिब पर गौर करने से ये नतीजा निकला की जो लोग हजरत अबू तालिब को मोमिन नहीं मानते हैं वो रसूल अल्लाह को माज अल्लाह जालिम की तरफ झुकाओ रख कर जहन्नम की आग में जलने वाला समझते हैं ऐसे लोग अपने अपने ईमान पर गौर करें की वोह हजरत अबू तालिब के ईमान का इंकार कर के रसूल अल्लाह पर बोहतन बांध रहे हे और खुद जहन्नम के दहाने पर कहां खड़े हो गए हैं।
जब तक अबू तालिब जिंदा रहे रसूल अल्लाह ने उनकी तरफ अपना झुकाओ रख कर और उनके इंतकाल के बात भी उनके तरफ झुकाओ रखा जिसका सुबूत उनके इंतकाल के साल का नाम रसूल अल्लाह ने आमुल हूजन रख दिया और अपने इस अमल से हजरत अबू तालिब के ईमान को रहती दुनिया तक कुरान की आयतों से साबित कर दिया।
अब वो लोग जो हजरत अबू तालिब को मोमिन नहीं मानते हैं वो अपना ईमान बचाने के लिए तौबा करें और कलमा पढ़ कर फिर से मुसलमान बनें और दोबारा कभी अपनी जुबान से हजरत अबू तालिब के ईमान का इंकार न करें इसी में उनकी खैर है।
काश मुसलमान मुल्ला की किताबों के बजाए अल्लाह की किताब मे गौर फिक्र कर के रसूल अल्लाह की सही मायनों में मदद करने वाले हजरत अबू तालिब के खिलाफ़ अपनी ज़ुबान न खोलता या कलम न चलाता तो उसका ईमान कभी बर्बाद न होता।
हजरत अबू तालिब के ईमान का इंकार करने वाले मुसलमानों सूरए लुकमान और सूरए हूद की आयत नंबर 113 में गैरो फिक्र करो,हजरत अबू तालिब की दी हुई बेशुमार कुर्बानियों पर गौर करो और तौबा कर के फिर से कलमा पढ़ लो ताकि तुम अपने आपको मुसलमान कह सको।
मोहसिने इस्लाम हज़रत अबू तालिब अ.स. के बारे में क़ुरआन में अल्लाह तआला का क्या नज़रिया
अहलेबैत अलैहिस्सलाम से बुग़ज़ रखने वाले कुछ नाम निहाद मुसलमान अक्सर ये बात बोलते हैं कि हज़रत इमरान इब्ने अब्दुल मुत्तलिब अलैहिस्सलाम (हज़रत अबुतालिब अलैहिस्सलाम) मुसलमान नही बल्कि गैर मुस्लिम थे।आज हम इस ही बात को अल्लाह तआला के कलाम मतलब क़ुरआन पाक की आयतों से साबित करते हैं कि हज़रत अबुतालिब अलैहिस्सलाम सिर्फ़ मुसलमान ही नही बल्कि मोमिन के भी आगे के दर्जे मतलब मुत्तक़ी व परहेज़गार भी थे।
एक रिपोर्ट के अनुसार ,अहलेबैत अलैहिस्सलाम से बुग़ज़ रखने वाले कुछ नाम निहाद मुसलमान अक्सर ये बात बोलते हैं कि हज़रत इमरान इब्ने अब्दुल मुत्तलिब अलैहिस्सलाम (हज़रत अबुतालिब अलैहिस्सलाम) मुसलमान नही बल्कि गैर मुस्लिम थे।आज हम इस ही बात को अल्लाह तआला के कलाम मतलब क़ुरआन पाक की आयतों से साबित करते हैं कि हज़रत अबुतालिब अलैहिस्सलाम सिर्फ़ मुसलमान ही नही बल्कि मोमिन के भी आगे के दर्जे मतलब मुत्तक़ी व परहेज़गार भी थे।
बस यहाँ मेरी आप से सिर्फ़ एक ही गुज़ारिश है कि इस पूरी पोस्ट को पढ़ते वक़्त अपने दिमाग़ को खुला रखते हुए अपनी अक़्ल का इस्तेमाल करना है और साथ ही साथ अपने बुग़ज़ का चश्मा भी थोड़ी देर के लिए उतार के साइड में रख देना है।
चलिए बात शुरू करते हैं,ये बात उस वक़्त की है जब अब्रहा नाम के दुश्मने ख़ुदा ने मक्का पर हमला करने और खाना ए ख़ुदा, बैतुल्लाह मतलब काबा को तोड़ने की नीयत से अपनी हाथियों की फ़ौज लेकर निकला।
उस वक़्त मक्का में क़ुरैश के सरदार और बैतुल्लाह (काबा) के मुतवल्ली मतलब काबे के रख रखाव के ज़िम्मेदार रसूलअल्लाह saws के दादा हज़रत अब्दुल मुत्तलिब अलैहिस्सलाम थे।अब्रहा ने हज़रत अब्दुल मुत्तलिब के ऊँटों को अपने क़ब्ज़े में ले लिया तो हज़रत अब्दुल मुत्तलिब अलैहिस्सलाम अपने ऊँटों को छुड़ाने के लिए अब्रहा के पास गए तो उसने हैरत से पूछा कि मुझे तो लगता था कि तुम मेरे पास काबे को बचाने के लिए आओगे क्योंकि तुम उसके ज़िम्मेदार हो ,लेकिन यहाँ तो तुम सिर्फ़ अपने इन मामूली ऊँटों को बचाने आये हो ?
उसके इस सवाल पर हज़रत अब्दुल मुत्तलिब अलैहिस्सलाम ने सिर्फ़ एक जवाब दिया कि में इन ऊँटों का रब (मालिक) हूँ इसलिए में इनको बचाने आया हूँ, और काबे का जो रब है वो काबे को बचाएगा। (लोग तो हज़रत अबुतालिब अलैहिस्सलाम के ईमान के पीछे पड़े हैं,पर यहाँ तो उनके वालिद हज़रत अब्दुल मुत्तलिब अलैहिस्सलाम ने अपने इस जवाब से ये साबित कर दिया कि वो खुद ईमान वाले और अल्लाह पर यकीन रखने वाले थे,जब ही तो उन्होंने ये कहा कि जो काबे का मालिक है वो ही उसे बचाएगा।
फिर वो पूरा वाक़या सबको मालूम है कि किस तरह से अबाबील नाम की छोटी छोटी चिड़ियाओं के ज़रिए अल्लाह ने बड़े बड़े हाथियों के लश्कर को भूसे की तरह मसल दिया था।और खानए काबा को टूटने से बचा लिया था।यहाँ पर कुछ लोग ये सवाल कर सकते हैं कि जब रसूलअल्लाह स.ल. ही नही थे तो फिर उनके दादा को अल्लाह के बारे में कैसे मालूम था ? वो इसलिए मालूम था क्योंकि हज़रत अब्दुल मुत्तलिब अलैहिस्सलाम दीने इब्राहिम के पैरोकार थे।जिसके बारे में अल्लाह ने खुद क़ुरआन में फ़रमाया -
قُلْ صَدَقَ اللَّهُ ۗ فَاتَّبِعُوا مِلَّةَ إِبْرَاهِيمَ حَنِيفًا وَمَا كَانَ مِنَ الْمُشْرِكِينَ
[ अल-ए-इमरान - ९५ ]
(ऐ रसूल) कह दो कि ख़ुदा ने सच फ़रमाया तो अब तुम मिल्लते इबराहीम (इस्लाम) की पैरवी करो जो बातिल से कतरा के चलते थे और मुशरेकीन से न थे।
तो क़ुरआन से ये बात साबित हो गई के जो दीने इब्राहिम अलैहिस्सलाम पर चलता है वो काफ़िर या मुशरिक नही होता,बल्कि अल्लाह को मानने वाला मोमिन ही होता है।अब आगे देखिए...
जब हज़रत अब्दुल मुत्तलिब अलैहिस्सलाम की वफ़ात का वक़्त करीब आया तो उन्होंने बैतुल्लाह मतलब काबे के निगरानी का मुतवल्ली हज़रत अबूतालिब अलैहिस्सलाम को बनाया और साथ ही साथ अपने तमाम बेटों को बुलाया और रसूलअल्लाह saws को भी बुलाया और चूँकि रसूलअल्लाह उस वक़्त बहुत छोटे थे तो हज़रत अब्दुलमुत्तलिब अलैहिस्सलाम ने अपने पोते मतलब रसूलअल्लाह से पूछा कि आप अब मेरे बाद इन सब में से किसकी किफ़ालत में किसकी पनाह में रहना चाहते हैं,तो हुज़ूर ने अपने तमाम चचाओं में से सिर्फ़ हज़रत अबूतालिब अलैहिस्सलाम को ख़ुद के लिए चुना जबकि अल्लाह का क़ुरआन में कलाम देखिए -
لَّا يَتَّخِذِ الْمُؤْمِنُونَ الْكَافِرِينَ أَوْلِيَاءَ مِن دُونِ الْمُؤْمِنِينَ ۖ وَمَن يَفْعَلْ ذَٰلِكَ فَلَيْسَ مِنَ اللَّهِ فِي شَيْءٍ
(अल-ए-इमरान - 28)
मोमिनीन मोमिनीन को छोड़ के काफ़िरों को अपना सरपरस्त न बनाऐं और जो ऐसा करेगा तो उससे ख़ुदा से कुछ सरोकार नहीं
सूरा ए मुबारक आले इमरान की आयत 28 में अल्लाह ख़ुद ये फ़रमा रहा है कि जो ख़ुद मोमिन हो मतलब ईमानवाला हो वो किसी गैर मोमिन या काफ़िर को अपना सरपरस्त न बनाओ, जबकि ऊपर के वाकिए में तो खुद अल्लाह के रसूल saws हज़रत अबूतालिब अलैहिस्सलाम को अपना सरपरस्त बना रहे हैं और वो इसलिए ही हज़रत अबूतालिब अस को चुन रहे हैं क्योंकि अल्लाह का फ़रमान है कि किसी काफ़िर को अपना सरपरस्त न बनाना और वहाँ उस वक़्त उनके चचाओं में हज़रत अबुतालिब अलैहिस्सलाम के अलावा कोई मोमिन नही था इसलिए रसूलअल्लाह ने अपनी सरपरस्ती के लिए एक मोमिन हज़रत अबुतालिब अस को चुना,आख़िर ये कैसे हो सकता है कि रसूलअल्लाह saws ख़ुद ही अल्लाह के हुक्म की मुख़ालिफत कर दें माज़ अल्लाह ?
या तो उम्मत ज़्यादा जानती है या रसूलअल्लाह saws ज़्यादा जानते हैं अबुतालिब अलैहिस्सलाम के बारे में,पता नही किसको ज़्यादा हक़ीक़त मालूम है उनकी ! ख़ैर ...
अब आगे बात करते हैं, में आप की ख़िदमत में एक ऐसी चीज़ पेश करना चाहता हूँ कि उसके बाद तो ये सारा किस्सा ही ख़त्म हो जाएगा कि हज़रत अबुतालिब अलैहिस्सलाम मोमिन थे या नही !
अब फिर में अल्लाह तआला की ही किताब यानी क़ुरआन मजीद जिसमें किसी भी तरह की कमी नही है जिसमे अव्वल से आख़िर तक हर बात का इल्म मौजूद है उसमें से एक आयत पेश करता हूँ, देखिये
وَمَا لَهُمْ أَلَّا يُعَذِّبَهُمُ اللَّهُ وَهُمْ يَصُدُّونَ عَنِ الْمَسْجِدِ الْحَرَامِ وَمَا كَانُوا أَوْلِيَاءَهُ ۚ إِنْ أَوْلِيَاؤُهُ إِلَّا الْمُتَّقُونَ وَلَـٰكِنَّ أَكْثَرَهُمْ لَا يَعْلَمُونَ
(अल-अनफाल - 34)
और जब ये लोग लोगों को मस्जिदुल हराम (ख़ान ए काबा की इबादत) से रोकते है तो फिर उनके लिए कौन सी बात बाक़ी है कि उन पर अज़ाब न नाज़िल करे और ये लोग तो ख़ानाए काबा के मुतवल्ली भी नहीं फिर क्यों रोकते है इसके मुतवल्ली तो सिर्फ परहेज़गार लोग हैं मगर इन काफ़िरों में से बहुतेरे नहीं जानते
सूरा ए अनफाल की आयत नम्बर 34 में अल्लाह तआला फ़रमा रहा है कि जब मक्के के काफ़िर दूसरे मोमिन लोगों को बैतुल्लाह मतलब काबे में इबादत से रोकते हैं तो अब कोनसी बात है कि इन पर अज़ाब नाज़िल न करे, और सबसे बड़ी बात तो ये की *ये जो लोग काबे में इबादत से रोक रहे हैं ये तो काबे के मुतवल्ली (care taker) मतलब वहाँ के ज़िम्मेदार भी नही हैं फिर क्यों रोकते हैं, बल्कि इस काबे के मुतवल्ली तो सिर्फ़ परहेज़गार लोग हैं* मगर इस बात को ये काफ़िर लोग नही जानते।
यहाँ पर एक बात तो अच्छे से समझ में आ गई के काबे के मुतवल्ली जो थे वो सिर्फ़ मुसलमान ही नही बल्कि मोमिन ही नही बल्कि इस से भी एक दर्जा ऊपर यानी मुत्तक़ी (परहेज़गार) के दर्जे पर फ़ाइज़ होते हैं।और दुनिया इस बात को अच्छे से जानती है कि हज़रत अब्दुल मुत्तलिब अस के बाद ख़ान ए काबा के मुतवल्ली हज़रत अबुतालिब अलैहिस्सलाम ही थे उन्ही के पास ख़ान ए काबा की तमाम चाबियाँ मौजूद थीं,तब ही तो हज़रत अली अलैहिस्सलाम की काबे में विलादत के वक़्त लोग हैरत में थे कि जब काबे की चाबियाँ हज़रत अबुतालिब अलैहिस्सलाम के पास मौजूद थीं तो फिर ये मौला अली की वालिदा के काबे में जाने के वक़्त दीवार क्यों फट गई ??
ख़ैर वो अलग बात है,अब यहाँ क़ुरआन से ही एक और आयत पेश करदूँ,देखिये -
أَلَمْ يَجِدْكَ يَتِيمًا فَآوَىٰ
(अद-धुहा - 6)
क्या उसने (अल्लाह ने) तुम्हें यतीम पाकर (अबू तालिब की) पनाह न दी (ज़रूर दी)
सूरा ए मुबारक धुहा की आयत नम्बर 6 में अल्लाह तआला रसूलअल्लाह saws को मुख़ातिब कर के फ़रमा रहा है कि जब आप यतीम थे तो क्या मेने आपको पनाह नही दी ?? और सबको मालूम है कि रसूलअल्लाह saws को हज़रत अबुतालिब अलैहिस्सलाम के अलावा किसी ने पनाह नही दी बल्कि रसूलअल्लाह के सबसे बड़े मददगार और जाँनिसार हज़रत अबुतालिब ही थे जो रसूलअल्लाह के बिस्तर पर उनकी जगह अपने बेटों को सुला देते थे कि अगर कुफ़्फ़ार उन पर हमला करें तो रसूलअल्लाह की जान बच जाए भले ही खुद के बेटों की जान चली जाए (अल्लाह हो अकबर)
अब यहाँ पर सबसे बड़ा सवाल के क्या मआज़ अल्लाह किसी काफ़िर के अमल को अल्लाह अपना खुदका अमल बता सकता है ? सब यही कहेंगे हरगिज़ नही,क्यों नही ? इसलिए के अगर काफ़िर के अमल को अपना अमल बता दिया तो वो फिर बुरा नही बल्कि अच्छा और सवाब का अमल समझा जाएगा,और करने वाला गुनाहगार नही बल्कि नेक और मोमिन ही समझा जाएगा।
*उम्मीद है कि क़ुरआन से इतने दलाइल देने के बाद अब हर साहिबे अक़्ल को ये बात अच्छे से समझ मे आ गई होगी कि अल्लाह तआला की नज़र में हज़रत अबूतालिब अलैहिस्सलाम सिर्फ़ मुसलमान ही नही बल्कि मोमिन व परहेज़गार भी हैं।जिन्होंने सिर्फ़ ज़बान से चिल्ला चिल्ला के नही बल्कि अपने हर अमल से ख़ुदको मोमिन व परहेज़गार मुसलमान साबित किया।*
आख़िर में कुछ लाइन मोहसिने इस्लाम हज़रत अबुतालिब अलैहिस्सलाम की शान में मुलाहिज़ा फरमाइए -
मै हूँ अबू तालिब मेरी पहचान यही है.!
कहते हो नबुवत जिसे, गोद मे पली है.!
पैदा हुआ घर मे मेरे पयम्बर ए आखिर.!
बेटे की विलादत मेरे काबे मे हुई है.!
घर मे है नबुवत मेरे घर मे है इमामत.!
जो मलिका ए ज़न्नत है बहू मुझको मिली है.!
क्या है मेरा ईमान जाओ पूछो ख़ुदा से.!
बचपन मे रिसालत मेरे सीने पे रही है.!
फतवा तो लगाते हो मगर ये याद रखना.!
गैब से औलाद मेरी सब देख रही है....!
समाचार कोड:393908
हज़रत इमाम काज़िम (अ) की शहादत दिवस पर ईरान सहित विभिन्न देशों में शोक
इराक़ और ईरान समेत दुनिया भर के शिया मुसलमान अपने सातवें इमाम हज़रत इमाम मूसा काज़िम (अ) के शहादत दिवस पर ग़म मना रहे हैं।
इराक़ और ईरान समेत दुनिया भर के शिया मुसलमान अपने सातवें इमाम हज़रत इमाम मूसा काज़िम अ.स की शहादत की बर्सी पर ग़म मना रहे हैं।
ईरान के पवित्र शहरों मशहद और क़ुम में स्थित इमाम मूसा काज़िम अ.स.के बेटे आठवें इमाम हज़रत अली रज़ा अ.स. और बेटी हज़रत फ़ातिमा मासूमा के मज़ारों में भी बड़ी संख्या में श्रद्धालु जुटे हैं और अज़ादारी कर रहे हैं।
25 रजब 1446 हिजरी को सातवें इमाम हज़रत इमाम मूसा काज़िम अ.स. की शहादत की बर्सी है। मशहद और क़ुम के रौज़ों में कल रात से ही ईरान और दुनिया भर से श्रद्धालु जुटना शुरू हो गए है।
इसी प्रकार, इराक़ के काज़मैन समेत समस्त पवित्र शहरों में बड़ी संख्या में लोग पवित्र रौज़ों में उपस्थित होकर शोक सभाओं का आयोजन कर रहे हैं और मातम व अज़ादारी कर रहे हैं।
शानदार तरीक़े से मनाया गया गणतंत्रदिवस।
भारत ने 26 जनवरी 2025 को गणतंत्र दिवस को बड़े धूमधाम और शानदार तरीके से मनाया। इस दिन भारतीय संविधान को अपनाए जाने की 76वीं वर्षगांठ थी, और पूरे देश में इस ऐतिहासिक अवसर को बेहद उत्साह और गर्व के साथ मनाया गया।
नई दिल्ली के राजपथ पर आयोजित मुख्य समारोह में भारतीय राष्ट्रपति ने राष्ट्रीय ध्वज फहराया, और इसके बाद भारतीय सेना, वायुसेना और नौसेना के जवानों ने अपनी शक्ति और अनुशासन का शानदार प्रदर्शन किया। इस वर्ष का परेड विशेष रूप से देश की समृद्ध सांस्कृतिक धरोहर, सैन्य ताकत, और आधुनिक प्रौद्योगिकी के अद्भुत मिश्रण को दर्शाता था।
गणतंत्र दिवस की परेड में देशभर की विभिन्न राज्यों की झांकियाँ शामिल थीं, जो भारत की विविधता, परंपराओं, और लोक कलाओं का जश्न मना रही थीं। हर राज्य ने अपनी सांस्कृतिक धरोहर और ऐतिहासिक विरासत को झांकियों के माध्यम से प्रस्तुत किया। इसके साथ ही, भारतीय सेना द्वारा अत्याधुनिक हथियारों, टैंक और युद्धक विमानों का प्रदर्शन भी किया गया।
वहीं, भारतीय वायुसेना के जेट विमानों ने आकाश में ध्वज की आकृति बनाई और तिरंगे के रंगों से आकाश को रंग दिया। हेलीकॉप्टरों ने शानदार फ्लाईपास्ट किया, जिसमें सैन्य ताकत और तकनीकी विकास का अद्भुत समागम था।
गणतंत्र दिवस परेड में कई विद्यालयों के छात्रों ने सांस्कृतिक कार्यक्रमों के साथ अपना योगदान दिया, जिसमें भारत की विविधता और एकता का प्रतीक बनने वाले नृत्य और संगीत प्रस्तुत किए गए।
प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति ने इस अवसर पर देशवासियों को बधाई दी और भारत की लोकतांत्रिक व्यवस्था, एकता और अखंडता को सशक्त बनाने के लिए उनके योगदान की सराहना की। इस गणतंत्र दिवस ने भारतीय जनता को अपने देश के इतिहास, संस्कृति और भविष्य पर गर्व महसूस कराया।