رضوی

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29 जमादी-उल-अव्वल, गुरुवार को मदरसा ए मुबारका मोमिनिया, क़ुम अलमुक़द्दस में शहज़ादी फ़ातिमा ज़हेरा (स.ल.) की शहादत के मौके पर उर्दू ज़बान के छात्रों की तरफ़ से एक मजलिस ए अज़ा का आयोजन किया गया।इस कार्यक्रम में भारत, पाकिस्तान, अफ़ग़ानिस्तान, अज़रबैजान, ताजिकिस्तान, रूस और विभिन्न अन्य देशों के छात्रों और उलमा बड़ी संख्या में उपस्थित हुए।

29 जमादी-उल-अव्वल, गुरुवार को मदरसा ए मुबारका मोमिनिया, क़ुम अलमुक़द्दस में शहज़ादी फ़ातिमा ज़हरा (सला मुल्ला अलैहा) की शहादत के मौके पर उर्दू ज़बान के छात्रों की तरफ़ से एक मजलिस ए अज़ा का आयोजन किया गया।इस कार्यक्रम में भारत, पाकिस्तान, अफ़ग़ानिस्तान, अज़रबैजान, ताजिकिस्तान, रूस और विभिन्न अन्य देशों के छात्रों और उलमा बड़ी संख्या में उपस्थित हुए।

मजलिस की ख़िताबत शहर ए मुक़द्दस के मशहूर ख़तीब हुज्जतुल इस्लाम वल मुस्लिमीन आगा सैयद हुसैन मोमनी ने की।उन्होंने शहज़ादी (सला मुल्ला अलैहा) पर ढाए गए अत्याचार और ज़ुल्म पर रौशनी डालते हुए कहा कि उन्होंने अपने पूरे वजूद के साथ अपने समय के इमाम का बचाव किया।

उन्होंने अपनी जान, माल सब कुछ राह-ए-इमामत में कुर्बान किया, यहाँ तक कि उस बच्चे को भी कुर्बान कर दिया जो अभी उनके बतन (पेट)मे पल रहा था।

इस अवसर पर शहर ए क़ुम के कई मशहूर उस्तद भी मौजूद रहे, जिनमें आयतुल्लाह अबादुल्लाह ख़ैरियान, उस्ताद दानिश महमूदआबादी, उस्ताद एहसानी, उस्ताद बाक़िरयान, उस्ताद पारसा और अन्य उलमा व फ़ज़ला ने बड़ी तादाद में शिरकत की।

यह मजलिस हर साल हिंद और पाकिस्तानी छात्रों की ओर से मदरसा मुबारका मोमिनिया में आयोजित की जाती है।

आयतुल्लाह सय्यद मोहम्मद सईदी ने आज जुमआ की नमाज़ के दौरान हज़रत फातिमा ज़हरा सलामुल्लाह अलैहा के शहादत के दिनों में शोक व्यक्त करते हुए कहा कि इतिहास की सभी बड़ी ईश्वरीय आंदोलनें मकतब-ए-फातिमी की शिक्षा, मार्गदर्शन और बौद्धिक व्यवस्था पर आधारित हैं। महात्मा गांधी जैसे नेताओं ने भी अत्याचार के खिलाफ प्रतिरोध की शिक्षा क़याम-ए-हुसैनी से ली, और यह वास्तव में क़याम-ए-फातिमी की निरंतरता है।

क़ुम अलमुकद्दस के जुमआ के खतीब आयतुल्लाह सैय्यद मोहम्मद सईदी ने आज जुमे की नमाज़ के दौरान हज़रत फातिमा ज़हरा सलामुल्लाह अलैहा की शहादत के दिनों में शोक व्यक्त करते हुए कहा कि इतिहास की सभी बड़ी ईश्वरीय आंदोलनें मकतब-ए-फातिमी की शिक्षा, मार्गदर्शन और बौद्धिक व्यवस्था पर आधारित हैं।

महात्मा गांधी जैसे नेताओं ने भी अत्याचार के खिलाफ प्रतिरोध की शिक्षा क़याम-ए-हुसैनी से ली, और यह वास्तव में क़याम-ए-फातिमी की निरंतरता है।

उन्होंने कहा कि सिद्दीका-ए-कुबरा सलामुल्लाह अलैहा की सही पहचान, धार्मिक ज्ञान के संरक्षण और राष्ट्र की जागृति के लिए मूल आधार है।

आयतुल्लाह सईदी ने मासूमीन अलैहिमुस सलाम की रिवायतों के प्रकाश में बताया कि हज़रत फातिमा सलामुल्लाह अलैहा न केवल ऐतिहासिक परिवर्तनों का केंद्र हैं, बल्कि उनकी शिक्षा ने क़याम-ए-आशूरा के गठन में मूलभूत भूमिका निभाई।

उनके अनुसार इमाम हुसैन अलैहिसस्लाम और हज़रत ज़ैनब सलामुल्लाह अलैहा मकतब-ए-फातिमी के शिक्षा-प्राप्त थे और इसी शिक्षा ने करबला को जन्म दिया, जिसने बाद में स्वतंत्रता की अनेक आंदोलनों को प्रभावित किया।

उन्होंने रिवायतों का हवाला देते हुए हज़रत ज़हेरा सलामुल्लाह अलैहा के उच्च स्थान को बताया और कहा कि इमाम हसन अल अस्करी अ.स.के अनुसार हज़रत फातिमा ज़हेरा सलामुल्लाह अलैहा सभी ईश्वरीय प्रमाणों पर अल्लाह की हुज्जत हैं, जिससे ज्ञात होता है कि इमामों का समस्त मार्गदर्शन इसी नूर-ए-फातिमी से जुड़ा हुआ है।

उन्होंने आगे कहा कि इमाम जमाना स.ल. ने भी हज़रत ज़हरा सलामुल्लाह अलैहा को अस्र-ए-ग़ैबत  और अस्र-ए-ज़ुहूर के लिए एक संपूर्ण आदर्श बताया है।

आयतुल्लाह सईदी ने मकतब-ए-फातिमी के दो प्रमुख पहलुओं की व्याख्या की: पहला आंतरिक और आध्यात्मिक शक्ति जो ईश्वरीय प्रकृति से जुड़ी है और अजेय है, और दूसरा स्नेह और दया जो हज़रत फातिमा सलामुल्लाह अलैहा के व्यावहारिक जीवन में प्रकट है और समाज की नैतिक नींव का निर्माण करता है।

इस्लाम के अनुसार, औरतें और मर्द दोनों इंसानी ज़िंदगी में पार्टनर हैं, और इसलिए दोनों को बराबर हक़ और समाज के फ़ैसले लेने का हक़ दिया गया है। औरतों के नेचर में दो खास बातें बताई गई हैं: इंसानियत के ज़िंदा रहने के लिए "किसान" होना, और घर, परवरिश और परिवार में घुलने-मिलने के लिए तन और मन की नाज़ुकता। दोनों के बीच बेहतरी पर्सनल नहीं बल्कि ज़िम्मेदारियों में फ़र्क के आधार पर है। असली क्राइटेरिया इंसान का काम, नेकी और अल्लाह की मेहरबानी है।

तफ़सीर अल मीज़ान के लेखक अल्लामा तबातबाई ने सूरा ए बक़रा की आयात 228 से 242 की तफ़्सीर में “इस्लाम और दीगर क़ौमों व मज़ाहिब में औरत के हक़ूक़, शख्सियत और समाजी मक़ाम” पर चर्चा की है। नीचे इसी श्रृंखला का ग्यारहवाँ हिस्सा पेश किया जा रहा है:

इस्लाम में औरतों की सामाजिक स्थिति और रुतबा

इस्लाम ने सामाजिक मामलों, फ़ैसले लेने और सामाजिक ज़िम्मेदारियों में औरतों और मर्दों दोनों को बराबर अधिकार दिए हैं। इसका कारण यह है कि जैसे मर्दों को खाने-पीने, पहनने और ज़िंदगी की दूसरी ज़रूरतें पूरी करने की ज़रूरत होती है, वैसे ही औरतों की भी वही ज़रूरतें होती हैं। इसीलिए कुरान कहता है: "بَعۡضُکُم مِّنۢ بَعۡضٍ बाअज़ोकुम मिन बाअज़ तुम में से कुछ एक-दूसरे के जेंडर से हैं।" यानी, तुम सब एक ही जेंडर से हो।

इसलिए, जैसे मर्दों को अपने लिए फ़ैसले लेने, अपने लिए काम करने और अपनी मेहनत की मालिक होने का अधिकार है, वैसे ही औरतों को भी अपनी कोशिशों और कामों की मालिकी खुद करने का अधिकार है।

कुरान कहता है: "لَهَا مَا كَسَبَتْ وَعَلَيْهَا مَا اكْتَسَبَتْ लहा मा कसबत व अलैहा मकतसाबत उसके पास वही है जो उसने कमाया है और वही उस पर है जो उसने कमाया है," यानी औरतें और मर्द दोनों अपने कामों के लिए ज़िम्मेदार हैं। इसलिए, इस्लाम के अनुसार, अधिकारों के मामले में औरतें और मर्द बराबर हैं। हालाँकि, अल्लाह ने औरतों में इंसानी फितरत के तहत दो खास गुण रखे हैं, जिनकी वजह से उनकी ज़िम्मेदारियाँ और सामाजिक भूमिका कुछ मामलों में मर्दों से अलग होती हैं।

औरतों को बनाने में दो खास बातें

1. इंसानियत के पालन-पोषण का सेंटर

अल्लाह ने औरतों को इंसानियत के बनने का ज़रिया बनाया।

बच्चा उसी के वजूद में बढ़ता है, उसी के पेट में पलता है और दुनिया में आता है।

इसलिए, बाकी इंसानियत औरतों के वजूद से जुड़ी है।

और क्योंकि वह एक "किसान" है (कुरान के शब्द: हारिथ में), इस हैसियत से उसके कुछ खास हुक्म हैं जो मर्दों से अलग हैं।

2. अट्रैक्शन और प्यार का हल्का नेचर

औरतों को इस तरह बनाया गया है कि वे मर्दों को अपनी ओर अट्रैक्ट कर सकें ताकि शादी हो सके, परिवार बस सके और नस्ल चलती रहे।

इस मकसद के लिए:

अल्लाह ने औरत की फिजिकल बनावट को नाजुक बनाया

और उसकी फीलिंग्स और इमोशंस को सॉफ्ट और नाजुक रखा

ताकि वह बच्चे को पालने और घर संभालने के मुश्किल दौर को बेहतर ढंग से संभाल सके।

ये दो खासियतें, "एक फिजिकल, एक स्पिरिचुअल," एक औरत की सोशल जिम्मेदारियों और रोल पर असर डालती हैं।

इस्लाम में औरतों की यही जगह और सोशल स्टेटस है, और यह बात मर्दों की सोशल स्टेटस को भी साफ़ करती है। इस तरह, दोनों के आम नियमों और हर एक के खास नियमों में जो मुश्किलें दिखती हैं, उन्हें भी आसानी से समझा जा सकता है।

जैसा कि पवित्र कुरान कहता है: "और जो अल्लाह ने तुम्हें दिया है, उसकी चाहत मत करो; मर्दों के लिए उनकी कमाई का हिस्सा, और औरतों के लिए उनकी कमाई का हिस्सा।" इल्म हासिल करो और अल्लाह से उसका फ़ायदा मांगो। बेशक, अल्लाह सब कुछ जानने वाला है।

"وَلَا تَتَمَنَّوْا مَا فَضَّلَ اللَّهُ بِهِ بَعْضَکُمْ عَلَیٰ بَعْض لِلرِّجَالِ نَصِیبٌ مِمَّا اکْتَسَبُوا وَلِلنِّسَاءِ نَصِیبٌ مِمَّا اکْتَسَبْنَ وَاسْأَلُوا اللَّهَ مِنْ فَضْلِه إِنَّ اللَّهَ کَانَ بِکُلِّ شَیْءٍ عَلِیمًا वला ततमन्नव मा फ़ज़्ज़लल्लाहो बेहि बाअजकुम अला बाअज लिर रेजाले नसीबुम मिम्मक तसबू व लिन्नेसाए नसीबुम मिम्मक तसबना वस्अलुल्लाहा मिन फ़ज़्ले इन्नल्लाहा काना बेकुल्ले शैइन अलीमा और उस बेहतरी की चाहत मत करो जो अल्लाह ने तुममें से कुछ को दूसरों पर दी है। मर्दों के लिए उनकी कमाई का हिस्सा है और औरतों के लिए उनकी कमाई का हिस्सा है। और अल्लाह से उसका फ़ायदा मांगो; बेशक, अल्लाह सब कुछ जानने वाला है।"

इस्लाम का बैलेंस: न तो मर्द और न ही औरत बेहतर है

इस्लाम बताता है कि: कुछ खूबियां सिर्फ़ कुदरती ज़िम्मेदारियों के लिए रखी जाती हैं

कुछ खूबियां कामों और किरदार पर निर्भर करती हैं, जो दोनों के लिए एक जैसी होती हैं, जैसे: मर्दों को औरतों के मुकाबले विरासत में ज़्यादा हिस्सा दिया जाता है।

औरतों पर घर के खर्चों का बोझ नहीं है - यह उनका खास अधिकार है। इसलिए: मर्दों को यह नहीं सोचना चाहिए: "काश मैं घर के खर्चों के लिए ज़िम्मेदार न होता।" औरतों को यह नहीं सोचना चाहिए: "काश विरासत में मेरा हिस्सा बराबर होता।"

क्योंकि इन्हें कुदरती ज़िम्मेदारियों के आधार पर बांटा गया है, न कि बेहतरी या कमतरता के आधार पर। बाकी खूबियां "जैसे ईमान, ज्ञान, समझदारी, नेकी और अच्छाई" सिर्फ़ कामों पर निर्भर करती हैं। वे न तो मर्दों के लिए खास हैं और न ही औरतों के लिए; जो ज़्यादा काम करेगा उसे ऊंचा दर्जा दिया जाएगा। इसीलिए आयत के आखिर में कहा गया है: "وَاسْأَلُوا اللَّهَ مِنْ فَضْلِهِ वस्अलुल्लाहा मिन फ़ज़्लेहि और अल्लाह से उसकी नेमत मांगो।"

यह इस्लामी बैलेंस इस आयत की समझ को भी दिखाता है, "اَلرِّجَالُ قَوَّامُونَ عَلَى النِّسَاءِ अर रेजालो क़व्वामूना अलन नेसा मर्द औरतों से कवी हैं," जिसे अल्लामा तबातबाई अगले सेक्शन में डिटेल में समझाते हैं।

(जारी है…)
(स्रोत: तर्ज़ुमा तफ़्सीर अल-मिज़ान, भाग 2, पेज 410)

यूनाइटेड नेशंस चिल्ड्रन्स फ़ंड (यूनिसेफ) के एक प्रवक्ता ने बताया कि हमास और इज़राइल के बीच सीज़फ़ायर शुरू होने के बाद से ग़ज़्ज़ा में 67 बच्चों की जान जा चुकी है।

यूनाइटेड नेशंस चिल्ड्रन्स फ़ंड (यूनिसेफ़) के एक प्रवक्ता ने शुक्रवार को बताया कि हमास और इज़राइल के बीच सीज़फ़ायर शुरू होने के बाद से ग़ज़्ज़ा में 67 बच्चों की जान जा चुकी है। जिनेवा में रिपोर्टरों से बात करते हुए, उन्होंने कहा कि इस आंकड़े का मतलब है कि इस युद्ध से जुड़ी घटनाओं में हर दिन औसतन दो फ़िलिस्तीनी बच्चे मारे जाते हैं।

यूनाइटेड नेशंस चिल्ड्रन्स फ़ंड (यूनिसेफ़) ने बताया कि ग़ज़्ज़ा पट्टी में सीज़फ़ायर शुरू होने के बाद से हमास और इज़राइल के बीच युद्ध से जुड़ी घटनाओं में कम से कम 67 बच्चे मारे गए हैं।

यूनिसेफ़ के प्रवक्ता रिकार्डो पीयर्स ने जिनेवा में रिपोर्टरों से कहा: “दर्जनों और बच्चे घायल हुए हैं।” इसका मतलब है कि जब से सीज़फ़ायर लागू हुआ है, हर दिन औसतन लगभग दो बच्चों की मौत हुई है।

इस मामले में, 7 अक्टूबर, 2023 से, “इज़राइल” गाज़ा पट्टी में नरसंहार कर रहा है - अमेरिका और यूरोप के सपोर्ट से - जिसमें हत्या, भुखमरी, तबाही, लोगों को हटाना और हिरासत में लेना शामिल है, और ये काम इंटरनेशनल कोर्ट ऑफ़ जस्टिस की इंटरनेशनल अपील और इसे रोकने के आदेशों को नज़रअंदाज़ करते हुए किए गए हैं।

इस नरसंहार में 240,000 से ज़्यादा फ़िलिस्तीनी (शहीदों और घायलों सहित) मारे गए हैं, जिनमें से ज़्यादातर बच्चे और औरतें हैं, और 11,000 से ज़्यादा लोग लापता हैं, इसके अलावा लाखों लोग बेघर हो गए हैं और अकाल ने कई लोगों की जान ले ली है, खासकर बच्चों की, साथ ही पट्टी के ज़्यादातर शहरों का बड़े पैमाने पर विनाश और नक्शे से गायब होना भी हुआ है।

शनिवार, 22 नवम्बर 2025 10:15

कुरआन मे महदीवाद (अंतिम भाग)

कुरआन की आयतों के कभी-कभी कई मतलब होते हैं। एक मतलब तो ज़ाहिरी और आम लोगों के समझने लायक होता है, और दूसरा अंदरूनी और गहरा मतलब होता है, जिसे आयत का “बतन” कहा जाता है। इस छिपे हुए मतलब को सिर्फ़ पैग़म्बर सल्लल्लाहो अलैहे वा आलेहि वसल्लम, इमाम अलैहिस्सलाम और वही लोग जानते हैं जिन्हें अल्लाह खुद चाह ले।

 महदीवाद पर आधारित "आदर्श समाज की ओर" शीर्षक नामक सिलसिलेवार बहसें पेश की जाती हैं, जिनका मकसद इमाम ज़माना (अ) से जुड़ी शिक्षाओ को फैलाना है।

हज़रत महदी अज्जा लल्लाहो तआला फ़रजहुश शरीफ़ और उनकी वैश्विक क्रांति से संबंधित कुछ आयतें इस प्रकार हैं:

चौथी आयत:

وَ لِکُلٍّ وِجْهَةٌ هُوَ مُوَلّیها فَاسْتَبِقُوا الْخَیراتِ أَینَ ما تَکُونُوا یأْتِ بِکُمُ اللّهُ جَمیعًا إِنَّ اللّهَ عَلی کُلِّ شَیءٍ قَدیرٌ वलेकुल्ले विज्हतुन होवा मुवल्लीहा फ़स्तबेक़ुल ख़ैराते अयना मा तकूनू याते बेकोमुल्लाहो जमीअन इन्नल्लाहा अला कुल्ले शैइन क़दीर 

हर गिरोह/क़ौम के लिए एक दिशा है, जिसकी तरफ़ वह रुख़ करता है, और उसे अल्लाह ने ही तय किया है। इसलिए क़िब्ले पर ज़्यादा झगड़ा न करो, बल्कि नेकियों और अच्छे कामों में एक-दूसरे से आगे बढ़ने की कोशिश करो; तुम जहाँ भी रहोगे, अल्लाह क़यामत के दिन तुम सबको (तुम्हारे अच्छे-बुरे आमाल का हिसाब लेने के लिए) एक साथ जमा कर देगा, क्योंकि वह हर चीज़ पर पूरी तरह क़ादिर है। (सूर ए बक़रा, आयत 148)

अहले बैत अलैहेमुस्सलाम से आने वाली बहुत सी रिवायतों में “أَینَ ما تَکُونُوا یأْتِ بِکُمُ اللّهُ جَمیعًا अयना मा तकूनू याते बेकोमुल्लाहो जमीअन” वाले जुमले को हज़रत महदी अलैहिस्सलाम के ज़ुहूर के वक़्त उनके साथियों के एक जगह इकट्ठा होने के मतलब में बयान किया गया है। इमाम बाक़िर अलेहिस्सलाम ने इस आयत के बारे में फ़रमाया:

یعْنِی أَصْحَابَ الْقَائِمِ الثَّلَاثَ مِائَةِ وَ الْبِضْعَةَ عَشَرَ رَجُلاً قَالَ وَ هُمْ وَ اللَّهِ الاُمَّةُ الْمَعْدُودَةُ قَالَ یجْتَمِعُونَ وَ اللَّهِ فِی سَاعَةٍ وَاحِدَةٍ قَزَعٌ کَقَزَعِ الْخَرِیفِ यअनी अस्हाबल क़ाऐमिस सलासा मेअते वल बिज़्अता अशरा रजोलन क़ाला व हुम वल्लाहिल उम्मतुल मअदूदतो क़ाला यज्तमेऊना वल्लाहे फ़ी साअतिन वाहेदतिन क़ज़उन कक़ज़्इल खरीफ़े 
इससे मुराद क़ाएम (अ) के असहाब हैं, जो तीन सौ और कुछ (थोड़ा ज़्यादा) लोग होंगे। ख़ुदा की क़सम! “उम्मत-ए-मअदूदा” से मुराद भी यही लोग हैं। ख़ुदा की क़सम! ये सब एक ही वक्त में इकट्ठा कर दिए जाएँगे, जैसे तेज़ हवा के ज़ोर से बिखरे हुए पतझड़ के बादलों के टुकड़े एक जगह जमा हो जाते हैं। (काफ़ी, भाग 8, पेज 313)

इमाम रज़ा अलेहिस्सलाम भी फ़रमाते हैं:

وَ ذَلِکَ وَ اللَّهِ أَنْ لَوْ قَدْ قَامَ قَائِمُنَا یجْمَعُ اللَّهُ إِلَیهِ شِیعَتَنَا مِنْ جَمِیعِ الْبُلْدَانِ व ज़ालेका वल्लाहे अन लौ क़द क़ामा क़ाऐमोना यज्मउल्लाहो इलैहे शीअतना मिन जमीइल बुल्दाने

ख़ुदा की क़सम! जब हमारे क़ाएम (हज़रत महदी (अ.ज.) क़याम करेंगे, तो अल्लाह हमारे शियो (हमारे सच्चे मानने वालों) को तमाम शहरों और मुल्कों से इकठ्ठा करके उनकी तरफ़ जमा कर देगा। (बिहार उल अनवा, भाग 52, पेज 291)

यह तफ़सीर आयत के “बातिनी” मतलब में से है, क्योंकि रिवायतों के मुताबिक़ कुरआन की आयतों के कभी‑कभी कई अर्थ होते हैं। एक अर्थ तो ज़ाहिरी और आम लोगों के लिये होता है, और दूसरा अंदरूनी, गहरा अर्थ होता है, जिसे “बतन‑ए‑आयत” कहा जाता है, और उसके बारे में सिर्फ़ पैग़म्बर सल्लल्लाहो अलैहे वा आलेहि वसल्लम, इमाम अलैहिस्सलाम और वे लोग जानते हैं जिन्हें अल्लाह चाह ले।

इन रिवायतों की रौशनी में मतलब यह है कि जो ख़ुदा क़यामत के दिन इंसानों की मिट्टी के बिखरे हुए ज़र्रों को दुनियाभर की अलग‑अलग जगहों से जमा कर सकता है, वह बहुत आसानी से हज़रत महदी (अज) के साथियों को एक ही दिन और एक ही वक़्त में जमा कर सकता है, ताकि वे पूरी दुनिया में अदल और इन्साफ़ की हुकूमत क़ायम करें और ज़ुल्म‑ओ‑सितम का ख़ात्मा कर दें।

पाँचवीं आयत:

بَقِیتُ اللّهِ خَیرٌ لَکُمْ إِنْ کُنْتُمْ مُؤْمِنینَ وَ ما أَنَا عَلَیکُمْ بِحَفیظ बक़ीयतुल्लाहे ख़ैरुल लक़ुम इन कुंतुम मोमेनीना वमा अना अलैकुम बेहफ़ीज़
यानि: “जो कुछ अल्लाह ने तुम्हारे लिये बाक़ी रखा (यानी हलाल और जायज़ रोज़ी व माल), अगर तुम ईमान वाले हो तो वही तुम्हारे लिये बेहतर है, और मैं तुम्हारा रखवाला नहीं हूँ । (सूर ए हूद, आयत 86)।”

अलग‑अलग रिवायतों में “बक़ीयतुल्लाह” से मुराद इमाम महदी (अ) या कुछ दूसरे इमाम अलैहेमुस्सलाम को बताया गया है।

इमाम बाक़िर अलैहिस्सलाम ने फ़रमाया:

وَ أَوَّلُ مَا ینْطِقُ بِهِ هَذِهِ الْآیةُ «بَقِیتُ اللَّهِ خَیرٌ لَکُمْ إِنْ کُنْتُمْ مُؤْمِنِینَ» ثُمَّ یقُولُ: أَنَا بَقِیةُ اللَّهِ فِی أَرْضِه व अव्वलो मा यंतेक़ो बेहि हाज़ेहिल आयतो (बक़ीयतुल्लाहे ख़ैरुल लकुम इन कुंतुम मोमेनीना) सुम्मा यक़ूलोः अना बक़ीयतुल्लाहे फ़ी अर्ज़ेहि

सबसे पहला कलाम जो (हज़रत महदी (अ) ज़ुहूर के बाद) इरशाद फ़रमाएँगे, वही यह आयत होगी: “बَبَقِیتُ اللّهِ خَیرٌ لَکُمْ إِنْ کُنْتُمْ مُؤْمِنینَ बक़ीयतुल्लाहे ख़ैरुल लकुम इन कुंतुम मोमेनीना” फिर इरशाद फ़रमाएँगे: “मैं ही ज़मीन पर बक़ीयतुल्लाह हूँ।” (कमालुद्दीन व इत्मामुन नेअमा, भाग 1, पेज 330)

सही है कि जिस आयत की यहाँ बात हो रही है, उसमें सीधे तौर पर संबोधन क़ौम‑ए‑शुऐब से है और “बक़ीयतुल्लाह” का ज़ाहिरी मतलब हलाल फायदा, हलाल पूँजी या अल्लाह का अज्र‑ओ‑सवाब है। लेकिन हर वह नफ़ा‑बख़्श और भलाई वाली हस्ती या चीज़, जो अल्लाह की तरफ़ से इंसानों के लिए बाक़ी रखी गई हो और इंसान की भलाई व सआदत का ज़रिया बने, “बक़ीयतुल्लाह” कही जा सकती है। इस लिहाज़ से तमाम अल्लाह के पैग़म्बर और बड़े पेशवा “बक़ीयतुल्लाह” हैं।

क्योंकि हज़रत महदी मोऊद (अ), पैग़म्बर इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे वा आलेहि वसल्लम के बाद आख़िरी रहनुमा और सबसे बड़े क़ाइद हैं, इसलिए “बक़ीयतुल्लाह” के सबसे रोशन और साफ़ मिस्दाकों में से एक वही हैं, और इस लक़ब के सबसे ज़्यादा हक़दार भी वही हैं; ख़ास तौर पर इस नज़र से कि वे सारे पैग़म्बरों और इमामों के बाद अकेली बाक़ी रहने वाली ख़ुदाई हुज्जत हैं।

छठी आयत:

هُوَ الَّذی أَرْسَلَ رَسُولَهُ بِالْهُدی وَدینِ الْحَقّ ِ لِیظْهِرَهُ عَلَی الدِّینِ کُلِّهِ وَلَوْ کَرِهَ الْمُشْرِکُونَ “होवल्लज़ी अर्सला रसूलहु बिल्हुदा वा दीनिल‑हक़ लेयुज़हेरहू अलद्दीने कुल्लेह वलौ करेहल मुशरेकून”
“वही ज़ात है जिसने अपने रसूल को हिदायत और दीन‑ए‑हक़ के साथ भेजा, ताकि उसे तमाम दीनों पर ग़ालिब कर दे, चाहे मुशरिकों को कितना ही नागवार गुज़रे।” (सूर ए तौबा, आयत 23)

यही आयत उन्हीं अल्फ़ाज़ के साथ सूरह “सफ़” में भी आई है और थोड़े से लफ़्ज़ी फ़र्क़ के साथ सूरह “फ़त्ह” में दोहराई गई है, और यह एक बहुत बड़े वाक़ेअ की ख़बर देती है। इसी अहमियत की वजह से इसे क़ुरआन में बार‑बार दोहराया गया है और यह बताती है कि इस्लाम एक दिन पूरी दुनिया में फैल जाएगा और यह दीन सारी ज़मीन पर आम हो जाएगा।

कुछ मुफ़स्सेरीन ने इस आयत में बताई गई फ़त्ह‑ओ‑नुसरत को सिर्फ़ सीमित और मकामी फ़त्हों के मायने में लिया है, जो या तो खुद रसूलुल्लाह सल्लल्लाहो अलैहे वा आलेहि वसल्लम के ज़माने में, या उसके बाद कुछ इलाक़ों में इस्लाम को हासिल हुईं। लेकिन चूँकि इस आयत में किसी क़िस्म की कोई क़ैद या शर्त नहीं रखी गई और हर लिहाज़ से इसके लफ़्ज़ आम और मुतलक़ हैं, इसलिए इसे सिर्फ़ किसी सीमित दौर या इलाके तक महदूद करने की कोई दलील नहीं बनती। आयत का असल मतलब यह है कि आखिरकार इस्लाम हर पहलू से तमाम दूसरे मज़हबों पर ग़ालिब होगा; यानी अंत में इस्लाम पूरी ज़मीन पर छा जाएगा और सारी दुनिया पर उसी का बोल‑बाला होगा।

इसमें कोई शक नहीं कि अभी फिलहाल यह बात पूरी तरह हक़ीक़त की शक्ल में ज़ाहिर नहीं हुई, लेकिन अल्लाह का यह पक्का वादा धीरे‑धीरे पूरा हो रहा है। रिवायतों के अनुसार, इस प्रोग्राम की तकमील उस वक़्त होगी जब हज़रत महदी (अ) ज़ुहूर करेंगे और इस्लाम के वैश्विक होने का प्रोग्राम अमली रूप लेगा।

शेख़ सदूक़ रहमतुल्लाह अलैह ने इस आयत की तफ़सीर में इमाम सादिक़ अलेहिस्सलाम से यह बयान नक़्ल किया है:

وَ اللَّهِ مَا نَزَلَ تَأْوِیلُهَا بَعْدُ وَ لَا ینْزِلُ تَأْوِیلُهَا حَتَّی یخْرُجَ الْقَائِمُ عجل الله تعالی فرجه الشریف فَإِذَا خَرَجَ الْقَائِمُ لَمْ یبْقَ کَافِرٌ بِاللَّهِ الْعَظِیمِ وَ لَا مُشْرِکٌ بِالْإِمَامِ إِلَّا کَرِهَ خُرُوجَهُ حَتَّی لَوْ کَانَ کَافِرٌ أَوْ مُشْرِکٌ فِی بَطْنِ صَخْرَةٍ لَقَالَتْ یا مُؤْمِنُ فی بَطْنِی کَافِرٌ فَاکْسِرْنِی وَ اقْتُلْهُ वल्लाहे मा नज़ला तावीलोहा बादो वला यंज़ेलो तावीलोहा हत्ता यख़रोजल क़ाएमो अज्जलल्लाह तआला फ़रजा हुश्शरीफ़ फ़इज़ा ख़रजल क़ाएमो लम यब्क़ा काफ़ेरुन बिल्लाहिल अजीमे वला मुशरेकुन बिल इमामे इल्ला करेहा ख़ुरूजहू हत्ता लौ काना काफ़ेरुन ओ मुश्रेकुन फ़ी बत्ने सख़्रतिन लक़ालत या मोमेनो फ़ी बत्नी काफ़ेरुन फ़कसिरनी वक़्तुलहो
“ख़ुदा की क़सम! अभी तक इस आयत का पूरा तअव्वुल (अंदरूनी व असली मतलब) ज़ाहिर नहीं हुआ, और न ही होगा, जब तक क़ाएम (अ) ज़ुहूर न करें। जब वे ज़ुहूर करेंगे तो फिर न अल्लाह‑ए‑अज़ीम का कोई काफ़िर बाक़ी रहेगा और न कोई ऐसा शख्स जो इमाम का मुंकर हो, मगर यह कि वह उनके ज़ुहूर से नफ़रत करेगा। यहाँ तक कि अगर कोई काफ़िर किसी चट्टान के भीतर में भी छिपा होगा तो वह पत्थर पुकारेगा: ‘ऐ मोमिन! मेरे अन्दर एक काफ़िर छिपा हुआ है, मुझे तोड़, उसे बाहर निकाल और उसे क़त्ल कर।’” (कमालुद्दीन व इतमामुन नेअमत, भाग 2, पेज 670)

कुछ शिया उलेमा ने “महदवियत” से जुड़ी आयतों की तादाद 120 से ज़्यादा बताई है। तफ़सीली मालूमात के लिए इस विषय पर मौजूद मुफस्सल किताबों की तरफ़ रुजू किया जा सकता है; इसी लिए यहाँ आयात‑ए‑महदवी के बाब में हम इतनी ही आयतो पर इक्तफ़ा करते हैं।)

श्रृंखला जारी है ---

इक़्तेबास : "दर्स नामा महदवियत"  नामक पुस्तक से से मामूली परिवर्तन के साथ लिया गया है, लेखक: खुदामुराद सुलैमियान

 मजलिस ए खुबरगान रहबरी के सदस्य ने क़ुम में हुई पहली इंटरनेशनल कॉन्फ्रेंस “अल सिद्दकतुश शहीदा” में पाकिस्तान, फ़िलिस्तीन, लेबनान, सीरिया और नाइजीरिया के महान शहीदों को श्रद्धांजलि दी, और फ़ातिमी सब्र और संघर्ष को विरोध आंदोलन का इंटेलेक्चुअल और स्पिरिचुअल आधार बताया।

 मजलिस ए खुबरगान रहबरी के सदस्य ने क़ुम में हुई पहली इंटरनेशनल कॉन्फ्रेंस “अल सिद्दकतुश शहीदा” में पाकिस्तान, फ़िलिस्तीन, लेबनान, सीरिया और नाइजीरिया के महान शहीदों को श्रद्धांजलि दी, और फ़ातिमी सब्र और संघर्ष को विरोध आंदोलन का इंटेलेक्चुअल और स्पिरिचुअल आधार बताया।

उन्होंने कायदे मिल्लत जाफ़रिया पाकिस्तान शहीद अल्लामा शहीद आरिफ़ हुसैन अल-हुसैनी, सरदार सईद एज़ादी, शहीद नासिर सफ़वी, शहीद अली दरविशी, शहीद सैयद हाशिम सफ़ीउद्दीन जैसे दूसरे महान शहीदों का ज़िक्र किया और ज़ोर दिया: इन शहीदों ने हज़रत ज़हरा (सला मुल्ला अलैहा) और हज़रत इमाम हुसैन (अलैहिस्सलाम) को इस्लाम की रक्षा के लिए अपने लिए आदर्श माना है।

उन्होंने खास तौर पर सरदार शहीद सईद एज़ादी का ज़िक्र किया और कहा कि वह सरदार शहीद हज कासिम सुलेमानी के वफ़ादार दोस्त थे और फ़िलिस्तीनी मोर्चे पर उनकी भूमिका बहुत अहम थी।

आयतुल्लाह काबी ने नाइजीरिया में शेख ज़कज़की के बेटों की शहादत को भी फ़ातिमी विरोध से सीखा सबक माना और कहा कि शहीदों के परिवार बधाई और संवेदना के हक़दार हैं, क्योंकि शहीद ईश्वरीय, विलाया और जिहादी विरोध के असल उदाहरण हैं।

आयतुल्लाह काबी ने फ़ातिमी सब्र को "खूबसूरत सब्र" बताया और इसे आज की मुश्किलों और भारी ज़िम्मेदारियों का सामना करने का एक उदाहरण बताया।

मजलिस ए खुबरगान रहबरी के सदस्य ने हज़रत ज़हरा (सला मुल्ला अलैहा) की ज़िंदगी के कुछ पहलुओं का ज़िक्र किया और कहा कि हज़रत न सिर्फ़ हाउस ऑफ़ मॉर्निंग के सदस्य थे, बल्कि उन्होंने मदीना की मस्जिद में पवित्र इस्लाम की सच्चाई को समझाने और पाखंड का मुकाबला करने के लिए बेमिसाल हिम्मत के साथ फ़दक खुत्बा भी दिया।

आयतुल्लाह काबी ने खूबसूरत एकेश्वरवादी सब्र के अलग-अलग पहलुओं के बारे में इस तरह बताया: सभी घटनाओं के पीछे भगवान का हाथ देखना, भगवान की खुशी पर भरोसा करना, प्यार और सेवा में एकेश्वरवाद, मुश्किलों के समय शिकायतों से बचना, अल्लाह से खुलेपन की उम्मीद करना, और शांति और संतोष पाना।

उन्होंने कहा कि एक मोमिन मुश्किलों में भी भगवान की बात मानता है, जैसे वह शांति में मानता है, और मुश्किलों में सेवा की यह भावना सब्र को खूबसूरती से बताती है।

उन्होंने युद्ध के सबसे कठिन दिनों में क्रांति के सर्वोच्च नेता के व्यवहार को इस धैर्य का एक उदाहरण बताया, और कहा कि सर्वोच्च नेता ने युद्ध को संभाला और महान कमांडरों की शहादत के बावजूद अपनी आध्यात्मिक शांति बनाए रखी।

आयतुल्लाह काबी ने आगे कहा कि फ़ातिमी धैर्य इस्लाम के इतिहास में प्रतिरोध का स्रोत है और आज प्रतिरोध की अग्रिम पंक्ति है, और यह धैर्य वही रास्ता है जिसे हज़रत ज़ैनब (स) ने आशूरा के अवसर पर व्यक्त किया था: "मा रयात इल्ला जमीला।"

आखिर में, उन्होंने हज़रत ज़हरा (PBUH) की तीर्थयात्रा के विषयों की ओर इशारा किया और जोर दिया कि अच्छा धैर्य विलायत के प्रति वफादारी का समर्थन और ईश्वरीय परीक्षणों में जीत का रहस्य है।

यह ध्यान दिया जाना चाहिए कि यह सम्मेलन बाक़ियातुल्लाह इस्लामिक संस्थान के तत्वावधान में आयोजित किया गया था; जिसमें अयातुल्ला जवाद फादिल लंकारानी, ​​अयातुल्ला काबी की पत्नी, शहीद एज़ीदी और MWM पाकिस्तान के वाइस चेयरमैन, होज्जत-उल-इस्लाम सैयद अहमद इकबाल रिजवी ने भाषण दिया।

हौज़ा ए इल्मिया व यूनिवर्सिटी के मुमताज़ दीनी स्कॉलर, हुज्जतुल इस्लाम वल मुस्लिमीन मोहम्मद हादी फलाह खुरशीदी ने अपनी एक नशिस्त में इनफाक के साए में दाएमी बिहिश्त के उन्वान से गुफ्तगू करते हुए कहा कि खुदा की राह में खर्च करना इंसान को हकीकी कामयाबी तक पहुंचाता है।

हौज़ा ए इल्मिया व यूनिवर्सिटी के मुमताज़ दीनी स्कॉलर, हुज्जतुल इस्लाम वल मुस्लिमीन मोहम्मद हादी फलाह खुरशीदी ने अपनी एक नशिस्त में "इनफाक के साए में दाएमी बिहिश्त" के उन्वान से गुफ्तगू करते हुए कहा कि खुदा की राह में खर्च करना इंसान को हकीकी कामयाबी तक पहुंचाता है।

उन्होंने रसूल खुदा सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम की वह नसीहत नक़्ल की जिसमें आप ने हज़रत बिलाल से फरमाया था,इनफाक या बिलाल" यानी बिलाल! जो कुछ भी है, अल्लाह की राह में खर्च करो और फक़्र के खौफ को अपने दिल में न लाओ।

मोहम्मद हादी फलाह खुरशीदी ने बताया कि बिलाल माली तौर पर कमज़ोर थे, लेकिन जब कभी उनके पास अच्छे खजूर आ जाते तो वह उन्हें रसूल खुदा सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम की जियाफत के लिए मुख़स्सुस कर लिया करते थे। इस पर रसूलुल्लाह सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम ने उन्हें रोक दिया और फरमाया कि बिलाल! जो है, उसे अल्लाह की राह में दे दो। अल्लाह के खज़ानों में कमी नहीं, फक़्र से मत डरो।

उन्होंने कहा कि हर इंसान के अंदर एक "बिलाल" मौजूद है वह पाकीज़ा बातिन जो बख्शिश के जज़्बे को ज़िंदा रखता है और इंसान को अल्लाह के मुक़र्रबीन में शामिल कर सकता है।

उन्होंने मज़ीद कहा कि जो शख्स इनफाक करता है, खुदा उसे ज़रूर उसका बदला देता है। इस सिलसिले में अमीरुल मोमेनीन हज़रत अली अलैहिस्सलाम का वह क़ौल भी नहायत परमानी है जिसमें फरमाया,جُودُوا بِما یَفنی تَعتاضُوا عَنهُ بِما یَبقی"

यानी जो दुनिया फानी है, उसे बख्श दो ताकि तुम्हें उसके बदले वह आखेरत मिले जो हमेशा बाक़ी रहने वाली है।

उन्होंने कहा कि यह सिर्फ एक नसीहत नहीं बल्कि अमीरुल मोमेनीन अलैहिस्सलाम की तरफ से दी गई एक इलाही ज़मानत है कि जो अल्लाह की राह में देता है, वह कभी महरूम नहीं रहता।

मजमए जहानी तक़रीब ए मज़ाहिब-ए-इस्लामी के प्रमुख हुज्जतुल इस्लाम वल-मुस्लिमीन हमीद शहरीयारी ने हालिया घटनाओं के संदर्भ में अपने एक ट्वीट में कहा है कि ग़दीर मुसलमानों के बीच एकता का बिंदु है, विभाजन का नहीं।

मजमए जहानी तक़रीब ए मज़ाहिब-ए-इस्लामी के प्रमुख हुज्जतुल इस्लाम वल-मुस्लिमीन हमीद शहरीयारी ने हालिया घटनाओं के संदर्भ में अपने एक ट्वीट में कहा है कि ग़दीर मुसलमानों के बीच एकता का बिंदु है, विभाजन का नहीं।

उन्होंने अपने संदेश में वाक़य ए ग़दीर को पूरी उम्मत-ए-मुस्लिमा के लिए एकता का उज्ज्वल मीनार करार देते हुए लिखा कि जैसा कि रहबर-ए-मुअज़्ज़म-ए-इंक़लाब-ए-इस्लामी ने फरमाया है,अमीरूल मोमिनीन (अ.स.) एकता का केंद्र हैं, मतभेद का कारण नहीं।

हुज्जतुल इस्लाम वल मुस्लिमीन शहरीयारी ने जोर दिया कि मुसलमानों के बीच वास्तविक एकता तभी संभव है जब हक़ीक़त-ए-ग़दीर को सही रूप में पहचाना जाए।

अल्लाह ने फ़रमाया है,बेशक तुम्हारे लिए पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहि व आलेही व सल्लम का वजूद पैरवी के लिए बेहतरीन नमूना मौजूद है।

,हज़रत आयतुल्लाहिल उज़मा सैय्यद अली ख़ामेनेई ने फरमाया,इस आयत पर अमल करें जिसमें अल्लाह ने फ़रमाया है, “बेशक तुम्हारे लिए पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहि व आलेही व सल्लम के वजूद में पैरवी के लिए बेहतरीन नमूना मौजूद है।

हर उस शख़्स के लिए जो अल्लाह (की बारगाह में हाज़िरी) और क़यामत (के आने) की उम्मीद रखता है और अल्लाह को बहुत याद करता है” (सूरए अहज़ाब, आयत-21) पैग़म्बरे इस्लाम बेहतरीन नमूना हैं यह बात क़ुरआन ने साफ़ लफ़्ज़ों में कही है उसवा” हैं!

इसका क्या मतलब है? यानी एक नमूना हैं और हमको इस नमूने की पैरवी करनी चाहिए। वह एक ऊंची चोटी पर हैं और हमको जो इस घाटी में हैं उस चोटी पर पहुंचने की कोशिश करनी चाहिए। क़दम बढ़ाना चाहिए, इंसान जहाँ तक भी जा सकता है आगे बढ़े, उस चोटी की ओर बढ़ता जाए “उसवा” का मतलब यह है।

हज़रत फ़ातेमा ज़हरा सला मुल्ला अलैहा और फ़दक के बारे बहुत से प्रश्न किए हैं जैसे कि फ़दक की हक़ीक़त क्या है? और क्या फ़दक के बारे में सुन्नियों की किताबों में बयान किया गया है या नहीं।हम अपनी इस श्रखलावार बहस में कोशिश करेंगे कि सुन्नियों की महत्वपूर्ण एतिहासिक किताबों में फ़दक के बारे में विभिन्न पहलुओं को बयान करें और उस पर चर्चा करें।

,हज़रत फ़ातेमा ज़हरा सला मुल्ला अलैहा और फ़़दक के बारे बहुत से प्रश्न किए हैं जैसे कि फ़दक की हक़ीक़त क्या है? और क्या फ़दक के बारे में सुन्नियों की किताबों में बयान किया गया है या नहीं।हम अपनी इस श्रखलावार बहस में कोशिश करेंगे कि सुन्नियों की महत्वपूर्ण एतिहासिक किताबों में फ़दक के बारे में विभिन्न पहलुओं को बयान करें और उस पर चर्चा करें।

यह लेख केवल प्रस्तावना भर है जिसमें हम वह सारी बहसें जो फ़दस से सम्बंधित हैं और जिनके बारे में हम बहस करेंगे उनको आपके सामने बयान करेंगें, और फ़दक के बारे में अपने दावों और अक़ीदों को स्पष्ट करें।

सूरा असरा आयत 26 में ख़ुदा फ़रमाता हैः

وَآتِ ذَا الْقُرْ‌بَىٰ حَقَّهُ وَالْمِسْكِينَ وَابْنَ السَّبِيلِ
हे पैग़म्बर अपने परिजनों का हक दे दो

मोतबर रिवायतों में आया है कि इस आयत के नाज़िल होने के बाद पैग़म्बरे इस्लाम (सल्लल्लाहो अलैहे वा आलेही वसल्लम) को आदेश होता है कि फ़िदक को हज़रत फ़ातेमा ज़हरा (सला मुल्ला अलैहा) को दें।

फ़दक विभिन्न पहलुओं से बहुत ही गंभीर और महत्वपूर्ण मसला है जिनमें से एक उसका इतिहास है

फ़दक इतिहास के पन्नों में
इस बहस में सबसे पहली बात या प्रश्न यह है कि फ़िदक क्या है? और क्यों फ़दक का मसला महत्वपूर्ण है?

यह फ़दक मीरास था या एक उपहार था? जिसमें पैग़म्बर को आदेश दिया गया था कि फ़ातेमा को दिया जाए।

हज़रत पैग़म्बर (सल्लल्लाहो अलैहे वा आलेहि वसल्लम) की वफ़ात के बाद फ़िदक का क्या हुआ? यह फ़िदक क्या वह सम्पत्ति थी जिसकों मुसलमानों के बैतुल माल में वापस जाना चाहिए था या हज़रत ज़हरा का हक़ था?

यहां पर बहुस सी शंकाए या प्रश्न भी पाए जाते हैं जैसे यह कि फ़ातेमा ज़हरा (स) जो कि पैग़म्बर की बेटी हैं जो संसारिक सुख और सुविधा से दूर थी, जो मासूम है, जिनकी पवित्रता के बारे में आयते ततहीर नाज़िल हुई है, वह क्यों फ़दक को प्राप्त करने के लिए उठती हैं? और वह प्रसिद्ध ख़ुत्बा जिसको "ख़ुत्बा ए फ़दक" कहा जाता है अपने बयान फ़रमाया। आख़िर एसा क्या हुआ कि वह फ़ातेमा (सला मुल्ला अलैहा) जो नमाज़ तक पढ़ने के लिए मस्जिद में नहीं जाती थीं आपने मस्जिद में जाकर यह ख़ुत्बा दिया। जो आज हमारे हाथों में एक एतिहासिक प्रमाण के तौर पर हैं।

इस्लामिक इतिहास में फ़दक के साथ कब क्या हुआ? हम अपनी इस बहस यानी फ़िदक तारीख़ के पन्नों में बयान करेंगे। और वह शंकाएं जो फ़िदक के बारे में हैं उनको बिना किसी तअस्सुब के बयान और उनका उत्तर देंगे।

हमने अपने पिछले लेख़ों में फ़ातेमा ज़हरा की उपाधियों और उनके स्थान को बयान किया है, फ़ातेमा (सला मुल्ला अलैहा) वह हैं जिनकों पैग़म्बर ने अपनी माँ कहा है, जिनकी मासूमियत और पवित्रता की गवाही क़ुरआन दे रहा है, यही कारण है कि यह फ़िदक का मसला हमारे अक़ीदों से मिलता है कि वह फ़ातेमा (सला मुल्ला अलैहा) जो मासूम हैं उनकी बात को स्वीकार नहीं किया जा रहा है।

हज़रत ज़हरा (सला मुल्ला अलैहा) वह हैं जिनके बारे में शिया और सुन्नी एकमत है कि उनका क्रोध ईश्वर का क्रोध है और उनकी प्रसन्नता ईश्वर की प्रसन्नता है, फ़ातेमा (सला मुल्ला अलैहा) वह है जिनको दुश्मनों के तानों के उत्तर में कौसर बना कर पैग़म्बर को दिया था।

ख़ुदा हज़रत ज़हरा (सला मुल्ला अलैहा) मापदंड हैं, कि पैग़म्बर की शहादत के बाद जो घटनाएं घटी उनमें फ़ातेमा (सला मुल्ला अलैहा) ने क्या प्रतिक्रिया दिखाई, आपने जो प्रतिक्रिया दिखाई आज को युग में हमारे लिए हक़ को बातिल और सच को झूठ से अलग करने वाला है।

सवाल यह है कि आज हम किस सोंच का अनुसरण करें, उस सोंच का जो हज़रत अली (अलैहिस्सलाम) को पैग़म्बर के बाद उनका जानशीन और ख़लीफ़ा मानती है या उस सोंच का जो पैग़म्बर के बाद सक़ीफ़ा में चुनाव के माध्यम से ख़लीफ़ा बनाती है, या उन मज़हबों का अनुसरण करें जिनके इमाम पैग़म्बर की मौत के दसियों साल बाद पैदा हुए?

हज़रत ज़हरा (सला मुल्ला अलैहा) पैग़म्बर की शहादत के बाद किसकों उनके बाद के इमाम के तौर पर स्वीकार करती है (याद रखिए कि इमामत की बहस इतनी महत्वपूर्ण है कि उसके बारे में पैग़म्बर ने फ़रमाया है कि जो अपने ज़माने के इमाम को ना पहचाने उसकी मौत जाहेलियत (यानी क़ुफ़्र) की मौत है) क्या वह पहले ख़लीफ़ा को इमाम मानती है? या नहीं।

फ़दक एक बहाना है इस बात का ताकि लोगों को जगा सकें लोगों को जागरुक बना सकें, अगर क़ुरआन इब्राहीम द्वारा इमामत के सवाल के उत्तर में कहता है कि ज़ालिम को इमामत नहीं मिल सकती है, तो फ़ातेमा (सला मुल्ला अलैहा) जब खड़ी होती हैं और कहती हैं कि यह फ़दक मेरा हक़ है और मुझ से छीना गया है। उनकी यह प्रतिक्रिया हमको और आपको क्या समझा रही है? यह बता रही है कि फ़ातेमा (सला मुल्ला अलैहा) पर ज़ुल्म हुआ है और ज़ालिम रसूल का ख़लीफ़ा नहीं  हो सकता है

फ़ातेमा ज़हरा (सला मुल्ला अलैहा) का क़याम केवल ज़मीन के एक टुकड़े के लिए नहीं था, बल्कि आपका यह क़याम उन सारे लोगों को जगाने के लिए था जो ग़दीर के मैदान में मौजूद थे और जिन्होंने अली (अ) की बैअत की थी।

एक ऐसा युग आरम्भ हो गया था कि जब पैग़म्बर के कथन से मुंह फिरा लिया गया था,  और ऐसे युग में फ़ातेमा (सला मुल्ला अलैहा) का फ़दक को वापस मांगना वास्तव में विलायत, इमामत और अली (अलैहिस्सलाम) की ख़िलाफ़त का मांगना था

यह बहुत महत्वपूर्ण प्रश्न है, सुन्नियों के प्रसिद्ध आलिम इब्ने अबिलहदीद ने यही प्रश्न अपने उस्ताद से किया। वह कहता है कि मैंने अपने उस्ताद से प्रश्न कियाः क्या फ़िदक के बारे में फ़ातेमा (सला मुल्ला अलैहा) का दावा सच्चा था?
उस्ताद ने कहाः हां
मैंने कहाः तो क्यों पहले ख़लीफ़ा ने फ़िदक फ़ातेमा को नहीं दिया, जब्कि उनको पता था कि फ़ातेमा सच बोल रही है।

तो उस्ताद मुस्कुराए और कहाः अगर अबू बक्र फ़ातेमा के दावा करने पर फ़िदक उन को दे देते, तो वह कल उनके पास आतीं और अपने पति के लिए ख़िलाफ़त का दावा करती, और उनको सत्ता से हटा देतीं और उनके पास कोई जवाब भी ना होता, क्योंकि उन्होंने फ़दक को दे कर यह  स्वीकार कर लिया होता कि फ़ातेमा जो दावा करती हैं वह सच होता है।

इसके बाद इब्ने अबिलहदीद कहता हैः यह एक वास्तविक्ता है अगरचे उस्ताद ने यह बात मज़ाक़ में कहीं थी।

इब्ने अबिलहदीद की यह बात प्रमाणित करती है कि फ़िदक की घटना एक सियासी घटना थी जो ख़िलाफ़त से मिली हुई थी और फ़ातेमा (सला मुल्ला अलैहा) का फ़दक का मांगना केवल एक ज़मीन का टुकड़ा मांगना नहीं था।

यही कारण है कि फ़ातेमा (सला मुल्ला अलैहा) की बात स्वीकार नहीं की गई पैग़म्बर के नफ़्स अली की बात स्वीकार नहीं की गई, उम्मे एमन जो कि स्वर्ग की महिलाओं में से हैं उनकी बात स्वीकार नहीं की गई।

हम अपनी बहसों में यही बात प्रमाणित करने की कोशिश करेंगे कि,मार्गदर्शन और हिदायत का मापदंड हज़रते ज़हरा (सला मुल्ला अलैहा) हैं, हमको देखना होगा कि आपने किसको स्वीकार किया और किसको अस्वीकार।

आख़िर क्यों हज़रत ज़हरा (सला मुल्ला अलैहा), इमाम अली (अलैहिस्सलाम) और उम्मे एमन की बात को स्वीकार नहीं किया गया?
हम अपनी बहसों में साबित करेंगे कि पैग़म्बर ने अपने जीवनकाल में ही ईश्वर के आदेश से फ़िदक को हज़रते ज़हरा (सला मुल्ला अलैहा) को दिया था और आपने पैग़म्बर के जीवन में उसको अपनी सम्मपत्ति बनाया था।

फ़ातेमा ज़हरा (सला मुल्ला अलैहा) ने कुछ लोगों की वास्तविक्ता
को साबित करने और इमामत को उसके वास्तविक स्थान पर लाने के लिए क़याम किया जिसका पहला क़दम फ़दक है।

यह इमामत का मसला छोटा मसला नहीं है, ख़ुदा ने हमारे लिए पसंद नहीं किया है कि जो हमारा इमाम और रहबर हो वह मासूम ना हो, लेकिन हमने इसका उलटा किया मासूम को छोड़कर गै़र मासूम को अपना ख़लीफ़ा बना लिया।
अगर हज़रत ज़हरा (सला मुल्ला अलैहा) फ़िदक को वापस ले लेती तो जिस तर्क से फ़िदक वापस लेती उसी तर्क से ख़िलाफ़ को भी अली (अलैहिस्सलाम) के लिए वापस ले लेतीं और यही कारण है कि आप अपने दावे तो प्रमाणित करने के लिए ख़ुद गवाही देती हैं, अली (अलैहिस्सलाम) गवाही देते हैं उम्मे एमन गवाही देती हैं, लेकिन इस सबकी गवाही रद कर दी जाती है।

जब हज़रत ज़हरा (सला मुल्ला अलैहा) देखती हैं कि फ़िदक को हदिया और पैग़म्बर का दिया हुआ उपहार यह लोग मानने के लिए तैयार नहीं है, तो वह मीरास का मसला उठाती है, कि अगर तुम लोग उपहार मानने के लिए तैयार नहीं हो तो कम से कम पैग़म्बर की मीरास तो मानों जो मुझको मिलनी चाहिए।

और यही वह समय था कि जब इस्लामी दुनिया में सबसे पहली जाली हदीस गढ़ी गई और कहा गया कि पैग़म्बर ने फ़रमाया हैः
نحن معاشر الانبياء لا نورث
हम पैग़म्बर लोग मीरास नहीं छोड़ते हैं।

हज़रते ज़हरा (सला मुल्ला अलैहा) साबित करती है किः  इस हदीस को किसी ने नहीं सुना है यह हदीस क़ुरआन के विरुद्ध है। क्योंकि क़ुरआन में साफ़ साफ़ शब्दों में पैग़म्बरों की मीरास के बारे में बयान किया गया है कि वह मीरास छोड़ते हैं।
और एक समय वह भी आता है कि जब हज़रत ज़हरा (सला मुल्ला अलैहा) को फ़दक के दस्तावेज़ वापस दे दिए जाते हैं, लेकिन कुछ लोगों की साज़िश के बाद दोबारा फ़िदक फ़ातेमा (सला मुल्ला अलैहा) से छीन लिया जाता है।

इसके बाद हज़रत ज़हरा (सला मुल्ला अलैहा) नया कदम उठाती है, वह ज़हरा (सला मुल्ला अलैहा) जिसका घर उसकी मस्जिद थी वह अपने छीने हुए हक़ के लिए क़याम करती हैं और मस्जिद में आती है और एक महान ख़ुत्बा देती हैं जो ज्ञान से भरा हुआ है ताकि आज जो हम और आप बैठे है ताकि जान सकें कि इमाम अली (अलैहिस्सलाम) और उनके बाद ग्यारह इमामों की इमामत का मसला कोई कम मसला नहीं है बल्कि यह एक सोंच और रास्ता है जन्नत का जान सकें और उसका अनुसरण कर सकें।
और अंत में हज़रत ज़हरा (सला मुल्ला अलैहा) अंसार को सहायता के लिए बुलाती हैं।

और उसके बाद आप एक और क़दम उठाती हैं और आप वसीयत करती हैं किः "हे अली मुझे रात में ग़ुस्ल देना रात में कफ़न पहनाना और रात में दफ़्न करना और मेरी क़ब्र का निशान मिटा देना और मैं राज़ी नहीं हूँ कि जिन लोगों ने मुझे परेशान किया और दुख का कारण बने वह मेरे जनाज़े में समिलित हों।

क्या आपने कभी सोंचा है कि पैग़म्बर की शहादत के बाद क्यों हदीस को बयान करने और उसको लिखने से रोका गया?  
इसका कारण यही था कि अगर पैग़म्बर की हदीसों को नहीं रोका गया तो वास्तविक्ता प्रकट हो जाएगी और उनका भेद खुल जाएगा।
यही कारण था कि पहले दौर में हदीस को बयान करने से रोका गया, उसका बाद के दौर में हदीसों को जलाया गया, और उसके बाद के दौर में जाली हदीसें गढ़ी गईं।