رضوی

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अंसारुल्लाह के नेता ने ग़ज़्ज़ा के लोगों पर ज़ायोनी दुश्मन के अत्याचारों के सामने अरब देशों की चुप्पी की कड़ी आलोचना करते हुए कहा: ग़ज़्ज़ा के साथ हमारा समर्थन जारी रहेगा, और कब्ज़ाधारियों के खिलाफ नौसैनिक नाकाबंदी का चौथा चरण एक आवश्यक कदम था।

यमन के अंसारुल्लाह आंदोलन के नेता, सय्यद अब्दुल मलिक अल-हौसी ने अपने हालिया भाषण में ग़ज़्ज़ा की भयावह मानवीय स्थिति पर प्रकाश डालते हुए कहा:

ग़ज़्ज़ा में ज़ायोनी उत्पीड़न की पराकाष्ठा:

उन्होंने कहा कि ज़ायोनी दुश्मन अपने हमलों में मासूम शिशुओं को भी निशाना बना रहा है। ये बच्चे दुश्मन की नियमित योजना के शिकार हैं। भूख और अकाल के कारण हर दिन कई फ़िलिस्तीनी शहीद हो रहे हैं, और वास्तविक संख्या आधिकारिक आंकड़ों से कहीं अधिक है।

ग़ज़्ज़ा के लोग खाने के लिए तड़प रहे हैं:

उन्होंने आगे कहा कि इज़राइली क्रूरता इस हद तक पहुँच गई है कि प्रसव के दौरान भी महिलाओं को निशाना बनाया जा रहा है। फ़िलिस्तीनी लोगों की हालत यह है कि वे अकाल, जबरन विस्थापन और संकीर्ण इलाकों में फँसे हुए हैं। दुश्मन ने लाखों ग़ज़्ज़ावासियों को सिर्फ़ बारह प्रतिशत क्षेत्र तक सीमित कर दिया है, और इन तथाकथित "सुरक्षित क्षेत्रों" पर भी बमबारी की जा रही है।

खाने की तलाश में मारे गए लोग:

उन्होंने ज़ोर देकर कहा कि मारे जा रहे ज़्यादातर फ़िलिस्तीनी वे हैं जो अपने बच्चों और महिलाओं के लिए खाने की तलाश में निकले थे। ज़ायोनी दुश्मन इन भूखे लोगों को "मौत के जाल" में फँसाकर मार रहा है। ग़ज़्ज़ा के लोग कंकालों में बदल रहे हैं और उनकी तस्वीरें पूरी मानवता के लिए, खासकर उन पश्चिमी देशों के लिए शर्म की बात हैं जो खुद को "सभ्यता के चैंपियन" कहते हैं।

हवाई सहायता का नाटक:

सय्यद अब्दुल मलिक अल-हौसी ने ज़ायोनी धोखे का पर्दाफ़ाश करते हुए कहा कि हवाई मार्ग से भेजी गई सहायता सिर्फ़ एक धोखा है। सहायता सामग्री जानबूझकर उन इलाकों में फेंकी जाती है जिन्हें "रेड ज़ोन" घोषित किया गया है, और फ़िलिस्तीनियों को इन इलाकों में कदम रखते ही मार दिया जाता है। ऐसी सहायता वास्तव में फ़िलिस्तीनियों के सम्मान और जीवन से खिलवाड़ करने के समान है। दुश्मन द्वारा घोषित "मानवीय युद्धविराम" और हवाई सहायता के जाल में नहीं फँसना चाहिए।

ग़ज़्ज़ा को मिटाने का प्रयास:

उन्होंने कहा कि दुश्मन का लक्ष्य ग़ज़्ज़ा को पूरी तरह से तबाह करना और वहाँ जीवन का नामोनिशान मिटा देना है। यह क्रूरता और विनाश पूरी दुनिया के सामने है। जबकि मानवीय होने का दावा करने वाली पश्चिमी सरकारें भी इन उत्पीड़ित लोगों की आवाज़ दबा रही हैं।

अरब तेल, ज़ायोनी विमानों के लिए ईंधन:

उन्होंने कहा कि फ़िलिस्तीनियों पर अमेरिकी बम बरसाने वाले ज़ायोनी युद्धक विमान अरब के तेल से चल रहे हैं। अमेरिका अरब देशों से प्राप्त खरबों डॉलर में से 22 अरब डॉलर ग़ज़्ज़ा युद्ध में इस्तेमाल कर रहा है।

अरब सरकारें जन समर्थन को रोक रही हैं:

उन्होंने इस बात पर खेद व्यक्त किया कि अरब सरकारें अपने लोगों को फ़िलिस्तीन के पक्ष में विरोध प्रदर्शन या रैलियाँ करने से रोक रही हैं, जबकि अपने हवाई अड्डे और हवाई गलियारे दुश्मन इज़राइल के लिए खोल रही हैं। अरब और इस्लामी देश इज़राइल को हज़ारों टन सामान भेज रहे हैं, जबकि ग़ज़्ज़ा में बच्चे भूख से मर रहे हैं।

इस्लामी दुनिया को एकजुट होना चाहिए:

उन्होंने अरब और मुस्लिम देशों को संबोधित करते हुए कहा: इज़राइल की साज़िश न केवल फ़िलिस्तीन को नष्ट करने की है, बल्कि आपकी गुलामी और पहचान को मिटाने की भी है। इस्लामी उम्माह को एकजुट होकर व्यावहारिक कदम उठाने चाहिए। ग़ज़्ज़ा के प्रतिरोध सेनानी अत्यंत सीमित संसाधनों के बावजूद 22 महीनों से दुश्मन से लड़ रहे हैं। उनकी बहादुरी पूरे इस्लामी जगत के लिए एक सबक है।

ज़ायोनी दुश्मन की हार:

उन्होंने आगे कहा कि इज़राइल की हार और विनाश तय है, और यह ईश्वर का वादा है जो निश्चित रूप से पूरा होगा। अकेले इस हफ़्ते, "अल-क़स्साम" ने 14 सफल जिहादी अभियान चलाए, और "सरया अल-क़ुद्स" सहित अन्य फ़िलिस्तीनी समूहों ने भी महत्वपूर्ण अभियान चलाए।

यमनी घेराबंदी, चौथा चरण:

उन्होंने घोषणा की कि यमन ने इज़राइल के ख़िलाफ़ अपनी नौसैनिक नाकाबंदी का चौथा चरण शुरू कर दिया है। अब, इज़राइल के साथ वाणिज्यिक संबंध रखने वाले या उसके लिए सामान ले जाने वाले किसी भी जहाज़ को निशाना बनाया जाएगा। वर्तमान मानवीय संकट के संदर्भ में यह कदम अपरिहार्य है।

यमनी विद्वानों और लोगों की भूमिका:

उन्होंने यमनी विद्वानों के प्रयासों और लोगों के निरंतर समर्थन पर गर्व व्यक्त किया, और अन्य अरब और इस्लामी देशों से भी फ़िलिस्तीन के लिए शैक्षिक और जागरूकता गतिविधियों में शामिल होने का आह्वान किया। अंत में, उन्होंने यमनी लोगों से ग़ज़्ज़ा के समर्थन में अपनी साप्ताहिक रैलियाँ जारी रखने की अपील की, क्योंकि यही बात दुश्मन को सबसे ज़्यादा परेशान करती है।

 

कुछ दशक पहले तक, अमेरिका में इज़राइल का समर्थन न केवल एक राजनीतिक रुख था, बल्कि कई नागरिकों की राष्ट्रीय पहचान का हिस्सा भी था। राजनीतिक, मीडिया और शैक्षणिक हलकों में इज़राइल से वफ़ादारी को एक साझा अमेरिकी मूल्य माना जाता था। लेकिन आज, वही समाज, खासकर युवा पीढ़ी के बीच, इस नज़रिए में एक गहरी और स्पष्ट खाई देख रहा है।

सर्वेक्षणों के आंकड़े, विश्लेषणात्मक रिपोर्ट्स और यहां तक कि अमेरिकी मीडिया का मौजूदा माहौल, सभी युवाओं के बीच इज़राइल की लोकप्रियता में तेज़ी से आई "गिरावट" की ओर इशारा करते हैं। यह परिवर्तन सिर्फ़ जनमत में एक बदलाव नहीं है, बल्कि दशकों से चली आ रही आधिकारिक कहानियों के बारे में व्यापक जागृति और पुनर्विचार का संकेत है।

 दिसम्बर 2023 के हार्वर्ड-हैरिस सर्वे के अनुसार, 18 से 24 साल के 50% से अधिक अमेरिकी युवाओं का मानना था कि ग़ज़ा संकट का समाधान केवल इज़राइल के वजूद को समाप्त करने और फिलिस्तीनियों के आत्मनिर्णय के अधिकार को साकार करने से ही संभव है। इसी तरह, अप्रैल 2024 में प्यू रिसर्च सेंटर द्वारा प्रकाशित एक रिपोर्ट में स्पष्ट रूप से पाया गया कि 18 से 29 साल के केवल 14% अमेरिकी युवा, इज़राइल का समर्थन करते हैं, जबकि 33% खुलकर फिलिस्तीनी लोगों से सहानुभूति व्यक्त करते हैं।

 लेकिन अमेरिकी युवाओं की सोच में ऐसा बदलाव क्यों आया है? इसका जवाब मीडिया, सामाजिक, राजनीतिक और नैतिक परिवर्तनों की कई परतों में छिपा है। सबसे पहले, सोशल मीडिया के उदय ने, एक अनौपचारिक लेकिन शक्तिशाली माध्यम के रूप में, सीधे तथ्यों तक पहुंच को संभव बनाया है। अब मुख्यधारा के मीडिया के एकतरफा फिल्टर्स नहीं रहे। आज के अमेरिकी किशोर और युवा, फिलिस्तीनी माताओं के आंसू, मारे गए बच्चों और ध्वस्त घरों की तस्वीरों को बिना किसी सेंसर के सीधे देख रहे हैं।

जब सच्चाई बिना किसी फिल्टर के लोगों की आँखों और दिलों तक पहुँचती है, तो मुख्यधारा के मीडिया के प्रचारित नैरेटिव का असर खत्म होने लगता है। ट्विटर, इंस्टाग्राम, टिकटॉक और यूट्यूब जैसे प्लेटफॉर्म अब सूचना सेंसरशिप के खिलाफ एक वास्तविक मोर्चा बन चुके हैं। ग़ज़ा और दूसरे मक़बूज़ा इलाकों के लोगों की आवाज़, मोबाइल फोन और एमेच्योर कैमरों के जरिए, वैश्विक दर्शकों तक पहुँच रही है और पश्चिम के युवाओं की अंतरात्मा को झकझोर रही है।

इस अभूतपूर्व मीडिया बेदारी ने अमेरिकी विश्वविद्यालयों में ज़ायोनी विरोधी छात्र आंदोलनों को भी जन्म दिया है। व्यापक विरोध प्रदर्शन, छात्र हड़तालें, और इज़राइल से जुड़ी कंपनियों में विश्वविद्यालयों के निवेश के ख़िलाफ़ मुहिम, ये सभी युवाओं की सोच में गहरे और स्थायी बदलाव के स्पष्ट संकेत हैं।

 वहीं, अमेरिका के राजनीतिक माहौल में बदलाव ने भी इस प्रवृत्ति को गति दी है। यहाँ तक कि रिपब्लिकन युवाओं (जो परंपरागत रूप से इज़राइल के कट्टर समर्थक माने जाते थे) में भी सिर्फ 28% इस राष्ट्र का समर्थन करते हैं, जबकि 47% डेमोक्रैट युवा फिलिस्तीनी लोगों के साथ खड़े हैं। यह विभाजन सिर्फ भू-राजनीतिक नहीं, बल्कि नैतिक और पहचान से जुड़ा भी है।

 ध्यान देने वाली बात यह है कि यह बदलाव सिर्फ अमेरिका तक सीमित नहीं है। इज़राइली राष्ट्रीय सुरक्षा अध्ययन संस्थान (INSS) की रिपोर्ट के मुताबिक, अक्टूबर 2023 से मार्च 2024 के बीच, दुनिया भर में हर महीने औसतन 2,000 से ज्यादा इज़राइल-विरोधी विरोध प्रदर्शन दर्ज किए गए। यमन के बाद, सबसे ज्यादा प्रदर्शन और विरोध रैलियां अमरीका में हुई हैं।

 इस पैमाने पर वैश्विक प्रतिक्रिया, खासकर अमेरिकियों की ओर से, ज़ायोनी शासन को गहरी चिंता में डाल दिया है। क्योंकि अमेरिका का बिना शर्त समर्थन,खासकर आम लोगों का, न कि सिर्फ सरकारों का,हमेशा से इज़राइल की रणनीतिक जीवनरेखा रहा है। अब यह स्तंभ दरकने लगा है। और जो हम आज देख रहे हैं, वह पश्चिमी युवाओं के मन-मस्तिष्क में इज़राइल के प्रति एक 'सॉफ्ट कोलैप्स' (नरम पतन) है।

 अतीत के विपरीत, अब इस सच्चाई को मीडिया कूटनीति या सरकारी प्रचार से छुपाया नहीं जा सकता। नई पीढ़ी ने, जिसका ज़मीन जाग चुका है, जिसका मन जागरूक है और जिसकी आँखें ग़ज़ा के खंडहरों में सच्चाई ढूँढ़ती हैं, तय कर लिया है कि वह इन अपराधों का साझीदार नहीं बनेगी। यह पीढ़ी अब इज़राइल को पसंद नहीं करती, न कट्टरता से, बल्कि जागरूकता से। न जोश में, बल्कि सच्चाई के सीधे सामने आने से।

वह दुनिया जिसके युवाओं ने आवाज़ उठाई है, अब पहले जैसी नहीं रह सकती। इज़राइल आज न सिर्फ युद्ध के मैदान में, बल्कि जनमत की लड़ाई में भी अपनी पकड़ खो रहा है और शायद, मानवता के ज़मीर में यह धीमी गिरावट, किसी भी भू-राजनीतिक चुनौती से ज़्यादा बड़ा खतरा साबित होगी।

 जिस तरह पारंपरिक मीडिया ने कभी कहानियाँ गढ़ीं, आज नए मीडिया ने उन्हें फिर से लिख दिया है। और इस बार, अमेरिकी युवाओं ने साफ़ सुना स्वर में अतीत को पीछे छोड़ दिया है। इज़राइल अब उनके दिलों की धड़कन नहीं रहा  क्योंकि सच्चाई ने प्रचार की धूल को चीरकर खुद को उजागर कर दिया है।

 

ज़ुल्म और इमाम ज़ामाना (अ) के ज़ुहूर के बीच हमेशा चर्चा होती रही है। क्या ज़्यादा ज़ुल्म, ज़ुहूर के लिए ज़मीना साज़ है, या फिर ये इस बात का मतलब है कि इंसान को और तैय्यार होना चाहिए ताकि न्याय कायम हो सके? कुछ गलतफहमियां ऐसी हो सकती हैं कि लोग बेपरवाह हो जाएं, लेकिन धार्मिक विद्वान कहते हैं कि ज़ुल्म के खिलाफ लड़ना असली इंतजार का हिस्सा है, न कि ज़ुहूर में बाधा।

धार्मिक शिक्षाओं में इमाम ज़माना (अ) के ज़ुहूर से पहले का समय ऐसा बताया गया है जब दुनिया ज़ुल्म और अन्याय से भर जाती है। इस बात को कई हदीसों में जोर देकर कहा गया है, जिनमें से पैग़म्बर मुहम्मद (स) की एक मशहूर हदीस है: "ज़मीन को उस तरह से इंसाफ और न्याय से भर देंगे जैसे वो ज़ुल्म और अन्याय से भरी हुई थी।" (बिहार उल-अनवार, भाग 52, पेज 340)।

लेकिन सवाल यह है:

"हम कैसे समझें कि दुनिया में अत्याचार बढ़ने और इमाम ज़माना (अ) के ज़ुहूर के बीच क्या रिश्ता है? क्या अत्याचार का बढ़ना ज़ुहूर होने को शीघ्र करता है, या यह केवल वह हालत है जिसमें ज़ुहूर होगा?"

और "क्या इसका मतलब यह है कि हमें अन्याय के सामने चुप रहना चाहिए ताकि ज़ुहूर का रास्ता बने? क्या ऐसी सोच हमें सामाजिक जिम्मेदारियों और अन्याय के खिलाफ लड़ाई से दूर कर सकती है?"

इस मुद्दे की जांच के लिए, हमने इस सवाल को नैतिक संशयों के विशेषज्ञ हुज्जतुल इस्लाम रज़ा पारचा बाफ़ से पूछा, उन्होंने आयतों, हदीसों और बड़े विद्वानों के विचारों के हवाले से ज़ुल्म और ज़ुहूर के बीच के रिश्ते को समझाया। आगे इस बातचीत का पूरा विवरण हम आपके साथ साझा कर रहे हैं।

बिस्मिल्लाहिर्रहमानिर्राहीम

ज़ुल्म को ज़ुहूर के लिए एक जरूरी शर्त माना गया है, न कि सीधा कारण, जैसा कि पैग़म्बर मुहम्मद (स) की मशहूर हदीस में है: «یَمْلَأُ الْأَرْضَ قِسْطًا وَعَدْلًا کَمَا مُلِئَتْ ظُلْمًا وَجَوْرًا यम्ला उल- अर्ज़ा क़िस्तन व अदलन कमा मोलेअत ज़ल्मन व जोरन» “ज़मीन को इंसाफ और न्याय से वैसी ही भर देगा जैसे वह ज़ुल्म और अन्याय से भरी होगी।” (बिहार उल-अनवार, भाग 52, पेज 340)

आल़्लामा तबातबाई ने इस बारे में कहा है: दुनिया का ज़ुल्म से भर जाना, ज़ुहूर के लिए आवश्यक जरुरी माहौल की निशानी है, न कि ज़ुल्म ज़ुहूर का कारण है। (अल मीज़ान, भाग 12, पेज 327)

हमें व्यक्तिगत और सामाजिक जिम्मेदारियों में फर्क करना चाहिए। व्यक्तिगत स्तर पर, ग़ैबत के दौर में नही अनिल मुनकर (बुराई से रोकना) और अम्र बिल मारूफ़ (भलाई का आदेश देना) जरूरी है (आले इमरान: 110)। सामाजिक स्तर पर, ग़ैबत के दौर में न्यायपूर्ण व्यवस्था बनाना ज़ुहूर की तैयारी के लिए अनिवार्य है।

उदाहरण के लिए, इमाम हुसैन (अ) का ज़ुल्म के खिलाफ क़याम ज़ुहूर से पहले के संघर्ष का एक नमूना था।

शहीद मुताहरी ने "इंतेज़ार-ए-फ़आल" का सिद्धांत समझाया है, जहां वे कहते हैं: "इंतेज़ार का मतलब है ज़ुहूर की तैयारी करना, जो ज़ुल्म के खिलाफ लड़ाई के जरिए होता है।" (क़याम व इंक़ेलाब-ए-महदी, पेज 25)

इसी आधार पर, सामाजिक गतिविधियां जैसे न्याय की मांग, नैतिक शिक्षा और भ्रष्टाचार से मुकाबला करना भी इंतेज़ार के उदाहरण हैं।

"नफ़ी ए-सबील" के नियम (सुर ए नेसा की आयत न 141) के अनुसार, इस्लामी समाज की आज़ादी और स्वायत्तता को अत्याचारियों के शासन से बचाना शरई फर्ज़ है।

जैसे कि इमाम सादिक़ (अ) की हदीस है: "مَنْ أَصْبَحَ وَلَا یَهْتَمُّ بِأُمُورِ الْمُسْلِمِینَ فَلَیْسَ بِمُسْلِمٍ मन अस्बहा वला यहतम्मो बेउमूरिल मुस्लेमीना फ़लैसा बेमुस्लेमिन" जो सुबह उठकर मुसलमानों के मामलों की परवाह नहीं करता, वह मुसलमान नहीं है।" (क़ाफी, भाग 2, पेज 164)

इसलिए, ज़ुल्म ज़ुहूर के लिए एक ज़रूरी शर्त है, लेकिन उसे समाप्त करने की जिम्मेदारी मोमेनीन की है।

ज़ुल्म बढ़ने के बावजूद न्याय की स्थापना निश्चित है, इसका मतलब ज़ुल्म को बढ़ावा देना नहीं है। बल्कि यह दिखाता है कि न्याय अनुकूल परिस्थितियों के बावजूद जरूर आएगा।

इमाम खुमैनी (रह) का इस्लामी सरकार की स्थापना का काम भी "ज़ुहूर की तैयारी" माना जाता है।

इसके नतीजे में कहा जा सकता है: ज़ुल्म ज़ुहूर की आवश्यकता के लिए जरुरी माहौल पैदा करता है, लेकिन यही कारण नहीं होता।

ज़ुल्म के खिलाफ लड़ाई इंतजार-ए-फर्ज़ के उदाहरण हैं और चुप रहना गलत है।

न्याय की मांग करने वाले संस्थानों को मजबूत करना (अपने सामर्थ्य के अनुसार) शरई फर्ज़ है।

शहीद सद्र के शब्दों में: "इंतजार, जागरूकता का सार है, नींद का आस्वाद नहीं।" अतः हर ज़ुल्म के खिलाफ क़दम ज़ुहूर की ओर एक कदम है।

 

आयतुल्लाह फ़क़ीही ने कहा कि उलेमाओं और मोमिनीन की निरंतर ज़ियारतें, मक़बरे से प्रकट होने वाले करामात व मोज्ज़ात, और इस हरम की रूहानी फ़िज़ा इस बात की स्पष्ट निशानी है कि यह बारगाह हज़रत रुक़य्या सलामुल्लाह अलैहा से मंसूब होना बेबुनियाद नहीं बल्कि दलीलों से मोअय्यद है।

जामिया मुदर्रेसीन हौज़ा ए इल्मिया क़ुम के सदस्य आयतुल्लाह फ़क़ीही ने एक इस्तिफ़्ता के जवाब में इस बात की पुष्टि की है कि ऐतिहासिक रिवायतों और किताब-ए-मक़ातिल के अनुसार, इमाम हुसैन (अ) की एक बेटी हज़रत रुक़य्या सलामुल्लाह अलैहा के नाम से मशहूर थीं, जिनकी क़ब्र मुताह्हर सीरिया की राजधानी दमिश्क़ में स्थित है। 

उन्होंने कहा कि हालांकि कुछ इतिहासकारों ने इस मुबारक नाम का ज़िक्र विस्तार से नहीं किया है, लेकिन मोतबर मक़ातिल और इतिहास की कुछ रिवायतें इस बात की ताईद करती हैं कि हज़रत सय्यदुश शोहदा (अ) की एक बेटी रुक़य्या नाम की थीं जिन्होंने वाक़ए-ए-करबला के बाद सीरिया के वीरान खंडहर में शहादत पाई। 

आयतुल्लाह फ़क़ीही ने आगे कहा कि उलेमाओं और मोमिनीन की निरंतर ज़ियारतें, मक़बरे से प्रकट होने वाले करामात व मोज्ज़ात, और इस हरम की रूहानी फ़िज़ा इस बात की स्पष्ट निशानी है कि यह बारगाह, हज़रत रुक़य्या सलामुल्लाह अलैहा से मंसूब होना बेबुनियाद नहीं बल्कि दलीलों से मोअय्यद है। 

उन्होंने दुआ की कि ख़ुदावंद-ए-मुतआल हमें दुनिया में उनकी ज़ियारत और क़यामत के दिन उनकी शफ़ाअत फ़रमाए।

 

हुज्जतुल इस्लाम वल-मुस्लेमीन दरगाही ने कहा: इमाम हुसैन (अ) की बेटी हज़रत रुकय्या (स) ने आशूरा की घटना के बाद असहनीय कष्टों को सहन करके आशूरा के संदेश को जीवित रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई और समाज के जागरण के माध्यम से एक बड़ी सफलता हासिल की।

हुज्जतुल इस्लाम वल-मुस्लेमीन मीसम दरगाही ने हज़रत रुक़य्या (स) की शहादत के अवसर पर कहा: हज़रत रुक़य्या (स) का नाम "रुक़य्या" शब्द "रुकी" से लिया गया है जिसका अर्थ है उन्नति और प्रगति।

उन्होंने कहा: कुछ स्रोतों के अनुसार, यह संभव है कि उनका असली नाम फ़ातिमा था और "रुक़य्या" उनकी उपाधि थी। चूँकि इमाम हुसैन (अ) की बेटियों में "रुक़य्या" नाम का ज़िक्र कम ही होता है, इस महान महिला का असली महत्व आशूरा के क़याम में उनके अद्वितीय प्रभाव में है।

हौज़ा ए इल्मिया खुरासान के निदेशक ने कहा: हज़रत रुक़य्या (स) ने ऐसी महान सफलता प्राप्त की जो आज भी हृदय में व्याप्त है।

हुज्जतुल इस्लाम वल मुस्लेमीन दरगाही ने कहा: वास्तव में, इमाम हुसैन (अ) के क़याम में करुणा और भावनाओं के तत्व को समाज के जागरण के लिए एक अत्यंत प्रभावी तत्व माना जाता है।

उन्होंने आगे कहा: भावनाएँ मौन और मृत प्रकृति को पुनर्जीवित और जागृत कर सकती हैं। इसलिए, हज़रत सय्यद उश-शोहदा (अ) ने अपने विद्रोह में इस बहुमूल्य संसाधन का उपयोग किया। कैदी कारवान के प्रत्येक व्यक्ति ने अपने-अपने स्थान पर उपदेशों, मरसीयो और कथनों के माध्यम से आशूरा की घटना के तथ्यों को स्पष्ट और प्रकाशित किया।

 

हिज़्बुल्लाह महासचिव ने अपने भाषण में कहा: "जो कोई भी आज हिज़्बुल्लाह से हथियार डालने की माँग कर रहा है, दरअसल वह चाहता है कि ये हथियार इज़राइल को सौंप दिए जाएँ; हममें से किसी को भी शांति या आत्मसमर्पण की बात नहीं करनी चाहिए।"

हिज़्बुल्लाह महासचिव शेख नईम क़ासिम ने प्रसिद्ध कमांडर, शहीद फ़वाद शकर की पहली बरसी पर बोलते हुए कहा: फ़वाद शकर ने 1982 से पहले "कॉवेनेंट ग्रुप" नामक 10 मुजाहिदीनों का एक समूह बनाया था, जिसने इज़राइल से लड़ने और हमेशा अग्रिम मोर्चे पर मौजूद रहने का संकल्प लिया था। इस समूह के 9 सदस्यों की शहादत के बाद, फ़वाद शकर ने 35 वर्षों तक शहादत का इंतज़ार किया।

शेख नईम ने कहा कि फ़वाद शकर इमाम खुमैनी के गहरे भक्त थे और उनकी मृत्यु के बाद, वे इस्लामी क्रांति के नेता, इमाम ख़ामेनेई के अनुयायी बन गए। वह हिज़्बुल्लाह के संस्थापकों में से एक और शुरुआती सैन्य कमांडरों में से एक थे।

उन्होंने आगे बताया कि शहीद अब्बास अल-मूसवी की शहादत के बाद फ़वाद शकर ने कुफ़्रा और यतीर की लड़ाइयों का नेतृत्व किया। जब हिज़्बुल्लाह ने बोस्निया में मुजाहिदीन भेजने का फ़ैसला किया, तो उनका नेतृत्व भी उन्हें ही सौंपा गया। वह हिज़्बुल्लाह की नौसैनिक इकाई के संस्थापक भी थे।

शेख नईम क़ासिम के अनुसार, फ़वाद शकर युद्ध मोर्चे के रणनीतिक और कमान केंद्र में एक महत्वपूर्ण पद पर थे और सय्यद हसन नसरुल्लाह की शहादत तक उनके लगातार संपर्क में थे। वह न केवल लोगों के बीच रहते थे, बल्कि एक अद्वितीय रणनीतिकार भी थे।

उन्होंने आगे कहा: हम शहीद इस्माइल हनिया को भी श्रद्धांजलि देते हैं, जिन्होंने फ़िलिस्तीन का झंडा बुलंद किया और इस मुद्दे को दुनिया की पहली प्राथमिकता बनाया।

ज़ायोनी अपराधों की निंदा करते हुए उन्होंने कहा कि इज़राइल और संयुक्त राज्य अमेरिका हर दिन ग़ज़्ज़ा में संगठित और जानबूझकर अपराध कर रहे हैं। आज की दुनिया में इज़राइली क्रूरता और बर्बरता का कोई उदाहरण नहीं है, और अंतर्राष्ट्रीय समुदाय को इज़राइल के खिलाफ एकजुट होना चाहिए ताकि मानवता के खिलाफ यह क्रूरता बंद हो।

शेख नईम क़ासिम ने फ़िलिस्तीन समर्थक लेबनानी कैदी जॉर्ज अब्दुल्लाह को भी सलाम किया, जो 41 साल से जेल में हैं लेकिन अपने विचारों से कभी पीछे नहीं हटे। उन्होंने कहा कि जॉर्ज अब्दुल्लाह भी प्रतिरोध के इतिहास का हिस्सा हैं।

शेख नईम ने कहा: "लेबनान में प्रतिरोध ने साबित कर दिया है कि यह एक स्थिर राज्य की स्थापना का आधार है। हम दो मोर्चों पर काम कर रहे हैं: पहला दुश्मन से मुक्ति और दूसरा जनभागीदारी के माध्यम से एक मजबूत राज्य का निर्माण। हमारा प्रतिरोध केवल प्रतीकात्मक नहीं है, बल्कि सेना, जनता और प्रतिरोध की एक त्रि-आयामी व्यावहारिक शक्ति है।"

उन्होंने आगे कहा: "युद्धविराम समझौता लेबनान और इज़राइल दोनों के लिए एक सफलता थी। हमने सरकार की मदद की ताकि इसे दक्षिणी लेबनान में लागू किया जा सके। अगर कोई युद्धविराम को आत्मसमर्पण से जोड़ता है, तो उन्हें बता दें कि यह एक आंतरिक मामला है।"

शेख नईम क़ा्सिम ने स्पष्ट शब्दों में कहा: "उन्हें लगा कि हिज़्बुल्लाह कमज़ोर हो गया है, लेकिन शहीदों के अंतिम संस्कार में जनता की भागीदारी, हमारी राजनीतिक उपस्थिति और स्थानीय चुनावों में हमारी मज़बूती ने दुश्मन को चौंका दिया। हिज़्बुल्लाह अभी भी राजनीतिक और सामाजिक रूप से मज़बूत है।"

उन्होंने कहा: "प्रतिरोधक हथियार लेबनान से जुड़े हैं, इज़राइल से नहीं। अमेरिकी प्रतिनिधि होचस्टीन ने इज़राइल को युद्धविराम का आश्वासन दिया, और वर्तमान अमेरिकी प्रतिनिधि, ताम बराक, लेबनान के इस रुख़ से हैरान थे कि हम युद्धविराम से पहले हथियारों पर बात करने को तैयार नहीं हैं।"

शेख नईम ने आगे कहा: "इज़राइल पाँच कब्ज़े वाले क्षेत्रों तक ही सीमित नहीं रहेगा, वह प्रतिरोध को निरस्त्र करने और और ज़्यादा कब्ज़े और बस्तियाँ बनाने की कोशिश करेगा। हमने सीरिया में देखा है कि कैसे दुश्मन बमबारी और नरसंहार के ज़रिए सीमाओं और भविष्य का निर्धारण करता है।"

उन्होंने चेतावनी दी कि लेबनान आज इज़राइल, आईएसआईएस और अमेरिका की नई मध्य पूर्व योजना से अस्तित्व के लिए ख़तरा है।

उन्होंने ज़ोर देकर कहा: "हम लेबनान को इज़राइल का हिस्सा कभी नहीं बनने देंगे, चाहे पूरी दुनिया इस पर सहमत हो जाए। हम अपनी आखिरी साँस तक इसका विरोध करेंगे। जो लोग हथियार सौंपने की बात करते हैं, वे असल में इज़राइल के हाथ मज़बूत करना चाहते हैं।"

उन्होंने स्पष्ट किया: "हम अपनी मातृभूमि की रक्षा करेंगे, भले ही हममें से कई शहीद हो जाएँ, लेकिन हम दुश्मन के आक्रमण को बर्दाश्त नहीं करेंगे। हम कोई धमकी नहीं दे रहे हैं, बल्कि रक्षात्मक रुख़ अपना रहे हैं, और हमारी रक्षा को किसी सीमा या बंधन की ज़रूरत नहीं है, चाहे इसके लिए हमें अपनी जान ही क्यों न देनी पड़े।"

उन्होंने सरकार से आह्वान किया: "हमलों को रोकने और देश के पुनर्निर्माण की दो बुनियादी ज़िम्मेदारियाँ उठाएँ, भले ही यह अपने ख़ज़ाने से ही क्यों न हो। जो कोई भी लेबनान के अंदर या बाहर हथियारों की वापसी की माँग करता है, वह इज़राइली योजना का सहयोगी है।"

अंत में, उन्होंने कहा: "पहले आक्रमण रोकें, इज़राइल को पीछे हटने दें और कैदियों को वापस आने दें, फिर आकर हमसे बात करें। हम संप्रभुता, स्वतंत्रता और स्वतंत्र निर्णयों में विश्वास करते हैं। सरकार को आक्रमण के विरुद्ध दृढ़ रहना चाहिए, देश का निर्माण करना चाहिए और देशद्रोही तत्वों को रोकना चाहिए।"

उन्होंने नारा लगाया: "आइए हम सब मिलकर यह नारा लगाएँ: 'अपनी एकता से, इज़राइल को खदेड़ें और अपनी मातृभूमि का पुनर्निर्माण करें!' हम इस बारे में बात करने के लिए तैयार हैं कि कैसे ये हथियार लेबनान की ताकत बन सकते हैं, लेकिन हम इन्हें इज़राइल को कभी नहीं देंगे। चाहे पूरी दुनिया एकजुट हो जाए और हम सब शहीद हो जाएँ, इज़राइल लेबनान को बंधक नहीं बना सकता।"

 

 

मजमआ उलेमा व खुतबा-ए हिंद ने गोदी मीडिया द्वारा रहबर-ए-इंकेलाब इस्लामी की तौहीन पर गहरा दुख और गुस्सा जताते हुए कहा है कि इंडिया टीवी चैनल और हिंदुस्तान टाइम्स ने रहबर-ए-मुअज़्ज़म हज़रत आयतुल्लाह सैयद अली खामेनाई पर झूठा इल्ज़ाम और तोहमत लगाकर अपनी नीचता और घटिया सोच का सबूत दिया है।

मुम्बई स्थित मजमआ उलमा व खुतबा-ए हिंद ने गोदी मीडिया द्वारा रहबर-ए-इंकेलाब इस्लामी की तौहीन पर गहरा दुख और गुस्सा जताते हुए कहा है कि इंडिया टीवी चैनल और हिंदुस्तान टाइम्स ने रहबर-ए-मुअज़्ज़म हज़रत आयतुल्लाह सैयद अली खामेनाई पर झूठा इल्ज़ाम और तोहमत लगाकर अपनी नीचता और घटिया सोच का सबूत दिया है।

बयान का पूरा मज़मून कुछ इस प्रकार है:

बिस्मिल्लाहिर्रहमानिर्रहीम

इंसाफ और अदल इस दुनिया की सबसे अहम ज़रूरत है जिसका दावा तो सभी करते हैं, लेकिन हक़ीक़ी माईने में अगर कोई इसका अलमबरदार है तो वह रहबर-ए-मुअज़्ज़म हैं यही वजह है कि दुनिया के तमाम ज़ालिमों की नींदें हराम हो चुकी हैं और वह अब नीच और घटिया हरकतें करने लगे हैं।

इसी की एक मिसाल है इंडिया टीवी और हिंदुस्तान टाइम्स जिन्होंने रहबर-ए-मुअज़्ज़म पर इल्ज़ाम लगा कर न सिर्फ़ अपनी बेहूदी और नाकाबिले-बर्दाश्त सोच को उजागर किया है, बल्कि यह भी दिखा दिया है कि अब इनका काम खबर देना नहीं, बल्कि चापलूसी करना और अपनी झुंझलाहट निकालना रह गया है।

मजमआ उलमा व खुतबा मुम्बई ने इस घटिया और निंदनीय हरकत की कड़ी निंदा करते हुए दुनियाभर के तमाम इंसाफ पसंद और अदल पसंद लोगों से अपील की है कि वे इस तौहीन की सख्त मुखालिफत करें और सोशल मीडिया या अन्य माध्यमों से खुलकर इसकी निंदा करें।

 

आयतुल्लाह अलम उल हुदा न कहा कि दीनदारी और इल्म, ईरानी मिल्लत का वह ताक़तवर तर्क़ीब है जिससे दुश्मन डरता है और शहीद उसी राह में जान फ़िशानी की रौशन मिसाल बने हैं।

मशहद के इमाम जुमा आयतुल्लाह सय्यद अहमद अलम उल हुदा ने मशहद के नौगान इलाक़े में स्थित हुसैनिया अली-ए-अकबरीहा में 12-दिवसीय जंग में शहीद हुए ख़ुरासान रिज़वी प्रांत के 29 शहीदों की याद में आयोजित तक़रीर को संबोधित किया। 

उन्होंने कहा कि दीनदारी और इल्म, ईरानी मिल्लत का वह ताक़तवर तर्क़ीब है जिससे दुश्मन डरता है, और शहीद उसी राह में जान-फ़िशानी की रौशन मिसाल बने हैं।उन्होंने शहीदों को इस्लामी समाज के रौशन सितारे क़रार देते हुए कहा कि उनकी क़ुरबानी ने इंक़िलाब का रास्ता आने वाली नस्लों के लिए रौशन कर दिया। 

आयतुल्लाह अलम उल हुदा ने क़ुरआन करीम की आयत का हवाला देते हुए कहा,जो लोग राह-ए-ख़ुदा में क़त्ल होते हैं,उन्हें मुर्दा न कहो वह ज़िंदा हैं लेकिन तुम समझते नहीं। उन्होंने शहादत को फ़ना नहीं बल्कि बक़ा का रास्ता बताया। 

उन्होंने शहीदों के अहले ख़ाना को तस्लीयत और मुबारकबाद पेश करते हुए कहा,आपने अपनी सबसे कीमती धन राह-ए-इस्लाम में क़ुरबान किया, और यह क़ुरबानी क़यामत के दिन फ़ख़्र का सबब बनेगी।

उन्होंने हज़रत रुक़य्या (स) की मज़लूमियत और शहीदों के परिवार के दर्द को करबला के ग़म से जोड़ते हुए फ़रमाया कि यह दुख़ भी इलाही तिस्कीन का वसीला है। 

आयतुल्लाह अलम उल हुदा ने ताक़ीद की कि दुश्मन मिल्लत-ए-ईरान से दीन और दानिश को छीनना चाहता है, लेकिन शहीदों ने इन दोनों उसूलों की हिफ़ाज़त के लिए जान दी और उम्मत को इत्तेहाद व इस्तिक़ामत का दर्स दिया।

 

 

जायोनी शासन में "इज़राइल बेतेनू" पार्टी के नेता अविगडोर लिबरमैन ने मंगलवार रात कहा कि 7 अक्टूबर की नाकामी का ज़िम्मेदार वही है जो दुनिया में इज़राइल के बढ़ते राजनीतिक पतन के लिए ज़िम्मेदार है।

अविगडोर लिगरमैन ने ज़ोर देकर कहा कि प्रधानमंत्री बेन्यामीन नेतन्याहू के विध्वंसक कामों की वजह से जायोनी शासन का राजनीतिक पतन तेज़ी से हो रहा है। उन्होंने कहा, "अब अधिक देश फिलिस्तीन नामक एक देश को मान्यता देने पर विचार कर रहे हैं।"

 इस्राइली नेता ने बताया कि ब्रिटेन सहित कई देश फिलिस्तीन को मान्यता देने की योजना बना रहे हैं। उन्होंने कहा, "ब्रिटेन संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद का एक प्रमुख सदस्य है, और वह फिलिस्तीन को मान्यता देना चाहता है।"

 लिबरमैन के ये बयान ऐसे समय में आए हैं जब कई विशेषज्ञ, खासकर पश्चिमी, इज़राइल की आंतरिक अराजकता का हवाला देते हुए "नेतन्याहू युग के अंत की शुरुआत" और "मक़बूज़ा क्षेत्रों में अभूतपूर्व विभाजन" की बात कर रहे हैं।

 इसी संदर्भ में, लंदन के अखबार द गार्जियन ने अपने नए संस्करण में लिखा: "इज़राइल के लिए असली खतरा बाहरी धमकियां नहीं, बल्कि घरेलू मोर्चे पर थकान और मोहभंग है।"

 प्रकाशित रिपोर्टों और विश्लेषकों की राय से पता चलता है कि ईरान पर हालिया आक्रमण के बाद इज़राइल की सबसे बड़ी विफलता न केवल वैश्विक स्तर पर सैन्य और राजनयिक नुकसान है, बल्कि आंतरिक एकता का टूटना, अविश्वास और अधिकृत क्षेत्रों के भीतर राजनीतिक उथल-पुथल भी है।

 इसी कड़ी में, हिब्रू अखबार कालकलीत ने बताया कि ईरानी मिसाइल हमलों से क्षतिग्रस्त क्षेत्रों के पुनर्निर्माण के लिए नेतन्याहू सरकार की योजना विफल हो गई है। अखबार ने लिखा: "इस्राइली शासन की अंतिम रिपोर्ट का सार यह है कि यह योजना आगे नहीं बढ़ेगी।"

 अख़बार ने आगे कहा कि इसका मतलब यह है कि प्रभावित इज़राइली बस्तीवासियों के पास अब कोई विकल्प नहीं है, और सरकार की ओर से सहायता की अनिश्चितता के कारण वे मुश्किल में फंस गए हैं।

 23 जून 2025 को जायोनी शासन द्वारा ईरान पर हमला किए जाने के बाद, जिसमें सैन्य और असैन्य स्थलों को निशाना बनाया गया और कई कमांडरों, आम नागरिकों और परमाणु वैज्ञानिकों को शहीद किया गया, ईरान ने "वादा-ए-सादिक 3" ऑपरेशन शुरू किया और अधिकृत क्षेत्रों पर सफलतापूर्वक मिसाइल हमले किए, जिससे जायोनियों को भारी नुकसान हुआ।

 

हम इज़राईली अपराधों के खिलाफ चुप नहीं रह सकते ब्राज़ील ने ज़ायोनी सरकार को हथियारों का निर्यात निलंबित करने और दक्षिण अफ्रीका के मामले का समर्थन करने की घोषणा की हैं।

ब्राज़ील ने फिलिस्तीन के गाजा क्षेत्र में जारी ज़ायोनी अपराधों और नरसंहार को देखते हुए इज़राइल पर प्रतिबंध लगाने की घोषणा की है। 

विवरण के अनुसार, ब्राज़ील के विदेश मंत्री मौरो वियेरा ने कहा कि उनका देश इज़राइल द्वारा गाजा में किए जा रहे अत्याचारों के प्रति चुप नहीं रह सकता। 

वियेरा के अनुसार, इन प्रतिबंधों में ब्राज़ील से इज़राइल को युद्ध सामग्री के निर्यात को निलंबित करना शामिल है, जो यह संकेत देता है कि ब्राज़ील अपनी नैतिक और मानवीय जिम्मेदारियों को गंभीरता से ले रहा है। 

मौरो वियेरा ने यह भी स्पष्ट किया कि ब्राज़ील उन सभी उत्पादों की सख्त जाँच करेगा जो अवैध रूप से कब्ज़ाए गए वेस्ट बैंक की ज़ायोनी बस्तियों से आयात किए जाते हैं, ताकि मानवाधिकारों और अंतरराष्ट्रीय कानूनों का उल्लंघन करने वाले उत्पादों की आपूर्ति को रोका जा सके। 

उन्होंने आगे कहा कि ब्राज़ील आधिकारिक तौर पर दक्षिण अफ्रीका द्वारा अंतरराष्ट्रीय न्यायालय (ICJ) में इज़राइल के खिलाफ नरसंहार के मामले का समर्थन करता है।