अगर ज़ुल्म ज़ुहूर का ज़मीना है, तो फ़िर हमे उसके ख़िलाफ़ क्यो लड़ना चाहिए

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अगर ज़ुल्म ज़ुहूर का ज़मीना है, तो फ़िर हमे उसके ख़िलाफ़ क्यो लड़ना चाहिए

ज़ुल्म और इमाम ज़ामाना (अ) के ज़ुहूर के बीच हमेशा चर्चा होती रही है। क्या ज़्यादा ज़ुल्म, ज़ुहूर के लिए ज़मीना साज़ है, या फिर ये इस बात का मतलब है कि इंसान को और तैय्यार होना चाहिए ताकि न्याय कायम हो सके? कुछ गलतफहमियां ऐसी हो सकती हैं कि लोग बेपरवाह हो जाएं, लेकिन धार्मिक विद्वान कहते हैं कि ज़ुल्म के खिलाफ लड़ना असली इंतजार का हिस्सा है, न कि ज़ुहूर में बाधा।

धार्मिक शिक्षाओं में इमाम ज़माना (अ) के ज़ुहूर से पहले का समय ऐसा बताया गया है जब दुनिया ज़ुल्म और अन्याय से भर जाती है। इस बात को कई हदीसों में जोर देकर कहा गया है, जिनमें से पैग़म्बर मुहम्मद (स) की एक मशहूर हदीस है: "ज़मीन को उस तरह से इंसाफ और न्याय से भर देंगे जैसे वो ज़ुल्म और अन्याय से भरी हुई थी।" (बिहार उल-अनवार, भाग 52, पेज 340)।

लेकिन सवाल यह है:

"हम कैसे समझें कि दुनिया में अत्याचार बढ़ने और इमाम ज़माना (अ) के ज़ुहूर के बीच क्या रिश्ता है? क्या अत्याचार का बढ़ना ज़ुहूर होने को शीघ्र करता है, या यह केवल वह हालत है जिसमें ज़ुहूर होगा?"

और "क्या इसका मतलब यह है कि हमें अन्याय के सामने चुप रहना चाहिए ताकि ज़ुहूर का रास्ता बने? क्या ऐसी सोच हमें सामाजिक जिम्मेदारियों और अन्याय के खिलाफ लड़ाई से दूर कर सकती है?"

इस मुद्दे की जांच के लिए, हमने इस सवाल को नैतिक संशयों के विशेषज्ञ हुज्जतुल इस्लाम रज़ा पारचा बाफ़ से पूछा, उन्होंने आयतों, हदीसों और बड़े विद्वानों के विचारों के हवाले से ज़ुल्म और ज़ुहूर के बीच के रिश्ते को समझाया। आगे इस बातचीत का पूरा विवरण हम आपके साथ साझा कर रहे हैं।

बिस्मिल्लाहिर्रहमानिर्राहीम

ज़ुल्म को ज़ुहूर के लिए एक जरूरी शर्त माना गया है, न कि सीधा कारण, जैसा कि पैग़म्बर मुहम्मद (स) की मशहूर हदीस में है: «یَمْلَأُ الْأَرْضَ قِسْطًا وَعَدْلًا کَمَا مُلِئَتْ ظُلْمًا وَجَوْرًا यम्ला उल- अर्ज़ा क़िस्तन व अदलन कमा मोलेअत ज़ल्मन व जोरन» “ज़मीन को इंसाफ और न्याय से वैसी ही भर देगा जैसे वह ज़ुल्म और अन्याय से भरी होगी।” (बिहार उल-अनवार, भाग 52, पेज 340)

आल़्लामा तबातबाई ने इस बारे में कहा है: दुनिया का ज़ुल्म से भर जाना, ज़ुहूर के लिए आवश्यक जरुरी माहौल की निशानी है, न कि ज़ुल्म ज़ुहूर का कारण है। (अल मीज़ान, भाग 12, पेज 327)

हमें व्यक्तिगत और सामाजिक जिम्मेदारियों में फर्क करना चाहिए। व्यक्तिगत स्तर पर, ग़ैबत के दौर में नही अनिल मुनकर (बुराई से रोकना) और अम्र बिल मारूफ़ (भलाई का आदेश देना) जरूरी है (आले इमरान: 110)। सामाजिक स्तर पर, ग़ैबत के दौर में न्यायपूर्ण व्यवस्था बनाना ज़ुहूर की तैयारी के लिए अनिवार्य है।

उदाहरण के लिए, इमाम हुसैन (अ) का ज़ुल्म के खिलाफ क़याम ज़ुहूर से पहले के संघर्ष का एक नमूना था।

शहीद मुताहरी ने "इंतेज़ार-ए-फ़आल" का सिद्धांत समझाया है, जहां वे कहते हैं: "इंतेज़ार का मतलब है ज़ुहूर की तैयारी करना, जो ज़ुल्म के खिलाफ लड़ाई के जरिए होता है।" (क़याम व इंक़ेलाब-ए-महदी, पेज 25)

इसी आधार पर, सामाजिक गतिविधियां जैसे न्याय की मांग, नैतिक शिक्षा और भ्रष्टाचार से मुकाबला करना भी इंतेज़ार के उदाहरण हैं।

"नफ़ी ए-सबील" के नियम (सुर ए नेसा की आयत न 141) के अनुसार, इस्लामी समाज की आज़ादी और स्वायत्तता को अत्याचारियों के शासन से बचाना शरई फर्ज़ है।

जैसे कि इमाम सादिक़ (अ) की हदीस है: "مَنْ أَصْبَحَ وَلَا یَهْتَمُّ بِأُمُورِ الْمُسْلِمِینَ فَلَیْسَ بِمُسْلِمٍ मन अस्बहा वला यहतम्मो बेउमूरिल मुस्लेमीना फ़लैसा बेमुस्लेमिन" जो सुबह उठकर मुसलमानों के मामलों की परवाह नहीं करता, वह मुसलमान नहीं है।" (क़ाफी, भाग 2, पेज 164)

इसलिए, ज़ुल्म ज़ुहूर के लिए एक ज़रूरी शर्त है, लेकिन उसे समाप्त करने की जिम्मेदारी मोमेनीन की है।

ज़ुल्म बढ़ने के बावजूद न्याय की स्थापना निश्चित है, इसका मतलब ज़ुल्म को बढ़ावा देना नहीं है। बल्कि यह दिखाता है कि न्याय अनुकूल परिस्थितियों के बावजूद जरूर आएगा।

इमाम खुमैनी (रह) का इस्लामी सरकार की स्थापना का काम भी "ज़ुहूर की तैयारी" माना जाता है।

इसके नतीजे में कहा जा सकता है: ज़ुल्म ज़ुहूर की आवश्यकता के लिए जरुरी माहौल पैदा करता है, लेकिन यही कारण नहीं होता।

ज़ुल्म के खिलाफ लड़ाई इंतजार-ए-फर्ज़ के उदाहरण हैं और चुप रहना गलत है।

न्याय की मांग करने वाले संस्थानों को मजबूत करना (अपने सामर्थ्य के अनुसार) शरई फर्ज़ है।

शहीद सद्र के शब्दों में: "इंतजार, जागरूकता का सार है, नींद का आस्वाद नहीं।" अतः हर ज़ुल्म के खिलाफ क़दम ज़ुहूर की ओर एक कदम है।

 

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