इस्लाम मे श्रेष्ठता का मापदंड महिला या पुरूष होना नहीं, बल्कि तक़वा है

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इस्लाम मे श्रेष्ठता का मापदंड महिला या पुरूष होना नहीं, बल्कि तक़वा है

इस्लाम में पुरुष और महिला में श्रेष्ठता का एकमात्र मापदंड तक़वा और नैतिक गुण हैं। हर इंसान को उसके कर्मों का जवाब देना होगा। कुरान ने महिलाओं की उपेक्षा की तीव्र निंदा की है और इंसानों की बराबरी पर बल दिया है। अरबी जाहिलियत के समय बेटियों के जन्म को अपमान माना जाता था और उन्हें जिंदा दफन कर दिया जाता था, लेकिन इस्लाम ने महिलाओं की इज्जत, गरिमा और उनके अधिकारों की पूरी सुरक्षा की है।

 तफ़सीर अल मीज़ान के लेखक अल्लामा तबातबाई ने सूरा ए बक़रा की आयात 228 से 242 की तफ़्सीर में “इस्लाम और दीगर क़ौमों व मज़ाहिब में औरत के हक़ूक़, शख्सियत और समाजी मक़ाम” पर चर्चा की है। नीचे इसी श्रृंखला का दसवाँ हिस्सा पेश किया जा रहा है:

इस्लाम में श्रेष्ठता का पैमाना केवल तक़वा और परहेज़गारीः

कुरान के अनुसार, चाहे कोई पुरुष हो या महिला, हर एक के अच्छे या बुरे कर्मों का हिसाब उसके कामों की किताब में लिखा जाता है, और श्रेष्ठता का कोई मापदंड तक़वा के अलावा नहीं है। तक़वा का एक अहम हिस्सा अच्छे चरित्र हैं, जैसे ईमान के विभिन्न स्तर, लाभदायक कर्म, मजबूत बुद्धि, अच्छी आदतें, सब्र, सहनशीलता और धैर्य।

अगर कोई महिला ईमान के उच्च स्तर पर हो, या ज्ञान और बुद्धिमत्ता में उच्च स्थान रखती हो, या उसकी बुद्धि मजबूत और संतुलित हो, या वह नैतिक गुणों में आगे हो—तो इस्लाम की नजर में ऐसी महिला उस पुरुष से कहीं अधिक सम्मानित और उच्च दर्जे की होती है, जो इन गुणों में उसका समकक्ष नहीं।

इस्लाम में सम्मान और गरिमा किसी की निजी संपत्ति नहीं है, न तो पुरुष होने में कोई श्रेष्ठता है और न ही महिला होने में; असली श्रेष्ठता केवल तक़वा और परहेज़गारी में होती है।

कुरान इसे और भी स्पष्ट रूप से कहता है:

مَنْ عَمِلَ صَالِحًا مِنْ ذَکَرٍ أَوْ أُنْثَیٰ وَهُوَ مُؤْمِنٌ فَلَنُحْیِیَنَّهُ حَیَاةً طَیِّبَةً ۖ وَلَنَجْزِیَنَّهُمْ أَجْرَهُمْ بِأَحْسَنِ مَا کَانُوا یَعْمَلُونَ मन अमेला सालेहन मिन ज़कारिन ओ उंसा व होवा मोमेनुन फ़ला नोहयेयंनहू हयातन तय्यबन व लानज्ज़ेयन्नहुम अजरहुम बेअहसने मा कानू यअमलून "जो कोई पुरुष या महिला भले कर्म करे और वह ईमान वाला हो, हम उसे अच्छी ज़िंदगी देंगे और उसके अच्छे कर्मों के अनुसार अज्र देंगें।" 

इसी तरह एक और आयत कहती है:

مَنْ عَمِلَ سَیِّئَةً فَلَا یُجْزَیٰ إِلَّا مِثْلَهَا ۖ وَمَنْ عَمِلَ صَالِحًا مِنْ ذَکَرٍ أَوْ أُنْثَیٰ وَهُوَ مُؤْمِنٌ فَأُولَٰئِکَ یَدْخُلُونَ الْجَنَّةَ یُرْزَقُونَ فِیهَا بِغَیْرِ حِسَابٍ मन अमेला सय्येअतन फ़ला युज्ज़ा इल्ला मिस्लहा, व मन अमेला सालेहन मिन ज़कारिन ओ उंसा व होवा मोमेनुन फ़ुलाएका यदख़ोलूनल जन्नता युरज़क़ूना फ़ीहा बेग़ैरिन हिसाब "जिसने बुराई की, उसे उसी के बराबर बदला मिलेगा; और जो पुरुष या महिला नेक काम करेगा और ईमानदार होगा, वे जन्नत में प्रवेश करेंगे और वहां बिना हिसाब के रज़क़ पाएंगे।"

और एक और आयत में कहा गया है:

وَمَنْ یَعْمَلْ مِنَ الصَّالِحَاتِ مِنْ ذَکَرٍ أَوْ أُنْثَیٰ وَهُوَ مُؤْمِنٌ فَأُولَٰئِکَ یَدْخُلُونَ الْجَنَّةَ وَلَا یُظْلَمُونَ نَقِیرًا मन यअमल मिनस सालेहाते मिन ज़कारिन ओ उंसा व होवा मोमेनुन फ़उलाएका यदख़ोलूनल जन्नता वला युज़लमूना नक़ीरा "जो पुरुष या महिला ईमान के साथ नेक काम करेगा, वे जन्नत में प्रवेश करेंगे और उन पर जरा भी अन्याय नहीं किया जाएगा।"

अरब अज्ञानता की महिला शत्रुता की कुरआन मे निंदा

इन आयतो के अलावा क़ुरआन मे विभिन्न स्थानो पर अरब अज्ञानता की महिला से लापरवाही और घृणा के व्यवहार को कठोरता के साथ रद्द किया गया है। जैसेः

وَإِذَا بُشِّرَ أَحَدُهُمْ بِالْأُنْثَیٰ ظَلَّ وَجْهُهُ مُسْوَدًّا وَهُوَ کَظِیمٌ؛ یَتَوَارَیٰ مِنَ الْقَوْمِ مِنْ سُوءِ مَا بُشِّرَ بِهِ أَیُمْسِکُهُ عَلَیٰ هُونٍ أَمْ یَدُسُّهُ فِی التُّرَابِ أَلَا سَاءَ مَا یَحْکُمُونَ व इज़ा बुश्शेरा अहदोहुम बिल उंसा ज़ल्ला वज्होहू मुस्वद्दन व होवा कज़ीमुन, यतावारा मेनल क़ौमे मिन सूइन मा बुश्शेरा बेहि अयुम्सेकहू अला हूनिन अम यदुस्सोहू फ़ित तुराबे अला साआ मा यहकोमूना "उस दौर में जब किसी को बेटी होने की खबर मिलती तो उसका चेहरा काला पड़ जाता और वह ग़ुस्से में भर जाता था। वह इस बुरी खबर से इतने दुखी होता कि लोगों से छुपता फिरता और सोचता था कि इस बच्ची को अपमानित करके रखूँ या मिट्टी में दबा दूँ। देखो कैसा बुरा फ़ैसला था जो वो करते थे।"

आरेबों के लिए बेटी की पैदाइश शर्म की बात होती थी क्योंकि वे सोचते थे कि जब लड़की बड़ी होगी तो वह युवकों के ताने सुनने और छल में पड़ने वाली होगी, जिससे परिवार का अपमान होगा। यही सोच उन्हें अपनी बेटियों को ज़िंदा दफनाने जैसे निर्दय कृत्य तक ले गई।

कुरान ऐसी कृत्यों की निंदा इस आयत में करता है وَإِذَا الْمَوْءُودَةُ سُئِلَتْ؛ بِأَیِّ ذَنْبٍ قُتِلَتْ व इज़ल मौऊदतो सोऐलत, बेअय्ये जम्बिन क़ौतेलत कि जब ज़िंदा दफन की गई बच्ची से पूछा जाएगा कि वह किस अपराध में मारी गई।

इस्लाम आने के बाद भी यह सोच पूरी तरह खत्म नहीं हुई और कुछ गलत विचार पीढ़ी दर पीढ़ी मुस्लिम समाज में बने रहे।

उदाहरण के लिए, अगर कोई पुरुष और महिला ज़िना करें तो बदनामी अधिकतर महिला के सिर डाली जाती है चाहे वह तौबा कर ले जबकि पुरुष को अक्सर बदनाम नहीं माना जाता है, हालांकि इस्लाम दोनों को समान दोषी मानता है और दोनों को समान सजा देता है। 

(जारी है…)
(स्रोत: तर्ज़ुमा तफ़्सीर अल-मिज़ान, भाग 2, पेज 409)

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