رضوی

رضوی

बाप- बेटे मक्का के पहाड़ से काले पत्थर के कुछ टुकड़ों को लाये थे और उन्हें तराश कर उन्होंने काबे की आधारशिला रखी थी। बाप-बेटे ने महान व सर्वसमर्थ ईश्वर के आदेश से बड़े और सादे घर का निर्माण किया। इस पावन घर का नाम उन्होंने काबा रखा। यही साधारण घर काबा समूची दुनिया में एकेश्वरवाद का प्रतीक और पूरी दुनिया का दिल बन गया। जिस तरह आकाशगंगा महान ईश्वर का गुणगान कर रही है ठीक उसी तरह यह पावन घर है जिसकी दुनिया के लाखों मुसलमान परिक्रमा करते हैं। हज महान ईश्वर की प्रशंसा व गुणगान का प्रतिबिंबन है। हज महान हस्तियों की बहुत सी कहानियों की याद दिलाता है।

हज एक ऐसा धार्मिक संस्कार है जो जाति और राष्ट्र से ऊपर उठकर है यानी इसमें सब शामिल होते हैं चाहे उनका संबंध किसी भी जाति या राष्ट्र से हो। ग़रीब, अमीर, काला, गोरा, अरब और ग़ैर अरब सब इसमें भाग लेते हैं। हज के अंतरराष्ट्रीय आयाम हैं और एकेश्वरवाद का नारा समस्त आसमानी धर्मों के मध्य निकटता का कारण बन सकता है।

पवित्र कुरआन की आयतों के अनुसार हज़रत इब्राहीम अलैहस्सलाम ने महान ईश्वर के आदेश से हज की सार्वजनिक घोषणा कर रखी है। महान ईश्वर पवित्र कुरआन में कहता है” और हे पैग़म्बर! हज के लिए लोगों के मध्य घोषणा कर दीजिये ताकि लोग हर ओर से सवार और पैदल, दूर और निकट से तुम्हारी ओर आयें और उसके बाद हज को अंजाम दें, अपने वचनों पर अमल करें और बैते अतीक़ यानी काबे की परिक्रमा करें।“

केवल कुछ संस्कारों को अंजाम देना हज नहीं है बल्कि हज के विदित संस्कारों के पीछे एक अर्थपूर्ण वास्तविकता नीहित है। अतः हज का अगर केवल विदित रूप अंजाम दिया जाये तो वह अपने वास्तविक अर्थ व प्रभाव से खाली होगा। यानी वह नीरस और बेजान हज होगा। एक विचारक व बुद्धिजीवी ने हज की उपमा शिक्षाप्रद एसी महाप्रदर्शनी से दी है जिसके पास बोलने की ज़बान है और उस कहानी व महाप्रदर्शनी में कुछ मूल हस्तियां हैं। हज़रत इब्राहीम, हज़रत हाजर और हज़रत इस्माईल इस कहानी के महानायक हैं। हरम, मस्जिदुल हराम, सफा और मरवा, मैदाने अरफात, मशअर और मेना में कुछ संस्कार अंजाम दिये जाते हैं। रोचक बात यह है कि इन संस्कारों को सभी अंजाम दे सकते हैं चाहे वह मर्द हो या औरत, धनी हो या निर्धन, काला हो या गोरा। जो भी हज के महासम्मेलन में भाग लेता है वह  हज संस्कारों को अंजाम देता है और मुख्य भूमिका निभाता है। सभी उन महान ऐतिहासिक हस्तियों के स्थान पर होते हैं जिन्होंने महान ईश्वर की उपासना की और अनेकेश्वरवाद से मुकाबला किया ठीक उसी तरह हाजी एकेश्वरवाद का एहसास और अनेकेश्वरवाद से मुकाबले का अनुभव करते हैं।

जो लोग हज करने जाते हैं सबसे पहले वे मीक़ात नाम की जगह पर  एहराम नाम का सफेद वस्त्र धारण करते हैं। एहराम में सफेद कपड़े के दो टुकड़े होते हैं। इसका अर्थ हर प्रकार के गर्व, घमंड को त्याग देना है। इसी प्रकार हर प्रकार के बंधन से मुक्त करके दिल को महान व सर्वसमर्थ की याद में लगाना है।

हज करने वाला जब एहराम का सफेद वस्त्र धारण करता है तो वह अपने कार्यों के प्रति सजग रहता है, उन पर नज़र रखता है लोगों के साथ अच्छे व मृदु स्वभाव में बात करता है, जब बोलता है तो सही बात करता है। इसी तरह वह संयम व धैर्य का अभ्यास करता है। एहराम की हालत में कुछ कार्य हराम हैं और इस कार्य से इच्छाओं से मुकाबला करने में इंसान के अंदर जो प्रतिरोध की शक्ति है वह मज़बूत होती है। जैसे एहराम की हालत में शिकार करना, जानवरों को कष्ट पहुंचाना, झूठ बोलना, महिला से शारीरिक संबंध बनाना और दूसरों से बहस करना आदि हराम हैं।

 

पैग़म्बरे इस्लाम जब मेराज पर जा रहे थे यानी आसमानी यात्रा पर थे तो एक आवाज़ ने उन्हें संबोधित करके कहा कि क्या तुम्हारे पालनहार ने तुम्हें अनाथ नहीं पाया और तुम्हें शरण नहीं दी और तुम्हें गंतव्य से दूर नहीं पाया और तुम्हारा पथप्रदर्शन नहीं किया? उस वक्त पैग़म्बरे इस्लाम ने लब्बैक कहा। महान व सर्वसमर्थ ईश्वर की बारगाह में कहा” अल्लाहुम्मा लब्बैक, इन्नल हम्दा वन्नेमा लका वलमुल्का ला शरीका लका लब्बैक” अर्थात हे पालनहार तेरी आवाज़ पर लब्बैक कहता हूं, बेशक समस्त प्रशंसा, नेअमत और बादशाहत तेरी है। तेरा कोई भागीदार व समतुल्य नहीं है। (पालनहार!) तेरी आवाज़ पर लब्बैक कहता हूं।

हज के आध्यात्मिक वातावरण में दिल को छू जाने वाली आवाज़ लब्बैक अल्ला हुम्मा लब्बैक गूंज रही है। यह वह आवाज़ है जो हर हाजी की ज़बान पर है। यह आवाज़ इस बात की सूचक है कि हाजी महान ईश्वर के आदेशों के समक्ष नतमस्तक हैं वे पूरे तन- मन से महान ईश्वर के आदेशों को स्वीकार करते और उसकी मांग का उत्तर दे रहे हैं। समस्त हाजियों की ज़बान पर है कि हे ईश्वर तेरा कोई समतुल्य नहीं है और हम तेरे घर की परिक्रमा करने के लिए तैयार हैं।

काबे की परिक्रमा हज का पहला संस्कार है। हाजी जब सामूहिक रूप से काबे की परिक्रमा करते हैं तो वे इस बात को स्वीकार करते हैं कि महान ईश्वर ही ब्रह्मांड का स्रोत व रचयिता है और जो कुछ भी है सबको उसी ने पैदा और अस्तित्व प्रदान किया है। जो हाजी तवाफ़ व परिक्रमा कर रहे हैं वे पूरी तरह महान ईश्वर की याद में डूबे हुए हैं। मानो ब्रह्मांड का कण- कण उनके साथ हो गया है। सब उनके साथ तवाफ कर रहे हैं। तवाफ के बाद वे नमाज़े तवाफ़ पढ़ते हैं, अपने कृपालु व दयालु ईश्वर के सामने सज्दा करते हैं और उसकी सराहना व गुणगान करते हैं।

हज का एक संस्कार सफा व मरवा नामक दो पहाड़ों के बीच सात बार चक्कर लगाना है।

हज का एक संस्कार सई करना है। सई उस महान महिला के प्रयासों की याद दिलाता है जो अपने पालनहार की असीम कृपा से कभी भी निराश नहीं हुई और सूखे व तपते हुए मरुस्थल में अपने प्यासे बच्चे के लिए पानी की खोज में दौड़ती रही। जब हज़रत इस्माईल की मां हज़रत हाजर अपने बच्चे के लिए पानी के लिए दौड़ती रहीं और सात बार वे सफा और मरवा का चक्कर लगा चुकीं तो महान ईश्वर की असीम कृपा से पानी का सोता फूट पड़ा जिसे आबे ज़मज़म के नाम से जाना जाता है। महान ईश्वर सूरे बकरा की 158वीं आयत में कहता है” सफा और मरवा ईश्वर की निशानियों में से है। इस आधार पर जो लोग अनिर्वाय या ग़ैर अनिवार्य हज करते हैं उन्हें चाहिये कि वे सफा और मरवा के बीच सई करें यानी उनके बीच चक्कर लगायें।

सई करके हाजी उस महान ऐतिहासिक घटना की याद ताज़ा करके महान ईश्वर पर धैर्य और भरोसा करने और एकेश्वरवाद का पाठ लेते हैं और महान ईश्वर की असीम कृपा को देखते हैं।

ज़िलहिज्जा महीने की नवीं तारीख़ की सुबह को हाजियों का जनसैलाब अरफात नामक मैदान की ओर रवाना होता है। अरफ़ात पहचान का मैदान है। एक पहचान यह है कि इंसान अपने पालनहार को पहचाने। अरफात के मैदान में हाजी का ध्यान स्वयं की ओर जाता है। हाजी अपना हिसाब- किताब करता है और अगर वह देखता है कि उसने कोई पाप या ग़लती की है तो उससे सच्चे दिल से तौबा व प्रायश्चित करता है। अरफात के विशाल मैदान में प्रलय के बारे में सोचता है और प्रलय की याद करके हिसाब- किताब करता है और हाजी दुआ करता है। कहा जाता है कि अगर इंसान का दिल और आत्मा अरफात के मैदान में परिवर्तित हो जाते हैं तो मशअर नामक मैदान में बैठने से महान ईश्वर की याद इस हालत को शिखर पर पहुंचा देती है और हज करने वाले ने एसा हज अंजाम दिया है जिसे महान व सर्वसमर्थ ईश्वर ने स्वीकार कर लिया है। 

अपने अंदर से शैतान को भगाना हज़रत इब्राहीम अलैहिस्सलाम की एक शैली है और वह हज संस्कार का भाग है। मिना नामक मैदान में कंकर फेंकने का अर्थ स्वयं से शैतान को भगाना है और केवल महान ईश्वर की उपासना और उसके आदेशों के समक्ष नतमस्तक होना है। हाजियों ने जो कंकरी मशअर के मैदान से एकत्रित की है उससे वे शैतान के प्रतीक को मारते हैं और हज़रत इब्राहीम की भांति महान ईश्वर के आदेशों के समक्ष नतमस्तक रहते हैं और कभी भी वे अपने नफ्स या शैतानी उकसावे पर अमल नहीं करते हैं।

हज़रत इमाम मूसा काज़िम अलैहस्सलाम फरमाते हैं” इसी जगह पर” यानी जहां हाजी कंकरी फेंकते हैं” शैतान हज़रत इब्राहीम के समक्ष प्रकट हुआ था और उन्हें उकसाया था कि हज़रत इस्माईल को कुर्बानी करने का इरादा छोड़ दें परंतु हज़रत इब्राहीम ने पत्थर फेंक कर उसे स्वयं से दूर किया था।“

वास्तव में कंकरी का फेंकना दुश्मन की पहचान और उससे संघर्ष का प्रतीक है। दुनिया की वर्चस्ववादी शक्तियां विभिन्न शैलियों के माध्यम से मुसलमानों के खिलाफ शषडयंत्र रचती रहती हैं इन दुश्मनों और उनकी चालों को पहचानना बहुत ज़रूरी है। इसलिए कि जब तक दुश्मन और उसकी चालों को नहीं पहचानेंगे तब तक उसका मुकाबला नहीं कर सकते। दुश्मन और उसकी चालों से बेखबर रहना बहुत बड़ी ग़लती है और यह एसी ग़लती है जिसकी भरपाई नहीं की जा सकती और उसकी चालें मुसलमानों के बीच फूट या इस्लामी जगत की शक्ति को आघात पहुंचने का कारण बन सकती हैं।

कुर्बानी कराना हज का अंतिम संस्कार है। जिस दिन कुर्बानी कराई जाती है उसे ईदे कुर्बान कहा जाता है। ईदे कुरआन के दिन सर मुंडवाया जाता है या फिर सिर के बाल और नाखून को छोटा कराया जाता है। हज के दिन महान ईश्वर की बारगाह में स्वीकार हज अंजाम देने वाले प्रसन्न होते हैं और वे अपने पालनहार का आभार व्यक्त करते हैं कि उसने उन्हें हज करने का सामर्थ्य प्रदान किया। उसके बाद हाजियों का जनसैलाब एक बार फिर काबे का तवाफ करता है और उसके बाद नमाज़े तवाफ पढ़ता है। जब वे काबे का तवाफ कर रहे होते हैं तो जिस तरह से चुंबक लोहे या उसके कण को अपनी ओर खींचता है उसी तरह खानये काबा हर हाजी को अपनी ओर खींचता व आकर्षित करता है।

इस प्रकार हज संस्कार समाप्त हो जाते हैं और हाजी अपने अंदर आत्मिक शांति व सुरक्षा का आभास करता है। वह भीतर से परिवर्तित हो चुका होता है। महान ईश्वर की याद उसके सामिप्य का कारण बनती है और महान विधाता व परम-परमेश्वर की याद सांसारिक बंधनों से मुक्ति का कारण बनती है। इसी प्रकार महान व कृपालु ईश्वर की याद इंसान के महत्व और उसकी प्रतिष्ठा को अधिक कर देती है। पैग़म्बरे इस्लाम हाजियों द्वारा अंजाम दिये गये हज संस्कारों के गूढ़ अर्थों पर ध्यान देते हुए फरमाते हैं” नमाज़, हज, तवाफ और दूसरे संस्कारों के अनिवार्य होने से तात्पर्य ईश्वर की याद को कायेम व जीवित करना है। तो जब तुम्हारा दिल ईश्वर की महानता को न समझ सके जो हज का मूल उद्देश्य है तो ज़बान से ईश्वर को याद करने का क्या लाभ है?

बकरीद जिसे ईद उल अजहा और ईद उल जुहा (Eid al-Adha) के नाम से भी जाना जाता है। इस त्योहार को देख जाए तो कुबार्नी के त्योहार पर मनाया जाता है। जिन लोगों को इस त्योहार के बारे में ज्यादा जानकारी नहीं है तो हम उन्हें बता दें मीठी ईद के महज 2 महीने बाद इस त्योहार को मनाया जाता है। इस दिन मुस्लिम समुदाय के लोग बकरे की कुर्बानी देते हैं। आप में से ज्यादातर लोगों के मन में ये सवाल जरूर उठाता होगा कि आखिरी बकरे ही क्यों बाकी किसी चीजें की कुर्बानी इस दिन क्यों नहीं दी जाती तो हम आपको बात दें कि हर उस जानवर की कुर्बानी दी जा सकती है जो आपके प्रिय हो, लेकिन बकरे की कुर्बानी का अपना ही अलग महत्व होता है। चलिए जानते हैं बकरीद से जुड़े बाकी कई अहम बातें।

जानिए क्यों दी जाती है बकरे की कुर्बानी?

इस त्योहार को भले ही बकरीद के नाम से जाना जाता है, लेकिन इस शब्द का तुलाक बकरों से नही हैं। यहां तक की ये उर्दू नहीं बल्कि अरबी शब्द है। यानी अरबी में बकर का मतलब होता है बड़ा जानवर जो जिबह यानि काटा जाता है। इसलिए इसे शब्द को यहां से लिया गया। आज भारत, पाकिस्तान व बांग्ला देश में इसे ‘बकरा ईद’ कहा जाता है| ईद-ए-कुर्बां का मतलब होता है बलिदान की भावना। अरबी में ‘क़र्ब’ नजदीकी या बहुत पास रहने को कहते हैं| इसका मतलब ये होता है कि इस मौके पर भगवान इंसान के बहुत करीब हो जाता है। कुर्बानी उस पशु के जि़बह करने को कहते हैं जिसे 10, 11, 12 या 13 जि़लहिज्ज (हज का महीना) को खुदा को खुश करने के लिए ज़िबिह किया जाता है। कुरान में लिखा गया है : हमने तुम्हें हौज़-ए-क़ौसा दिया तो तुम अपने अल्लाह के लिए नमाज़ पढ़ो और कुर्बानी करो।

जानिए बकरीद के पीछे की कहानी

हजरत इब्राहिम को अल्लाह का पैगंबर कहा जाता है। वह पूरी जिंदगी दुनिया की भलाई के लिए ही काम करते रहे, लेकिन 90 साल के जाने के बाद भी उन्हें कोई संतान नहीं हुई। उन्होंने खुदा की इबादत की और उन्हें एक बेटा मिला जिसका नाम था इस्माइल। हजरत इब्राहिम को सपने में ये आदेश मिला कि वह खुदा की राह में कुर्बानी दे। ऐसे में उन्होंने पहले ऊंट की कुर्बानी दी। इसके बाद उन्हें ये सपना आया कि वह सबसे प्यारी चीज की अपनी कुर्बानी दी। इस पर उन्होंने अपने सभी जानवर को कुर्बान कर डाला। इसके बाद उन्हें फिर वहीं सपना आया। इसके बाद उन्होंने खुद पर विश्वास जताते हुए अपने बेटे की कुर्बानी करने का फैसला लिया। जिसके बाद हजरत इब्राहीम अपने दस वर्षीय पुत्र इस्माइल को ईश्वर की राह पर कुर्बान करने निकल गए|

अल्लाह ने जब उनका विश्वास अपने प्रति देखा तो उन्होंने उनके बेटे की कुर्बानी को बकरे की कुर्बानी में बदल दिया। दरअसल हजरत ने अपने जब अपने बेटे की कुर्बानी दी तो उन्होंने अपनी आंखों पर पट्टी बांध ली थी। बाद में जब उन्होंने पट्टी खोली तो अपने बेटे इस्माइल को जिंदा पाया और उसकी जगह एक बकरे को कुर्बान होते हुए देखा। इस्लामिक इतिहास में इस घटना के बाद से बकरे की कुर्बानी देने की परंपरा काफी वक्त से चली आ रही है। क्या आपको पता है कि किसी भी जानवर की कुर्बानी के बाद उसे तीन भागों में बांटा गया है; एक हिस्सा रिश्तेदारों, दोस्तों और पड़ोसियों को दिया जाता है, दूसरा हिस्सा जरूरतमंद और गरीबों को दिया जाता है और तीसरा हिस्सा अपने पास रखा जाता है।

ईद उल अजहा हमें देता है दो सीख

हजरत मुहम्मद साहब का जन्म भी इसी वंश में हुआ था। ईद उल अजहा के दो संदेश है पहला परिवार के बड़े सदस्य को स्वार्थ के परे देखना चाहिए और खुद को मानव उत्थान के लिए लगाना चाहिए और दूसरा ये कि ईद उल अजहा यह याद दिलाता है कि कैसे एक छोटे से परिवार में एक नया अध्याय लिखा।

क़ुर्बानी (अरबी : قربانى ), क़ुर्बान, या उधिय्या (uḍḥiyyah) ( أضحية ) के रूप

में में निर्दिष्ट इस्लामी कानून , अनुष्ठान है पशु बलि के दौरान एक पशुधन जानवर की ईद-उल-अज़हा। शब्द से संबंधित है हिब्रू קרבן कॉर्बान (qorbān) "भेंट" और सिरिएक क़ुरबाना "बलिदान", सजातीय अरबी के माध्यम से "एक तरह से या किसी के करीब पहुंचने के साधन" या "निकटता"। [1] इस्लामिक कानून में, उदियाह एक विशिष्ट जानवर के बलिदान का उल्लेख करता है, जो किसी विशिष्ट व्यक्ति द्वारा अल्लाह की ख़ुशनूदी और इनाम की तलाश के लिए विशिष्ट दिनों में पेश किया जाता है। क़ुरबान शब्द कुरान में तीन बार दिखाई देता है: एक बार पशु बलि के संदर्भ में और दो बार किसी भी कार्य के सामान्य अर्थों में. दुनिया की चीज़ों को त्याग या बलिदान करके अल्लाह के करीब हुवा जा सकता है। इसके विपरीत, ज़बीहा (धाबीहा), आम दिनों में किया जाता है, जब कि उदियाह किसी ख़ास मौके पर जैसे ईद-उल-अज़हा पर किया जाता है।

मूल

इस्लाम ने हाबील और क़ाबील (हेबेल और कैन) की क़ुरबानी का इतिहास का पता देता है, जिसका ज़िक्र क़ुरआन में वर्णित है। [2] हाबिल अल्लाह के लिए एक जानवर की बलि देने वाला पहला इंसान था। इब्न कथिरवर्णन करता है कि हाबिल ने एक भेड़ की पेशकश की थी जबकि उसके भाई कैन ने अपनी भूमि की फसलों का हिस्सा देने की पेशकश की थी। अल्लाह की निर्धारित प्रक्रिया यह थी कि आग स्वर्ग से उतरेगी और स्वीकृत बलिदान का उपभोग करेगी। तदनुसार, आग नीचे आ गई और एबेल द्वारा वध किए गए जानवर को आच्छादित कर दिया और इस प्रकार एबेल के बलिदान को स्वीकार कर लिया, जबकि कैन के बलिदान को अस्वीकार कर दिया गया था। इससे कैन के हिस्से पर ईर्ष्या पैदा हुई जिसके परिणामस्वरूप पहली मानव मृत्यु हुई जब उसने अपने भाई हाबिल की हत्या कर दी। अपने कार्यों के लिए पश्चाताप न करने के बाद, कैन को भगवान द्वारा माफ नहीं किया गया था।

इब्राहीम का बलिदान

क़ुर्बानी की प्रथा का पता हज़रात इब्राहीम से लगाया जा सकता है, जिसने यह सपना देखा था कि अल्लाह ने उसे उसकी सबसे कीमती चीज़ का त्याग करने का आदेश दिया था। इब्राहीम दुविधा में थे क्योंकि वह यह निर्धारित नहीं कर सकता थे कि उसकी सबसे कीमती चीज क्या थी। तब उन्होंने महसूस किया कि यह उनके बेटे का जीवन है। उसे अल्लाह की आज्ञा पर भरोसा था। उन्होंने अपने बेटे को इस उद्देश्य से अवगत कराया कि वह अपने बेटे को उनके घर से क्यों निकाल रहा थे। उनके बेटे इस्माइल ने अल्लाह की आज्ञा का पालन करने के लिए सहमति व्यक्त की, हालांकि, अल्लाह ने हस्तक्षेप किया और उन्हें सूचित किया कि उनके बलिदान को स्वीकार कर लिया गया है। और उनके बेटे को एक भेड़ से बदल दिया। यह प्रतिस्थापन या तो स्वयं के धार्मिक संस्थागतकरण की ओर इशारा करता है, या भविष्य में इस्लामिक पैगंबर मुहम्मद और उनके साथियों (जो इश्माएल की संतान से उभरने के लिए किस्मत में था) के आत्म-बलिदान को उनके विश्वास के कारण इंगित करता है। उस दिन से,साल में एक बार हर ईद उल - अदहा, दुनिया भर के मुसलमान इब्राहिम के बलिदान और खुद को त्यागने की याद दिलाने के लिए एक जानवर का वध करते हैं।

क़ुरबानी का दर्शन (तत्वज्ञान)

उधिय्या के पीछे दर्शन यह है कि यह अल्लाह को प्रस्तुत करने का एक प्रदर्शन है, अल्लाह की इच्छा या आज्ञा का पूरा पालन करना और अपनी खुशी के लिए अपना सब कुछ बलिदान करना है। इब्राहिम ने सबमिशन और बलिदान की इस भावना का बेहतरीन तरीके से प्रदर्शन किया। जब प्यार और निष्ठा की चुनौती का सामना किया, तो उन्होंने अल्लाह को बिना शर्त प्रस्तुत करने का विकल्प चुना और अपने परिवार और बच्चे के लिए व्यक्तिगत इच्छा और प्रेम को दबा दिया। क़ुर्बानी नफरत, ईर्ष्या, गर्व, लालच, दुश्मनी, दुनिया के लिए प्यार और दिल की ऐसी अन्य विकृतियों पर साहस और प्रतिरोध की छुरी रखकर एक जन्मजात इच्छाओं के वध का आह्वान करती है।

क़ुरबानी का अनुष्ठान

इस्लाम में, एक जानवर की क़ुरबानी इस्लामी कैलेंडर के ज़ुल हज्जा महीने की 10 वीं तारीख़ से 13 वीं के सूर्यास्त तक दी जा सकती है। इन दिनों दुनिया भर के मुसलमान क़ुरबानी की पेशकश करते हैं जिसका अर्थ है कि विशिष्ट दिनों में किसी जानवर की क़ुरबानी देना। इसे इब्राहिम द्वारा अपने बेटे के स्थान पर एक दुम्बे (भेड़) के बलिदान की प्रतीकात्मक पुनरावृत्ति के रूप में समझा जाता है, यहूदी धर्म में एक महत्वपूर्ण धारणा और इस्लाम समान है। इस्लामी उपदेशक इस अवसर का उपयोग इस तथ्य पर टिप्पणी करने के लिए करेंगे कि इस्लाम बलिदान का धर्म है और इस अवसर का उपयोग मुसलमानों को याद दिलाने के लिए किया जाता है अपने समय, प्रयास और धन के साथ मानव जाति की सेवा करने का उनका कर्तव्य।

फ़िक़्ह के अधिकांश स्कूल स्वीकार करते हैं कि पशु का वध ढिबाह के नियमों के अनुसार किया जाना चाहिए और यह कि पशु को एक पालतू बकरी, भेड़, गाय या ऊँट का होना चाहिए।

हज पर जाने वालों के नाम इस्लामी इंक़ेलाब के नेता आयतुल्लाह ख़ामेनेई का पैग़ामः

   बिस्मिल्लाह अर्रहमान अर्रहीम

सारी तारीफ़ कायनात के मालिक के लिए और दुरूद व सलाम हो कायनात की सबसे अच्छी हस्ती हमारे सरदार मोहम्मद मुस्तफ़ा और उनकी पाक नस्ल, चुने हुए साथियों और नेकी में उनका अनुपालन करने वालों पर क़यामत तक के लिए।

मन को आनंदित करने वाली हज़रत इब्राहीम की आवाज़# ने, जो अल्लाह के हुक्म से हर दौर के सभी मुसलमानों को हज के मौक़े पर काबे# की ओर बुलाती है, इस साल भी पूरी दुनिया के बहुत से मुसलमानों के दिलों को तौहीद व एकता के इस केन्द्र की ओर सम्मोहित कर दिया है, लोगों की इस शानदार व विविधता से भरी सभा को वजूद प्रदान किया है और इस्लाम के मानव संसाधन की व्यापकता और उसके आध्यात्मिक पहलू की ताक़त को अपनों और ग़ैरों के सामने नुमायां कर दिया है।

हज के विशाल समूह और इसकी जटिल क्रियाओं को जब भी ग़ौर व फ़िक्र की नज़र से देखा जाए, वह मुसलमानों के लिए दिल की मज़बूती और इत्मेनान का स्रोत है और दुश्मन व बुरा चाहने वालों के लिए ख़ौफ़, भय व रोब का सबब हैं।

अगर इस्लामी जगत के दुश्मन व बुरा चाहने वाले, हज के फ़रीज़े के इन दोनों पहलुओं को ख़राब करने और उन्हें संदिग्ध बनाने की कोशिश करें, चाहे धार्मिक व राजनैतिक मतभेदों को बड़ा दिखाकर और चाहे इनके पाकीज़ा व आध्यात्मिक पहलुओं को कम करके, तो हैरत की बात नहीं है।

क़ुरआन मजीद हज को बंदगी, ज़िक्र और विनम्रता का प्रतीक, इंसानों की समान प्रतिष्ठा का प्रतीक, इंसान की भौतिक व आध्यात्मिक ज़िंदगी की बेहतरी का प्रतीक, बरकत व मार्गदर्शन का प्रतीक, अख़लाक़ी सुकून और भाइयों के बीच व्यवहारिक मेल-जोल का प्रतीक और दुश्मनों के मुक़ाबले में ‘बराअत’ और बेज़ारी तथा ताक़तवर मोर्चाबंदी का प्रतीक बताता है।

हज के बारे में क़ुरआन की आयतों पर ग़ौर व फ़िक्र और इस बेनज़ीर फ़रीज़े की क्रियाओं पर चिंतन, इन चीज़ों और हज की जटिल क्रियाओं के इन्हीं जैसे रहस्यों को हम पर ज़ाहिर कर देता है।

हज अदा करने वाले आप भाई और बहन इस वक़्त इन रौशन हक़ीक़तों और शिक्षाओं के अभ्यास के मैदान में हैं। अपनी सोच और अपने अमल को इसके क़रीब से क़रीबतर कीजिए और इन उच्च अर्थों से मिश्रित और नए सिरे से हासिल हुयी पहचान के साथ घर आइये। यह आपके हज के सफ़र की हक़ीक़ी व मूल्यवान सौग़ात है।

इस साल ‘बराअत’ का विषय, विगत से ज़्यादा नुमायां है। ग़ज़ा की त्रासदी ऐसी है कि हमारे समकालीन इतिहास में इस जैसी कोई और त्रासदी नहीं है और बेरहम व संगदिल तथा बर्बरता की प्रतीक और साथ ही पतन की ओर बढ़ रही ज़ायोनी सरकार की गुस्ताख़ियों ने किसी भी मुसलमान शख़्स, संगठन, सरकार और संप्रदाय के लिए किसी भी तरह की रवादारी की गुंजाइश नहीं छोड़ी है। इस साल ‘बराअत’ हज के मौसम और हज की ‘मीक़ात’ से आगे बढ़कर पूरी दुनिया के सभी मुसलमान मुल्कों और शहरों में जारी रहनी चाहिए। यह सिर्फ़ हाजियों तक सीमित न रहे बल्कि हर शख़्स इसे अंजाम दे।

ज़ायोनी सरकार और उसके मददगारों ख़ास तौर पर अमरीकी सरकार से यह ‘बराअत’ क़ौमों और सरकारों के अमल और बयान में नज़र आनी चाहिए और जल्लादों का जीना हराम कर देना चाहिए।

फ़िलिस्तीन और ग़ज़ा के साबिर व मज़लूम अवाम के फ़ौलादी प्रतिरोध को, जिनके सब्र और दृढ़ता ने दुनिया को उनकी तारीफ़ और सम्मान पर मजबूर कर दिया है, हर ओर से सपोर्ट मिलना चाहिए।

अल्लाह से उनके लिए पूरी और तत्काल फ़तह की कामना करता हूं और आप आदरणीय हाजियों के लिए, हज के क़ुबूल होने की दुआ करता हूं। हज़रत इमाम महदी (हमारी जान उन पर क़ुरबान) की दुआ जो क़ुबूलशुदा है, आपकी मददगार रहे।

आप सब पर सलाम और अल्लाह की रहमत व बरकत हो

सैयद अली ख़ामेनेई

4 ज़िलहिज्जा 1445

11 जून 2024

22 ख़ुर्दाद 1403

मोहर्रम का दुखद: महीना वह महीना है जिसमें ख़ून ने तलवार पर विजय प्राप्त की। यह महीना पैग़म्बरे इस्लाम के प्राण प्रिय पौत्र हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के एतिहासिक आंदोलन की याद दिलाता है। इसी महीने में खून ने तलवार पर विजय प्राप्त की। हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम का एतिहासिक आंदोलन मानवता के लिए अविस्मरणीय सीख है। आज के कार्यक्रम में हम आपको हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के शूरवीर एवं साहसी दूत जनाब मुस्लिब बिन अक़ील से आपको परिचित करायेंगे।

हम आपको यह बतायेंगे कि हज़रत मुस्लिम कौन थे? जनाब मुस्लिम हज़रत अली अलैहिस्सलाम के भाई जनाब अक़ील के बेटे थे। जनाब मुस्लिम का लालन पालन जिस परिवार में हुआ वह पैग़म्बरे इस्लाम का ही परिवार था। आप जिस परिवार में बड़े हुए वह आध्यात्मिक गुणों का स्रोत और मानवता के लिए आदर्श है। बाल्याकाल से ही बनी हाशिम के युवाओं विशेषकर हज़रत इमाम हुसैन और हज़रत इमाम हुसैन अलैहिमस्सलाम के मध्य बड़े हुए तथा धार्मिक व शिष्टाचारिक शिक्षाओं के साथ त्याग और बलिदान की भी शिक्षा ली। जनाब मुस्लिम वह महान व्यक्ति हैं जिनके कई बेटों ने अपने प्राण हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम पर न्वौछावर किये। ३६ से ४० हिजरी क़मरी के मध्य हज़रत अली अलैहिस्सलाम के शासन काल में जनाब मुस्लिम कुछ सैनिक पदों पर भी थे। सिफ्फैन नामक युद्ध में हज़रत अली अलैहिस्सलाम ने इमाम हसन, इमाम हुसैन, अब्दुल्लाह बिन जाफर और मुस्लिम बिन अक़ील को अपनी सेना में महत्वपूर्ण स्थानों पर रखा था। जनाब मुस्लिम के सदगुणों को परिवार में खोजने से पूर्व उनके सदाचरण में खोजना चाहिये जो उनके व्यक्तित्व से परिचित होने का श्रेष्ठतम मार्ग है। जनाब मुस्लिम हज़रत अली अलैहिस्सलाम के शासन काल में न्याय की प्रतिमूर्ति हज़रत अली अलैहिस्सलाम के अनुसरणकर्ता थे और उनकी शहादत के बाद उनके प्राणप्रिय सुपुत्रों हज़रत इमाम हसन और इमाम हुसैन अलैहिमस्सलाम से कभी भी अलग नहीं हुए यहां तक अपने प्राण को फ़ातेमा ज़हरा सलामुल्लाह अलैहा के प्राणप्रिय सुपुत्र हज़रत इमाम हुसैन पर न्यौछावर कर दिया।

हज़रत इमाम हसन अलैहिस्सलाम की, जो हज़रत अली अलैहिस्सलाम के बड़े सुपुत्र और दूसरे इमाम थे, १० वर्षीय इमामत के काल में जनाब मुस्लिम पूरी निष्ठा के साथ आपकी सेवा में रहे और आपकी गिनती हज़रत इमाम हसन अलैहिस्सलाम के वफ़ादार साथियों में होती थी। हज़रत इमाम हसन अलैहिस्सलाम की शहादत के बाद लोगों के मार्गदर्शन की ज़िम्मेदारी हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के कांधों पर आ गयी यहां तक १० वर्षों बाद मोआविया के मरने के पश्चात जनाब मुस्लिम हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के साथ रहे। इस बीस वर्ष की अवधि में अर्थात हज़रत अली अलैहिस्सलाम की शहादत से लेकर कर्बला की दुखद एतिहासिक घटना तक धमकी, लालच आदि के कारण बहुत से लोग पैग़म्बरे इस्लाम के पवित्र परिजनों का साथ छोड़कर मोआविया की ओर चले गये या उन्होंने अलग थलग का जीवन अपना लिया पंरतु जिन लोगों के हृदय ईमान से ओत प्रोत थे उन्होंने पैग़म्बरे इस्लाम के पवित्र परिजनों को अकेला नहीं छोड़ा और तन, मन, धन से उनका साथ दिया।

हज़रत अली अलैहिस्सलाम ने अपने भाई जनाब अक़ील की प्रशंसा में पैग़म्बरे इस्लाम के हवाले से एक कथन का वर्णन किया है जिसमें पैग़म्बरे इस्लाम ने फरमाया है" मैं दो कारणों से अक़ील से प्रेम करता हूं एक स्वयं अक़ील के कारण और दूसरे इस कारण कि अक़ील के पिता अबुतालिब उनसे प्रेम करते थे। अंत में पैग़म्बरे इस्लाम ने हज़रत अली अलैहिस्सलाम को संबोधित करते हुए कहा, हे अली अक़ील का बेटा मुस्लिम तुम्हारे बेटे के प्रेम में शहीद किया जायेगा, मोमिनों अर्थात ईश्वर पर ईमान रखने वाले व्यक्ति उस पर आंसू बहायेंगे और ईश्वर के निकटवर्ती फरिश्ते उस पर सलाम भेजते हैं"

 

मोआविया २० वर्ष तक अत्याचारपूर्ण ढंग से शासन करने के बाद मर गया और उसके बाद उसका बेटा यज़ीद सिंहासन पर बैठा तथा लोभ एवं धमकी द्वारा उसने स्थिति पर आधिपत्य जमा लिया। उसने हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम से बैअत तलब की अर्थात अपने आदेशों के अनुसरण की मांग की जिसे इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम ने ठुकरा दिया और गोपनीय ढंग से अपने परिवार के कुछ सदस्यों के साथ मदीना से बाहर निकल कर मक्का पहुंचे ताकि हज के उचित दिनों में लोगों को जागरुक बनायें। ६० हिजरी क़मरी थी। हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम चार महीने तक मक्का में रहे जिसके दौरान उन्होंने बैंठके और लोगों से वार्ता करके उन्हें यज़ीद की बैअत न करने का कारण समझा दिया। विशेषकर कूफा के लोग हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम की क्रातिकारी कार्यवाही सुनकर प्रसन्न और आशान्वित हो गये। कूफा के लोगों को हज़रत अली अलैहिस्सलाम का चार वर्षीय शासन काल याद था और इस नगर में पैग़म्बरे इस्लाम के पवित्र परिजनों के चाहने वाले बहुत व्यक्ति थे और इसी आधार पर कूफा में जाने पहचाने शीया मुसलमानों के हस्ताक्षर एवं मोहर से लोगों ने हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम को पत्र लिखा जिनकी संख्या हज़ारों में थी। कूफा के लोग अपने पत्रों में हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम से अपने यहां आने और बैअत करने का आग्रह करते थे तथा इस बात का बार बार आग्रह करते थे कि इमाम कूफा आकर लोगों से बैअत लें तथा यज़ीद को शासन से हटा दें।

हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम ने कूफावासियों के निरंतर आग्रह और बारम्बार के निमंत्रण के उत्तर में प्रतिक्रिया दिखाने और कार्यवाही करने का निर्णय लिया। कूफा की स्थिति का सही मूल्यांकन, लोगों के प्रेम की सीमा का आंकलन, आवश्यक भूमि उपलब्ध करना और क्रांतिकारी बलों के गठन के लिए आवश्यक था कि कोई पहले कूफा जाकर इन कार्यों को अंजाम दे तथा नगर और नगरवासियों की सूक्ष्म व सही जानकारी उन्हें दे। हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम ने इस गुप्त कार्यवाही के लिए सबसे उचित व योग्य व्यक्ति जनाब मुस्लिम बिन अक़ील को समझा क्योंकि ईश्वर से भय रखने के साथ साथ वह पर्याप्त राजनीतिक जानकारी भी रखते थे और हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम से निकट भी थे। कूफावासियों की ओर से आये प्रतिनिधियों से इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम ने कहा कि मैं अपने चचरे भाई मुस्लिम को तुम्हारे साथ भेज रहा हूं यदि लोगों ने उनसे बैअत की अर्थात आज्ञा पालन का वचन दिया तो मैं भी आऊंगा। यह कि इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम ने जनाब मुस्लिम को अपने भाई और विश्वास पात्र व्यक्ति के रूप में याद किया, यही उनकी योग्यता को समझने के लिए काफी है। फ़िर आपने जनाबे मुस्लिम को बुलाया और उनसे फरमाया, कूफे जाओ और देखो यदि लोगों की ज़बान एवं दिल एक है जैसाकि इन पत्रों में लिखा है और लोग एकजुट हैं, उनके माध्यम से कुछ किया जा सकता है तो इस संबंध में अपनी राय हमें लिखो।

 

हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम ने जनाब मुस्लिम को तक़वा अर्थात ईश्वरीय भय आदि की सिफारिश की और फरमाया कि नर्मी एवं प्रेम से काम को आगे बढ़ाओ, अपनी गतिविधियों को गुप्त रखो यदि लोगों में समन्वय हो उनके मध्य मतभेद न हो तो हमें सूचित करो। जनाब मुस्लिम का भेजा जाना कूफा से हजारों की संख्या में आये पत्रों का उत्तर था।

जनाब मुस्लिम दो व्यक्तियों के साथ पवित्र नगर मक्का से कूफे पहुंचे। शिया मुसलमान कूफे में जनाब मुख्तार के घर में आकर जनाब मुस्लिम को देखने और उनके हाथ पर बैअत करने लगे यहां तक कि कई दिनों के भीतर जनाब मुस्लिम के हाथ पर बैअत करने वालों की संख्या हज़ारों में हो गयी। हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के समर्थन में इतने सारे बैअत करने वालों और यज़ीद की सरकार को उखाड़ फेंकने वालों की स्थिति की सूचना जनाब मुस्लिम ने एक पत्र लिखकर इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम को दी और प्रतिरोध के लिए स्थिति को उपयुक्त देखकर इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम से कूफा आने का अनुरोध किया।

उधर यज़ीद ने कूफे पर अपना शासन बाक़ी रखने के लिए अब्दुल्लाह बिन ज़ियाद जैसे क्रूर व्यक्ति को, जो बसरा का गवर्नर था, कूफे का भी गवर्नर बना दिया और इब्ने ज़ियाद को यह दायित्व सौंपा कि वह कूफे जाकर जनाब मुस्लिम को गिरफ्तार करे और उसके बाद उन्हें जेल में डाल दे या कहीं भेज या फिर उनकी हत्या कर दे। जिन लोगों ने जनाब मुस्लिम के हाथों बैअत किया था वे इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के आने की प्रतीक्षा में थे पर इब्ने ज़ियाद के आते ही स्थिति परिवर्तित हो गयी और अगले दिन सुबह व्यक्ति जो नमाज़ पढ़ने के लिए आये थे इब्ने ज़ियाद ने उन्हें सबोधित करके कहा, मुझे अमीरुल मोमेनीन यज़ीद ने इस नगर का गवर्नर और तुम्हारा शासक एवं जनकोष का रक्षक बनाया है और मुझे आदेश दिया है कि अत्याचारग्रस्त लोगों के साथ न्याय और वंचितों के साथ भलाई करूं तथा जो लोग मेरे आदेश का विरोध करें उनके साथ कड़ाई से पेश आऊं तो फिर हर व्यक्ति को चाहिये कि वह डरे और मेरी बात की सच्चाई अमल के समय स्पष्ट हो जायेगी। उस हाशिमी व्यक्ति को यानी जनाब मुस्लिम को बता दो कि वह मेरे क्रोध से डरे" इसके बाद स्थिति पूरी तरह परिवर्तित हो गयी। इब्ने ज़ियाद ने कूफे नगर के विभिन्न मोहल्लों एवं क़बीलों के नेताओं को बुलाया और उन्हें डराया, धमकाया तथा उनसे मांग की कि वे यज़ीद के विरोधियों की सूचना हमें दें यन्यथा उनकी जान व माल ख़तरे में है। लालच, धमकी, जासूसी और सत्ता की दूसरी की संभावनाओं से इब्ने ज़ियाद ने पूरे कूफे नगर में भय एवं आतंक का वातारण व्याप्त कर दिया संक्षेप में यह कि लोगों को गिरफ्तार और उनके साथ कठोर व निर्दयतापूर्ण बर्ताव करके पूरी स्थिति पर नियंत्रण कर लिया। जनाब मुस्लिम बिन अक़ील मुख्तार के घर में थे और स्थिति परिवर्तित हो चुकी थी। चूंकि इब्ने ज़ियाद जनांदोन व प्रतिरोध को कुचलने की चेष्टा में था और वह प्रतिरोध के नेता मुस्लिम बिन अक़ील को गिरफ्तार करने के प्रयास में था इसलिए जनाब मुस्लिम मुख्तार के घर से हानी के घर में चले गये। हानी बिन उरवह कूफा नगर के जाने पहचाने लोगों में से थे और इस नगर में उनका बहुत प्रभाव था। उस समय हानी बिन उरवह की उम्र लगभग ९० वर्ष थी, वह पैग़म्बरे इस्लाम और हज़रत अली अलैहिस्सलाम के भी काल में थे तथा जमल, नहरवान एवं सिफ्फैन नामक युद्ध में हज़रत अली अलैहिस्सलाम की सेना में थे और पैग़म्बरे इस्लाम एवं पवित्र उनके परिजनों के प्रति विशेष श्रृद्धा व निष्ठा रखते थे। अब एक बार फिर परीक्षा की घड़ी आ गयी थी कि वह अपनी सच्चाई, ईमान और न्याय प्रेम के प्रति अपनी निष्ठा को दर्शाते। ख़तरनाक एवं संकटग्रस्त स्थिति में उन्होंने जनाब मुस्लिम को अपना मेहमान बनाया और उन्हें भलिभांति पता था कि क्रूर अत्याचारी इब्ने ज़ियाद जनाबमुस्लिम को गिरफ्तार करने के प्रयास में है और जनाब मुस्लिम को अपने यहां रखने के परिणाम से भी अवगत थे पर उन्होंने किसी बात की परवाह न की और इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के दूत को अपना अतिथित्य बनाया।

उधर इब्ने ज़ियाद जनाब मुस्लिम को गिरफ्तार करने और प्रतिरोध को समाप्त करने की कुचेष्टा में था और इस कार्य को व्यवहारिक बनाने के लिए उसने दो षडयंत्र रचे

प्रथम यह कि जनाब मुस्लिम और उनके चाहने वालों का पता लगाना और दूसरे नगर में प्रभाव रखने वाले व्यक्तियों को लोभ व लालच देकर खरीदना इब्ने ज़ियाद ने जनाब मुस्लिम के रहने का स्थान और प्रतिरोध के कार्यक्रमों का पता लगाने के लिए माक़ल नाम के व्यक्ति को तीन हज़ार दिरहम दिया और उसे अपना जासूस बनाकर भेजा तथा उसे आदेश दिया गया कि वह अपने आपको जनाब मुस्लिम का चाहने वाला दर्शाये और साथ ही यह भी दिखाये कि उसके पास तीन हज़ार दिरहम हैं जिसे वह प्रतिरोध के लिए शस्त्र आदि खरीदने के लिए जनाब मुस्लिम को देना चाहता है। इस प्रकार वह जनाब मुस्लिम का पता लगाने में सफल हो गया तथा उसने हानी बिन उरवह के घर, उनके साथ मौजूद व्यक्तियों की संख्या आदि की सूचना इब्ने ज़ियाद को भेद दी और अपने साथ मौजूद तीन हज़ार दिरहम भी जनाब मुस्लिम को दे दिया। इस प्रकार इब्ने ज़ियाद के जासूस ने अपने आपको जनाब मुस्लिम का चाहने वाला एवं प्रतिरोध का पक्षधर दिखाने में सफल हो गया। सुबह सबसे पहले जनाब मुस्लिम के पास आता था और रात को सबसे देर में उनके पास से जाता था इस प्रकार वह प्रतिरोध के भीतर की समस्त गतिविधियों की जानकारी इब्ने ज़ियाद को भेजता था। इस प्रकार जब इब्ने ज़ियाद को जनाब मुस्लिम के रहने का स्थान और प्रतिरोध के प्रभावी व्यक्तियों का पता चल गया तो उसने ख़तरे का अधिक आभास किया और इससे पहले कि स्थिति नियंत्रण से बाहर हो जाये उसने प्रतिरोध एवं उसमें प्रभावी व्यक्तियों के दमन का निर्णय किया।

प्रतिरोध में हानी बिन उरवह की भूमिका बहुत अधिक थी इसलिए इब्ने ज़ियाद ने पहले उन्हें गिरफ्तार करने का निर्णय लिया। क्योंकि वह जानता था कि जब तक हानी बिन उरवह अपने स्थान पर रहेंगे तब तक जनाब मुस्लिम बिन अक़ील को गिरफ्तार करना संभव नहीं है। इसके बाद उसने एक षडयंत्र रचकर हानी बिन उरवह को दारुल इमारह अर्थात राजभवन बुलाया और उन्हें वही पर गिरफ्तार करके उनके तथा जनाब मुस्लिम के बीच दूरी उत्पन्न कर दी। अब कूफे में जनाब मुस्लिम हानी बिन उरवह जैसे वफादार साथी से अकेले हो गये हैं रात बिताने के लिए कूफे की गलिईयों में टहल रहे हैं और उन्हें नहीं पता कि वह कहां जायें। कूफे के हर घर का दरवाज़ा जनाब मुस्लिम के लिए बंद हो चुका है कई दिनों के बाद जनाब मुस्लिम को एक महिला ने अपने घर में शरण दी परंतु उस महिला के विपरीत उसका बेटा इब्ने ज़ियाद का समर्थक था रात को जब वह अपने घर आया तो अपनी मां के व्यवहार से समझ गया कि कोई असाधारण बात है काफी पूछने के बाद उसकी मां ने बताया कि जनाब मुस्लिम के अतिरिक्त हमारे घर में कोई नहीं है यह सुनना था कि उसका बेटा बहुत प्रसन्न हो गया और सोचा कि यदि यह खबर इब्ने ज़ियाद को दे तो वह उसे इनाम देगा। जबकि उसने अपनी मां को वचन दिया था कि इस बात को वह किसी से नहीं कहेगा पर उसने यह बात इब्ने ज़ियाद से बता दी और फिर क्या था इब्ने ज़ियाद ने जनाब मुस्लिम को गिरफ्तार करने के लिए कुछ सैनिक भेजे परंतु वे सब जनाब मुस्लिम को गिरफ्तार न कर सके, जनाब मुस्लिम ने बड़ा साहसिक युद्ध किया यहां तक इब्ने ज़ियाद के सैनिकों ने उससे और सैनिक भेजने की मांग की तो उसने कहा कि एक व्यक्ति को गिरफ्तार करने के लिए कितने सैनिकों की आवश्यकता है तो उत्तर मिला कि यह हाशिम खानदान का जवान है कोई आम व्यक्ति नहीं है अंत में इब्ने ज़ियाद ने और सैनिकों को भेजा, घमासान लड़ाई हुई पर जनाब मुस्लिम को गिरफ्तार न कर सके तो उन्होंने एक गढढा खोदा और उसे घास आदि से ढक दिया तथा जनाब मुस्लिम को धोखा देकर उस गढढे के पास लाये जिसमें वह गिर गये जिसके बाद इब्ने जियाद के सैनिक उन्हें गिरफतार करके इब्ने ज़ियाद के पास ले गये। इब्ने ज़ियाद ने उनसे कहा कि तुमने अपने स्वामी को सलाम नहीं किया, मुस्लिम ने उत्तर दिया कि मेरा स्वामी केवल हुसैन है।

क्रूर एवं निर्दयी इब्ने ज़ियाद ने उनकी हत्या का आदेश देने से पूर्व उनकी अंतिम इच्छा जानना चाही तो हज़रत मुस्लिम ने तीन इच्छायें प्रकट की जिनमें से एक यह थी कि इमाम हुसैन को यह संदेश दे दिया जाये कि कूफा वाले अपने वचन से पीछे हट गये हैं अत: वे कूफे की ओर न आयें। इज़रत मुस्लिम की कोई इच्छा पूरी नहीं की गयी और इब्ने ज़ियाद के आदेश पर उन्हें राजभवन की छत से से गिरा कर शहीद कर दिया गया।

दुनिया भर से करीब 20 लाख तीर्थयात्री हज करने के लिए सऊदी अरब पहुंचे हैं।

लबक अल्लाहुम लबक, लबक ला श्रीक लबक के शब्दों के साथ मीना से हज प्रमुख वक्फ अराफा अदा करने के लिए दुनिया भर से लगभग 20 मिलियन तीर्थयात्री अराफात मैदान में पहुंच रहे हैं

लाखों हज यात्री आज अराफात के मैदान में सूर्यास्त तक इबादत में मशगूल रहेंगे.

तीर्थयात्री अराफात चौक स्थित निमरा मस्जिद में इमाम साहब का हज उपदेश सुनेंगे और ज़ुहर और अस्र की नमाज़ अदा करेंगे। वे सूर्यास्त तक अराफ़ात के मैदान में खड़े रहेंगे। यहां वे दिन भर याद और इबादत में मशगूल रहेंगे और अल्लाह के सामने दुआ करेंगे.

सूरज डूबते ही हाजी मुजदलिफा की ओर रवाना होंगे और वहां पहुंचकर मगरिब और ईशा की नमाज एक साथ अदा करेंगे. तीर्थयात्री मुजदलिफा में खुले आसमान के नीचे रात बिताएंगे और रूमी जमरात के लिए कंकड़ चुनेंगे। तीर्थयात्री अपने रब के सामने प्रार्थना करने के साथ-साथ सुन्नत के अनुसार यहां विश्राम करेंगे।

रविवार यानी 10 जिलहिज्जा को फज्र की नमाज अदा करने के बाद हाजी सूरज उगने तक नमाज अदा करेंगे, गुनगुनाकर अल्लाह के सामने दुआ करेंगे।

गौरतलब है कि सऊदी अरब में ईद-उल-अजहा कल रविवार को है, जबकि ईरान, पाकिस्तान और भारत समेत कई देशों में ईद-उल-अजहा सोमवार 17 जून को मनाई जाएगी.

दुआ इबादत की रूह है। जो इबादत दुआ के साथ होती है वह प्रेम और परिज्ञान को उपहार स्वरूप लाती है। दुआ ऐसी आत्मिक स्थिति है कि जो इंसान और उसके जन्मदाता के बीच मोहब्बत एवं लगाव पैदा करती है। दुआ से जीवन के प्रति सकारात्मक सोच पैदा होती है। पैग़म्बरे इस्लाम (स) फ़रमाते हैं, सर्वश्रेष्ठ इंसान वह है कि जो इबादत और दुआ से लगाव रखता हो।

विभिन्न परिस्थितियों और स्थानों के दृष्टिगत दुआ और इबादत का महत्व भी भिन्न होता है। जैसे कि मस्जिदों, उपासना स्थलों और काबे की दिशा में दुआ और इबादत का महत्व कुछ और ही है। उचित समय भी दुआ के क़बूल होने का एक महत्वपूर्ण कारण है। कुछ ऐसे दिन होते हैं कि जब ईश्वर से हमारा प्राकृतिक प्रेम जागरुक होता है, जिससे हमारे अस्तित्व में आध्यात्म की ज्योति जागती है। अरफ़े का दिन दुआ और इबादत के लिए कुछ ख़ास दिनों में से एक है, विशेषकर जब उस दिन अरफ़ात के मैदान में हों।

हज के अविस्मरणीय संस्कारों में से एक अरफ़ात के मैदान में ठहर कर ईश्वर की उपासना करना भी है। ज़िलहिज्ज महीने की 9 तारीख़ को हाजियों को सुर्योदय से सूर्यास्त तक अरफ़ात के मैदान में ठहरना होता है। अरफ़ात पवित्र नगर मक्का से 21 किलोमीटर दूर जबलुर्रहमा नामक पहाड़ के आंचल में एक मरूस्थलीय क्षेत्र है। ऐसा विशाल मैदान जहां इन्सान सांसारिक व भौतक चीज़ों को भूल जाता है। अरफ़ात शब्द की उत्पत्ति मारेफ़त शब्द से है जिसका अर्थ होता है ईश्वर की पहचान और अरफ़ा का दिन मनुष्य के लिए परिपूर्णतः के चरण तय करने की पृष्ठिभूमि तय्यार करने का सर्वश्रेष्ठ अवसर है। इन्सान पापों से प्रायश्चित और प्रार्थना द्वारा पापों और बुरे विचारों से पाक हो जाता है और कृपालु ईश्वर की ओर पलायन करता है।

पूरे इतिहास में ऐसे महान लोग गुज़रे हैं जिन्होंने अरफ़ात के मैदान में ईश्वर की इबादत की और अपने पापों की स्वीकारोक्ति की है। इतिहास में है कि हज़रत आदम अलैहिस्सलाम और हज़रत हव्वा ने पृथ्वी पर उतरने के बाद अरफ़ात के मैदान में एक दूसरे को पहचाना और अपनी ग़लती को स्वीकार किया। जी हां अरफ़े का दिन पापों की स्वीकारोक्ति, उनसे प्रायश्चित और ईश्वर की कृपा की आशा करने का दिन है।

अरफ़ा वह दिन है कि जब ईश्वर अपने बंदों का इबादत और उपासना के लिए आहवान करता है, इस दिन ईश्वरीय कृपा और दया धरती पर फैली हुई होती है और शैतान अपमानित हो जाता है।

पैग़म्बरे इस्लाम (स) फ़रमाते हैं: हे लोगो, क्या मैं तुम्हें कोई शुभ सूचना दूं? लोगो ने कहा हां, हे ईश्वरीय दूत। आप ने फ़रमाया, जब इस दिन सूर्यास्त होता है, ईश्वर फ़रिश्तों के सामने अरफ़ात में ठहरने वालों पर गर्व करता है और कहता है, मेरे फ़रिश्तो मेरे बंदों को देखो कि जो धरती के कोने कोने से बिखरे हुए और धूल में अटे हुए बालों के साथ मेरी ओर आए हैं, क्या तुम जानते हो वे क्या चाहते हैं? फ़रिश्ते कहते हैं, हे ईश्वर तुझ से अपने पापों के लिए क्षमा मांगते हैं। ईश्वर कहता है, मैं तुम्हें साक्षी बनाता हूं, मैंने इन्हें क्षमा कर दिया है। अतः (हे हाजियों) जिस स्थान पर तुम ठहरे हो वहां से क्षमा प्राप्त किए हुए एवं पवित्र होकर वापस लौट जाओ।

अरफ़े का दिन इबादत और प्रार्थना का दिन है। विशेष रूप से उन लोगों के लिए जिन्हें हज करने और अरफ़ात के मरूस्थलीय मैदान में उपस्थित होने का सुअवसर मिला है। अरफ़ात की वादी में हाजी, इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम की इस दिन की विशेष दुआ पढ़ते हैं। मानो किसी विशाल समारोह का आयोजन है, जिसमें ईश्वर के बंदे जीवन एवं ब्रह्मांड के रहस्यों को प्राप्त करना चाहते हैं और ईश्वर से निकट होने के लिए एक दूसरे से प्रतिस्पर्धा करते हैं। अरफ़ात के ईश्वरीय एवं आध्यात्मिक वातावरण में हृद्य कांप उठते हैं और आँखों से आंसू बहने लगते हैं। हाजी पवित्र हृदयों एवं एक तरह के वस्त्र धारण किए हुए हाथों को ऊपर उठाते हैं और गिड़गिड़ाते हैं: हे ईश्वर हम तेरी प्रशंसा करते हैं कि तूने अपनी संपूर्ण शक्ति से हमें पैदा किया, अपनी कृपा और अनुकंपा से तूने मुझे सर्वश्रेष्ठ प्राणी बनाया, हालांकि तुझे मेरी कोई आवश्यकता नहीं थी, हे ईश्वर इस दोपहर में जो कुछ तू अपने बंदों को भलाई प्रदान करे और उनका कल्याण करे हमें भी उसमें शामिल रख, हे ईश्वर हमें वंचित नहीं रखना और अपनी असीम कृपा से हमें दूर न कर, हे ईश्वर जब भी जीवन अपनी समस्त व्यापकता के साथ मेरे लिए तंग हो जाता है तो तू मेरा सहारा होता है, यदि तेरी कृपा नहीं होगी तो निःसंदेह मैं नष्ट हो जाऊंगा, हे ईश्वर तू अपने पवित्र और हलाल माल से मुझे व्यापक आजीविका प्रदान कर और स्वास्थ्य एवं शांति प्रदान कर और भय एवं डर के समय मुझे साहस दे।

अरफ़ात की वादी इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम की इस दिन की विशेष दुआ की याद अपने दामन में समेटे हुए है। अरफ़े के दिन इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम अपने बेटों, परिजनों और साथियों के एक समूह के साथ ऐसी स्थिति में अपने ख़ेमे से बाहर आए कि उनके चेहरे से विनम्रता व शिष्टता का भाव प्रकट था। उसके बाद इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम जबलुर्रहमा नामक पहाड़ के बाएं छोर पर खड़े हो गए और काबे की ओर मुंह करके अपने हाथों को इस प्रकार चेहरे तक उठाया जैसे कोई निर्धन खाना मांगने के लिए हाथ उठाता है और फिर अरफ़े के दिन की विशेष दुआ पढ़ना शुरु की। यह दुआ शुद्ध एकेश्वरवाद और ईश्वर से क्षमा याचना जैसे विषयों से संपन्न है।

वास्तव में इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम ने दुआए अरफ़ा द्वारा अनेक नैतिक एवं प्रशैक्षिक बिंदुओं का हमें पाठ दिया है। इस मूल्यवान दुआ में जगह जगह पर नैतिकता के उच्च अर्थ निहित हैं। कभी इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम ईश्वरीय अनुकंपाओं का उल्लेख करते हैं, कभी ईश्वर से आत्मसम्मान की दुआ मांगते हैं और कभी कर्म में निष्ठा की प्रार्थना करते हैं।

दुआए अरफ़ा में अन्य भाग ऐसे भी हैं कि जो केवल ईश्वर से बातचीत, प्रेम और उसकी प्रशंसा पर आधारित हैं। यह दुआ इस बात को दर्शाती है कि दुआ का अर्थ केवल ईश्वर से मांगना ही नहीं है, बल्कि अपने प्रेमी ईश्वर से बातचीत वह भी एक ज़रूरतमंद एवं असहाय बंदे की ओर से, काफ़ी दिलचस्प एवं मनमोहक हो सकती है और उसे आत्मिक प्रसन्नता एवं मानसिक शांति प्रदान कर सकती है।

अरफ़े के दिन विशेष उपासना एवं इबादत का उल्लेख किया गया है, रोज़ा रखना, ग़ुस्ल करना अर्थात विशेष स्नान करना, इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम की दुआ का पढ़ना, नमाज़े अस्र के बाद दो रकत नमाज़ का पढ़ना, इसके अलावा चार रकत नमाज़ पढ़ना और दुआ करना विशेष रूप से दुआए इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम।

जाबिर इब्ने अब्दुल्लाह अंसारी से रिवायत है कि पैग़म्बरे इस्लाम ने फ़रमाया, अरफ़े के दिन मैदाने अरफ़ा की ओर चलते ही मैदाने अरफ़ा में एकत्रित होने वालों पर ईश्वर की कृपा शुरू हो जाती है। उस समय शैतान अपने सिर पर ख़ाक डालता है, रोता पीटता है, दूसरे शैतान उसके चारो ओर इकट्ठे हो जाते हैं और कहते हैं, तुझे क्या हो गया है? वह कहता है कि जिन लोगों को मैंने 60 और 70 वर्षों तक (पापों में लिप्त करके) नष्ट किया, पलक झपकते ही उन्हें क्षमा कर दिया गया। इसी प्रकार पैग़म्बरे इस्लाम ने फ़रमाया, जो कोई अरफ़े के दिन अपने कान, आँखे और ज़बान पर निंयत्रण रखेगा, ईश्वर उसे अरफ़े से दूसरे अरफ़े के दिन तक सुरक्षित रखेगा।

अरफ़ात में जैसे जैसे सूर्यास्त होता है, धीरे धीरे हाजियों के क़दम मशअर की ओर बढ़ने लगते हैं, मशअर भी ज्ञान प्राप्ति एवं जागरुकता की सरज़मीन है। मशअर चिंतन मनन का दूसरा पड़ाव है, यहां हाजी कल के लिए स्वयं को तैयार करते हैं ताकि मिना में शैतान से प्रतिकात्मक युद्ध करें। रात को ईश्वर की उपासना और प्रार्थना में गुज़ारते हैं और 10 ज़िलहिज्जा की सुबह सफ़ैद वस्त्र धारण किए हाजियों का विशाल समूह सुबह की नमाज़ अदा करता है और मिना की ओर चल पड़ता है। 10 जिलहिज्जा, बलिदान एवं भलाई की ईद है।

 

 

हज़रत आयतुल्लाहिल उज़मा ख़ामेनेई ने अपनी एक तक़रीर में फ़रज़ंदे रसूल इमाम मुहम्मद बाक़िर अलैहिस्सलाम की शख़्सियत के कुछ पहलुओं का जायज़ा लिया और इमाम के तारीख़ी सफ़रे शाम के सिलसिले में बड़े अहम बिंदुओं पर रौशनी डाली तक़रीर के कुछ चुनिंदा हिस्से निम्नलिखित हैं।

हज़रत आयतुल्लाहिल उज़मा ख़ामेनेई ने अपनी एक तक़रीर में फ़रज़ंदे रसूल इमाम मुहम्मद बाक़िर अलैहिस्सलाम की शख़्सियत के कुछ पहलुओं का जायज़ा लिया और इमाम के तारीख़ी सफ़रे शाम के सिलसिले में बड़े अहम बिंदुओं पर रौशनी डाली तक़रीर के कुछ चुनिंदा हिस्से निम्नलिखित हैं।

बिस्मिल्लाह-अर्रहमान-अर्रहीम

दोस्तों की ख़्वाहिश है कि मैं इमाम मुहम्मद बाक़िर अलैहिस्सलाम के सिलसिले में वक़्त का ख़्याल रखते हुए कुछ बयान करूं।

इमाम मुहम्मद बाक़िर अलैहिस्सलाम की इमामत की शुरुआत सन 94 हिजरी में हुई जो सन 114 हिजरी तक जारी रही, यही उनकी शहादत का साल है, उनकी इमामत का दौर 19 या 20 बरस रहा। इन 20 बरसों में इमाम मुहम्मद बाक़िर अलैहिस्सलाम ने क़ुरआने मजीद, हदीस, अहकाम, वाजिबात और अख़लाक़ी ख़ूबियों की व्याख्या पर आधारित नज़रियाती, वैचारिक और दीनी मिशन के साथ ही साथ ख़िलाफ़त के खिलाफ लड़ाई, लोगों में एकजुटता, शिया मुसलमानों को एक प्लेटफ़ार्म पर जमा करने और लोगों को, यानी मुसलमानों को इमामत से जोड़ने की सियासी राह पर चलना भी जारी रखा।

हेशाम बिन अब्दुलमलिक वह ख़लीफ़ा है जिसके दौर में इमाम मुहम्मद बाक़िर अलैहिस्सलाम की उम्र का अक्सर हिस्सा गुज़रा है। उसे अचानक यह महसूस होने लगा कि इमाम मुहम्मद बाक़िर अलैहिस्सलाम उसके  लिए ख़तरा हैं। कहते हैं कि मस्जिदुल हराम या फिर मक्का व मदीना के किसी रास्ते में हेशाम जब चल रहा था और उसके साथ उसका ख़ास ग़ुलाम सालिम भी था, अचानक उसे एक बड़ी हस्ती नज़र आयी तो उसने पूछा कि यह कौन है?

सालिम ने कहा कि यह मुहम्मद बिन अली बिन हुसैन हैं, उसने इमाम के बारे में बताया, जब हेशाम को पता चला कि यह इमाम मुहम्मद बाक़िर अलैहिस्सलाम हैं तो वह कहने लगा कि अच्छा! “यह वही हैं जिनके इराक़ी आशिक़ हैं” (1) जिन पर इराक़ के लोग जान छिड़कते हैं? उसे लगा कि इमाम उसके लिए ख़तरा हैं। इसी लिए उसने इमाम मुहम्मद बाक़िर अलैहिस्सलाम को परेशान करने का इरादा किया।

यह तो पक्की बात है कि उसने इमाम मुहम्मद बाक़िर अलैहिस्सलाम को एक बार मदीना से शाम बुलाया था, मेरे ख़्याल में तो एक बार से ज़्यादा तलब किया था। इमाम को तलब करने के सिलसिले में जो रवायतें हैं वह ऐसी हैं जिनमें कुछ ऐसे वाक़ेआत का ज़िक्र है जिनके बीच वक़्त का बहुत फ़ासला है जिससे पता चलता है कि हेशाम ने इमाम मुहम्मद बाक़िर अलैहिस्सलाम को दो बार बल्कि तीन बार मदीना से शाम तलब किया और उन्हें वहां ले जाया गया। लेकिन बहरहाल एक बार जब उसने इमाम को तलब किया तो अगर मैं तलब किए जाने का पूरा वाक़या बताऊं तो इमाम मुहम्मद बाक़िर अलैहिस्सलाम से हमारी अक़ीदत और उनकी इज़्ज़त और बढ़ जाएगी और इसके साथ ही इमाम का सियासी नज़रिया भी सामने आ जाएगा। 

हेशाम ने मदीना के गर्वनर को हुक्म दिया कि मुहम्मद बिन अली और उनके बेटे जाफ़र बिन मुहम्मद को पकड़ कर हमारे पास भेज दो, इस से पता चलता है कि उस दौर में कि जब इमाम जाफ़रे सादिक़ अलैहिस्सलाम एक नौजवान थे तब भी ख़िलाफ़त की नज़र में वह ख़तरा थे। यानी वह सिर्फ़ इमाम मुहम्मद बाक़िर अलैहिस्सलाम को ही बुलाने को काफ़ी नहीं समझता बल्कि कहता है कि दोनों को मेरे पास भेजा जाए। इमाम मुहम्मद बाक़िर अलैहिस्सलाम और इमाम जाफ़र सादिक़ अलैहिस्सलाम को सवारियों पर बिठाया जाता है और सिपाहियों के साथ शाम रवाना कर दिया जाता है।

उधर हेशाम बिन अब्दुलमलिक को चैन नहीं था क्योंकि वह किसी आम आदमी से नहीं मिलने वाला था बल्कि ऐसी हस्तियों का सामना करना था जो असाधारण और ग़ैर मामूली हैं, सब से पहले तो इस लिए कि वो पैग़म्बरे इस्लाम की संतान हैं और यह वह ख़ूबी थी जिसे बनी उमैया के ख़लीफ़ा, बहुत ज़्यादा अहम समझते थे और दूसरी बात यह थी कि यह हस्तियां ठोस अंदाज़ में अपनी बात रखती थीं और हाज़िर जवाब थीं जो बहुत आसानी से हेशाम और उसके दरबारियों को अपमानित कर सकती थीं। तीसरी बात यह कि वे बड़ी जानकार और इल्म रखने वाली हस्तियां थीं और इस तरह की बड़ी हस्तियों से बात करना आसान नहीं है।

बहरहाल हेशाम डरा हुआ था और उसकी समझ में नहीं आ रहा था कि इन हस्तियों का सामना कैसे करे? उसे यह डर भी सता रहा था कि कहीं यह लोग महल और दरबार में आने के बाद ऐसी बातें न कह दें जिससे वह और उसके दरबारियों की बेइज़्ज़ती हो जाए और वे लोग जवाब न दे पाएं, जिस की वजह से वह ग़ुस्सा दिखाने पर मजबूर हो जाए जो वह नहीं चाहता था। इस लिए उसने एक मंसूबा तैयार किया जो इस तरह थाः कुछ दरबारियों और पिट्ठुओं को लाया गया और उन सब को उस हॉल में चारों तरफ़ बिठा दिया गया जहां इमाम मुहम्मद बाक़िर अलैहिस्सलाम को लाया जाने वाला था, ख़ुद हेशाम बीच में बैठा और उसने कहा कि जब मुहम्मद बिन अली अंदर आएं तो तुम लोगों में से कोई भी उनकी इज़्ज़त करने के लिए खड़ा न हो और न ही उन्हें कोई बैठने की जगह दे ताकि वो मजबूरन खड़े रहें, तुम सब ख़ामोश रहना और मैं उन्हें बुरा भला कहना शुरु कर दूंगा। जब मेरी बात ख़त्म हो जाएगी तो तुम लोग भी एक एक करके उन्हें बुरा भला कहना और कुछ इस तरह से हर तरफ़ से उन्हें घेर लेना कि उन्हें कुछ बोलने या जवाब देने का मौक़ा ही न मिले।

अब अगर हेशाम अपने इस प्लान में कामयाब हो जाता तो सच में उसकी जीत होती क्योंकि उसने जान तो नहीं ली होती, जेल में भी नहीं डाला होता, बस दरबार में बुला कर इमाम को बेइज़्ज़त कर देता और फिर बेइज़्ज़त करके उन्हें वापस भेज देता। फिर सब को पता चल जाता क्योंकि दरबार में शायर लोग भी बैठे थे, वह सब इस घटना पर शेर कहते। कभी एक बार मैंने कहा था कि पुराने दौर के शायर आज के रिपोर्टरों की तरह होते थे, किसी भी घटना पर शेर कह कर उसे चारों तरफ़ फैला देतेः “अच्छा तो आप वही हैं जिन्हें हेशाम के दरबार में ख़लीफ़ा ने यह कहा था, वह कहा था और आप के पास कहने को कुछ नहीं था।” यह सब बातें कही जातीं और हर तरफ़ फैलायी जातीं, पूरी दुनिया को पता चल जाता, इराक़ में भी यह ख़बर फैल जाती और सब को पता चल जाता। इस तरह हेशाम का मक़सद पूरा हो जाता।

इमाम मुहम्मद बाक़िर अलैहिस्सलाम उस हॉल में दाख़िल हुए, वहां सब लोग पहले से ही तैयार थे। इमाम ने सब से पहला काम तो यह किया कि हेशाम को सलाम नहीं किया, उन्होंने सलाम तो किया क्योंकि सलाम मुस्तहब है, लेकिन हेशाम को नहीं किया बल्कि सब को सलाम किया और कहा कि अस्सलामो अलैकुम! जबकि तरीक़ा क्या था? तरीक़ा यह था कि जब ख़लीफ़ा बैठा हो वह भी इस तरह का ज़ालिम ख़लीफ़ा तो फिर जब आप उसके दरबार में पहुंचें तो सब से पहले उसे सलाम करें, जैसे ख़ास एहतेराम के साथ यह कहें कि सलामुन अलैकुम या अमीरलमोमेनीन! यह ख़लीफ़ा जो होते थे वह ख़ुद को अमीरुलमोमेनीन कहलवाना पसंद करते थे। लेकिन इमाम ने यह नहीं कहा, जब वो हॉल में दाख़िल हुए तो आप ने देखा कि कुछ लोग बैठे हुए हैं, ख़लीफ़ा कौन है, इस पर ध्यान ही नहीं दिया। उसके बाद जहां जगह मिली वहीं जाकर बैठ गये। ख़ुद इमाम मुहम्मद बाक़िर अलैहिस्सलाम और इसी तरह इमाम जाफ़रे सादिक़ अलैहिस्सलाम भी। उन्होंने इस बात का इंतेज़ार ही नहीं किया कि उनसे कहा जाएः “तशरीफ़ लाइये, यहां बैठिए, ऊपर बैठिए, नीचे बैठिए।” शायद ख़ुद हेशाम के क़रीब ही जगह ख़ाली थी जहां इमाम जाकर बैठ गये और इमाम जाफ़रे सादिक़ अलैहिस्सलाम भी उनके पास ही बैठ गये।

हेशाम ने इमाम मुहम्मद बाक़िर अलैहिस्सलाम को बुरा भला कहना शुरु कर दिया। “आप यह करते हैं, आप वह करते हैं, लोगों में झगड़े करवाते हैं।” उसकी जो बातें मुझे याद आ रही हैं वह यह थीं कि आप का पूरा घराना ही हमेशा मुसलमानों की एकता को नुक़सान पहुंचाता रहा है, आप लोग ख़ुद को बहुत बड़ा साबित करना चाहते हैं और ख़लीफ़ा बनना चाहते हैं। ख़ुद सब से ऊपर रहना चाहते हैं। आप लोग हमें इस तरह से नहीं देख सकते। हेशाम ने इसी तरह की बातें इमाम मुहम्मद बाक़िर अलैहिस्सलाम को सुनाना शुरु कर दीं। जब उसकी बातें ख़त्म हो गयीं तो दूसरों ने भी शुरु कर दिया। “जी हां! बादशाह सलामत ने सही कहा।” उस दौर का अमीरुलमोमेनीन वही बादशाह सलामत होता था, कोई फ़र्क़ नहीं है, कोई यह कह रहा था कि आप लोग ऐसे हैं, आप लोग वैसे हैं, कोई कुछ कहता कोई कुछ और। हेशाम की बातें ख़त्म हो गयी थीं तो उन लोगों के पास भी कहने को कुछ ख़ास नहीं था, वह सब भी अपनी अपनी बात कह कर चुप हो गये।

 

इमाम मुहम्मद बाक़िर अलैहिस्सलाम ने बहुत गंभीरता और सब्र व हौसले से उन सब की बातें सुनीं, उनके चेहरे पर नाराज़गी का कोई निशान नहीं था न ही माथे पर कोई सिलवट। उन्होंने बड़े सुकून से सब की बातें सुनीं। जब सब ने बोलना ख़त्म कर दिया तो इमाम मुहम्मद बाक़िर अलैहिस्सलाम अपनी जगह से उठे क्योंकि वह समझ गये थे कि बैठे रहने से कुछ नहीं होने वाला। उन सब का जवाब, खड़े होकर देना चाहिए, खड़े होकर उन्हें मुहतोड़ जवाब देना ज़रूरी है। इस लिए इमाम ने खड़े होकर ख़ुत्बा देना शुरु कर दिया, कुछ इस तरह से जैसे वो हेशाम या वहां बैठे चार दूसरे मामूली हैसियत के लोगों से नहीं बल्कि मानो इतिहास से बातें कर रहे हों, जैसे वो इस्लामी उम्मत के सामने तथ्यों को बयान कर रहे हों। आप देखें, उनकी वह तक़रीर और बयान, इतिहास में दर्ज हो गया, बाक़ी रहा और आज हम सब तक पहुंचा। पूरी इस्लामी तारीख़ में इस तक़रीर के अलफ़ाज़ बार बार दोहराए गये।

इमाम मुहम्मद बाक़िर अलैहिस्सलाम ने बिस्मिल्लाह और ख़ुदा की हम्द व सना से अपना ख़ुत्बा शुरु किया और फिर बेहद दिलचस्प अंदाज़ में अपनी बात इस तरह से रखीः “हे लोगो!” उन्होंने यह नहीं कहा कि “मौजूद लोगो! भाईयो! मोमिनो!” बल्कि कहा कि “हे लोगो!” जिसका मतलब साफ़ है कि वो वहां दरबार में बैठे कुछ गिनती के लोगों से मुख़ातिब नहीं थे। इमाम ने कहा, “तुम लोग कहां जा रहे हो? तुम्हें कहां ले जाया जा रहा है? तुम्हारी मंज़िल कहां है? क्या है? यह जो तुम्हारा सफ़र है कहां ख़त्म होने वाला है? तुम लोग कर क्या रहे हो?” इस तरह से इमाम उन लोगों की बौखलाहट सब के सामने ले आते है, यह साबित कर देते हैं कि वहां बैठे लोग, ग़ुलाम और कठपुतली हैं जिनका अपना कोई इरादा नहीं है, इमाम बहुत अच्छी तरह से यह साफ़ कर देते हैं कि वहां बैठे लोग कठपुतली और ख़िलाफ़त व ख़लीफ़ा के पिट्ठू हैं। इमाम कहते हैं कि ख़ुदा ने हमारे ज़रिए तुम्हारे बाप दादा को हिदायत से नवाज़ा है यानी आख़िर में हम ही रहेंगे और तुम सब चले जाओगे। आज अगर तुम्हारे हाथ में यह चार दिन की हड़पी हुई हुकूमत है तो जान लो अल्लाह ने हमारे लिए हमेशा रहने वाली एक हुकूमत रखी है।

ग़ौर कीजिए! यूं तो वो एक सियासी क़ैदी हैं, एक ऐसे सियासी क़ैदी जो वक़्त के बादशाह के सामने खड़े होकर इस तरह से उससे बहस कर रहे हैं और यह कह रहे हैं कि तुम चार दिनों से ज़्यादा इस तख़्त व ताज के मालिक नहीं हो और यह समझ बैठे हो कि सब कुछ तुम्हारे हाथ में है!? तुम सब चले जाओगे और जो चीज़ रह जाएगी, जिसकी तारीख़ बनेगी और जिसका भविष्य होगा वह हम हैं। क्योंकि हम दूसरी दुनिया और अंजाम के मालिक हैं। अल्लाह ने कहा ही है कि दूसरी दुनिया और अच्छा अजांम मोमिनों के लिए है। उन लोगों के लिए है जो तक़वा वाले हैं जो अल्लाह से डरते हैं। यानी हम तक़वा वाले हैं तुम लोग तक़वे से दूर हो, फ़ासिक़ व फ़ाजिर और बुरे काम करने वाले दीन से दूर लोग हो। दीन से दूर रहने वाले बुरे लोगों का तारीख़ में नाम व निशान मिट जाता है, वह ख़त्म हो जाते हैं लेकिन तक़वा रखने वाले और अल्लाह से डरने वाले हमेशा ज़िंदा रहते हैं।

इमाम मुहम्मद बाक़िर अलैहिस्सलाम के इस बयान की तफ़सीर किसी और वक़्त के लिए रख देते हैं क्योंकि पूरी तफ़सील बताने में काफ़ी वक़्त लग जाएगा। मैं यहां बस कुछ बातें ही बता सकता हूं। बहरहाल इमाम इस तरह का ख़ुत्बा देते हैं। इमाम मुहम्मद बाक़िर अलैहिस्सलाम जब ख़ुत्बा देते हैं तो जैसा कि पहले से ही उम्मीद थी, इमाम के ठोस बयान के आगे यह लोग बौखला जाते हैं और उनके हाथ पांव फूल जाते हैं। उनकी सारी हिम्मत और आत्मविश्वास ख़त्म हो जाता है। हेशाम घबराकर इमाम से कहता है किः मेरे चचेरे भाई आप नाराज़ न हों, हम आप का बुरा नहीं चाहते, इस तरह वह पीछे हट जाता है।

जैसाकि मैंने कहा इस मुलाक़ात के बारे में कई रवायतें हैं जिनमें एक रवायत में अब शायद वह यही रवायत हो या फिर कोई और रवायत, बहराल एक रवायत में कहा गया है कि हेशाम ने इस उम्मीद में कि अब वह किसी और तरीक़े से इमाम की बेइज़्ज़ती कर सकता है, उसने इमाम से कहा कि सुना है आप बहुत अच्छे निशानेबाज़ हैं और तीर बहुत अच्छा चलाते हैं, मेरा दिल चाहता है कि हम लोग थोड़ा तीर कमान चला लें और हम आप का निशाना भी देख लेंगे। इमाम मुहम्मद बाक़िर अलैहिस्सलाम कहते हैं कि मैं बूढ़ा हो चुका हूं, तीर कमान जवानी की बात है। इमाम यह नहीं कहते कि मुझे इन सब कामों में कोई दिलचस्पी नहीं है बल्कि कहते हैं कि हां जवानी के दौर में तीर व कमान चलाना सीखा है, मुझे तीर चलाना आता है लेकिन अब मैं बूढ़ा हो गया हूं। हेशाम, ज़िद करता है तो इमाम कहते हैं कि अच्छी बात है, कमान ले आओ। तीर व कमान लाया जाता है और एक निशान बनाया जाता है जिसके बाद इमाम कमान उठा कर तीर चलाते हैं जो सीधे जाकर निशाने पर लगता है। वह दूसरा तीर चलाते हैं तो वह पहले तीर को चीरता हुआ निशाने पर लगता है, तीसरा तीर मारते हैं तो वह दूसरे तीर को चीर देता है! इमाम सात तीर चलाते  और हर तीर पहले वाले तीर को चीरता हुआ निशाने पर लगता है। इमाम कहते हैं कि यह लो यह तीर चलाना भी देख लो।

एक और रवायत में कहा गया है कि इमाम मुहम्मद बाक़िर अलैहिस्सलाम को एक जेल में ले जाया गया था लेकिन दूसरी में है कि ऐसा नहीं हुआ था लेकिन उन्हें फिर मदीना भेज दिया जाता है और जब इमाम मदीना वापस जाते हैं तो हेशाम एक और साज़िश रचता है। वह यह सोचता है कि अब यह लोग यहां से जीत कर जा रहे हैं तो वापसी में यक़ीनी तौर पर हर शहर में तक़रीर करेंगे और कहेंगे कि हां हम गये थे, हेशाम को हरा दिया, उन सब को धूल चटा कर अब वापस जा रहे हैं, तो यह तो बहुत बुरा होगा। इस लिए वह इमाम से पहले ही कुछ लोगों को आगे आगे भेज देता है ताकि वे रास्ते में पड़ने वाले शहरों में अफ़वाह फैलाएं कि यह लोग यहूदी हैं और इन्हें रास्ता न दिया जाए। इस तरह से वे लोग रास्ते के हर शहर में जाते हैं और कहते हैं कि दो यहूदी यहां से गुज़रने वाले हैं, शहर के लोगो! ध्यान रखना, उन लोगों को खाना पीना न देना। आप सोचें! उस दौर में लोग इतने नासमझ थे कि इस तरह के प्रोपगंडे पर यक़ीन कर लेते हैं और यह समझ बैठते हैं कि मुहम्मद बिन अली और जाफ़र बिन मुहम्मद यहूदी हैं! इसी दौरान इमाम मदयन पहुंचते हैं जो उनके रास्ते में पड़ता था। शहर के लोगों से कहा गया था कि उन्हें खाना पीना न दिया जाए, इमाम वहां पहुंचे तो लोग उन्हें देख कर कहते हैं कि जी हां यह तो वही दो लोग हैं जिनका हुलिया बताया गया था अब यह लोग आ गये हैं, यह यहूदी हैं, लोग शहर का दरवाज़ा बंद कर लेते हैं और इमाम को खाना पीना कुछ नहीं देते।

आप को पता ही है कि उस दौर में रेस्टोरेंट, कार, हवाई जहाज़ तो थे नहीं, कई दिनों से वे रास्ते में थे, खाने पीने की चीज़ों की ज़रूरत थी, ख़ुराक चाहिए थी, खाना बहुत अहम था उन लोगों के लिए। तो अगर कोई खाना बेचने पर तैयार न होगा तो फिर इन्सान को रेगिस्तान में भूख प्यास से मर जाना होगा। इमाम मुहम्मद बाक़िर अलैहिस्सलाम उनसे खाना ख़रीदने की बहुत कोशिश करते हैं लेकिन वो देखते हैं कि इन लोगों की समझ में बात नहीं आ रही है और वे कुछ भी सुनने पर तैयार नहीं हैं। फिर इमाम अपने बेटे इमाम जाफ़र सादिक़ अलैहिस्सलाम के साथ शहर से बाहर एक टीले पर जाते हैं और मदयन के रहने वालों को मुख़ातिब करते हुए कहते हैं कि “हे मदयन के लोगो! अल्लाह की तरफ़ से जो जख़ीरा है वह तुम्हारे लिए भलाई है अगर तुम मोमिन हो।” (3) फिर कहते हैं कि “मैं अल्लाह की तरफ़ से बाक़ी रहने वाला ज़ख़ीरा हूं।” एक बूढ़ा आदमी भी वहां मौजूद था जब उसने यह सब देखा तो कहने लगा कि मैंने अपने बड़े बूढ़ों से हज़रत शोएब के बारे में कुछ बातें सुनी हैं, मैंने सुना है कि नबी शोएब अलैहिस्सलाम, इसी टीले पर और इसी पहाड़ी पर गये थे और लोगों से इसी तरह कहा था जिसका ज़िक्र क़ुरआन में है और मैं इस आदमी के चेहरे में हज़रत शोएब की तस्वीर देख रहा हूं। जाओ जाकर दरवाज़ा खोल दो वर्ना अल्लाह का अज़ाब आ जाएगा। लोग जाकर दरवाज़ा खोल देते हैं तो इमाम कहते हैं कि मैं पैग़म्बरे इस्लाम की औलाद हूं, लोग आप को पहचान जाते हैं और ख़लीफ़ा को बुरा भला कहने लगते हैं, उसके दरबार की इस हरकत से सब लोग काफ़ी नाराज़ होते हैं और हेशाम को ख़ूब बुरा भला कहते हैं और शायद आज के दौर की ज़बान में प्रोटेस्ट करते हैं। जब हेशाम को यह पता चलता है तो वह हुक्म देता है कि उस बूढ़े को पकड़ कर लाया जाए जिसकी वजह से यह सब हंगामा हुआ है। उस बूढ़े को सिपाही पकड़ कर ले जाते हैं। रावी का कहता है कि फिर उस बूढ़े के बारे में कुछ पता नहीं चला कि वह कहां गया, उसे ग़ायब कर दिया जाता है।

यह इमाम मुहम्मद बाक़िर अलैहिस्सलाम की सियासी ज़िंदगी की एक झलक है। इमाम ने अपनी इमामत के बेहद फ़ायदेमंद बीस बरसों में दीनी तालीम को आम किया, क़ुरआने मजीद की अच्छी बातों को, उसके सबक़ को हर कोने तक पहुंचाया, इस्लामी हुकूमत बनाने और अलवी विलायत के शिया नज़रिये को फैलाने के लिए लोगों को हर इलाक़े में भेजा और बहुत बड़ी तादाद को अपने से क़रीब किया, अपने दुश्मनों को धूल चटाई और दोस्तों और चाहने वालों को जमा किया और इस तरह से इस्लाम में ऐसी नींव रखी जो बाद में बड़े बड़े क़दमों की बुनियाद बनी और इमाम जाफ़र सादिक़ अलैहिस्सलाम की इमामत के लिए माहौल बना। आख़िरकार हेशाम से रहा न गया और उसने इमाम मुहम्मद बाक़िर अलैहिस्सलाम को ज़हर दे दिया।

अल्लाह हमें इस अज़ीम इमाम और अहलेबैत के चाहने वालों और उनकी राह पर चलने वालों में रखे।

वस्सलामो अलैकुम व रहमतुल्लाह व बरकातोहू

(1) अलइरशाद फ़ी मारेफ़ते होजजिल्लाह अललइबाद, जिल्द 2 पेज 163

(2) काफ़ी, जिल्द 1 पेज 471

(3) दलाएलुलइमामा, पेज 241 थोड़े से फ़र्क़ के साथ।

अमेरिकी मैगजीन हिल की वेबसाइट पर शहरज़ाद अहमदी का लिखा एक लेख प्रकाशित हुआ है जिसमें ईरान के राष्ट्रपति के हेलीकॉप्टर हादसे के बाद ईरान के राजनीतिक हालात को गंभीर बताने की कोशिश की गई है।

अमेरिकी मैगजीन हिल की वेबसाइट पर शहरज़ाद अहमदी का लिखा एक लेख प्रकाशित हुआ है जिसमें ईरान के राष्ट्रपति के हेलीकॉप्टर हादसे के बाद ईरान के राजनीतिक हालात को गंभीर बताने की कोशिश की गई है।''ईरान के चुनाव एक और सैन्य तख्तापलट को जन्म दे सकते हैं'' (Iran’s elections could give rise to another military coup) शीर्षक के तहत यह आर्टिकल हिल साइट पर प्रकाशित हुआ था।

लेखिका, शहरज़ाद अहमदी, सेंट थॉमस विश्वविद्यालय में इतिहास की एसोसिएट प्रोफेसर हैं, जो ईरान और इराक़ मामलों की माहिर हैं। वह ईरानी मूल की हैं और ईरान के खिलाफ अमेरिकी सरकार की सेवा में व्यस्त रहती हैं।

पार्सटुडे ने पत्रिका की इस रिपोर्ट के बारे में लिखा कि हम इस आर्टिकल की लेखिका और अमेरिकी पत्रिका द हिल (The Hill) के कुछ दावों पर एक नज़र डालते हैं।

यह आर्टिकल एक अजीब कल्पना के आधार पर शुरू होता है और अंत तक उसी कल्पना के आधार पर ही आगे बढ़ता रहता है: "इस्लामी गणतंत्र की स्थिरता, निश्चित रूप से सवालों के घेरे में है"। इस आर्टिकल की लेखक को लगता है कि यदि वह "निश्चित रूप से" शब्द का उपयोग करती हैं तो उपरोक्त अप्रामाणित आधार सिद्ध हो जाएगा।

हालांकि सभी साक्ष्यों और पुख़्ता सबूतों से संकेत मिलता है कि पिछली सरकार से वर्तमान सरकार को सत्ता का हस्तांतरण योजना के अनुसार और निश्चित रूप से ईरान के इस्लामी गणतंत्र के संविधान के आधार पर हुआ था जिसे कई दशक पहले ही मंज़ूरी मिल गयी थी।

लेख में एक अन्य स्थान पर कहा गया है कि इस्लामी गणतंत्र ईरान में अप्रत्याशित परिवर्तन हुए हैं क्योंकि अब व्यवस्था की समर्थक हस्तियां राष्ट्रपति की भूमिका के लिए प्रतिस्पर्धा कर रही हैं।

लेखक का यह दावा कि इस्लामी गणतंत्र में अप्रत्याशित परिवर्तन हुए हैं और वह इस दावे की वजह, राष्ट्रपति पद के लिए व्यवस्था के समर्थकों की प्रतिस्पर्धा क़रार दे रहे हैं।

हिल वेबसाइट पर आर्टिकल लिखने वाली शायद यह भूल गयीं कि किसी भी राजनीतिक व्यवस्था में चुनावी प्रतिद्वंद्वी वे लोग होते हैं जिन्होंने उस देश की राजनीतिक संरचना को स्वीकार किया हो और यह लोग उस देश के संविधान के तहत प्रतिस्पर्धा करते हैं।

दुनिया के कई हिस्सों में होने वाली गर्मागरम और तनावपूर्ण प्रतिस्पर्धा, किसी भी तरह से किसी भी राजनीतिक व्यवस्था के लिए स्थिति के आपातकालीन होने का संकेत नहीं देती।

हिल पत्रिका की लेखिका शहरज़ाद अहमदी के लेख के एक अन्य हिस्से में उन्होंने अमेरिका और ज़ायोनी शासन द्वारा मारे गए और शहीद हुए ईरानियों का ब्योरा, इस्लामी गणतंत्र के लिए मारे गये लोगों के रूप में की है और इन अपराधों में इस्राईली शासन और अमेरिका की भागीदारी का उल्लेख तक नहीं किया है।

एक क़ानूनी राजनीतिक व्यवस्था के प्रति एक लेखिका का इस प्रकार का रवैया, लेखिका और इस लेख को प्रकाशित करने वाली वेबसाइट की दुश्मनी और द्वेष को ज़ाहिर करता है।

क़ुद्स फ़ोर्स के कमांडर जनरल क़ासिम सुलेमानी, ब्रिगेडियर जनरल मुहम्मद रज़ा ज़ाहेदी और ब्रिगेडियर जनरल मोहम्मद हादी हाजी रहीमी, सीरिया में ईरानी सैन्य सलाहकार और ईरान के आठवें राष्ट्रपति शहीद सैयद इब्राहीम रईसी के नाम इस पक्षपातपूर्ण आर्टिकल में ज़िक्र किए गये हैं।

आर्टिकल में दावा किया गया है कि केवल एक प्रमुख सदस्य बचा है जो संभव है कि सभी चीज़ों को बचाए रखे वह हैं ईरान के सुप्रीम लीडर सैयद अली ख़ामेनेई।

किसी को हिल साइट की आर्टिकल लिखने वाली लेखिका से पूछना चाहिए कि जब एकमात्र बचे प्रमुख सदस्य वह स्वयं ही हैं तो हर कोई सुप्रीम लीडर को कैसे बचा सकता है? साथ ही, यह सवाल भी किया जा सकता है कि आखिरकार कैसे यही एक इंसान एक ईरानी सैन्य प्रमुख और कमांडर हैं और बाकी ईरानी सैन्य कमांडर, ईरानी राजनीतिक ढांचे के शेष प्रमुख सदस्य नहीं हैं?

आर्टिकल लिखने वाली लेखिका ने बचकानी भविष्यवाणी करते हुए दावा किया है कि इस्लामी गणतंत्र के मौजूदा नेता के बाद उनके बेटे सैयद मुजतबा ख़ामेनेई, ईरान के अगले सुप्रीम लीडर बनेंगे।

एक असंभव और ग़ैर मुमकिन दावा जिसके बारे में एक कहावत मशहूर है ख़याली पुलाव पकाना, यह सब चीज़ें ईरान में नेतृत्व चयन की संरचना और क्रांति के वरिष्ठ नेता के परिवार की राजनीतिक पोज़ीशन के बारे में लेखिका की कम जानकारी और अज्ञानता को दर्शाती हैं।

इस लेख के अंत में राष्ट्रपति सैयद इब्राहीम रईसी के अंतिम संस्कार और जनरल सुलेमानी के अंतिम संस्कार, जो कि 5 साल पहले हुआ था, की तुलना करके बताया गया है कि इस कार्यक्रम में कम लोगों ने भाग लिया था और लिखका के अनुसार, इससे पता चलता है कि इस्लामी गणतंत्र की सामाजिक पूंजी में कमी आई है।

मशहद जैसे कुछ शहरों में शहीद राष्ट्रपति सैयद इब्राहीम रईसी के अंतिम संस्कार में, जनरल क़ासिम सुलेमानी के अंतिम संस्कार की तुलना में अधिक भीड़ थी।

यह लेख एक विचारशील विश्लेषण से ज़्यादा एक व्यक्तिगत बयान बाज़ी और ईरान विरोधी अमेरिकी चरमपंथी आंदोलन की इच्छाओं और भ्रमों पर आधारित एक लेख है जिसे ईरान के भी की घटनाओं की सही ढंग से समझ ही नहीं है।

एक ऐसा आर्टिकल जो हर प्रकार तथ्यों या दस्तावेजों से कोसों दूर है और ईरान की इस्लामी गणतंत्र व्यवस्था के प्रति लेखिका और हिल पत्रिका की नफ़रत ज़ाहिर करने का एक हथकंडा है।

इस बात पर ध्यान दिया जाना चाहिए कि ईरान में 1953 का सैन्य तख्तापलट जिसे 28 मुर्दाद के तख्तापलट के रूप में जाना जाता है, अमेरिका और इंग्लैंड द्वारा ईरानी सेना में प्रभावशाली तत्वों का इस्तेमाल करके निर्वाचित प्रधानमंत्री मुहम्मद मुसद्दिक़ की सरकार को उखाड़ फेंकने और पश्चिम पर निर्भर मुहम्मद रज़ा शाह पहलवी को बचाने के लिए था।

इटली में G7 देशों का 50वां शिखर सम्मेलन शुरू हो चुका है। इस सम्मेलन में भाग लेने के लिए भारत समेत दुनिया के कई देश के प्रमुख इटली पहुँच चुके हैं। जी7 शिखर सम्मेलन को लेकर यूक्रेन के राष्ट्रपति जेलेंस्की ने दावा करते हुए कहा कि आज से शुरू हुआ जी7 शिखर सम्मेलन यूक्रेन, उसकी रक्षा और आर्थिक लचीलेपन को समर्पित होगा।

यूक्रेन के लिए सहायता और निर्णायक फैसलों की अपील करते हुए जेलेंस्की ने इटली की पीएम मलोनी और कनाडा के पीएम ट्रूडो के साथ से मुलाकात की। जेलेंक्सी ने एक्स पर एक पोस्ट में कहा कि वह विश्व के अन्य नेताओं और आईएमएफ के प्रबंध निदेशक के साथ भी बैठक करेंगे।