इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम के शुभ जन्म दिवस

Rate this item
(0 votes)
इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम के शुभ जन्म दिवस

इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम के जीवन में समाज के वंचित वर्ग के साथ मिल कर रहने का जो मानदंड है वह गरिमा का उसूल है।

इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम की नज़र में जो क़ुरआन का दृष्टिकोण है, हर व्यक्ति की गरिमा होती है जो ईश्वर की ओर से दी गयी है। इसलिए हर उस समाज में संबंध का आधार मानवीय प्रतिष्ठा होगी जो ईश्वरीय मूल्यों पर चलता हो। ऐसे समाज में मानवीय गरिमा व प्रतिष्ठा को नुक़सान पहुंचाने वाली चीज़ों का चलन नहीं होता।

 

11 ज़ीक़ादा पैग़म्बरे इस्लाम के परपौत्र इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम का शुभ जिन्म दिवस है। ईरान में 1 ज़ीक़ादा से 11 ज़ीकादा को दहे करामत अर्थात मानव गरिमा का दस दिन घोषित किया गया है।

मानवीय गरिमा व प्रतिष्ठा को इंसान की मूल विशेषताओं के रूप में अहमियत हासिल रही है और इस विशेषता पर इंसान के बारे में होने वाले अध्ययनों में विशेष रूप से ध्यान दिया गया है।

 

गरिमा इंसान के उच्च स्थान और अन्य प्राणियों से उसकी श्रेष्ठता को बयान करती है। हर धर्म, मत और मानव विज्ञान में इस विषेशता की विशेष आयाम से समीक्षा की गयी है।

मानवीय गरिमा व प्रतिष्ठा के विषय को इस्लामी क्रान्ति के संविधान में विशेष रूप से अहमियत दी गयी है। इसी प्रकार मानवीय गरिमा को इस्लाम के बुनियादी उसूलों जैसे एकेश्वरवाद, पैग़म्बरी और प्रलय जैसे मूल उसूलों के साथ बयान किया गया है।

 

ईरान में 1 से 11 ज़ीक़ादा के बीच के दिनों ने यह अवसर प्रदान किया कि पैग़म्बरे इस्लाम के पवित्र परिजनों के अनुयायी न सिर्फ़ ईरान बल्कि पूरी दुनिया में जहां कहीं भी हों, मानवीय गरिमा व प्रतिष्ठा के अर्थ और इस्लामी शिक्षाओं, संस्कृति और मुसलमान महापुरुषों के आचरण के ज़रिए इसे व्यवहारिक रूप से समझें। मानवीय गरिमा से परिचय इस्लामी व मानवीय संबंधों के आधार पर समाज की स्थापना के लिए  पृष्ठिभूमि है।

 

धार्मिक ग्रंथों पर ध्यान देने से यह बिन्दु स्पष्ट हो जाता है कि मानवीय गरिमा व प्रतिष्ठा का आधार एकेश्वरवाद पर गहरी आस्था और सभी इंसान में पैदाइश की दृष्टि से समानता होने पर टिका है। इंसान पैदाइशी सज्जनता के कारण अन्य प्राणियों पर श्रेष्ठता रखता है। दूसरा बिन्दु इस विशेषता की दृष्टि से सभी आदमी एक समान हैं क्योंकि सब इंसान को ईश्वर ने पैदा किया है और सबके सब ईश्वर के मोहताज हैं। क़ुरआनी शिक्षाओं के अनुसार, कोई भी इंसान इंसानियत की दृष्टि से किसी दूसरे इंसान से श्रेष्ठ नहीं है बल्कि ईश्वर के आदेश का पालन और उसका भय एक व्यक्ति की दूसरे व्यक्ति पर श्रेष्ठता का आधार है। जैसा कि पवित्र क़ुरआन के हुजरात सूरे की आयत नंबर 13 में ईश्वर कह रहा है, ईश्वर के निकट तुम में सबसे ज़्यादा सम्मानीय वह है जो उससे सबसे ज़्यादा डरता हो।

 

आस्था का यह आधार जिसे क़ुरआन ने बताया है, एक ओर जातीय भाषाई और मौंगोलिक अंतरों को नकारता है तो दूसरी ओर मानव समाज के एक एक व्यक्ति को उनके बीच विदित अंतर के बावजूद एक दूसरे से जोड़ता है और सुसंगत मानता है। इस दृष्टिकोण में मानवीय गरिमा तक पहुंचने का मार्ग ईश्वरीय आदेश के पालन और उससे डरने में निहित है। दूसरे शब्दों में गरिमा तक पहुंचने के लिए दुनिया में ईश्वर की परम सत्ता को मानना होगा और हर स्थिति में ईश्वर का पालन करना होगा। इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम के आचरण में यह विशेषता भलिभांति दिखाई देती है। इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम की नज़र में मानवीय गरिमा व प्रतिष्ठा को हासिल करने का एक रास्ता ईश्वरीय आदेश का पालन और उससे डरना है। इब्राहीम बिन अब्बास के हवाले से रवायत में है, “एक दिन एक व्यक्ति ने उनसे कहा, ईश्वर की सौगंध ज़मीन पर आपके बाप-दादाओं से ज़्यादा कोई सज्जन दिखाई नहीं देता। तो इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम ने कहा, ईश्वर के डर से उन्हें सज्जनता मिली।”

 

इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम दूसरों का सम्मान ख़ास तौर पर समाज के वंचित वर्ग का सम्मान करने पर विशेष रूप से ध्यान देते थे। इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम का एक नौकर उनके व्यवहार व आचरण के एक पहलू के बारे में कहता है, “जब भी इमाम को दिन चर्या से ख़ाली समय मिलता तो परिवार के सदस्यों और पास में रहने वालों को अपने पास बुलाते और उनके बात करते। जब भी दस्तरख़ान पर मौजूद होते तो छोटे-बड़े यहां तक कि नौकरों को भी दस्तरख़ान पर बुलाते थे।”

 

इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम के इससे भी श्रेष्ठ मानवीय आचरण की एक मिसाल यासिर नामक नौकर ने बयान की है। वह कहता है, “इमाम नौकरों व मज़दूरों से कहते थे कि अगर मैं तुम लोगों के पास इस स्थिति में पहुंचू कि तुम लोग खाना खा रहे हो तो खड़े मत होना यहां तक कि खाना समाप्त हो जाए।” अकसर ऐसा होता था कि इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम हममें से किसी को किसी काम के लिए बुलाते और हम कह देते थे कि खाना खा रहे हैं तो कहते थे उसे खाना ख़त्म करने दो।

 

इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम ने ऐसे दौर में परिवार के सदस्यों और अपने पास रहने वालों के साथ ऐसा व्यवहार अपनाया कि जब उस दौर में नैतिकता के मानदंड कुछ और थे। उस दौर के अज्ञानता के दौर में नौकरों और नौकरानियों को कोई अधिकार हासिल नहीं था और वे अपने स्वामियों के निकट होने का साहस नहीं कर सकते थे लेकिन इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम की दानशीलता के दस्तरख़ान पर सब नौकर बैठते थे और इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम उनसे प्रेमपूर्ण व्यवहार में कहते थे कि तुम लोग भी इंसान हो और तुम्हें भी मानवीय व नैतिक अधिकार हासिल है अगर ऐसा न हो तुम्हारे साथ भी अत्याचार हुआ है।

 

बल्ख़ का एक व्यक्ति इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम के ख़ुरासान के सफ़र में उनके साथ था और उनके इस व्यवहार को अपनी आंखों से देखता है। वह कहता है,“ख़ुरासान के सफ़र में इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम के साथ था। एक दिन उन्हें जब खाने की इच्छा हुयी तो उन्होंने सभी नौकरों को जिसमें अश्वेत भी थे और दूसरे लोगों को दस्तरख़ान पर बुलाया। मैंने कहा बेहतर होगा कि वे दूसरे दस्तरख़ान पर खाना खाएं। उन्होंने कहा, हम सबका पालनहार एक है। हमारी मां हव्वा और बाप आदम हैं और पुन्य कर्म पर निर्भर है।” 

 

जो चीज़ इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम के जीवन में समाज के वंचित वर्ग के साथ मिल कर रहने में मानदंड के रूप में दिखाई देती है वह गरिमा का उसूल है। इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम की नज़र में हर व्यक्ति को ईश्वर की ओर से विशेष स्थान हासिल है। इसलिए ईश्वरीय मूल्यों पर आधारित समाज में मानवीय गरिमा व प्रतिष्ठा संबंध का आधार बनती है और इस गरिमा को नुक़सान पहुंचाने वाली चीज़ों को छोड़ दिया जाता है। मिसाल के तौर पर मानवीय गरिमा को नुक़सान पहुंचाने वाला एक तत्व आज़ादी का छिन जाना है। इस संदर्भ में ज़करिया नामक एक व्यक्ति कहता है, “मैंने इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम से उस ग़ैर मुसलमान व्यक्ति के बारे में परामर्श मांगा जो भूख व निर्धनता के कारण अपने बेटे को मेरे पास लाया और उसने कहा, मेरा बेटा तुम्हारे अधिकार में है तुम खाना पानी दो और उसे ग़ुलाम बना लो।”

 

इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम ने कहा, “इंसान आज़ाद है। आज़ाद स्थिति में उसे ख़रीदा और बेचा नहीं जा सकता। यह काम करना तुम्हारे लिए उचित नहीं है।”

 

इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम की इस बात से मानवीय गरिमा व प्रतिष्ठा का पता चलता है। इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम की नज़र में इंसान आज़ाद है और उसकी आर्थिक ज़रूरतें उसे दूसरों का ग़ुलाम नहीं बना सकतीं और ईश्वर की ओर से उसे हासिल आज़ादी नहीं छीन सकती चाहे वह ग़ैर मुसलमान ही क्यों न हो। इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम का यह व्यवाहर ख़ास तौर पर समाज के वंचित वर्ग के लोगों के साथ ज़्यादा दिखाई देता है क्योंकि गरिमा पर आधारित नैतिकता से इंसान अपनी पहचान पाता है, अपने स्थान को पहचानता है और यही चीज़ व्यक्तिगत व सामाजिक गतिविधियों का स्रोत बनती है। इसके मुक़ाबले में लोगों के साथ अपमानजनक व्यवहार और उनके मानवीय स्थान को नज़रअंदाज़ करने के कारण आत्मसम्मान के ख़त्म होने सहित दूसरे नुक़सानदेह परिणाम सामने आते हैं।

 

इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम के आचरण में मानवीय गरिमा की रक्षा की एक और मिसाल दान-दक्षिणा के समय लोगों की इज़्ज़त की रक्षा है। मानवीय प्रतिष्ठा व आत्म-सम्मान पर आंच आने की एक स्थिति ऐसी होती है जब किसी व्यक्ति को ख़ास तौर पर खोतपीते व्यक्ति को विशेष स्थिति में दूसरों के पैसों की मदद की ज़रूरत पड़े। प्रायः ऐसे लोगों के लिए दूसरों से मदद मांगना बड़ा सख़्त होता है। यसअ बिन हम्ज़ा नामक व्यक्ति कहता है कि एक दिन बहुत लोगों के साथ इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम के पास बैठा मौजूद उनके बातचीत कर रहा था। लोग उनसे धार्मिक कर्तव्यों और धर्म में हलाल व वर्जित चीज़ों के बारे में सवाल कर रहे थे। इस बीच एक व्यक्ति पहुंचा। उसने सलाम करने के बाद इमाम से अपना परिचय कराया और कहा कि आपके अनुयाइयों में हूं। अपने घर से हज के लिए गया था और अब रास्ते का ख़र्च खो गया है। आपसे मदद चाहता हूं ताकि अपने शहर पहुंच सकूं और चूंकि सदक़ा नामक दान पाने का पात्र नहीं हूं अपने घर पहुंच कर आपकी ओर से मदद के पैसों को आपके नाम पर दान कर दूंगा। इस बीच इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम ने उसे ढारस बंधाई और उससे बैठने के लिए कहा। थोड़ी देर बाद सभा में सिर्फ़ तीन लोग मौजूद थे। इस बीच इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम दूसरे कमरे में गए। कुछ देर के बाद उन्होंने अपना हाथ दरवाज़े से बाहर निकाला और कहा, वह ख़ुरासानी व्यक्ति कहा है? उसने कहा मौजूद हूं। इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम ने कहा यह 200 दीनार ले लो, सफ़र सहित दूसरे ख़र्चे पूरे करना और मेरी तरफ़ से दान करने की ज़रूरत नहीं है। अब चले जाओ ताकि आमना-सामना न हो। मौजूद लोगों में से एक व्यक्ति ने पूछाः मैं आप पर क़ुर्बान जाऊं आपने उसके साथ भलाई की और बहुत ज़्यादा पैसे दिए। क्यों उसके सामने नहीं आए? इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम ने कहा, मुझे पसंद नहीं कि निवेदन करने की पीड़ा उसके चेहरे पर देखूं।

 

इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम के विचार व व्यवहार से पता चलता है कि इस्लामी महापुरुषों के निकट मानवीय गरिमा और इंसान का सम्मान कितनी अहमियत रखता है। कुल मिलाकर यह नतीजा निकाला जा सकता है कि इस्लामी शिक्षाओं में इंसान को सब प्राणियों में श्रेष्ठ बताया गया है। यह पैदाइशी गरिमा बहुत से इस्लामी आदेश व अधिकार का आधार है। इस्लामी संस्कृति में दूसरों के साथ मिल कर रहने का उसूल इंसान की गरिमा के मद्देनज़र बनाया गया है जिसकी मिसाल इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम के व्यवहार में दिखाई देती है।

 

Read 3005 times