इमाम मौ. तक़ी अलैहिस्सलाम

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इमाम मौ. तक़ी अलैहिस्सलाम

इमाम मुहम्मद तक़ी अलैहिस्सलाम का जन्म दस रजब सन १९५ हिजरी क़मरी को मदीना नगर में हुआ था। ज्ञान, शालीनता, वाकपटुता तथा अन्य मानवीय गुणों के कारण उनका व्यक्तित्व अन्य लोगों से भिन्न था.

ईश्वरीय दायित्व के उचित ढंग से निर्वाह के लिए पैग़म्बरे इस्लाम (स) के परिजनों में से प्रत्येक ने अपने काल में हर कार्य के लिए तार्किक और प्रशंसनीय नीति अपनाता था ताकि ईश्वरीय मार्गदर्शन जैसे अपने दायित्व का निर्वाह उचित ढंग से किया जा सके।

इन महापुरूषों के जीवन में ईश्वर पर केन्द्रियता उनका मूल मंत्र रही। इस प्रकार न्याय को लागू करने, ईश्वर के बिना किसी अन्य की दासता से मनुष्यों को मुक्ति दिलाने और व्यक्तिगत एवं समाजिक संबन्धों में सुधार जैसे विषयों पर उनका विशेष ध्यान था।

यद्यपि यह महापुरूष बहुत छोटे और सीमित कालखण्ड में ही सरकार के गठन में सफल रहे किंतु उनकी दृष्टि में न्याय को स्थापित करने, अधिकारों को दिलवाने, अन्याय को समाप्त करने और ईश्वर के धर्म को फैलाने जैसे कार्य के लिए सत्ता एक माध्यम है। क्योंकि यह महापुरूष अपनी करनी तथा कथनी में मानवता और नैतिक मूल्यों का उदाहरण थे अतः वे लोगों के हृदयों पर राज किया करते थे। रजब जैसे अनुकंपाओं वाले महीने की दसवीं तारीख़, पैग़म्बरे इस्लाम के एक परिजन के शुभ जन्मदिवस से सुसज्जित है।

आज के दिन पैग़म्बरे इस्लाम (स) के एसे परिजन का जन्म दिवस है जो दान-दक्षिणा के कारण जवाद के उपनाम से जाने जाते थे। जवाब का अर्थ होता है अतिदानी। इमाम मुहम्मद तक़ी अलैहिस्सलाम का जन्म दस रजब सन १९५ हिजरी क़मरी को मदीना नगर में हुआ था। ज्ञान, शालीनता, वाकपटुता तथा अन्य मानवीय गुणों के कारण उनका व्यक्तित्व अन्य लोगों से भिन्न था। वे बचपन से ही ज्ञान, तत्वदर्शिता, शालीनता और अन्य विशेषताओं में अद्वितीय थे।

इमाम मुहम्मद तक़ी के ईश्वरीय मार्गदर्शन के काल में अब्बासी शासन के दो शासक गुज़रे मामून और मोतसिम। क्योंकि अब्बासी शासक, इस्लामी शिक्षाओं को लागू करने में गंभीर नहीं थे और वे केवल "ज़वाहिर" को ही देखते थे अतः यह शासक, धर्म के नियमों में परिवर्तन करने और उसमें नई बातें डालने के लिए प्रयासरत रहते थे। इस प्रकार के व्यवहार के मुक़ाबले में इमाम जवाद (अ) की प्रतिक्रियाओं और उनके विरोध के कारण व्यापक प्रतिक्रियाएं हुईं और यही विषय, अब्बासी शासन की ओर से इमाम और उनके अनुयाइयों को पीडि़त किये जाने का कारण बना।

पैग़म्बरे इस्लाम के अन्य परिजनों की ही भांति इमाम मुहम्मद तक़ी अलैहिस्सलाम, अब्बासी शासकों के अत्याचारों और जनता को धोखा देने वाली उनकी कार्यवाहियों के मुक़ाबले में शांत नहीं बैठते और कठिनतम परिस्थितियों में भी जनता के समक्ष वास्तविकताओं को स्पष्ट किया करते थे। अत्याचार के मुक़ाबले में इमाम जवाद अलैहिस्सलाम की दृढ़ता और वीरता, साथ ही उनकी वाकपुटा कुछ इस प्रकार थी जिसको सहन करने की शक्ति अब्बासी शासकों में नहीं थी। यही कारण है कि इन दुष्टों ने मात्र २५ वर्ष की आयु में इमाम मुहम्मद तक़ी अलैहिस्सलाम को शहीद करवा दिया।इमाम जवाद अलैहिस्सलाम के महत्वपूर्ण सांस्कृतिक प्रयासों के आयामों में से एक, पैग़म्बरे इस्लाम (स) और उनके परिजनों के उन विश्वसनीय कथनों को प्रस्तुत करना और उन गूढ़ धार्मिक विषयों को पेश करना था जिनपर उन लोगों ने विभिन्न आयाम से प्रकाश डाला था।

इमाम जवाद अलैहिस्लाम एक ओर तो पैग़म्बरे इस्लाम और उनके परिजनों के कथनों का वर्णन करते हुए समाज में धर्म की जीवनदाई संस्कृति और धार्मिक शिक्षाओं को प्रचलित कर रहे थे तो दूसरी ओर समय की आवश्यकता के अनुसार तथा जनता की बौद्धिक एवं सांस्कृतिक क्षमता के अनुरूप विभिन्न विषयों पर भाषण दिया करते थे। ईश्वरीय आदेशों को लागू करने के लिए इमाम तक़ी अलैहिस्सलाम का एक उपाय या कार्य, पवित्र क़ुरआन और लोगों के बीच संपर्क स्थापित करना था।

उनका मानना था कि क़ुरआन की आयतों को समाज में प्रचलित किया जाए और मुसलमानों को अपनी कथनी-करनी और व्यवहार में पवित्र क़ुरआन और उसकी शिक्षाओं से लाभान्वित होना चाहिए। इमाम जवाद अलैहिस्सलाम ईश्वरीय इच्छा की प्राप्ति को लोक-परलोक में कल्याण की चाबी मानते थे। वे पवित्र क़ुरआन की शिक्षाओं के आधार पर इस बात पर बल दिया करते थे कि ईश्वर की प्रसन्नता हर वस्तु से सर्वोपरि है। ईश्वर सूरए तौबा की ७२वीं आयत में अपनी इच्छा को मोमिनों के लिए हर चीज़, यहां तक स्वर्ग से भी से बड़ा बताता है। इसी आधार पर इमाम नक़ी अलैहिस्सलाम लोगों से कहते थे कि वे केवल ईश्वर की प्रसन्नता प्राप्त करने के बारे में सोच-विचार करें और इस संदर्भ में वे अपने मार्गदर्शन प्रस्तुत करते थे। अपने मूल्यवान कथन में एक स्थान पर इमाम जवाद कहते हैं-तीन चीज़े ईश्वर की प्रसन्नता का कारण बनती हैं। पहले, ईश्वर से अधिक से अधिक प्रायश्यित करना दूसरे कृपालू होना और तीसरे अधिक दान देना।ईश्वरीय की ओर से मनुष्य को प्रदान की गई अनुकंपाओं में से एक अनुकंपा, प्रायश्यित अर्थात अपने पापों के प्रति ईश्वर से क्षमा मांगना है।

प्रायश्चित, ईश्वर के दासों के लिए ईश्वर की अनुकंपाओं के द्वार में से एक है। ईश्वर से पापों का प्रायश्चित करने से पिछले पाप मिट जाते हैं और इससे मनुष्य को इस बात का पुनः सुअवसर प्राप्त होता है कि वह विगत की क्षतिपूर्ति करते हुए उचित कार्य करे और अपनी आत्मा को पवित्र एवं कोमल बनाए। इसी तर्क के आधार पर मनुष्य को तौबा या प्रायश्चित करने में विलंब नहीं करना चाहिए क्योंकि इससे पछतावा ही हाथ आता है। इस्तेग़फ़ार का अर्थ है क्षमाचायना और पश्चाताप।

इससे तात्पर्य यह है कि मनुष्य ईश्वर से चाहता है कि वह उसके पापों को क्षमा कर दे और उसे अपनी कृपा का पात्र बनाए। इस संबन्ध में हज़रत अली अलैहिस्सलाम कहते हैं कि धरती पर ईश्वरीय प्रकोप से सुरक्षित रहने के केवल दो ही मार्ग थे। इन दोनों में से एक पैग़म्बरे इस्लाम का असितत्व था जो उनके स्वर्गवास के साथ हटा लिया गया किंतु दूसरा मार्ग प्रायश्यित है जो सबके लिए प्रलय के दिन तक मौजूद है अतः उससे लौ लगाओ और उसे पकड़ लो। प्रायश्चित, लोक-परलोक के उस प्रकोप को मनुष्य से दूर कर सकता है जो उसके बुरे कर्मों की स्वभाविक प्रतिक्रिया हैं इस प्रकार इमाम नक़ी के कथनानुसार मानव ईश्वर की प्रसन्नता प्राप्त कर सकता है। पवित्र क़ुरआन की आयतों की छाया में प्रायश्चित के महत्वपूर्ण प्रभावों में ईश्वरीय प्रकोप से सुरक्षित रहना, पापों का प्रायश्चित, आजीविका में वृद्धि, संपन्नता तथा आयु में वृद्धि की ओर संकेत किया जा सकता है।

इमाम जवाद के अनुसार शालीतना उन अन्य उपायों में से है जिसके माध्यम से ईश्वरीय प्रसन्नता प्राप्त की जा सकती है।उसके पश्चात दूसरे और तीसरे भाग में मनुष्य को लोगों के साथ संपर्क के ढंग से परिचित कराते हैं। दूसरे शब्दों में ईश्वर को प्रसन्न करने का मार्ग ईश्वर के बंदों और उनकी सेवा से गुज़रता है। इस संपर्क को विनम्रता और दयालुता के साथ होना चाहिए।

निश्चित रूप से विनम्र व्यवहार विनम्रता का कारण बनता है जो मानव को घमण्ड से दूर रखता है। घमण्ड, दूसरों पर अत्याचार का कारण होता है। इमाम जवाद अलैहिस्सलाम अपने भाषण के अन्तिम भाग में ईश्वर की प्रसन्नता प्राप्त करने के तीसरे कारण को दान-दक्षिणा के रूप में परिचित करवाते हैं। स्वयं वे इस मानवीय विशेषता के प्रतीक थे। इसी आधार पर उन्हें जवाद अर्थात अत्यधिक दानी के नाम से जाना जाता है। इमाम जवाद अलैहिस्सलाम लोगों को उस मार्ग का निमंत्रण देते थे जिसे उन्होंने स्वयं भी तय किया और उसके बहुत से प्रभावों को ईश्वर की कृपादृष्टि को आकृष्ट करने में अनुभव किया। दूसरों को सदक़ा या दान देने का उल्लेख पवित्र क़ुरआन में बहुत से स्थान पर ईश्वर की प्रार्थना अर्थात नमाज़ के साथ किया गया है। इस प्रकार इमाम तक़ी अलैहिस्सलाम यह समझाना चाहते हैं कि ईश्वर की उपासना के दो प्रमुख पंख हैं। इनमें से एक ईश्वर के साथ सही एवं विनम्रतापूर्ण संबन्ध और दूसरा लोगों के साथ मधुर एवं विनम्रतापूर्ण व्यवहार है। यह कार्य दान से ही संभव होता है जिससे व्यक्ति ईश्वर की इच्छा प्राप्त कर सकात है।

मनुष्य अपनी संपत्ति में से जिस मात्रा में भी चाहे ईश्वर के मार्ग में वंचितों को दान कर सकता है। यहां पर यह बात उल्लेखनीय है कि दान-दक्षिणा में संतुलन होना चाहिए। एसा न हो कि यह मनुष्य के लिए निर्धन्ता का कारण बने। दान और परोपकार हर स्थिति में विशेषकर धन-दौलत का दान उन कार्यों में से एक है जो मनुष्य को ईश्वर की प्रसन्नता की ओर बढ़ाता है। क्योंकि मनुष्य के पास जो कुछ है उसे वह ईश्वर के मार्ग में दान दे सकता है। इस प्रकार के लोग हर प्रकार के भौतिक लगाव को त्यागते हुए केवल ईश्वर की प्रशंसा की प्राप्ति चाहते हैं।इमाम मुहम्मद तक़ी अलैहिस्सलाम के एक कथन से इस लेख का अंत कर रहे हैं।

जैसा कि आप जानते हैं कि बहुत से लोग धन-दौलत, सत्ता, जातिवाद तथा इसी प्रकार की बातों को गर्व और महानता का कारण मानते हैं तथा जिन लोगों में यह चीज़ें नहीं पाई जातीं उन्हें वे तुच्छ समझते हैं किंतु इमाम जवाद अलैहिस्सलाम वास्तविक शालीनता का कारण उस ज्ञान को मानते हैं जो व्यक्ति के भीतर निखार का कारण बने। वे महानता को आध्यात्मिक विशेषताओं में से मानते हैं।

एक स्थान पर आप कहते हैं-वास्तविक सज्जन वह व्यक्ति है जो ज्ञान से सुसज्जित हो और वास्तविक महानता उसी के लिए है जो ईश्वरीय भय और ईश्वरीय पहचान के मार्ग को अपनाए।

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