इस्लाम में बाल अधिकार- 1

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इस्लाम में बाल अधिकार- 1

इस कार्यक्रम श्रंख्ला में इस्लाम की दृष्टि से बच्चों के अधिकारों की समीक्षा करेंगे।

साथ ही इस विषय की बाल अधिकार कन्वेन्शन सहित अंतर्राष्ट्रीय दस्तावेज़ों से तुलना, दोनों के बीच समानताएं, इस्लाम की अधिकार से संबंधित व्यवस्था और अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था में अंतर की समीक्षा करेंगे।

बच्चे समाज का वह समूह है जिसे सबसे ज़्यादा ख़तरा रहता है और सबसे पहले नाना प्रकार की मुसीबतों, दबावों और बड़ों के जीवन से पैदा हुयी मुश्किलों के निशाने पर होते और उसे झेलते हैं। पूरी दुनिया में दसियों लाख बच्चे अनाथ होने, जंग की वजह से विस्थापन की समस्या, प्राकृतिक आपदाएं, अनुचित आहार, प्रदूषण और उससे पैदा होने वाली बीमारियों, मां बाप के नशेड़ी होने, मां बाप के बीच तलाक़ से पैदा मुश्किलों की वजह से बहुत मुसीबतें सहन करते हैं या फिर बुरे लोगों के चंगुल में फंस जाते हैं जो उनका दुरुपयोग करते हुए उनसे मादक पदार्थ का वितरण या मजबूरी वाले काम करवाते या उनका यौन शोषण करते हैं। विकासशील देशों में बच्चों को कुपोषण, स्वास्थ्य सेवा, उपचार और शिक्षा सुविधा के अभाव का ज़्यादा सामना होता है लेकिन विकसित देशों में बच्चों को पारिवारिक बंधन के कमज़ोर होने और नैतिक बुराइयों का सामना है।

मनुष्य की परवरिश और विकास में बचपन का बहुत अहम रोल होता है। वास्तव में बच्चों के शारीरिक, मानसिक, भावनात्मक और सामाजिक विकास की बुनियाद बचपन के वर्षों में पड़ती है। इसलिए इस दौर पर ध्यान देना बहुत ज़रूरी है। इस काम के लिए बच्चों के लिए ऐसे क़ानून बनाए जाएं जो उनके लिए उचित हों और उनके जीवन को बेहतर बनाने के लिए कोशिश की जाए। बच्चे अपनी कम उम्र की वजह से कमज़ोर होते हैं इसलिए उन्हें बड़ों के समर्थन व देखभाल की ज़रूरत होती है। बच्चों के कमज़ोर होने की वजह से यह ज़रूरी है कि उनके समर्थन में क़ानून बनाकर और उन्हें ज़रूरी संरक्षण देकर उनके शारीरिक व मानसिक स्वास्थ्य का मार्ग प्रशस्त किया जाए। वास्तव में बच्चों के लिए विशेष क़ानून के गठन का आधार मनोविज्ञान का यह सिद्धांत है कि बच्चे न सिर्फ़ शारिरिक बल्कि मानसिक व भावनात्मक दृष्टि से बड़ों से अलग होते हैं और उनकी अपनी विशेष इच्छाएं व ज़रूरतें होती हैं, इसलिए अधिकार की दृष्टि से उन्हें विशेष क़ानून की ज़रूरत होती है जो बड़ों से अलग हो। इस्लाम ने इस विषय की अहमियत के मद्देनज़र बाल अधिकार के संबंध में बहुत ही मूल्यवान शिक्षाएं दी हैं जिनका हम इस कार्यक्रम श्रंख्ला में वर्णन और उनकी समीक्षा करेंगे। पहले हम बाल अधिकार का अर्थ, इसके इतिहास और इसके आधार पर चर्चा करेंगे।

बच्चा और नौजवान ऐसे शब्द हैं जिनकी व्याख्या की ज़रूरत है। बच्चे और नौजवान की परिभाषा इस तरह हो कि दोनों के बीच सीमा स्पष्ट रहे। इस संबंध में वयस्कता और उठान शब्दों की समीक्षा करेंगे। अलबत्ता आपको यह भी बताएंगे कि अंतर्राष्ट्रीय दस्तावेज़ों में बच्चा शब्द का क्या अर्थ लिया गया है। बाल अधिकार के संबंध में सबसे अहम अंतर्राष्ट्रीय दस्तावेज़ों में 1989 में पारित हुए बाल अधिकार कन्वेन्शन भी है जिसमें बच्चा शब्द को परिभाषित किया गया है। बाल अधिकार कन्वेन्शन के अनुच्छेद 1 में आया हैः"इस कन्वेन्शन की नज़र में 18 साल से कम उम्र वाला बच्चा है। बच्चों के बारे में लागू क़ानून के अनुसार, व्यस्कता की उम्र और कम निर्धारित होनी चाहिए।"

बाल अधिकार कन्वेन्शन के अनुच्छेद-1 के बारे में कुछ अहम बिन्दु हैः पहला बिन्दु यह है कि उक्त अनुच्छेद में बाल काल की समाप्ति का उल्लेख है जबकि इसके शुरु होने के बारे में कुछ नहीं कहा गया है। इस ख़ामोशी के दो अर्थ हो सकते हैं। एक यह कह सकते हैं कि चूंकि बचपन उस समय शुरु होता है जब बच्चा पैदा होता है, इसलिए इसके वर्णन की ज़रूरत नहीं है। दूसरे अर्थ के लिए पहले इस विषय का उल्लेख ज़रूरी है कि बाल अधिकार कन्वेन्शन के संकलन के समय बचपन शुरु होने के बारे में बहस मौजूद थी। पोलैंड की ओर से प्रस्तावित प्रारूप में आया थाः "इंसान के बच्चे का बचपन, उसके पैदा होने के क्षण से शुरु होता है।" कुछ लोग यह कह सकते हैं कि इस दृष्टिकोण को पेश करने के पीछे, पूर्वी योरोप में गर्भपात को सही ठहराने की भावना रही हो और इस वाक्य के ज़रिए वे नहीं चाहते थे कि बच्चे की पैदाइश से पहले बचपन के दौर के निर्धारण के ज़रिए गर्भपात की अनुमति के विषय पर प्रश्न चिन्ह लगे।

इसके मुक़ाबले में आयरलैंड, वेटिकन और लैटिन अमरीकी देशों का यह मानना था कि बचपन का दौर मां के गर्भाधारण होते ही शुरु हो जाता है। इस विषय की इस्लाम की दृष्टि से भी समीक्षा की जा सकती है। ऐसा लगता है कि बचपन की शुरुआत गर्भाधारण से शुरु हो जाती है। अमरीका में जिस समय यह स्पष्ट हो जाता है कि भ्रूण पैदा होने और बाक़ी रहने के योग्य है, उसी समय से बचपन का दौर शुरु हो जाता है।                

दृष्टिकोणों में अंतर इस बात का कारण कि बना संयुक्त राष्ट्र महासभा में बाल अधिकार कन्वेन्शन का पहला अनुच्छेद बचपन की शुरुआत के बारे ख़ामोश रहे। ऐसा लगता है कि बपचन की शुरुआत को देशों के अपने अपने आंतरिक क़ानून के अनुसार माना जाए। अलबत्ता यह बात कोई कह सकता है कि जब तक बच्चा पैदा नहीं हुआ, उस समय तक उस पर बच्चे का शब्द चरितार्थ नहीं हो सकता बल्कि जब बच्चे शब्द का इस्तेमाल होता है तो उससे मन में एक ऐसे इंसान की तस्वीर आती है जो मौजूद है न वह भ्रूण जिसके बारे में पता नहीं कि वह ज़िन्दा पैदा होगा या नहीं।

ऐसा लगता है कि अंतर्राष्ट्रीय समुदाय का विगत की तुलना में इस बारे में दृष्टिकोण कुछ बदल गया है क्योंकि 1959 में बाल अधिकार के घोषणापत्र की प्रस्तावना में आया हैः " बच्चे को शारीरिक व बौद्धिक दृष्टि से समर्थन, विशेष ध्यान और ख़ास तौर पर उसे पैदा होने से पहले और उसके बाद क़ानूनी समर्थन की ज़रूरत है..." लेकिन बाल अधिकार कन्वेन्शन में इस विषय की ओर कोई संकेत नहीं किया गया है।              

बाल अधिकार कन्वेन्शन के पहले अनुच्छेद में एक अहम बिन्दु यह हैः "सिवाए  यह कि बच्चे के बारे में व्यस्कता की उम्र कम निर्धारित हो।" इस वाक का अर्थ यह है कि कन्वेन्शन में बच्चे के बचपन के समय का निर्धारण हुआ है, इस बिन्दु की ओर भी ध्यान दिया गया है कि मुमकिन है कुछ देशों के आंतरिक क़ानून में बचपन के दौर के ख़त्म होने की अवधि अलग और 18 साल से कम हो। वास्तव में इस कन्वेन्शन में 18 साल से कम उम्र को एक तरह से आधिकारिक मान्यता दी गयी है।

दूसरी बात यह है कि इस कन्वेन्शन ने वयस्क ता और विकास को एक दूसरे से अलग नहीं किया है मानो वयस्क ता और उठान को एक माना है। अर्थात बच्चे के 18 साल होने पर उसे उसके सभी अधिकार को लागू करने के योग्य मानता और उसे स्वतंत्रता के साथ काम करने की इजाज़त देता है। अलबत्ता यह भी कहा जा सकता है कि कुछ देशों में ख़ास तौर पर ग़ैर इस्लामी देशों में बाल अधिकार और बाल अधिकार कन्वेन्शन की विषयवस्तु "उठान" को मद्देनज़र रख का निर्धारित की गयी है और उनके पास बचपन के दौर के ख़त्म होने के लिए वयस्कता जैसा कोई अर्थ नहीं है।

दूसरे दस्तावेज़ों में भी बच्चों की परिभाषा मिलती है। जैसा कि 1966 में संयुक्त राष्ट्र महासभा में पारित अंतर्राष्ट्रीय नागरिक व सामाजिक अधिकार प्रतिज्ञापत्र के अनुच्छेद 5 और 6 में मौत की सज़ा के बारे में आया हैः "18 साल से कम उम्र व्यक्ति के संबंध में मौत की सज़ा का हुक्म लागू नहीं होगा और गर्भवती औरत के बारे में भी लागू नहीं होगा।"    

कुछ दूसरे अंतर्राष्ट्रीय दस्तावेज़ भी हैं जिनमें बचपन के दौर के ख़त्म होने की उम्र का वर्णन मिलता है। जैसा कि 1962 में जनेवा में ग़ुलामी और ग़ुलाम बेचने पर रोक लगाने वाले पूरक समझौते की धारा 1 की चौथी उपधारा, बाल अधिकार कन्वेन्शन की धारा 2 और विश्व स्वास्थ्य संगठन के दृष्टिकोण के अनुसार बच्चा शब्द उसके लिए इस्तेमाल होगा जिसकी उम्र 18 साल से कम हो। बहरहाल अंतर्राष्ट्रीय दस्तावेज़ों से यह अर्थ निकलता है कि बचपन का दौर गुज़रने और वयस्कता शुरु होने के लिए कि जिसके नतीजे में व्यक्तिगत व सामाजिक ज़िम्मेदारी मिलती है, 18 साल की उम्र को मद्देनज़र रखा गया है और 18 साल को ही विकास की उम्र माना गया है।

 

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