इस्तांबोल विश्वविद्यालय के इतिहास के प्रोफेसर, ज़ायोनिज़्म ने यहूदी धर्म का शोषण किया है

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इस्तांबोल विश्वविद्यालय के इतिहास के प्रोफेसर, ज़ायोनिज़्म ने यहूदी धर्म का शोषण किया है

इस्तांबोल विश्वविद्यालय के इतिहास के प्रोफेसर ने कहा: ज़ायोनी, धर्म का शोषण करते हैं उन्होंने यहूदी धर्म को एक हथकंडे के रूप में इस्तेमाल किया है क्योंकि ज़ायोनिज़्म के शुरुआती नेता और संस्थापक अधिकतर नास्तिक, डाइस्ट या एग्नोस्टिसिज़्म हैं और किसी भी धर्म में विश्वास नहीं रखते हैं।

दूसरे शब्दों में ज़ायोनिज़्म एक फासीवादी विचारधारा है जिसने यहूदी धर्म का शोषण किया है।

इस्तांबोल में इतिहास के प्रोफेसर और पत्रकार इस्लाम ओज़कान ने हाल ही में ईरानी समाचार एजेंसी इकना से बात करते हुए धर्मों के इतिहास में बैतुल मुक़द्दस और फिलिस्तीन के महत्व का ज़िक्र किया और कहा: कुद्स या बैतुल मुक़द्दस के इतिहास को जानना बहुत महत्वपूर्ण है और इसका एक भाग धर्मों के इतिहास और पवित्र किताबों में ज़िक्र हुआ है।

दो हजार साल पहले के इतिहास का हवाला देकर इस्राईली ख़ुद को फ़िलिस्तीन की ज़मीन का मालिक बताते हैं।

हालांकि कुछ आधुनिक ज़ायोनी, इस तरह के इतिहास को स्वीकार नहीं करते हैं और इस्राईली शासन के जन्म को अपराधों और क़ब्ज़े का परिणाम मानते हैं लेकिन दुर्भाग्य से यही लोग इस्राईल के क़ब्ज़े की बात मानने के बावजूद, दूसरी ओर कहते हैं कि इस्राईली शासन को भी किसी भी दूसरे नाजायज़ बच्चे की तरह जीवन का तो अधिकार है ही, और इस प्रकार वे इस इलाक़े में इस्राईली शासन की उपस्थिति को उचित ठहराते हैं।

उन्होंने कहा:

फ़िलिस्तीन, मुसलमानों और यहूदियों के बीच कोई धार्मिक मुद्दा ही नहीं रह जाता है ताकि हम धर्मों के इतिहास के संदर्भ में इसकी जांच पड़ताल करें। आज फ़िलिस्तीन एक राजनीतिक मुद्दा है और यह एक ज़मीन पर क़ब्ज़ा करना और ज़मीन को हड़पना है। हालांकि क़ब्ज़ा करने वाले इसे एक धार्मिक मुद्दे के रूप में परिभाषित करने की कोशिश कर रहे हैं और फ़िलिस्तीन की धरती को वह वादा की हुई ज़मीन मानते हैं जिसका वादा ईश्वर ने यहूदियों से किया था।

इस सवाल के जवाब में कि फ़िलिस्तीन के मुद्दे का मानवाधिकार और न्याय के नज़रिए से किस तरह विश्लेषण किया जा सकता है? इस्लाम ओज़कान ने कहा: क़ानूनी नज़रिए से, फ़िलिस्तीन की ज़मीन पर अन्यायपूर्ण तरीक़े से क़ब्ज़ा कर लिया गया है।

मानवीय न्याय की नज़र से फ़िलिस्तीन के मूल निवासियों ने उस ज़मीन पर रहने का अधिकार खो दिया है और आक्रमणकारियों ने उनकी ज़मीन को अपनी मातृभूमि घोषित कर दिया है और यह मानवीय न्याय के ख़िलाफ़ है।

उन्होंने कहा: अगर हम इस मामले को अधिक मानवीय तरीक़े से देखें तो भी हमें कहना चाहिए कि हमारा दावा यह नहीं है कि बैतुल मुक़द्दस या क़ुद्स मुसलमानों का है बल्कि हम कहते हैं कि येरूशलम (क़ुद्स) फिलिस्तीनियों का है, चाहे वे मुस्लिम हों, यहूदी हों या ईसाई हों। और यही कहना सबसे बेहतर है कि क़ुद्स उन्हीं इंसानों का है।

यदि आज क़ब्ज़ा करने वाले इस हड़पी हुई ज़मीन से निकल जाएं जैसे ऑटोमन काल (उसमानी शासन काल) में हुआ था तो यहूदियों को भी यरूशलेम में रहने का अधिकार होगा और हर धर्म के मानने वाले अपने धर्म के अनुसार इबादत कर सकेंगे और ईसाई लोग भी पूरी स्वतंत्रता के साथ अपनी इबादतें अंजाम दे सकेंगे।

 

जैसा कि हमास भी फ़िलिस्तीन के बारे में बात करते समय कहता है: "क़ुद्स हमारा है, इसके चर्च, इसकी यहूदी इबादत गाहें और मस्जिदें हमारी हैं।"

क़ुद्स केवल मुसलमानों के लिए आरक्षित या विशेष नहीं है। क़ुद्स फ़िलिस्तीनियों का है, चाहे वे मुस्लिम हों, यहूदी हों या ईसाई हों।

जब भी हम फ़िलिस्तीन को आज़ाद करा लेंगे तो वहां सभी धर्म के मानने वाले आसानी से अपनी धार्मिक इबादतों को अंजाम दे सकेंगे, और किसी को भी उनके धर्म, विश्वास और आस्था की स्वतंत्रता में हस्तक्षेप करने का अधिकार नहीं होगा।

तुर्किए के इस विश्लेषक ने कहा: दूसरे शब्दों में, फ़िलिस्तीन एक ऐसा मुद्दा है और जो भी स्वतंत्रता विचार रखता है और उसमें इंसानियत ज़िंदा है उसको अहमियत देगा।

यहूदी धर्म के बारे में ज़ायोनियों के दृष्टिकोण का उल्लेख करते हुए उन्होंने कहा: इस प्रश्न का सबसे अच्छा जवाब जो मैं दे सकता हूं वह यह है कि ज़ायोनी वास्तव में धर्म का शोषण कर रहे हैं। उन्होंने यहूदी धर्म को एक हथकंडे के रूप में इस्तेमाल किया है क्योंकि ज़ायोनिज़्म के शुरुआती नेता और संस्थापक अधिकतर नास्तिक, डाइस्ट या एग्नोस्टिसिज़्म हैं और किसी भी धर्म में विश्वास नहीं रखते हैं।

आज, सेक्युलिरिज़्म और धर्मनिरपेक्ष होने के बावजूद, ज़ायोनी लगातार तौरैत से आयतों को दलील के तौर पर पेश करते हैं या तल्मूद का हवाला देते हैं, जिसका अर्थ है ज़ायोनी पाखंडी होते हैं और वे यहूदी धर्म की मान्यताओं का दुरुपयोग कर रहे हें, वे नस्लीय वर्चस्व चाहते हैं।

दूसरे शब्दों में, ज़ायोनी एक फांसीवादी विचारधारा है जिसने यहूदी धर्म का शोषण किया है।

यहूदियों के बारे में पवित्र क़ुरआन के नज़रिए के बारे में इक़ना के सवाल के जवाब में, इस्लाम ओज़कान ने कहा: "क़ुरआन उनकी नस्ल परस्ती के कारण यहूदियों की निंदा नहीं करता है बल्कि उनके धर्म से निकलने और ज़मीन परर भ्रष्टाचार फैलाने का कारण मानता है और इसकी कड़े शब्दों में निंदा भी करता है।

आप के लिए यह जानना भी बहुत दिलचस्प है कि सूरह अल-बक़रा की आयत 47 और 122 में अल्लाह कहता है:

यानी "हे बनी इस्राईल, मेरे उपकारों को याद करो जो मैंने तुम पर किए हैं, और मैंने तुम्हें दुनिया में सबसे बेहतर बनाया है" इस आयत में सर्वशक्तिमान ईश्वर उन उपकारों को याद कराना चाहता है जो उसने बनी इस्राईल को दिए हैं जबकि अन्य आयतों में इनमें से कुछ उपकारों और नेमतों को बयान भी किया गया है और दुनिया भर में बनी इस्राईल और यहूदियों की श्रेष्ठता को दर्शाया गया है लेकिन यह श्रेष्ठता उस समय से संबंधित है जब अहबार और भिक्षुओं ((أَحْبَارَهُمْ وَرُهْبَانَهُمْ (तौबा-31)  ने धर्म में फेर बदल नहीं किया था और नैतिक नियमों की उपेक्षा नहीं की थी।

क्योंकि क़ुरआन उनके बारे में सूरे अल-बक़रा की आयत संख्या 65 में कहता है: (فَقُلْنَا لَهُمْ کُونُوا قِرَدَةً خَاسِئِینَ) इसीलिए क़ुरआन न तो यहूदियों को उनकी नस्ल की वजह से विशेष बताता है और तारीफ़ करता है और न ही उनकी निंदा करता है बल्कि उनके कार्यों और व्यवहार के कारण उनकी निंदा करता है।

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