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फ़िलिस्तीन का समर्थन ईरान से दुश्मनी का असली कारण : हसन नसरल्लाह
लेबनान में हिज़्बुल्लाह के प्रमुख ने तेहरान द्वारा फ़िलिस्तीन के उत्पीड़ित लोगों के समर्थन को संयुक्त राज्य अमेरिका और ज़ायोनी सरकार की इस्लामी गणराज्य ईरान के प्रति शत्रुता का मुख्य कारण बताया है।
हमारे संवाददाता की रिपोर्ट के अनुसार, लेबनान में हिज़्बुल्लाह के प्रमुख सैय्यद हसन नसरल्लाह ने दहिया में अंतर्राष्ट्रीय क़ुद्स दिवस के अवसर पर अपने भाषण में क्षेत्र में ज़ायोनी सरकार की विफलता की ओर इशारा किया और कहा कि इस्लामी गणतंत्र ईरान अपनी स्थिति पर कायम है और कब्जाधारियों की तुलना में दृढ़ता का समर्थन करता रहा है।
सैय्यद हसन नसरल्लाह ने जोर देकर कहा कि अल-अक्सा तूफान ऑपरेशन क्षेत्र में एक मील का पत्थर है और ज़ायोनी सरकार के अस्तित्व को खतरे में डालता है, उन्होंने कहा कि गाजा युद्ध के छह महीने बाद भी, ज़ायोनी प्रधान मंत्री नेतन्याहू अपने किसी भी लक्ष्य में नहीं हैं। सफल नहीं हो सका.
सैय्यद हसन नसरल्लाह ने इस बात की ओर इशारा करते हुए कहा कि प्रतिरोध के मोर्चे ने ज़ायोनी शासन के खिलाफ युद्ध में एक बड़ी जीत हासिल की है, नेतन्याहू और उनके गठबंधन के पास गाजा में युद्ध को रोकने के अलावा कोई विकल्प नहीं है।
मैकडॉनल्ड्स ने कब्जे वाले इज़राइल से सभी फ्रेंचाइजी वापस ले लीं
मुस्लिम देशों में बहिष्कार से तंग आकर मैकडॉनल्ड्स ने कब्जे वाले फिलिस्तीनी क्षेत्रों में इजरायली कंपनी से अपनी सभी फ्रेंचाइजी वापस ले ली हैं।
शेयरों में गिरावट के बाद अमेरिकी फास्ट फूड कंपनी ने इजरायली फ्रेंचाइजी एलोनल से दो सौ पच्चीस रेस्तरां वापस ले लिए। अधिकांश अमेरिकी खाद्य श्रृंखला रेस्तरां स्थानीय स्वामित्व में हैं। एल्विनल द्वारा इजरायली सैनिकों को मुफ्त भोजन वितरित करने के बाद मध्य पूर्व में अमेरिकी रेस्तरां की बिक्री गिर गई।
पाकिस्तान, मलेशिया और इंडोनेशिया सहित विभिन्न मुस्लिम देशों में बहिष्कार के कारण अमेरिकी रेस्तरां की बिक्री प्रभावित हुई है। कंपनी ने जनवरी में घोषणा की थी कि वह पहली तिमाही के बिक्री लक्ष्य से चूक गई है।
संयुक्त राष्ट्र महासचिव का गाजा में तत्काल युद्धविराम पर जोर
संयुक्त राष्ट्र महासचिव ने एक बार फिर गाजा में संघर्ष विराम और इजरायली हमलों को खत्म करने की जरूरत पर जोर दिया है.
प्राप्त रिपोर्ट के अनुसार, संयुक्त राष्ट्र महासचिव एंटोनियो गुटेरेस ने एक बार फिर गाजा में युद्धविराम की आवश्यकता और इजरायली हमलों को समाप्त करने पर जोर दिया, लेकिन कब्जा करने वाली ज़ायोनी सरकार, अंतरराष्ट्रीय कानूनों और अंतरराष्ट्रीय मानकों पर क्रूर आक्रामकता और अमानवीय अपराध फ़िलिस्तीनी नागरिकों के ख़िलाफ़ निंदा की चिंता किए बिना जारी है।
आईआरएनए की रिपोर्ट के मुताबिक, संयुक्त राष्ट्र के महासचिव ने पिछले छह महीनों से गाजा के खिलाफ क्रूर आक्रामकता के बाद पत्रकारों से बातचीत में कहा है कि उन्होंने एक बार फिर गाजा में मानवीय युद्धविराम, इजरायली हमलों को समाप्त करने और सभी कैदियों की रिहाई, बिना शर्त रिहाई, नागरिकों की सुरक्षा और गाजा में निर्बाध मानवीय सहायता हस्तांतरण का आह्वान।
साम्राज्यवादी जल्लाद के ख़िलाफ़ पूरा ईरान फ़िलिस्तीन के रंग में रंग गया
रमज़ान महीने के आख़िरी जुमे और क़ुद्स विश्व दिवस के अवसर पर हर साल की तरह इस साल भी ईरान के सभी शहरों में फ़िलिस्तीन के समर्थन में विशाल रैलियों का आयोजन किया गया।
ग़ौरतलब है कि ईरान की इस्लामी क्रांति के संस्थापक इमाम ख़ुमैनी ने रमज़ान महीने के आख़िरी जुमे को क़ुद्स विश्व दिवस के रूप में मनाने की घोषणा की थी, ताकि विश्व भर के न्याय प्रेमी लोग ज़ायोनी शासन की जातिवादी नीतियों की निंदा कर सकें।
इस साल, क़ुद्स विश्व दिवस ऐसी स्थिति में मनाया गया, जब पिछले 6 महीने से ग़ज़ा के लोगों पर ज़ायोनी शासन ने ज़ुल्म का पहाड़ ढा रखा है। ग़ज़ा पर इस्राईल के बर्बर हमलों ने जहां 33,000 से ज़्यादा लोगों की जान ले ली है, वहीं पूरा ग़ज़ा तहस-नहस हो गया है और लोग भुखमरी का शिकार हैं। दुनिया भर में इस्राईल के अत्याचारों के ख़िलाफ़ नाराज़गी बढ़ती जा रही है और फ़िलिस्तीनियों के समर्थन में लगातार वृद्धि हो रही है।
पिछले 6 महीनों के दौरान, ग़ज़ा पट्टी में 33,000 से ज़्यादा फ़िलिस्तीनी शहीद हो चुके हैं, जिनमें अधिकांश संख्या बच्चों और महिलाओं की है, वहीं 75 से ज़्यादा लोग घायल हुए हैं।
ब्रिटिश साम्राज्यवाद ने एक साज़िश के तहत 1917 में अवैध ज़ायोनी शासन की बुनियाद रखने की साज़िश रची थी। इस साज़िश के तहत विभिन्न देशों से यहूदियों को लाकर फ़िलिस्तीन में बसाया गया और 1948 में ज़ायोनी शासन की स्थापना की घोषणा की गई। उसके बाद से पूरे फ़िलिस्तीन को हड़पने और फ़िलिस्तीनियों के जातीय सफ़ाए की साज़िश पर अमल हो रहा है।
सैकड़ों फिलिस्तीनी बच्चे इजरायली जेलों में कैद
फ़िलिस्तीनी प्रिज़नर्स क्लब ने अपनी रिपोर्ट में कहा है कि दो सौ फ़िलिस्तीनी बच्चे ज़ायोनी जेलों में कारावास की कठिनाइयाँ भुगत रहे हैं।
रॉयटर्स की एक रिपोर्ट के मुताबिक, फिलिस्तीनी प्रिज़नर्स क्लब ने घोषणा की है कि इजरायली जेलों में दो सौ फिलिस्तीनी बच्चे कैद हैं, जिनमें से तैंतीस बच्चे मजदो जेल में हैं. इस रिपोर्ट के अनुसार, 7 अक्टूबर को अल-अक्सा तूफान ऑपरेशन के बाद से पश्चिमी जॉर्डन से पांच सौ से अधिक बच्चों को गिरफ्तार किया गया है।
फ़िलिस्तीनी प्रिज़नर्स क्लब के बयान में कहा गया है कि इज़राइल दुनिया की एकमात्र सरकार है जिसकी अदालतों में हर साल 500 से 700 बच्चों पर मुकदमा चलाया जाता है।
फ़िलिस्तीनी प्रिज़नर्स क्लब ने पहले अपनी रिपोर्ट में घोषणा की थी कि अल-अक्सा ऑपरेशन के बाद से ज़ायोनी जेलों में फ़िलिस्तीनी कैदियों की संख्या में नाटकीय रूप से वृद्धि हुई है और उनकी संख्या 3,518 तक पहुँच गई है।
ईश्वरीय आतिथ्य- 26
रमज़ान के महीने में नमाज़ के बाद जिन दुआओं के पढ़ने की सिफ़ारिश की गई है, उनमें से एक दुआए फ़रज है।
यह दुआ हर ज़रूरतमंद के लिए है, चाहे वह किसी भी धर्म या जाति से संबंध रखता हो।
रमज़ान के महीने के बारे में पैग़म्बरे इस्लाम (स) ने फ़रमाया है, इस महीने में अपने ग़रीबों और निर्धनों को दान दो, अपने बड़ों का सम्मान करो और अपने छोटों पर दया करो, अपने रिश्तेदारों से मेल-मिलाप रखो, अपनी ज़बान को सुरक्षित रखो, अपनी आंखों से हराम चीज़ों पर नज़र नहीं डालो, हराम बात सुनने से बचो, दूसर लोगों के अनाथों के साथ मोहब्बत से पेश आओ, ताकि वे तुम्हारे अनाथों से मोहब्बत करें और ईश्वर से अपने पापों के लिए तौबा करो।
रमज़ान के महीने में ज़मीन पर ईश्वर की रहमत पहले से अधिक बरसती है। यह महीना प्यार, मोहब्बत, आशा और नेमत का महीना है। ईश्वर इस महीने में निर्धनों को प्रोत्साहित करता है, ताकि ऐसे मार्ग पर अग्रसर रहें, जिसके अंत में ईश्वर की प्रसन्नता और स्वर्ग हासिल हो। ऐसा मार्ग जिसपर हर कोई अकेले चलकर गंतव्य तक नहीं पहुंच सकता, लेकिन ईश्वर इस महीने के रोज़ों के ज़रिए सभी की सहायता करता है, चाहे वे गुनाह करने वाले हों या चाहे अच्छे लोग हों जो हमेशा ईश्वर का ज़िक्र करते हैं।
रोज़े से इंसान में निर्धन वर्ग से हमदर्दी का अहसास पैदा होता है। स्थायी भूख और प्यास से रोज़ा रखने वाले का स्नेह बढ़ जाता है और वह भूखों और ज़रूरतमंदों की स्थिति को अच्छी तरह समझता है। उसके जीवन में ऐसा मार्ग प्रशस्त हो जाता है, जहां कमज़ोर वर्ग के अधिकारों का हनन नहीं किया जाता है और पीड़ितों की अनदेखी नहीं की जाती है। इमाम जाफ़र सादिक़ (अ) से हेशाम बिन हकम ने रोज़ा वाजिब होने का कारण पूछा, इमाम ने फ़रमाया, रोज़ा इसलिए वाजिब है ताकि ग़रीब और अमीर के बीच बराबरी क़ायम की जा सके। इस तरह से अमीर भी भूख का स्वाद चख लेता है और ग़रीब को उसका अधिकार देता है, इसलिए कि अमीर आम तौर से अपनी इच्छाएं पूरी कर लेते हैं, ईश्वर चाहता है कि अपने बंदों के बीच समानता उत्पन्न करे और भूख एवं दर्द का स्वाद अमीरों को भी चखाए, ताकि वे कमज़ोरों और भूखों पर रहम करें।
रमज़ान में ईश्वर की अनुकंपा सबसे अधिक होती है। इस महीने में ऐसा दस्तरख़ान फैला हुआ होता है कि जिस पर ग़रीब और अमीर एक साथ बैठते हैं और सभी एक दूसरे की मुश्किलों के समाधान के लिए दुआ करते हैं। यह दुआ इंसानों में प्रेम जगाती है। इस महत्वपूर्ण एवं सुन्दर दुआ में हम पढ़ते हैं, हे ईश्वर, समस्त मुर्दों को शांति और ख़ुशी प्रदान कर। हे ईश्वर, समस्त ज़रूरतमंदों की ज़रूरतें पूरी कर। समस्त भूखों का पेट भर दे। दुनिया के समस्त निर्वस्त्रों के बदन ढांप दे। हे ईश्वर, सभी क़र्ज़दारों का क़र्ज़ अदा कर। हे ईश्वर, समस्त दुखियारों के दुख दूर कर दे। हे ईश्वर, समस्त परदेसियों को अपने देश वापस लौटा दे। हे ईश्वर, समस्त क़ैदियों को आज़ाद कर। हे ईश्वर, हमारी बुरी स्थिति को अच्छी स्थिति में बदल दे।
दुआए फ़रज पूर्ण रूप से एक सामाजिक दुआ है, जो हर जाति, रंग और धर्म के लोगों से संबंधित है। एक मुसलमान के लिए दूसरे मुसलमानों और ग़ैर मुस्लिम भाईयों की मदद में कोई अंतर नहीं है। मुसलमान अंहकार के ख़ोल से बाहर आ जाता है, इसलिए वह सभी का भला चाहता है। इसीलिए रमज़ान महीने की दुआ में कुल शब्द आया है, जिसका अर्थ है समस्त। हे ईश्वर समस्त ज़रूरतमंदों की ज़रूरत पूरी कर और समस्त भूखों का पेट भर दे। इस दुआ की व्यापकता इतनी अधिक है कि न केवल धरती पर मौजूद समस्त इंसानों के लिए है, बल्कि मुर्दे भी इसमें शामिल हैं और उनकी शांति के लिए प्रार्थना की गई है।
इस्लाम दान देने पर काफ़ी बल देता है, ताकि धन वितरण में संतुलन बन सके। दान उस समय अपने शिखर पर होता है, जब इंसान अपनी पसंदीदा चीज़ को दान करता है। कुछ लोगों का मानना है कि दूसरों की उस समय मदद करनी चाहिए जब उन्हें ख़ुद को ज़रूरत न हो। हालांकि वास्तविक भले लोगों के स्थान तक पहुंचने के लिए इंसान को अपनी पसंदीदा चीज़ों को दान में देना चाहिए। जैसा कि क़ुरान में उल्लेख है, तुम कदापि वास्तविक भलाई तक नहीं पहुंचोगे, जब तक कि जो चीज़ तुम्हें पसंद है उसे ईश्वर के मार्ग में न दे दो। इसका मतलब है कि आप दूसरों को ख़ुद से अधिक पसंद करते हैं और जो चीज़ आपको पसंद है वह उन्हें उपहार में दे देते हैं।
हज़रत फ़ातेमा ज़हरा अपने विवाह से ठीक पहले, शादी का अपना जोड़ा एक भिखारी को दान कर देती हैं, जब पैग़म्बरे इस्लाम (स) को इस बात की ख़बर मिली तो उन्होंने फ़रमाया, तुम्हारा नया जोड़ा कहां है? हज़रत फ़ातेमा ने फ़रमाया, मैंने वह भिखारी को दे दिया। पैग़म्बरे इस्लाम ने फ़रमाया, क्यों नहीं अपना कोई पुराना वस्त्र दे दिया? उन्होंने कहा, उस समय मुझे क़ुरान की यह आयत याद आ गई कि जो चीज़ तुम्हें पसंद है, उसे दान में दो, इसिलए मैंने भी अपना शादी का नया जोड़ा दान कर दिया। इस घटना से पता चलता है कि इस्लाम ग़रीबों की मदद पर कितना बल देता है। जैसा कि दुआए फ़रज में उल्लेख है कि हे ईश्वर, समस्त निर्वस्त्रों के शरीर वस्त्रों से ढांप दे।
दुआए फ़रज के एक भाग में आया है कि हे ईश्वर समस्त दुखियों के दुखों को दूर कर दे। ऐसा समाज जिसके नागरिक दुखी नहीं होते हैं, वह ख़ुशहाल और सुखी होता है और उसके सदस्य कभी भी नकारात्मक गतिविधियां अंजाम नहीं देते हैं, अव्यवस्था उत्पन्न नहीं करते हैं और अनैतिक कार्यों से बचे रहते हैं और हमेशा अपने और दूसरों के सुख के लिए कोशिश करते हैं। एक ख़ुशहाल समाज के लोग ईश्वर से अधिक निकट होते हैं। इसीलिए पैग़म्बरे इस्लाम ने फ़रमाया है, जिसने किसी मोमिन को ख़ुश किया उसने मुझे ख़ुश किया, जिसने मुझे ख़ुश किया उसने ईश्वर को ख़ुश किया। यहां ख़ुश करने से तात्पर्य ग़रीबों को भोजन देना और उनकी मदद करना है, सफ़र में रह जाने वाले मुसाफ़िर को उसके गंत्वय तक पहुंचाना, क़र्ज़ देना और लोगों की समस्याओं का समाधान करना है।
इस दुआ में स्नेह और कृपा के लिए मुस्लिम या ग़ैर मुस्लिम के बीच कोई अंतर नहीं रखा गया है। क़ुरान के सूरए इंसान में भी इस बिंदू को स्पष्ट रूप से बयान किया गया है। पैग़म्बरे इस्लाम, हज़रत अली, हज़रत फ़ातेमा, इमाम हसन और इमाम हुसैन एक दिन रोज़ा रखते हैं, लेकिन इफ़्तार के वक़्त दरवाज़े पर खड़े तीन फ़क़ीरों को अपना पूरा भोजन दे देते हैं। यह तीनों, फ़क़ीर अनाथ और क़ैदी होते हैं। उस ज़माने में मुसलमानों और काफ़िरों के बीच होने वाली लड़ाइयों के दौरान, वह व्यक्ति क़ैदी बना लिया जाता था, जो इस्लाम को नष्ट करने के प्रयास में था और युद्ध में पकड़ा जाता था। लेकिन पैग़म्बरे इस्लाम के परिजनों ने रोज़े में भूखा और प्यासा होने के बावजूद, अपना भोजन उन्हें दे दिया। यही कारण है कि समस्त क़ैदी और ज़रूरतमंद इस दुआ के पात्र हैं।
रमज़ान का महीना क़ुरान नाज़िल होने का महीना है। क़ुरान का प्रकाश इतनी शक्ति रखता है कि बुरी चीज़ों के मुक़ाबले में अच्छी चीज़ों को प्रकाशमय कर दे। अर्थात, अमानत को ख़यानत की जगह, मोहब्बत को नफ़रत की जगह, कृतज्ञता को कृतघ्नता की जगह, आशा को निराशा की जगह, निश्चिंतता को चापलूसी की जगह और कुल मिलाकर ईश्वर की प्रसन्नता को हवस की जगह क़रार देता है और हमारी बदहाली दूर कर देता है। बदहाली शैतानी एवं नकारात्मक विचार हैं, जिसे दूर करने के लिए कृपालु ईश्वर से दुआ करनी चाहिए, ताकि वह उसे अच्छी हालत में बदल दे। इसीलिए इस दुआ में उल्लेख है कि हे ईश्वर, हमारी बदहाली को अच्छी हालत में बदल दे।
यह दुआ, एक आदर्श समाज का उल्लेख करती है, जिसकी इंसान को हमेशा तलाश रही है। समस्त ईश्वरीय प्रतिनिधि और दूत इसी समाज का तानाबाना बुनने के लिए आए थे। अंतिम ईश्वरीय मुक्तिदाता की प्रतीक्षा करने वाला का मानना है कि इस दुआ में जो कुछ मांगा गया है, वह अंतिम ईश्वरीय मुक्तिदाता इमाम महदी अलैहिस्सलाम के शासनकाल में पूरा होगा। यह दुआ वास्तव में अंतिम मुक्तिदाता के प्रकट होने के लिए दुआ करना है।
बंदगी की बहार- 26
रमज़ान के पवित्र महीने की सब से महत्वपूर्ण रातें, क़द्र की रातें कही जाती हैं।
इन रातों में कुरआने मजीद उतरा, इन रातों में फरिश्तें ज़मीन पर उतरते हैं और इन्सान की क़िस्मत लिखी जाती है। क़द्र की रातों की यह विशेषताएं इस बात का कारण बनती हैं कि धर्म में आस्था रखने वाले लोग, इन रातों को जाग कर उपासना करें, अपने पापों की क्षमा मांगे और ईश्वर का गुणगान करें ताकि इस प्रकार से इन अत्याधिक बरकत वाली रातों से लाभ उठा सकें।
रमज़ान महीने के 26 दिन बीत जाने के बाद, इस महीने को विशेष बनाने वाली एक अन्य रात आती है। अर्थात 27 रमजान की रात। इस रात के बारे में बहुत सी हदीसें हैं और इस रात के विशेष संस्कार बताए गये हैं। 27 रमजन की रात में भी क़द्र ही महत्वपूर्ण रातों की ही भांति विशेष प्रकार की उपासनाएं और दुआएं हैं। सुन्नी मुसलमानों की किताबों के अनुसार रमज़ान की 27 की रात, क़द्र की रात हो सकती है यही वजह है कि सुन्नी मुसलमान, इस रात विशेष प्रकार की उपासना करते हैं और पूरी रात जाग कर दुआएं करते हैं।
क़ुरआने मजीद के सूरए क़द्र में, क़द्र की रात की विशेषताओं का उल्लेख किया गया है। इस मूल्यवान सूरे की पांच आयतें हैं जिनमें कहा गया है कि हमने क़ुरआन को क़द्र की रात में उतारा, और तुम्हें क्या पता कि क़द्र की रात क्या है? क़द्र की रात एक हज़ार महीने से बेहतर है। फरिश्ते और रूह, उस रात में पालनहार की अनुमति से हर चीज़ को निश्चित करने के लिए उतरते हैं, यह वह रात है जो सुबह तक सुरक्षा व शांति से भरी है। प्रसिद्ध धर्मगुरु और दार्शनिक, अल्लामा तबातबाई क़द्र सूरे की व्याख्या करते हुए लिखते हैंः क़द्र की रात को इस लिए क़द्र की रात कहा जाता है क्योंकि सभी ईश्वर के बंदों का भाग्य, इसी रात निर्धारित किया जाता है जिसका प्रमाण दुख़ान सूरे की वह आयत है जिसमें कहा गया है कि हमने इस स्पष्ट किताब को एक बरकत वाली रात में उतारा है, और हम हमेशा चेतावनी देने वाले रहे हैं, उस रात में कि जिस में सब कुछ ईश्वरीय निर्णय के अनुसार निर्धारित व व्यवस्थित होता है। वास्तव में क़द्र की रात इसी लिए बेहद महत्वपूर्ण हो जाती है क्योंकि इस रात मनुष्य की अजीविका सहित उसका सब कुछ तय किया जाता है और इसी लिए इस रात के लिए विशेष उपासनाओं और दुआओं की सिफारिश की गयी है।
सवाल यह है कि यदि क़द्र की रात में ही साल भर की इन्सान की क़िस्मत लिख दी जाती है तो क्या फिर मनुष्य को अधिकार नहीं रहता ? क्या वह अपनी इच्छा से कुछ नहीं कर सकता? इस प्रश्न के उत्तर में यह कहना चाहिए कि मनुष्य, अपनी बुद्धि की मदद और ईश्वरीय दूतों और ईश्वरीय किताबों के सहारे, सही मार्ग में क़दम आगे बढ़ा सकता है। मनुष्य अपनी बुद्धि और इच्छा की मदद से अपना रास्ता चुनता है। मनुष्य ही अपनी इच्छा से सही या गलत मार्ग चुनता है और इस तरह से वास्तव में वह अपने गंतव्य का भी निर्धारण कर लेता है।
अल्लामा तबातबाई क़द्र की रात इन्सान की क़िस्मत लिखे जाने की बात पर कहते हैं कि अगर यह कहा जाए कि क़द्र की रात इन्सान की क़िस्मत लिखी जाती है तो उससे मनुष्य के अधिकार पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता और न इसका मनुष्य की इच्छा और अधिकार से विरोधाभास है क्योंकि ईश्वरीय फैसला, फरिश्तों द्वारा, लोगों की योग्यता और संभावना के अनुसार लिखा जाता है जिसमें उनकी पवित्रता और ईश्वरीय भय तथा नीयत की भी भूमिका होती है। अर्थात, ईश्वर हर एक के लिए वही लिखता है जिसका वह योग्य होता है या दूसरे शब्दों में ईश्वर हर मनुष्य का भाग्य उसकी उस योग्यता के अनुसार लिखता है जो उसने स्वंय अपने भीतर पैदा की है। यह चीज़ न केवल यह कि मनुष्य के भले बुरे मार्ग के चयन के अधिकार से विरोधाभास नहीं रखती बल्कि उस पर अधिक बल देती है।
कहा जाता है कि क़द्र की रात, रमज़न के अंतिम दस दिनों में से किसी एक रात को हो सकती है किंतु अधिकांश लोगों का मानना है कि 23 वीं रात के कद्र की रात होने की अधिक संभावना है । वैसे 19 वीं और 21वीं रात को भी क़द्र की रात होने की संभावना है इस लिए इन तीनों रातों में विशेष प्रकार की उपासनाएं की जाती हैं। कद्र की रात को हज़ार महीनों से बेहतर इस लिए बताया गया है क्योंकि इस रात जो उपासना की जाती है उसका पुण्य हज़ार गुना अधिक होता है। इस रात की विशेषता को शिया और सुन्नी मुसलमानों की किताबों में विस्तार से बताया गया है। इसके अलावा जैसा कि हमने बताया है कि इसी रात कुरआने मजीद उतरा है।
क़द्र की रात में जागा जाता है और लोग पूरी रात जाग कर ईश्वर की उपासना करते हैं। कुछ रवायत में 27 की रात के क़द्र की रात होने की बात कही गयी है इस लिए इस रात भी विशेष उपासनाएं की जाती हैं दुनिया भर के मुसलमानों को " क़द्र की रात " के महत्व के बारे में पता है। यह पवित्र रमज़ान की विशेष रातें हैं जिन्हें शबे क़द्र कहा जाता है इस रातों ईश्वर की कृपा का चरम बिन्दु समझी जाती हैं। इन रातों में ईश्वर अपने बंदों पर विशेष कृपा करता है । वास्तव में ईश्वर ने क़द्र की रातों द्वारा बंदों को यह अवसर दिया है कि वे अपने सद्कर्मों को परिपूर्ण करे। यह रातें 21 से 23 रमज़ान में से कोई एक है लेकिन दोनों ही रातों को पूरी रात जाए कर उपासना करने पर बल दिया गया है। किंतु सुन्नी मुसलमानों के अनुसार 27 रमज़ान की रात भी शबे क़द्र हो सकती है। यही वजह है कि शबे कद्र में उपासना के पुण्य के लिए मुसलमान, 21 , 23 और 27 रमज़ान की रातों को विशेष प्रकार से उपासना करते हैं। इन रात की महानता का स्वंय ईश्वर ने क़द्र नामक सूरे में गुणगान करते हुए कहा है, "तुम क्या जानो शबे क़द्र क्या है।" इसके बाद ईश्वर ने इस रात को हज़ार महीनों से बेहतर बताया है और इस रात के शुरु होने से सुबह सवेरे तक की समयावधि को शांति व सुरक्षा का समय कहा है।
वरिष्ठ धर्मगुरु अल्लामा तबातबाई इस बारे में कहते हैं कि सुरक्षा व शांति का अर्थ यह है कि यह समय, विदित व छुपी हुई बलाओं से सुरक्षित है। इस आयत में कहा गया है कि यह समय ईश्वर की कृपा से विशेष है और उसकी कृपा का पात्र हर वह मनुष्य बनेगा जो उसकी ओर उन्मुख होगा। कुछ अन्य समीक्षकों का कहना है कि आयम में जो " सलाम " का शब्द प्रयोग किया गया है उसका यह अर्थ है कि क़द्र की रात में फरिश्ते जब भी उपासना में लीन किसी मनुष्य को पास से गुज़रते हैं तो उसे सलाम करते हैं । इसी प्रकार कुछ हदीसों में बताया गया है कि इस रात शैतान को ज़जीरों में बांध दिया जाता है और इसी लिए इस रात को कुरआने मजीद में शांत व सुरक्षित रात कहा गया है। इस लिए कितना अच्छा होता है कि दास इस रात अपने ईश्वर से निकट होता है अपने दिल की बात उसे बताता है और उसके सामने गिड़गिड़ा कर दुआ मांगता है।
19-21 और 23 रमाज़ान की रातों की ही भांति 27 रमज़ान की रात के लिए भी विशेष प्रकार की उपासनाओं का उल्लेख है । 27 रमज़ान की विशेष दुआ में कहा गया है कि हे ईश्वर! आजके दिन शबे क़द्र अर्थात महान रातों की अनुकंपाएं मुझे प्रदान कर, और मेरे लिए कठिन कामों को सरल बना दे और मेरी तौबा को स्वीकार कर ले, और मेरे पापों को झाड़ दे, हे अपने भले दासों के लिए कृपाशील ईश्वर! । प्रसिद्ध धर्मगुरु आयतुल्लाह मुजतहेदी तेहरानी इस दुआा के इस वाक्य " हे ईश्वर! आजके दिन शबे क़द्र अर्थात महान रातों की अनुकंपाएं मुझे प्रदान कर" का उल्लेख करते हुए कहते हैं कि इस दुआ की वजह से बहुत से लोगों का यह मानना है कि कद्र की रात, 27 वीं रमज़ान की रात ही है।
27 वें रमज़ान की रात के विशेष संस्कारों और उपासना के अलावा एक विशेष नमाज़ है जिसका उल्लेख इमाम अली अलैहिस्सलाम ने किया है और उसकी सिफारिश की है। इमाम अली अलैहिस्सलाम कहते हैं कि जो भी 27 वीं की रात को इस प्रकार से चार रकअत नमाज़ पढ़े कि सूरे हम्द और मुल्क को एक एक बार, और अगर सूरे तबारक याद न हो और उसे न पढ़ सके तो सूरे तौहीद को 25 बार पढ़े तो अल्लाह उसे और उसके माता पिता के पापों को माफ कर देता है।
इमाम ज़ैनुलआबेदीन अलैहिस्सलाम के बारे में बताया जाता है कि वे 27वीं रमज़ान की रात में सुबह तक यह दुआ पढ़ते थेः हे ईश्वर! मुझे, घमंड व धोखे के घर से दूरी और सदैव रहने वाले घर की ओर वापसी और मौत से पहले मौत की तैयारी का अवसर प्रदान कर। प्रोफेसर मेहदी तैयब, इमाम ज़ैनुलआबेदीन अलैहिस्सलाम की दुआ के इस भाग के बारे में जिसमें उन्होंने मौत से पहले मौत की तैयारी की बात की है, कहते हैं कि मौत का अर्थ संसार से संबंध का अंत है, मौत का मतलब यह होता है कि इस दुनिया और इस मायाजाल से वह निकल जाता है। इस लिए इमाम ज़ैनुलआबेदीन अलैहिस्सलाम यह दुआ करते हैं कि इस संबंध के अंत से पहले ही उसके लिए तैयारी का अवसर प्रदान करे। इस तरह से ज्ञानी लोगों की मौत निर्धारित होती है क्योंकि वह सदा उसका इंतेज़ार करते हैं और इस माया जाल में नहीं फंसते क्योंकि उन्हें मालूम है कि संसार का लुभावना रूप वास्तविक नहीं है बल्कि सब कुछ धोखा है इस लिए वह इस धोखेबाज़ प्रेमिका से दूर हो जाते हैं और मौत का इंतेज़ार करते हैं जो सदैव रहने वाले कल्याण का मार्ग है।
कार्यक्रम के अंत में हम भी ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि वह हमें भी इतना ज्ञान दे कि जिससे हम इस संसार की वास्तविकता को समझ सकें और उससे दूर होकर उस संसार के लिए तैयारी कर सकें जहां हमें हमेशा रहना है। क्योंकि यह संसार एक सराय है और हम यात्री हैं जो कुछ दिनों के लिए यहां रुक गए हैं । इस लिए इसे हमेशा का ठिकाना नहीं समझना चाहिए और उसके धोखे में नहीं आना चाहिए। रमज़ान के महीने में और रोज़े के दौरान मनुष्य यदि चिंतन करे तो इस प्रकार की बहुत सी वास्तविकताएं उसके सामने सरलता से उजागर हो जाती हैं।
माहे रमज़ान के छब्बीसवें दिन की दुआ (26)
माहे रमज़ानुल मुबारक की दुआ जो हज़रत रसूल अल्लाह स.ल.व.व.ने बयान फ़रमाया हैं।
أللّهُمَّ اجْعَلْ سَعْيي فيہ مَشكوراً وَذَنبي فيہ مَغفُوراً وَعَمَلي فيہ مَقبُولاً وَعَيْبي فيہ مَستوراً يا أسمَعَ السّامعينَ..
अल्लाह हुम्मज अल सअयी फ़ीहि मशकूरा, व ज़न-बी फ़ीहि मग़फ़ूरा, व अमली फ़ीहि मक़बूला, व ऐबी फ़ीहि मसतूरा, या अस-मअस्सामिईन (अल बलदुल अमीन, पेज 220, इब्राहिम बिन अली)
ख़ुदाया! इस महीने में मेरी कोशिशों को लाएक़े क़द्रदानी क़रार दे, मेरे गुनाहों को इस में क़ाबिले बख़्शिश क़रार दे, और मेरे अमल को क़ुबूल फ़रमा, और मेरे ऐबों को छुपा दे, ऐ सुनने वालों में सबसे ज़ियादा सुनने वाले...
अल्लाह हुम्मा स्वल्ले अला मुहम्मद व आले मुहम्मद व अज्जील फ़रजहुम...
क़ुद्स दिवस आख़िर क्या है? और क्यों मनाया जाता है?
क़ुद्स दिवस की तारीख़ समझने के लिए सबसे पहले हमें यह पता होना ज़रूरी है कि ईरान में सन 1979 में इस्लामी इन्क़लाब के रहबर हज़रत आयतुल्लाह इमाम ख़ुमैनी र.ह ने यह एलान किया था कि माहे रमज़ान के अलविदा जुमे को सारी दुनिया क़ुद्स दिवस की शक्ल में मनाएं।
दरअसल क़ुद्स का सीधा राब्ता मुसलमानों के क़िब्लए अव्वल बैतूल मुक़द्दस यानी मस्जिदे अक़्सा जो कि फ़िलिस्तीन में है, उसपर इस्राईल ने आज से 76 साल पहले (सन 1948) में नाजायज़ कब्ज़ा कर लिया था जो आज तक क़ायम है।
इस्लामी तारीख़ के मुताबिक़ ख़ानए काबा से पहले मस्जिदे अक़्सा ही मुसलमानों का क़िब्ला हुआ करती थी और सारी दुनिया के मुसलमान बैतूल मुक़द्दस की तरफ़ (चौदह साल तक) रुख़ करके नमाज़ पढ़ते थे, उसके बाद ख़ुदा के हुक्म से क़िब्ला बैतूल मुक़द्दस से बदलकर ख़ानए काबा कर दिया गया था जो अभी भी मौजूदा क़िब्ला है।
तारीख़ के मुताबिक़ मस्जिदे अक़्सा सिर्फ़ पहला क़िब्ला ही नहीं बल्कि कुछ और वजह से भी मुसलमानों के लिए ख़ास और अहम है। रसूले ख़ुदा (स) अपनी ज़िन्दगी में मस्जिदे अक़्सा तशरीफ़ ले गए थे और वही से आप मेराज पर गए थे। इसी तरह इमाम जाफ़र सादिक़ (अ) के हवाले से हदीस में मिलता है कि आप फ़रमाते है: मस्जिदे अक़्सा इस्लाम की एक बहुत अहम मस्जिद है और यहां पर नमाज़ और इबादत करने का बहुत सवाब है। बहुत ही अफ़सोस की बात है कि यह मस्जिद आज ज़ालिम यहूदियों के नाजायज़ क़ब्ज़े में है।
इस की शुरुवात सबसे पहले सन 1917 में हुई जब ब्रिटेन के तत्कालीन विदेश मंत्री जेम्स बिल्फौर ने फ़िलिस्तीन में एक यहूदी मुल्क़ बनाने की पेशकश रखी और कहा कि इस काम में लंदन पूरी तरह से मदद करेगा और उसके बाद हुआ भी यही कि धीरे धीरे दुनिया भर के यहूदियों को फ़िलिस्तीन पहुंचाया जाने लगा और बिलआख़िर 15 मई सन 1948 में इस्राईल को एक यहूदी देश की शक्ल में मंजूरी दे दी गई और दुनिया में पहली बार इस्राईल नाम का एक नजीस यहूदी मुल्क़ वजूद में आया।
इस के बाद इस्राईल और अरब मुल्क़ों के दरमियान बहुतसी जंगे हुई मगर अरब मुल्क़ हार गए और काफ़ी जान माल का नुक़सान हो जाने और अपनी राज गद्दियां बचाने के ख़ौफ़ से सारे अरब मुल्क़ ख़ामोश हो गए और उनकी ख़ामोशी को अरब मुल्क़ों की तरफ़ से हरी झंडी भी मान लिया गया। जब सारे अरब मुल्क़ थक हारकर अपने मफ़ाद के ख़ातिर ख़ामोश हो गए तो ऐसे हालात में फिर वह मुजाहिदे मर्दे मैदान खड़ा हुआ जिसे दुनिया रूहुल्लाह अल मूसवी, इमाम ख़ुमैनी के नाम से जानती है।
तक़रीबन सन 1979 में इमाम ख़ुमैनी साहब ने नाजायज़ इस्राईली हुकूमत के मुक़ाबले में बैतूल मुक़द्दस की आज़ादी के लिए माहे रमज़ान के आख़िरी अलविदा जुमे को *यौमे क़ुद्स* का नाम दिया और अपने अहम पैग़ाम में आप ने यह एलान किया और तक़रीबन सभी मुस्लिम और अरब हुकूमतों के साथ साथ पूरी दुनिया को इस्राईली फ़ित्ने के बारे में आगाह किया और सारी दुनिया के मुसलमानों से अपील की कि वह इस नाजायज़ क़ब्ज़े के ख़िलाफ़ आपस में एकजुट हो जाएं और हर साल रमज़ान के अलविदा जुमे को *यौमे क़ुद्स* मनाएं और मुसलमानों के इस्लामी क़ानूनों और उनके हुक़ूक़ के लिए अपनी आवाज़ बुलंद करें। जहां इमाम ख़ुमैनी ने *यौमे क़ुद्स* को इस्लाम के ज़िन्दा होने का दिन क़रार दिया वहीं आपके अलावा बहुत से और दीगर आयतुल्लाह और इस्लामी उलमा ने भी *यौमे क़ुद्स* को तमाम मुसलमानों की इस्लामी ज़िम्मेदारी क़रार दी।
लिहाज़ा सन 1979 में इमाम ख़ुमैनी साहब के इसी एलान के बाद से आज तक न सिर्फ़ भारत बल्कि सारी दुनिया के तमाम मुल्क़ों में जहां जहां भी मुसलमान, ख़ास तौर पर शीआ मुस्लिम रहते है, वह माहे रमज़ान के अलविदा जुमे को मस्जिदे अक़्सा और फ़िलिस्तीनियों की आज़ादी के लिए एहतजाज करते हैं और रैलियां निकालते हैं।
हमें यह भी मालूम होना चाहिए कि आज तक फ़िलिस्तीनी अपनी आज़ादी के लिए लड़ रहे हैं और जद्दोजहद कर रहे हैं और इस्राईल अपनी भरपूर ज़ालिम शैतानी ताक़त से उनको कुचलता आ रहा है, जब हम अपने घर में पुर सुकून होकर रोज़ा इफ़्तार करते हैं उस वक़्त उसी फ़िलिस्तीन में हज़ारों मुसलमान इस्राईली बमों का निशाना बनते हैं, उनकी इज़्ज़त और नामूस के साथ ज़ुल्म किया जाता है और यह सब आज तक जारी है और इस ज़ुल्म पर सारी दुनिया के मुमालिक ख़ामोश है, क्योंकि इस्राईल को अमरीका और लंदन का साथ मिला हुआ है।
इस साल भी दुनियाभर में नमाज़े जुमा और एहतजाजी रैलियां मुमकिन हो रही है इसलिए इस बार हमें चाहिए कि इस्राईल के ख़िलाफ़ और बैतूल मुक़द्दस के हक़ में अपनी आवाज़ को तमाम मस्जिदों से बुलंद करें और जहां तक जितना मुमकिन हो सके मोमिनीन को इस के बारे में बताएं और एतजाजी रैलियों का आयोजन करें।
अल्लाह मज़लूमों के हक़ में हम सब की दुआओं को क़ुबूल फ़रमाएं और ज़ालिमीन को निस्त व नाबूद करें... आमीन
क़ुद्स दिवस पर रैली क्यों ?
कुछ इस्लामी देश और हाकिम ऐसे हैं जिन्होंने फ़िलिस्तीन, क़ुद्स और बैतुल मुक़द्दस की आज़ादी के लिए न केवल यह कि आवाज़ नहीं उठाई बल्कि आपस में भेदभाव और नफ़रत फैला कर बैतुल मुक़द्दस पर क़ब्ज़ा करने वाले इस्राईल का साथ दे रहे हैं, इसलिए सोंचने और ध्यान देने का समय है और साथ मिल कर क़ुद्स डे पर समाज के इस कैंसर के विरुध्द आवाज़ उठाएं और बैतुल मुक़द्दस की आज़ादी में हिस्सेदार बनें।
जंग का विरोध
ग़ज़्ज़ा में होने वाले वहशी हमलों और वहां पर होने वाली जंग को रोकना इस रैली का सबसे अहम मक़सद है, वहां जंग में अधिकतर आम नागरिकों को शिकार बना कर उनके साथ वहशियाना सुलूक होता है और इस दरिंदगी को इंसानियत के नाते ख़त्म करना ज़रूरी है, क़ुद्स रैली में भाग लेना वहां पर होने वाली जंग और आम जनता के क़त्लेआम के ख़िलाफ़ अपनी नफ़रत को ज़ाहिर करना है।
आप ख़ुद सोंचे और फ़ैसला करें जिन लोगों के ज़ुल्म और अत्याचारों का हाल यह है कि वह घायल और ज़ख़्मी होने वाले आम नागरिकों तक पहुंचने वाली दवाईयों की गाड़ियां और उनके पनाह लेने वाली जगहों को बम से उड़ा देता हो क्या उसके ख़िलाफ़ आवाज़ उठाना इंसानियत के अलावा कुछ और है? इसी लिए इस रैली में भाग लेना ज़रूरी है ताकि ज़ालिमों के ज़ुल्म और उनकी दरिंदगी उनके अपराधों के ख़िलाफ़ आवाज़ उठा कर अमन, शांति और सुलह की मांग की जा सके।
इंसानियत की रक्षा
बेशक हम सभी इंसानी उसूलों के पाबंद हैं कि जिनमें सबसे अहम किसी भी परिस्तिथि में लोगों की जान को बचाना है, इंसानी जान की क़ीमत इनती ज़्यादा है कि शायद ही दुनिया में उसकी अहमियत के बराबर कुछ हो, और निहत्थे आम शहरियों की जान की हिफ़ाज़त को किसी भी जंग में वरीयता दी जाती है, न ही उनपर कोई हमला करता है न ही उनपर बम बरसाता है,
लेकिन आप निगाह उठा कर देख लीजिए फ़िलिस्तीन के शहरों पर चाहे ग़ज़्जा हो या रफ़ा, चाहे ख़ान यूनुस हो चाहे क़ुद्स, हर जगह के बच्चे और औरतें तक ज़ायोनी दरिंदों के शिकार हैं, कोई भी उनके हक़ के लिए आवाज़ उठाने वाला नहीं है, डेमोक्रासी और मानवाधिकार का झूठा दावा करने वालों से उनके भेदभाव के बारे में कोई आवाज़ उठाने वाला तक नहीं है। क़ुर्आनी तालीमात की रौशनी में इंसानियत की मदद और उनके अधिकारों की रक्षा के लिए आवाज़ उठाना और ज़ायोनी दरिंदों के ख़िलाफ़ फ़रियाद बुलंद करना करामत और बुज़ुर्गी कहलाता है।
मुसलमानों की रक्षा
इस्लाम ने मुसलमानों की रक्षा को वाजिब क़रार देने के साथ साथ इस्लामी सरहदों की रक्षा को भी ज़रूरी बताया है, वह भी ऐसे मुसलमान जो ग़ज़्ज़ा में पिछले लगभग 10 सालों ज़ायोनी दरिंदों के बीच घिरे हुए हैं जिनकी न कोई पनाहगाह है न कोई उनके हाल पर अफ़सोस करने वाला और उनकी दर्द भरी चीख़ों को आसमान के अलावा कोई सुनने वाला नहीं है, दीनी तालीमात की रौशनी उनकी मदद और उनकी फ़रियाद को सुनना हमारी ज़िम्मेदारी है,
इस्लाम की किसी मज़हब से कोई दुश्मनी नहीं है इस्लाम ज़ुल्म करने और ज़ुल्म के ख़िलाफ़ ख़ामोश रहने से मना करता है फिर चाहे ज़ुल्म करने और सहने वाला मुसलमान ही क्यों न हो क्योंकि इस्लाम जंग और युध्द का मज़हब नहीं है और जो इस्लाम के नाम पर ख़ून ख़राबा कर रहे हैं वह मुसलमान ही नहीं है, और अगर अरब के देश फ़िलिस्तीनियों की पीठ में छूरा न घोंपे तो फ़िलिस्तीन को किसी दूसरे की मदद की ज़रूरत भी नहीं होगी।
मज़लूमों का समर्थन
इस्लामी तालीमात में मज़लूमों के समर्थन पर काफ़ी ज़ोर दिया गया है, और मज़लूमों के समर्थन में आवाज़ उठाने के लिए सरहदें कभी रुकावट नहीं बनतीं, दुनिया के किसी भी कोने में किसी भी इंसान पर अगर ज़ुल्म हो रहा है तो उसके समर्थन और ज़ालिम के विरोध में आवाज़ उठाना एक ज़िंदा इंसान की पहचान है वरना हम में और जंगल में पास पास में उगे पेड़ों के बीच कोई फ़र्क़ नहीं रह जाएगा जैसे वह हैं तो पास पास लेकिन एक दूसरे के हाल चाल से बे ख़बर रहते हैं वैसे ही हमारा हाल होगा।
इंसाफ़ और सुलह की मांग
अगर हम सभी राजनीतिक पार्टियों की सुबह से शाम तक की कोशिशों के पीछे पाए जाने वाले कारण पर ध्यान दें और उसे एक जुमले में बयान करना चाहें तो वह यह होगा कि सभी राजनीतिक पार्टियां जिनमें थोड़ी भी इंसानियत पाई जाती है तो वह लोगों के बीच इंसाफ़ और न्याय प्रणाली को क़ायम करने की पूरी कोशिश करेगा, और यह बात किसी ख़ास जगह ख़ास लोगों या ख़ास विचारधारा से जुड़ें लोगों से विशेष नहीं है, और फ़िलिस्तीनियों की शुरू से आज तक यही कोशिश है कि उनके बीच अदालत इंसाफ़ और सुलह क़ायम हो सके।
जब से लोगों ने पूरी आज़ादी और अधिकार के साथ हमास को ग़ज़्ज़ा में सत्ता के लिए चुना तभी से इस्राईल ने ग़ज़्ज़ा को अपनी मिसाईलों और बमों का निशाना बनाते हुए वहां के मासूम बच्चों तक को अपनी हैवानियत को शिकार बनाया, और हद तो यह है कि अस्पताल में इलाज के लिए भर्ती ज़ख़्मी लोगों तक को अपनी दरिंदगी का शिकार बना रखा है। पिछले 10 सालों से इस्राईल हुकूमत ने हर तरह की हैवानियत और दरिंदगी को अपना लिया ताकि हमास को घुटने टेकने पर मजबूर कर सकें लेकिन हमास और कुछ उनके समर्थन करने वाले दूसरे जवान हैं जिनकी प्रतिरोध के आगे ख़ुद इस्राईल घुटने टेकने पर मजबूर दिखाई देता है।
आपसी इत्तेहाद और भाईचारे की अलामत
आज के इस दौर में जहां लोकल से लेकर इंटरनेशनल एजेंसियां लोगों को आपस में तोड़ने की कोशिश में दिन रात लगी हैं वहां कुछ ऐसे लोगों का होना बहुत ज़रूरी है जो एक साथ कंधे से कंधा मिला कर साम्राज्वादी शक्तियों को मुंह तोड़ जवाब देना चाहिए।
ध्यान रहे इस्राईल की दुश्मनी फ़िलिस्तीन या ग़ज़्ज़ा या हमास से नहीं है बल्कि यह दरिंदे हर उस आवाज़ को हमेशा के लिए दबा देना चाहते हैं जो आपसी भाईचारे और इत्तेहाद के पैग़ाम को फैला रही हो, दुश्मन जानता है पूरे इस्लामी जगत की निगाहें इसी क़ुद्स पर टिकी हुई हैं और इसी के नाम से सारे मुसलमान अपने अक़ीदती मतभेद भुला कर एक साथ अपने क़िबल-ए-अव्वल की आज़ादी के लिए सड़कों पर उतर आते हैं।
इस्राईल पिछले कई सालों से ग़ज़्ज़ा की नाकाबंदी और उस पर क़ब्ज़ा किए बैठा है और बैतुल मुक़द्दस पर तो 60 साल से ज़्यादा हो चुके हैं लेकिन अभी तक इतने सारे इस्लामी देश आपस में मिल कर उसे आज़ाद तक नहीं करा सके उसका कारण यही है कि अभी भी कुछ इस्लामी देश और हाकिम ऐसे हैं जिन्होंने फ़िलिस्तीन, क़ुद्स और बैतुल मुक़द्दस की आज़ादी के लिए न केवल यह कि आवाज़ नहीं उठाई बल्कि आपस में भेदभाव और नफ़रत फैला कर बैतुल मुक़द्दस पर क़ब्ज़ा करने वाले इस्राईल का साथ दे रहे हैं, इसलिए सोंचने और ध्यान देने का समय है और साथ मिल कर क़ुद्स डे पर समाज के इस कैंसर के विरुध्द आवाज़ उठाएं और बैतुल मुक़द्दस की आज़ादी में हिस्सेदार बनें।