رضوی

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इस तस्वीर में म्यांमार के राख़ीन प्रांत के सितवे में थेल चाउंग शरणार्थी कैंप में रोहिंग्या मुसलमान महिला और बच्चे दिखाई दे रहे हैं।

म्यांमार में लगभग 200 बौद्ध चरपमंथियों ने मुसलमानों के एक गांव पर हमला किया, जिसमें गांव में स्थित मस्जिद का एक भाग तबाह हो गया।

प्राप्त रिपोर्ट के अनुसार, केन्द्रीय म्यांमार के बागो प्रांत के थूये था मेन नामक गांव में यह घटना गुरुवार को उस समय घटी जब इस गांव में मुसलमानों के लिए एक स्कूल के निर्माण के विषय पर ग्रामवासियों के बीच बहस हो गयी।

इस गांव के प्रधान ला टिंट ने कहा कि हिंसा उस समय भड़की जब एक मुसलमान मर्द और एक बौद्ध महिला के बीच बहस शुरु हुयी और लोग उससे लड़ने के लिए आ गए।

इस हिंसा के कारण इस गांव में रहने वाले मुसलमान पुलिस स्टेशन में पनाह लेने पर मजबूर हुए।

 

ग्राम प्रधान ने बताया कि उपद्रवियों ने मुसलमानों के क़ब्रिस्तान की चहारदीवारी को भी ध्वस्त कर दिया।

ग्राम प्रधान ने बताया कि उपद्रवियों के कारण लगभग 70 मुसलमान मर्द, औरत और बच्चे पुलिस स्टेशन में शरण लेने पर मजबूर हुए। उन्होंने साथ ही यह भी कहा कि इस हिंसा में किसी व्यक्ति को गंभीर चोट नहीं आयी है और इलाक़े में शांति बहाल हो गयी है।

 

हालांकि इस गांव के एक स्थानीय मुसलमान निवासी का कहना है कि इस गांव में 150 लोगों पर आधारित मुसलमान समुदाय भय के माहौल में रह रहा है। टिन श्वे ऊ ने कहा कि हमें छिपना पड़ा क्योंकि कुछ लोग मुसलमानों को जान से मारने की धमकी दे रहे थे। टिन श्वे वू ने कहा, “इससे पहले ऐसे हालात कभी नहीं हुए। मुझमें अपने घर में रहने की हिम्मत नहीं है। अपने परिवार की सुरक्षा के लिए मैं एक दो हफ़्ते कहीं और रहना चाहता हूं।”

ज्ञात रहे हालिया हफ़्तों में म्यांमार में ख़ास तौर पर राख़ीन राज्य में बौद्ध चरमपिंयों के हमलों में बड़ी संख्या में रोहिंग्या मुसलमान हताहत जबकि हज़ारों बेघर हुए हैं।  

 

 

ईरान, भारत पाकिस्तान और अफ़ग़ानिस्तान के कवियों और साहित्यकारों ने इस्लामी क्रान्ति के वरिष्ठ नेता आयतुल्लाहिल उज़्मा सैयद अली ख़ामेनई से मुलाक़ात की।

इस मुलाक़ात में इस्लामी क्रान्ति के वरिष्ठ नेता ने समकालीन विषयों और मुद्दों से संबंधित शायरी किए जाने और उसके प्रचार की आवश्यकता पर बल देते हुए कहा कि अब अतीत की तुलना में फ़िलिस्तीन, यमन, बहरैन, पवित्र प्रतिरक्षा और शहीदों तथा शैख़ ज़कज़की के समान महान व साहिसी संघर्षकर्ताओं जैसे जीवंत विषयों के बारे में अधिक शेर कहे जा रहे हैं लेकिन खेद की बात है कि इन शेरों को ठीक प्रकार से प्रचारित नहीं किया जाता।

इस्लामी क्रान्ति के वरिष्ठ नेता ने कहा कि इस समय समय लड़ाई बाहरी वर्चस्व को रोकने के लिए है और इस मैदान में इच्छशक्ति का मुक़ाबला हो रहा है और इस मुक़ाबले में एक महत्वपूर्ण माध्यम शायरी भी है। इस्लामी क्रान्ति के वरिष्ठ नेता का यह बयान वास्तव में समकालीन विषयों और इतिहास को पेश करने में शेर की प्रभावी भूमिका का चिन्ह है। शेर अपने विशेष प्रवाह द्वारा बड़ी सूक्ष्मता और रोचकता के साथ विषयों की समीक्षा करता है और उसे सुनने वालों के मन मस्तिष्क में उतार देता है।

ईरान में शायरी का इतिहास बहुत पुराना है जबकि हालिया कुछ दशकों में इसका रुख़ समकालीन विषयों की ओर केन्द्रित रहा है। यह एक तथ्य है कि आज साफ़्ट वार जारी है जो हथियारों के बजाए विचारों और इरादों से लड़ी ज़ाती है और इस लड़ाई में शायरी की प्रभावी भूमिका हो सकती है।

इस समय पश्चिमी मीडिया प्रचारिक वातावरण पर छाया हुआ है। फ़िलिस्तीन, यमन बहरैन तथा अन्य क्षेत्रों में इंसान बेदर्दी से मारे जा रहे हैं यहां तक कि अमरीका और यूरोप के भीतर कालों पर खुले आम अत्याचार हो रहा है। शायरी के मध्यम से इन कड़वी सच्चाइयों को बयान किया जा सकता है। इस्लामी क्रान्ति के वरिष्ठ नेता का कहना है कि संयुक्त समग्र कार्य योजना के संबंध में अमरीका के उल्लंघनों और विश्वासघात को भी शेर के रूप में बयान किया जा सकता है।

 

ईरान की इस्लामी क्रांति के वरिष्ठ नेता आयतुल्लाहिल उज़मा सैय्यद अली ख़ामेनई ने सोमवार की रात इमाम हसन (अ) के शुभ जन्म दिवस के अवसर पर आयोजित समारोह में कहा कि परमाणु समझौते के बारे में अमरीका की ग़द्दारी से जनमत को अवगत करवाया जाना चाहिए।

समारोह में मौजूद ईरान, पाकिस्तान, भारत और अफ़ग़ानिस्तान के कवियों एवं साहित्यकारों को संबोधित करते हुए वरिष्ठ नेता ने कहा कि जेसीपीओए को लेकर अमरीका के छल-कपट के बारे में कवि जीवित कविताएं लिख सकते हैं।

उन्होंने कहा कि राजनीतिज्ञों के अलावा कलाकारों विशेष रूप से कवियों को इस वास्तविकता को जनता तक पहुंचाना चाहिए।

इस्लामी क्रांति के वरिष्ठ नेता का कहना था कि आज एक अन्य प्रकार की सॉफ़्ट वार एवं राजनीतिक तथा सांस्कृतिक लड़ाई जारी है, इस दौरान शायरी को प्रभावशाली ढंग से अपनी ज़िम्मेदारी अदा करनी चाहिए।

आयतुल्लाहिल उज़मा सैय्यद अली ख़ामेनई ने उल्लेख किया कि आज अतीत की तुलना में फ़िलिस्तीन, यमन, बहरैन, ईरान-इराक़ युद्ध, शहीदों और नाइजीरिया के बहादुर, दृढ़ संकल्पित एवं पीड़ित शेख़ ज़कज़की जैसे वीरों के बारे में जीवित एवं विशिष्ट शेर लिखे जा रहे हैं, लेकिन दुर्भाग्यवश इन प्रभावशाली शेरों का अच्छी तरह प्रचार नहीं किया जा रहा है और इस संबंध में लापरवाही से काम लिया जा रहा है।  

 

इस्लमाी क्रांति के वरिष्ठ नेता ने क्रांति के उच्च लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए यूनिवर्सिटियों को उस मिशन का आधार बताया है।

वरिष्ठ नेता आयतुल्लाहिल उज़मा सैयद अली ख़ामेनई ने शनिवार की शाम कुछ छात्रों, शिक्षकों और प्रोफेसरों से भेंट में कहा कि शिक्षा केन्द्रों और विश्वविद्यालयों में वैज्ञानिक विकास में तेज़ी, युवाओं में गौरवशाली इस्लामी-ईरानी पहचान का सशक्तिकरण, और युनिवर्सिटियों और छात्रों में क्रांतिकारी भावना, इस्लामी व्यवस्था को एक बड़ी वैज्ञानिक शक्ति और इस्लामी प्रजातंत्र के आदर्श में बदलने के लिए ज़रूरी शर्तों में से है।

 

वरिष्ठ नेता ने यह सवाल करते हुए कि बीस साल के बाद के ईरान को आप लोग कैसा देखते हैं? कहा कि अगर आप की नज़र में भावी ईरान, शक्तिशाली, सम्मानीय, स्वाधीन, धार्मिक, धनी, न्याय से परिपूर्ण, प्रजातांत्रिक, पवित्र, संघर्ष से भरा, हमदर्द और पवित्र है तो फिर यह ज़रूरी है कि युनिवर्सिटियां इन गुणों से सुसज्जित हों जहां प्रतिबद्ध और धर्मपरायण युवा पीढ़ी का प्रशिक्षण हो।

वरिष्ठ नेता ने छात्रों में ईरानी- इस्लामी पहचान को मज़बूत बनाने में शिक्षकों की भूमिका का उल्लेख किया और कहा कि शिक्षक, एरो स्पेस, नेनो, परमाणु, चिकित्सा व जीव विज्ञान जैसे क्षेत्रों में देश की प्रगति का उल्लेख करके छात्रों में अपनी पहचान को मज़बूत बना सकते हैं।

उन्होंने कहा कि हालांकि वैज्ञानिक तरक्क़ी के क्षेत्र में हम एतिहासिक पिछड़ेपन का शिकार हैं लेकिन देश के योग्य युवाओं के संघर्ष व प्रयासों से हम इस पिछड़ेपन को दूर कर सकते हैं।

 वरिष्ठ नेता आयतुल्लाहिल उज़मा सैयद अली ख़ामेनई ने कहा कि युनिवर्सिटियों में अलग-अलग राजनीतिक रुझानों से कोई समस्या नहीं है किंतु युनिवर्सिटियों के ज़िम्मेदारों और संबंधित मंत्रालयों के पदाधिकारियों को हमेशा युनिवर्सिटियों को इस्लामी क्रांति के उच्च लक्ष्यों की राह में आगे बढ़ाने वाले की भूमिका निभानी चाहिए और किसी को भी यह अधिकार नहीं है कि वह क्रांति विरोधी भावनाओं का पोषण करें।  

 

ज़ायोनी शासन के परिवहन मंत्री ने लेबनान के हिज़्बुल्लाह संगठन की सैन्य क्षमता को स्वीकार किया है।

यिस्राईल काट्ज़ ने अतिग्रहित फ़िलिस्तीन में एक कान्फ़्रेंस में कहा कि हिज़्बुल्लाह, इस्राईल के आंतरिक मोर्चे, उसके मूलभूत ढांचे, हवाई अड्डों, बंदरगाहों और ऊर्जा स्रोतों को भारी क्षति पहुंचाने में सक्षम है। उन्होंने कहा कि इस्राईल, हिज़्बुल्लाह के साथ लम्बी लड़ाई नहीं लड़ सकता अतः युद्ध का समय कम करने और आंतरिक मोर्चे की क्षति को रोकने के लिए उसे लेबनान में हर लक्ष्य पर व्यापक रूप से हमला करना होगा।

ज़ायोनी शासन के विपक्षी नेता इस्हाक़ हर्टज़ोग ने भी लेबनान के हिज़्बुल्लाह संगठन से युद्ध निकट होने संबंधी कुछ इस्राईली नेताओं के बयानों की ओर संकेत करते हुए कहा है कि युद्ध कोई खेल नहीं है और कुछ लोगों को ग़ैर ज़िम्मेदाराना रवैया अपना कर बिना सोचे-समझे फ़ैसला नहीं करना चाहिए। ज्ञात रहे कि लेबनान के हिज़्बुल्लाह संगठन ने ज़ायोनी शासन को कई बार चेतावनी दी है कि अगर उसने एक बार फिर लेबनान पर हमला किया तो उसे अधिक बड़ी पराजय का सामना करना पड़ेगा।  

 

इस्लामी क्रांति के वरिष्ठ नेता ने कहा है कि अगर अमरीका जेसीपीओए को फाड़े तो इस्लामी गणतंत्र ईरान उसे आग लगा देगा।

आयतुल्लाहिल उज़मा सैयद अली ख़ामेनेई ने बुधवार की शाम ईरान की तीनों पालिकाओं के प्रमुखों, वरिष्ठ सैन्य अधिकारियों और विभिन्न विभागों के उच्चाधिकारियों से मुलाक़ात में इस बात का उल्लेख करते हुए कि ईरान, संयुक्त समग्र कार्य योजना (जेसीपीओए) का उल्लंघन नहीं करेगा, कहा कि अमरीका में राष्ट्रपति चुनाव के प्रत्याशी धमकी दे रहे हैं कि वे इस समझौते को फाड़ देंगे और अगर वे एेसा करेंगे तो ईरान उसे आग लगा देगा। उन्होंने कहा कि जेसीपीओए में दूसरे पक्ष का दायित्व प्रतिबंधों की समाप्ति था और उसने अभी तक प्रतिबंध समाप्त नहीं किए हैं, बैंकों की समस्या अभी तक हल नहीं हुई है, तेल वाहक जहाज़ों का इन्शोरेंस बहुत सीमित पैमाने पर हो रहा है और अन्य देशों में ईरान का पैसा और तेल की राशि उसे नहीं दी जा रही है।

आयतुल्लाहिल उज़मा ख़ामेनेई ने कहा कि अमरीकियों ने अपने वादों का अहम भाग पूरा नहीं किया है लेकिन इस्लामी गणतंत्र ईरान ने अपनी सभी कटिबद्धताओं का पालन किया है, यूरेनियम का बीस प्रतिशत संवर्धन, फ़ोर्दू का परमाणु प्रतिष्ठना और अराक का भारी पानी का प्रतिष्ठान बंद कर दिया है। उन्होंने इस बात का उल्लेख करते हुए कि जेसीपीओए के समर्थक और विरोधी दोनों ही अतिशयोक्ति से काम ले रहे हैं, कहा कि जो बात मैं कह रहा हूं वह कदापि उन भाइयों से संबंधित नहीं है जिन्होंने कड़ी मेहनत की है बल्कि मैं दूसरे पक्ष के बारे में कह रहा हूं और जेसीपीओए के कुछ लाभ और कुछ रुकावटें हैं जिनसे शत्रु अवैध लाभ उठा रहा है। वरिष्ठ नेता ने इसी तरह कहा कि शत्रु का इस समय का कार्यक्रम यह है कि इस्लामी गणतंत्र ईरान की क्षमताओं को रोक दे, समाप्त कर दे या उनकी प्रगति पर अंकुश लगा दे और इस स्थिति में ईरान को जहां तक संभव हो अपनी क्षमताओं में वृद्धि करनी चाहिए।  

 

इस्लामी क्रांति के वरिष्ठ नेता आयतुल्लाहिल उज़्मा सैयद अली ख़ामेनेई ने कहा है कि पैग़म्बरे इस्लाम (स) की पत्नियों का अनादर वर्जित है।

हज़रत ख़दीजा सम्मेलन के आयोजकों से मुलाक़ात में वरिष्ठ नेता आयतुल्लाहिल उज़्मा सैयद अली ख़ामेनेई ने कहा कहा कि पैग़म्बरे इस्लाम (स) की किसी भी पत्नी का अनादर वर्जित है।

 

उन्होंने कहा कि पैग़म्बरे इस्लाम (स) की समस्त पत्नियां, सम्मानीय हैं अतः जिसने भी उनका अपमान किया, मानो उसने स्वयं पैग़म्बरे इस्लाम (स) का अनादर किया है। वरिष्ठ नेता ने कहा कि इस बात को मैं स्पष्ट रूप से कहता हूं कि हज़रत अली अलैहिस्सलाम ने हज़रत आएशा के साथ स्नेहपूर्ण व्यवहार किया। यह इसलिए था क्योंकि वे पैग़म्बरे इस्लाम (स) की पत्नी थीं।

 

यह पहली बार नहीं है कि जब वरिष्ठ नेता ने पैग़म्बरे इस्लाम (स) की पत्नियों का अनादर किए जाने से बचने पर बल दिया। उन्होंने इससे पहले पूछे गये एक प्रश्न के उत्तर में इस विषय को स्पष्ट कर दिया था। वरिष्ठ नेता के इस जवाब ने पूरी दुनिया में हंगामा मचा दिया। इस्लामी क्रांति के वरिष्ठ नेता के इस उत्तर का पूरे इस्लामी जगत में भव्य स्वागत किया गया। मिस्र के अलअज़हर विश्वविद्यालय ने ईरान के वरिष्ठ नेता के इस फत्वे को बहुत ही महत्पूर्ण बताया था। वरिष्ठ नेता ने उस समय कहा था कि पैग़म्बरे इस्लाम (स) की पत्नी हज़रत आएशा सहित सुन्नी मुसलमानों के किसी भी प्रतीक का अनादर हराम है। इस विषय में ईश्वरीय दूतों विशेषकर पैग़म्बरे इस्लाम की पत्नियों का अनादर शामिल है। वरिष्ठ नेता ने इसी प्रकार शिया और सुन्नी मुसलमानों की पवित्र चीज़ों के अनादर को वर्जित बताया था। अपने एक एक बयान में उन्होंने कहा था कि इस्लामी व्यवस्था और हमारी नज़र में रेड लाइन यह है कि, मुसलमानों की पवित्र चीज़ों का अनादर, हराम है। जो लोग जाने-अनजाने और निश्चेतना में मुसलमानों की पवित्र चीज़ों का अनादर करते हैं उनको पता नहीं वे क्या कर रहे हैं? यही लोग शत्रुओं का बेहतरीन हथकंडा हैं, वे दुश्मनों के हाथ के खिलौने हैं।

 

इसी प्रकार कुर्दिस्तान प्रांत के लोगों के मध्य वरिष्ठ नेता ने कहा कि हम में से कुछ बेचारे वहाबियों और सलफ़ियों से अज्ञात हैं जिन्हें पेट्रोडालरों से भर दिया गया है, ताकि वे यहां-वहां जाकर आतंकी कार्यवाहियां करें। वे वास्तव में इस्लाम के शत्रुओं के पिट्ठु हैं।

 

इस्लामी क्रांति के वरिष्ठ नेता आयतुल्लाहिल उज़्मा सैयद अली ख़ामेनेई ने कहा कि कोई भी शिया या सुन्नी मुसलमान, जो एक दूसरे की पवित्र चीज़ों और आस्थाओं का अनादर करता है वह वास्तव में इस्लाम के दुश्मन का पिट्ठु हैं, यद्यपि उसे पता नहीं है कि वह क्या कर रहा है।  

 

 

इस्राईल ने अभूतपूर्व क़दम उठाते हुए मस्जिदुल अक़्सा में ज़ायोनी सैनिकों को तैनात किया है।

मस्जिदुल अक़्सा में इस्राईली सैनिकों की तैनाती पर प्रतिक्रिया जताते हुए बैतुल मुक़द्दस की इस्लामी वक़्फ़ संस्था ने चेतावनी दी है कि इस क़दम की और उसके नतीजे की पूरी ज़िम्मेदारी इस्राईली सरकार की होगी।

फ़िलिस्तीनी संस्था ने एक बयान जारी कर कहा है कि इस्राईली सैनिकों ने मस्जिद के 4 चौकीदारों को गिरफ़्तार कर लिया है और उनके निर्वासन का आदेश जारी किया है।

रमज़ान के महीने में ज़ायोनी शासन ने मुसलमानों के मस्जिदुल अक़्सा में प्रवेश को बहुत सीमित कर दिया है।  

 

ईरान के इतिहास में जून महीने का पहला सप्ताह और ईरानी कैलेंडर के तीसरे महीने ख़ुरदाद का मध्य भाग दो महत्वपूर्ण घटनाओं की याद ताज़ा करता है।

ईरान के इतिहास में जून महीने का पहला सप्ताह और ईरानी कैलेंडर के तीसरे महीने ख़ुरदाद का मध्य भाग दो महत्वपूर्ण घटनाओं की याद ताज़ा करता है। 3 जून 1989 को ईरान की इस्लामी लोकतांत्रिक व्यवस्था के रचनाकार और इस्लामी क्रान्ति के संस्थापक इमाम ख़ुमैनी का स्वर्गवास हुआ था जबकि 4 जून 1963 के लिए इमाम ख़ुमैनी ने तानाशाही पहलवी शासन के विरुद्ध अपना आंदोलन शुरू किया था।

 

 वह आंदोलन जो 4 जून 1963 को शुरू हुआ, 15 साल बाद सन 1979 में ढाई हज़ार साल से चली आ रही शाही व्यवस्था के पतन पर समाप्त हुआ। इमाम ख़ुमैनी का आंदोलन ईरान और इस्लामी के इतिहास का बहुत महत्वपूर्ण अध्याय है। इमाम ख़ुमैनी इस्लामी क्रान्ति के संस्थापक होने के साथ ही एक प्रतिष्ठित धर्मगुरू भी थे अतः जनता और धर्मगुरुओं के बीच उनका बड़ा सम्मान था। इसी वजह से मोहम्मद रज़ा पहलवी की शाही सरकार के विरुद्ध उनके आंदोलन को भरपूर समर्थन मिला ईरान में इस्लामी क्रान्ति के सफल होने से पहले दूसरे भी अनेक देशों में विदेशी साम्राज्य और आंतरिक अत्याचारी शासनों के विरुद्ध कई क्रान्तियां आ चुकी थीं। इनमें अधिकांश क्रान्ति सोशलिस्ट नारों के साथ सफल हुईं। इन क्रान्तियों के नेता मार्कसिस्ट विचारधारा अपनाकर स्राज्यवाद विरोधी आंदोलन चलाते थे लेकिन यदि उनका आंदोलन सफल होता और वह सत्ता प्राप्त कर लेते तो ख़ुद भी अत्याचारी तानाशाह बन जाते थे। एसे समय जब दुनिया साम्राज्यवाद और मार्क्सवाद के बीच बंटी हुई थी, इमाम ख़ुमैनी ने इस्लाम धर्म को केन्द्र बनाकर दोनों विचारधारओं के विरुद्ध आंदोलन शुरू किया। इस प्रकार इमाम ख़ुमैनी ने साम्राज्यवाद और मार्क्सवाद का मुक़ाबला करने के लिए एक नया रास्ता बनाया।

 

ईरान की इस्लामी क्रान्ति के वरिष्ठ नेता आयतुल्लाहिल उज़्मा ख़ामेनई ने इमाम ख़ुमैनी की बीसवीं बर्सी के अवसर पर अपने एक संदेश में कहा था कि इमाम ख़ुमैनी ने शुद्ध इस्लाम धर्म की शिक्षाओं को आधार बनाकर और जनता की ईमान की शक्ति के सहारे और अपने साहस, निष्ठा तथा ईश्वर पर अपार भरोसे के माध्यम से अत्यंत कठिन व प्रतिकूल परिस्थितियों में संघर्ष करने का रास्ता खोजा, उसपर आगे बढ़े तथा पूरे धैर्य से क़दम बढ़ाते हुए लोगों के मन मस्तिष्क को कटु तथ्यों तथा उनसे निपटने के तरीक़ों से परिचित कराया। ईरान की जनता ने शुरू से ही इमाम ख़ुमैनी की आवाज़ पर अपनी आवाज़ बुलंद की तथा सत्य और ज्ञान से भरी उनकी बातों को ध्यान से सुना और दिल में उतारा।

 

  लोगों ने इस्लाम से गहरे प्रेम और ईमान की शक्ति से त्याग और बलिदान की अविस्मरणीय कहानियां लिख दीं। इस बीच इमाम ख़ुमैनी ने जनता का मार्गदर्शन करने, सच्चाई सामने लाने के साथ ही और करोड़ों की संख्या में लोगों को कुछ कर गुज़रने के लिए मैदान में लाने के साथ ही साथ इस्लामी शासन की विचारधारा को परवान चढ़ाया तथा विश्व में प्रचलित दो विचारधाराओं के सामने इस्लामी शासन की नई राह पेश की जिसमें धर्म और इंसान दोनों ही तत्वों को मूल रूप से दृष्टिगत रखा गया तथा जनता का ईमान और इच्छा शक्ति उसकी महत्वपूर्ण पहचान बनी।

 

 

इस्लामी क्रान्ति की सफलता दुनिया के राजनैतिक पटल पर बिल्कुल अदभुत घटना थी। यह घटना अपनी विशेष प्रवृत्ति, लक्ष्यों और परिणाम के आधार पर दुनिया में प्रचलित राजनैतिक समीकरणों में किसी में भी नहीं समाई। इस्लामी क्रान्ति ने दुनिया में मान्यता प्राप्त कर चुके दो ब्लाकों तथा दो मोर्चों में बटी व्यवस्था को अस्त व्यस्त कर दिया। यही कारण था कि दोनों ब्लाक अपनी पुरानी और गहरी दुशमनी को भूलकर इस्लामी क्रान्ति के विरुद्ध एकजुट हो गये। सोवियत संघ, अमरीका तथा इन दोनों शुक्तियों से जुड़े देशों ने इस्लामी गणतंत्र ईरान के विरुद्ध इराक़ के सद्दाम शासन के युद्ध में सद्दाम का साथ दिया। इस्लामी जगत के अन्य विचारकों और धर्मगुरुओं के विपरीत इमाम ख़ुमैनी को यह अवसर मिला कि अपने विचारों को इस्लामी शासन के रूप में ढालें। शीया मुसलमानों, विद्वानों और दार्शनिकों की राजनैतिक विचार धारा का एक मूल सिद्धांत है पैग़म्बरे इस्लाम के स्वर्गवास के बाद इमामत का अक़ीदा। यानी उनका यह विचार है कि पैग़म्बरे इस्लाम के स्वर्गवास के बाद भी उनका मिशन इमामों द्वारा जारी है।

 

इसी आस्था को इमामत की आस्था कहा जाता है। इस्लाम में इस आस्था का महत्व इतना अधिक है कि इस आस्था के रूप और व्याख्या के आधार पर कई संप्रदाय बन गए हैं। इन संप्रदायों में इमामिया संप्रदाय का इमामत का नज़रिया कुछ विशेषताएं रखता है। इस अक़ीदे अनुसार इमामत वह पदवी है जो ईश्वर की ओर से तथा पैग़म्बर द्वारा दी जाती है और यह दायित्व पैग़म्बर के स्वर्गवास के बाद कि उस व्यक्ति को दिया जाता है जो मानव जाति का मार्गदर्शन करे।

 

 इमाम वह हस्ती है जिसके हाथ में लोगों के भौतिक और अध्यात्मिक जीवन के सभी मामले होते हैं। क़ुरआन की आयतों और पैग़म्बरे इस्लाम के कथनों तथा शिष्टाचारों के अनुसार ईश्वर ने उन्हीं लक्ष्यों और कारणों के तहत जिनके आधार पर मानव जाति के मार्गदर्शन और उसे एकेश्वरवाद के मार्ग पर लाने के लिए पैग़म्बर को भेजा है उनके ही आधार पर मानव समाज को पैग़म्बर के स्वर्गवास के बाद मार्गदर्शन के लिए इमाम की ज़रूरत होती है।

 

 

ग़दीरे ख़ुम नामक स्थान की घटना जिसमें पैग़म्बरे इस्लाम ने हज़रत अली अलैहिस्सलाम को अपने स्वर्गवास से एक साल पहले तथा अपने जीवन की अंतिम हज यात्रा में लोगों का सरपरस्त बनाया। क़ुरआन की कई आयतें और इसी प्रकार पैग़म्बरे इस्लाम के कई कथन हैं जो शीया सुन्नी दोनों ही समुदायों के धर्मगुरुओं ने अपनी किताबों में दर्ज किए हैं इनमें साफ़ साफ़ कहा गया है कि पैग़म्बरी के सिलसिले को आगे बढ़ाने का माध्यम इमाम है। पैग़म्बरे इस्लाम ने अपनी प्रख्यात हदीसे सक़लैन में कहा कि मैं आप लोगों के बीच दो महान चीज़ें छोड़े जा रहा हूं। इनमें से हर एक दूसरे से महान है। एक है ईश्वरीय ग्रंथ जो आसमान से धरती तक फैली अल्लाह की रस्सी के समान है। दूसरी चीज़ है मेरे परिजन। यह दोनों कभी भी एक दूसरे से अलग नहीं होंगे यहां तक कि हौज़े कौसर पर मुझसे आ मिलेंगे। लगभग सभी धर्मगुरू जिनमें सुन्नी समुदाय के धर्मगुरू भी शामिल हैं इस बिंदु पर एकमत हैं कि इस कथन में परिजन से पैग़म्बरे इस्लाम का तात्पर्य हज़रत अली अलैहिस्सलाम से है।

 

 

हज़रत अली अलैहिस्सलाम के बाद उनके 11 उत्तराधिकारी हैं जो बारी बारी मानवजाति का मार्गदर्शन संभालते रहे हैं। 11वें उत्तराधिकारी मानवता के मोक्षदाता हज़रत इमाम महदी अलैहिस्सलाम हैं  जो इस समय दुनिया की नज़रों से ओझल हैं और एक समय वह आएगा जब हज़रत इमाम महदी प्रकट होंगे और संसार में न्याय की स्थापना करेंगे। अंतिम समय में मोक्षदाता के प्रकट होने का विचार सभी ईश्वरीय धर्मों में पाया जाता है।

 

 इस विचार का कारण एक तो मनुष्य की अपनी प्रवृत्ति है मनुष्य की प्रवृत्ति उसे न्याय, इंसाफ़ और शांति व सुरक्षा की स्थापना की दावत देती है। मानव जाति की हार्दिक इच्छा यह है कि दुनिया में न्याय की स्थापना हो। दूसरे यह है कि ईश्वरीय दूतों ने अपने अपने काल में अपने मिशन के एक भाग के रूप में यह शुभसूचना दी है कि अंतिम ज़माने में एक महान सुधारक आएगा जो इंसानों को अन्याय और अत्याचारों से मुक्ति दिलाएगा तथा दुनिया से भ्रष्टाचार और बुराइयों का सफ़ाया करेगा। क़ुरआन की आयतों और पैग़म्बरे इस्लाम के कथनों शीया समुदाय की मान्यता है कि वह महान सुधारक हज़रत इमाम महदी अलैहिस्सलाम हैं जो हज़रत अली और हज़रत फ़ातेमा जहेरा के वंशज हैं।

 

 

शीया समुदाय के धर्मगुरुओं के बीच बहस का एक बड़ा विषय यह है कि जब इमाम महदी अलैहिस्सलाम लोगों की आंखों से ओझल रहेंगे तो उस कालखंड में समाज का क्या होगा। इमाम ख़ुमैनी कहते हैं कि जिन कारणों से पैग़म्बरे इस्लाम के स्वर्गवास से पहले ईश्वर ने हज़रत अली अलैहिस्सलाम को उनका उत्तराधिकारी निर्धारित कर दिया उन्हीं कारणों से हज़रत अली अलैहिस्सलाम की शहादत के बाद उनके बेटों को उनका उत्तराधिकारी बनाया। हज़रत इमाम महदी अलैहिस्सलाम के नज़रों से ओझल रहने के कालखंड में भी जिसे ग़ैबत का ज़माना कहा जाता है समाज को उसके हाल पर नहीं छोड़ दिया गया है बल्कि समाज के लिए सरपरस्त निर्धारित किया गया है।

 

 

 

 ग़ैबत दो चरणों पर आधारित है। इसका पहला चरण सीमित है जिसे ग़ैबते सुग़रा अर्थात छोटी ग़ैबत कहा जाता है इस कालखंड में हज़रत इमाम ज़माना अलैहिस्सलाम अपने प्रतिनिधियों के माध्यम से लोगों के संपर्क में थे लेकिन इसके बाद ग़ैबते कुबरा अर्थात बड़ी ग़ैबत शुरू हुई तो सवाल यह पैदा हुआ कि इस काल के लिए क्या उपाय है। इस काल के लिए लोगों को क़ुरआन तथा पैग़म्बरे इस्लाम के शिष्टाचारों व कथनों का ज्ञान रखने वालों से अपने सवाल पूछने की सलाह दी गई। इमाम ख़ुमैनी ने अपनी पुस्तक हुकूमते इस्लामी में विस्तार से लिखा है कि क़ुरआन की आयतों और पैग़म्बरे इस्लाम तथा इमामों के कथनों के आधार पर किस तरह इस्लामी सरकार का गठन  किया जा सकता है।

 

 यह पुस्तक वास्तव में इराक़ के पवित्र नगर नजफ़ में इमाम ख़ुमैनी के उन बयानों पर आधारित है जो उन्होंने अपनी क्लास में दिए। यह उस समय की बात है जब इमाम ख़ुमैनी नजफ़ में निर्वासन का जीवन बिता रहे थे।

 

इमाम ख़ुमैनी के दृष्टिकोण के अनुसार हर काल में इमाम की ज़रूरत बिल्कुल स्पष्ट है। इमाम के अस्तित्व के सहारे ही धर्म के नियमों को लागू किया जा सकता है और धर्म की रक्षा की जा सकती है क्योंकि इमाम धर्म और उसके नियमों का रक्षक होता है। इस प्रकार हर काल में इमाम का निर्धारण आवश्यक है और यह निर्धारण ईश्वर, पैग़म्बरे तथा पहले वाले इमाम के माध्यम से होना चाहिए। इमाम ख़ुमैनी कहते हैं कि इस्लाम धर्म के नियमों की रचना यदि किसी आम विद्वान ने की होती तो वह भी अपने बाद धर्म के अनुयायियों के लिए कोई न कोई बंदोबस्त ज़रूर करता।

 

अब यदि सर्वज्ञानी ईश्वर ने मानव जीवन के लिए कुछ क़ानून बनाए हैं, लोक व परलोक में इंसान के कल्याण के लिए नियम निर्धारत किए हैं तो अक़्ल कहती है कि एसे भी क़ानून और नियम ज़रूर होंगे जिनके बारे में ईश्वर व पैग़म्बर का यह मंशा होगी कि यह जारी रहें। जब दुनिया में क़ानून बनाने वाले आम विशेषज्ञ यह चाहते हैं कि उनका बनाया हुआ क़ानून उनके बाद भी लंबे समय तक चलता रहे तो निश्चित रूप से ईश्वर और पैग़म्बर की भी यही इच्छा होगी कि उनके क़ानून केवल किसी एक कलखंड तक सीमित न रहें। जब यह बात साबित हो गई तो यह भी समझ में आने वाली बात है कि पैग़म्बर के बाद भी एसी हस्ती का होना ज़रूरी है जो इन क़ानूनों को सही रूप से जानती हो।

 

वह हस्ती एसी है जो इन क़ानूनों को न तो भूले और न उनमें किसी भी प्रकार की कमी या बढ़ोत्तरी करे। एसी हस्ती हो जिसे प्रलोभन न दिया जा सकता हो। इमाम ख़ुमैनी के विचार मे इमाम वास्तव में ईश्वरीय निमयों और क़ानूनों को जारी रखने के  लिए पैग़म्बरी की अगली कड़ी है। अतः इमामत के बिना धर्म अधूरा है तथा इमामत की मदद से ही उसे संपूर्ण बनाया जा सकता है।

 

 

इमाम ख़ुमैनी का विचार यह है कि इमाम महदी अलैहिस्सलाम की ग़ैबत के ज़माने में समाज के मार्गदर्शन की ज़िम्मेदारी धर्मगुरुओं पर है। ईरान में इस्लामी क्रान्ति की सफलता के बाद विशेषज्ञ एसेंबली बनी जिसका काम है समाज के नेतृत्व के लिए सबसे सदाचारी, सबसे  न्यायी, और सबसे ज्ञानी व्यक्ति का चयन इस्लामी क्रान्ति और इस्लामी लोकतांत्रिक व्यवस्था के वास्तुकार इमाम खुमैनी ने अपनी विचारधारा से धार्मिक लोकतंत्र का सफल नमूना दुनिया के सामने पेश किया।

 

 इराक़ के विदेशमंत्री और इराक़ की इस्लामी सुप्रिम काउंसिल के प्रमुख ने सुरक्षा की स्थापना में राष्ट्रीय गठबंधन की मज़बूती पर बल दिया।

सूमरिया न्यूज़ एजेन्सी की रिपोर्ट के अनुसार, विदेशमंत्री इब्राहीम जाफ़री के कार्यालय से जारी होने वाले बयान में कहा गया है कि इब्राहीम जाफ़री और अम्मार हकीम ने मुलाक़ात में राष्ट्रीय गठबंधन को मज़बूत करने, दृष्टिकोणों को निकट करने, राष्ट्रीय एकता की रक्षा, संविधान का सम्मान करने और सुरक्षा तंत्र की सहायता के लिए इस गठबंधन की भूमिका पर बल दिया। इस बयान में आया है कि दोनों नेताओं ने इसी प्रकार देश के राजनैतिक व सुरक्षा परिवर्तनों तथा दाइश से मुक़ाबले में सेना, स्वयंसेवी बलों, क़बीलों और कुर्द मिलिशिया की सफलता पर चर्चा की।

ज्ञात रहे कि प्रधानमंत्री हैदर अलएबादी के आदेश पर फल्लूजा शहर को दाइश के आतंकियों से मुक्ति दिलाने के लिए 23 मई से व्यापक अभियान आरंभ हुआ है।