अहकाम के बारे में कुछ सवाल जवाब

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सवाल न (1) मस्जिदुल हराम का फ़र्श क़लील पानी से साफ़ किया जाता है इस तरह कि निजासत पर क़लील पानी डाला जाता है कि जिस से आम तौर पर निजासत के बाक़ी रहने का इल्म होता है तो क्या मस्जिद के फ़र्श पर सज्दा करना जाएज़ है ?

जवाबः- इस से आम तौर पर मस्जिद की हर जगह के नजिस होने का इल्म नहीं होता और जुस्तजू करना वाजिब नहीं है पस फ़र्श पर सज्दा करना सहीह है।

सवाल नः (2) क्या ख़ान-ए-काबा के इर्द गिर्द दायरे की सूरत में नमाज़े जमाअत काफ़ी है ?

जवाबः- जो शख़्स इमाम के पीछे या दायें बायें ख़ड़ा हो उसकी नमाज़ सहीह है और ऐहतियाते मुस्तहब यह है कि जो शख़्स इमाम के दायें बायें ख़ड़ा हो वह उस फ़ासले की रिआयत करे जो इमाम और काबे के दरमियान है पस इमाम की निसबत काबे के क़रीब तर खड़ा न हो लेकिन जो शख़्स ख़ान-ए-काबे की दूसरी तरफ़ इमाम के बिलमुक़ाबिल खड़ा होता है उसकी नमाज़ सहीह नहीं है।

सवाल नः (3) या मक्का और मदीना में ऐहले सुन्नत के इमाम के पीछे जमाअत के साथ नमाज़ पढ़ना काफ़ी है ?

जवाबः- इनशाअल्लाह काफ़ी है।

सवाल नः (4) जिस शख़्स ने मक्के में दस दिन ठहरने की नियत की है तो अरफ़ात, मशअर, और मेना में और उन के दरमियान मसाफ़त तय करते हुए उसकी नमाज़ का हुक्म क्या है ?

जवाबः- जिस शख़्स की नियत यह है कि अरफ़ात की तरफ़ जाने से पहले दस दिन मक्के में रहेगा तो वह चार रकअती नमाज़ को पूरा पढ़ेगा और जब तक नया सफ़र न करे नमाज़ पूरी पढ़ेगा और ठहरने का हुक्म साबित होने के बाद अरफ़ात, मशअरुल हराम और मेना की तरफ़ जाना सफ़र कहलायेगा।

सवाल नः (5) क्या क़स्र और इतमाम के दरमियान इख़्तियार वाला हुक्म मक्का और मदीना में भी जारी होगा या यह सिर्फ़ मस्जिदुल हराम और मस्जिदुन नबी के लिये मख़सूस है और क्या उनकी पुरानी और नई जगहों के दरमियान कोई फ़र्क़ है ?

जवाबः- क़स्र और इतमाम के दरमियान इख़्तियार वाला हुक्म उन दो शहरों की हर जगह में जारी होगा और ज़ाहिर यह है कि पुरानी और नई जगहों के दरमियान कोई फ़र्क़ नहीं है अगरचे ऐहवत यह है कि इस मसअले में उन दो शहरों की पुरानी जगहों, बल्कि सिर्फ़ मस्जिदों पर इकतेफ़ा करे पस ऐसी हालत में नमाज़ क़स्र पढ़े मगर यह कि दस दिन ठहरने की नियत करे।

सवाल नः (6) जो शख़्स मुशरेकीन से बराअत के प्रोगिराम में शिरकत न करे उसके हज का क्या हुक्म है ?

जवाबः- उस से उसकी दुरुस्ती को नुक़सान नहीं पहुंचता अगरचे उसने अपने आप को दुशमेनाने ख़ुदा से ऐलान बराअत के प्रोगिराम में शिरकत करने की फ़ज़ीलत से महरूम कर दिया है।

सवाल नः (7) क्या हैज़ या निफ़ास वाली औरत के लिये उस दीवार पर बैठना जाएज़ है जो मस्जिदुल हराम के बरआमदे और सई करने की जगह के दरमियान वाक़े है यह जानते हुए कि यह उन के दरमियान मुशतरक है ?

जवाबः- इस में कोई हर्ज नहीं है मगर जब साबित हो जाये कि वह मस्जिदुल हराम का हिस्सा है।

सवाल नः (8) जिस शख़्स को चान्द देख़ने की वजह से दो वुक़ूफ़ और रोज़े ईद के दर्क करने में शक हो तो उसके हज का क्या हुक्म है क्या उस पर हज का एआदा करना वाजिब है?

जवाबः- सुन्नी क़ाज़ी के नज़दीक ज़िलहिज का चान्द साबित होने और उसकी तरफ़ से चान्द साबित हो जाने के लिये फैसले के मुताबिक़ अमल अंजाम देना काफ़ी है पस अगर लोगों की पैरवी करते हुए दो वुक़ूफ़ को दर्क कर ले तो उसने हज को दर्क कर लिया और यह काफ़ी है।

सवाल नः (9) कुछ फ़तवों में आया है कि आप मक्के के होटलों में जमाअत क़ाएम करने की इजाज़त नहीं देते तो क्या आप की तरफ़ से उन रिहाइश गाहों और घरों में नमाज़े जमाअत क़ाएम करने की इजाज़त है कि जिन में आम तौर पर क़ाफ़ले आते हैं यह जानते हुए कि इन क़ाफ़लों की अपनी मुस्तक़िल रिहाइशगाह और अपनी मुस्तक़िल जमाअत होती है पस यह हुज्जाज के लिये मस्जिदुल हराम में नमाज़ तर्क करने का ज़रिया नहीं बनते ?

जवाबः- अगर यह दूसरों की तवज्जोह को मबज़ूल करने का मूजिब बने और मस्जिद में मुस्लमानों के साथ उनकी नमाज़ में शिरकत न करने की वजह से तनक़ीद का सबब बने तो हमारी तरफ़ से उन रिहाइश गाहों और घरों में जमाअत क़ाएम करने की इजाज़त नहीं है।

सवाल नः (10) ड्राइवर हज़रात भीड़ से बचने के लिये मेना और मुज़दल्फ़ा तक पहुंचने वाले बाज़ कठिन रास्तों और सरंगों का अन्दरुनी रास्तों के तौर पर इस्तेमाल करते हैं पस उन गजहों तक पहुंचने के लिये मक्के के बाज़ मोहल्लों से होते हुए ऐसे रास्तों से जाते हैं जो मेना के अन्दर से गुज़रते हैं क्या उसे मक्का से निकलना शुमार किया जायेगा ?

जवाबः- ज़ाहिर यह है कि निकलने के जाएज़ न होने की दलील उस से इंसेराफ़ है लिहाज़ा उस से उमरा या हज की दुरुस्ती को नुक़सान नहीं पहुंचता।

सवाल नः (11) क़ाफ़लों के ख़ादिम जो ईद वाले दिन औरतों और कमज़ोर लोगों के साथ होते हैं और उन के हमराह फ़ज्र से पहले ही मशअरुल हराम से कूच कर जाते हैं अगर उन के लिये तुलू-ए-फ़ज्र से पहले पलटना और वुक़ूफ़े इख़्तियारी को दर्क करना मुमकिन हो तो क्या यह उन पर वाजिब है ? और अगर उन के लिये पलटना मुमकिन न हो लेकिन दिन के वक़्त जम्र-ए-अक़बा को कंकरियां मारने के लिये पलटना मुमकिन हो तो क्या औरतों और कमज़ोर लोगों के साथ उन के लिये भी रात के वक़्त कंकरियां मारना काफ़ी है या उन पर वाजिब है कि दिन के वक़्त कंकरियां मारें ? और पहलटने और वुक़ूफ़े इख़्तियारी को दर्क करने की सूरत में क्या यह उन्हें नाएब बनाने के इमकान के लिये काफ़ी है या वह महज़ रात को निकल आने से साहिबाने उज़्र में से शुमार होंगे कि जिन्हें नाएब बनाना जाएज़ नहीं है ?

जवाबः- (1) वुक़ूफ़े इख़्तियारी को दर्क करने के लिये उन पर पलटना वाजिब नहीं है।

(2) रात में कंकरियां मारना उन के लिये काफ़ी नहीं है मगर यह कि दिन में ऐसा करने से उज़्र रख़ते हों।

(3) नाएब की निसबत ऐहवत यह है कि वह रात के वक़्त मशअरुल हराम से न निकले अगरचे पलट कर मशअरुल हराम के इख़्तियारी वुक़ूफ़ को दर्क कर ले हां अगर फ़र्ज़ करें कि वह उज़्र नहीं रखता और इख़्तियार के बरख़िलाफ़ निकले तो अगर पलट आये और इख़्तियारी और पूरे वाजिब वुक़ूफ़ को दर्क कर ले तो यह उसकी नियाबत के लिये मुज़िर नहीं है।

सवाल नः (12) जो शख़्स शबे ईद और मुज़दल्फ़ा में मामूली सा वुक़ूफ़ करने के बाद औरतों और मरीज़ों के हमराह होता है क्या उस पर वाजिब है कि उन्हें मक्का पहुंचाने के बाद फ़ज्र से पहले मुज़दल्फ़ा की तरफ़ पलट आये या उस के लिये तुलू-ए-फ़ज्र और तुलू-ए-आफ़ताब के दरमियान वुक़ूफ़ कर लेना काफ़ी है या उसके लिये वही मामूली सा वुक़ूफ़ ही काफ़ी है जबकि उसके साथ थकन, मुशक़्क़त और ट्रेफ़िक की पाबन्दियां भी होती हैं जो इन्तेज़ामिया नाफ़िज़ करती है और क्या नियाबती हज करने वाले और उसके ग़ैर के दरमियान कोई फ़र्क़ है ?

जवाबः- जो शख़्स साहिबाने उज़्र की निगरानी और तीमारदारी के लिये उन के हमराह कूच करता है उस पर तुलू-ए-फ़ज्र और तुलू-ए-शम्स के दरमियान वुक़ूफ़ करना वाजिब नहीं है बल्कि उसके लिये रात के हंगामी वुक़ूफ़ पर इकतेफ़ा करना जाएज़ है। हां जो शख़्स नियाबती हज अंजाम दे रहा है उसके लिये यह जाएज़ नहीं है और उस पर इख़्तियारी आमाल को अंजाम देना वाजिब है।

सवाल नः (13) क्या इख़्तियारी सूरत में नज़्र के साथ मीक़ात से पहले ऐहराम बांधना जाएज़ है जब कि इंसान जानता हो कि वह साय में जाने पर मजबूर हो जायेगा जैसे अगर नज़्र कर के अपने शहर से ऐहराम बांधले और फिर दिन के वक़्त हवाई जहाज़ में सवार हो जाये ?

जवाबः- नज़र कर के मीक़ात से पहले ऐहराम बांधना जाएज़ है और दिन के वक़्त साय में जाना हराम है और एक उनवान का हुक्म दूसरे उनवान तक सराइयत नहीं करता।

सवाल नः (14) एक शख़्स फ़ौज में काम करता है और बाज़ औक़ात जबरी हुक्म के ज़रिये उस की डयोटी लगाई जाती है जैसे किसी एहम काम के लिये फ़ौरन मक्का पहुंचना और उस ने पहले उमरा न किया हो और वक़्त की तंगी की वजह से ऐहराम की हालत में मक्का में दाख़िल नहीं हो सकता तो क्या वह उस सूरत में गुनाह गार होगा क्या उस पर कफ़्फ़ारा है ?

जवाबः- सवाल के फ़र्ज़ में उसके लिये बग़ैर ऐहराम के मक्के में दाख़िल होना जाएज़ है और इस सिलसिले में उस पर कोई चीज़ नहीं है।

सवाल नः (15) अगर माहे ज़िक़ाद में मक्के में उमरा-ए-मुफ़रेदा बजालाये और ज़िलहिज में दोबारह मक्के में दाख़िल होना चाहिये जब कि अबी उस उमरे को दस दिन हुये हों तो क्या उसके लिये नया ऐहराम बांधना ज़रूरी है या वह बग़ैर ऐहराम के दाख़िल हो सकता है ?

जवाबः- ऐहवत की बिना पर उस वक़्त उसके लिये ऐहराम बांधना ज़रूरी है।

सवाल नः (16) एक शख़्स जद्दा में रहता है और मक्का में काम करता है यानी वह छुट्टी के दिनों के अलावा तसलसुल के साथ हर दिन मक्का जाता है या आधा हफ़्ता जाता है यानी तीन दिन मक्का जाता है और चार दिन नहीं जाता अगर छुट्टी के अय्याम में चार दिन ख़त्म हो जायें तो क्या उसके लिये दोबारह उमरा करना वाजिब है ?

जवाबः- सवाल की मफ़रूज़ा सूरत में उमरा करना वाजिब नहीं है।

सवाल नः (17) अगर उमरा ख़त्म हो जाये और इंसान मक्के में ही हो तो क्या उस पर उमरा करना वाजिब है ? और कहां से ? क्या हरम की हुदूद से या मस्जिदे तनईम से ?

जवाबः- जब तक वह मक्का में है नया उमरा बजा लाना वाजिब नहीं है और अगर नया उमरा बजा लाना चाहे तो ज़रूरी है कि अतराफ़े हरम से अदनलहल की तरफ़ जाये और या फिर मस्जिदे तनईम जाये।

सवाल नः (18) एक शख़्स टेकसी का ड्राइवर है और सवारी उसको मक्के जाने को कहती है यह जानते हुए कि ड्राइवर ने पहले उमरा नहीं कर रख़ा क्या उस पर वाजिब है कि ऐहराम की हालत में दाख़िल हो और अगर बग़ैर ऐहराम के दाख़िल हो तो उसका क्या हुक्म है ?

जवाबः- सवाल की मफ़रूज़ा सूरत में उस पर वाजिब है कि मक्का में दाख़िल होने के लिये ऐहराम बांधे और उमरा-ए-मुफ़रेदा के आमाल बजालाये और अगर बग़ैर ऐहराम के मक्के में दाख़िल हो जाये तो फ़ेले हराम का मुरतकिब हुआ है लेकिन उस पर कफ़्फ़ारा नहीं है।

सवाल नः (19) जो शख़्स सख़्त भीड़ के वक़्त कई मुस्तहब तवाफ़ करता है इस तरह कि उन हुज्जाज के लिये मज़ाहिमत का मूजिब होता है जो वाजिब तवाफ़ करते हैं तो क्या उस पर कोई हर्ज है ख़ुसूसन अगर उसके पास मुस्तहब तवाफ़ के लिये वसी (ज़्यादा) वक़्त हो ?

जवाबः- इस पर कोई एतेराज़ नहीं है। हां ऊला बल्कि ऐहवत यह है कि उस भीड़ के होते हुए मुस्तहब तवाफ़ न करे।

सवाल नः (20) जो शख़्स इस्तेताअत की वजह से हज्जे एफ़राद को बतौर वाजिब बजालाता है या उसे बतौर मुस्तहब अंजाम देता है और इस से पहले मुताअद्दिद दफ़ा उमरा कर चुका हो तो क्या उस पर एक नया उमरा वाजिब है जो इस हज के मुताअल्लिक़ हो ?

जवाबः- उमरा वाजिब नहीं है मगर जिन मवारिद में तमत्तो से एफ़राद की तरफ़ उदूल करना है।

सवाल नः (21) जिस शख़्स ने हज्जे एफ़राद के लिये तवाफ़ बांधा हुआ है क्या वह तवाफ़ हज व सई के बाद अपने इख़्तियार के साथ मक्के से निकल कर जद्दा जा सकता है ? फिर सीधा अरफ़े में हुज्जाज के साथ मुलहक़ हो जाये ?

जवाबः- तवाफ़ और सई के बाद जद्दा या और किसी जगह जाने से रुकावट नहीं है लेकिन अगर उसकी वजह से उसे दो वुक़ूफ़ के फ़ौत हो जाने का ख़ौफ़ न हो।

सवाल नः (22) शरई मसाफ़त कि जिस के साथ हज्जे एफ़राद जाएज़ होता है सोलह फ़रसख़ है तो यह मसाफ़त कहां से शुमार की जायेगी ?

1- क्या आप की राये में क़ाबिले तौसेआ है और हर वह जगह जिसे उर्फ़ में मक्का कहा जाता है वह मक्के का हिस्सा है?

2- जो मुकल्लफ़ मक्के से सोलह फ़रसख़ से कम फ़ासले पर रहता है क्या वह अपने घर से ऐहराम बांधेगा या मदीने की किसी जगह से ?

3- क्या आप की नज़र में मसाफ़त का आग़ाज़ मुकल्लफ़ के शहर के आख़िर से होगा।

1- जवाबः- (मसाफ़त मुकल्लफ़ के शहर या दीहात के आख़िर से शहरे मक्का से शुरु तक हिसाब की जायेगी और शहरे मक्का क़ाबिले तौसेआ है और मसाफ़त के हिसाब करने का मेआर वह जगह है जैसे उस वक़्त शहरे मक्का की इब्तेदा कहा जाता है।

2- उसके लिये अपने शहर की हर जगह से ऐहराम बांधना जाएज़ है अगरचे ऊला और ऐहवत यह है कि अपने घर से ऐहराम बांधे।

3- अभी अभी गुज़रा है कि मसाफ़त का मेआर उर्फ़ के अपने शहर और मोजूदा शहरे मक्का के दरमियान की मसाफ़त है अगरचे ऐहवत यह है अपने घर से मसाफ़त की इब्तेदा का हिसाब करे।

सवाल नः (23) उमरा करने वाला शख़्स जो मदीने या उस की मसाफ़त में रहता है क्या उसके लिये जाएज़ है कि वह मक्का जाने के क़स्द से जद्दा आये और फिर ऐहराम के लिय अदनलहल जैसे मस्जिदे तनईम का क़स्द करे ?

जवाबः- अगर वह मदीने से निकलते वक़्त उमरे का क़स्द रखता हो तो उस पर वाजिब है कि मस्जिदे शजरा से ऐहराम बांधे और उसके लिये बग़ैर ऐहराम के मीक़ात से आगे जाना जाएज़ नहीं है अगरचे मक्का जाते हुए जद्दा से गुज़रने का इरादा रखता हो और अगर बग़ैर ऐहराम के मीक़ात से गुज़र कर जद्दा पहुंच जाये फिर उमरे का इरादा करले तो उस पर वाजिब है कि वह आहराम बांधने के लिये किसी मीक़ात पर जाये उस के लिये जद्दा और अदन्लहल से ऐहराम बांधना सहीह नहीं है क्योंकि अदन्लहल सिर्फ़ उन लोगों के लिये उमरा-ए-मुफ़रेदा का मीक़ात है जो मक्के में रहते हैं।

सवाल नः (24) मदीने या उसके मुज़ाफ़ात से दो रास्ते जद्दा की तरफ़ जाते हैं एक हजफ़ा के क़रीब से गुज़रता है कि जिस के साथ (महाज़ात) मुक़ाबिल बन जाता है और दूसरा जो कि तेज़ रास्ता है हजफ़ा के मुक़ाबिल से गुज़रता है लेकिन वह हजफ़ा से सौ किलो मीटर से भी ज़्यादा दूर है और सीधा रास्ता नहीं है तो क्या उसे भी (महाज़ात) मुक़ाबिल शुमार किया जायेगा या नहीं ?

जवाबः- महाज़ात और मुक़ाबिल से मुराद यह है कि मक्का की तरफ़ जाने वाला शख़्स रास्ते में ऐसी जगह पर पहुंच जाये कि जिस के दायें या बायें जानिब मीक़ात हो और इस बिना पर मुक़्त-ए-महाज़ात के एतेबार से दो रास्तों के दरमियान कोई फ़र्क़ नहीं है।

सवाल नः (25) दूसरी सूरत में अगर बिलफ़र्ज़ वह महाज़ात न बनती तो जो शख़्स उस रास्ते पर जा रहा है क्या उसके लिये जाएज़ है कि वह अदन्लहल जा कर वहां से उमरा-ए-मुफ़रेदा या हज का ऐहराम बांधे?

जवाबः- मीक़ात और उसकी बिल मुक़ाबिल जगह से बग़ैर ऐहराम के गुज़रना जाएज़ नहीं है और अदन्लहल से ऐहराम बांधना भी सहीह नहीं है। जैसे कि अभी अभी गुज़रा है।

सवाल नः (26) जिस शख़्स को मीक़ात से ऐहराम बांधने में अपने या अपने ऐहलो अयाल पर ख़ौफ़ का वहम हो क्या उसके लिये अदन्लहल से ऐहराम बांधना जाएज़ है ?

जवाबः- अगर मीक़ात में ऐहराम बांधने से कोई उज़्र हो जो मीक़ात से गुज़रने के बाद ज़ाएल हो जाये तो उस पर वाजिब है कि ऐहराम बांधने के लिये मीक़ात की तरफ़ वापस पलटे अलबत्ता अगर मुमकिन हो वरना अपनी जगह से ही ऐहराम बांधे अगर उस के आगे कोई मीक़ात न हो और किसी दूसरे मीक़ात पर जाने की सलाहियत भी न रखता हो।

सवाल नः (27) क्या ऐहराम की हालत में रात के वक़्त बारिश से बचने के लिये किसी चीज़ के नीचे जाना जाएज़ है ?

जवाबः- ऐहवत का लिहाज़ रखना है।

सवाल नः (28) जो शख़्स मक़ामे इब्राहीम के पीछे क़ुर्आने करीम और मुस्तहब नमाज़ें पढ़ना चाहता है या दुआ के लिये बेठना चाहता है जब कि उसके लिये उन चीज़ों को मस्जिदुल हराम की दूसरी जगहों में अंजाम देना भी मुमकिन है तो क्या भीड़ के बावजूद उसके लिये यह काम जाएज़ है जबकि तवाफ़ की वाजिब नमाज़ें पढ़ने वालों के लिये मुश्किल न का सबब हो ?

जवाबः- ऊला बल्कि ऐहवत यह है कि मज़कूरा चीज़ों को उस जगह बजालाये जहां भीड़ न हो।

सवाल नः (29) क्या हाजी (मर्द या औरत) के लिये ऐहराम की हालत में पानी को ज़ाएल करने के लिये अपने चेहरे को तौलिया से पोछना जाएज़ है ?

जवाबः- इस काम में मर्द के लिये तो हर सूरत में कोई हर्ज नहीं है और औरतों के लिये भी कोई हर्ज नहीं है अगर उस पर चेहरे को ढ़ांपना सिद्क़ न करे इस तरह कि यह काम तोलिया को तदरीजी तौर पर अपने चेहरे पर गुज़ारने के साथ हो वरना उसके लिये यह जाएज़ नहीं है लिहाज़ा चेहरे को ढ़ांपने में कोई कफ़्फ़ारा नहीं है।

सवाल नः (30) हाजी के लिये जाएज़ है कि मेना के मोक़े पर मेना की रात में गुज़ारने के बजाये (मक्का) हरम में इबातद के साथ रात गुज़ारे तो क्या खाना ख़ाना, नाहना, क़ज़ाये हाजत, या मोमिन की जनाज़े की तशई करना ऐसे काम हैं जो इबादत के साथ मशग़ूल होने को बातिल कर देते हैं ?

जवाबः- ज़रूरत के मुताबिक़ खाने पीने में मशग़ूल होना और किसी ज़रूरत की वजह से बाहर जाना और वुज़ू या वाजिब ग़ुस्ल बजा लाना इबादत के साथ मशग़ूल होने को नुक़सान नहीं पहुंचाता।

सवाल नः (31) साबिक़ा सवाल में मज़कूरा मसरुफ़ियात अगर इबादत को बातिल कर दे तो क्या कफ़्फ़ारा भी है ?

जवाबः- अगर ऐसे काम में मशग़ूल हो जो इबादत नहीं है अगरचे मक्के में और ज़रूरीयात में से भी शुमार न किया जाता हो जैसे खाना, पीना, और कोई ज़रूरत पूरी करना तो उस पर कफ़्फ़ारा वाजिब है।

सवाल नः (32) क्या चन्द माह तक माल को जमा करना हज की इस्तेताअत को हासिल करने के लिये काफ़ी है? बिलख़ुसूस अगर वह जानता हो कि वह इस तरीक़े के अलावा मुसतती नहीं हो सकता ?

जवाबः- इस्तेताअत का हासिल करना वाजिब नहीं है लेकिन अगर इंसान हज्जे इस्लाम करना चाहता हो तो इस पर कोई मायनी नहीं है कि वह किसी जाएज़ तरीक़े से माल हासिल करे अपनी मनफ़अत से ज़ख़ीरा करता है यहां तक कि उसके हज के एख़राजात जमा हो जायें मगर जब वह अपनी मनफ़ेअत से ज़ख़ीरा करे और उस पर ख़ुम्स का साल गुज़र जाये तो उस पर उसका ख़ुम्स देना वाजिब है।

सवाल नः (33) क्या वालेदैल को मिलना शरई या ज़ाती ज़रूरत शुमार होता है और अगर ऐसा है तो क्या जो शख़्स इस्तेताअत रखता है उस के लिये जाएज़ है कि वह अपना माल वालेदैन से मिलने के लिये ख़र्च कर दे जब मिलने के लिये सफ़र वग़ैरा की ज़रूरत हो और हज को मोअख़्ख़र कर दे ?

जवाबः- मुसतती पर वाजिब है कि हज कर के और अपने आप को इस्तेताअत से ख़ारिज करना जाएज़ नहीं है और सुल्हे रहमी सिर्फ़ मिलने में मुनहसिर नहीं है बल्कि रिशतेदारों की ऐहवाल पुर्सी और सुल्हे रहमी दीगर तरीक़ों से भी मुमकिन है जैसे ख़त लिख़ना टेलिफ़ोन करना वग़ैरा। हां अगर वालेदैन कि जो दूसरे शहर में उनसे मिलना उसकी अपनी हालत और उन की हालत के पेशे नज़र ज़रूरी हो इस तरह कि उसकी उर्फ़ी ज़रूरीयात में से शुमार किया जाये और उसके पास इतना माल भी न हो जो वालेदैन की मुलाक़ात और हज के एख़राजात दोनों के लिये काफ़ी हो तो वह इस हालत में मुसतती ही नहीं है।

सवाल नः (34) अगर दूध पिलाने वाली औरत मुसतती हो जाये लेकिन उसके हज पर जाने से शीरख़्वार बच्चे को नुक़सान पहुंचता हो तो क्या वह हज को तर्क कर सकती है ?

जवाबः- अगर नुक़सान इस तरह हो कि दूध पिलाने वाली के लिये शीरख़्वार के पास रहना ज़रूरी हो या उसे दूध पिलाने वाली औरत के लिये हर्ज हो तो उस पर हज वाजिब नहीं है।

सवाल नः (35) जो औरत सोने के कुछ ज़ेवरात की मालिक है और उन्हें पहनती है और उसके पास इसके अलावा कोई दूसरा माल नहीं है अगर वह उन्हें बेच दे तो वह हज करने पर क़ादिर हो जाती है तो क्या औरतों के ज़ेवरात इस्तेताअत से मुस्तसना है या उस पर वाजिब है कि वह हज के एख़राजात के लिये उन्हें बेचे और उन के साथ वह मुसतती होगी ?

जवाबः- अगर उन ज़ेवरात को वह पहनती हो और उसकी हैसियत से ज़्यादा न हो तो उस पर हज के लिये उन्हें बेचना वाजिब नहीं है और वह मुसतती नहीं होगी।

सवाल नः (36) एक औरत हज के लिये इस्तेताअत रखती है लेकिन उसका शौहर इसे उसकी इजाज़त नहीं देता तो उसकी ज़िम्मेदारी क्या है ?

जवाबः- वाजिब हज में शौहर की इजाज़त मोतबर नहीं है हां अगर शौहर की इजाज़त के बग़ैर हज पर जाने से औरत हज में मुबतेला होती हो तो वह मुसतती नहीं है और उस पर हज वाजिब नहीं है।

सवाल नः (37) अगर अक़्द के वक़्त शौहर ने हज कराने का वादा किया हो तो क्या इस वजह से हज लाज़िम हो जायेगा ?

जवाबः- सिर्फ़ इस वजह से हज लाज़िम नहीं होता।

सवाल नः (38) क्या हज की इस्तेताअत हासिल करने के लिये ज़रूरीयाते ज़िन्दगी में तंगी लाना ज़रूरी है ?

जवाबः- यह जाएज़ है लेकिन शरअन वाजिब नहीं है। अलबत्ता यह तब है जब तंगी अपने आप पर करे लेकिन जिन ऐहलो अयाल का ख़र्च उस पर वाजिब है उन पर मामूल की हद से तंगी करना जाएज़ नहीं है।

सवाल नः (39) माज़ी में मेरी तरफ़ से दीन की पाबन्दी और उसका ऐहतेमाम कोई अच्छा नहीं था और मेरे पास इतना माल था कि सफ़र के लिये काफ़ी था यानी में मुसतती था (लेकिन अपनी उस हालत की वजह से में हज पर नहीं गया तो इस वक़्त मेरे लिये क्या हुक्म है ? जब कि इस वक़्त मेरे पास लाज़मी रक़म नहीं है जैसा कि इस के दो रास्ते हैं एक इदार-ए-हज में नाम लिखवा कर और दूसरा रास्ता कि जिस में ज़ेहमत ज़्यादा है तो क्या हुकूमत के यहां नाम लिखवा देना काफ़ी है ?

जवाबः- अगर आप माज़ी में मुसतती थे और फ़रीज़-ए-हज की अदायेगी के लिये सफ़र पर क़ादिर थे उसके बावजूद आप ने हज को मोअख़्ख़र किया तो आप पर हज लाज़िम हो चुका है और आप पर हर जाएज़ और मुमकिन तरीक़े से हज पर जाना वाजिब है अलबत्ता जब तक असर व हर्ज न हो और अगर आप हर लिहाज़ से मुसतती नहीं थे तो सवाल के मफ़रूज़ा सूरत में आप पर हज वाजिब नहीं है।

सवाल नः (40) जब मस्जिदुल हराम ख़ून या पैशाब के साथ नजिस हो जाती है तो जो लोग उसे पाक करने पर मामूर है वह ऐसे तरीक़े इस्तेमाल करते हैं जो पाक नहीं करता तो रुतूबत होने या न होने की सूरत में मस्जिद की ज़मीन पर नमाज़ पढ़ने का क्या हुक्म है ?

जवाबः- जब तक सजदा करने वाली जगह का इल्म न हो नमाज़ पढ़ने पर कोई हर्ज नहीं है।

सवाल नः (41) क्या मस्जिदे नबवी में जायनमाज़ पर सज्दा करना सहीह है ? बिलख़ुसूस रोज़-ए-शरीफ़ा में कि जहां कोई ऐसी चीज़ रखना जिस पर सज्दा करना सहीह है जैसे काग़स या पेड़ के शाख़ों से बनी हुई जायनमाज़ तवज्जोह को मफ़ज़ूल करता है और नमाज़ी लोगों का निशाना बनता है जैसे कि उस से मुख़ालेफ़ीन को मज़ाक़ उड़ाने का मोक़ा भी मिलता है।

जवाबः- किसी ऐसी चीज़ का रखना कि जिस पर सज्दा सहीह है अगर तक़य्ये के ख़िलाफ़ हो तो जाएज़ नहीं है और उस पर वाजिब है कि ऐसी जगह का इंतेख़ाब करे कि जिस में मस्जिद के पत्थरों पर या किसी ऐसी चीज़ पर सज्दा कर सके कि जिस पर सज्दा करना सहीह है अलबत्ता अगर यह उस के लिये मुमकिन हो वरना तक़य्ये में उसी जायनमाज़ पर सज्दा करे।

सवाल नः (42) अज़ान और इक़ामत के वक़्त दो मस्जिदों से निकलने का क्या हुक्म है ?जब कि ऐहले सुन्नत बरादेरान उन की तरफ़ जा रहे होते हैं और उसी वक़्त हमारे निकलने के बारे में बाते कर रहे होते हैं ?

जवाबः- अगर दूसरे की नज़र में यह काम नमाज़ को उसके अव्वल वक़्त में क़ायम करने को हलका समझना शुमार होता हो तो जाएज़ नहीं है। बिलख़ुसूस अगर इसी में मज़हब पर ऐब लगता हो।

सवाल नः (43) एक शख़्स अपने शहर पलटने के बाद मुतवज्जह होता है कि अमल के दौरान उसका ऐहराम नजिस था तो क्या वह ऐहराम से ख़ारिज है ?

जवाबः- अगर वह मौज़ू यानी अमल की हालत में अपने ऐहराम में निजासत के वुजूद से जाहिल हो तो वह ऐहराम से ख़ारिज है। और उस का तवाफ़ और हज सहीह है।

सवाल नः (44) जिस मुकल्लफ़ ने किसी को अपना नाएब बनाया हो कि उसकी तरफ़ से क़ुर्बानी करे तो क्या नाएब के पलटने और उसके यह ख़बर देने से पहले कि क़ुर्बानी हो चुकी है उस के लिये तक़सीर या हल्क़ करना जाएज़ है ?

जवाबः- उस पर वाजिब है कि इंतेज़ार करे यहां तक कि नाएब की तरफ़ से क़ुर्बानी हो जाने का इंकेशाफ़ हो जाये लेकिन अगर हल्क़ या तक़सीर में जलदी करे और इत्तेफ़ाक़न यह नाएब की तरफ़ से क़ुर्बानी हो जाने से पहले हो तो उसका अमल सहीह है और उस पर एआदा वाजिब नहीं है।

सवाल नः (45) जिस मुकल्लफ़ ने अपनी तरफ़ से क़ुर्बानी की तरफ़ से किसी को अपना नाएब बनाया हुआ है क्या उसके लिये नाएब की तरफ़ से उसे ज़िब्ह करने की ख़बर पहुंचने से पहले सोना जाएज़ है ?

जवाबः- इस में कोई हर्ज नहीं है।

सवाल नः (46) मौजूदा दौर में मेना में क़ुर्बानी को ज़िब्ह करना मुमकिन नहीं है बल्कि इस के लिये उन्होंने मेना से बाहर लेकिन मेना के क़रीब ही एक जगह मोअय्यन कर रख़ी है और दूसरी जानिब क़ुर्बानी के जानवर कि जिन के लिये बड़ी रक़म ख़र्च की जाती है कहा जाता है कि उन का गोश्त वहीं फेंक दिया जाता है और वह गल सड़ कर ज़ाया हो जाता है जब कि अगर उन्हें दीगर मुमालिक में ज़िब्ह किया जाये तो उन का गोश्त ज़रूरत मंद फ़ुक़रा को दिया जा सकता है क्या हाजी के लिये जाएज़ है कि वह अपने मुल्क में क़ुर्बानी करे औरकिसी के साथ तय कर ले कि वह उसकी तरफ़ से क़ुर्बानी कर दे या दीगर मुमालिक में और टेलीफ़ौन के ज़रीये क़ुर्बानी कर ले या उसे मुक़र्रेरा जगह पर ही ज़िब्ह करना वाजिब है और क्या इस मसअले में उस मरजा की तरफ़ रुजू करना जाएज़ है जो उसकी इजाज़त देता है जैसा कि बाज़ बुज़ुर्ग फ़ुक़्हा से यह मनक़ूल है ?

जवाबः- यह काम जाएज़ नहीं है और क़ुर्बानी सिर्फ़ मेना में ही हो सकती है और अगर यह मुमकिन न हो तो जहां इस वक़्त क़ुर्बानी की जाती है वहीं की जायेगी ताकि क़ुर्बानी के उसूलों और निशानीयों की हिफ़ाज़त की जा सके क्यों की क़ुर्बानी शाआयरुल्लाह में से है।

सवाल नः (47) अगर हुकूमत मेना के अन्दर क़ुर्बानी करने पर पाबन्दी लगादे तो क्या हुज्जाज के लिये मक्के से बाहर क़ुर्बानी करना जाएज़ है और क्या मक्के के अन्दर क़ुर्बानी करना काफ़ी है ?

जवाबः- हाजियों की क़ुर्बानी मेना के अलावा कहीं और काफ़ी नहीं है अलबत्ता अगर वहां क़ुर्बानी करने पर पाबन्दी लग जाये तो उसके लिये जो जगह तय्यार की गई हो वहां क़ुर्बानी करना काफ़ी है इस सूरत में मक्के के अन्दर क़ुर्बानी करना भी काफ़ी है। लेकिन क़ुर्बानी की जगह का मेना से फ़ासला उतना ही होना चाहिये जितना उस जगह का है जो क़ुर्बानी के लिये तय्यार की गई है या उस से कम हो।

सवाल नः (48) ऐसे ख़ैराती इदारे मौजूद हैं जो हाजी की नियाबत में क़ुर्बानी करते हैं और फिर उसे ज़रूरत मन्द फ़क़ीरों के हवाले कर देते हैं इस मसअले में रहबरे मोअज़्ज़म की राये क्या है और जनाबे आली की नज़र में उसकी शर्तें क्या हैं ?

जवाबः- क़ुर्बानी की उन शर्तों का पूरा करना ज़रूरी है कि जो मनासिक में ज़िक्र हो चुकी हैं।

सवाल नः (49) क्या क़ुर्बानी को ज़िब्ह करने के बाद उसे उन ख़ैराती इदारों को देना जाएज़ है जो उसे फ़क़ीरों तक पहुंचाते हैं।

जवाबः- इस में कोई हर्ज नहीं है।

सवाल नः (50) सफ़ा और मरवा के दरमियान सई करते वक़्त सफ़ा और मरवा की पहाड़ीयों के पास लोगों की बड़ी तादाद जमा होती है जो सई करने वालों की भीड़ का सबब बनती है तो क्या सई करने वाले पर वाजिब है कि वह हर चक्कर में ख़ुद पहाड़ी तक जाये या संगे मर मर से बनी हुई पहली बुलन्दी काफ़ी है कि जो चलने से आजिज़ लोगों के रास्ते के ख़त्म होने के साथ शुरु होती है ?

जवाबः- उस हद तक चढ़ना काफ़ी है कि जिसके साथ यह सिद्क़ करे कि यह पहाड़ी तक पहुंचा है और उसने दो पहाड़ियों के दरमियान के पूरे हिस्से की सई की है।

सवाल नः (51) क्या उमरा-ए-मुफ़रेदा और हज्जे तमत्तो के लिये एक तवाफ़े निसा काफ़ी है?

जवाबः- उमरा-ए-मुफ़रेदा और हज्जे तमत्तो में से हर एक के लिये अलग तवाफ़े निसा है एक तवाफ़ दो तवाफ़ की कमी पूरी नहीं करता हां ख़ारिज होने के लिये एक तवाफ़ का काफ़ी होना बईद नहीं है।

सवाल नः (52) जो शख़्स बारहवीं की रात मेना में बसर करे और आधी रात के बाद कूच करे तो क्या उस पर वाजिब है कि ज़वाल से पहले वापस पलट आये ताकि दोबारह वहां पर मौजूद लोगों के साथ कूच कर सके जिन के लिये ज़वाल के बाद कूच करने वाजिब होता है और क्या इस बात में कोई हर्ज है कि वह सुब्ह के वक़्त मेना आकर जमरात को कंकरियां मार ले फिर मक्का पलट जाये या वहीं रहना वाजिब है ? बिलख़ुसूस जब वह अपने इख़्तियार के साथ ज़ोहर के बाद जमरात को कंकरियाम मारने और मग़रिब से पहले मेना से निकलने पर क़ादिर है।

जवाबः- जो शख़्स मेना में है उस पर वाजिब है कि ज़वाल के बाद कूच करे अगरचे इस तरह कि ज़वाल के बाद जमरात को कंकरियां मारने के लिये मक्के से आजाये और कंकरियां मारने के बाद ग़ुरूब से पहले कूच कर जाये पस आधी रात के बाद मक्का जाना जाएज़ है लेकिन कंकरियां मारने के लिये बारहवीं के दिन पलट आये और ज़वाल के बाद कूच करे।

सवाल नः (53) क्या उस आबे ज़म ज़म से वुज़ू करना जाएज़ है जो पीने के लिये मख़सूस है?

जवाबः- मुश्किल न है और एहतियात की रिआयत करना ज़रूरी है।

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