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मजलिस खुबरगाने रहबरी में इस्फ़हान प्रांत मे वली फ़क़ीह के प्रतिनिधि ने कहा: हम ग़ज़्ज़ा के उत्पीड़ित लोगों का समर्थन करने वाले अमेरिकी और यूरोपीय विश्वविद्यालयों के छात्रों, काशान यूनिवर्सिटी ऑफ मेडिकल साइंसेज के प्रोफेसरों और छात्रों के उत्पीड़न पर चुप नहीं रहेंगे अमेरिका और यूरोप के विश्वविद्यालय अमेरिका के जुल्म से बेखबर नहीं हैं।

हौज़ा न्यूज़ एजेंसी की रिपोर्ट के अनुसार, काशान में वली फ़कीह के प्रतिनिधि हुज्जतुल-इस्लाम वल मुस्लिमिन सैयद सईद हुसैनी ने काशान यूनिवर्सिटी ऑफ मेडिकल साइंसेज के शिक्षकों और छात्रों की एक सभा को संबोधित किया और कहा: अमेरिकी और यूरोपीय यह सभा ग़ज़्ज़ा के उत्पीड़ित लोगों के समर्थन में आयोजित की जा रही है। इस सभा का उद्देश्य संयुक्त राज्य अमेरिका को यह संदेश देना है कि हम उत्पीड़न को समाप्त नहीं करेंगे ये जुल्म सहो तो रह सकता है, लेकिन क्रूरता के साथ नहीं।

काशान में वली फकीह के प्रतिनिधि ने कहा: संयुक्त राज्य अमेरिका ने लोकप्रिय विद्रोह के माध्यम से 40 से 50 देशों की स्वतंत्र सरकारों को उखाड़ फेंका है, जिसका एक उदाहरण 1944 में तख्तापलट था जब संयुक्त राज्य अमेरिका और यूरोप ने ईरानी प्रधान मंत्री मोहम्मद मोसादेग को उखाड़ फेंका था अमेरिका एकमात्र ऐसा देश है जिसने जापान पर परमाणु बम गिराया, जिसमें तीन दिन के अंतराल पर हिरोशिमा और नागासाकी में 2,000 किलोमीटर के दायरे में 200,000 लोग मारे गए और अब वही अमेरिका मानवाधिकारों का दावा कर रहा है।

मजलिस खुबरगाने रहबरी में इस्फ़हान प्रांत मे वली फ़कीह के प्रतिनिधि ने कहा: हम ग़ज़्ज़ा के उत्पीड़ित लोगों का समर्थन करने वाले अमेरिकी और यूरोपीय विश्वविद्यालयों के छात्रों, संयुक्त राज्य अमेरिका में काशान यूनिवर्सिटी ऑफ मेडिकल साइंसेज के प्रोफेसरों और छात्रों और प्रदर्शनकारियों के उत्पीड़न पर चुप नहीं रहेंगे। अमेरिका को मानवाधिकारों का उद्गम स्थल कहने वाले अमेरिका में छात्रों के उत्पीड़न से यूरोपीय विश्वविद्यालय बेखबर नहीं हैं।

 

 

 

 

 

अब तक ईरान में पीएचडी के उम्मीदवारों में से 88,000 से अधिक ने अपना सब्जेक्ट चुनने का प्रोसेस पूरा कर लिया है।

ईरान शिक्षा मूल्यांकन संगठन के जनसंपर्क महानिदेशक डॉक्टर अली रज़ा करीमियान समाचार एजेंसी मेहर के साथ एक इंटर्व्यू में कहा कि वर्ष 2023-2024 में डॉक्टरेट परीक्षा में भाग लेने वाले 151,643 उम्मीदवारों में से 125,174 को स्टूडेंटस को एक सब्जेक्ट चुनने की इजाज़त दी गई थी।

डॉक्टर अली रज़ा करिमियान ने बताया कि जिन 125,174 स्टूडेंटस को कोई एक सब्जेक्ट चुनने की इजाज़त दी गई है उनमें 68,765 पुरुष और 56,409 महिलाएं हैं। उन्होंने बताया कि अब तक 88,000 से अधिक छात्रों ने अपना सब्जेक्ट चुन लिया है।

शाह का तख्तापलट और इमाम खुमैनी के नेतृत्व में ईरान में इस्लामी व्यवस्था का शासन, ऐसा घातक और भीषण झटका था जिसने ज़ायोनीवादियों के विस्तारवादी लक्ष्यों को गंभीर रूप से ख़तरे में डाल दिया था।

शाह का तख्तापलट और इमाम खुमैनी के नेतृत्व में ईरान में इस्लामी व्यवस्था का शासन, ऐसा घातक और भीषण झटका था जिसने ज़ायोनीवादियों के विस्तारवादी लक्ष्यों को गंभीर रूप से ख़तरे में डाल दिया था।

ईरान में इस्लामी क्रांति की सफलता से मुसलमानों के ज़ायोनी-विरोधी संघर्ष तेज़ हो गए और फ़िलिस्तीनियों के संघर्ष की दिशा बदल गई। शाह के शासन को पश्चिम एशिया के संवेदनशील क्षेत्र में पश्चिम और इस्राईल का एक मज़बूत सहयोगी माना जाता था।

शाह के समय में ईरान, इस्राईली वस्तुओं और उत्पादों के आयात का एक बड़ा बाज़ार था जिससे अवैध अतिग्रहणकारी शासन की अर्थव्यवस्था मज़बूत हो रही थी जबकि दूसरी ओर शाह ने इस्राईल की ज़रूरत के तेल का निर्यात करके और उसकी ज़रूरतों को पूरा करके इस शासन की मदद की। दूसरे शब्दों में यूं कहा जा सकता है कि ईरानी तेल, इस्राईली अर्थव्यवस्था और उद्योगों में वह गोली और हथियार बन गया जो फ़िलिस्तीनियों के सीनों को निशाना बना रहे थे।

ईरान, इस्राईली जासूसी अभियानों और क्षेत्र में अरबों के नियंत्रण का अड्डा बन चुका था। इस्राईल के साथ शाह के गुप्त और खुले संबंधों को उजागर करना और मुसलमानों के संयुक्त दुश्मन को शाह की निसंकोच सहायता का विरोध करना, इमाम खुमैनी के आंदोलन के मक़सदों में था। वह ख़ुद ही इस बारे में कहते थे: शाह का विरोध करने के कारणों में एक जिसने हमें शाह के मुक़ाबले में खड़ा कर दिया है, वह शाह द्वारा इस्राईल की मदद थी।

मैंने हमेशा अपने लेखों में कहा है कि शाह ने आरंभ से ही इस्राईल का सहयोग किया है और जब इस्राईल और मुसलमानों के बीच युद्ध अपने चरम पर पहुंचा तो शाह ने मुसलमानों का तेल हड़पना और उसे इस्राईल को देना जारी रखा, मेरे शाह के विरोध का यह ख़ुद ही एक कारण है।

शाह का तख्तापलट और इमाम खुमैनी के नेतृत्व में ईरान में इस्लामी व्यवस्था का शासन, ऐसा घातक और भीषण झटका था जिसने ज़ायोनीवादियों के विस्तारवादी लक्ष्यों को गंभीर रूप से ख़तरे में डाल दिया था।

इस्लामी क्रांति के संदेश और उसके नेतृत्व का जनमत पर प्रभाव इतना व्यापक था कि जब अनवर सादात ने कैंप डेविड में समझौते पर हस्ताक्षर किए तो मिस्र सरकार को अरब जिरगा और यहां तक ​​कि रूढ़ीवादी अरब शासन के ग्रुप से निकाल दिया गया और मिस्र पूरी तरह से अलग थलग पड़ गया।

बैतुल मुक़द्दस पर क़ब्ज़ा करने वाले शासन के मुख्य समर्थक अमेरिका और यूरोपीय सरकारें जब इमाम खुमैनी के आंदोलन का सामना करने में हार गयीं तो वे ईरान की इस्लामी क्रांति को रोकने और स्थिति को बदलने के लिए एक प्लेटफ़ार्म पर जमा हो गयीं।

इन्होंने अपने पूर्वी प्रतिद्वंद्वी (पूर्व सोवियत संघ) के साथ गठबंधन कर लिया जोड़ लिया और इस मुद्दे पर इतनी हद तक बढ़ गये कि उन्होंने ईरानी क्षेत्रों पर क़ब्ज़ा करने के लिए सद्दाम को उकसाया और ईरान की नवआधार क्रांति और इराक़ के बीच लंबे युद्ध के सभी चरणों में इराक़ के लिए दो महाशक्तियों का भरपूर समर्थन देखने को मिला।

ए युद्ध को इस्लामी क्रांति को समाप्त करने, ईरान के टुकड़े करने और उसपर क़ब्ज़ा करने के उद्देश्शय से आंरभ किया गया था।  इस्लामी गणतंत्र ईरान जो, दुनिया के वंचितों के लिए संघर्ष करने के उद्देश्य से भूमिका निभाना चाहता था और जो इस नारे के साथ आगे बढ़ना चाहता था कि "आज ईरान, कल फ़िलिस्तीन"।  अब वह अपनी क्रांति के अस्तित्व की सुरक्षा के लिए न चाहते हुए भी युद्ध में खीच लिया गया।  यह थोपा गया युद्ध पश्चिमी और अन्य नेताओं के कथनानुसार इस्लामी क्रांति को समाप्त करने के लिए शुरू किया गया था।  इसका एक अन्य उद्देश्य, मुसलमान राष्ट्रों को इस्लामी क्रांति से रोकना था।  इस तरह से सद्दाम ने इस्लाम दुश्मन शक्तियों के उकसावे में आकर एक लंबा युद्ध आरंभ किया।  इस बारे में इमाम ख़ुमैनी कहते हैं कि जो बहुत खेद का विषय है वह यह है कि महाशक्तियां विशेषकर अमरीका ने सद्दाम को उकसाकर हमारे देश पर हमला करवाया ताकि ईरान की सरकार को अपने देश की सुरक्षा करने में व्यस्त कर दिया जाए जिससे अवैध ज़ायोनी शासन को वृहत्तर इस्राईल के गठन का मौक़ा मिल जाए जो नील से फ़ुरात तक निर्धारित है।

 

शाह की अत्याचारी सरकार के दौर में इमाम ख़ुमैनी ने इस्राईल और शाह के शासन के बीच संबन्धों का पर्दाफ़ाश किया था।  वे इस्लामी जगत के लिए इस्राईल को बड़ा ख़तरा मानते थे।  स्वर्गीय इमाम ख़ुमैनी ही वे पहले वरिष्ठ धर्मगुरू थे जिन्होंने फ़िलिस्तीन के लिए संघर्ष को ज़कात और सदक़े के माध्यम से जारी रखने का समर्थन किया था।  आरंभ से ही उन्होंने सताए गए फ़िलिस्तीनी राष्ट्र को संगठित करने और उनसे मुस्लिम राष्ट्रों का समर्थन प्राप्त करने के लिए सबसे अधिक प्रभावशाली तरीक़ा पेश किया।  उन्होंने अरब जाति की वरिष्ठता, राष्ट्रवादी दृष्टिकोण और दूसरी आयातित ग़ैर इस्लामी विचारधाराओं पर भरोसा करके बैतुल मुक़द्दस की आज़ादी के लिए संघर्ष को, मार्ग से भटकना बताया।

उनको कुछ इस्लामी देशों के नेताओं की अक्षमता तथा निर्भर्ता की जानकारी थी और साथ ही वे इस्लामी जगत की आंतरिक समस्याओं से भलिभांति अवगत थे।  इसी के साथ वे धार्मिक मतभेदों के विरोधी थे और इस्लामी राष्ट्रों के नेताओं को एकता का आहवान करते थे।  उनका यह भी मानना था कि जबतक सरकारें आम मुसलमानों की इच्छाओं के हिसाब से उनके साथ रहेंगी उस समय तक वे उनका नेतृत्व कर सकती हैं।  यदि एसा न हो तो उन राष्ट्रों को वैसा ही करना चाहिए जैसा कि ईरानी राष्ट्र ने शाह के साथ किया।

यहां पर फ़िलिस्तीन के विषय के संदर्भ में ज़ायोनी दुश्मन के विरुद्ध संघर्ष को लेकर इमाम ख़ुमैनी ने कुछ बिदु पेश किये हैं।

अमरीका और इस्राईल के विरुद्ध तेल रणनीति का प्रयोगः

उनहोंने नवंबर 1973 के युद्ध की वर्षगांठ पर इस्लामी देशों को संबोधित करते हुए अपने संदेश में कहा थाः तेल से संपन्न इस्लामी देशों को चाहिए कि वे अपने पास मौजूद सारी संभावनाओं को इस्राईल के विरुद्ध हथकण्डे के रूप में प्रयोग करें।  वे उन सरकारों को तेल न बेचें जो इस्राईल की सहायता करते हैं। फ़िलिस्तीन की आज़ादी, इस्लामी पहचान की बहाली पर निर्भरः

हम जबतक इस्लाम की ओर वापस नहीं आते, रसूल अल्लाह के इस्लाम की ओर, उस समय तक मुश्क़िलें बाक़ी रहेंगी।  ऐसे में हम न तो फ़िलिस्तीन समस्या का समाधान करा पाएंगे न अफ़ग़ानिस्तान का और न ही किसी दूसरे विषय का।

बारंबार वृहत्तर इस्राईल के गठन का रहस्योदघाटनः

इस्राईल की संसद का मुख्य नारा यह था कि इस्राईल की सीमाएं नील से फ़ुरात तक हैं।  उनका यह नारा उस समय भी था जब अवैध ज़ायोनी शासन के गठन के समय ज़ायोनियों की संख्या कम थी।  स्वभाविक सी बात है कि शक्ति आने पर वे उसको व्यवहारिक बनाने के प्रयास अवश्य करेंगे।

इमाम ख़ुमैनी ने हमेशा ही इस्राईल की विस्तारवादी नीतियों के ख़तरों और उसका अपनी वर्तमान सीमाओं तक सीमित न रहने के प्रति सचेत किया।  वे यह भी कहा करते थे कि इस लक्ष्य पर इस्राईल की ओर से पर्दा डालने का काम आम जनमत को धोखा देने के उद्देश्य से है जबकि इसको चरणबद्ध ढंग से हासिल करने की वह कोशिश करता रहेगा।

ज़ायोनिज़्म और यहूदी में अंतरः

वास्तव में ज़ायोनिज़्म, यहूदी धर्म की आड़ में विस्तारवादी, जातिवादी और वर्चस्ववादी एक एसी प्रक्रिया है जो धर्म के चोले में यहूदी धर्म के लक्ष्यों को पूरा करने का दिखावा करता है।  हालांकि जानकार इस बात से भलिभांति अवगत हैं कि इस नाटक के अन्तर्गत ज़ायोनी, फ़िलिस्तीनियों पर अत्याचार करने और उनकी ज़मीनों पर क़ब्ज़ा करने का औचित्य पेश कर सकें।  यह काम आरंभ में ब्रिटेन के माध्यम से शुरू हुआ था किंतु वर्तमान समय में यह, वाइट हाउस को सौंप दिया गया है।  यह बात बहुत ही स्पष्ट है कि नया साम्राज्यवाद, केवल अपने निजी हितों पर ही नज़र रखता है।  इमाम ख़ुमैनी, इस वास्तविकता को समझते हुए हमेशा ही ज़ायोनिज़म और यहूदियत में फ़र्क़ के क़ाएल थे।  वे ज़ायोनिज़्म को एक राजनीतिक प्रक्रिया मानते थे जो ईश्वरीय दूतों की शिक्षाओं से बिल्कुल अलग और दूर है।

फ़िलिस्तीन की मुक्ति का रास्ताः

एक अरब से अधिक मुसलमानों पर ज़ायोनियों के एक छोटे से गुट के शासन को इमाम ख़ुमैनी बहुत शर्मनाक मानते थे।  वे कहते थे कि एसा क्यों है कि वे देश जो सबकुछ रखते हैं और उनके पास शक्ति भी है, उनपर इस्राईल जैसा हुकूमत करे? एसा क्यों है? यह इसलिए है कि राष्ट्र, एक-दूसरे से अलग हैं।  सरकारें और राष्ट्र अलग हैं।  एक अरब मुसलमान अपनी सारी संभावनाओं के बावजूद बैठे हुए हैं और इस्राईल, लेबनान और फ़िलिस्तीन पर अत्याचार कर रहे है।

ज़ायोनिज़्म के विरुद्ध राष्ट्रों का आन्दोलन और अमरीका पर निर्भर न रहनाः

इमाम ख़ुमैनी ने 16 दिसंबर 1981 को न्यायपालिका के अधिकारियों के साथ मुलाक़ात में इस ओर संकेत किया था कि मुसलमान सरकारों की अमरीका पर निर्भर्ता ही मुसलमानों की समस्याओं का मुख्य कारण हैं।  उन्होंने कहा कि मुसलमान बैठे न रहें कि उनकी सरकारें, इस्लाम को ज़ायोनियों के पंजों से मुक्ति दिलाएं।  वे न बैठे रहें कि अन्तर्राष्ट्रीय संगठन उनके लिए काम करें।  राष्ट्रों को इस्राईल के सामने उठना होगा।  राष्ट्र स्वयं आन्दोलन करके अपनी सरकारों को इस्राईल के मुक़ाबले में खड़ा करें।  वे केवल मौखिक भर्त्सना को काफी न समझें।  वे लोग जिन्होंने इस्राईल के साथ भाइयों जैसे संबन्ध बनाए हैं वे ही उसकी भर्त्सना भी करते हैं किंतु वास्तव में यह निंदा तो मज़ाक़ की तरह है।  अगर मुसलमान बैठकर यह सोचने लगें कि अमरीका या उसके पिट्ठू उनके लिए काम करेंगे तो फिर यह काफ़ला हमेशा ही लंगड़ाता रहेगा।

एक विश्लेषक के अनुसार, पश्चिमी राजनीति ने लोकतंत्र, मानवाधिकार और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को एक हथकंडे के रूप में इस्तेमाल किया है और अब यह उस बिंदु पर पहुंच गया है जहां न केवल क्लर स्कीन के लोग नस्लीय भेदभाव के ख़िलाफ लड़ते हैं, बल्कि शिक्षाविद और यहां तक ​​कि कुछ अमेरिकी राजनेता भी इस बुराई से लड़ते नज़र आ रहे हैं यहां तक कि इस देश के अधिकारियों के बच्चों ने भी आवाज़ उठाई है।

कोलंबिया विश्वविद्यालय में सैकड़ों प्रदर्शनकारियों की गिरफ्तारी के बाद अमेरिकी विश्वविद्यालय परिसरों में फ़िलिस्तीन समर्थकों के विरोध की लहर फैल गई है और प्रदर्शनों की लहर इस देश के अधिकांश विश्वविद्यालयों में फैलने के बाद यह दुनिया भर के अन्य देशों के विश्वविद्यालयों में भी फैल रही है।

न्यूयॉर्क में कोलंबिया विश्वविद्यालय का विरोध प्रदर्शन 14 दिन पहले यानी (17 अप्रैल) शुरू हुआ और प्रदर्शनकारी छात्रों ने ग़ज़ा युद्ध में शामिल इस्राईली संस्थानों के साथ इस विश्वविद्यालय के संबंध तोड़ने की मांग की जबकि अन्य विश्वविद्यालयों में प्रदर्शनकारियों की ऐसी ही मांगें हैं।

दूसरी ओर, अमेरिकी सरकार ने इन प्रदर्शनों और विरोध प्रदर्शनों को ख़त्म करने के लिए सैन्य कार्यवाही शुरू कर दी है।

यहां हम इन घटनाओं के बारे में कु ईरानी विशेषज्ञों के विश्लेषण पर रोशनी डालेंगे:

 ग़ैर-अप्रवासी अमेरिकियों की मज़बूत उपस्थिति

तेहरान विश्वविद्यालय में विश्व अध्ययन संकाय के एकेडमिक मेंबर फ़ुआद इज़दी:

इस प्रदर्शन में भाग लेने के लिए आपका मुस्लिम होना या वामपंथी विचारधारा से संपन्न होना ज़रूरी नहीं है। इन तस्वीरों को देखने के बाद विरोध प्रदर्शनों में भाग लेने के लिए केवल मानवता ही काफ़ी है।

संभव है कि पश्चिमी मीडिया इन घटनाओं को तबाह कर दे लेकिन इससे काम की प्रवृत्ति नहीं बदलती। यदि इस आबादी का एक प्रतिशत भी मुसलमान है, तो हमें पता होना चाहिए कि वे अप्रवासी नहीं हैं। विदेशी छात्र आमतौर पर विरोध प्रदर्शनों में भाग नहीं लेते क्योंकि उन्हें अमेरिका से निकाले जाने का भय होता है।

प्रदर्शनकारियों में चाहे मुस्लिम हों या नहीं, हमें पता होना चाहिए कि ये लोग अमेरिकी नागरिक हैं।

अमेरिकन होने के कारण ही उनको डबल ड्यूटी का अनुभव होता है।

 उदार लोकतंत्र की प्रेरक चुनौती

ईरान के पयामे नूर विश्वविद्यालय के संकाय सदस्य सईद अब्दुलमलेकी:

2003  में, अमेरिका ने परमाणु बम की तलाश के लिए इराक़ में आप्रेशन किया लेकिन यह झूठ से ज्यादा कुछ नहीं था।

आज ग़ज़ा में 35000 से अधिक लोग मारे गए, जिनमें से अधिकांश निहत्थी महिलाएं और बच्चे थे।

उदार लोकतंत्र के पास इस नरसंहार का क्या औचित्य है?! वास्तव में, ऐसा कोई तर्क नहीं है जो इस संबंध में आम जनमत और अमेरिका के एकेडमिक वर्ग को आश्वस्त कर सके।

छात्रों और प्रोफेसरों ने एक राष्ट्रीय आंदोलन शुरू कर दिया क्योंकि उन्हें लगता है कि इस व्यवस्था ने उनकी पहचान, गौरव और मानवता का हरण कर लिया है, और वे वास्तव में एक सैन्यवादी और कब्ज़ा करने वाली व्यवस्था का सामना कर रहे हैं।

पश्चिमी राजनीति ने लोकतंत्र, मानवाधिकार और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को एक हथकंडे के रूप में इस्तेमाल किया है और अब यह उस बिंदु पर पहुंच गया है जहां न केवल क्लर स्कीन के लोग नस्लीय भेदभाव के ख़िलाफ लड़ते हैं, बल्कि शिक्षाविद और यहां तक ​​कि कुछ अमेरिकी राजनेता भी इस बुराई से लड़ते नज़र आ रहे हैं यहां तक कि इस देश के अधिकारियों के बच्चों ने भी आवाज़ उठाई है।

इस बात की संभावना करना बहुत ही क़रीब है कि विश्वविद्यालयों का यह आंदोलन, एक सामाजिक महामारी बन जाएगा क्योंकि अमेरिकी सरकार की ओर से हत्यारे ज़ायोनी शासन के चौतरफ़ा बचाव और समर्थन, अमेरिका की सामाजिक और राजनीतिक पूंजी को तबाह कर देगी यानी अमेरिकी मूल्यों की प्रतिष्ठा दांव पर लग जाएगी।

पहचान के संघर्ष की गंभीर भूमिका

अमेरिकी मुद्दों के विशेषज्ञ हादी ख़ुसरू शाहीन:

फ्रांसिस फुकुयामा के अनुसार, जिसे उनकी आख़िरी किताब बुक ऑफ आइडेंटिटी के रूप में प्रकाशित किया गया था, लगभग पुख्ता सबूत हैं - ख़ासकर नवम्बर 2016 के बाद - अमेरिका अपनी पहचान के युग में प्रवेश कर चुका है।

इन पहचान संघर्षों के प्रकट होने के कई कारण हैं।

शायद इन संघर्षों के उभरने का सबसे महत्वपूर्ण कारण पश्चिमी उदारवादी लोकतंत्रों में मौजूद कुछ कमियों की ओर पलटता है।

दूसरी ओर, अमेरिकी मुख्यधारा में मूल रूप से विभिन्न आवाज़ों का प्रतिनिधित्व करने की क्षमता, संभावना या इच्छाशक्ति नहीं है जो पहचान के संघर्षों के ढांचे में परिभाषित होती है।

इसका विश्लेषण इस रूप में किया जा सकता है कि अमेरिका में हालिया विरोध प्रदर्शन बढ़े हैं बल्कि यह प्रदर्शन जारी हैं और साथ ही यह घरेलू राजनीति को भी चुनौती दे रहे हैं। विदेश नीति में अन्य श्रेणियों के विपरीत, ऐसे मुद्दे आमतौर पर अमेरिकी घरेलू नीति में कम ही टारगेटेड होते हैं लेकिन ग़ज़ा में नरसंहार का मुद्दा आखिरकार घरेलू राजनीति को चुनौती देने में सक्षम हो गया। इस एतेबार से इस घटना को पहचान के संघर्ष के युग में अमेरिका के दाख़िल होने के नमूनों में से एक या एक हिस्से के रूप में माना जा सकता है। वास्तव में लगभग दो मुख्य धाराओं के बीच पहचान का टकराव है। एक विचारधारा जो श्वेत अमेरिकियों के प्रभुत्व और संप्रभुता को संरक्षित करने और मूल व ऐतिहासिक अमेरिका की ओर लौटने का समर्थन करता है, यह वह अमेरिका जहां जातीय विविधता और बहुराष्ट्रीय प्रवृत्ति का निशान ही नज़र नहीं आता।

दूसरी ओर, एक और विचारधारा है जिसको एहसास है कि उसकी मांगों और उम्मीदों का घरेलू और विदेश नीति में जवाब ही नहीं मिलता। इसकी वजह यह है कि यह संघर्ष, बुनियादों और सिद्धांतों को लेकर है, यह संघर्ष ख़ुद बा ख़ुद हिंसक हो जाता है। नवम्बर 2020 में अमेरिकी चुनावों में, कुछ सर्वेक्षणों ने संकेत दिया कि दोनों पक्षों ने, चाहे बाइडेन या डेमोक्रेटिक समर्थक या ट्रम्प या रिपब्लिकन समर्थक हो, चुनावी लक्ष्यों को आगे बढ़ाने और पूरा करने के लिए एक निश्चित मात्रा में राजनीतिक हिंसा की अनुमति दी है।

विरोध प्रदर्शनों के आम लोगों तक पहुंचने की संभावना

तेहरान विश्वविद्यालय के फ़िलिस्तीन अध्ययन केन्द्र के प्रोफ़ेसर हादी बुरहानी:

पश्चिमी देशों और अमेरिका में विश्वविद्यालयों को एक विशेष स्थान प्राप्त है और दूसरी ओर ये विरोध प्रदर्शन, अमेरिका के प्रसिद्ध और बड़े विश्वविद्यालयों में हो रहे हैं और यदि ये जारी रहे, तो परिवर्तन की लहरें "आम लोगों" तक पहुंच सकती हैं।

यदि विरोध प्रदर्शन आम लोगों तक पहुंच गए, तो अमेरिकी सरकार इसे रोक नहीं पाएगी, और यह अंततः अमेरिका में ज़ायोनी शासन और उसकी लॉबी के लिए ख़तरा बन जाएगा।

अमेरिका में "पारशल डेमोक्रेसी" है और यदि इस देश में अधिकांश लोग ज़ायोनी शासन के समर्थन के ख़िलाफ़ हैं, तो इस शासन का समर्थन करने की नीति अब टिकाऊ नहीं रहेगी और तेल अवीव के लिए वाशिंगटन का समर्थन ख़तरे में पड़ जाएगा।

 स्रोत:

अमेरिका में छात्रों का विरोध प्रदर्शन "आम लोगों" तक भी पहुंच सकता है। (1403 हिजरी शम्सी) मेहर न्यूज़ संवाददाता

7 अक्टूबर के छात्र आंदोलन की समाजशास्त्री, फ़रहिख़्तगान अखबार ब्रेमानी फ़ातेमा

अमेरिकी विश्वविद्यालयों का आंदोलन, एक सामाजिक आंदोलन बन गया। (1403 हिजरी शम्सी) तस्नीम समाचार एजेंसी

 

 

पवित्र क़ुरआन के दृष्टिकोण से, सृष्टि की दुनिया में, अस्तित्व की रचना न्याय पर आधारित है, और इसमें उत्पीड़न और अन्याय के लिए कोई जगह नहीं है  और क़ानून की दुनिया में न्याय को ईश्वरीय दूतों के मिशन के तीन महत्वपूर्ण लक्ष्यों में से एक माना जाता है। न्यायपूर्ण दृष्टि से हर चीज़ अपनी सही जगह पर होनी चाहिए और हर असली मालिक को उसका अधिकार मिलना चाहिए।

न्याय उन मूलभूत कान्सेप्ट में से एक है जिसे क़ुरआन ने नज़रियों, रूपांतर और कहानियों का इस्तेमाल करके विभिन्न सूरों और आयतों में व्यक्त और समझाया है, और इसका पालन करने और इसपर अमल करने पर ज़ोर दिया है। क़ुरआन के दृष्टिकोण से, सृष्टि की दुनिया में, अस्तित्व के निर्माण न्याय पर आधारित है, और इसमें उत्पीड़न और अन्याय के लिए कोई जगह नहीं है। साथ ही क़ानून की दुनिया में न्याय को ईश्वरीय दूतों के मिशन के तीन महत्वपूर्ण लक्ष्यों में से एक माना जाता है। ईश्वर और इस्लाम की नज़र में न्याय के महत्व को बेहतर ढंग से समझने के लिए सबसे विश्वसनीय स्रोत किताब के रूप में पवित्र क़ुरआन है।

पार्सटुडे के इस लेख में, हम पवित्र क़ुरआन की सैकड़ों आयतों में से 8 ऐसी महत्वपूर्ण आयतों पर एक नज़र डालेंगे, जिनमें न्याय के मुद्दे का स्पष्ट या परोक्ष रूप से उल्लेख किया गया है:

अल्लाह (ईश्वर) के कार्य न्याय पर आधारित हैं

"شَهِدَ اللَّهُ أَنَّهُ لا إِلهَ إِلاَّ هُوَ وَ الْمَلائِکَةُ وَ أُولُوا الْعِلْمِ قائِماً بِالْقِسْطِ لا إِلهَ إِلاَّ هُوَ الْعَزیزُ الْحَکیمُ"؛ [قرآن: آل عمران، ۱۸[

"अल्लाह ने गवाही दी है कि उसके अतिरिक्त कोई पूज्य नहीं है और फ़रिश्तों तथा ज्ञानियों ने भी गवाही दी है। वह न्याय स्थापित करने वाला है, उसके अतिरिक्त कोई पूज्य नहीं है, वह प्रभुत्वशाली और तत्वदर्शी है।"

अल्लाह के कार्य में रत्ती भर भी अन्याय नहीं है

"إِنَّ اللَّهَ لا یَظْلِمُ مِثْقالَ ذَرَّةٍ وَ إِنْ تَکُ حَسَنَةً یُضاعِفْها وَ یُؤْتِ مِنْ لَدُنْهُ أَجْراً عَظِیما"؛ [قرآن: نساء، 40[

"निसंदेह ईश्वर कण बराबर भी अत्याचार नहीं करता और यदि अच्छा कर्म हो तो उसका बदला दो गुना कर देता है और अपनी ओर से भी बड़ा बदला देता है"

लोगों के बीच न्याय के साथ फ़ैसला करो

"إِنَّ اللَّهَ یَأْمُرُکُمْ أَنْ تُؤَدُّوا الْأَماناتِ إِلى‏ أَهْلِها وَ إِذا حَکَمْتُمْ بَیْنَ النَّاسِ أَنْ تَحْکُمُوا بِالْعَدْلِ إِنَّ اللَّهَ نِعِمَّا یَعِظُکُمْ بِهِ إِنَّ اللَّهَ کانَ سَمیعاً بَصیرا"؛ [قرآن: نساء، 58]

 

नि:संदेह ईश्वर तुम्हें आदेश देता है कि अमानतों को उनके मालिकों को लौटा दो और जब कभी लोगों के बीच फ़ैसला करो तो न्याय से फ़ैसला करो, नि:संदेह ईश्वर तुम्हें अच्छे उपदेश देता है, निश्चित रूप से वह सुनने और देखने वाला भी है।

दुश्मनी की वजह से दूसरों के साथ ना इंसाफ़ी न करो

"یا أَیُّهَا الَّذینَ آمَنُوا کُونُوا قَوَّامینَ لِلَّهِ شُهَداءَ بِالْقِسْطِ وَ لا یَجْرِمَنَّکُمْ شَنَآنُ قَوْمٍ عَلى‏ أَلاَّ تَعْدِلُوا اعْدِلُوا هُوَ أَقْرَبُ لِلتَّقْوى‏ وَ اتَّقُوا اللَّهَ إِنَّ اللَّهَ خَبیرٌ بِما تَعْمَلُونَ"؛ [قرآن: مائده، 8[

हे ईमान वालो! सदैव ईश्वर के लिए उठ खड़े होने वाले बनो और केवल (सत्य व) न्याय की गवाही दो और कदापि ऐसा न होने पाए कि किसी जाति की शत्रुता तुम्हें न्याय के मार्ग से विचलित कर दे। न्याय (पूर्ण व्यवहार) करो कि यही ईश्वर के भय के निकट है और ईश्वर से डरते रहो कि जो कुछ तुम करते हो निसन्देह, ईश्वर उससे अवगत है।

अल्लाह (ईश्वर) अत्याचारियों पर भी अत्याचार नहीं करता

 "وَ لَوْ أَنَّ لِکُلِّ نَفْسٍ ظَلَمَتْ ما فِی الْأَرْضِ لاَفْتَدَتْ بِهِ وَ أَسَرُّوا النَّدامَةَ لَمَّا رَأَوُا الْعَذابَ وَ قُضِیَ بَیْنَهُمْ بِالْقِسْطِ وَ هُمْ لا یُظْلَمُونَ"؛ [قرآن: یونس، ۴۷[

और हर समुदाय के लिए एक पैग़म्बर हो तो जब उनका पैग़म्बर आ जाता है तो उनका फ़ैसला न्यायपूर्वक कर दिया जाता है और उन पर कोई अत्याचार नहीं होता।

लोगों का हक़ अदा करने में नाइंसाफी न करें

"وَ یا قَوْمِ أَوْفُوا الْمِکْیالَ وَ الْمیزانَ بِالْقِسْطِ وَ لا تَبْخَسُوا النَّاسَ أَشْیاءَهُمْ وَ لا تَعْثَوْا فِی الْأَرْضِ مُفْسِدینَ" [قرآن، هود ۸۵[

हे मेरी क़ौम के लोगों! नाप और तुला को न्याय के साथ भरो और लोगों की वस्तुओं में से कुछ कम न करो और अपनी बुराई द्वारा धरती में बिगाड़ न फैलाओ।

लोगों को न्याय के लिए खड़ा होना चाहिए

"لَقَدْ أَرْسَلْنا رُسُلَنا بِالْبَیِّناتِ وَ أَنْزَلْنا مَعَهُمُ الْکِتابَ وَ الْمیزانَ لِیَقُومَ النَّاسُ بِالْقِسْطِ"؛ [قرآن: حدید، ۲۵[

हमने अपने पैग़म्बरों को स्पष्ट प्रमाण के साथ भेजा (लोगों का मार्गदर्शन करने के लिए) और उन पर किताब और न्याय का पैमाना उतारा ताकि लोग धार्मिकता और न्याय के साथ उठ खड़े हों।

अल्लाह (ईश्वर) न्याय प्रेमियों से प्रेम करता है

"وَ أَقْسِطُوا إِنَّ اللَّهَ یُحِبُّ الْمُقْسِطین‏"؛ [قرآن: حجرات، ۹[

न्याय के अनुसार काम करो, वास्तव में ईश्वर उन लोगों से प्रेम करता है जो न्याय चाहते हैं।

अयातुल्ला नूरी हमदानी ने कहा: इस्लाम के बारे में जो निश्चित और निर्धारित है वह हिजाब की बाध्यता है। इस्लामिक समाज में इसका अभ्यास होना चाहिए।'

हौज़ा न्यूज़ एजेंसी के अनुसार, हज़रत आयतुल्लाह नूरी हमदानी ने कुरान विषयों पर शोध करने वाली महिलाओं के साथ आयोजित एक कार्यक्रम में हिजाब से संबंधित कुरआन की आयतों का जिक्र किया और कहा: जो मुस्लिम और निश्चित है वह हिजाब और इस्लामी समाज का दायित्व है और खराब हिजाब को नहि-अनिल-मुनकर के रूप में उचित उपचार दिया जाना चाहिए।

उन्होंने कहा: कुछ लोग कहते हैं कि हिजाब के मुद्दे पर तब तक ध्यान नहीं दिया जाना चाहिए जब तक कि आर्थिक स्थिति ठीक न हो जाए, जब तक गबन और गबन समाप्त न हो जाए, या जब तक अमुक समस्या का समाधान न हो जाए।

इस मार्जा तकलीद ने कहा: हमने बार-बार लोगों की अर्थव्यवस्था और आर्थिक समस्याओं को हल करने पर जोर दिया है और हम लोगों के जीवन के बारे में चिंतित हैं। हमने बैंकों में सूदखोरी और रिश्वतखोरी को खत्म करने के लिए आवाज उठाई है, हमने भ्रष्टाचार रोकने की चेतावनी दी है और ऐसा करते रहेंगे।

आयतुल्लाह नूरी हमदानी ने कहा: उसी तरह, हम हिजाब के मुद्दे को लेकर बहुत संवेदनशील हैं और कानून के मुताबिक हिजाब नहीं पहनने वालों का जिक्र करना जरूरी और शरिया कर्तव्य है।

उन्होंने कहा: पवित्र कुरान में, पवित्र पैगंबर (स) का स्पष्ट संबोधन है कि "अपनी महिलाओं को हिजाब पहनने का आदेश दें" इसलिए हम सभी के लिए यह महत्वपूर्ण है कि हम इस कर्तव्य को अपने घरों और अपने आस-पास के लोगों से शुरू करें। . उसी प्रकार इस्लामिक देशों के शासकों के लिए भी इस कर्तव्य के पालन में मौजूदा कानूनों को लागू करना आवश्यक है।

 

 

 

 

 

लेबनान की "क़ौलना वल-अमल" समिति के प्रमुख शेख अहमद अल-क़त्तान ने कहा: दुनिया भर के विश्वविद्यालयों ने गाजा के समर्थन में बैठकें और प्रदर्शन करके कब्जा करने वाली ज़ायोनी सरकार को गंभीर पीड़ा पहुंचाई है।

हौज़ा न्यूज़ एजेंसी की रिपोर्ट के अनुसार, लेबनान की "क़ौलना वल-अमल" समिति के प्रमुख शेख अहमद अल-क़त्तान ने अपने बयान में कहा: "दुनिया भर के विश्वविद्यालयों ने बैठकें आयोजित करके ज़ायोनी सरकार को गंभीर पीड़ा पहुंचाई है।" और गाजा के समर्थन में प्रदर्शन। इसलिए, हम दुनिया के सभी विश्वविद्यालयों, विशेष रूप से लेबनानी विश्वविद्यालयों, उच्च विद्यालयों, संस्थानों और स्कूलों को गाजा में चल रहे नरसंहार की निंदा के संबंध में आयोजित प्रदर्शनों और बैठकों में भाग लेने के लिए आमंत्रित करते हैं। उत्पीड़ितों का समर्थन कर सकते हैं।

उन्होंने कहा: हम देखते हैं कि कैसे इराक, यमन और दक्षिण लेबनान में हमारे लोग अपनी जान देकर और लड़कर और मिसाइलों से हमला करके उत्पीड़ितों का समर्थन कर रहे हैं और अपने मुस्लिम भाइयों का समर्थन करते हैं और कुछ भी करते हैं और विरोध करते हैं जिससे दुश्मन को नुकसान होता है।

शेख क़त्तान ने कहा: हमें पूरी दुनिया को बताना चाहिए कि ज़ायोनी सरकार किस तरह के अपराध कर रही है, फिलिस्तीन में हमारे लोगों और हमारे भाइयों पर कैसे अत्याचार हो रहा है, और वे कैसे नरसंहार कर रहे हैं जबकि वे स्वतंत्रता, मानवता के रक्षक होने का भी दावा करते हैं और बच्चों और महिलाओं के अधिकार।

इस लेबनानी सुन्नी धार्मिक विद्वान ने कहा: दुनिया को यह देखने दें कि ज़ायोनीवादियों का मानवता से कोई लेना-देना नहीं है, यह हमारा कर्तव्य है कि हम दुनिया को बताएं कि यह दमनकारी शासन कैसे खुलेआम नरसंहार कर रहा है।

 

 

 

 

 

यमनी सेना के प्रवक्ता ने लाल सागर और हिंद महासागर में दो अमेरिकी और दो ज़ायोनी जहाजों पर ड्रोन हमलों की सूचना दी है।

अल-मसीरा के मुताबिक यमनी सेना के प्रवक्ता मेजर जनरल याहया सारी ने कहा है कि यमनी सेना ने लाल सागर और हिंद महासागर में इज़राइल की ओर जा रहे दो जहाजों को सफलतापूर्वक निशाना बनाया है.

उन्होंने कहा कि यमनी सेना ने लाल सागर में साइक्लेडेस जहाज पर मिसाइल दागी, जिसने सफलतापूर्वक अपने लक्ष्य पर हमला किया. उपरोक्त जहाज उम्म अल-रशाराश के ज़ायोनी बंदरगाह की ओर जा रहा था। यह जहाज यमनी सेना को चकमा देते हुए ज़ायोनी बंदरगाह की ओर जाना चाहता था, लेकिन यमनी सेना ने उसके प्रयास को विफल कर दिया।

जनरल याहया साड़ी ने इस बात का ज़िक्र करते हुए कि यमनी सेना ने हिंद महासागर में ज़ायोनी जहाज एमएससी ओरियन पर भी ड्रोन हमला किया है, कहा कि ज़ायोनी बंदरगाहों पर जाने वाले जहाजों को रोकने का सिलसिला जारी रहेगा उन्होंने कहा कि यमनी सेना की कार्रवाई तब तक जारी रहेगी जब तक गाजा में फिलिस्तीनियों के खिलाफ आक्रामकता बंद नहीं हो जाती.

गौरतलब है कि गाजा में फिलिस्तीनी लोगों के प्रतिरोध के समर्थन में यमनी सेना लाल सागर और बाब अल-मंदेब जलडमरूमध्य में कब्जे वाले क्षेत्रों में जाने वाले अमेरिकी, ब्रिटिश और ज़ायोनी जहाजों को लगातार निशाना बना रही है।

ईरान के विदेश कार्यालय के प्रवक्ता ने कहा है कि अमेरिकी पुलिस को अमेरिकी विश्वविद्यालयों में छात्रों पर अत्याचार करने की इजाजत देना इस तथ्य को दर्शाता है कि मानवाधिकार के मामले में यूरोप और संयुक्त राज्य अमेरिका का रवैया पूरी तरह से अस्पष्ट है।

ईरान के विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता नासिर कनानी ने पत्रकारों के साथ अपने साप्ताहिक साक्षात्कार में अमेरिकी विश्वविद्यालयों में छात्रों के खिलाफ पुलिस हिंसा की निंदा की। उन्होंने कहा कि अमेरिकी विश्वविद्यालयों में घटित घटनाएँ इस बात की अभिव्यक्ति हैं कि विश्व जनमत में फ़िलिस्तीनी मुद्दे के प्रति जागरूकता बढ़ी है और नस्लवादी ज़ायोनी शासन, फ़िलिस्तीनियों का नरसंहार करने वाली अत्याचारी सरकार के प्रति घृणा बढ़ रही है और यूरोप और अमेरिका के समर्थन से नरसंहार कर रहे हैं।

नासिर कनानी ने गाजा युद्ध को रोकने के लिए संयुक्त राष्ट्र और अन्य क्षेत्रीय और अंतर्राष्ट्रीय संगठनों में ईरान के चल रहे प्रयासों का भी उल्लेख किया।

ईरान के विदेश कार्यालय के प्रवक्ता ने ईरान और रूस के बीच संबंधों और सहयोग के विस्तार का उल्लेख किया और कहा कि ईरान और रूस के बीच विभिन्न क्षेत्रों में संबंध और सहयोग सुखद तरीके से विकसित हो रहे हैं।

जर्मनी के चांसलर ओलाफ शोल्त्ज़ ने अलअक़सा तूफ़ान आपरेशन के बाद अवैध ज़ायोनी शासन के लिए हथियारों की सप्लाई तेज़ कर दी।

क़ानून का समर्थन करने वाले यूरोपीय केन्द्र के अनुसार फ़िलिस्तीनी इंस्टीट्यूट आफ पब्लिक डिप्लोमैटिक सर्विसेज़, फ़िलिस्तीनी अधिकार संगठन और जांच एजेन्सी फारेंसिक की घोषणा के अनुसार शिकायतकर्ताओं ने जर्मनी की सरकार से मांग की है कि उनके जीवन की रक्षा की जाए और अवैध ज़ायोनी शासन के लिए भेजे जाने वाले हथियारों के निर्यात को रोका जाए।                

हालिया वर्ष के आरंभिक तीन महीनों के आंकड़े बताते हैं कि जर्मनी की सरकार ने 5.2 यूरो मूल्य के हथियारों के निर्यात को हरी झंडी देदी है। जर्मन की फेडरल मिनिस्ट्री आफ इकॉनामी की रिपोर्ट के अनुसार लगभग 90 प्रतिशत निर्यात, निकट के सहयोगी देशों के लिए होता है।  लगभग तीन-चौथाई या 74 प्रतिशत निर्यात, केवल यूक्रेन के लिए किया गया।  इस हिसाब से पिछले वर्षों की तुलना में इस साल के आरंभिक तीन महीनों के निर्यात के आंकड़े बहुत अधिक हैं जो अभूतपूर्व बताए जा रहे हैं।

महत्वपूर्ण ग्राहक ज़ायोनी शासनः

इसी तरह से शोध संस्था, SIPRI की ओर से किये गए शोध के आधार पर अमरीका के साथ ही जर्मनी, अवैध ज़ायोनी शासन के लिए लगभग 99 प्रतशित हथियारों की आपूर्ति करता है।  एसआईपीआरआई के अनुसार ज़ायोनी शासन ने सन 2019 से 2023 के बीच जर्मनी से 30 प्रतिशत हथियारों का आयात किया है।

जर्मनी की सरकार ने ज़ायोनी शासन के लिए अपने यहां के बने हथियारों के निर्यात को प्राथमिकता में शामिल कर रखा है।  शायद यही वजह है कि जर्मनी के चांसलर ओलाफ शोल्त्ज़ ने अलअक़सा तूफ़ान आपरेशन के बाद अवैध ज़ायोनी शासन के लिए हथियारों की सप्लाई तेज़ कर दी है।

सन 2022 की तुलना में जर्मनी की ओर से ज़ायोनी शासन के लिए हथियारों का निर्यात दस बराबर बढ़कर 354 मिलयन डालर तक पहुंच चुका है।  इनमें से लगभग 22 मिलयन डालर के हथियारों में पोर्टेबल एंटी टैंक, मशीनगनों के लिए गोलियां और पूरी तरह से या अर्ध स्वचालित फाएरआर्म्स शामिल हैं।

वकीलों की शिकायतेंः

इसी संबन्ध में चिंताओं के बीच जर्मनी के वकीलों ने बर्लिन की अदालत से अनुरोध किया है कि ज़ायोनी शासन के लिए देश की ओर से हथियारों के निर्यात को रोका जाना चाहिए क्योंकि इन हथियारों से अन्तर्राष्ट्रीय क़ानूनों का उल्लंघन होता है।

मीडिया की रिपोर्टों के अनुसार यूरोप में सक्रिय फ़िलिस्तीनी संगठनों से संबन्धित वकीलों की यह दूसरी शिकायत है।

क़ानून का समर्थन करने वाले यूरोपीय केन्द्र के एलान के अनुसार इन वकीलों ने इस बात की पुष्टि की है कि जर्मनी, इस्राईल को हथियार निर्यात करने वाला सबसे बड़ा यूरोपीय देश है।  इन हथियारों को अधिकतर 7 अक्तूबर 2023 की घटना के बाद, ज़ायोनी शासन के लिए निर्यात किया गया है।

हथियारों पर नियंत्रण के क़ानून के अनुसार बर्लिन की ओर से इस्राईल के लिए हथियारों की आपूर्ति और उसके समर्थन से जर्मनी के संघीय दायित्वों के निर्वाह का उल्लंघन होता है।

हथियारों को निर्यात करने का एक क़ानून यह भी है कि इन हथियारों को अन्तर्राष्ट्रीय क़ानूनों के प्रति जर्मनी की प्रतिबद्धता के विरुद्ध प्रयोग न किया जाए जबकि अवैध ज़ायोनी शासन, ग़ज़्ज़ा पर हमलें में अन्तर्राष्ट्रीय नियमों का खुलकर उल्लंघन कर रहा है।

निकारागुआ की शिकायतः

इसी संबन्ध में निकारागुआ की सरकार ने नीदरलैण्ड में स्थित अन्तर्राष्ट्रीय न्यायालय में एक याचिका दाखिल करके जर्मनी की ओर से इस्राईल के लिए भेजे जाने वाले हथियारों को रुकवाने की मांग की है।  उसने अन्तर्राष्ट्रीय न्यायालय से मांग की है कि जर्मनी की ओर से इस्राईल के लिए की जाने वाली सैन्य सहायता रुकवाई जाए।

निकारागुआ ने जर्मनी पर आरोप लगाया है कि वह ग़ज़्ज़ा में इस्राईल द्वारा किये जा रहे जातीय सफाए, अन्तर्राष्ट्रीय क़ानूनों के उल्लंघन और मानवताप्रेमी क़ानूनों के उल्लंघन का समर्थन करता है।  उसके अनुसार इसमे कोई शक नहीं है कि जर्मनी को जातीय सफाए की पूरी जानकारी है लेकिन फिर भी वह इस्राईल के समर्थन को जारी रखे हुए है।