बेशक सबसे बेहतर इंतेज़ार वही है जो उम्मीद देने वाला और रचनात्मक हो ऐसा इंतेज़ार जो इंसान को हरकत, सक्रियता और इस्तेक़ामत (दृढ़ता) देता हो। यह तभी मुमकिन है जब इमाम ज़माना (अ.ज.) के ज़ुहूर (प्रकट होने) का समय गुप्त रखा गया हो।
सबसे बेहतरीन इंतज़ार वही है जो उम्मीद से भरा और रचनात्मक हो ऐसा इंतज़ार जो इंसान को हरकत, सक्रियता और इस्तेक़ामत (दृढ़ता) बख्शता है यह तभी संभव है जब इमाम ज़माना (अज) के ज़ुहूर (प्रकट होने) का समय गुप्त रखा गया हो।
अल्लाह तआला की हिकमत भरी मर्ज़ी के मुताबिक, इमाम मेंहदी अ.स. के ज़ुहूर का समय हमारे लिए छुपा रखा गया है, और इस छुपे रहने के पीछे कई गहरी हिकमतें हैं, जिनमें से कुछ का ज़िक्र नीचे किया जा रहा है:
- उम्मीद की स्थायित्व (बक़ा)
जब ज़ुहूर का समय मालूम न हो तो हर दौर के मुन्तज़िरीन (इंतज़ार करने वालों) के दिलों में उम्मीद का चिराग़ जलता रहता है। यही उम्मीद इंसान को ग़ैबत (पर्दा-ए-ग़ैब) के कठिन दौर में सब्र और इस्तेक़ामत देती है।
अगर पिछली सदियों के शियाओं को ये मालूम हो जाता कि ज़ुहूर उनके ज़माने में नहीं, बल्कि सदियों बाद होगा, तो वो किन उम्मीदों के सहारे ज़ुल्म, फसाद और आज़माइशों के सामने खड़े होते? वो ग़ैबत की इन अंधेरी घाटियों से कैसे गुज़रते?
- तैयारी और संघर्ष की प्रेरणा
जैसा कि ऊपर ज़िक्र हुआ, रचनात्मक और जीवंत इंतज़ार तभी मुमकिन है जब ज़ुहूर का समय छिपा हो।अगर वक़्त मालूम हो जाए और किसी को यकीन हो जाए कि वह उस समय तक ज़िंदा नहीं रहेगा, तो वह सुस्ती, जड़ता और बे-हिम्मती का शिकार हो सकता है।
लेकिन जब ज़ुहूर का समय मालूम न हो, तो हर इंसान इस उम्मीद में कोशिश करता है कि शायद वही इमाम का ज़ुहूर देख पाए।यही उम्मीद लोगों को हर दौर में सक्रिय रखती है ताकि वे ज़ुहूर के लिए समाज को तैयार करें और एक नेक, जागरूक और मुहैय्या (तैयार) समाज क़ायम करें।
- अक़ीदे की हिफ़ाज़त
अगर ज़ुहूर का समय तय कर दिया जाए और फिर किसी इलाही हिकमत की वजह से उसमें देर हो जाए तो बहुत से लोगों के दिलों में शक पैदा हो सकता है यहां तक कि वो महदवियत के अक़ीदे (विश्वास) पर ही सवाल उठाने लगें।
इस संबंध में इमाम मुहम्मद बाक़िर अ.स.से एक रिवायत है,
کَذَبَ الْوَقَّاتُونَ، کَذَبَ الْوَقَّاتُونَ، کَذَبَ الْوَقَّاتُونَ؛ إِنَّ مُوسَىٰ عَلَیْهِ السَّلَامُ لَمَّا خَرَجَ وَافِدًا إِلَىٰ رَبِّهِ وَاعَدَهُمْ ثَلَاثِينَ يَوْمًا، فَلَمَّا زَادَهُ اللَّهُ عَلَى الثَّلَاثِينَ عَشْرًا، قَالَ قَوْمُهُ: قَدْ أَخْلَفَنَا مُوسَىٰ، فَصَنَعُوا مَا صَنَعُوا."
(الکافی، ج ۱، ص ۳۶۸)
जब हज़रत मूसा (अ.स.) अल्लाह से मुलाक़ात के लिए गए और अपनी क़ौम से तीस दिन का वादा किया, तो अल्लाह ने उसमें दस दिन और बढ़ा दिए।तब उनकी क़ौम ने कहा,मूसा ने हमसे वादा तोड़ा,' और फिर वो कर बैठे जो नहीं करना चाहिए था (यानी बछड़े की पूजा करने लगे)।
(अल-काफ़ी, जिल्द 1, पृष्ठ 368)
ठीक ऐसी ही हालत ज़ुहूर के मामले में भी हो सकती है अगर समय तय कर दिया जाए और फिर किसी कारण से देर हो जाए।
स्रोत: किताब "नगीने-ए-आफ़रीनेश" (थोड़े बदलाव के साथ)