हज़रत फ़ातिमा ज़हरा स.अ. के घर में आग लगाने वाले कौन थे?

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हज़रत फ़ातिमा ज़हरा स.अ. के घर में आग लगाने वाले कौन थे?

मशहूर इतिहासकार ज़हबी ने अपनी किताब लिसानुल मीज़ान की पहली जिल्द पेज न. 268 में अहमद नाम के विषय पर लिखते हुए एक रिवायत पूरी सनद के साथ ज़िक्र करने के बाद कहते हैं कि मोहम्मद इब्ने अहमद हम्माद कूफ़ी जिनका शुमार अहले सुन्नत के बड़े मोहद्दिस में होता है बयान करते हैं कि बिना किसी शक के, उमर ने अपने पैरों से फ़ातिमा स.अ.की शान में ऐसी गुस्ताख़ी की थी कि मोहसिन शहीद हो गए।

आज बहुत से मुसलमान हज़रत फ़ातिमा ज़हरा स.अ. की शहादत के बारे में तरह तरह की बातें करते हैं कोई बीमारी का ज़िक्र करता है तो कोई किसी और चीज़ का, इसी बात के चलते हम इस लेख में हज़रत ज़हरा स.अ. की शहादत को अहले सुन्नत के बड़े और ज्ञानी इतिहासकारों जैसे इब्ने क़ुतैबा, मोहम्मद इब्ने अब्दुल करीम शहरिस्तानी, इमाम शम्सुद्दीन ज़हबी, उमर रज़ा कोहाला, अहमद याक़ूबी, अहमद इब्ने यहया बेलाज़री, इब्ने अबिल हदीद, शहाबुद्दीन अहमद जो इब्ने अब्द अंदलुसी बुज़ुर्ग और अपने दौर के सबसे मशहूर और विशेष इतिहासकारों की किताबों से बयान कर रहे हैं।

 पैग़म्बर स.अ. की वफ़ात के बाद उनकी बेटी हज़रत ज़हरा स.अ. पर ढ़हाए जाने वाले बेशुमार और बेहिसाब ज़ुल्म और फिर उन्हीं ज़ुल्म की वजह से आपकी शहादत इस्लामी इतिहास की एक ऐसी हक़ीक़त है जिसका इंकार कर पाना ना मुमकिन है,

इसलिए कि इतिहास गवाह है कि बहुत कोशिशें हुईं और बहुत मेहनत की गई, क़लम ख़रीदे गए और केवल यही नहीं बल्कि इंसाफ़ पसंद इतिहासकारों पर बहुत सारी हक़ीक़तें छिपाने के लिए दबाव भी बनाया गया, लेकिन ज़ुल्म, वह भी इस्मत के घराने की नूरानी ख़ातून पर छिप भी कैसे सकता था, इसीलिए कुछ इंसाफ़ पसंद इतिहासकार और उलमा आगे बढ़े और उन्होंने अपनी किताबों में ज़ुल्म की उस पूरी दास्तान को लिखा जिसे आज भी बहुत से मुसलमान भुलाए बैठे हुए हैं, और इन इतिहासकारों ने कुछ ऐसे हाकिमों की सच्चाई को ज़ाहिर किया जो ख़ुद को पैग़म्बर स.अ. का जानशीन बताते हुए उन्हीं के ख़ानदान पर ज़ुल्म के पहाड़ तोड़ रहे थे,

इन इतिहासकारों ने बिना किसी कट्टरता के अहले सुन्नत के इतने अहम और मोतबर स्रोत द्वारा हज़रत ज़हरा पर होने वाले ज़ुल्म जिसके नतीजे में आपकी शहादत हुई उसे नक़्ल किया है जिसका इंकार कर पाना आज की जवान नस्ल और पढ़े लिखे और इंसाफ़ पसंद मुसलमान के लिए मुमकिन नहीं है।

अबू मोहम्मद अब्दुल्लाह इब्ने मुस्लिम इब्ने क़ुतैब दैनवरी जो इब्ने क़ुतैबा के नाम से मशहूर थे और जिनकी वफ़ात 276 हिजरी में हुई थी, उन्होंने अपनी किताब अल-इमामह वस सियासह की पहली जिल्द के पेज न. 12 (तीसरा एडीशन, जिसकी दोनें जिल्दें एक ही किताब में छपी थीं) में अब्दुल्लाह इब्ने अब्दुर्रहमान से नक़्ल करते हुए लिखते हैं कि अबू बक्र ने जिन लोगों ने उनकी बैअत से इंकार किया था और इमाम अली अ.स. की पनाह में चले गए थे उनका पता लगवाया और उमर को उनके पास भेजा, उन सभी लोगों ने घर से बाहर निकलमे से मना कर दिया, फिर उमर ने आग और लकड़ी लाने का हुक्म दिया और इमाम अली अ.स. के घर में पनाह लेने वालों को पुकार कर कहा, उस ज़ात की क़सम जिसके क़ब्ज़े में उमर की जान है, तुम सब घर से बाहर निकल आओ वरना मैं इस घर को घर वालों समेत जला दूंगा, वहीं मौजूद किसी ने उमर की इस बात को सुन कर कहा ऐ अबू हफ़्स, क्या तुम्हें मालूम नहीं इस घर में फ़ातिमा (स.अ.) हैं, उमर ने कहा मुझे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता, मैं फिर भी आग लगा दूंगा।

उसी किताब की पहली जिल्द के पेज न. 13 पर रिवायत की सनद के साथ नक़्ल किया है कि, इस हादसे के कुछ दिन बाद उमर ने अबू बक्र से कहा, चलो फ़ातिमा (स.अ.) के पास चलें क्योंकि हमने उन्हें नाराज़ किया किया है,

यह दोनों आपसी मशविरे के बाद शहज़ादी की चौखट पर पहुंचे, लाख कोशिशें कर लीं लेकिन शहज़ादी ने इन लोगों से मुलाक़ात करने से मना कर दिया, फिर मजबूर हो कर इमाम अली अ.स. से कहा (ताकि वह इमाम अली अ.स. के कहने से हज़रत फ़ातिमा ज़हरा स.अ. उनसे बात करें, इस बात से यह समझा जा सकता है कि यह दोनों जानते थे कि अगर शहज़ादी नाराज़ रहीं तो आख़ेरत तो बाद में इनकी दुनिया भी बर्बाद है)

इमाम अली अ.स. के कहने के बाद शहज़ादी ने इजाज़त तो दी लेकिन जैसे ही यह लोग शहज़ादी की बारगाह में पहुंचे शहज़ादी ने मुंह मोड़ लिया, और फिर इन दोनों ने सलाम किया लेकिन शहज़ादी ने सलाम का जवाब नहीं दिया, फिर अबू बक्र ने कहा क्या आप इसलिए नाराज़ हैं कि हमने आपकी मीरास और आपके शौहर का हक़ छीन लिया, शहज़ादी ने जवाब दिया कि ऐसा कैसे हो सकता है कि तुम्हारे घर वाले तुम्हारी मीरास पाएं और हम पैग़म्बर स.अ. की मीरास से महरूम रहें? फिर आपने फ़रमाया, अगर मैं पैग़म्बर स.अ. से नक़्ल होने वाली हदीस सुनाऊं तब मान लोगे...., अबू बक्र ने कहा हां, फिर आपने फ़रमाया, तुम दोनों को अल्लाह की क़सम, सच बताना, क्या तुम लोगों ने पैग़म्बर स.अ. से नहीं सुना कि फ़ातिमा (स.अ.) की ख़ुशी मेरी ख़ुशी है, और फ़ातिमा (स.अ.) की नाराज़गी मेरी नाराज़गी है, जिसने फ़ातिमा (स.अ.) को राज़ी कर लिया उसने मुझे राज़ी कर लिया, जिसने फ़ातिमा (स.अ.) को नाराज़ किया उसने मुझे नाराज़ किया?

उमर और अबू बक्र दोनों ने कहा, हां हमने यह हदीस पैग़म्बर (स.अ.) से सुनी है, फिर शहज़ादी ने फ़रमाया, मैं अल्लाह और उसके फ़रिश्तों को गवाह बना कर कहती हूं कि तुम दोनों ने मुझे नाराज़ किया और मैं तुम दोनों से राज़ी नहीं हूं, और जब पैग़म्बर स.अ. से मुलाक़ात करूंगी तुम दोनों की शिकायत करूंगी, यह सुनते ही अबू बक्र ने रोना शुरू कर दिया जबकि शहज़ादी यह कह रही थीं कि अल्लाह की क़सम ऐ अबू बक्र तेरे लिए हर नमाज़ में बद दुआ करूंगी।

मशहूर इतिहासकार ज़हबी ने अपनी किताब लिसानुल मीज़ान की पहली जिल्द पेज न. 268 में अहमद नाम के विषय पर लिखते हुए एक रिवायत पूरी सनद के साथ ज़िक्र करने के बाद कहते हैं कि मोहम्मद इब्ने अहमद हम्माद कूफ़ी (जिनका शुमार अहले सुन्नत के बड़े मोहद्दिस में होता है) बयान करते हैं कि बिना किसी शक के, उमर ने अपने पैरों से फ़ातिमा (स.अ.) की शान में ऐसी गुस्ताख़ी की थी कि मोहसिन शहीद हो गए थे। (अदब की वजह से मुझ में हिम्मत नहीं कि वह शब्द लिखूं जिसका इस्तेमाल किया गया है बाक़ी मतलब तो आप ख़ुद समझ गए होंगे)

उमर रज़ा कोहाला हालिया अहले सुन्नत के उलमा में से हैं, जिन्होंने अपनी किताब आलामुन निसा के पांचवे एडीशन (1404 हिजरी) में उसी रिवायत को सनद के साथ ज़िक्र किया है जिसे इब्ने क़ुतैबा ने भी नक़्ल किया है जिसका ऊपर ज़िक्र किया जा चुका है।

याक़ूबी अपनी इतिहास की किताब जो तारीख़े याक़ूबी के नाम से मशहूर है उसकी दूसरी जिल्द पेज न. 137 (बैरूत एडीशन) में अबू बक्र की हुकूमत के हालात के विषय पर चर्चा करते हुए लिखा है कि जिस समय अबू बक्र ज़िंदगी के आख़िरी समय में बीमार पड़े तो अब्दुर रहमान इब्ने औफ़ देखने के लिए गए और पूछा, ऐ पैग़म्बर (स.अ.) के ख़लीफ़ा कैसी तबीयत है तो उन्होंने जवाब दिया, मुझे पूरी ज़िंदगी में किसी चीज़ का पछतावा नहीं है, लेकिन तीन चीज़ें ऐसी हैं जिन पर अफ़सोस कर रहा हूं कि ऐ काश ऐसा न किया होता...., पूछने पर बताया कि ऐ काश ख़िलाफ़त की मसनद पर न बैठा होता, ऐ काश फ़ातिमा (स.अ.) के घर की तलाशी न हुई होती, ऐ काश फ़ातिमा (स.अ.) के घर में आग न लगाई होती..., चाहे वह मुझसे जंग का ऐलान ही क्यों न कर देतीं।

अहमद इब्ने यहया जो बेलाज़री के नाम से मशहूर हैं और जिनकी वफ़ात 279 हिजरी में हुई है वह अपनी किताब अन्साबुल अशराफ़ (मिस्र एडीशन) की पहली जिल्द के पेज न. 586 पर सक़ीफ़ा के मामले पर बहस करते हुए लिखते हैं कि, अबू बक्र ने इमाम अली अ.स. से बैअत लेने के लिए कुछ लोगों को भेजा, लेकिन इमाम अली अ.स. ने बैअत नहीं की, इसके बाद उमर आग के शोले लेकर इमाम अली अ.स. के घर की तरफ़ गया, दरवाज़े के पीछे हज़रत फ़ातिमा (स.अ.) मौजूद थीं उन्होंने कहा ऐ उमर क्या तेरा इरादा मेरे घर को आग लगाने का है? उमर ने जवाब दिया, हां, बेलाज़री लिखते हैं कि उमर ने शहज़ादी से यह जुमला कहा कि मैं अपने इस काम को अंजाम देने के लिए उतना ही मज़बूत ईमान और अक़ीदा रखता हूं जितना आपके वालिद अपने लाए हुए दीन पर अक़ीदा और ईमान रखते थे।

बेलाज़री उसी किताब के पेज न. 587 में इब्ने अब्बास से रिवायत नक़्ल करते हैं कि जिस समय इमाम अली अ.स. ने बैअत करने से इंकार कर दिया, अबू बक्र ने उमर को हुक्म दिया कि जा कर अली (अ.स.) को घसीटते हुए मेरे पास लाओ...., उमर पहुंचा और फिर इमाम अली अ.स. से कुछ बातचीत हुई, फिर इमाम अली अ.स. ने एक जुमला उमर से कहा कि ख़ुदा की क़सम तुमको अबू बक्र के बाद कल हुकूमत की लालच यहां तक ख़ींच कर लाई है।

इब्ने अबिल हदीद मोतज़ली ने अपनी शरह की बीसवीं जिल्द पेज 16 और 17 में लिखते हैं कि जो लोग यह कहते हैं कि हज़रत फ़ातिमा ज़हरा स.अ. के घर पर हमला कर के बैअत का सवाल इसलिए किया गया ताकि मुसलमानों में मतभेद और फूट न पैदा हो और इस्लाम का निज़ाम महफ़ूज़ रहे, क्योंकि अगर बैअत न ली जाती तो मुसलमान दीन से पलट जाते....., इब्ने अबिल हदीद कहते हैं कि उन लोगों को यह बात क्यों समझ में नहीं आती कि जंगे जमल में भी तो हज़रत आएशा मुसलमानों के हाकिम को ख़िलाफ़ जंग करने क्यों आईं थीं..... ?? लेकिन उसके बाद भी इमाम अली अ.स. ने हुक्म दिया कि उनको पूरे सम्मान के साथ घर वापस पहुंचाओ....।

तो अब यहां मेरा सारे मुसलमानों से सवाल है कि अगर इस्लाम और दीन की हिफ़ाज़त के चलते और मुसलमानों में फूट न पड़ने को दलील बनाते हुए किसी पर जलता दरवाज़ा ढ़केलना सही हो सकता है उसके घर में आग लगाना सही हो सकता है, उस घर में रहने वाली एक ख़ातून को जलते दरवाज़े और दीवार के बीच में दबाया जा सकता है, उसके बाज़ू पर तलवार के ग़िलाफ़ से वार किया जा सकता है, वग़ैरगह वग़ैरह तो क्या यही काम उम्मत को आपसी मतभेद और आपसी फूट से बचाने और उनको दीने इस्लाम से वापस पिछले दीन पर पलटने से रोकने के लिए जंगे जमल में हज़रत आएशा के साथ मुसलमानों के ख़लीफ़ा नहीं कर सकते थे?

लेकिन मुसलमानों इतिहास पढ़ो तो इस नतीजे पर पहुंचोगे कि मुसलमानों के ख़लीफ़ा की शान होती क्या है... दो किरदार आपके सामने हैं, दोनों में मुसलमानों ही किताबों के हिसाब से मुसलमानों के ख़लीफ़ा और दूसरी तरफ़ उनकी बैअत न करने वाले लोग, एक तरफ़ पैग़म्बर स.अ. की बेटी और एक तरफ़ पैग़म्बर स.अ. की बीवी, लेकिन फ़र्क़ देखिए मुसलमानों के पहले ख़लीफ़ा ने दूसरे ख़लीफ़ा के साथ मिल कर पैग़म्बर स.अ. की बेटी के घर में आग लगाई, पैग़म्बर स.अ. की बेटी को ज़ख़्मी किया, पैग़म्बर स.अ. के नवासे को दुनिया में आने से पहले ही शहीद कर दिया, पैग़म्बर स.अ. की बेटी की आंखों के सामने उनके शौहर को खींच कर और घसीट कर ले जाया गया..... और दूसरी तरफ़ पूरी कोशिश की गई कि पैग़म्बर स.अ. की बीवी मुसलमानों के ख़लीफ़ा की बैअत न करने के बावजूद जंग में न आएं लेकिन वह आईं, लेकिन उसके बावजूद चौथे ख़लीफ़ा ने उन्हें पूरे सम्मान के साथ घर वापस भेजवाया.....

कोई भी अक़्लमंद और इंसाफ़ पसंद इंसान इस बात को क़ुबूल नहीं करेगा कि किसी की भी नामूस के साथ ऐसा सुलूक किया जाए..... लेकिन उसके बावजूद पैग़म्बर स.अ. की बेटी के साथ वह हुआ जिसे बयान करते हुए ज़ुबान लरज़ती है और जिसे लिखते हुए हाथ कांपते हैं।

शहाबुद्दीन अहमद जो इब्ने अब्दे रब अंदलुसी के नाम से मशहूर हैं अपनी किताब अल अक़्दुल फ़रीद की चौथी जिल्द के पेज न. 260 पर लिखते हैं कि जिस समय अबू बक्र ने उमर को यह कर बैअत के लिए भेजा कि अगर वह लोग बाहर न आए तो उनसे जंग करना उस समय इमाम अली अ.स., अब्बास और ज़ुबैर सभी हज़रत फ़ातिमा ज़हरा स.अ. के घर में मौजूद थे, उमर हाथ में आग ले कर हज़रत ज़हरा स.अ. के घर की तरफ़ बढ़ा, दरवाज़े पर हज़रत ज़हरा मौजूद थीं, शहज़ादी ने कहा ऐ ख़त्ताब के बेटे, मेरा घर जलाने आए हो? उमर ने कहा अगर अबू बक्र की बैअत नहीं की तो आग लगा दूंगा।

अहले सुन्नत के इतने बड़े बड़े आलिमों और इतिहासकारों की इस चर्चा के बाद अब सब के लिए बिल्कुल साफ़ हो गया होगा कि शहज़ादी के घर में आग किसने लगाई

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