رضوی

رضوی

हज़रत अली अलैहिस्सलाम ने यह जुमला(फ़ुज़्तु बे रब्बील काबा ,काबे के रब की क़सम मैं कामियाब हो गया)तब फ़रमाया जब नमाज़ में हालते सजदे में आप को अब्दुल रहमान इब्ने मुलजिम मलऊन ने ज़र्बत लगाई

हज़रत अली अलैहिस्सलाम पैग़म्बरे इस्लाम स.ल. के पहले उत्तराधिकारी हैं। पैग़म्बरे इस्लाम स.ल. की प्राणप्रिय सुपुत्री हज़रत फ़ातिमा ज़हरा (स.अ.) आपकी धर्मपत्नी और इमाम हसन और इमाम हुसैन अलैहिमस्सलाम आप के बेटे हैं।

हज़रत अली अलैहिस्सलाम पवित्र रमज़ान महीने की 19 तारीख़ को मस्जिदे कूफ़ा में सुबह की नमाज़ पढ़ा रहे थे कि उसी हालत में धर्मभ्रष्ट अब्दुल रहमान इब्ने मुल्जिम मलऊन ने ज़हर में बुझाई तलवार से आपके सिर पर प्राणघातक हमला किया था और उस हमले में हज़रत अली अलैहिस्सलाम बुरी तरह घायल हो गये थे और ज़हर पूरे शरीर में फैल गया था यहां तक कि 21 रमज़ान (सन 40 हिजरी) की सुबह हज़रत अली अलैहिस्सलाम शहीद हो गये और समस्त इस्लामी दुनिया शोकाकुल हो गई।

  पैग़म्बरे इस्लाम (स) ने फ़रमाया कि ऐ अली! जिब्रईल ने मुझे तुम्हारे बारे में एक ऐसी ख़बर दी है जो मेरे आंखों के लिए नूर और दिल के लिए ख़ूशी बन गई है, उन्होंने मुझसे कहाः ऐ मुहम्मद! (स) अल्लाह ने कहा है कि मेरी ओर से मेरे हबीब (स) को सलाम कहों और उन्हें सूचित करो कि अली, मार्गदर्शन के अगुवा, पथभ्रष्टता के अंधकार का दीपक व विश्वासियों के लिए ख़ुदाई तर्क हैं और मैंने अपनी महानता की सौगंध खाई है कि मैं उसे नरक की ओर न ले जाऊं जो अली से मुहब्बत करता हो और उनके व उनके पश्चात उनके उत्तराधिकारियों (इमामों) का आज्ञाकारी हो।

आज उसी मार्गदर्शक के लिए हम सब शोकाकुल हैं। वह सर्वोत्तम और अनुदाहरणीय व्यक्तित्व जिसने संसार वासियों को अपनी महानता की ओर आकर्षित कर रखा था।

  उस रात भी हज़रत अली अलैहिस्सलाम रोटी तथा खजूर की बोरी, निर्धनों और अनाथों के घरों ले गए। अन्तिम बोरी पहुंचाकर जब वे घर पहुंचे तो ख़ुदा की इबादत की तैयारी में लग गए। "यनाबीउल मवद्दत" नामक पुस्तक में अल्लामा कुन्दूज़ी लिखते हैं कि शहादत की पूर्व रात्रि में हज़रत अली अलैहिस्सलाम आसमान की ओर बार-बार देखते और कहते थे कि ख़ुदा की सौगंध मैं झूठ नहीं कहता और मुझसे झूठ नहीं बताया गया है। सच यह है कि यह वही रात है जिसका मुझ को वचन दिया गया है।

  भोर के धुंधलके में अज़ान की आवाज़ नगर के वातावरण में गूंज उठी। हज़रत अली अलैहिस्सलाम धीरे से उठे और मस्जिद की ओर बढ़ने लगे। जब वे मस्जिद में दाख़िल हुए तो देखा कि इब्ने मुलजिम सो रहा है। आपने उसे जगाया और फिर वे मेहराब की ओर गए। वहां पर आपने नमाज़ पढ़ना शुरू की।

मस्जिद में उपस्थित लोग नमाज़ की सुव्यवस्थित तथा समान पक्तियों में हज़रत अली अलैहिस्सलाम के पीछे खड़े हो गए। हज़रत अली अलैहिस्सलाम के चेहेर की शान्ति एवं गंभीरता उस दिन उनके मन को चिन्तित कर रही थी। हज़रत अली अलैहिस्सलाम नमाज़ पढ़ते हुए सज्दे में गए। उनके पीछे खड़े नमाज़ियों ने भी सजदा किया किंतु हज़रत अली अलैहिस्सलाम के ठीक पीछे खड़े उस पथभ्रष्ट ने ख़ुदा के समक्ष सिर नहीं झुकाया जिसके मन में शैतान बसेरा किये हुए था।

इब्ने मुल्जिम ने अपने वस्त्रों में छिपी तलवार को अचानक ही निकाला। शैतान उसके मन पर पूरी तरह नियंत्रण पा चुका था। दूसरी ओर हज़रत अली अलैहिस्सलाम अपने पालनहार की याद में डूबे हुए उसका गुणगान कर रहे थे। अचानक ही विष में बुझी तलवार ऊपर उठी और पूरी शक्ति से वह हज़रत अली अलैहिस्सलाम के सिर पर पड़ी तथा माथे तक उतर गई। पूरी मस्जिद का वातावरण हज़रत अली अलैहिस्सलाम के इस वाक्य से गूंज उठा कि "फ़ुज़्तो बे रब्बिल काबा" अर्थात ख़ुदा की सौगंध मैं सफ़ल हो गया।

  आकाश और धरती व्याकुल हो उठे। जिब्रईल की इस पुकार ने ब्रह्माण्ड को हिला दिया कि ख़ुदा की सौगंध मार्गदर्शन के स्तंभ ढह गए और ख़ुदाई प्रेम व भय की निशानियां मिट गईं। उस रात हज़रत अली अलैहिस्सलाम के शोक में चांदनी रो रही थी, पानी में चन्द्रमा की छाया बेचैन थी, न्याय का लहू की बूंदों से भीग रहा था और मस्जिद का मेहराब आसुओं में डूब गया था।

  कुछ ही क्षणों में वार करने वाले को पकड़ लिया गया और उसे इमाम के सामने लाया गया। इमाम अली अलैहिस्सलाम ने जब उसकी भयभीत सूरत देखी तो अपने सुपुत्र इमाम हसन अलैहिस्सलाम से कहा! उसे अपने खाने-पीने का सामान दो। यदि मैं दुनिया से चला गया तो उससे मेरा प्रतिशोध लो अन्यथा मैं बेहतर समझता हूं कि उसके साथ क्या करूं और क्षमा करना मेरे लिए उत्तम है।

  हज़रत अली अलैहिस्सलाम के एक अन्य पुत्र मुहम्मद हनफ़िया कहते हैं कि इक्कीस रमज़ान की पूर्व रात्रि में मेरे पिता ने अपने बच्चों और घरवालों से विदा ली और शहादत से कुछ क्षण पूर्व यह कहा: मृत्यु मेरे लिए बिना बुलाया मेहमान या अपरिचित नहीं है। मेरी और मृत्यु की मिसाल उस प्यासे की मिसाल है जो एक लंबे समय के पश्चात पानी तक पहुंचता है या उसकी भांति है जिसे उसकी खोई हुई मूल्यवान वस्तु मिल जाए।

  इक्कीस रमज़ान का सवेरा होने से पूर्व हज़रत अली अलैहिस्सलाम के प्रकाशमयी जीवन की दीपशिखा बुझ गई। वे अली जो अत्याचारों के विरोध और न्यायप्रेम का प्रतीक थे वे आध्यात्म व उपासना के सुन्दरतम क्षणों में अपने अल्लाह से जा मिले थे।

  अपने पिता के दफ़न के पश्चात इमाम हसन अलैहिस्सलाम ने दुख भरी आवाज़ में कहा था कि बीती रात एक ऐसा महापुरूष इस संसार से चला गया जो पैग़म्बरे इस्लाम (स) की छत्रछाया में जिहाद (धर्मयुद्ध) करता रहा और इस्लाम का अलम (पताका) उठाए रहा। मेरे पिता ने अपने पीछे कोई धन-संपत्त नहीं छोड़ी। परिवार के लिए केवल सात सौ दिरहम बचाए हैं।

  सृष्टि की उत्तम रचना होने के कारण मनुष्य, विभिन्न विचारों और मतों में महत्वपूर्ण स्थान रखता है तथा मनुष्य के ज्ञान का एक भाग मनुष्य की पहचान से विशेष है। अधिकतर मतों में मनुष्य को एक सज्जन व प्रतिष्ठित प्राणी होने के नाते सृष्टि के मंच पर एक महत्वपूर्ण स्थान दिया गया है परन्तु इस संबन्ध में इतिहास में ऐसे उदाहरण बहुत ही कम मिलते हैं जो प्रतिष्ठा व सम्मान के शिखर तक पहुंचे हो।

हज़रत अली अलैहिस्सलाम इतिहास के ऐसे ही गिने-चुने अनउदाहरणीय लोगों में सम्मिलित हैं। इतिहास ने उन्हें एक ऐसे महान व्यक्ति के रूप में विश्व के सामने प्रस्तुत किया जिसने अपने आप को पूर्णतया पहचाना और परिपूर्णता तथा महानता के शिखर तक पहुंचने में सफ़लता प्राप्त की।

हज़रत अली अलैहिस्सलाम का यह कथन इतिहास के पन्ने पर एक स्वर्णिम समृति के रूप में जगमगा रहा है कि ज्ञानी वह है जो अपने मूल्य को समझे और मनुष्य की अज्ञानता के लिए इतना ही पर्याप्त है कि वह स्वयं अपने ही मूल्य को न पहचाने

आज रमज़ान की १९ तारीख़ है।  वही तारीख़ जब वर्ष ४० हिजरी क़मरी में सुबह की नमाज़ पढ़ते समय ईश्वर के महान साहसी एवं न्यायी दास के सिर पर मानव समाज के अत्यंत तुच्छ व्यक्ति की द्वेषपूर्ण तलवार ने वार किया।  उस रात के बारे में इतिहास में आया है कि उस निर्धारित रात में सदगुणों के सरदार थोड़े-थोड़े अंतराल पर अपने कमरे से बाहर निकलते और आसमान को देखते थे।  उस रात उन्हें पैग़म्बरे इस्लाम हज़रत मुहम्मद मुस्तफ़ा (स) का वह कथन बार बार याद आ रहा था जिसे उन्होंने पवित्र रमज़ान के महीने में उनसे कहा था हे अली, रमज़ान के महीने में तुम्हारे साथ एक अतयंत दुखद घटना घटेगी।  मैं देख रहा हूं कि तुम नमाज़ की स्थिति में हो और लोगों में से सबसे दुष्ट व्यक्ति अपनी तलवार से तुम्हारे सिर पर वार करके तुम्हारी दाढ़ी को तुम्हारे सिर के ख़ून से रंग रहा है।  उस रात कभी तो हज़रत अली अलैहिस्सलाम ईश्वर का गुणगान करते और कभी वे पवित्र क़ुरआन के सूरए यासीन को पढ़ते।  उस रात हज़रत अली अलैहिस्सलाम की उपासना अन्य रातों की तुलना में बहुत भिन्न थी।  इस रात वे अपनी उपासना में इस वाक्य का प्रयोग बारबार कर रहे थे हे ईश्वर! मृत्यु को मेरे लिए शुभ बना दे।

 

अंततः सत्य के खोजियों का मार्गदर्शक सुबह की नमाज़ पढ़ने के लिए तैयार हुआ।  अपने घर से तेज़ चलते हुए मस्जिद के लिए निकला।  मस्जिद में प्रवेष किया और रात के अंधेरे में नमाज़ पढ़ना आरंभ की।  फिर उन्होंने मस्जिद की छत पर जाकर सुबह की अज़ान कही।  इस अज़ान में विशेष प्रकार का वैभव और आकर्षण था।  अज़ान देने के बाद हज़रत अली अलैहिस्सलाम सुबह की नमाज़ पढ़ने के लिए खड़े हुए।  उनकी यह नमाज़, अन्य नमाज़ों से कुछ अलग थी।  निर्धारित समय आ पहुंचा था।  अपने काल का अत्यंत दुष्ट व्यक्ति इब्ने मुल्जिम मुरादी, हज़रत अली अलैहिस्सलाम के निकट आया और उसने ज़हर में बुझी हुई तलवार से हज़रत अली के सिर पर वार किया।   एसा वार जो सिर से माथे तक जा पहुंचा।  यह वह वार था जिसने लोगों को हज़रत अली जैसे महान व्यक्ति से वंचित कर दिया और मानवता को दुख के अथाह सारग में डिबो दिया।  सिर पर तलवार के वार से अली ख़ून मे लथपथ हो गए और उन्होंने संसार से स्वतंत्रता के स्वाद का आभास किया और ईश्वर से मिलन की बेला निकट आ गई।  उन्हें उन दुखों से मुक्ति प्राप्त हो गई जिन्हें अज्ञानियों और धूर्त लोगों ने उन्हें दिया था।  जैसे ही हज़रत अली के सिर पर ज़हर से बुझी तलवार से वार किया गया, हज़रत अली अलैहिस्सलाम ने आकाश की ओर देखते हुए कहा कि काबे के रब की सौगंध, मैं सफल हो गया।  तीन दिनों तक अत्यंत पीड़ादायक अवस्था में रहने के बाद २१ रमज़ान ४० हिजरी क़मरी को न्यायप्रेमियों का सरदार इस दुनिया से विदा हो गया।  इस रात के बाद किसी अनाथ ने आशान्वित करने वाली उनके पैरों की आहट नहीं सुनी जो रात के अंधेरे में उन्हें खाद्य सामग्री आने का संदेश देती थी।  खजूर के बाग़ों को भी फिर कभी उनके अस्तित्व की सुगंन्ध न मिल सकी।

प्रतिदिन की भांति आज भी हम इमाम सज्जाद की दुआ  मकारिमुल अख़लाक़ का एक भाग प्रस्तुत करने जा रहे हैं।  इस दुआ में इमाम ज़ैनुल आबेदीन कहते हैं कि हे ईश्वर! शैतान जिन कल्पनाओं, भ्रांतियों और द्वेष को मेरे मन में डालता है उसे तू अपनी कृपा से परिवर्तित कर दे और उसके स्थान पर अपनी महानता की याद, अपनी शक्ति में चिंतन-मनन करने तथा अपने शत्रु का विनाश करने की योजनाबंदी को रख दे।

दुआ के इस भाग में इमाम सज्जाद अलैहिस्सलाम ने शैतान की ओर से मन में डाली जाने वाली बातों को उठाया है।  मनुष्य का हृदय, ईश्वरीय और शैतानी दोनों प्रकार की बातों का केन्द हो सकता है।  वास्तव में हर वह बात जो ईश्वर की स्वीकृति और मनुष्य की परिपूर्णता का कारण बने वह ईश्वरीय सदेंश है।  इसके विपरीत हर वह बात जो ईश्वर को पसंद न हो और मानव के पतन का मार्ग प्रशस्त करती हो वह शैतानी संदेश है।  अपनी इस दुआ में इमाम सज्जाद ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि हे ईश्वर! मनुष्य के मन में जो भी बातें शैतान डालता है तू उनको परिवर्तित कर दे।

अभिलाषा या आशा वह अनुकंपा है जिसे ईश्वर ने मनुष्य को प्रदान किया है।  आशा या अभिलाषा, संसार के विकास और इसकी गतिविधियों का मूल कारक है।  इस बारे में पैग़म्बरे इस्लाम कहते हैं कि अभिलाषा, मेरी उम्मत के लिए एक अनुकंपा है और यदि अभिलाषा न होती तो कोई भी मां, अपने बच्चे को दूध न पिलाती और न ही कोई बाग़बान कोई पेड़ लगाता।  वह अभिलाषा या कामना जिसे, इस्लाम के महापुरूषों ने अपने राष्ट्र के लिए कृपा बताया है वह उचित और बुद्धिमानीपूर्ण अभिलाषा है।  यह वह अभिलाषा है जिसमें यथार्थवाद पाया जाता है तथा यह मनुष्यों के भौतिक और आध्यात्मिक कल्याण का स्रोत भी है।  किंतु इसके विपरीत वे निराधार इच्छाएं और अभिलाषाएं, जो आयु के नष्ट होने का कारण हों तथा मानव की परिपूर्णता के मार्ग में बाधा बने वे न केवल यह कि ईश्वरीय विभूति नहीं हैं बल्कि इमाम सज्जाद अलैहिस्सलाम के कथनानुसार वह शैतानी अभिलाषाए हैं।  खेद की बात यह है कि बहुत से लोग पूरी न होने वाली इन इच्छाओं और अभिलाषाओं का शिकार हो जाते हैं।  यह लोग अपना जीवन पूरी न होने वाली इन इच्छाओं की प्राप्ति में लगा देते हैं।  कभी-कभी एसा देखने में आता है कि एक छात्र, अपनी पाठ्य पुस्तक को, जिसे उसे अवश्य पढ़ना चाहिए, किनारे डाल देता है और किसी वरिष्ठ पद पर पहुंचने की कल्पना की उड़ान भरने लगता है।  एसे में वह स्वयं को किसी उच्च पद पर विराजमान पाता है।  इस प्रकार की अवास्तविक कल्पनाएं लोगों के शैतान के चुंगुल में फंसने का कारण बनती हैं।  यही कारण है कि इमाम ज़ैनुल आबेदीन अलैहिस्सलाम, ईश्वर से कहते हैं कि ईश्वर की महानता की याद को शैतानी अभिलाषाओं के स्थान पर रख दे।  इमाम जाफ़रे सादिक़ अलैहिस्सलाम कहते हैं कि ईश्वर की ओर से अनिवार्य की गई बातों में सबसे कठिन बात यह है कि अधिक से अधिक ईश्वर की याद में रहें। इसके पश्चात वे कहते हैं कि ईश्वर की याद से तात्पर्य केवल सुब्हानल्लाह और अलहम्दो लिल्लाह आदि कहना नहीं है यद्यपि यह भी ईश्वर का गुणगान है बल्कि, इससे तात्पर्य, हराम और हलाल अवसरों पर ईश्वर को याद रखना है अर्थात यदि ईश्वर के आज्ञापालन का अवसर है तो उसका आज्ञापालन किया जाए।  और यदि पापों से बचने का अवसर हो तो पापों से बचा जाए।

पवित्र रमज़ान मोमिनों के धैर्य का और पवित्र लोगों को सफलता की शुभ सूचना देने का महीना है।  यह महीना ईश्वर की कृपा के महासागर से लाभान्वित होने का भी महीना है।  हम आशा करते हैं कि इस पवित्र महीने के बचे हुए दिनों में ईश्वर के आतिथ्य के योग्य अतिथि बन सकें।  यहां पर हम हज़रत अली अलैहिस्सलाम की वसीयत का एक भाग प्रस्तुत कर रहे हैं।

इमाम अली अलैहिस्सलाम अपने पुत्र को वसीयत करते हुए कहते हैं कि वह अच्छाई, अच्छाई नहीं है जो केवल बुराई से ही प्राप्त हो।  इस बात से बचते रहो कि लालच की सवारी तुम्हें तीव्र गति से अपने साथ ले जाए और विनाश के दर्रे में गिरा दे।

हज़रत अली अलैहिस्सलाम का यह वक्तव्य इस विषय की ओर संकेत करता है कि कुछ लोग अपना लक्ष्य प्राप्त करने के लिए हर प्रकार का कार्य करने को तैयार रहते हैं जबकि इस्लाम का यह आदेश है कि अपने लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए केवल वैध मार्ग ही अपनाया जाए।  दूसरे शब्दों में, माध्यम को लक्ष्य के अनुरूप होना चाहिए।  उस चीज़ का क्या लाभ जो बुरे रास्ते से प्राप्त की गई हो।  इसी संदर्भ में इमाम अली अलैहिस्सलाम का एक अन्य कथन है कि वह नेकी और भलाई/ भलाई नहीं है जो नरक का कारण बने।  अपनी वसीयत को आगे बढ़ाते हुए हज़रत अली अलैहिस्सलाम अपने पुत्र को संबोधित करते हुए कहते हैं कि इस बात से बचते रहो कि लालच की सवारी तुमको तीव्र गति से अपने साथ ले जाए और विनाश की घाटी में ढकेल दे।

हज़रत अली अलैहिस्सलाम ने यहां पर लालच को अनियंत्रित सवारी की उपमा दी है कि यदि मनुष्य उसपर सवार हो तो फिर उसका नियंत्रण छिन जाता है और वह उसे विनाश की ओर ले जाती है।  यहां पर विनाश की घाटी से इस वास्तविकता की ओर संकेत किया गया है कि मनुष्य उस ओर अपनी लालच की प्यास बुझाने के लिए जाता है किंतु यदि लालच की सवारी से उस ओर कोई जाए तो न केवल यह कि उसकी प्यास नहीं बुझती बल्कि वह तबाह हो जाता है क्योंकि वहां पर पानी नहीं होता वहां तो तबाही होती है।

इस बात को आपने भी अपने जीवन में देखा होगा और इतिहास भी इस वास्तविकता का साक्षी है कि लालची लोगों को अपने जीवन में विफलताएं हाथ लगती हैं।  इसका मुख्य कारण यह है कि लालच, मनुष्य की आंखों और कानों को बंद कर देती है तथा उसको इस बात की अनुमति नहीं देती है कि वह अच्छे और बुरे मार्ग को समझ सके।  यह कहा जा सकत है कि सामान्यतः वे लोग जो व्यापार में समस्याओं में घिर जाते हैं और दीवालिया हो जाते हैं, उसका मुख्य कारण उनकी लालच होती है।  इसी संदर्भ में इमाम जाफ़र सादिक़ अलैहिस्सलाम का एक कथन बेहारूल अनवार में है।  वे कहते हैं कि लालच, शैतान की शराब है जिसे वह अपने विशेष लोगों को पिलाता है।  उसे पीकर जो मस्त हो जाता है वह ईश्वर के प्रकोप का पात्र बनता है।  लालच के बारे में पैग़म्बरे इस्लाम का एक कथन है कि लालच, दूरदर्शिता और तत्वदर्शिता को विद्वानों तक के हृद्यों से दूर कर देती है।

 

माहे रमज़ानुल मुबारक की दुआ जो हज़रत रसूल अल्लाह स.ल.व.व.ने बयान फ़रमाया हैं।

اَللّهُمَّ نَبِّهني فيہ لِبَرَكاتِ أسحارِہ وَنوِّرْ فيہ قَلْبي بِضِياءِ أنوارِہ وَخُذْ بِكُلِّ أعْضائِي إلى اتِّباعِ آثارِہ بِنُورِكَ يا مُنَوِّرَ قُلُوبِ العارفينَ..

अल्लाह हुम्मा नब्बिहनी फ़ीहि ले बरकाति असहारिह, व नव्विर फ़ीहि क़ल्बी बे ज़ियाए अनवारिह, व ख़ुज़ बे कुल्ले आज़ाई इला इत्तिबाइ आसारिह, बे नूरिका या मुनव्विरा क़ुलूबिल आरिफ़ीन (अल बलदुल अमीन, पेज 220, इब्राहिम बिन अली)

ख़ुदाया! मुझे इस महीने की सहरियों की बरकतों से आगाह कर और मेरे क़ल्ब को इस के नूरों से नूरानी फ़रमा और मेरे तमाम जिस्म के आज़ाअ व जवारेह को इस की पैरवी पर मामूर कर दे, तेरे नूर के वास्ते से, ऐ आरिफ़ों के दिलों को मुनव्वर (नूरानी) करने वाले.

अल्लाह हुम्मा स्वल्ले अला मुहम्मद व आले मुहम्मद व अज्जील फ़रजहुम.

 

शुक्रवार, 29 मार्च 2024 11:32

ईश्वरीय आतिथ्य- 18

इस्लाम में जेहाद को बहुत अहम उपासनाओं में बताया गया है कि जिसका दायरा पवित्र रमज़ान में हमेशा बढ़ा है और मुसलमानों को बहुत सी जीत इसी पवित्र महीने में मिली।

जैसे बद्र नामक जंग पवित्र रमज़ान में हुयी जिसमें 70 अनेकेश्वरवादी मारे गए और 70 ही अनेकेश्वरवादी लड़ाके क़ैदी बने थे।

पवित्र रमज़ान बर्कत का महीना, क़ुरआन के उतरने का महीना, सत्य के असत्य से अलग होने का महीना और जीत व सफलताओं का महीना है। यह वह महीना है जिसमें ऐसी अहम घटनाएं घटीं कि इतिहास का रुख़ ही बदल गया।

यह वह महीना है जिसमें बद्र नामक जंग हुयी। यह वह जंग थी जो मोमिनों अर्थात ईश्वर पर आस्था रखने वालों के लिए सम्मान का संदेश लायी, ईश्वर ने इसे सत्य और असत्य के बीच अंतर का महीना कहा है। इस महीने में कृपालु ईश्वर के भक्त शैतान के भक्त से अलग हुए अलबत्ता आस्था की दृष्टि से अलग हुए।

शुक्रवार 17 रमज़ान सन दो हिजरी क़मरी का दिन इस्लामी इतिहास में निर्णायक मोड़ समझा जाता है। इस दिन इस्लामी इतिहास की निर्णायक जंगों में से एक जंग हुयी और यह जंग पैग़म्बरे इस्लाम के लिए बहुत उपलब्धि भरी रही। इस जंग में बाप-बेटे एक दूसरे के मुक़ाबले में खड़े हुए ताकि ईश्वर अपने भक्तों को सम्मानित और दुश्मनों को अपमानित करे। जैसा कि आले इमरान सूरे की आयत नंबर 123 में ईश्वर कह रहा है, "ईश्वर ने तुम लोगों को बद्र के दिन विजय दी हालांकि तुम लोग एक छोटा सा गुट थे। तो ईश्वर से डरो ताकि उसका आभार व्यक्त कर सको।"

बद्र नामक जंग की वजह मुसलमानों का मक्का से मदीना पलायन था। इस पलायन की वजह से मुसलमान अपनी सारी संपत्ति मक्का में छोड़ने पर मजबूर हुए। मुसलमानों की संपत्तियों पर क़ुरैश ने क़ब्ज़ा कर लिया था इसलिए मुसलमानों ने अबु सुफ़ियान की अगुवाई वाले व्यापारिक कारवां को अपने क़ब्ज़े में करने और उसकी वस्तुओं को मदीना ले जाने का फ़ैसला किया। मुसलमानों का जंग का इरादा नहीं था लेकिन ईश्वर का इरादा था कि मुसलमान अनेकेश्वरवादियों से जंग करें और असत्य पर सत्य की जीत के नतीजे में इस्लाम की बुनियाद मज़बूत हो। इस बिन्दु की ओर ईश्वर अन्फ़ाल नामक सूरे की आयत नंबर 7 और 8 में फ़रमाता है, "ईश्वर ने तुमसे वादा किया था कि क़ुरैश का व्यापारिक कारवां या उसके सशस्त्र बल में से एक गुट तुम्हारे हाथ आएगा और तुम चाहते थे कि निशस्त्र गुट तुम्हारे हाथ आए लेकिन ईश्वर ने इरादा किया कि सत्य को अपने वचन से मज़बूत करे और अनेकेश्वरवादियों की जड़ को ख़त्म करे। ताकि सत्य को सत्य कर दिखाए और असत्य को असत्य, चाहे अपराधियों को कितना ही अप्रिय लगे।" चूंकि ईश्वर का इरादा मुसलमानों के इरादे पर हावी था, उन्हें अनेकेश्वादियों पर जीत दी  और सत्य व असत्य के बीच ऐतिहासिकि संघर्ष हुआ।  

उस ऐतिहासिक दिन मुसलमान यौद्धाओं के चेहरे पर ईश्वर पर आस्था की चमक इतनी ज़्यादा थी कि दुश्मन के लोग भी इससे प्रभावित थे। इतिहासकार इब्ने हेशाम ने अपनी किताब में लिखा है, "मक्का के अनेकेश्वरवादियों की सेना बद्र के मरुस्थल में उदवतुल क़ुसवा स्थान पर ठहरी हुयी थी। उसने अपने गुप्तचर गुट के एक बहुत ही माहिर जासूस को जिसका नाम उमैर बिन वहब जुमही था, यह ज़िम्मेदारी सौंपी कि इस्लामी सेना की सही जानकारी ले आए। उसने अपने तेज़ व फुर्तीले घोड़े से मुसलमानों के कैंप के चारों ओर चक्कर लगाया और स्थिति की समीक्षा करने के बाद अपने कमान्डर से कहाः वे लगभग 300 लोग हैं जिनके चेहरों और व्यवहार से ईश्वर पर आस्था और दृढ़ता ज़ाहिर है। वे तलवार को ही अपनी शरणस्थली समझते हैं। जब तक उनमें से हर एक तुममे से एक को क़त्ल न करे, क़त्ल नहीं होगा और अगर तुममे से उनके जितना मारे गए तो तुम्हारे निकट जीवन का क्या मूल्य रहेगा। इस स्थिति के बारे में सोचो और फ़ैसला लो।"

पवित्र रमज़ान दुआ के क़ुबूल होने और बंदों पर ईश्वर की कृपा के द्वार खुलवाने का महीना है। पवित्र रमज़ान में दुआ का इंसान के भविष्य पर गहरा असर पड़ता है। जैसा कि ईश्वर बद्र नामक जंग में दुआ के प्रभाव और उसके लाभदायक नतीजे के बारे में पवित्र क़ुरआन के अन्फ़ाल नामक सूरे की आयत नंबर 9 में फ़रमाता है, "याद करो जब अपने पालनहार से गुहार लगा रहे थे, उसने तुम्हारी दुआ क़ुबूल की और कहा कि मैं तुम्हारी एक हज़ार फ़रिश्तों से मदद करुंगा। यह काम तुम्हे ख़ुश करने और संतोष दिलाने के लिए था। ईश्वर के सिवा कहीं और से मदद नहीं होती और बेशक ईश्वर शान वाला व तत्वदर्शी है।" मुसलमानों के बीच पैग़म्बरे इस्लाम की दुआ व प्रार्थना का दृष्य बहुत ही शानदार था। उस निर्णायक चरण में पैग़म्बरे इस्लाम ने इन शब्दों में दुआ की, "हे पालनहार! तूने जो वादा किया है उसे पूरा कर।" पैग़म्बरे इस्लाम अपने हाथों को आसमान की ओर उठाकर इस तरह दुआ कर रहे थे कि उनके कांधों से अबा उतर गयी।     

आपके लिए यह जानना भी रोचक होगा कि पैग़म्बरे इस्लाम सबसे कठिन स्थिति का ख़ुद सामना करते थे। वह आनंद व आराम पसंद व्यक्ति न थे कि अपने साथियों का मुश्किल हालात में साथ छोड़ कर किनारे बैठ जाए और सिर्फ़ आदेश देते रहें बल्कि वह जंग के मैदान में एक वीर की तरह दुश्मन के सबसे क़रीब होते थे। हज़रत अली कि जिन्हें उनके दोस्त और दुश्मन दोनों ही इस्लामी जंगों का सबसे वीर योद्धा मानते हैं, इस बारे में फ़रमाते हैं, "जब जंग अपने चरम पर होती थी तो हम पैग़म्बरे इस्लाम के पास शरण लेते थे और हम मुसलमानों में से कोई भी पैग़म्बरे इस्लाम के जितना दुश्मन के निकट नहीं होता था।" इस तरह पैग़म्बरे इस्लाम मुसलमानों और अपने साथियों को दृढ़ता, संघर्ष और इस्लाम की सत्यता की रक्षा का पाठ सिखाते थे।

पैग़म्बरे इस्लाम 2 रमज़ान मुबारक सन 8 हिजरी क़मरी को 10000 सिपाहियों पर आधारित एक फ़ौज लेकर मक्के की ओर रवाना हुए। इस बार पैग़म्बरे इस्लाम ने बहुत सावधानी बरती ताकि क़ुरैश को मुसलमानों की फ़ौज के निकलने के बारे में पता न चल सके। इस तरह मुसलमानों की फ़ौज के मर्रुज़्ज़हरान पहुंचने तक जो मक्के से कुछ किलोमीटर की दूरी पर है, मक्कावासियों और उनके जासूसों को मुसलमानों की फ़ौज के पहुंचने की कोई सूचना न थी। पैग़म्बरे इस्लाम के चाचा अब्बास बिन अब्दुल मुत्तलिब का जो मक्के में रहते थे, इससे पहले मुसलमान हो चुके थे और मक्के वालों से उनका अच्छे संबंध थे, उस समय मक्के से मदीना पलायन कर रहे थे, जोहफ़ा नामक क्षेत्र में पैग़म्बर इस्लाम और उनकी फ़ौज का सामना हुआ। वह कुछ समय तक पैग़म्बरे इस्लाम के पास रहे और फिर पैग़म्बरे इस्लाम के आदेश से मक्का गए। रास्ते में उनका अबू सुफ़ियान, हकीम बिन हेज़ाम और बदील बिन वरक़ा जैसे क़ुरैश के सरदारों से सामना हुआ और उन्होंने इस्लामी सेना की चढ़ाई की उन्हें सूचना दी और अबु सुफ़ियान को अपने साथ लेकर पैग़म्बरे इस्लाम के पास पहुंचे और उसे इस्लाम स्वीकार करने के लिए प्रेरित किया। पैग़म्बरे इस्लाम ने अपनी सैन्य रणनीति और अबू सुफ़ियान के वजूद से मक्का को फ़त्ह करने के लिए उसे पहले मक्का भेजा ताकि वह इस पवित्र शहर को बिना किसी रक्तपात के फ़त्ह करने का मार्ग समतल करे। यह वह जीत थी जिसके ज़रिए से ईश्वर ने इस्लाम धर्म को सम्मानित किया, मुसलमान फ़ौज की मदद की, काबे को पवित्र किया और इस तरह लोग गुटों में इस ईश्वरीय धर्म को स्वीकार करने लगे।              

पवित्र रमज़ान के महीने में मक्का की फ़त्ह से इस्लामी इतिहास में नया अध्याय जुड़ा। इस फ़त्ह से इस्लाम की बुनियाद मज़बूत हुयी। इसके बाद अनेकेश्वरवादियों ने किसी तरह का प्रतिरोध नहीं किया और उसके बाद पूरे अरब प्रायद्वीप से पैग़म्बरे इस्लाम की सेवा में इस्लाम स्वीकार करने के लिए लोगों का गुट जाने लगा। इस जीत का फ़त्ह नामक सूरे में इन शब्दों में वर्णन हुआ है, "जब ईश्वर की मदद और फ़त्ह आ पहुंचे और लोग समूहों में ईश्वर के धर्म में शामिल होने लगें। तो अपने पालनहार की प्रशंसा करो, उससे पापों की क्षमा चाहो कि वह हमेशा प्रायश्चित स्वीकार करने वाला है।" इस बड़ी जीत के लिए आभार व्यक्त करने के लिए तीन आदेश दिए गए हैं। एक उसे हर बुराइयों से पाक समझना, दूसरे उसे उसकी उच्च विशेषताओं से याद करना और तीसरे बंदों की कमियों के मुक़ाबले में क्षमा चाहना। इस महासफलता से अनेकेश्वरवादी विचार मिट गए, ईश्वर की महानता और अधिक प्रकट हुयी और गुमराह सत्य की ओर पलट आए। ये वे विभूतियां हैं जिन्हें हर मोमिन बंदा पवित्र रमज़ान में हासिल कर सकता है।

 

 

शुक्रवार, 29 मार्च 2024 11:28

बंदगी की बहार- 18

इस्लाम के आंरभिक काल में कुछ एसी घटनाएं घटी हैं जो सदा के लिए इतिहास बनकर रह गई हैं।

यह घटनाएं विशेष महत्व की स्वामी हैं।  इन्हीं घटनाओं में से एक का नाम है "मेराज"।  मेराज की घटना का संबन्ध पैग़म्बरे इस्लाम (स) से है।  मेराज की घटना को संसार के सारे ही मुसलमान मानते हैं।  इस बात पर पूरे संसार के मुसलमान एकजुट हैं कि ईश्वर के अन्तिम दूत हज़रत मुहम्मद (स) को मेराज हुई थी।  इस घटना की तिथि के बारे में दो प्रकार के कथन पाए जाते हैं।  एक कथन के अनुसार पैग़म्बरे इस्लाम (स) को मेराज 27 रजब को हुई जबकि एक अन्य कथन के अनुसार यह तारीख़ 17 रमज़ान थी।  बहरहाल तारीख़ के बारे में चाहे मतभेद पाया जाता हो लेकिन इसको सारे मुसलमान मानते हैं कि पैग़म्बरे इस्लाम को मेराज हुई थी।

इस्लाम के उदय के काल में जो एक अति महत्वपूर्ण घटना घटी उसका नाम था मेराज।  मेराज की घटना वास्तव में चमत्कारी यात्रा थी।  यह एक महान चमत्कार था।  मेराज की घटना की वास्तविकता को समझने में आज भी मानव अक्षम है।  मेराज की यात्रा अर्थात भौतिक परिधि से निकलकर आकाश में पैर रखना।  यह घटना पैग़म्बरे इस्लाम (स) की निष्ठापूर्ण उपासना का परिणाम थी।  इस्लामी शिक्षाओं में मेराज की घटना को बहुत ही विशेष स्थान प्राप्त है।  मेराज वास्तव में पैग़म्बरे इस्लाम की धरती से आकाश की आध्यात्मिक यात्रा का नाम है।  आइए देखते हैं कि यह घटना है क्या और कैसे घटी?

रात का अंधेरा हर ओर छाया हुआ था।  दूर-दूर तक प्रकाश का कोई नाम नहीं था।  आम लोग दैनिक कार्यों को पूरा करके अपने घरों में आराम की नींद सो रहे थे।  पैग़म्बरे इस्लाम (स) नमाज़ जैसी उपासना पूरी करने के बाद कुछ देर के लिए विश्राम करना चाहते थे।  इसी बीच एकदम से उन्हें ईश्वरीय फ़रिश्ते, जिब्राईल की आवाज़ सुनाई दी।  उन्हें आवाज़ सुनाई दी कि हे मुहम्मद! उठो।  मेरे साथ यात्रा पर निकलो क्योंकि हमें एक लंबी यात्रा पर जाना है।  बाद में जिबरईले अमीन, "बुराक़" नामकी एक सवारी लाए।  पैग़म्बरे इस्लाम (स) अपनी इस आध्यात्मिक भव्य एवं अभूतपूर्व यात्रा का आरंभ, "उम्मेहानी" के घर से या फिर मस्जिदुल हराम से किया।  अपनी उसी सवारी से वे बैतुल मुक़द्द गए और बहुत ही कि समय में वे वहां पहुंचे।  उन्होंने बैतुल मुक़दस में हज़रत इब्राहीम, हज़रते ईसा और मूसा जैसे महान ईश्वरीय दूतों की आत्माओं से मुलाक़ात की।  पैग़म्बरे इस्लाम (स) ने इस चमत्कारिक यात्रा के प्रति आभार व्यक्त करने के उद्देश्य से कई पवित्र स्थलों पर नमाज़ पढी।

बाद में उन्होंने अपनी यात्रा के दूसरे चरण का आरंभ किया अर्थात सात आसमानों की यात्रा।  पैग़म्बरे इस्लाम (स) ने एक-एक करके सातों आसमानों की यात्रा पूरी की।  उन्होंने हर आसमान पर अलग-अलग तरह से दृश्य देखे।  उन्होंने कुछ स्थानों पर स्वर्ग और स्वर्गवासियों तथा कुछ स्थानों पर नरक और नरकवासियों के बारे में ईश्वर की अनुकंपाओं और प्रकोप को देखा।  पैग़म्बरे इस्लाम ने निकट से स्वर्गवासियों और नरक वासियों के दर्जों को देखा।  अंततः वे सातवें आसमान पर "सिदरल मुंतहा" तक पहुंचे और "जन्नतुल मावा" के दर्शन किये।  इस प्रकार से आप ने ईश्वरीय अनुकंपाओं को समझा।  पैग़म्बरे इस्लाम हज़रत मुहम्मद मुस्तफ़ा (स) अंततः एसे स्थान पर पहुंचे जहां पर किसी अन्य प्राणी को जाने की अनुमति ही नहीं है।  इसका महत्व यूं समझा जा सकता है कि जिब्रईल जैसे महान फ़रिश्ते ने भी आगे बढ़ने से इन्कार कर दिया।  उस स्थान पर जिब्रईल ने कहा कि अब अगर मैं उंगली की पोर के बराबर भी आगे बढ़ूंगा तो मैं जल जाऊंगा।  इस संदर्भ में सूरे नज्म की आयत संख्या 9 में ईश्वर कहता है कि उनसे दूरी, दो कमान या उससे भी कम थी।

मेराज की यात्रा में ईश्वर ने पैग़म्बरे इस्लाम को कुछ महत्वूपर्ण आदेश दिये और इसी प्रकार से महत्वूपर्ण अनुशंसराएं भी कीं।  इस प्रकार से मेराज की यात्रा अपने अंत को पहुंची जिसके बारे में कुछ लोगों का यह मानना है कि वह उम्मेहानी के घर से आरंभ हुई थी और उसका समापन, "सिद्रलमुंतहा" पर हुआ।  इसके बाद पैग़म्बरे इस्लाम (स) को आदेश दिया गया कि वे उसी रास्ते से वापस जाएं जिस रास्ते से आए थे।

    मेराज से अपनी यात्रा से वापसी के समय पैग़म्बरे इस्लाम (स) बैतुल मुक़द्दस में ठहरे।  उसके बाद उन्होंने मक्के का रुख़ किया।  वापसी के मार्ग में उन्होंने क़ुरैश के एक व्यापारिक कारवां को देखा।  यह कारवां अपना ऊंट खो चुका था और उसको ढूंढने में लगा था।  पैग़म्बरे इस्लाम (स) फ़ज्र आरंभ होने से पहले धरती पर वापस लौट आए।  मेराज की आध्यात्मिक यात्रा, वास्तव में धरती से आसमान की यात्रा है जिसे दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है कि आत्मा से परमात्मा की ओर पलायन।  इस घटना की पुष्टि करते हुए ईश्वर इस बारे में सूरे असरा की आरंभिक आयत में कहता हैः ईश्वर के नाम से जो अत्यंत कृपाशील और दयावान है।  पवित्र है वह (ईश्वर) जो अपने दास (मुहम्मद) को रात के समय मस्जिदुल हराम से मस्जिदुल अक़सा तक ले गया जिसके आसपास को हमने बरकत और विभूति प्रदान की है ताकि उसे अपनी निशानियों में से कुछ निशानियां दिखाए। निश्चित रूप से वह (ईश्वर) सबसे अधिक सुनने और देखने वाला है।  इस सूरे को सूरए इसरा इसलिए कहा जाता है कि इसमें पैग़म्बरे इस्लाम (स) के मेराज पर जाने की घटना का वर्णन किया गया है। इसरा का अर्थ होता है किसी को रात में कहीं ले जाना।

 पैग़म्बरे इस्लाम (स) ने उन ईश्वरीय कथनों को "हदीसे मेराज" के माध्यम से लोगों सामने पेश किया है जो उनपर परोक्ष रूप में भेजे गए थे।  कथनों का यह संग्रह वास्तव में ईश्वर और पैग़म्बरे इस्लाम (स) के बीच वार्ता का सार है।  आरंभ में पैग़म्बरे इस्लाम, ईश्वर से पूछते हैं कि हे ईश्वर! सबसे अच्छा काम कौन सा है? इसका जवाब आया कि मेरे निकट मुझपर भरोसे से अच्छी कोई चीज़ नहीं है और जो भाग्य के लिए निर्धारित कर दिया गया है उसपर सहमत रहना मेरे निकट बहुत अच्छा है।  यह छोटा सा जवाब, मनुष्य की परिपूर्णता के मार्ग की सबसे बड़ी बाधा को दूर करने की कुंजी है।  यह एसी बाधाए हैं जो मनुष्य के जीवन में समस्याएं उत्पन्न कर देती हैं जिसके परिणाम स्वरूप वह परिपूर्णता तक पहुंचने का मार्ग रुक जाता है।  ईश्वर पर भरोसे का अर्थ है उसपर पूरी निष्ठा रखते हुए केवल उसी पर भरोसा करना।  यह भावना, मनुष्य की आत्मा को संतुष्टि प्रदान करती है।

 हदीसे मेराज के एक अन्य भाग में ईश्वर, पैग़म्बर को संबोधित करते हुए कहा है हे मुहम्मद! उपासना के दस भाग हैं।  इस दस भागों में से नौ भाग हलाल आजीविका से संबन्धित हैं।  अब अगर तुमने अपने खाने-पीने की चीज़ों को हलाल ढंग से उपलब्ध कराया है तो तुम मेरी सुरक्षा में हो।  पैग़म्बरे इस्लाम (स) ने ईश्वर से पूछा कि सबसे अच्छी और पहली इबादत क्या है? जवाब में कहा गया कि उपासना का आरंभ रोज़ा और मौन है।  इससे यह निष्कर्श निकलता है कि ईश्वर की राह का पहला क़दम, मौन और रोज़ा रखना है।

 यही दो रास्ते, मनुष्य की परिपूर्णता के लिए आवश्यक हैं।  जबतक मनुष्य अपनी ज़बान को नियंत्रित नहीं करता उस समय तक वह अच्छी और बुरी हर प्रकार की बातें करती है।  एसा व्यक्ति कुछ भी बोलने से नहीं झिझकता।  इस प्रकार का व्यक्ति, ईश्वर की कृपा का पात्र नहीं बन सकता।  पेट भी कुछ एसा ही है।  अगर मनुष्य हर चीज़ खाएगा और खानेपीने में किसी भी चीज़ से नहीं रुकेगा तो वह पशु की भांति हो जाएगा जिसका लक्ष्य केवल खाना है।  इसके बाद पैग़म्बरे इस्लाम ने पूछाः हे ईश्वर रोज़े का प्रभाव क्या है।  जवाब में कहा गया कि रोज़ा अपने साथ तत्वदर्शिता लाता है।  यह तत्वदर्शिता सही पहचान का कारण बनती है और सही पहचान से ही विश्वास पैदा होता है।  जब किसी दास के भीतर विश्वास पैदा हो जाता है तो जीवन की कठिनाइयां उसके लिए महत्वहीन हो जाती हैं।  मेराज की घटना ने पैग़म्बरे इस्लाम से उच्च स्थान को और अधिक ऊंचा कर दिया।  मेराज की घटना से यह भी पता चलता है कि मनुष्य के भीतर बहुत क्षमता पाई जाती है।  इन क्षमताओं के माध्यम से वह परिपूर्णता तक सरलता से पहुंच सकता है।

 

 

 

गुरुवार, 28 मार्च 2024 18:20

इमाम खुमैनी और रमज़ान

इमाम ख़ुमैनी साल के बाकी महीनों के दौरान हर दिन कुरान का एक हिस्सा पढ़ते थे, लेकिन रमज़ान के महीने के दौरान, वह हर दिन पवित्र कुरान के दस भाग पढ़ते थे और महीने के अंत तक वह पवित्र कुरान को दस बार पढ़ते थे

इमाम खुमैनी रमज़ान के पवित्र महीने में सुबह से शाम तक प्रार्थना में लगे रहते थे। जब वह जाते थे, तो वह इमाम को कुरान पढ़ते हुए पाते थे। यदि किसी बैठक में पाठ करने वाले पढ़ते थे पवित्र कुरान की कुछ आयतें, इमाम अपनी कुर्सी छोड़कर जमीन पर बैठ जाते थे। साल के बाकी महीनों में हर दिन कुरान का एक हिस्सा पढ़ते थे, लेकिन रमजान के महीने में वह प्रतिदिन पवित्र कुरान की दस आयतें पढ़ते थे और महीने के अंत तक उन्हें पवित्र कुरान को दस बार पढ़ने का सम्मान प्राप्त होता था।

रमज़ान के महीने में, इमाम द्वारा सुनाई गई प्रार्थनाओं का उपयोग करें और इस राष्ट्र की सुरक्षा और सफलता के लिए प्रार्थना करें और इस्लाम के दुश्मनों की विफलता और हार के लिए भी प्रार्थना करें।

मुझे डर है कि (रमजान के इस धन्य महीने में, जो आत्म-साधना का महीना है और जहां भगवान ने हमें अपने दिव्य भोज में आमंत्रित किया है) हम मेज़बान के साथ कुछ ऐसा न कर दें जिससे हमें अप्रसन्नता हो। उसके सभी उपकार और आशीर्वाद देना बंद कर देना चाहिए.

यह महीना खुदा का महीना है, सभी को इस्लाम के लिए इबादत करने का आशीर्वाद मिले। आप सभी की पहली इबादत इस्लाम के लिए होनी चाहिए।

जैसा कि एक अन्य स्थान पर, प्रार्थना के गुण के बारे में, पवित्र पैगंबर ने कहा: दुआ कुरान पढ़ने से बेहतर है। कुरान पढ़ने का मतलब है कि भगवान हमसे बात कर रहे हैं क्योंकि कुरान उनका शब्द है। लेकिन दुआ का मतलब है कि हम ईश्वर से अपना संपर्क बनाए रखना चाहते हैं, हम ईश्वर से संवाद करना चाहते हैं और निश्चित रूप से यह कार्य नेक है। दूसरी हदीस में, अंजनाब से वर्णित है, "प्रार्थना आस्तिक का हथियार और आकाश और पृथ्वी की रोशनी है" (काफी, 2, 468)। सबसे अच्छा हथियार दुआ है

गुरुवार, 28 मार्च 2024 18:19

जंगे बदर और उसका कारण

जंगे बदर 17वीं रमज़ान से 21वीं रमजान तक दूसरी हिजरी मे कुफ़्फ़ारे कुरैश और मुसलमानों के बीच हुई । बद्र मूल रूप से जुहैना जनजाति के एक व्यक्ति का नाम था जिसने मक्का और मदीना के बीच एक कुआँ खोदा था और बाद में इस क्षेत्र और कुएँ दोनों को बदर कहा जाने लगा, इसलिए युद्ध का नाम भी बदर के नाम से जाना जाने लगा।

अबू सुफियान 40 लोगों के व्यापारिक कारवां के साथ सीरिया के लिए रवाना हुआ, जिनके पास 50,000 दीनार का सामान था। कारवां सीरिया से मदीना लौट रहा था जब पैगंबर (स) ने साथियों को उनकी संपत्ति जब्त करने और इस तरह दुश्मन की आर्थिक शक्ति को कमजोर करने के लिए अबू सुफियान के नेतृत्व वाले कारवां की ओर बढ़ने का आदेश दिया। अबू सुफियान को तकनीक के बारे में पता चला मुसलमानों ने बड़ी जल्दी से एक दूत को मदद मांगने के लिए मक्का भेजा। अबू सुफियान के आदेश के बाद, दूत ने अपने सवार (ऊंट) के नाक और कान काट दिए और उसका खून बहा दिया, उसकी कमीज फाड़ दी और लोगों का ध्यान आकर्षित करने के लिए एक अजीब पोशाक पहनकर मक्का में प्रवेश किया और चिल्लाया: कारवां को बचाओ , बचाओ, बचाओ, मुहम्मद और उनके अनुयायियों ने कारवां पर हमला करने की योजना बनाई है। इस घोषणा के साथ, अबू जहल 950 योद्धाओं, 700 ऊंटों और 100 घोड़ों के साथ बद्र के लिए रवाना हो गया। दूसरी ओर, अबू सुफियान ने खुद को बचाने के लिए अपना रास्ता बदल लिया और मुसलमानों से खुद को बचाकर मक्का पहुँचने में कामयाब रहा। अल्लाह के रसूल (स) 313 आदमियों के साथ बद्र के स्थान पर पहुँचे और दुश्मन से आमने-सामने मिले। उसी समय, रसूल अल्लाह (स) ने अपने साथियों से परामर्श किया, और साथी दो समूहों में विभाजित हो गए। एक समूह ने अबू सुफ़ियान का अनुसरण करना पसंद किया, जबकि दूसरे समूह ने अबू जहल की सेना से लड़ना पसंद किया। निर्णय अभी नहीं हुआ था। इस बीच, मुसलमानों को दुश्मन की संख्या, साधन, उपकरण और तैयारियों के बारे में जानकारी प्राप्त हुई। असहमति पहले से अधिक तीव्र हो गई अल्लाह के रसूल ने दूसरी राय को प्राथमिकता दी और दुश्मन से लड़ने के लिए तैयार होने का आदेश दिया। इस्लाम की सेना और कुफ़्फ़ार की सेना एक दूसरे के सामने खड़ी थी। शत्रु मुसलमानों की कम संख्या देखकर आश्चर्यचकित रह गया। इधर कुछ मुसलमान काफ़िरों की संख्या और उनके युद्ध उपकरणों को देखकर कांपने लगे। इस भयानक स्थिति को देखकर, अल्लाह के रसूल (स) ने अपने साथियों को अनदेखी खबर से अवगत कराया और कहा: "सर्वशक्तिमान ने मुझे सूचित किया है कि हम इन दो समूहों में से एक, अबू सुफियान का व्यापार कारवां या अबू जहल की सेना, निश्चित रूप से उनमें से एक पर विजयी होंगे, और भगवान अपने वादे में सच्चे हैं।अल्लाह की कसम! ऐसा लगता है जैसे मैं अपनी आंखों से उन जगहों को देख रहा हूं जहां अबू जहल और कुरैश के कुछ अन्य प्रसिद्ध लोग मारे गए थे। अपने साथियों के डर और आतंक को देखकर, रसूल अल्लाह ने कहा, "चिंता मत करो यद्यपि हम संख्या में कम हैं, फिर भी स्वर्गदूतों का एक बड़ा समूह हमारी सहायता के लिए तैयार है » बद्र का मैदान रेत की नरमता के कारण युद्ध के लिए बिल्कुल उपयुक्त नहीं था, लेकिन भगवान की मदद से, इस दौरान भारी बारिश हुई रात और सुबह रेगिस्तान युद्ध के लिए तैयार था।अल्लाह के रसूल (स) ने पहले दुश्मन की ओर शांति का हाथ बढ़ाया, लेकिन अबू जहल ने इसे अस्वीकार कर दिया और युद्ध की घोषणा कर दी। काफ़िर, उतबा, शैबा और वलीद, जबकि मुसलमानों की ओर से तीन अंसार मैदान में घुस आए। उन्होंने अंसार के सैनिकों को लौटाते हुए कहा कि हम अपने साथी कुरैश लोगों से लड़ेंगे। अल्लाह के रसूल ने अपने परिवार से तीन लोगों, उबैदा बिन हारिस, हज़रत हमज़ा और हज़रत अली (अ) को बुलाया और उन्हें युद्ध के मैदान में भेजा। उन्होंने अपना काम पूरा किया और ऊबैदा की सहायता के लिए आए। उत्बा का एक पैर कट गया और वह भी उसके एक वार से मर गया और इस तरह हज़रत अली (अ) ने तीन योद्धाओं को मार डाला। अमीर अल-मोमिनीन (अ) ने अपने शासनकाल के दौरान मुआविया को एक पत्र लिखते हुए इस घटना का इन शब्दों में उल्लेख किया: (मैं वही अबू अल-हसन हूं जिसने आपके दादा उतबा, चाचा शैबा, चाचा वलीद और भाई हंजला को मौत के घाट उतारा था)

इन तीन लोगों की हत्या के बाद, अबू जहल ने एक सामान्य हमले का आदेश दिया और यह नारा लगाया: इन्ना लाना अल-उज्जा वल उज्जा लकुम, फिर मुसलमानों ने नारा लगाया: अल्लाहो मौलाना वा मौलाया लकुम।

अल्लाह के रसूल (अ) अबू जहल की हत्या की प्रतीक्षा कर रहे थे, जैसे ही उन्हें उनकी मृत्यु की खबर मिली, उन्होंने कहा: हे अल्लाह! आपने अपना वादा पूरा किया है.

बद्र की लड़ाई काफ़िरों की करारी हार और मुसलमानों की जीत के साथ समाप्त हुई। इस लड़ाई में अबू जहल सहित काफिरों के प्रसिद्ध कमांडर उपयोगी थे। काफिरों की सेना ने 70 लोगों को मार डाला और इतने ही लोगों को पकड़ लिया गया, जबकि 14 मुसलमान शहीद हो गए, जिनमें 6 मुहाजिर और 8 अंसार शामिल थे। 150 ऊँट, 10 घोड़े और अन्य युद्ध उपकरण मुसलमानों के हाथ लग गये।

इस युद्ध में काफ़िरों ने हज़रत अली (अ) को लाल मौत का नाम दिया क्योंकि उनके महान योद्धा उनके (अ) के हाथों नरक में चले गये। उन सभी के नाम इतिहास की किताबों में हैं।

एक शंका और उसका उत्तर:

 

आज के इस्लाम के दुश्मनों ने खुदा के पैगम्बर और मुसलमानों पर संदेह जताया है और कहा है कि मुसलमानों ने बिना किसी जानकारी के विरोधियों के कारवां को लूटने की योजना बनाई और इसे लूटपाट माना जाता है।

यदि हम पूर्वाग्रह का चश्मा उतारकर तथ्यों को जानने का प्रयास करें तो यह स्पष्ट है कि ईश्वर के पैगंबर ने निम्नलिखित कारणों से अबू सुफियान के व्यापारिक कारवां की ओर रुख किया:

पहला: जब मुसलमान मक्का से पलायन कर मदीना चले गए, तो उनकी सारी संपत्ति और सामान पर कुरैश ने कब्जा कर लिया। न्यायशास्त्र के अनुसार, मुसलमानों को अपनी हड़पी हुई संपत्ति के लिए अबू सुफियान के कारवां को मुआवजा देने का अधिकार है, यानी अपनी संपत्ति के नुकसान की भरपाई करने के लिए, हालांकि अबू सुफियान के वाणिज्यिक कारवां में संपत्ति का मूल्य मुसलमानों के हड़पे हुए घर और संपत्ति के बराबर है। .अशर तो अशर भी नहीं बन पाया.

दूसरा: अविश्वासी कुरैश ने मक्का के जीवन में मुसलमानों पर अत्याचार किया और जितनी क्रूरता वे कर सकते थे, की।

तीसरा: मुसलमानों के प्रवास के बाद, काफिर कुरैश ने मदीना पर हमला करने और ईश्वर के दूत और विश्वासियों को नष्ट करने की योजना बनाना शुरू कर दिया था। कारवां की ओर बढ़ गए।

ख़ासाने रब हैं बदरो ओहद के शहीद भी

लेकिन अजब है शाने शहीदाने करबला।

राहे ख़ुदा में शहीद हो जाने वाले मुजाहेदीन का फ़ज़्ल व शरफ़ मोहताजे तआरूफ़ नहीं है। शोहदाऐ राहे ख़ुदा के सामने दुनिया बड़ी अक़ीदत व एहतेराम से अपना सर झुकाती नज़र आती है बल्कि ग़ैर मुस्लिम हज़रात, दिन के वहां शहादत का पहले कोई तसव्वुर भी नहीं था, लफ़्ज़े शहादत को अपनाने में किसी बख़्ल से काम नबीं लेते।

अलबत्ता दरजात व मरातिब के एतबार से तमाम शोहदा को मसावी क़रार नही दिया जा सकता है। जिस तरह क़ुराने करीम के मुताबिक़ बाज़ अम्बिया को बाज़ अम्बिया और बाज़ मुरसलीन को बाज़ मुरसलीन पर फ़ज़ीलत हासिल थी उसी तरह बाज़ शोहदा को बाज़ शोहदा पर तफ़व्वुक़ व बरतरी हासिल है। हुज़ूर ख़तमी मरतबत के दौर में दीगर शोहदा के मुक़ाबले में शोहदा-ए-बद्रो ओहद एक एम्तेयाज़ी शान के मालिक थे जिसकी सनद अक़वाले मुरसले आज़म से ली जा सकती है। मगर शोहदाए बद्रो ओहद भी बाहम यकसां फ़ज़ीलतों के हामिल नहीं थे बल्कि ज़ोहदो तक़वा और शौक़े शहादत के मद्दोजज़्र नें उनके दरमियान फ़रक़े मुरातब को ख़ाएम कर रखा था। चुनान्चे जंगे ओहद में हालांकि नबीए करीम के कई मोहतरम सहाबियों ने जामे शहादत नोश फ़रमाया था मगर सय्यदुश् शोहदा होने का शरफ़ सिर्फ़ जनाबे हमज़ा को ही हासिल हो सका। मुसलमानों का एक तबक़ा अपनी जज़्बाती वाबस्तगी की बिना पर शोहदा-ए-बद्रो ओहद की मुकम्मल बरतरी का क़ाएल है लेकिन अगर निगाए इंसाफ़ से देखा जाए तो जंगे बद्रो-ओहद और ज़गे करबला के हालात में नुमायां फ़र्क़ नज़र आएगा। जंगे बद्रो-ओहद में अहले इस्लाम की तादात 313 और कुफ़्फ़ार की तादात 950 थी। यानी तनासिब एक और तीन का था। इसी तरह जंगे बद्र में लश्करे इस्लाम की तादाद कम से कम 700 और लश्करे और कुफ़्फ़ार की तादाद ज़्यादा से ज़्यादा 5000 थी। गोया यहां भी तनासिब एक और सात का था और जंगे करबला में फ़ौजे हुसैनी की तादाद सिर्फ़ 72 थी जिनमें बच्चे और बूढ़े भी शामिल थे जबकि दुश्मन की फ़ौज की तादात 80000 थी, यानी तनासिब एक और ग्यारह का था। अब अगर फ़ौजे हुसैनी की ज़्यादा से ज़्यादा तादाद वाली रिवायतों को और यज़ीदी फ़ौज की कम से कम तादात वाली रिवायतों को पेशे नज़र रखा जाए, तब भी सिपाहे हुसैनी की तादाद 127 और यज़ीदी लश्कर की तादाद 20000 थी, यानी तनासिब एक और एक सौ अट्ठावन का था।

इस के अलावा शोहदा-ए-बद्रो ओहद को बंदिशे आब का सामना भी नहीं था जबकि इमामे हुसैन (अ.) के साथ भूख और प्यास के आलम में सेरो सेराब दुश्मन से नबर्दो आज़मा होने के बावुजूद ज़बानों पर शिद्दते अतश का कोई ज़िक्र भी न लाए। जंगे बद्र में अल्लाह ने मुसलमानों की 3000 फ़रिश्तों और जंगे ओहद में 5000 मलाएका से मदद फ़रमाई, नैज़े ग़ैबी आवाज़ के ज़रिए मलाएका की नुसरत का वादा फ़रमाकर अहले इस्लाम के दिलों को तक़वीयत पहुंचाई और हक़्क़े तआला ने मुसलमानों को ख़्वाब में दुशमनों की तादाद कम करके दिखाई ताकि इस्लामी लशेकर के हौसले पस्त न होने पाएं इस के अलावा नुज़ूले बारान के ज़रिए भी मैदाने जंग को मुस्लिम मुजाहेदीन के लिए हमवार किया गया।

मज़कूरा बाला हक़ाएक़ का ज़िक्र कर सूरए आले इमरान और सूरए अनफ़ाल में मौजूद है जबकि शोहदाए करबला के लिए मन्दरजा बाला सहूलतों में से किसी एक सहूलत का भी वुजूद लज़र नहीं आता फिर भी उनके पाए इस्तेक़ामत में कोई लग़ज़िश और हौसलों में कोई कमी पैदा न हो सकी।

शोहदा-ए-बद्रो ओहद के सामने जंग के दो पहलू थे, मनसबे शहादत का अबदी इनाम या दुशमनों को फ़िन्नार करके ग़ाज़ी के ख़ेताब के साथ माले ग़नीमत का हुसूल।

बल्कि अक्सर इस्लामी जंगों में बाज़ मुजाहेदीन के लिए माले ग़नीमत में वो कशिश थी के अल्लाह को क़ुरआने करीम में हिदायत करना पड़ी, और रसूल जो तुसको अता करें वो ले लो और जिससे रोक दें उस से रुक जाओ। चुनांचे यही माले ग़नीमत की कशिश थी जिसने जंगे ओहद की फ़तह को शिकस्त में तबदील कर दिया। अब ये और बात है कि इसी माले ग़नीमत के तुफ़ैल में बाज़ मुजाहेदीन को माले ग़नीमत के बजाए शहादत की दौलत हाथ आ गई लेकिन शोहदाए करबला के पेशे निगाह सिर्फ़ और सिर्फ़ शहादत की मौत थी।

शोहदा-ए-बद्रो ओहद के वास्ते ख़ुदा और रसूल के हुक्म की तामील में जंग में शिरकत वाजिब थी बसूरत दीगर अज़ाबे ख़ुदा और ग़ज़बे इलाही से दो-चार होना पड़ता। लेकिन अंसारे हुसैन के लिए ऐसी कोई बात नहीं थी बल्कि शबे आशूर इमामे हुसैन (अ.) ने अपने असहाब की गरदनों से अपनी बैअत भी उठा ली थी। और उनको इस बात की बख़ुशी इजाज़त मुरत्तब फ़रमा दी थी कि परदए शब में जिसका जहां दिल चाहे चला जाए क्योंकि दुश्मन सिर्फ़ मेरे सर का तलबगार है, यहां तक कि आप ने शमा भी गुल फ़रमा दी ताकि किसी को जाने में शर्म महसूस न हो। मगर क्या कहना इमामे मज़लूम के बेकस साथियों का कि उन्होंने फ़रज़ंदे रसूल को दुश्मनों के नरग़े में यक्कओ तनहा छोड़कर जाना किसी ऊ क़ीमत पर क़ुबूल नहीं किया चाहे इसके लिए उन्हे बार-बार मौत की अज़ीयत से ही क्यों न गुज़रना पड़ता।

जंगे बद्रो ओहद में जामे शहादत नोश करने वाले मुजाहेदीन के दिलों में इस जज़्बे का मौजूद होना क़ुरैन अक़्लोक़यास है कि हम अपनी जानों को सरवरे काएनात पर क़ुरबान करके अपने महबूब नबी की जाने मुबारक बचा लें बल्कि मुरसले आज़म के बाज़ अन्सार की क़ुरबानियां सिर्फ़ हयाते रसूले अकरम पर मुलहसिर थीं चुनांचे जंगे ओहद में लड़ाई का पासा पलटने के बाद जब ये शैतानी आवाज़ मुजाहेदीने इस्लाम के गोश गुज़ार हुई कि माज़ अल्लाह मोहम्मद क़त्ल कर दिए गए तो इस ख़्याल के पेशे नज़र अक्सर मुसलमानों के क़दम उखड़ गए कि जब रसूल ही ज़िन्दा नहीं रहे तो हम अपनी जान देकर क्या करें जबकि रसूले अकरम उनको आवाज़ें भी दे रहे थे। लेकिन अन्सारे हुसैन इस हक़ीक़त से बख़ूबी आशना थे कि हम अपनी जानें निसार करने के बाद भी मज़लूमे करबला की मुक़द्दस जान को न बचा पाएंगे। फिर भी उन्होने अपनी जान का नज़राना पेश करने में किसी पसोपेश से काम नहीं लिया बल्कि ख़ुद को इमामे आली मक़ाम पर क़ुरबान करने में एक दूसरे पर सबक़त करते नज़र आए लेकिन शौक़े शहादत और क़ुरबानी का जोशो वलवला नुक़्तए उरूज पर होने के बावुजूद इज़्ने इमाम के बग़ैर एक क़दम भी आगे बढ़ाने की जुरअत नहीं की। हां इमाम से इजाज़त मिलने के बाद उरूसे मर्ग को गले लगाने के लिए मैदाने जंग की तरफ़ यूं दौड़ पड़ते थे जिस तरह कोई शख़्स अपनी इन्तेहाई महबूब और अज़ीज़ शै के हुसूल के वास्ते सअई करने में उजलत करता है।

चूंकि शोहदाए बद्रो ओहद असहाबे पैग़म्बरे अकरम और शोहदाए करबला असहाबे इमामे हुसैन थे लेहाज़ा मुमकिन है कि बाज़ अफ़राद को शोहदाए करबला की मंदरजा बाला फ़ज़ीलत का इज़हार नागवार महसूस हो लेकिन हमारी या आपकी क्या मजाल कि किसी को फ़ज़ीलत दे सकें क्येंकि फ़ज़्लो शरफ़ का अता करने वाला तो वो अल्लाह है जो अपने बंदों को, अन अकरम कुम इन्दल्लाहो अतक़ाकुम, के उसूल पर फ़ज़ीलतों का हामिल क़रार देता है। फिर हज़रत इमाम हुसैन (अ.) का ये क़ौले पाक कि, जैसे असहाब मुझे मिले वैसे न मेरे नाना को मिले और न मेरे बाबा को, शोहदाए करबला की अज़मतों को ज़ाहिर करने के लिए काफ़ी है। ज़ियारते नाहिया में हज़रत हुज्जतुल अस्र का मंदरजा ज़ेल इरशादे गिरामी भी शोहदाए करबला की रफ़अतों को बख़ूबी आशकार फ़रमा रहा है कि, अस्सलामो अलैका या अंसारा अबी अबदिल्लाहिल हुसैन, बाबी अनतुम वअमी तमत्तुम व ताबतलअर्ज़ल्लती फ़ीहा दफ़नतुम, ऐ अबू अबदुल्लाहिल हुसैन के नासिर व तुम पर हमारा सलाम, मेरे बाप व मां तुम पर फ़िदा, तुम ख़ुद भी पाक हुए ऐर वो ज़मीन भी पाक हो गई जिस पर तुम दफ़्न हुए नासिर उन इमामे मज़लूम को मासूम का मंदरजा बालाख़ेराज अक़ीदत उनकी अज़मतो जलालत को दीगर तमाम शोहदा पर साबित करने के लिए एक संगेमील की हैसियत रखता है।

आख़िरे कलाम में वालिदे माजिद ताबा सराह का एक क़ता अन्सारे हुसैन (अ.) की शान में पेशे ख़िदमत है-

अन्सार जुदा शाह से क्योंकर होते

गरदूं से जुदा क्या महो अख़तर होते

होते जो कहीं और ये हक़ के बंदे

उस क़ौम के मअबूद बहत्तर होते।

माहे रमज़ानुल मुबारक की दुआ जो हज़रत रसूल अल्लाह स.ल.व.व.ने बयान फ़रमाया हैं।

اَللّهُمَّ اهدِني فيہ لِصالِحِ الأعْمالِ وَاقضِ لي فيہ الحوائِجَ وَالآمالِ يا مَنْ لا يَحتاجُ إلى التَّفسيرِ وَالسُّؤالِ يا عالِماً بِما في صُدُورِ العالمينَ صَلِّ عَلى مُحَمَّدٍ وَآله الطّاهرينَ..

अल्लाह हुम्मा एहदिनी फ़ीहि ले सालेहिल आमाल वक़ ज़ी ली फ़ीहिल हवाएजा वल आमाल, या मन ला यहताजु इलत तफ़सीरि वस्सुवाल, या आलिमन बिमा फ़ी सुदूरिल आलमीन, स्वल्ले अला मुहम्मदिन व आलेहित्ताहिरीन (अल बलदुल अमीन, पेज 220, इब्राहिम बिन अली)

ख़ुदाया! इस महीने में मुझे नेक कामों की तरफ़ हिदायत दे, और मेरी हाजतों व ख़्वाहिशों को पूरी फ़रमा, ऐ वह ज़ात जो किसी से पूछने और वज़ाहत व तफ़सीर की मोहताज नहीं है, ऐ जहांनों के सीनों में छुपे हुए राज़ों के आलिम, दुरूद भेज मुहम्मद (स) और उन की आल के पाकीज़ा ख़ानदान पर.

अल्लाह हुम्मा स्वल्ले अला मुहम्मद व आले मुहम्मद व अज्जील फ़रजहुम.

गुरुवार, 28 मार्च 2024 18:16

बंदगी की बहार- 17

रमज़ान का पवित्र महीना जारी है।

आज हम आपको यह बतायेंगे कि रमज़ान के पवित्र महीने में एक ईरानी परिवार क्या करता है। रमज़ान के पवित्र महीने में एक ईरानी बच्चा कहता है”

रमज़ान का महीना आ गया है। यह मेरा पांचवां साल है जब से मैं पूरे रोज़े रख रहा हूं। मेरी मां रसोईघर में इफ्तारी बना रही है यानी रोज़ा खोलने के लिए खानें बना रही है। पूरे कमरे में हलवे विशेष व्यजन और शोले ज़र्द की सुगंध फैली हुई है। एक विशेष प्रकार की मीठी खीर को शोले ज़र्द कहते हैं। पिता जी ताज़ा रोटी के साथ घर में प्रवेश करते हैं। हमारे माता- पिता ने बचपने से ही हमें रोज़ा रखने की आदत डाली है। ईरान में एक परंपरा यह है कि बच्चे को रोज़ा रखने और रोज़े के शिष्टाचारों से परिचित कराने के लिए कुछ समय तक उसे न खाने –पीने की आदत डालते हैं। इस परम्परा को “कल्ले गुन्जिश्की” कहते हैं। जब हमारे मां- बाप किसी से यह कहते थे कि हमने कल्लये गुन्जिश्की रोज़ा रखा है तो हमें यह आभास होता था कि हम बड़े हो गये हैं। हम धीरे- धीरे बड़े हो गये और अब वह समय आ गया है कि हम पूरे रोज़े रखें। जब हम छोटे थे और रोज़ा रखते थे तो हर रोज़े के बदले बड़े- बूढ़े हमें नई व प्रयोग न हुई नोट देते थे उनका यह कार्य हमारे लिए एक प्रकार का प्रोत्साहन था।

बहरहाल रमज़ान का पवित्र महीना आ गया है। चारों ओर विशेष प्रकार का आध्यात्मिक वातावरण व्याप्त है। टेलिवीज़न से दुआएं प्रसारित हो रही हैं। दस्तरखान लग गया है जिस पर पनीर, खाने की ताज़ा सब्जी, दूध, खजूर और दूसरी चीज़ें रख दी गयी हैं। रमज़ान के पवित्र महीने ने एक बार फिर यह संभावना उपलब्ध कर दी है कि परिवार के सदस्य रोज़ा खोलने के समय अधिक से अधिक एक दूसरे के साथ रहें। काफी समय से हम लोग एक साथ दस्तरखान पर नहीं बैठे थे। जैसे ही अज़ान कही गयी मेरे भाई ने ज़रा सा रुके बिना दूध से भरे ग्लास को पी लिया और पिताजी ने दुआ पढ़ी और आराम से कहा कि कबूल बाशद यानी ईश्वर सबके रोज़े को कबूल करे।         

यह उस महीने की कहानी है जो हर प्रकार की घटना से हटकर प्रतिवर्ष हमें एक साथ एकत्रित करता है। यह वह पवित्र महीना है जो हमें अपने पालनहार की उपासना करने और उससे दुआ करने का सुनहरा अवसर प्रदान करता है। इसी तरह यह महीना हमें दूसरों और उन लोगों का हाल- चाल जानने का अवसर प्रदान करता है जो वर्षों से हमारे मित्र हैं।

 

रमज़ान का पवित्र महीना जब आता है तो बहुत से लोगों की जीवन शैली बदल जाती है। खाने पीने, सोने, काम करने यहां तक इस महीने में सामान खरीदने और उसके प्रयोग की शैली भी परिवर्तित हो जाती है। वास्तव में जीवन शैली का परिवर्तित होना इस महीने का मात्र एक उपहार है जो जीवन में बड़े बदलाव का कारण बन सकता है।

रमज़ान के पवित्र महीने की एक बरकत यह है कि जब परिवार के सदस्य एक साथ रोज़ा रखते हैं, साथ में इफ्तारी करते और सहरी खाते हैं तो इससे परिवार के आधार मज़बूत होते हैं जबकि रमज़ान का पवित्र महीना आने से पहले बहुत कम एसा होता था कि परिवार के समस्त सदस्य एक साथ दस्तरखान पर एकत्रित हों। कुछ अपने कार्यों में व्यस्त होने के कारण केवल एक समय का खाना खाते थे वह भी सही समय पर नहीं। जबकि रमज़ान के पवित्र महीने में परिवार के सभी सदस्य इफ्तारी और सहरी के समय एक साथ होने का प्रयास करते हैं।

ईरानी बच्चा आगे कहता हैः माताजी एक धर्मपरायण महिला हैं। उन्होंने बचपने से ही हम सबके अंदर धार्मिक शिक्षाओं की आदत डाल दी है। जब वह हमें घूमाने के लिए पार्क या मनोरंजन स्थलों पर ले जाती हैं वहां पर वह हमें विभिन्न अवसरों पर महान ईश्वर की नेअमतों और उसकी सुन्दरताओं की याद दिलाती हैं। वह पेड़ों के पत्तों में अंतर को हमें बताती हैं। पुष्पों की महक और उसकी सुन्दता को हमारे लिए बयान करती हैं। इस प्रकार से कि हम यह सोचने पर बाध्य हो जाते हैं कि किसने इन फूलों को इतने सुन्दर व रंग बिरंगे रंगों में पैदा किया है। महान व सर्वसमर्थ ईश्वर है जिसने ब्रह्मांड और उसमें मौजूद समस्त चीज़ों की रचना की है।

 रोज़ा रखने का एक फायदा यह है कि रोज़ा रखने वालों के मध्य धैर्य करने की भावना पैदा और मज़बूत होती है और यह मोमिन लोगों के अधिक कृपालु बनने का कारण बनती है। जिस परिवार के सदस्य रोज़ा रखते हैं उसके सदस्य अधिक कृपालु व दयालु बन जाते हैं विशेषकर पिताजी इस महीने में कृपालु व दयालु बन जाते हैं। क्योंकि पैग़म्बरे इस्लाम ने फरमाया है कि इस महीने में अपने बड़ों का सम्मान करो और अपने छोटों पर दया करो और सगे- संबंधियों के साथ भलाई करो, अपनी ज़बानों को नियंत्रित रखो और अपनी आंखों को हराम चीज़ों को देखने से बंद कर लो”

रोज़े की जो आध्यात्मिकता होती है विशेषकर सहरी व भोर के समय उसका वर्णन शब्दों में नहीं किया जा सकता। घर में खाने के लिए दस्तरखान बिछता है, मस्जिदों से पवित्र कुरआन की तिलावत की आवाज़ आती है। टीवी से पवित्र कुरआन की तिलावत और दुआ पढ़ने की आवाज़ आती है इस प्रकार के वातावरण में दोस्तों और सगे- संबंधियों से मिलने की अमिट छाप हमारे दिल और ईमान पर रह जाती है। इस आध्यात्मिक वातावरण में फरिश्ते नाज़िल होते हैं और वे इस पवित्र महीने की महानता, बरकत और संदेश को आसमान वालों के लिए ले जाते हैं। इस बात में कोई संदेह नहीं है कि जो संदेश आसमान तक जायेगा उसका परिमाण मुक्ति व कल्याण होगा। यह एसा ही है कि यह धार्मिक उपासना हर साल आती है ताकि वह अपनी विभूतियों व बरकतों से हमारे व्यवहार व आचरण को बदल दे। पिताजी कहते हैं कि महत्वपूर्ण यह है कि हम पवित्र रमज़ान महीने में उपासना, रोज़े और दुआ को महत्व दें और महान ईश्वर की राह में खर्च करके, पवित्र कुरआन की तिलावत करके और दुआ करके अपने दिलों को प्रकाशमयी बनायें। अगर हम अच्छी तरह उपासना करें, पवित्र कुरआन की तिलावत करें और दुआ करें तो हमारे जीवन में रमज़ान के पवित्र महीने के प्रभाव अधिक होंगे।

मौलवी ने अपनी मसनवी में कुछ मनोवैज्ञानिक शैलियों का प्रयोग करके हमारे व्यवहार को परिवर्तित करने का प्रयास किया है और वह क्रोध को नियंत्रित करने वाली एक कहानी की ओर संकेत किया है। यह कहानी इस बात की सूचक है कि हम अपने इरादों को मज़बूत करके अपनी अनुचित आदतों को छोड़ सकते हैं। विशेषकर रमज़ान का पवित्र महीना एसा अवसर है जिसमें हम अपने अनुचित व्यवहार को परिवर्तित करके उसे सुधार सकते हैं। इसी प्रकार इस पवित्र महीने में हम अपने अवगुणों से मुकाबला हैं और उन्हें छोड़ सकते हैं। श्रोता मित्रो कृपया इस कहानी को ध्यान से सुने।

एक जवान था जिसका व्यवहार अच्छा नहीं था वह अपने दुर्व्यवहार से सदैव अपने आस- पास के लोगों को कष्ट पहुंचाता था। उसने अपनी इस बुरी आदत को सही करने का बहुत प्रयास किया परंतु उसे सही न कर सका। एक दिन उसके पिता ने उसे एक हथोड़ी और कुछ कीलें दीं और उससे कहा कि जब भी तुम्हें क्रोध आये तो एक कील दीवार में ठोंक देना। पहले दिन जवान दीवार पर कई कीलें ठोंकने के लिए बाध्य हुआ क्योंकि उसे बहुत क्रोध आता था और दिन की समाप्ति पर उसे अपने क्रोध की सीमा का अंदाज़ा हुआ। उसके अगले दिन कम क्रोधित होने का प्रयास किया ताकि कम कील दीवार में ठोंकनी पड़े। इस प्रकार वह प्रतिदिन अपने क्रोध की सीमा का अंदाज़ा लगाता रहा और दीवार में हर अगले दिन कम कीलें ठोंकता था। इस प्रकार उसके अंदर अपने क्रोध की आदत को बदलने की आशा उत्पन्न हो गयी।

इस प्रकार वह दिन आ ही गया जब जवान ने एहसास किया कि मेरे व्यवहार से क्रोध की बुरी आदत खत्म हो गयी। उसने पूरी बात अपने पिता से बतायी। उसका बाप एक समझदार और होशियार इंसान था उसने अपने बेटे को प्रस्ताव दिया कि अब हर उस दिन के बदले एक कील दीवार से निकालो जिस दिन भी तुम्हें क्रोध न आये। बहरहाल एक दिन आ गया जब जवान ने दीवार में ठोंकी समस्त कीलों को बाहर निकाल लिया। उसके बाद बाप ने बेटे का हाथ पकड़ा और उस दीवार की ओर ले गया जिसमें उसने कीलों को ठोंका था। उसने अपने बेटे की ओर देखा और कहा शाबाश! बहुत अच्छा काम किये किन्तु दीवार के उस भाग को देखो जहां से तुम कीलें निकाले हो। मेरे बेटे जब तुम क्रोध में कोई बात दूसरे से कहते हो तो वह उस कील की भांति है जो दीवार में तुमने ठोंकी थी यानी तुम अपनी बातों से दूसरों के दिलों में कील ठोंकते हो और इससे दूसरों के दिलों में जो घाव हो जाता है उसका चिन्ह बाकी रहता है और आसानी से उसकी जगह नहीं भरती। जवान अपने बाप की बात से समझ गया कि क्रोध से कितना नुकसान पहुंचता है और इसके बाद उसने दूसरों के साथ अच्छा व्यवहार करने का प्रयास किया। पैग़म्बरे इस्लाम और उनके पवित्र परिजनों के कथनों में क्रोध को हर बुराई की जड़ कहा गया है। इंसान क्रोध की हालत में बहुत से एसे कार्य कर बैठता है जिस पर वह बाद में पछताता है। इसीलिए पैग़म्बरे इस्लाम और उनके पवित्र परिजनों के कथनों में क्रोध को एक अन्य स्थान पर एक प्रकार का पागलपन कहा गया है। क्रोध में इंसान बुद्धि से कम काम लेता है। क्रोध वास्तव में दिल के अंदर जलने वाली एक प्रकार की आग की ज्वाला है। इसलिए रवायतों में कहा गया है कि जब इंसान को क्रोध आये तो उसे पानी पीना चाहिये। जिस इंसान को क्रोध आया हो उसे चाहिये कि अगर वह खड़ा हो तो बैठ जाये यानी अपनी दशा को बदल दे। इसी प्रकार जिस इंसान को क्रोध आया हो उसे चाहिये कि आइने में अपना चेहरा देखे। बहरहाल क्रोध एक एसी बुरी आदत है जो अवगुणों को ज़ाहिर और सदगुणों को छिपा देती है और बुद्धिमान व्यक्ति सदैव एसी चीज़ों को अंजाम देने से बचता है जो उसकी अच्छाइयों को छिपा ले और बुराइयों को ज़ाहिर कर दे।