رضوی

رضوی

शरणार्थी यहूदियों के ज़रिए फ़िलिस्तीन पर क़ब्ज़ा यूरोपीय साम्राज्यवादी टैकटिक के समान है और यह क़ब्ज़ा यूरोपीय साम्राज्यवाद की मिसाल है।

यूरोपीय जहां भी गए, चाहे वो अमरीका हो, आस्ट्रेलिया हो, अफ़्रीक़ा हो यही चाल चलीः ज़मीनों पर क़ब्ज़ा करो, जहां तक संभव हो ज़्यादा से ज़्यादा ज़मीनें हथिया लो और जो विरोध करे उसे कुचल दो।

इस्राईल कई महीनों से हमास को ख़त्म करने के बहाने ग़ज़ा पट्टी पर बमबारी कर रहा है।

लेकिन वो एक आइडियालोजी को शिकस्त नहीं दे सकते, अगर आपकी धरती पर क़ब्ज़ा कर लिया जाए तो रेज़िस्ट करना आपका अधिकार है, क़ब्ज़ा जारी रहता है तो यह विचार भी जारी रहेगा और एक नस्ल से दूसरी नस्ल में यह विचार और जज़्बा स्थानान्तरित होता रहेगा।

 

इस्राईल चाहता है कि इस समय ग़ज़ा पट्टी में जो फ़िलिस्तीनी हैं इस इलाक़े को छोड़कर मिस्र चले जाएं। इस्राईल का लक्ष्य बिल्कुल साफ़ है। इस्राईल यहूदियों का विशेष देश बनाने की कोशिश में है जिसमें अरबों और फ़िलिस्तीनियों के लिए कोई जगह न हो। वह चाहता है कि ग़ज़ा पट्टी में आबादी कम हो जाए।

इस समय उत्तरी इलाक़ों में वो एक सेफ़ ज़ोन बनाने की कोशिश कर रहे हैं जहां कोई फ़िलिस्तीनी न हो। वो जबालिया, बैत हानून जैसे इलाक़ों को फ़िलिस्तीनियों से पूरी तरह ख़ाली करा लेना चाहते हैं। ज़ायोनी सोचते हैं कि इस तरह उनके लिए ख़तरा नहीं रहेगा।

जब 1917 में बालफ़ोर घोषणापत्र का एलान किया गया तो उस समय फ़िलिस्तीन में यहूदियों की संख्या मात्र 56 हज़ार थी। 1922 में फ़िलिस्तीन पर ब्रिटेन का मैनडेट लागू हो गया तो फ़िलिस्तीन के दरवाज़े यहूदियों के लिए पूरी तरह खोल दिए गए। 1939से 1945 के बीच जंग के वर्षों में और 1947 में पार्टीशन योजना के एलान तक बड़ी संख्या में यहूदियों ने फ़िलिस्तीन की तरफ़ पलायन किया। उनकी संख्या बढ़कर 6 लाख 65 हज़ार हो गई। इसकी सबसे बड़ी वजह फ़िलिस्तीन का ब्रिटेन के मैनडेट में होना था। इसका मतलब यह था कि ब्रिटेन के पास इस इलाक़े  के प्रशासनिक अधिकार थे लेकिन इसका यह अर्थ तो नहीं होता कि ब्रिटेन इस इलाक़े का मालिक बन गया हो। इस इलाक़े का शासन ब्रिटेन को कभी नहीं सौंपा गया।

ब्रिटेन की देखरेख में फ़िलिस्तीन में यहूदियों की संख्या बढ़ती जा रही थी, अरबों को उनकी ज़मीनों से बेदख़ल किया जा रहा था। वर्ष 1948 में इस्राईल की घोषणा होने के समय यहूदियों की संख्या साढ़े सात लाख से ज़्यादा हो गई।

۔यूनिसेफ के प्रवक्ता ने फिलिस्तीनी बच्चों पर गाजा युद्ध के खतरनाक प्रभावों के बारे में कड़ी चेतावनी दी है और कहा है कि फिलिस्तीनी बच्चों को भुखमरी जैसी विभिन्न समस्याओं और कठिनाइयों का सामना करना पड़ रहा है, फिर भी दुनिया केवल तमाशबीन बनी हुई है।

संयुक्त राष्ट्र बाल संगठन यूनिसेफ के प्रवक्ता जेम्स एल्डर ने एक्स नेटवर्क के माध्यम से अपने संदेश में फिलिस्तीनी बच्चों पर गाजा युद्ध के प्रभावों के बारे में कड़ी चेतावनी दी और गाजा में तत्काल युद्धविराम की आवश्यकता पर जोर दिया। उन्होंने कहा कि फ़िलिस्तीनी बच्चे भुखमरी जैसी विभिन्न समस्याओं का सामना कर रहे हैं और दुनिया सिर्फ दर्शक बनी हुई है।

जेम्स एल्डर ने कहा कि गाजा में लगभग 16 प्रतिशत बच्चे उचित भोजन से वंचित हैं और संयुक्त राष्ट्र के प्रस्ताव पारित होने और अंतरराष्ट्रीय समुदाय द्वारा फिलीस्तीन को मानवीय सहायता और मानवीय सहायता उपलब्ध कराने की मांग के बावजूद दमनकारी ज़ायोनी शासन बमबारी करके फिलिस्तीनियों के खिलाफ नरसंहार करना जारी रखता है। गाजा के नागरिकों के खिलाफ सभी प्रकार के अमानवीय अपराध कर रहे हैं।

इस लेख की सनद नहजुल बलाग़ा का 31 वा पत्र है। सैयद रज़ी के कथन के अनुसार सिफ़्फ़ीन से वापसी पर हाज़रीन नाम की जगह पर आप ने यह पत्र अपने पुत्र इमाम हसन (अ) को लिखा है। हज़रत अली (अ) ने इस पत्र के ज़रिये से जो ज़ाहिर में तो इमाम हसन (अ) के लिये है, मगर वास्तव में सत्य की तलाश करने वाले सारे जवानों को इसमें संबोधित किया गया है। हम इस लेख में उसके केवल कुछ बुनियादी उसूलों का वर्णन करेगें।

 तक़वा और पाक दामनी

 इमाम अली (अ) फ़रमाते हैं

 واعلم يابنی ان احب ما انت آخذ به الِِی  من وصِتی تقوِِ ی الله

 बेटा जान लो कि मेरे नज़दीक सबसे ज़्यादा प्रिय चीज़ इस वसीयत नामे में अल्लाह का तक़वा है तुम उसे अपनाये रहो।

  जवानों के लिये तक़वे का महत्व उस समय स्पष्ट होता है कि जब जवानी की तमन्नाओं, अहसासात और चाहतों को केन्द्रित किया जाये। वह जवान जिसे जिन्सी ख़्वाहिशें, ख़्यालात और तेज़ अहसासात के तूफ़ानों का सामना करना पड़ता है ऐसे जवान के लिये तक़वा एक मज़बूत क़िले की तरह है जो दुश्मन के हमलों से उसकी सुरक्षा करता है या तक़वा एक ऐसी ढाल की तरह है जो उसके शरीर को शैतान के ज़हर में बुझे हुए तीरों से सुरक्षित रखता है।

 फ़रमाते हैं:

 اعلموا عباد الله ان التقوی دارحصن عزيز

 ऐ अल्लाह के बंदों जान लो कि तक़वा एक कभी न गिरने वाला क़िला है।

 शहीद मुतहहरी फ़रमाते हैं: यह ख़्याल नही करना चाहिये कि तक़वा नमाज़ रोज़े की तरह दीन के मुख़तस्सात में से है बल्कि यह इंसानियत के लिये अनिवार्य है। इंसान अगर चाहता है कि जानवरों और जंगलों की ज़िन्दगी से निजात हासिल करे तो वह मजबूर है कि तक़वा इख़्तियार करे।

 जवान हमेशा दो राहे पर होता है दो अलग अलग शक्तियाँ उसे अपनी ओर ख़ैचती हैं एक ओर तो उसका अख़लाक़ी और इलाही ज़मीर होता है जो उसे नेकियों को ओर आकर्षित करता है दूसरी ओर शैतानी ख़्वाहिशें, नफ़्से अम्मारा और शैतानी वसवसे उसे काम वासना की ओर दावत देती हैं। अक़्ल व वासना, नेकी व बुराई, पवित्रता व अपवित्रता इस जंग और कशमकश में वही जवान सफल हो सकता है जो ईमान और तक़वा के हथियार से लैस हो।

 यही तक़वा था कि हज़रत युसुफ़ (अ) मज़बूत इरादे के साथ अल्लाह की ओर से होने वाली परिक्षा में सफल हुए और बुलंद मरतबे तक पहुचे। क़ुरआने करीम हज़रत युसुफ़ (अ) की सफ़लता की कुँजी दो चीज़ों को क़रार देता है एक, तक़वा और दूसरे सब्र। सूरए युसुफ़ की 90वीं आयत में इरशाद होता है :

  انه منِِ يتق وِِ يصِبر فان الله لا ِِ يضِِيع اجر المحسنِِين

 जो कोई तक़वा इख़्तियार करे और सब्र से काम ले तो अल्लाह तआला नेक कर्म करने वालों के पुन्य को बर्बाद नही करता।

 इरादे की दृढ़ता

 बहुत से जवान इरादे की कमज़ोरी और फ़ैसला न करने की सलाहियत की शिकायत करते हैं कहते हैं कि हमने बुरी आदत को छोड़ देने का फ़ैसला किया लेकिन उसमें सफल नही हुए इमाम अली (अ) की नज़र में तक़वा इरादे का मज़बूत होना, नफ़्स पर कंटरोल, बुरी आदात और गुनाहों के छोड़े देने का बुनियादी कारण हो सकता है आप फ़रमाते हैं जान लो कि ग़लतियाँ और पाप उस बिगड़े हुए घोड़े की तरह हैं जिसकी लगाम ढीली हो और गुनाह गार (पापी) उस पर सवार हो यह उन्हे नर्क की गहराईयों में गिरा देगा और तक़वा उस आरामदेह सवारी की तरह है जिसका मालिक उस पर सवार है उसकी लगाम उसके हाथ में है और यह सवारी उसको स्वर्ग की ओर ले जायेगी।

 ध्यान रहना चाहिये कि यह काम होने वाला है मुम्किन (संभव) है। जो लोग इस वादी में क़दम रखते हैं अल्लाह तआला की इनायतें और कृपा उनके शामिले हाल हो जाती हैं जैसा कि सूरए अनकबूत की 69 वीं आयत में इरशाद है:

 والذِين جاهدوا فِينا لنهدِِ ينهم سبلنا

 और वह लोग जो हमारी राह में कोशिश करते हैं हम यक़ीनन और ज़रूर उनको अपने रास्तों की तरफ़ हिदायत (मार्गदर्शन) करेगें।

 जवानी की फ़ुरसत

 बेशक सफ़लता के सबसे महत्वपूर्ण कारणों में से एक फ़ुर्सत और अवकाश के क्षणों से सही और उसूली फ़ायदा उठाना है। जवानी का जम़ाना इस फ़ुरसत के ऐतेबार से बहुत महत्व रखता है। मअनवी और जिस्मानी शक्तियाँ वह महान और नायाब तोहफ़े हैं जो अल्लाह तआला ने जवान नस्ल को दिये है। यही कारण है कि धर्म गुरुओं ने हमेशा जवानी को ग़नीमत समझने की ओर ध्यान दिलाया और ताकीद की है। इस बारे में इमाम अली (अ) फ़रमाते हैं

 بادر الفرصه قبل ان تکون غصه

 इसके पहले कि फ़ुरसत और मौक़ा तुम्हारे हाथ से निकल जाए और ग़म व दुख का कारण बने उसको ग़नीमत जानो।

 सूरए क़सस आयत 77 वीं आयत के अनुसार

 لا تنس نصِِيبک من الدنِِيا

 (दुनिया में होने वाले अपने हिस्से को भूल मत जाना) की तफ़सीर में फ़रमाते हैं कि

 لا ننس صحتک و قوتک و فراغک و شبابک و نشاطک ان تطلب بها الآخره

  अपनी सेहत, शक्ती, अवकाश, जवानी और निशात को भूल न जाना और उनसे अपनी आख़िरत के लिये फ़ायदा उठाओ। जो लोग अपनी जवानी से सही फ़ायदा नही उठाते। इमाम (अ) उनके बारे में फ़रमाते हैं:

 उन्होने बदन की सलामती के दिनों में कोई चीज़ जमा नही की, अपनी ज़िन्दगी के आरम्भिक क्षणों से इबरत हासिल नही किया, क्या जो जवान है उसको बुढ़ापे के अलावा किसी और चीज़ का इंतेजार है?

 जवानी के बारे में सवाल

 जवानी और निशात अल्लाह की अज़ीम नेमत है जिसके बारे में क़यामत के रोज़ पूछा जायेगा। पैग़म्बरे इस्लाम (स) से एक हदीस है आप फ़रमाते हैं:

 क़यामत के दिन कोई शख़्स एक क़दम नही उठायेगा मगर उससे चार सवाल पूछे जायेगें:

 उसकी उम्र के बारे में कि कैसे और कहाँ गुज़ारी?

 जवानी के बारे में कि उसका क्या अँजाम किया?

 माल व दौलत के बारे में कि कहाँ से हासिल की और कहाँ कहाँ ख़र्च किया?

 अहले बैत (अ) की मुहब्बत और दोस्ती के बारे में सवाल होगा?

  यह जो आँ हज़रत (स) ने उम्र के अलावा जवानी का ख़ास तौर पर ज़िक्र फ़रमाया है उससे ज़वानी की क़द्र व क़ीमत मालूम होती है। इमाम अली (अ) फ़रमाते हैं:

 شِِياءان لا ِِ يعرف فضلهما الامن فقدهما الشباب والعافِِيه

 इंसान दो चीज़ों की क़द्र व मंज़ेलत नही जानता मगर यह कि उनको खो दे, एक जवानी और दूसरे तंदरुस्ती।

 स्वयंसुधार

 ख़ुद को सँवारने का बेहतरीन ज़माना जवानी का दौर है। इमाम अली (अ) अपने बेटे इमाम हसन (अ) से फ़रमाते हैं:

 انما قلب الحدث کالارض الخالِِيه ما القِِى فِِيها من شِِي قبلته فبادرتک بالادب قبل انِِ يقسوا قلبک و ِِ يشتعل لِِيک

  नौजवान का दिल ख़ाली ज़मीन की तरह होता है जो उसमें बोया जाये वह ज़मीन उसे क़बूल कर लेती है इसलिय इसके पहले कि तुम्हारा दिल सख़्त हो जाये और तेरी  सोच कहीं बट जाये मैंने तुम्हारी शिक्षा और प्रशिक्षण में जल्दी कर दी है।

 नापसंदीदा आदतें जवानी में चूँकि उसकी जड़े मज़बूत नही होतीं इसलिये उनसे  लड़ना आसान होता है। इमाम ख़ुमैनी फ़रमाते हैं जिहादे अकबर (बड़ा जिहाद) वह जिहाद है जिसका मुक़ाबला इंसान अपने बिगड़े हुए नफ़्स के साथ करता है। आप जवानों को अभी से जिहाद शुरु कर देना चाहिये कहीँ ऐसा न हो कि जवानी की शक्तियाँ तुम बर्बाद कर बैठो।

 जैसे जैसे यह शक्तियाँ बर्बाद होती जायेंगी वैसे वैसे बुरे सदव्यवहार की जड़ें इंसान में मज़बूत और जिहाद मुश्किल होता जाता है। एक जवान इस जिहाद में बहुत जल्द कामयाब हो सकता है जबकि बूढ़े इंसान को इतनी जल्दी कामयाबी नही होती।

 ऐसा न होने देना कि अपना सुधार को जवानी की जगह बुढ़ापे में करो।

 अमीरुल मोमिनीन (अ) इरशाद फ़रमाते हैं:

 غالب الشهوه قبل قوت ضراوتها فانها ان قوِِ يت ملکتک و استفادتک و لم لقدر علِِى  مقاومتها

 इससे पहले कि काम वासना और नफ़सानी ख़्वाहिशात जुरात व तंदरुस्ती की आदत अपना लें उनसे मुक़ाबला करो क्योकि अगर ख़्वाहिशात बिगड़ जायें तो तुम पर हुक्मरानी करेगीं फिर जहाँ चाहें तुम्हे ले जायेगीं। यहाँ तक कि तुम में मुक़ाबले की सलाहियत ख़त्म हो जायेगी।

  1. सम्मानित व प्रतिष्ठित स्वभाव

 अपने ख़त में अमीरुल मोमिनीन (अ) जवानों को एक और वसीयत करते हैं:

 اکرم نفسک عن کل دنِِيه و ان ساقتک الِِى الرغاءب فانک لن تعتاض بما تبذل من نفسک عوضا و لا تکن عبد غِِيرک و قد جعلک الله اجرا

 हर पस्ती से अपने आप को बाला रख। (अपने वक़ार का भरपूर ख़्याल रख) अगरचे यह पस्तियाँ तुझे तेरे मक़सद तक पहुचा दें, अगर तूने इस राह में अपनी इज़्ज़त व प्रतिष्ठा खो दी तो उसका बदला तुझे नही मिल पायेगा और ग़ैर का गुलाम न बन क्योकि अल्लाह तआला ने तुझे आज़ाद पैदा किया है। इज़्ज़ते नफ़्स इंसान की बुनियादी ज़रुरतों में से है।

 उसका बीज अल्लाह तआला ने इंसान की फितरत में बोया है, उसकी हिफ़ाज़त, सुरक्षा और उन्नती व प्रगति की आवश्यकता है। फ़िरऔन के बारे में क़ुरआने करीम में इरशाद है:

 فاستخف قومه فاطاعوه انهم کانوا فاسقِِين

 (सूरए ज़ुख़रुफ़ आयत 54)

 फ़िरऔन ने अपनी क़ौम को ज़लील किया इसलिये उन्होने उसकी आज्ञा का पालन किया क्योकि वह लोग फ़ासिक़ थे।

 इज़्ज़त और वक़ार के लिये निम्नलिखित कार्य आनिवार्य हैं:

  विभिन्न कार्यों में से एक पाप और गुनाह है जो इंसान की इज़्ज़त और प्रतिष्ठा को नुक़सान पहुचाता है अत पाप और गुनाह से बचना नफ़्स की शराफ़त और वक़ार एँव सम्मान का कारण बनता है इमाम (अ) फ़रमाते हैं:

 من کرمت علِِيه نفسه لم ِِ ياهنها بالمعصِِيه

 जो अपने लिये सम्मान व प्रतिष्ठा का क़ायल हो ख़ुद को पाप और गुनाह के ज़रिये  ज़लील नही करता।

 ब. बेनियाज़ी

 दूसरों की चीज़ों पर नज़र रखना और मजबूरी के अलावा दूसरों से मदद माँगना इंसान की प्रतिष्ठा और सम्मान को बर्बाद कर देता है। इमाम अली (अ) फ़रमाते हैं:

 المسءله طوق المذله تسلب العز يز عزه والحسب حسبه۱۴

  लोगो से माँगना बेइज़्ज़ती का एक ऐसा तौक़ है जो इज़्ज़तदारों की इज़्ज़त और शरीफ़ ख़ानदान और वंश के इंसानों से उनके वंश की शराफ़त को छीन लेता है।

 स. सही राय

इज़्ज़त व शराफ़ते नफ़्स का बहुत ज़्यादा ताअल्लुक़ इंसान की अपने बारे में राय से है जो कोई ख़ुद को कमज़ोर ज़ाहिर करता है लोग भी उसे ज़लील व पस्त समझते हैं इसलिये इमाम (अ) फ़रमाते हैं:

 الرجل حِِيث اختار لنفسه ان صانها ارتفعت و ان ابتذلها اتضعت ۱۵

 हर इंसान की इज़्ज़त उसकी अपने कार्यों पर आधारित है जो उसने इख़्तियार की है अगर अपने आपको पस्ती व ज़िल्लत से बचा के रखे तो बुलंदियाँ तय करता है और ख़ुद को ज़लील करे तो पस्तियों और ज़िल्लतों का शिकार हो जाता है।

 द. घटिया बातों और कार्यों से बचने का उपाय

अगर कोई चाहता है कि उसका वक़ार और इज़्ज़ते नफ़्स सुरक्षित रहे तो उसे चाहिये कि हर ऐसी बात और काम से जो कमज़ोरी का कारण बने उस से बचे। इसीलिये इस्लाम ने चापलूसी, ज़माने से शिकायत, अपनी मुश्किलों के लोगों से बयान करने, बड़े बड़े दावे करना, यहाँ तक कि बे मौक़ा आवभगत, सत्कार, तवाज़ो और इंकेसारी ज़ाहिर करने से मना किया है इमाम अली (अ) फ़रमाते है:

 کثره الثنا ملق ِِ يحدث الزهوريدنِِي من العزه ۱۶

 हद से ज़्यादा प्रशंसा और तारीफ़ चापलूसी है उससे एक तरफ़ तो इंसान में घमंड पैदा हो जाता है जबकि दूसरी तरफ़ इज़्ज़ते नफ़्स से दूर हो जाता है।

इसी तरह से इमाम (अ) फ़रमाते हैं:

 رضِِي بالذل من کشف ضره غِِيره ۱۷

 जो शख़्स अपनी ज़िन्दगी की मुश्किलों को दूसरों से बयान करता है वह अस्ल में अपनी बेइज़्ज़ती व अपमान पर राज़ी हो जाता है।

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  1. बिहारुल अनवार जिल्द 68 पेज 177
  2. नहजुल बलाग़ा ख़ुतबा 82
  3. बिहारुल अनवार जिल्द 74 पेज 160
  4. ग़ुररुल हिकम व दुररुल हिकम जिल्द 4 पेज 183
  5. नहजुल बलाग़ा ख़त 31
  6. आईने इंक़ेलाबे इस्लामी पेज 203
  7. ग़ुररुल हिकम व दुररुल हिकम जिल्द 4 पेज 392
  8. नहजुल बलाग़ा ख़त 31
  9. ग़ुररुल हिकम व दुररुल हिकम जिल्द 5 पेज 357

14.ग़ुररुल हिकम व दुररुल हिकम जिल्द 2 पेज 145

  1. ग़ुररुल हिकम व दुररुल हिकम जिल्द 2 पेज 77
  2. ग़ुररुल हिकम व दुररुल हिकम जिल्द 4 पेज 595
  3. ग़ुररुल हिकम व दुररुल हिकम जिल्द 4 पेज 93
  4. आत्मा की आवाज़

 इमाम (अ) अपने बेटे से फ़रमाते हैं:

  ِِ يابنِِي اجعل نفسک مِِيزانا فِِيما بِِينک و بِِين غِِيرک

 बेटा, ख़ुद को अपने और दूसरों के बीच फ़ैसले का मेयार क़रार दो, अगर समाज में सब लोग ज़मीर की पुकार के साथ एक दूसरे से रिश्ता रखें, एक दूसरे के हक़, फ़ायदे और हैसियत का आदर करें तो समाज के संबंधों में दृढ़ता, मज़बूती, शाँति और अम्न पैदा हो जायेगा। एक हदीस में आया है कि एक शख़्स पैग़म्बरे इस्लाम (स) के पास आया और कहा ऐ अल्लाह के नबी मैं अपनी तमाम शरई ज़िम्मेदारियों को पूरा करता हूँ लेकिन एक गुनाह है जो मुझ से छूट नही पा रहा है वह नाज़ायज़ ताअल्लुक़ है। यह बात सुन कर सारे सहाबी बहुत ग़ुस्से में आ गये लेकिन आँ हज़रत (स) ने फ़रमाया आप लोग इसको कुछ न कहें मैं ख़ुद इससे बात करता हूँ उसके बाद आपने फ़रमाया:ऐ शख़्स क्या तेरी माँ बहन या कोई इज़्ज़त व सम्मान है या नही? उसने कहा हाँ या रसूलल्लाह, आपने फ़रमाया तू यह चाहता है कि लोग भी तेरे घर की इज़्ज़त से ऐसे ही ताअल्लुक़ रखें? उसने कहा हरगिज़ नही तो आँ हज़रत (स) ने फ़रमाया तो तू ख़ुद में कैसे हिम्मत पैदा करता है कि इस तरह का पाप करे? उस शख़्स ने सर झुका लिया और कहा ऐ अल्लाह के नबी आज के बाद मैं वादा करता हूँ कि यह पाप नही करूगा।19

 इमाम सज्जाद (अ) फ़रमाते हैं लोगों का यह हक़ है कि उनको परेशान करने और तकलीफ़ पहुचाने से बचो और उनके लिये वही पसंद करों जो अपने लिये पसंद करते हो और वही जो अपने लिये नापसंद करते हो उनके लिये भी नापसंद करो। क़ुरआने हकीम में जो नफ़्से लव्वामा की सौगंध ख़ाई गई है यह वही इंसानी ज़मीर की आवाज़ है इरशाद होता है:

 لا اقمس بِِيوم القِِيامه و لا بالنفس اللوامه (القِِيامه ۱-۲ )

 क़सम है क़यामत के दिन की और क़सम है उस नफ़्स की जो इंसान को गुनाह और पाप करने पर सख़्ती से रोकता और बुरा भला कहता है।

 अनुभव प्राप्त करना

 इमाम अली (अ) इसी वसीयत नामे में अपने बेटे इमाम हसन (अ) से फ़रमाते हैं:

 اعرض علِِيه اخبار الماضِِين و ذکره بما اصاب من کان قبلک من الاولِِين و سرفِِي دِِ ياربم و آثار بم فانظر فِِيما فعلوا و عما انتقلوا وِِ اين حلوا و نزلو

 अपने दिल के सामने पिछले लोगो की ख़बरें और उनके हालात को रखो जो कुछ उन पर तुम से पहले गुज़र चुका है उसको याद करो उनकी क़ब्रों और वीरानों, खंडरों को देखो कि उन्होने क्या किया। वह लोग कहाँ से आये और कहाँ चले गये और कहाँ हैं।

 एक जवान को चाहिये कि वह इतिहास को पढ़े और अपने लिये उनके अनुभवों को जमा करे क्योकि

 जवान क्योकि कम उम्र होता है उसका ज़हन कच्चा और अनुभव से ख़ाली होता है उसने ज़माने के सर्द व गर्म नही देखे होते और ज़िन्दगी की मुश्किलों का सामना नही किया होता। यही कारण है कि किसी समय एक जवान का दिली सुकून तबाह हो जाता है और वह मायूसी या उसके बर ख़िलाफ़ तबीयत की सख़्ती और तेज़ी की शिकार हो जाता है।

 ख़्यालात और वहम जवानी के ज़माने की विशेषताएँ हैं जो कभी तो जवान को वास्तविकता से भी दूर कर देते हैं जबकि अनुभव इंसान के वहम के पर्दों का फाड़ वास्तविक ज़िन्दगी में ले आता है। इमाम (अ) फ़रमाते हैं:

 التجارب علم مستفاد ۲۰

 इँसानी अनुभव एक फ़ायदेमंद ज्ञान होता है।

 बावजूद इसके कि जवान की इल्मी सलाहियत और क़ाबिलियत इसी तरह विभिन्न फ़न और महारतें सीखने की सलाहियत बहुत ज़्यादा होती है लेकिन ज़िन्दगी का अनुभव न होने के कारण बिना सोचे फ़ैसले करता है और यह चीज़ उसको दूसरों के जाल में फाँस देती है। इमाम फ़रमाते हैं:

 من قلت تجرِِ يته خدع۲۱

  जिसके पास अनुभव कम हो वह धोखा खा जाता है। इमाम (अ) फ़रमाते हैं: अनुभवी इंसानों के साथ रहो क्योकि उन्होने अपनी क़ीमती चीज़ अनुभव को अपनी सबसे क़ीमती चीज़ यानी उम्र को दे कर हासिल किया है जबकि तुम इस क़ीमती चीज़ को बहुत कम क़ीमत पर आसानी से हासिल कर सकते हो।22

 अनुभव प्राप्त करने का एक बहुत बड़ ज़रिया पिछली क़ौमों के इतिहास का अध्धयन करना है। इतिहास, भूतकाल और वर्तमान काल के बीच में संबंध स्थापित करता है बल्कि भविष्यकाल के लिये रास्ते के दिये की तरह होता है। इमाम अली (अ) फ़रमाते हैं पिछली सदियों के इतिहास में तुम्हारे लिये बहुत बड़ी बड़ी इबरत पाई जाती है।23

 समाजी रहन सहन और दोस्ती

 इसमें शक नही है कि दोस्ती के बाक़ी रहने के लिये उसकी सीमा और समाजी रहन सहन का ख़्याल रखा जाये। दोस्त बनाना आसान और दोस्ती निभाना मुश्किल है।

 अमीरुलमोमिनीन (अ) इमाम हसन (अ) से फ़रमाते हैं: सबसे कमज़ोर इंसान वह है जो दोस्त न बना सके और उससे भी कमज़ोर वह है जो दोस्त को खो दे।24

 कुछ जवान दोस्ताना संबंधों के बाक़ी न रह पाने या टूट जाने की शिकायत करते हैं। इस सिलसिले में अगर हम इमाम अली (अ) की नसीहतों पर अमल करें तो यह मुश्किल हल हो सकती है।

 इमाम (अ) की हदीस में महत्वपूर्ण नुक्ते

 अ. दोस्ती में संतुलन आवश्यक है:

 जवानी के दिनों में अकसर देखने में आता है कि जवान दोस्ती की सीमा को पार कर जाते हैं और इसकी दलील जवानी के ज़माने के अहसासात हैं। कुछ जवान दोस्ती में हद से ज़्यादा मुहब्बत का इज़हार करते हैं जबकि जुदाई के दिनों में उसके बर ख़िलाफ़ शदीद विरोध और दुश्मनी का मुज़ाहेरा करते हैं यहाँ तक कि कुछ तो ख़तरनाक काम तक कर डालते हैं।

 हज़रत फ़रमाते हैं:अपने दोस्त से हद में रहते हुए दोस्ती और मुहब्बत का इज़हार करो हो सकता है वह किसी दिन तुम्हारा दुश्मन बन जाये और इसी तरह से उस पर नफ़रत और ग़ुस्सा करते समय नर्मी और मुहब्बत का मुज़ाहेरा करो चूँकि मुम्किन है कि वह तुम्हारा दोस्त बन जाये। 25

 इस पत्र में इमाम (अ) फ़रमाते हैं अगर तुम चाहते हो कि अपने भाई से ताअल्लुक़ात ख़त्म कर लो तो कोई एक रास्ता उस के लिये ज़रुर छोड़ दो ताकि अगर किसी दिन वह लौटना चाहे तो लौट सके।

 शेख सादी इस बारे में कहते हैं कि अपने हर राज़ को अपने दोस्त के सामने बयान न करों क्या मालूम कि एक दिन वह तुम्हारा दुश्मन बन जाये और तुम्हे वह नुक़सान पहुचाएँ जो दुश्मन भी नही पहुता सकता जबकि यह भी मुम्किन है कि किसी समय दोबारा तुम से फिर से दोस्ती हो जाये। 26

 ब. जवाब में मुहब्बत का इज़हार

 दोस्ती और मुहब्बत की बुनियाद एक दूसरे से मुहब्बत और दोस्ती के इज़हार पर है। अगर दोनों में से एक तो दोस्ती चाहता हो जबकि दूसरा ऐसा न चाहता हो तो उसका नतीजा बेइज़्ज़ती के अलावा कुछ नही हो सकता।

 इसी लिये अमीरुल मोमिनीन (अ) अपने इस पत्र में इमाम हसन (अ) से फ़रमाते हैं:

 لا ترغبن فِِيمن زهد عنک

 जो तुम से संबंध नही रखना चाहता उससे मुहब्बत का इज़हार न करो।

 स. दोस्ताना संबंधों की सुरक्षा

 इमाम अली (अ) दोस्ताना संबंधों की रक्षा के बारे ज़ोर देते हैं और उसके कारणों को बयान फ़रमाते हैं जो दोस्ती की मज़बूती प्रदान करते हैं। फ़रमाते हैं अगर तुम्हारा दोस्त तुम से दूरी इख़्तियार करे तो तुम्हे चाहिये कि तुम उसे तोहफ़े दो और जब वह दूर हो तो तुम नज़दीक हो जाओ जब वह सख़्ती करे तो तुम नर्मी से काम लो। जब वह ग़लती या पाप करे और बहाना बनाए तो उसकी बात को मान लो।

 कुछ लोग चूँकि बहुत छोटे दिल के होते हैं और अहसान का नतीजे दूसरे को नीचा दिखाना और ख़ुद को अक़्लमंद ख़्याल करते हैं इसलिये आप इसके आगे इरशाद फ़रमाते हैं इन सारे मौक़ों की नज़ाकतों को पहचानो और बहुत अहतियात से काम लो कि जो कुछ कहा गया है उसको केवल उसके सही समय पर अँजाम दो। इसी तरह उस शख़्स के बारे में अँजाम न दो जो अहमियत नही रखता।

 इमाम (अ) इसी तरह एक और नसीहत इरशाद फ़रमाते हैं:

 अपने दोस्त के साथ ख़ुलूस के साथ भलाई करो चाहे यह बात उसको पसंद आये या न आये।

लेखक मुहम्मद सुबहानी

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हवाले:

  1. अख़लाक़ व तालीम व तरबीयत इस्लामी, लेखक ज़ैनुल आबेदीन क़ुरबानी पेज 274
  2. ग़ुररुल हिकम व दुररुल हिकम जिल्द 1 पेज 260
  3. ग़ुररुल हिकम व दुररुल हिकम जिल्द 5 पेज 185
  4. शरहे नहजुल बलाग़ा इब्ने अबिल हदीद जिल्द 20 पेज 335
  5. नहजुल बलाग़ा ख़ुतबा 181
  6. बिहारुल अनवार जिल्द 74 पेज 278
  7. नहजुल बलाग़ा कलिमाते क़िसार 260

पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही वसल्लम ने कहा कि हे अली, जिब्राईल ने मुझे तुम्हारे बारे में एक एसी सूचना दी है जो मेरे नेत्रों के लिए प्रकाश और हृदय के लिए आनंद बन गई है।

उन्होंने मुझसे कहाः हे मुहम्मद, ईश्वर ने कहा है कि मेरी ओर से मुहम्मद को सलाम कहों और उन्हें सूचित करो कि अली, मार्गदर्शन के अगुवा, पथभ्रष्टता के अंधकार का दीपक व विश्वासियों के लिए ईश्वरीय तर्क हैं। और मैंने अपनी महानता की सौगंध खाई है कि मैं उसे नरक की ओर न ले जाऊं जो अली से प्रेम करता हो और उनके व उनके पश्चात उनके उत्तराधिकारियों का आज्ञाकारी हो। आज उसी मार्गदर्शक के लिए हम सब शोकाकुल हैं। वह सर्वोत्तम और अनुदाहरणीय व्यक्तित्व जिसने संसार वासियों को अपनी महानता की ओर आकर्षित कर रखा था।

उस रात भी हज़रत अली अलैहिस्सलाम रोटी तथा खजूर की बोरी, निर्धनों और अनाथों के घरों ले गए। अन्तिम बोरी पहुंचाकर जब वे घर पहुंचे तो ईश्वर की उपासना की तैयारी में लग गए। "यनाबीउल मवद्दत" नामक पुस्तक में अल्लामा कुन्दूज़ी लिखते हैं कि शहादत की पूर्व रात्रि में हज़रत अली अलैहिस्सलाम आकाश की ओर बार-बार देखते और कहते थे कि ईश्वर की सौगंध मैं झूठ नहीं कहता और मुझसे झूठ नहीं बताया गया है। सच यह है कि यह वही रात है जिसका मुझको वचन दिया गया है।

भोर के धुंधलके में अज़ान की आवाज़ नगर के वातावरण में गूंज उठी। हज़रत अली अलैहिस्सलाम धीरे से उठे और मस्जिद की ओर बढ़ने लगे। जब वे मस्जिद में प्रविष्ठ हुए तो देखा कि इब्ने मल्जिम सो रहा है। आपने उसे जगाया और फिर वे मेहराब की ओर गए। वहां पर आपने नमाज़ आरंभ की। अल्लाहो अकबर अर्थात ईश्वर उससे बड़ा है कि उसकी प्रशंसा की जा सके। मस्जिद में उपस्थित लोग नमाज़ की सुव्यवस्थित तथा समान पक्तियों में हज़रत अली अलैहिस्सलाम के पीछे खड़े हो गए। हज़रत अली अलैहिस्सलाम के चेहेर की शान्ति एवं गंभीरता उस दिन उनके मन को चिन्तित कर रही थी।

हज़रत अली अलैहिस्सलाम नमाज़ पढ़ते हुए सज्दे में गए। उनके पीछे खड़े नमाज़ियों ने भी सज्दा किया किंतु हज़रत अली अलैहिस्सलाम के ठीक पीछे खड़े उस पथभ्रष्ट ने ईश्वर के समक्ष सिर नहीं झुकाया जिसके मन में शैतान बसेरा किये हुए था। इब्ने मुल्जिम ने अपने वस्त्रों में छिपी तलावार को अचानक ही निकाला। शैतान उसके मन पर पूरी तरह नियंत्रण पा चुका था। दूसरी ओर अली अपने पालनहार की याद में डूबे हुए उसका गुणगान कर रहे थे। अचानक ही विष में बुझी तलवार ऊपर उठी और पूरी शक्ति से वह हज़रत अली अलैहिस्सलाम के सिर पर पड़ी तथा माथे तक उतर गई। पूरी मस्जिद का वातावरण हज़रत अली के इस वाक्य से गूंज उठा कि फ़ुज़्तो व रब्बिलकाबा अर्थात ईश्वर की सौगंध में सफल हो गया।

आकाश और धरती व्याकुल हो उठे। जिब्राईल की इस पुकार ने ब्रहमाण्ड को हिला दिया कि ईश्वर की सौगंध मार्गदर्शन के स्तंभ ढह गए और ईश्वरीय प्रेम व भय की निशानियां मिट गईं। उस रात अली के शोक में चांदनी रो रही थी, पानी में चन्द्रमा की छाया बेचैन थी, न्याय का लहू की बूंदों से भीग रहा था और मस्जिद का मेहराब आसुओं में डूब गया था।

कुछ ही क्षणों में वार करने वाले को पकड़ लिया गया और उसे इमाम के सामने लाया गया। इमाम अली अलैहिस्सलाम ने जब उसकी भयभीत सूरत देखी तो अपने सुपुत्र इमाम हसन से कहा, उसे अपने खाने-पीने की वस्तुएं दो। यदि मैं संसार से चला गया तो उससे मेरा प्रतिशोध लो अन्यथा मैं बेहतर समझता हूं कि उसके साथ क्या करूं और क्षमा करना मेरे लिए उत्तम है।

हज़रत अली अलैहिस्सलाम के एक अन्य पुत्र मुहम्मद हनफ़िया कहते हैं कि इक्कीस रमज़ान की पूर्व रात्रि में मेरे पिता ने अपने बच्चों और घरवालों से विदा ली और शहादत से कुछ क्षण पूर्व यह कहा, मृत्यु मेरे लिए बिना बुलाया मेहमान या अपरिचित नहीं है। मेरा और मृत्यु की मिसाल उस प्यासे की मिसाल है जो एक लंबे समय के पश्चात पानी तक पहुंचता है या उसकी भांति है जिसे उसकी खोई हुई मूल्यवान वस्तु मिल जाए।

इक्कीस रमज़ान का सवेरा होने से पूर्व अली के प्रकाशमयी जीवन की दीपशिखा बुझ गई। वे अली जो अत्याचारों के विरोध और न्यायप्रेम का प्रतीक थे वे आध्यात्म व उपासना के सुन्दरतम क्षणों में अपने ईश्वर से जा मिले थे। अपने पिता के दफ़न के पश्चात इमाम हसन अलैहिस्सलाम ने दुख भरी वाणी में कहा था कि बीती रात एक एसा महापुरूष इस संसार से चला गया जो पैग़म्बरे इस्लाम की छत्रछाया में धर्मयुद्ध करता रहा और इस्लाम की पताका उठाए रहा। मेरे पिता ने अपने पीछे कोई धन-संपत्त नहीं छोड़ी। परिवार के लिए केवल सात सौ दिरहम बचाए हैं।

सृष्टि की उत्तम रचना होने के कारण मनुष्य, विभिन्न विचारों र मतों में महत्वपूर्ण स्थान रखता है तथा मनुष्य के ज्ञान का एक भाग मनुष्य की पहचान से विशेष है। अधिक्तर मतों में मनुष्य को एक सज्जन व प्रतिष्ठित प्राणी होने के नाते सृष्टि के मंच पर एक महत्वपूर्ण स्थान दिया गया है परन्तु इस संबन्ध में इतिहास में एसे उदाहरण बहुत ही कम मिलते हैं जो प्रतिष्ठा व सम्मान के शिखर तक पहुंचे हो। हज़रत अली अलैहिस्सलाम, इतिहास के एसे ही गिने-चुने अनउदाहरणीय लोगों में सम्मिलित हैं। इतिहास ने उन्हें एक एसे महान व्यक्ति के रूप में विश्व के सामने प्रस्तुत किया जिसने अपने आप को पूर्णतया पहचाना और परिपूर्णता तथा महानता के शिखर तक पहुंचने में सफलता प्राप्त की। हज़रत अली का यह कथन इतिहास के पन्ने पर एक स्वर्णिम समृति के रूप में जगमगा रहा है कि ज्ञानी वह है जो अपने मूल्य को समझे और मनुष्य की अज्ञानता के लिए इतना ही पर्याप्त है कि वह स्वयं अपने ही मूल्य को न पहचाने।

हज़रत अली अलैहिस्सलाम सदा ही कहा करते थे कि मेरी रचना केवल इसलिए नहीं की गई है कि चौपायों की भांति अच्छी खाद्य सामग्री मुझे अपने में व्यस्त कर ले या सांसारिक चमक-दमक की ओर मैं आकर्षित हो जाऊं और उसके जाल में फंस जाऊं। मानव जीवन का मूल्य अमर स्वर्ग के अतिरिक्त नहीं है अतः उसे सस्ते दामों पर न बेचें।

उन्होंने अपने अस्तित्व के विभिन्न आयामों को इस प्रकार से विकसित किया था कि साहस, लोगों के साथ सुव्यवहार, न्याय, पवित्रता व ईश्वरीय भय एवं उपासना की अन्तिम सीमा तक पहुंच गए। हज़रत अली अलैहिस्सलाम अपने जीवन के प्रत्येक चरण में इस बिंदु पर विशेष रूप से बल देते थे कि मनुष्य का आत्मसम्मान उसके अस्तित्व की वह महान विशेषता है जिसको कसी भी स्थिति में ठेस नहीं लगनी चाहिए अतः समाजों की राजनैतिक पद्धतियों एवं राजनेताओं के लिए यह आवश्यक है कि मानव सम्मान के मार्गों को समतल करे। उन्होंने अपने शासनकाल में एसा ही किया और आत्मसम्मान को मिटाने वाली बुराइयों जैसे चापलूसी और चाटुकारिता के विरूद्ध कड़ा संघर्ष किया। इमाम अली अलैहिस्सलाम अपने अधीन राज्यपालों को उपदेश एवं आदेश देते हुए कहते हैं कि अपने पास उपस्थित लोगों को एसा बनाओ कि तुम्हारी प्रशंसा में न लगे रहें और अकारण ही तुम्हें प्रसन्न न करें। एक दिन इमाम के भाषण के दौरान एक व्यक्ति उठा और वह उनकी प्रशंसा करने लगा। इमाम अली अलैहिस्सलाम ने कहा कि मेरी प्रशंसा न करो ताकि मैं लोगों के जो अधिकार पूरे नहीं हुए हैं उन्हें पूरा कर सकूं और जो अनिवार्य कार्य मेरे ज़िम्मे है उन्हें कर सकूं।

हज़रत अली अलैहिस्सलाम लोगों पर विश्वास करने को प्रतिष्ठा करने और मनुष्य के व्यक्तित्व को सम्मान देने का उच्चतम मार्ग समझते थे। उनकी दृष्टि में दरिद्रता से बढ़कर/आत्म-सम्मान को क्षति पहुंचाने वाली कोई चीज़ नहीं होती। वे कहते हैं कि दरिद्रता मनुष्य की सबसे बड़ी मौत है। यही कारण था कि अपने शासनकाल में जब बहुत बड़ा जनकोष उनके हाथ में था तब भी वे अरब की गर्मी में अपने हाथों से खजूर के बाग़ लगाने में व्यस्त रहते और उससे होने वाली आय को दरिद्रों में वितरित कर दिया करते थे ताकि समाज में दरिद्रता और दुख का अंत हो सके।

हज़रत अली अलैहिस्सलाम सदैव ही पैग़म्बरे इस्लाम के साथ रहते थे और अपने मन व आत्मा को "वहिय" अर्थात ईश्वरीय आदेशों के मधुर संगीत से तृप्त करते थे। इसी स्थिति में ईमान अर्थात ईश्चर पर विश्वास और इरफ़ान अर्थात उसकी पहचान उनके अस्तित्व पर इतनी छा गई थी कि शेष सभी विशेषताओं पर पर्दा सा पड़ गया था। पैग़म्बरे इस्लाम (स) कहते थे कि यदि आकाश और धरती, तुला के एक पलड़े में रखे जाएं और अली को ईमान दूसरे पल्ड़े में तो निश्चित रूप से अली का ईमान उनसे बढ़कर होगा।

वे ईश्वर की गहरी पहचान और विशुद्ध मन के साथ ईश्वर की उपसना करते थे क्योंकि उपासनपा केवल कर्तव्य निहाने के लिए नहीं होती बल्क उसके माध्यम से बुद्धि में विकास और शारीरिक शक्तियों में संतुलन होता है। यही कारण है कि जो व्यक्ति पवित्र एवं विशुद्ध भावना के साथ उपासना करता है वह सफल हो जाता है। हज़रत अली अलैहिस्सलाम कहते हैं कि संसार के लोग दो प्रकार के होते हैं। एक गुट अपने आप को भौतिक इच्छाओं के लिए बेच देता है और स्वयं को तबाह कर लेता है तथा दूसर गुट स्वयं को ईश्वर के आज्ञापालन द्वारा ख़रीद लेता है और स्वयं को स्वतंत्र कर लेता है।

अली अलैहिस्सलाम साहस, संघर्ष तथा नेतृत्व का प्रतीक हैं। वे उन ईमानवालों का उदाहरण हैं कि जो क़ुरआन के शब्दों में ईश्वर का इन्कार करने वालों के लिए कड़े व्यवहार वाले और अपनों के लिए स्नेहमयी व दायुल हैं। हज़रत अली अलैहिस्सलाम के अधीनस्थ लोग विशेषकर समाज के अनाथ बच्चे व असहाय लोग उन्हें एक दयालु पिता के रूप में पाते और उनसे अथाह प्रेम करते थे परन्तु ईश्वर का इन्कार करने वालों से युद्ध और अत्याचारग्रस्तों की सुरक्षा करते हुए रक्षा क्षेत्रों में उनके साहस और वीरता के सामने कोई टिक ही नहीं पाता था। ख़ैबर के युद्ध में जिस समय विभिन्न सेनापति ख़ैबर के क़िले का द्वार खोलने में विफल रहे तो अंत में पैग़म्बरे इस्लाम ने घोषणा की कि कल मैं इस्लामी सेना की पताका एसे व्यक्ति को दूंगा जिससे ईश्वर और उसका पैग़म्बर प्रेम करते हैं। दूसरे दिन लोगों ने यह देखा कि सेना की पताका हज़रत अली अलैहिस्सलाम को दी गयी और उन्होंने ख़ैबर के अजेय माने जाने वाले क़िले पर उन्होंने वियज प्राप्त कर ली।

हज़रत अली अलैहिस्सलाम बड़ी ही कोमल प्रवृत्ति के स्वामी थे। उनकी यह विशेषता उनके कथन और व्यवहार दोनों में देखने को मिलती है। इस्लाम के आरम्भिक काल के एक युद्ध में अम्र बिन अब्दवुद नामक अनेकेश्वरवादियों का एक योद्धा, अपनी पूरी शक्ति के साथ हज़रत अली अलैहिस्सलाम के मुक़ाबले में आ गया। हज़रत अली अलैहिस्सलाम ने उसे पछाड़ दिया। यह देखकर वे उसकी छाती पर से उठ गए, कुछ दूर चले और फिर पलटकर उसकी हत्या कर दी।

वास्तव में हज़रत अली अलैहिस्सलाम साहस और निर्भीक्ता का प्रतीक होने के साथ ही साथ नैतिकता और शिष्टाचार का एक परिपूर्ण उदाहरण भी थे। वे ईश्वरीय कर्तव्य निभाते समय केवल ईश्वर को ही दृष्टि में रखते थे। यही कारण था कि अम्र बिन अब्दवुद की अपमान जनक कार्यवाही के पश्चात उन्होंने अपने क्रोध को पहले शांत किया फिर कर्तव्य निभाया ताकि उसकी हत्या अपनी व्यक्तिगत भावना के कारण न करें।

हज़रत अली अलैहिस्सलाम ने अद्धितीय जनतांत्रिक सरकार की स्थापना की। उनके शासन का आधार न्याय था। समाज में असत्य पर आधारित या किसी अनुचति कार्य को वे कभी भी सहन नहीं करते थे। उनके समाज में जनता की भूमिका ही मुख्य होती थी और वे कभी भी धनवानों और शक्तिशालियों पर जनहित को प्राथमिक्ता नहीं देते थे। जिस समय उनके भाई अक़ील ने जनक्रोष से अपने भाग से कुछ अधिक धन लेना चाहा तो हज़रत अली अलैहिस्सलाम ने उन्हें रोक दिया। उन्होंने पास रखे दीपक की लौ अपने भाई के हाथों के निकट लाकर उन्हें नरक की आग के प्रति सचेत किया। वे न्याय बरतने को इतना आवश्यक मानते थे कि अपने शासन के एक कर्मचारी से उन्होंने कहा था कि लोगों के बीच बैठो तो यहां तक कि लोगों पर दृष्टि डालने और संकेत करने और सलाम करने में भी समान व्यवहार करो। यह न हो कि शक्तिशाली लोगों के मन में अत्याचार का रूझान उत्पन्न होने लगे और निर्बल लोग उनके मुक़ाबिले में न्याय प्राप्ति की ओर से निराश हो जाएं।

 

वह काबे में पैदा हुए थे और सुबह की नमाज़ कूफा की मस्जिद में पढ़ा रहे थे कि इब्ने मुल्जिम नाम के दुष्ट व क्रूर व्यक्ति ने हज़रत अली अलैहिस्सलाम के पावन सिर पर विषैली तलवार से प्राणघातक हमला किया जिसके कारण वे 21 रमज़ान को शहीद हो गये। हज़रत अली अलैहिस्सलाम 63 वर्षों तक जीवित रहे। इस दौरान उन्होंने हर कार्य केवल महान ईश्वर की प्रसन्नता के लिए किया। उनके जीवन में जब कोई ऐसा अवसर आया कि उन्हें महान ईश्वर की प्रसन्नता और किसी अन्य कार्य के बीच चुनना पड़ा तो उन्होंने महान ईश्वर की प्रसन्नता को चुना।

पवित्र रमज़ान महीने की 19वीं की रात को हज़रत अली अलैहिस्सलाम को पैग़म्बरे इस्लाम का वह कथन याद आया जिसमें उन्होंने हज़रत अली अलैहिस्सलाम से फरमाया था कि मैं देख रहा हूं कि पवित्र रमज़ान महीने की एक रात को तुम्हारी दाढ़ी तुम्हारे ख़ून से रंगीन होगी।"

हज़रत अली अलैहिस्सलाम पवित्र रमज़ान महीने की 19वीं रात को अपनी एक बेटी हज़रत उम्मे कुलसूम के घर पर आमंत्रित थे। हज़रत अली अलैहिस्सलाम ने अपनी दाढ़ी अपने हाथ में ली और कुछ कहा हे पालनहार! तेरे प्रिय दूत पैग़म्बर के वादे का समय निकट है। हे पालनहार! मौत को अली पर मुबारक कर।" जब हज़रत अली अलैहिस्सलाम दरवाज़े की ओर बढ़े तो उनकी शाल दरवाज़े से लगकर खुल गयी। इसके बाद उन्होंने शाल को मज़बूती से पटके से बांध दिया और स्वयं से कहा अली! अपने पटके को मौत के लिए मज़बूती से बांध लो।"

जब क्रूर व दुष्ट व्यक्ति इब्ने मुल्जिम ने हज़रत अली अलैहिस्सलाम के पावन सिर पर प्राणघातक आक्रमण किया और उसकी तलवार हज़रत अली अलैहिस्सलाम के सिर पर लगी तो उन्होंने ऊंची आवाज़ में चिल्लाकर कहा काबे की क़सम मैं कामयाब हो गया। उसके बाद जहां तलवार लगी थी वहां हज़रत अली अलैहिस्सलाम मेहराब की मिट्टी डालते और पवित्र कुरआन के सूरे ताहा की 55वीं आयत की तिलावत करते थे जिसमें महान ईश्वर कहता है” मैंने तुम्हें मिट्टी से पैदा किया है और मिट्टी की ओर ही पलटायेंगे और फिर मिट्टी से बाहर निकालेंगे।" उसी समय हज़रत अली अलैहिस्सलाम का ध्यान इस ओर गया कि उन पर हमला करने वाले को लोगों ने पकड़ लिया है और उसे मार रहे हैं तो हज़रत अली अलैहिस्सलाम ने चिल्लाकर कहा उसे न मारो उसने मुझे मारा है उसका पक्ष मैं हूं। उसे छोड़ दो! उस समय भी हज़रत अली अलैहिस्सलाम को अपने सिर की चिंता नहीं थी जब उनका सिर खून से लथ-पथ था। जब उन्हें घर लाया गया तो उन्होंने वसीयत की जो पूरे मानव इतिहास के लिए पाठ है।

हज़रत अली अलैहिस्सलाम के आह्वान पर बनी हाशिम की समस्त संतानें और हस्तियां उनके बिस्तर के पास जमा हो गयीं। जो भी हज़रत अली अलैहिस्सलाम के कमरे में दाखिल होता था वह अनियंत्रित होकर रोने लगता था परंतु हज़रत अली अलैहिस्सलाम सबको तसल्ली देते और धैर्य बधाते और फरमाते थे" धैर्य करो, दुःखी न हो, व्याकुल न हो। अगर तुम लोग यह जान जाओ कि मैं क्या सोच रहा हूं और क्या देख रहा हूं तो कदापि दुःखी नहीं होगे। जान लो कि मेरी पूरी आकांक्षा व कामना यह है कि जल्द से जल्द अपने स्वामी पैग़म्बर से मिल जाऊं। मैं चाहता हूं कि जल्द से जल्द अपनी कृपालु व त्यागी पत्नी ज़हरा से मुलाक़ात करूं।

हज़रत अली अलैहिस्सलाम का सिर खून से लत-पथ था, पूरा शरीर ज्वर से जल रहा था। उस हालत में उन्होंने अपने बड़े सुपुत्र इमाम हसन अलैहिस्सलाम को बुलाया और फरमाया मेरे बेटे हसन! आगे आओ। इमाम हसन अलैहिस्सलाम आगे आये और अपने पिता हज़रत अली अलैहिस्सलाम के पास बैठ गये। हज़रत अली अलैहिस्सलाम ने आदेश दिया कि मेरे बक्से को लाया जाये। बक्सा लाया गया। हज़रत अली अलैहिस्सलाम ने बक्से को सबके सामने खोला। उसमें ज़ूल फेकार तलवार, पैग़म्बरे इस्लाम की पगड़ी और रिदा नाम का विशेष परिधान, एक पुस्तिका और एक पवित्र कुरआन जिसे स्वयं हज़रत अली अलैहिस्सलाम ने एकत्रित किया था। एक- एक करके सबको इमाम हसन अलैहिस्सलाम के हवाले किया और उपस्थित लोगों को गवाही के लिए बुलाया और फरमाया" तुम सब गवाह रहना कि मेरे बाद हसन पैग़म्बरे इस्लाम के नाती मार्गदर्शक हैं। उसके बाद थोड़ा ठहरे और उसके पश्चात दोबारा इमाम हसन अलैहिस्सलाम को संबोधित किया और कहा मेरे बेटे! तू मेरे बाद इमाम होगा। अगर तू चाहना तो मेरे हत्यारे को माफ़ कर देना। इसे तुम खुद समझना और अगर तुम उसे दंडित करना चाहो तो इस बात का ध्यान रखना कि उसने मुझ पर एक ही वार किया था इसलिए तुम उस पर एक ही वार करना और प्रतिशोध को ईश्वरीय सीमा से हटकर नहीं होना चाहिये। उसके बाद हज़रत अली अलैहिस्सलाम ने इमाम हसन अलैहिस्लाम से फरमाया बेटे! कलम और कागज़ लाओ और सबके सामने जो बोल रहा हूं उसे लिखो। इसके बाद इमाम हसन अलैहिस्सलाम कागज़ कलम लाये और बाप की वसीयत को लिखने के लिए तैयार हुए तो हज़रत अली अलैहिस्सलाम ने इस प्रकार फरमाया उस ईश्वर के नाम से जो बहुत कृपालु व दयालु है यह वही चीज़ है जिसकी अली वसीयत करते हैं। उनकी पहली वसीयत यह है कि वह गवाही दे रहे हैं कि ईश्वर के अतिरिक्त दूसरा कोई पूज्य नहीं है। वह ईश्वर जिसका कोई समतुल्य नहीं है और यह भी गवाही दे रहा हूं कि मोहम्मद उसके बंदे व दूत हैं। ईश्वर ने उन्हें लोगों के मार्गदर्शन के लिए भेजा ताकि उनका धर्म दूसरे धर्मों पर छा जाये यद्यपि यह बात काफिरों को नापसंद ही क्यों न हो। उसके बाद हज़रत अली अलैहिस्सलाम कहत हैं बेशक नमाज़, उपासना, जिन्दगी और मेरी मौत सब ईश्वर के हाथ में और उसी के लिए है। उसका कोई समतुल्य नहीं, मुझे इस कार्य का आदेश दिया गया है और मैं ईश्वर के समक्ष नतमस्तक हूं।“

हज़रत अली अलैहिस्सलाम ने महान ईश्वर और पैग़म्बरे इस्लाम की गवाही देने के बाद समस्त अहलेबैत और उन समस्त लोगों को तकवे अर्थात ईश्वरीय भय, काम में कानून व नियम और एक दूसरे के साथ शांति व दोस्ती से रहने की सिफारिश की जिन लोगों तक यह वसीयत पहुंचे। हज़रत अली अलैहिस्सलाम आगे अपनी वसीयत में कहते हैं” मैंने पैग़म्बरे इस्लाम से सुना है कि उन्होंने फरमाया है”  लोगों के बीच सुधार करना कई साल के नमाज़ और रोज़े से बेहतर है।“

इसके बाद हज़रत अली अलैहिस्सलाम फरमाते हैं कि सामाजिक कार्यों में समस्त इंसानों को कानून के प्रति कटिबद्ध होना चाहिये। क्योंकि किसी समाज की सफलता की पहली शर्त सामाजिक नियमों के प्रति कटिबद्धता है। हज़रत अली अलैहिस्सलाम इसी प्रकार लोगों के बीच शांति व दोस्ती पर बल देते हैं और उसे इस्लामी समाज के लिए ज़रूरी मानते हैं। क्योंकि हज़रत अली अलैहिस्सलाम की दृष्टि में पवित्र कुरआन और पैग़म्बरे इस्लाम की परम्परा समस्त मतभेदों के साथ सभी मुसलमानों के लिए शरण स्थली है जहां वे शरण लेते हैं और समस्त कबायल और गुट एक दूसरे के साथ एकत्रित होते हैं। अतः हज़रत अली अलैहिस्सलाम अपने जीवन के अंतिम क्षणों में एकता और लोगों के मध्य दोस्ती के लिए प्रयास को नमाज़ और रोज़ा से बेहतर बताते हैं।

इंसानों के जीवन में बहुत सी कमियां होती हैं जिनकी भरपाई लोगों के मध्य दोस्ती व प्रेम से की जा सकती है। इस मध्य अनाथ बच्चे सबसे अधिक प्रेम की आवश्यकता का आभास करते हैं। ये बच्चे मां या बाप की मृत्यु के कारण प्रेम के स्रोत से दूर हो गये हैं और वे हर चीज़ से अधिक प्रेम की आवश्यकता का आभास करते हैं। यह बात इतनी महत्वपूर्ण है कि महान व सर्वसमर्थ ईश्वर इसका उल्लेख पवित्र कुरआन के सूरे निसा की 36वीं आयत में माता- पिता के साथ भलाई के बाद करता है। महान ईश्वर कहता है” माता- पिता, परिजनों, अनाथों और मिसकिनों व बेसहारा लोगों के साथ अच्छाई करो।“

हज़रत अली अलैहिस्सलाम अनाथ बच्चों से बहुत प्रेम करते थे इसी कारण उन्हें अनाथों के पिता की उपाधि दी गयी है और वे अपनी वसीयत में अनाथों पर ध्यान देने पर बहुत बल देते हुए कहते हैं” ईश्वर के लिए ईश्वर के लिए एसा न होने पाये कि उनका कभी पेट भरे और कभी वे भूखे रहें।“

इसी प्रकार हज़रत अली अलैहिस्सलाम ने अपनी वसीयत में एक अच्छे परिवार और समस्त इंसानों के मार्गदर्शक के रूप में पवित्र कुरआन पर ध्यान देने और उसकी शिक्षाओं पर अमल करने की सिफारिश की है। इसी प्रकार हज़रत अली अलैहिस्सलाम नमाज़ को धर्म का स्तंभ बताते हुए उसकी भी बहुत सिफारिश करते हैं। वह काबे में उपस्थित होने और हज अंजाम देने पर भी बहुत बल देते हैं। हज़रत अली अलैहिस्सलाम फरमाते हैं” ईश्वर के लिए ईश्वर के लिए कुरआन के प्रति होशियार रहो कि दूसरे उस पर अमल करने में तुमसे आगे न निकल जायें। ईश्वर के लिए ईश्वर के लिए कि नमाज़ तुम्हारे धर्म का स्तंभ है और अपने पालनहार के घर के अधिकार का ध्यान रखो और जब तक हो उसे खाली न छोड़ो और अगर उसका सम्मान बाकी नहीं रखे तो तुम पर ईश्वरीय मुसीबतें नाज़िल होंगी।

हज़रत अली अलैहिस्सलाम अपने जीवन की अंतिम वसीयत में महान ईश्वर की राह में जान व माल से जेहाद करने की सिफारिश करते हैं और इसी प्रकार वे मोमिनों का अच्छे कार्यों को अंजाम देने और बुरे कार्यों से दूरी और आपस में दोस्ती, एकता व संबंध रखने का आह्वान करते हैं। हज़रत अली अलैहिस्सलाम ने वसीयत कर लेने के बाद एक- एक पर दोबारा नज़र डाली और फरमाया ईश्वर तुम सबका और तुम्हारे परिवार की रक्षा करे और तुम्हारे पैग़म्बर का जो अधिकार तुम पर उसकी रक्षा करो अब मैं तुमसे विदा ले रहा हूं। तुम्हें ईश्वर के हवाले कर रहा हूं। तुम सब पर ईश्वर का सलाम और उसकी दया हो। उस समय हज़रत अली अलैहिस्सलाम के माथे पर पसीना आने लगा। अपने नेत्रों को बंद कर लिया और धीरे से कहा मैं गवाही देता हूं कि ईश्वर के अलावा कोई पूज्य नहीं उसका कोई समतुल्य नहीं और मैं गवाही देता हूं कि मोहम्मद उसके बंदे और उसके दूत हैं।“ इसके बाद हज़रत अली अलैहिस्सलाम इस नश्वर संसार से परलोक सिधार गये।

 

 

हज़रत अली अलैहिस्सलाम पैग़म्बरे इस्लाम (स) के पहले उत्तराधिकारी हैं। पैग़म्बरे इस्लाम (स) की प्राणप्रिय सुपुत्री हज़रत फ़ातिमा ज़हरा (स.अ) आपकी धर्मपत्नी और इमाम हसन और इमाम हुसैन अलैहिमस्सलाम आप के बेटे हैं।

हज़रत अली अलैहिस्सलाम पवित्र रमज़ान महीने की 19 तारीख़ को मस्जिदे कूफ़ा में सुबह की नमाज़ पढ़ा रहे थे कि उसी हालत में धर्मभ्रष्ट अब्दुल रहमान इब्ने मुल्जिम मलऊन ने ज़हर में बुझाई तलवार से आपके सिर पर प्राणघातक हमला किया था और उस हमले में हज़रत अली अलैहिस्सलाम बुरी तरह घायल हो गये थे और ज़हर पूरे शरीर में फैल गया था यहां तक कि 21 रमज़ान (सन 40 हिजरी) की सुबह हज़रत अली अलैहिस्सलाम शहीद हो गये और समस्त इस्लामी दुनिया शोकाकुल हो गई।

पैग़म्बरे इस्लाम (स) ने फ़रमाया कि ऐ अली! जिब्रईल ने मुझे तुम्हारे बारे में एक ऐसी ख़बर दी है जो मेरे आंखों के लिए नूर और दिल के लिए ख़ूशी बन गई है, उन्होंने मुझसे कहाः ऐ मुहम्मद! (स) अल्लाह ने कहा है कि मेरी ओर से मेरे हबीब (स) को सलाम कहों और उन्हें सूचित करो कि अली, मार्गदर्शन के अगुवा, पथभ्रष्टता के अंधकार का दीपक व विश्वासियों के लिए ख़ुदाई तर्क हैं और मैंने अपनी महानता की सौगंध खाई है कि मैं उसे नरक की ओर न ले जाऊं जो अली से मुहब्बत करता हो और उनके व उनके पश्चात उनके उत्तराधिकारियों (इमामों) का आज्ञाकारी हो। आज उसी मार्गदर्शक के लिए हम सब शोकाकुल हैं। वह सर्वोत्तम और अनुदाहरणीय व्यक्तित्व जिसने संसार वासियों को अपनी महानता की ओर आकर्षित कर रखा था।

उस रात भी हज़रत अली अलैहिस्सलाम रोटी तथा खजूर की बोरी, निर्धनों और अनाथों के घरों ले गए। अन्तिम बोरी पहुंचाकर जब वे घर पहुंचे तो ख़ुदा की इबादत की तैयारी में लग गए। "यनाबीउल मवद्दत" नामक पुस्तक में अल्लामा कुन्दूज़ी लिखते हैं कि शहादत की पूर्व रात्रि में हज़रत अली अलैहिस्सलाम आसमान की ओर बार-बार देखते और कहते थे कि ख़ुदा की सौगंध मैं झूठ नहीं कहता और मुझसे झूठ नहीं बताया गया है। सच यह है कि यह वही रात है जिसका मुझ को वचन दिया गया है।

भोर के धुंधलके में अज़ान की आवाज़ नगर के वातावरण में गूंज उठी। हज़रत अली अलैहिस्सलाम धीरे से उठे और मस्जिद की ओर बढ़ने लगे। जब वे मस्जिद में दाख़िल हुए तो देखा कि इब्ने मुलजिम सो रहा है। आपने उसे जगाया और फिर वे मेहराब की ओर गए।

वहां पर आपने नमाज़ पढ़ना शुरू की। मस्जिद में उपस्थित लोग नमाज़ की सुव्यवस्थित तथा समान पक्तियों में हज़रत अली अलैहिस्सलाम के पीछे खड़े हो गए। हज़रत अली अलैहिस्सलाम के चेहेर की शान्ति एवं गंभीरता उस दिन उनके मन को चिन्तित कर रही थी। हज़रत अली अलैहिस्सलाम नमाज़ पढ़ते हुए सज्दे में गए।

उनके पीछे खड़े नमाज़ियों ने भी सजदा किया किंतु हज़रत अली अलैहिस्सलाम के ठीक पीछे खड़े उस पथभ्रष्ट ने ख़ुदा के समक्ष सिर नहीं झुकाया जिसके मन में शैतान बसेरा किये हुए था। इब्ने मुल्जिम ने अपने वस्त्रों में छिपी तलवार को अचानक ही निकाला। शैतान उसके मन पर पूरी तरह नियंत्रण पा चुका था।

दूसरी ओर हज़रत अली अलैहिस्सलाम अपने पालनहार की याद में डूबे हुए उसका गुणगान कर रहे थे। अचानक ही विष में बुझी तलवार ऊपर उठी और पूरी शक्ति से वह हज़रत अली अलैहिस्सलाम के सिर पर पड़ी तथा माथे तक उतर गई। पूरी मस्जिद का वातावरण हज़रत अली अलैहिस्सलाम के इस वाक्य से गूंज उठा कि "फ़ुज़्तो बे रब्बिल काबा" अर्थात ख़ुदा की सौगंध मैं सफ़ल हो गया।

आकाश और धरती व्याकुल हो उठे। जिब्रईल की इस पुकार ने ब्रह्माण्ड को हिला दिया कि ख़ुदा की सौगंध मार्गदर्शन के स्तंभ ढह गए और ख़ुदाई प्रेम व भय की निशानियां मिट गईं। उस रात हज़रत अली अलैहिस्सलाम के शोक में चांदनी रो रही थी, पानी में चन्द्रमा की छाया बेचैन थी, न्याय का लहू की बूंदों से भीग रहा था और मस्जिद का मेहराब आसुओं में डूब गया था।

कुछ ही क्षणों में वार करने वाले को पकड़ लिया गया और उसे इमाम के सामने लाया गया। इमाम अली अलैहिस्सलाम ने जब उसकी भयभीत सूरत देखी तो अपने सुपुत्र इमाम हसन अलैहिस्सलाम से कहा! उसे अपने खाने-पीने का सामान दो। यदि मैं दुनिया से चला गया तो उससे मेरा प्रतिशोध लो अन्यथा मैं बेहतर समझता हूं कि उसके साथ क्या करूं और क्षमा करना मेरे लिए उत्तम है।

हज़रत अली अलैहिस्सलाम के एक अन्य पुत्र मुहम्मद हनफ़िया कहते हैं कि इक्कीस रमज़ान की पूर्व रात्रि में मेरे पिता ने अपने बच्चों और घरवालों से विदा ली और शहादत से कुछ क्षण पूर्व यह कहा: मृत्यु मेरे लिए बिना बुलाया मेहमान या अपरिचित नहीं है। मेरी और मृत्यु की मिसाल उस प्यासे की मिसाल है जो एक लंबे समय के पश्चात पानी तक पहुंचता है या उसकी भांति है जिसे उसकी खोई हुई मूल्यवान वस्तु मिल जाए।

इक्कीस रमज़ान का सवेरा होने से पूर्व हज़रत अली अलैहिस्सलाम के प्रकाशमयी जीवन की दीपशिखा बुझ गई। वे अली जो अत्याचारों के विरोध और न्यायप्रेम का प्रतीक थे वे आध्यात्म व उपासना के सुन्दरतम क्षणों में अपने अल्लाह से जा मिले थे।

अपने पिता के दफ़न के पश्चात इमाम हसन अलैहिस्सलाम ने दुख भरी आवाज़ में कहा था कि बीती रात एक ऐसा महापुरूष इस संसार से चला गया जो पैग़म्बरे इस्लाम (स) की छत्रछाया में जिहाद (धर्मयुद्ध) करता रहा और इस्लाम का अलम (पताका) उठाए रहा। मेरे पिता ने अपने पीछे कोई धन-संपत्त नहीं छोड़ी। परिवार के लिए केवल सात सौ दिरहम बचाए हैं।

सृष्टि की उत्तम रचना होने के कारण मनुष्य, विभिन्न विचारों और मतों में महत्वपूर्ण स्थान रखता है तथा मनुष्य के ज्ञान का एक भाग मनुष्य की पहचान से विशेष है। अधिकतर मतों में मनुष्य को एक सज्जन व प्रतिष्ठित प्राणी होने के नाते सृष्टि के मंच पर एक महत्वपूर्ण स्थान दिया गया है परन्तु इस संबन्ध में इतिहास में ऐसे उदाहरण बहुत ही कम मिलते हैं जो प्रतिष्ठा व सम्मान के शिखर तक पहुंचे हो।

हज़रत अली अलैहिस्सलाम इतिहास के ऐसे ही गिने-चुने अनउदाहरणीय लोगों में सम्मिलित हैं। इतिहास ने उन्हें एक ऐसे महान व्यक्ति के रूप में विश्व के सामने प्रस्तुत किया जिसने अपने आप को पूर्णतया पहचाना और परिपूर्णता तथा महानता के शिखर तक पहुंचने में सफ़लता प्राप्त की।

हज़रत अली अलैहिस्सलाम का यह कथन इतिहास के पन्ने पर एक स्वर्णिम समृति के रूप में जगमगा रहा है कि ज्ञानी वह है जो अपने मूल्य को समझे और मनुष्य की अज्ञानता के लिए इतना ही पर्याप्त है कि वह स्वयं अपने ही मूल्य को न पहचाने।

 

पवित्र रमज़ान के अन्तिम दस दिन, रोज़ा रखने वालों के लिए विशेष रूप से आनंदाई होते हैं।

इन दस रातों में पड़ने वाली शबेक़द्र या बरकत वाली रातों को छोटे-बड़े, बूढ़े-जवान, पुरूष-महिला, धनवान व निर्धन, ज्ञानी व अज्ञानी सबके सब निष्ठा के साथ रात भर ईश्वर की उपासना करते हैं।  इन रातों अर्थात शबेक़द्र में लोगों के बीच उपासना के लिए विशेष प्रकार का उत्साह पाया जाता है।  लोग पूरी रात उपासना में गुज़ारते हैं।

शबेक़द्र को इसलिए शबेक़द्र कहा जाता है क्योंकि पवित्र क़ुरआन के अनुसार इसी रात मनुष्य के पूरे वर्ष का लेखाजोखा निर्धारित किया जाता है।  यह ऐसी रात है जो हज़ार महीनों से भी अधिक महत्वपूर्ण है।  यह रात उन लोगों के लिए सुनहरा अवसर है जिनके हृदय पापों से मुर्दा हो चुके हैं।  यह बहुत ही बरकत वाली रात है।  इस रात में उपासना करके मनुष्य जहां अपने पापों का प्रायश्चित कर सकता है वहीं पर आने वाले साल में अपने लिए सौभाग्य को निर्धारित कर सकता है।

पवित्र क़ुरआन के सूरेए क़द्र में ईश्वर कहता है कि हमने क़ुरआन को शबेक़द्र में नाज़िल किया और तुमको क्या मालूम के शबेक़द्र क्या है? शबेक़द्र हज़ार महीनों से बेहतर है।  इस रात फ़रिश्ते और रूह, सालभर की हर बात का आदेश लेकर अपने पालनहार के आदेश से उतरते हैं।  यह रात सुबह होने तक सलामती है।  सूरए क़द्र में बताया गया है कि क़ुरआन क़द्र की रात में नाज़िल किया गया जो रमज़ान के महीने में पड़ती है। इस रात को हज़ार महीनों से बेहतर कहा गया है। क़ुरआन की आयतों से यह पता चलता है कि क़ुरआन को दो रूपों में नाज़िल किया गया है एक तो एक बार में और दूसरे चरणबद्ध रूप से। पहले चरण में क़ुरआन एक ही बार में पैग़म्बरे इस्लाम (स) पर उतरा।  यह क़द्र की रात थी जिसे शबेक़द्र कहा जाता है। बाद के चरण में क़ुरआन के शब्द पूरे विस्तार के साथ धीरे-धीरे अलग-अलग अवसरों पर उतरे जिसमें 23 वर्षों का समय लगा। 

क़द्र की रात में क़ुरआन का उतरना भी इस बात का प्रमाण है कि यह महान ईश्वरीय ग्रंथ निर्णायक ग्रंथ है। क़ुरआन, मार्गदर्शन के लिए ईश्वर का बहुत बड़ा चमत्कार तथा सौभाग्यपूर्ण जीवन के लिए सर्वोत्तम उपहार है।  इस पुस्तक में वह ज्ञान पाया जाता है कि यदि दुनिया उस पर अमल करे तो संसार, उत्थान और महानता के चरम बिंदु पर पहुंच जाएगा।

सूरए क़द्र में उस रात को, जिसमें क़ुरआन उतारा गया, क़द्र की रात अर्थात अति महत्वपूर्ण रात कहा गया है।  क़द्र से तात्पर्य है मात्रा और चीज़ों का निर्धारण।  इस रात में पूरे साल की घटनाओं और परिवर्तनों का निर्धारण किया जाता है।  सौभाग्य, दुर्भाग्य और अन्य चीज़ों की मात्रा इसी रात में तय की जाती है। इस रात की महानता को इससे समझा जा सकता है कि क़ुरआन ने इसे हज़ार महीनों से बेहतर बताया है। रिवायत में है कि क़द्र की रात में की जाने वाली उपासना हज़ार महीने की उपासनाओं से बेहतर है। सूरए क़द्र की आयतें जहां इंसान को इस रात में उपासना और ईश्वर से प्रार्थना की निमंत्रण देती हैं वहीं इस रात में ईश्वर की विशेष कृपा का भी उल्लेख करती हैं और बताती हैं कि किस तरह इंसानों को यह अवसर दिया गया है कि वह इस रात में उपासना करके हज़ार महीने  की उपासना का सवाब प्राप्त कर लें। पैग़म्बरे इस्लाम का कथन है कि ईश्वर ने मेरी क़ौम को क़द्र की रात प्रदान की है जो इससे पहले के पैग़म्बरों की क़ौमों को नहीं मिली है।

रिवायत में है कि क़द्र की रात में आकाश के दरवाज़े खुल जाते हैं, धरती और आकाश के बीच संपर्क बन जाता है। इस रात फ़रिश्ते ज़मीन पर उतरते हैं और ज़मीन प्रकाशमय हो जाती है।  वे मोमिन बंदों को सलाम करते हैं। इस रात इंसान के हृदय के भीतर जितनी तत्परता होगी वह इस रात की महानता को उतना अधिक समझ सकेगा।  क़ुरआन के अनुसार इस रात सुबह तक ईश्वरीय कृपा और दया की वर्षा होती रहती है। इस रात ईश्वर की कृपा की छाया में वह सभी लोग होते हैं जो जागकर इबादत करते हैं।

शबेक़द्र की एक विशेषता, आसमान से फ़रिश्तों का उस काल के इमाम पर उतरना है।  इस्लामी कथनों के अनुसार शबेक़द्र केवल पैग़म्बरे इस्लाम (स) के काल से विशेष नहीं है बल्कि यह प्रतिवर्ष आती है।  इसी रात फरिश्ते अपने काल के इमाम के पास आते हैं और ईश्वर ने जो आदेश दिया है उसे वे उनको बताते हैं।

पैग़म्बरे इस्लाम (स) का कथन है कि रमज़ान का महीना, ईश्वर का महीना है।  यह ऐसा महीना है जिसमें ईश्वर भलाइयों को बढ़ाता है और पापों को क्षमा करता है।  यह सब रमज़ान के कारण है।  इमाम जाफ़र सादिक अलैहिस्सलाम कहते हैं कि लोगों के कर्मों के हिसाब का आरंभ शबेक़द्र से होता है क्योंकि उसी रात अगले वर्ष का भाग्य निर्धारित किया जाता है।

शबेक़द्र के इसी महत्व के कारण इसका हर पल महत्व का स्वामी है।  इस रात जागकर उपासना करने का विशेष महत्व है।  इस रात की अनेदखी करना अनुचित है।  इस रात को सोते रहना उसे अनदेखा करने के अर्थ में है अतः एसा करने से बचना चाहिए।  शबेक़द्र के महत्व को इस बात से समझा जा सकता है कि पैग़म्बरे इस्लाम (स) इस रात अपने घरवालों को जगाए रखते थे।  जो लोग नींद में होते उनके चेहरे पर पानी की छींटे मारते थे।  वे कहते थे कि जो भी इस रात को जागकर गुज़ारे, अगले साल तक उससे ईश्वरीय प्रकोप को दूर कर दिया जाएगा और उसके पिछले पापों को माफ किया जाएगा।  पैग़म्बरे इस्लाम की सुपुत्री हज़रत फ़ातेमा ज़हरा शबेक़द्र में अपने घर के किसी भी सदस्य को सोने नहीं देती थीं।  इस रात वे घर के सदस्यों को खाना बहुत हल्का देती थीं और स्वयं एक दिन पहले से शबेक़द्र के आगमन की तैयारी करती थीं।  वे कहती थीं कि वास्वत में दुर्भागी है वह व्यक्ति जो विभूतियों से भरी इस रात से वंचित रह जाए।

शबेक़द्र को शबे एहया भी कहा जाता है जिसका अर्थ होता है जीवित करना।  इस रात को शबे एहया इसलिए कहा जाता है ताकि रात में ईश्वर की याद में डूबकर अपने हृदय को पवित्र एवं जीवित किया जा सके।  हृदय को जीवित करने का अर्थ है बुरे कामों से दूरी।  मरे हुए हृदय का अर्थ है सच्चाई को न सुनना, बुरी बातों को देखते हुए खामोश रहना।  झूठ और सच को एक जैसा समझना और अपने लिए मार्गदर्शन के रास्तों को बंद कर लेना।  इस प्रकार के हृदय के स्वामी को क़ुरआन, मुर्दा बताता है।  ईश्वर के अनुसार ऐसा इन्सान चलती-फिरती लाश के समान है।  जिस व्यक्ति का मन मर जाए वह पशुओं की भांति है।  उसमें और पशु में कोई अंतर नहीं है।  पापों की अधिकता के कारण पापियों के हृदय मर जाते हैं और वे जानवरों की भांति हो जाते हैं।

अपने बंदों पर ईश्वर की अनुकंपाओं में से एक अनुकंपा यह है कि उसने मरे हुए दिलों को ज़िंदा करने के लिए कुछ उपाय बताए हैं।  इस्लामी शिक्षाओं में बताया गया है कि ईश्वर पर भरोसा, प्रायश्चित, उपासना और प्रार्थना, दान-दक्षिणा और भले काम करके मनुष्य अपने मरे हुए हृदय को जीवित कर सकता है।  ईश्वर ने शबेक़द्र को इसीलिए बनाया है कि मनुष्य इस रात पूरी निष्ठा के साथ उपासना करके अपने मन को स्वच्छ और शुद्ध कर सकता है।  यही कारण है कि शबेक़द्र की पवित्र रात के प्रति किसी भी प्रकार की निश्चेतना को बहुत बड़ा घाटा बताया गया है।  इसीलिए महापुरूष इस रात के एक-एक क्षण का सदुपयोग करते हुए सुबह तक ईश्वर की उपासना में लीन रहा करते थे।

 

 

सोमवार, 01 अप्रैल 2024 17:40

ईश्वरीय आतिथ्य- 21

हज़रत अली अलैहिस्सलाम की शहादत निकट है।

वह काबे में पैदा हुए थे और सुबह की नमाज़ कूफा की मस्जिद में पढ़ा रहे थे कि इब्ने मुल्जिम नाम के दुष्ट व क्रूर व्यक्ति ने हज़रत अली अलैहिस्सलाम के पावन सिर पर विषैली तलवार से प्राणघातक हमला किया जिसके कारण वे 21 रमज़ान को शहीद हो गये। हज़रत अली अलैहिस्सलाम 63 वर्षों तक जीवित रहे। इस दौरान उन्होंने हर कार्य केवल महान ईश्वर की प्रसन्नता के लिए किया। उनके जीवन में जब कोई ऐसा अवसर आया कि उन्हें महान ईश्वर की प्रसन्नता और किसी अन्य कार्य के बीच चुनना पड़ा तो उन्होंने महान ईश्वर की प्रसन्नता को चुना।

पवित्र रमज़ान महीने की 19वीं की रात को हज़रत अली अलैहिस्सलाम को पैग़म्बरे इस्लाम का वह कथन याद आया जिसमें उन्होंने हज़रत अली अलैहिस्सलाम से फरमाया था कि मैं देख रहा हूं कि पवित्र रमज़ान महीने की एक रात को तुम्हारी दाढ़ी तुम्हारे ख़ून से रंगीन होगी।"

हज़रत अली अलैहिस्सलाम पवित्र रमज़ान महीने की 19वीं रात को अपनी एक बेटी हज़रत उम्मे कुलसूम के घर पर आमंत्रित थे। हज़रत अली अलैहिस्सलाम ने अपनी दाढ़ी अपने हाथ में ली और कुछ कहा हे पालनहार! तेरे प्रिय दूत पैग़म्बर के वादे का समय निकट है। हे पालनहार! मौत को अली पर मुबारक कर।" जब हज़रत अली अलैहिस्सलाम दरवाज़े की ओर बढ़े तो उनकी शाल दरवाज़े से लगकर खुल गयी। इसके बाद उन्होंने शाल को मज़बूती से पटके से बांध दिया और स्वयं से कहा अली! अपने पटके को मौत के लिए मज़बूती से बांध लो।"

जब क्रूर व दुष्ट व्यक्ति इब्ने मुल्जिम ने हज़रत अली अलैहिस्सलाम के पावन सिर पर प्राणघातक आक्रमण किया और उसकी तलवार हज़रत अली अलैहिस्सलाम के सिर पर लगी तो उन्होंने ऊंची आवाज़ में चिल्लाकर कहा काबे की क़सम मैं कामयाब हो गया। उसके बाद जहां तलवार लगी थी वहां हज़रत अली अलैहिस्सलाम मेहराब की मिट्टी डालते और पवित्र कुरआन के सूरे ताहा की 55वीं आयत की तिलावत करते थे जिसमें महान ईश्वर कहता है” मैंने तुम्हें मिट्टी से पैदा किया है और मिट्टी की ओर ही पलटायेंगे और फिर मिट्टी से बाहर निकालेंगे।" उसी समय हज़रत अली अलैहिस्सलाम का ध्यान इस ओर गया कि उन पर हमला करने वाले को लोगों ने पकड़ लिया है और उसे मार रहे हैं तो हज़रत अली अलैहिस्सलाम ने चिल्लाकर कहा उसे न मारो उसने मुझे मारा है उसका पक्ष मैं हूं। उसे छोड़ दो! उस समय भी हज़रत अली अलैहिस्सलाम को अपने सिर की चिंता नहीं थी जब उनका सिर खून से लथ-पथ था। जब उन्हें घर लाया गया तो उन्होंने वसीयत की जो पूरे मानव इतिहास के लिए पाठ है।

हज़रत अली अलैहिस्सलाम के आह्वान पर बनी हाशिम की समस्त संतानें और हस्तियां उनके बिस्तर के पास जमा हो गयीं। जो भी हज़रत अली अलैहिस्सलाम के कमरे में दाखिल होता था वह अनियंत्रित होकर रोने लगता था परंतु हज़रत अली अलैहिस्सलाम सबको तसल्ली देते और धैर्य बधाते और फरमाते थे" धैर्य करो, दुःखी न हो, व्याकुल न हो। अगर तुम लोग यह जान जाओ कि मैं क्या सोच रहा हूं और क्या देख रहा हूं तो कदापि दुःखी नहीं होगे। जान लो कि मेरी पूरी आकांक्षा व कामना यह है कि जल्द से जल्द अपने स्वामी पैग़म्बर से मिल जाऊं। मैं चाहता हूं कि जल्द से जल्द अपनी कृपालु व त्यागी पत्नी ज़हरा से मुलाक़ात करूं।

हज़रत अली अलैहिस्सलाम का सिर खून से लत-पथ था, पूरा शरीर ज्वर से जल रहा था। उस हालत में उन्होंने अपने बड़े सुपुत्र इमाम हसन अलैहिस्सलाम को बुलाया और फरमाया मेरे बेटे हसन! आगे आओ। इमाम हसन अलैहिस्सलाम आगे आये और अपने पिता हज़रत अली अलैहिस्सलाम के पास बैठ गये। हज़रत अली अलैहिस्सलाम ने आदेश दिया कि मेरे बक्से को लाया जाये। बक्सा लाया गया। हज़रत अली अलैहिस्सलाम ने बक्से को सबके सामने खोला। उसमें ज़ूल फेकार तलवार, पैग़म्बरे इस्लाम की पगड़ी और रिदा नाम का विशेष परिधान, एक पुस्तिका और एक पवित्र कुरआन जिसे स्वयं हज़रत अली अलैहिस्सलाम ने एकत्रित किया था। एक- एक करके सबको इमाम हसन अलैहिस्सलाम के हवाले किया और उपस्थित लोगों को गवाही के लिए बुलाया और फरमाया" तुम सब गवाह रहना कि मेरे बाद हसन पैग़म्बरे इस्लाम के नाती मार्गदर्शक हैं। उसके बाद थोड़ा ठहरे और उसके पश्चात दोबारा इमाम हसन अलैहिस्सलाम को संबोधित किया और कहा मेरे बेटे! तू मेरे बाद इमाम होगा। अगर तू चाहना तो मेरे हत्यारे को माफ़ कर देना। इसे तुम खुद समझना और अगर तुम उसे दंडित करना चाहो तो इस बात का ध्यान रखना कि उसने मुझ पर एक ही वार किया था इसलिए तुम उस पर एक ही वार करना और प्रतिशोध को ईश्वरीय सीमा से हटकर नहीं होना चाहिये। उसके बाद हज़रत अली अलैहिस्सलाम ने इमाम हसन अलैहिस्लाम से फरमाया बेटे! कलम और कागज़ लाओ और सबके सामने जो बोल रहा हूं उसे लिखो। इसके बाद इमाम हसन अलैहिस्सलाम कागज़ कलम लाये और बाप की वसीयत को लिखने के लिए तैयार हुए तो हज़रत अली अलैहिस्सलाम ने इस प्रकार फरमाया उस ईश्वर के नाम से जो बहुत कृपालु व दयालु है यह वही चीज़ है जिसकी अली वसीयत करते हैं। उनकी पहली वसीयत यह है कि वह गवाही दे रहे हैं कि ईश्वर के अतिरिक्त दूसरा कोई पूज्य नहीं है। वह ईश्वर जिसका कोई समतुल्य नहीं है और यह भी गवाही दे रहा हूं कि मोहम्मद उसके बंदे व दूत हैं। ईश्वर ने उन्हें लोगों के मार्गदर्शन के लिए भेजा ताकि उनका धर्म दूसरे धर्मों पर छा जाये यद्यपि यह बात काफिरों को नापसंद ही क्यों न हो। उसके बाद हज़रत अली अलैहिस्सलाम कहत हैं बेशक नमाज़, उपासना, जिन्दगी और मेरी मौत सब ईश्वर के हाथ में और उसी के लिए है। उसका कोई समतुल्य नहीं, मुझे इस कार्य का आदेश दिया गया है और मैं ईश्वर के समक्ष नतमस्तक हूं।“

 हज़रत अली अलैहिस्सलाम ने महान ईश्वर और पैग़म्बरे इस्लाम की गवाही देने के बाद समस्त अहलेबैत और उन समस्त लोगों को तकवे अर्थात ईश्वरीय भय, काम में कानून व नियम और एक दूसरे के साथ शांति व दोस्ती से रहने की सिफारिश की जिन लोगों तक यह वसीयत पहुंचे। हज़रत अली अलैहिस्सलाम आगे अपनी वसीयत में कहते हैं” मैंने पैग़म्बरे इस्लाम से सुना है कि उन्होंने फरमाया है”  लोगों के बीच सुधार करना कई साल के नमाज़ और रोज़े से बेहतर है।“

 इसके बाद हज़रत अली अलैहिस्सलाम फरमाते हैं कि सामाजिक कार्यों में समस्त इंसानों को कानून के प्रति कटिबद्ध होना चाहिये। क्योंकि किसी समाज की सफलता की पहली शर्त सामाजिक नियमों के प्रति कटिबद्धता है। हज़रत अली अलैहिस्सलाम इसी प्रकार लोगों के बीच शांति व दोस्ती पर बल देते हैं और उसे इस्लामी समाज के लिए ज़रूरी मानते हैं। क्योंकि हज़रत अली अलैहिस्सलाम की दृष्टि में पवित्र कुरआन और पैग़म्बरे इस्लाम की परम्परा समस्त मतभेदों के साथ सभी मुसलमानों के लिए शरण स्थली है जहां वे शरण लेते हैं और समस्त कबायल और गुट एक दूसरे के साथ एकत्रित होते हैं। अतः हज़रत अली अलैहिस्सलाम अपने जीवन के अंतिम क्षणों में एकता और लोगों के मध्य दोस्ती के लिए प्रयास को नमाज़ और रोज़ा से बेहतर बताते हैं।

 इंसानों के जीवन में बहुत सी कमियां होती हैं जिनकी भरपाई लोगों के मध्य दोस्ती व प्रेम से की जा सकती है। इस मध्य अनाथ बच्चे सबसे अधिक प्रेम की आवश्यकता का आभास करते हैं। ये बच्चे मां या बाप की मृत्यु के कारण प्रेम के स्रोत से दूर हो गये हैं और वे हर चीज़ से अधिक प्रेम की आवश्यकता का आभास करते हैं। यह बात इतनी महत्वपूर्ण है कि महान व सर्वसमर्थ ईश्वर इसका उल्लेख पवित्र कुरआन के सूरे निसा की 36वीं आयत में माता- पिता के साथ भलाई के बाद करता है। महान ईश्वर कहता है” माता- पिता, परिजनों, अनाथों और मिसकिनों व बेसहारा लोगों के साथ अच्छाई करो।“

 हज़रत अली अलैहिस्सलाम अनाथ बच्चों से बहुत प्रेम करते थे इसी कारण उन्हें अनाथों के पिता की उपाधि दी गयी है और वे अपनी वसीयत में अनाथों पर ध्यान देने पर बहुत बल देते हुए कहते हैं” ईश्वर के लिए ईश्वर के लिए एसा न होने पाये कि उनका कभी पेट भरे और कभी वे भूखे रहें।“

 

 

 

 

इसी प्रकार हज़रत अली अलैहिस्सलाम ने अपनी वसीयत में एक अच्छे परिवार और समस्त इंसानों के मार्गदर्शक के रूप में पवित्र कुरआन पर ध्यान देने और उसकी शिक्षाओं पर अमल करने की सिफारिश की है। इसी प्रकार हज़रत अली अलैहिस्सलाम नमाज़ को धर्म का स्तंभ बताते हुए उसकी भी बहुत सिफारिश करते हैं। वह काबे में उपस्थित होने और हज अंजाम देने पर भी बहुत बल देते हैं। हज़रत अली अलैहिस्सलाम फरमाते हैं” ईश्वर के लिए ईश्वर के लिए कुरआन के प्रति होशियार रहो कि दूसरे उस पर अमल करने में तुमसे आगे न निकल जायें। ईश्वर के लिए ईश्वर के लिए कि नमाज़ तुम्हारे धर्म का स्तंभ है और अपने पालनहार के घर के अधिकार का ध्यान रखो और जब तक हो उसे खाली न छोड़ो और अगर उसका सम्मान बाकी नहीं रखे तो तुम पर ईश्वरीय मुसीबतें नाज़िल होंगी।

 

हज़रत अली अलैहिस्सलाम अपने जीवन की अंतिम वसीयत में महान ईश्वर की राह में जान व माल से जेहाद करने की सिफारिश करते हैं और इसी प्रकार वे मोमिनों का अच्छे कार्यों को अंजाम देने और बुरे कार्यों से दूरी और आपस में दोस्ती, एकता व संबंध रखने का आह्वान करते हैं। हज़रत अली अलैहिस्सलाम ने वसीयत कर लेने के बाद एक- एक पर दोबारा नज़र डाली और फरमाया ईश्वर तुम सबका और तुम्हारे परिवार की रक्षा करे और तुम्हारे पैग़म्बर का जो अधिकार तुम पर उसकी रक्षा करो अब मैं तुमसे विदा ले रहा हूं। तुम्हें ईश्वर के हवाले कर रहा हूं। तुम सब पर ईश्वर का सलाम और उसकी दया हो। उस समय हज़रत अली अलैहिस्सलाम के माथे पर पसीना आने लगा। अपने नेत्रों को बंद कर लिया और धीरे से कहा मैं गवाही देता हूं कि ईश्वर के अलावा कोई पूज्य नहीं उसका कोई समतुल्य नहीं और मैं गवाही देता हूं कि मोहम्मद उसके बंदे और उसके दूत हैं।“ इसके बाद हज़रत अली अलैहिस्सलाम इस नश्वर संसार से परलोक सिधार गये।

 

 

सोमवार, 01 अप्रैल 2024 17:38

बंदगी की बहार- 21

पवित्र रमज़ान के अन्तिम दस दिन, रोज़ा रखने वालों के लिए विशेष रूप से आनंदाई होते हैं।

इन दस रातों में पड़ने वाली शबेक़द्र या बरकत वाली रातों को छोटे-बड़े, बूढ़े-जवान, पुरूष-महिला, धनवान व निर्धन, ज्ञानी व अज्ञानी सबके सब निष्ठा के साथ रात भर ईश्वर की उपासना करते हैं।  इन रातों अर्थात शबेक़द्र में लोगों के बीच उपासना के लिए विशेष प्रकार का उत्साह पाया जाता है।  लोग पूरी रात उपासना में गुज़ारते हैं।

शबेक़द्र को इसलिए शबेक़द्र कहा जाता है क्योंकि पवित्र क़ुरआन के अनुसार इसी रात मनुष्य के पूरे वर्ष का लेखाजोखा निर्धारित किया जाता है।  यह ऐसी रात है जो हज़ार महीनों से भी अधिक महत्वपूर्ण है।  यह रात उन लोगों के लिए सुनहरा अवसर है जिनके हृदय पापों से मुर्दा हो चुके हैं।  यह बहुत ही बरकत वाली रात है।  इस रात में उपासना करके मनुष्य जहां अपने पापों का प्रायश्चित कर सकता है वहीं पर आने वाले साल में अपने लिए सौभाग्य को निर्धारित कर सकता है।

पवित्र क़ुरआन के सूरेए क़द्र में ईश्वर कहता है कि हमने क़ुरआन को शबेक़द्र में नाज़िल किया और तुमको क्या मालूम के शबेक़द्र क्या है? शबेक़द्र हज़ार महीनों से बेहतर है।  इस रात फ़रिश्ते और रूह, सालभर की हर बात का आदेश लेकर अपने पालनहार के आदेश से उतरते हैं।  यह रात सुबह होने तक सलामती है।  सूरए क़द्र में बताया गया है कि क़ुरआन क़द्र की रात में नाज़िल किया गया जो रमज़ान के महीने में पड़ती है। इस रात को हज़ार महीनों से बेहतर कहा गया है। क़ुरआन की आयतों से यह पता चलता है कि क़ुरआन को दो रूपों में नाज़िल किया गया है एक तो एक बार में और दूसरे चरणबद्ध रूप से। पहले चरण में क़ुरआन एक ही बार में पैग़म्बरे इस्लाम (स) पर उतरा।  यह क़द्र की रात थी जिसे शबेक़द्र कहा जाता है। बाद के चरण में क़ुरआन के शब्द पूरे विस्तार के साथ धीरे-धीरे अलग-अलग अवसरों पर उतरे जिसमें 23 वर्षों का समय लगा। 

क़द्र की रात में क़ुरआन का उतरना भी इस बात का प्रमाण है कि यह महान ईश्वरीय ग्रंथ निर्णायक ग्रंथ है। क़ुरआन, मार्गदर्शन के लिए ईश्वर का बहुत बड़ा चमत्कार तथा सौभाग्यपूर्ण जीवन के लिए सर्वोत्तम उपहार है।  इस पुस्तक में वह ज्ञान पाया जाता है कि यदि दुनिया उस पर अमल करे तो संसार, उत्थान और महानता के चरम बिंदु पर पहुंच जाएगा।

सूरए क़द्र में उस रात को, जिसमें क़ुरआन उतारा गया, क़द्र की रात अर्थात अति महत्वपूर्ण रात कहा गया है।  क़द्र से तात्पर्य है मात्रा और चीज़ों का निर्धारण।  इस रात में पूरे साल की घटनाओं और परिवर्तनों का निर्धारण किया जाता है।  सौभाग्य, दुर्भाग्य और अन्य चीज़ों की मात्रा इसी रात में तय की जाती है। इस रात की महानता को इससे समझा जा सकता है कि क़ुरआन ने इसे हज़ार महीनों से बेहतर बताया है। रिवायत में है कि क़द्र की रात में की जाने वाली उपासना हज़ार महीने की उपासनाओं से बेहतर है। सूरए क़द्र की आयतें जहां इंसान को इस रात में उपासना और ईश्वर से प्रार्थना की निमंत्रण देती हैं वहीं इस रात में ईश्वर की विशेष कृपा का भी उल्लेख करती हैं और बताती हैं कि किस तरह इंसानों को यह अवसर दिया गया है कि वह इस रात में उपासना करके हज़ार महीने  की उपासना का सवाब प्राप्त कर लें। पैग़म्बरे इस्लाम का कथन है कि ईश्वर ने मेरी क़ौम को क़द्र की रात प्रदान की है जो इससे पहले के पैग़म्बरों की क़ौमों को नहीं मिली है।

रिवायत में है कि क़द्र की रात में आकाश के दरवाज़े खुल जाते हैं, धरती और आकाश के बीच संपर्क बन जाता है। इस रात फ़रिश्ते ज़मीन पर उतरते हैं और ज़मीन प्रकाशमय हो जाती है।  वे मोमिन बंदों को सलाम करते हैं। इस रात इंसान के हृदय के भीतर जितनी तत्परता होगी वह इस रात की महानता को उतना अधिक समझ सकेगा।  क़ुरआन के अनुसार इस रात सुबह तक ईश्वरीय कृपा और दया की वर्षा होती रहती है। इस रात ईश्वर की कृपा की छाया में वह सभी लोग होते हैं जो जागकर इबादत करते हैं।

शबेक़द्र की एक विशेषता, आसमान से फ़रिश्तों का उस काल के इमाम पर उतरना है।  इस्लामी कथनों के अनुसार शबेक़द्र केवल पैग़म्बरे इस्लाम (स) के काल से विशेष नहीं है बल्कि यह प्रतिवर्ष आती है।  इसी रात फरिश्ते अपने काल के इमाम के पास आते हैं और ईश्वर ने जो आदेश दिया है उसे वे उनको बताते हैं।

पैग़म्बरे इस्लाम (स) का कथन है कि रमज़ान का महीना, ईश्वर का महीना है।  यह ऐसा महीना है जिसमें ईश्वर भलाइयों को बढ़ाता है और पापों को क्षमा करता है।  यह सब रमज़ान के कारण है।  इमाम जाफ़र सादिक अलैहिस्सलाम कहते हैं कि लोगों के कर्मों के हिसाब का आरंभ शबेक़द्र से होता है क्योंकि उसी रात अगले वर्ष का भाग्य निर्धारित किया जाता है।

शबेक़द्र के इसी महत्व के कारण इसका हर पल महत्व का स्वामी है।  इस रात जागकर उपासना करने का विशेष महत्व है।  इस रात की अनेदखी करना अनुचित है।  इस रात को सोते रहना उसे अनदेखा करने के अर्थ में है अतः एसा करने से बचना चाहिए।  शबेक़द्र के महत्व को इस बात से समझा जा सकता है कि पैग़म्बरे इस्लाम (स) इस रात अपने घरवालों को जगाए रखते थे।  जो लोग नींद में होते उनके चेहरे पर पानी की छींटे मारते थे।  वे कहते थे कि जो भी इस रात को जागकर गुज़ारे, अगले साल तक उससे ईश्वरीय प्रकोप को दूर कर दिया जाएगा और उसके पिछले पापों को माफ किया जाएगा।  पैग़म्बरे इस्लाम की सुपुत्री हज़रत फ़ातेमा ज़हरा शबेक़द्र में अपने घर के किसी भी सदस्य को सोने नहीं देती थीं।  इस रात वे घर के सदस्यों को खाना बहुत हल्का देती थीं और स्वयं एक दिन पहले से शबेक़द्र के आगमन की तैयारी करती थीं।  वे कहती थीं कि वास्वत में दुर्भागी है वह व्यक्ति जो विभूतियों से भरी इस रात से वंचित रह जाए।

शबेक़द्र को शबे एहया भी कहा जाता है जिसका अर्थ होता है जीवित करना।  इस रात को शबे एहया इसलिए कहा जाता है ताकि रात में ईश्वर की याद में डूबकर अपने हृदय को पवित्र एवं जीवित किया जा सके।  हृदय को जीवित करने का अर्थ है बुरे कामों से दूरी।  मरे हुए हृदय का अर्थ है सच्चाई को न सुनना, बुरी बातों को देखते हुए खामोश रहना।  झूठ और सच को एक जैसा समझना और अपने लिए मार्गदर्शन के रास्तों को बंद कर लेना।  इस प्रकार के हृदय के स्वामी को क़ुरआन, मुर्दा बताता है।  ईश्वर के अनुसार ऐसा इन्सान चलती-फिरती लाश के समान है।  जिस व्यक्ति का मन मर जाए वह पशुओं की भांति है।  उसमें और पशु में कोई अंतर नहीं है।  पापों की अधिकता के कारण पापियों के हृदय मर जाते हैं और वे जानवरों की भांति हो जाते हैं।

 

 

अपने बंदों पर ईश्वर की अनुकंपाओं में से एक अनुकंपा यह है कि उसने मरे हुए दिलों को ज़िंदा करने के लिए कुछ उपाय बताए हैं।  इस्लामी शिक्षाओं में बताया गया है कि ईश्वर पर भरोसा, प्रायश्चित, उपासना और प्रार्थना, दान-दक्षिणा और भले काम करके मनुष्य अपने मरे हुए हृदय को जीवित कर सकता है।  ईश्वर ने शबेक़द्र को इसीलिए बनाया है कि मनुष्य इस रात पूरी निष्ठा के साथ उपासना करके अपने मन को स्वच्छ और शुद्ध कर सकता है।  यही कारण है कि शबेक़द्र की पवित्र रात के प्रति किसी भी प्रकार की निश्चेतना को बहुत बड़ा घाटा बताया गया है।  इसीलिए महापुरूष इस रात के एक-एक क्षण का सदुपयोग करते हुए सुबह तक ईश्वर की उपासना में लीन रहा करते थे।

 

माहे रमज़ानुल मुबारक की दुआ जो हज़रत रसूल अल्लाह स.ल.व.व.ने बयान फ़रमाया हैं।

اَللَّـهُمَّ اجْعَلْ لي فيهِ اِلي مَرْضاتِكَ دَليلاً، وَلا تَجْعَلْ لِلشَّيْطانِ فيهِ عَلَيَّ سَبيلاً، وَاجْعَلِ الْجَنَّةَ لي مَنْزِلاً وَمَقيلاً، يا قاضِيَ حَوآئِـجِ الطّالِبينَ.

अल्लाह हुम्मज-अल ली फ़ीहि इला मरज़ातिका दलीला, व ला तज-अल लिश्शैतानि फ़ीहि अलैय सबीला, वज-अलिल जन्नता ली मनज़िलन व मक़ीला, या क़ाज़िय हवाएजित तालिबीन (अल बलदुल अमीन, पेज 220, इब्राहिम बिन अली)

ख़ुदाया! इस महीने में मेरे लिए अपनी ख़ूशनूदी की तरफ़ राहनुमा निशान क़रार दे, और शैतान को मुझ पर (ग़लबा पाने) के लिए रास्ता न दे, और जन्नत को मेरी मंज़िल क़रार देना, ऐ तलबगारों की हाजतों को पूरा करने वाले.

 अल्लाह हुम्मा स्वल्ले अला मुहम्मद व आले मुहम्मद व अज्जील फ़रजहुम.