
رضوی
ज़ायोनी शासन के अपराधों में शामिल होने का ख़मियाज़ा
अमरीका के राष्ट्रपति जो बाइडन को गुरुवार के दिन तब मुश्किल का सामना करना पड़ा जब प्रदर्शनकारियों ने अमरीकी संसद कांग्रेस की ओर जाने वाले रास्ते ब्लाक कर दिए।
जो बाइडन को स्पीच देने के लिए कांग्रेस जाना था लेकिन फ़िलिस्तीन में इस्राईल के हाथों जारी नस्लीय सफ़ाए में साथ देने के कारण जो बाइडन सरकार से नाराज़ प्रदर्शनकारियों ने कांग्रेस जाने वाले रास्ते ब्लाक कर दिए और अमरीकी राष्ट्रपति के कारवां को लंबा रास्ता तय करके कांग्रेस जाना पड़ा।
मीडिया रिपोर्टों के अनुसार प्रदर्शनकारियों ने ग़ज़ा पट्टी में तत्काल संघर्ष विराम की मांग की और कांग्रेस की इमारत की ओर जाने वाले रास्ते को बंद कर दिया।
81 साल के जो बाइडन को अपना सालाना भाषण देने के लिए कांग्रेस जाना था।
अमरीकी राष्ट्रपति जो बाइडन के सामने कई चुनौतियां हैं उन्हें अपने समर्थकों को यह विश्वास भी दिलाना है कि राष्ट्रपति चुनावों में वे अपने प्रतिद्वंद्वी डोनल्ड ट्रम्प को पराजित कर सकते हैं।
इस्राईल के अपराधों का समर्थन करने की वजह से जो बाइडन को अमरीका के भीतर भारी आलोचनाओं का सामना है।
हमास का प्रतिनिधिमंडल क़ाहेरा से वापस
फ़िलिस्तीनी आंदोलन हमास ने कहा है कि उसका प्रतिनिधिमंडल गुरुवार को मिस्र की राजधानी क़ाहेरा से वापस चला गया है मगर तेल अबीब में अमरीका के राजदूत जैक लियो ने कहा कि यह समझना ग़लत होगा कि शांति वार्ता नाकाम हो गई है।
हमास ने अपने बयान में कहा कि प्रतिनिधिमंडल वापस आ गया है और नेतृत्व को अब तक की बातचीत के बारे में ब्रीफ़िंग देगा।
हमास के नेता सामी अबी ज़ोहरी ने कहा कि जंग रोकने और मानवीय सहायता ग़ज़ा भेजने के विषय में होने वाली बातचीत को इस्राईल ने नाकाम बनाया है।
उन्होंने रोयटर्ज़ से बातचीत में कहा कि इस्राईल ने हमले बंद करने, सैनिकों को ग़ज़ा पट्टी से बाहर निकालने, मानवीय सहायता ग़ज़ा में जाने की गैरेंटी और शरणार्थियों की वापसी जैसी हमास की मांगों को इस्राईल ने अस्वीकार कर दिया।
हमास के अधिकारी इससे पहले कह चुके हैं कि स्थायी युद्ध विराम और ग़ज़ा पट्टी से इस्राईली सैनिकों के बाहर निकल जाने से पहले किसी भी क़ैदी की रिहाई नहीं हो सकेगी।
हमास ने यह भी कहा है कि जब तक संघर्ष विराम नहीं हो जाता वह इस्राईल को जीवित इस्राईली क़ैदियों के नामों की लिस्ट भी नहीं दे सकता जो जंग के हालात में अलग अलग स्थानों पर रखे गए हैं।
हमास ने कहा कि संघर्ष विराम संबंधी वार्ता में इस्राईल ने केवल अपने क़ैदियों को प्राथमिकता दी और हमास की शर्तों को पूरी तरह नज़रअंदाज़ किया इसलिए संघर्ष विराम की वार्ता नाकाम हो गई।
वहीं तेल अबीब में अमरीका के राजदूत जैक लियो ने कहा कि दोनों पक्षों के स्टैंड में पाया जाने वाला गैप कम हो रहा है। उन्होंने कहा कि सब रमज़ान महीने की तरफ़ आगे बढ़ रहे हैं और यह मान लेना की वार्ता नाकाम हो गई है ग़लत होगा।
राजदूत का यह कहना था कि सभी पक्षों पर दबाव डालने की ज़रूरत है ताकि वार्ता से जुड़े रहें।
एक अमरीकी अधिकारी ने कहा कि जिस समझौते पर बात हो रही है वह तीन चरणों पर आधारित है और निवासियों की उत्तरी ग़ज़ा वापसी इसमें शामिल है। अमरीकी अधिकारी ने हमास को संघर्ष विराम में देरी के लिए ज़िम्मेदार ठहराने की कोशिश की।
इस बीच यह ख़बर भी आई कि अमरीकी ख़ुफ़िया एजेंसी सीआईए के डायरेक्टर विलियम बर्न्ज़ ख़ामोशी से क़ाहेरा पहुंच गए जहां वो मिस्री अधिकारियों से क़ैदियों की रिहाई के समझौते के बारे में बात कर रहे हैं।
इस्राईल की युद्ध कैबिनेट के सदस्य गादी आइज़नकोट नेक हा कि हमास पर मध्यस्थों की तरफ़ से दबाव डाला जा रहा है, हमारे लिए क़ैदियों की हमास के हाथों से रिहाई हमास को पराजित करने से बड़ी प्राथमिकता है, इसके बग़ैर कोई विजय नहीं हो सकती बल्कि लगातार नुक़सान होगा।
ईरानी बुद्धिजीवी-1 इमाम ख़ुमैनी रहमतुल्लाह अलैह
इस कार्यक्रम में विभिन्न क्षेत्रों से संबंध रखने वाले ईरान के समकालीन बुद्धिजीवियों की जीवनी से श्रोताओ के समक्ष प्रस्तुत की जाती है।
उन महान हस्तियों के नाम और याद को जीवित रखना जिन्होंने राष्ट्रों के भविष्य को ईश्वरीय विचारों और अपने अथक प्रयासों से उज्जवल बनाया है, एक आवश्यक कार्य है।उन महान हस्तियों के नाम और याद को जीवित रखना जिन्होंने राष्ट्रों के भविष्य को ईश्वरीय विचारों और अपने अथक प्रयासों से उज्जवल बनाया है, एक आवश्यक कार्य है। इस श्रंखला में हम प्रयास करेंगे कि समकालीन ईरान की धर्म व ज्ञान से संबंधित प्रभावी हस्तियों से आपको परिचित कराएं। इस्लामी गणतंत्र ईरान के संस्थापक स्वर्गीय इमाम ख़ुमैनी रहमतुल्लाह अलैह मानव इतिहास की सबसे उल्लेखनीय हस्तियों में से एक समझे जाते हैं जिन्होंने समकालीन इतिहास में एक ईश्वरीय आंदोलन के माध्यम से पूरे संसार को प्रभावित किया। उन्होंने ईश्वरीय पैग़म्बरों और इमामों की सत्य की आवाज़ को प्रतिबिंबित किया। वे पहलवी शासन के अत्याचारपूर्ण एवं घुटन भरे काल में लोगों के बीच से उठे और एक प्रकाशमान फ़ानूस की भांति लोगों के हृदयों को अन्धकार से प्रकाश की ओर मार्गदर्शित किया। इमाम ख़ुमैनी के आंदोलन से ईरानी जनता के भविष्य को एक नया आयाम मिला और लोग उनके ईश्वरीय मार्गदर्शन की सहायता से, इस्लामी क्रांति की विभूति से लाभान्वित हुए। इस्लामी क्रांति के वर्तमान नेता आयतुल्लाहिल उज़मा इमाम ख़ामेनेई, जो इमाम ख़ुमैनी के सर्वश्रेष्ठ शिष्यों में से एक हैं, उनके बारे में कहते हैं। इंसाफ़ से देखा जाए तो हमारे प्रिय इमाम और नेता के महान व्यक्तित्व कि तुलना ईश्वर के पैग़म्बरों और इमामों के बाद किसी अन्य व्यक्ति से नहीं की जा सकती। वे हमारे बीच ईश्वर की अमानत, हमारे लिए ईश्वर का तर्क और ईश्वर की महानता का चिन्ह थे। जब मनुष्य उन्हें देखता था तो धर्म के नेताओं की महानता पर उसे विश्वास आ जाता था।सैयद रूहुल्लाह मूसवी ख़ुमैनी का जन्म 30 शहरीवर वर्ष 1281 हिजरी शमसी बराबर 21 सितम्बर वर्ष 1902 ईसवी को केंद्रीय ईरान के ख़ुमैन नगर में एक धार्मिक व पढ़े लिखे परिवार में हुआ था। उनके पिता एक साहसी धर्मगुरू थे जिन पर लोग अत्यधिक विश्वास करते थे। उन्होंने स्थानीय ग़ुंडों से, जिन्होंने ख़ुमैन नगर के लोगों की जान और उनके माल को ख़तरे में डाल रखा था, कड़ा संघर्ष किया और अंततः उन्हीं के हाथों मारे गए। उस समय इमाम ख़ुमैनी की आयु केवल पांच महीने थी। उन्होंने अपना बचपन अपनी माता की छत्रछाया में व्यतीत किया। वह समय ईरान में संवैधानिक क्रांति और उसके बाद के राजनैतिक व सामाजिक परिवर्तनों का काल था। इमाम ख़ुमैनी इन परिवर्तनों पर गहरी दृष्टि रखते थे और उनसे अनुभव प्राप्त करते थे। उनके बचपन व किशोरावस्था की कुछ प्रभावी घटनाएं उनके द्वारा बनाए गए चित्रों और सुलेखन में प्रतिबिंबित होती हैं। उदाहरण स्वरूप उन्होंने दस वर्ष की आयु में अपनी डायरी में इस्लाम की मर्यादा कहां है? राष्ट्रीय आंदोलन किधर है? शीर्षक के अंतर्गत एक लघु कविता लिखी थी जिसमें राजनैतिक समस्याओं की ओर संकेत किया गया है। पंद्रह वर्ष की आयु में इमाम ख़ुमैनी अपनी स्नेही माता की छाया से भी वंचित हो गए।
इमाम ख़ुमैनी ने बचपन में ही अपनी प्रवीणता के सहारे अरबी साहित्य, तर्कशास्त्र, धर्मशास्त्र और इसी प्रकार उस समय प्रचलित बहुत से ज्ञानों के आरंभिक भाग की शिक्षा प्राप्त कर ली थी। वर्ष 1297 हिजरी शमसी में वे केंद्रीय ईरान के अराक नगर के उच्च धार्मिक शिक्षा केंद्र में प्रवेश लिया और फिर वहां से पवित्र नगर क़ुम के उच्च धार्मिक शिक्षा केंद्र का रुख़ किया। क़ुम में उन्होंने आयतुल्लाह हायरी जैसे महान धर्मगुरुओं से शिक्षा प्राप्त की। अपनी तीव्र बुद्धि के कारण इमाम ख़ुमैनी ने विभिन्न ज्ञानों की शिक्षा बड़ी तीव्रता से पूरी कर ली। उन्होंने धर्मशास्त्र, उसूले फ़िक़्ह के अतिरिक्त दर्शन शास्त्र की शिक्षा अपने काल के सबसे महान गुरू अर्थात आयतुल्लाह मीरज़ा मुहम्मद अली शाहाबादी से प्राप्त की। इमाम ख़ुमैनी ने वर्ष 1308 हिजरी शमसी में 27 वर्ष की आयु में ख़दीजा सक़फ़ी से विवाह किया।
वर्ष 1316 में जब इमाम ख़ुमैनी की आयु 35 वर्ष थी तो उनकी गणना क़ुम नगर के प्रख्यात धर्मगुरुओं में होने लगी थी। उस समय अधिकांश युवा छात्र उनके पाठों में भाग लेने के इच्छुक होते थे। वर्ष 1320 हिजरी क़मरी तक इमाम रूहुल्लाह ख़ुमैनी अधिकतर पढ़ने, पढ़ाने और पुस्तकें लिखने में व्यस्त रहे किंतु इसी के साथ उनके भीतर अत्याचार से संघर्ष की भावना भी परवान चढ़ती रही। उस काल में उनकी मुख्य चिंता क़ुम के धार्मिक शिक्षा केंद्र की रक्षा और प्रगति थी। वे समाज की परिस्थितियों को दृष्टिगत रख कर इस निष्कर्ष पर पहुंचे थे कि धार्मिक शिक्षा केंद्रों को मज़बूत बनाने तथा लोगों व धर्मगुरुओं के बीच संबंध को सुदृढ़ करने से ही आंतरिक अत्याचारी शासन और विदेशी साम्राज्य के चंगुल से देश की जनता को मुक्ति दिलाई जा सकती है। वे इसी प्रकार समकालीन ईरान के इतिहास से संबंधित पुस्तकों और पत्र-पत्रिकाओं का अध्ययन करके अपने ज्ञान में वृद्धि कर रहे थे। वे अन्य इस्लामी समाजों की राजनैतिक व सामाजिक परिस्थितियों पर गहरी दृष्टि रखते थे। इमाम ख़ुमैनी नूरुल्लाह इस्फ़हानी और शहीद सैयद हसन मुदर्रिस जैसे क्रांतिकारी एवं संघर्षकर्ता धर्मगुरुओं से भी परिचित हुए। इन वर्षों में पहलवी परिवार के पहले शासक रज़ा ख़ान ने पूरे देश में भय व आतंक का वातावरण फैला रखा था और हर उठने वाली आवाज़ का उत्तर हत्या, जेल या निर्वासन से दिया जाता था।
वर्ष 1320 हिजरी शमसी में मुहम्मद रज़ा पहलवी के सत्ता में आने के साथ ही इमाम ख़ुमैनी धार्मिक व राजनैतिक मामलों में अधिक खुल कर सामने आ गए। उन्होंने वर्ष 1340 तक क्रांतिकारी छात्रों का प्रशिक्षण किया और मूल्यवान पुस्तकें लिखीं। इसी के साथ वे राजनैतिक मामलों विशेष कर वर्ष 1329 में तेल उद्योग के राष्ट्रीयकरण के मामले पर भी विशेष ध्यान देते रहे। वर्ष 1340 में शीया मुसलमानों के वरिष्ठ धर्मगुरू आयतुल्लाहिल उज़मा बोरूजेर्दी का निधन हुआ और बहुत से लोगों व धार्मिक छात्रों ने जो इमाम ख़ुमैनी की ज्ञान, नैतिकता व राजनीति से संबंधित विशेषताओं से अवगत थे उन्हें वरिष्ठ धर्मगुरू बनाए जाने की मांग की। ये उस समय की घटनाएं हैं जब वर्ष 1953 के विद्रोह के बाद ईरान में अमरीकी सरकार का प्रभाव बढ़ता जा रहा था। अमरीकी सरकार ने मुहम्मद रज़ा शाह पर दबाव डाला कि वह दिखावे के लिए कुछ सुधार करे। शाह ने अमरीका के इस दबाव के उत्तर में वर्ष 1962 में कई कार्यक्रमों को पारित किया जिनमें कुछ इस्लाम विरोधी बिंदु भी मौजूद थे। इमाम ख़ुमैनी ने अपनी दूरदर्शिता से इन बातों को भांप लिया और अमरीका के दृष्टिगत सुधारों के मुक़ाबले में पूर्ण रूप से डट गए। उन्होंने क़ुम तथा तेहरान के बड़े धर्मगुरुओं के साथ मिल कर व्यापक विरोध किया किंतु शाह चाहता था कि अमरीकी सुधारों को एक दिखावे के जनमत संग्रह के माध्यम से पारित करवा दे। इमाम ख़ुमैनी ने शाह के जनमत संग्रह के बहिष्कार का आह्वान किया। उनके आग्रह और प्रतिरोध के कारण ईरान के बड़े बड़े धर्म गुरुओं ने खुल कर उस जनमत संग्रह का विरोध किया और उसमें भाग लेने को धार्मिक दृष्टि से हराम या वर्जित घोषित कर दिया। इमाम ख़ुमैनी ने वर्ष 1341 के अंतिम दिनों में शाह के सुधार कार्यक्रमों के विरुद्ध एक कड़ा बयान जारी किया। तेहरान के लोग उनके समर्थन में सड़कों पर निकल आए और पुलिस ने लोगों के प्रदर्शनों पर आक्रमण कर दिया। शाह ने, जो चाहता था कि जिस प्रकार से भी संभव हो, अमरीका के प्रति अपनी वफ़ादारी को सिद्ध कर दे, लोगों के ख़ून से होली खेली।
वर्ष 1342 हिजरी शमसी के आरंभिक दिनों में शाह के एजेंटों ने सादे कपड़ों में क़ुम के एक बड़े धार्मिक शिक्षा केंद्र मदरसए फ़ैज़िया में छात्रों के समूह में उपद्रव मचाया और फिर पुलिस ने उन छात्रों का जनसंहार किया। इसी के साथ तबरीज़ नगर में भी एक धार्मिक शिक्षा केंद्र पर आक्रमण किया गया। उन दिनों क़ुम नगर में इमाम ख़ुमैनी का घर पर प्रतिदिन क्रांतिकारियों और क्रोधित लोगों का जमावड़ा होता था जो धर्मगुरुओं के समर्थन के लिए क़ुम नगर आते थे। इमाम ख़ुमैनी इन भेंटों में पूरी निर्भीकता के साथ शाह को सभी अपराधों का ज़िम्मेदार और अमरीका व इस्राईल का घटक बताते थे तथा आंदोलन चलाने के लिए लोगों का आह्वान किया करते थे। इमाम ख़ुमैनी ने मदरसए फ़ैज़िया के धार्मिक छात्रों के जनसंहार पर दिए गए अपने एक संदेश में कहा कि मैं जब यह भ्रष्ट सरकार हट नहीं जाती तब तक मैं चैन से नहीं बैठूंगा। इसके बाद उन्हें गिरफ़्तार करके जेल में डाल दिया गया। इमाम ख़ुमैनी की गिरफ़्तारी का समाचार मिलते ही 15 ख़ुर्दाद वर्ष 1342 बराबर 5 जून वर्ष 1963 को पूरे ईरान के सभी नगरों की जनता सड़कों पर निकल आई और देश व्यापी प्रदर्शन आरंभ हो गए। लोगों ने या हमें भी मार डालो या ख़ुमैनी को रिहा करो के नारे लगा कर शाह के महल में भूकम्प पैदा कर दिया।
ईरान की जनता के व्यापक विरोध के बाद शाह के सैनिकों ने विशेष रूप से तेहरान व क़ुम में बड़ी निर्ममता के साथ प्रदर्शनों को कुचलने का प्रयास किया किंतु कुछ ही महीने बाद शाह, इमाम ख़ुमैनी को रिहा करने पर विवश हो गया। उन्होंने रिहा होने के बाद शाह की ओर से दी जाने वाली धमकियों की अनदेखी करते हुए अपने विभिन्न भाषणों में लोगों को अत्याचार व तानाशाही के विरुद्ध संघर्ष का निमंत्रण दिया। उन्होंने अपने एक ऐतिहासिक भाषण में लोगों को अतिग्रहणकारी इस्राईली सरकार के साथ शाह के गुप्त किंतु व्यापक संबंधों के बारे में बताया और साथ ही ईरान के आंतरिक मामलों में अमरीका के अत्याचारपूर्ण हस्तक्षेप से पर्दा उठाते हुए जनता को शाह के राष्ट्र विरोधी कार्यों से अवगत कराया। ये बातें सुन कर ईरानी जनता के क्रोध में दिन प्रतिदिन वृद्धि होती गई। शाह ने, जब यह देखा कि वह धमकी और लोभ से इमाम ख़ुमैनी को रोक नहीं सकता तो उसने उन्हें देश निकाला दे दिया। वर्ष 1965 के अंत में उन्हें तुर्की और वहां से एक साल बाद इराक़ के पवित्र नगर नजफ़ निर्वासित कर दिया गया और इस प्रकार उनके चौदह वर्षीय निर्वासन का आरंभ हुआ।
असंख्य कठिनाइयों और दुखों के बावजूद इमाम ख़ुमैनी निर्वासन के दौरान भी संघर्ष से पीछे नहीं हटे। इस अवधि में उन्होंने अपने संदेशों और भाषणों के माध्यमों से कैसेटों व पम्फ़लेटों के रूप में जनता तक पहुंचते थे, लोगों में आशा की किरण को जगाए रखा। इमाम ख़ुमैनी ने वर्ष 1976 में अरबों और इस्राईल के बीच होने वाले छः दिवसीय युद्ध के उपलक्ष्य में एक फ़तवा जारी किया और इस्राईल के सथ मुसलमान राष्ट्रों के हर प्रकार के राजनैतिक एवं आर्थिक संबन्धों और इसी प्रकार इस्राईल निर्मित वस्तुओं के प्रयोग को हराम बताया। इमाम ख़ुमैनी ने ईरान में अपने संघर्ष से जहां ईरान में संघर्षकर्ता बनाए वहीं उन्होंने ईरान के अतिरिक्त इराक, लेबनान, मिस्र, पाकिस्तान तथा अन्य इस्लामी देशों में बड़ी संख्या में अपने अनुयाई बनाए।
अल्लाह के ख़ास बन्दे- 1
चौदह सौ साल पहले जब अरब जगत, अंधविश्वास, भ्रष्टाचार और अज्ञानता के अंधकार में डूबा हुआ था, मक्का नगर में इस्लाम का सूरज उदय हुआ और इस नगर की गलियां और लोगों के दिल, ज्ञान की रौशनी से भर गये।
आरंभ में उसकी रौशनी , सीमित और हल्की थी , इतनी हल्की की अरब के घमंडी सरदारों को महसूस भी नहीं हुई लेकिन धीरे धीरे इस सूरज की रौशनी इतनी बढ़ी कि पूरे अरब जगत के क़बाइली सरदारों की आंखें चुंधिया गयीं। इस्लाम फैलता गया, और समाज के सताए गये और शोषित लोग, मज़बूत और अत्याचारी शक्तिशाली सरदार, कमज़ोर होते चले गये। पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैही व आलेही व सल्लम ने एलान कर दिया थाः कहो ईश्वर एक है, कल्याण हो जाएगा। इस नारे से पूरा अरब जगत गूंजने लगा और उस आवाज़ को दबाने की हर कोशिश नाकाम रही। इस्लाम का सूर्योदय हो चुका था, दुनिया में उसकी रौशनी फैल चुकी थी।
"कहो ईश्वर एक है, कल्याण हो जाएगा"
यह सब कुछ इतना आसान नहीं था। पैगम्बरे इस्लाम ने कितना मुश्किल काम किया है यह जानने के लिए हमें सब से पहले उस दौर के अरब जगत और वहां की सामाजिक व राजनीतिक परिस्थितियों से अवगत होना पड़ेगा। हमारे साथ रहें।
अरब प्रायद्वीप या हिजाज़ का क्षेत्रफल, 30 लाख वर्गकिलोमीटर है। उसके तीन ओर पानी है। पश्चिम में रेड सी, दक्षिण में अदन की खाड़ी और हिन्द महासागर तथा पूर्व में फ़ार्स की खाड़ी और ओमान सागर हैं।
पुराने ज़माने में हिजाज़ या अरब प्रायद्वीप में जीवन बहुत ही कठिन था। लोग बहुत ही कठिन सामाजिक, सांस्कृतिक व आर्थिक परिस्थितियों में ज़िंदगी गुज़ारते थे। उस दौर में, सामाजिक व्यवस्था, क़बाइली और ख़ान्दानी थी। यहां तक कि शहरों में रहने वाले भी, अपनी कबाइली जड़ों से जुड़े रहते थे। ख़तरों से खेलते हुए एक इलाक़े से दूसरे इलाके कूच करने वाले इन बंजारों के जीवन की विशेष शैली और सूखे रेगिस्तान की वजह से यह अरब अपने क़रीबी रिश्तेदारों के साथ रहने को तरजीह देते थे इसी तरह साथ रहते रहते उनकी संख्या बढ़ती जाती और वह एक क़बीला बन जाता था। अरब हर क़िस्म के ख़तरे से निपटने के लिए सिर्फ़ उन लोगों की सहायता पर भरोसा करते थे जिनकी उनकी ख़ूनी या फिर किसी अन्य प्रकार की रिश्तेदारी हो। इस प्रकार से वह दूसरे क़बीलों की ओर से संभावित हमलों से ख़ुद को बचाने का इंतेज़ाम करते थे और दूसरे क़बीलों पर हमला करने के लिए उनकी ताक़त भी इसी प्रकार की जीवनशैली की देन थी। रेगिस्तान में रहने की वजह से वह इस प्रकार की जीवन शैली अपनाने पर मजबूर थे लेकिन इसके साथ ही इस शैली की वजह से परिवार और वंश एक दूसरे पर वरीयता का कारण बन गया और जिस क़बीले के लोगों की संख्या जितनी ज़्यादा होती थी, उसके लोग उतना ही ज़्यादा गर्व करते थे क्योंकि उनके पास ताक़त भी अधिक होती थी।
रेगिस्तान में रहने वाला एक अरब
क़बाइली समाज की सब से बड़ी कमी यह होती है कि वह किसी केन्द्रीय सरकार के तहत नहीं होता यहां तक कि मक्का और यसरब जैसे अरब जगत के महत्वपूर्ण नगरों में भी, सरकार व शासन या उसके लिए ज़रूरी दरबार , अदालत या जेल जैसी कोई चीज़ मौजूद नहीं थी बल्कि हर क़बीला अपने आप में एक राजनीतिक व्यवस्था था और अपने समाज को क़बीले का सरदार अपनी इच्छा के अनुसार चलाता था।
धार्मिक आस्था के लिहाज़ से उस दौर के अक्सर अरब, अनेकेश्वरवादी थे हालांकि प्राचीन काल में यह लोग हज़रत इब्राहीम अलैहिस्सलाम के धर्म के अनुयाई और एकेश्वरवादी थे लेकिन धीरे-धीरे एकेश्वरवाद कम होता गया और उसकी जगह अनेकेश्वरवाद और मूर्ति पूजा ने ले ली। इस परिवर्तन में सब से बड़ी भूमिका , कुछ क़बाइली सरदारों की थी । यही वजह है कि कुछ अरब इतिहासकारों ने लिखा है कि " अम्र बिन लुहय" से पहले तक अरब के अधिकांश लोग हज़रत इब्राहीम अलैहिस्सलाम के धर्म के अनुयाई थे। " अम्र बिन लुहय" " शाम्मात" नामक क्षेत्र से " हुबल" नामक एक मूर्ति मक्का ले गया और लोगों को उसकी पूजा के लिए प्रेरित किया। इस तरह से अरब में धीरे धीरे मूर्ति पूजा शूरु हुई। इसके अलावा यह भी रस्म थी कि मक्का से बाहर जाने वाला हर यात्री अपने साथ काबे में मौजूद कोई पत्थर अपने साथ ले जाता और वापसी तक उस पत्थर की पूजा करता । इस चलन की वजह से भी मूर्ति पूजा को बढ़ावा मिला। धीरे धीरे और कई पीढ़ियों के बाद इन अरबों ने हज़रत इब्राहीम के धर्म को पूरी तरह से भुला दिया और मूर्ति पूजा में व्यस्त हो गये।अल्बत्ता अधिकांश अरब " अल्लाह" में आस्था रखते थे किंतु दूसरे देवताओं को उसका भागीदार मानते और उन भागीदारों की भी पूजा करते। आरंभ में अल्लाह की उसके कामों में सहायता करने वाले इन " सहायकों " की संख्या कम थी लेकिन फिर उनकी संख्या बढ़ने लगी यहां तक कि जब अरब जगत में पैगम्बरे इस्लाम ने अपनी पैग़म्बरी की घोषणा की तो उस समय, साल के दिनों के अनुसार 360 मूर्तियां, काबे में रखी हुई थीं। उनमें सब से अधिक प्रसिद्ध तीन देवियों की मूर्तियां थीं, " लात" " मनात" और " उज़्ज़ा" अरब इन देवियों को "ईश्वर की बेटियां " कहते थे और उनके ख्याल में इन की पूजा से ईश्वर प्रसन्न होता है।
प्राचीन अरब जगत में पूजी जाने वाली कुछ मूर्तियां
प्राचीन अरब में शिक्षा व्यवस्था का कोई नाम व निशान नहीं था और पढ़ने लिखने का बिल्कुल ही चलन नहीं था। पूरे अरब जगत में जिन लोगों को पढ़ना और लिखना आता था उनकी संख्या उंगलियों पर गिने जाने लायक़ थी और उनसे पूरा अरब जगत अवगत था। उस दौर के अरब जगत में शक्ति और परंपरा को ही सब से अधिक महत्व दिया जाता था और ताक़त, वरीयता का पैमाना था इसी लिए समाज पुरुष प्रधान था और सब कुछ उसे ही हासिल था। मर्द अपनी बीवी और बच्चों का स्वामी होता और उनके बारे में जो भी फैसला करता वह सब के लिए मान्य होता।
अरबों के जीवन के हर क्षेत्र में अज्ञानता का अंधकार देखा जा सकता था। वंश की वरीयता, लूटमार, निर्दयता, कबाइली व जातीय भेदभाव तथा बेटियों और औरतों के बारे में उनके दृष्टिकोण, इसकी मिसाल हैं। बेटियों के बारे में उस समय के अरब जगत की भावनाओं का वर्णन करते हुए कुरआने मजीद के सूरे नेह्ल की आयत 58 और 59 में कहा गया है कि जब किसी मर्द को यह बताया जाता था कि उसकी बीवी ने बेटी को जन्म दिया है तो उसका चेहरा ग़ुस्से से काला पड़ जाता था और वह क्रोधित हो जाता और वह समझ नहीं पाता था कि अपनी इस बेटी को अपमान स्वीकार करते हुए अपने पास रखे या फिर उसे ज़िन्दा ही ज़मीन में दफ़्न कर दे। इस प्रकार से बहुत से अरब अपनी बेटियों को जीवित ही गाड़ दिया करते थे।
...वह समझ नहीं पाता था कि अपनी इस बेटी को अपमान स्वीकार करते हुए अपने पास रखे या फिर उसे ज़िन्दा ही ज़मीन में दफ़्न कर दे...
इस्लामी क्रांति के वरिष्ठ नेता आयतुल्लाहिल उज़मा सैयद अली खामेनई, अरब जगत में पैगम्बरे इस्लाम से पहले के दौर का ज़िक्र करते हुए कहते हैं कि " समाज में एक तरफ हर प्रकार की निरंकुशता थी तो दूसरी तरफ अपनी इच्छाओं का अनुसरण करने वाले निर्दयता और तबाही फैलाने में इस हद तक आगे बढ़ जाते थे कि जिस के बारे में कोई सोच भी नहीं सकता था यह लोग अपने बच्चों को ही मार डालते थे।"
अरब के आस पास के इलाक़ों में भी बहुत अच्छे हालात नहीं थे। उस दौर में ईरान और पूर्वी रोम का साम्राज्य था और तत्कालीन सभ्य समाज के यह दोनों बड़े साम्राज्य एक दूसरे के खिलाफ लड़ाई में व्यस्त थे। ईरानियों और रोमियों के मध्य सन 531 से 589 ईसवी तक चलने वाला युद्ध अनुशेरवान शासन से आरंभ हुआ और " खुसरो परवेज़" के शासन काल तक जारी रहा। चौबीस वर्षों तक चलने वाले इस युद्ध ने ईरान और रोम को भारी नुक़सान पहुंचाया । युद्ध के नतीजे में पैदा होने वाली समस्याओं और बड़े अफसरों के अत्याचार की वजह से जंग खत्म होते होते इन दोनों साम्राज्यों का बस नाम ही बचा था । प्रसिद्ध इतिहासकार " सईद नफीसी" ने ईरान के सामाजिक इतिहास पर लिखी गयी अपनी किताब " तारीखे एजतेमाई ईरान" में इस्लाम के उदय के समय ईरानियों की स्थिति के बारे में लिखा हैः
" ... जिस चीज़ ने ईरानियों के मध्य सब से अधिक फूट डाली थी वह दर अस्ल सासानी राजाओं द्वारा समाज का अत्याधिक क्रूर बंटवारा था अलबत्ता यह प्रचलन ईरानी समाज में सासानी काल से भी पहले से चला आ रहा था लेकिन सासानी काल में उसका रिवाज बढ़ गया। सब से पहले सात शाही परिवार थे । उनके बाद पांच वर्गों को कुछ सुविधाएं मिली थीं लेकिन आम जनता हर चीज़ से वंचित थी। " स्वामित्व" सिर्फ उन्ही सात परिवारों से विशेष था।"
दूसरी ओर पूर्वी रोम यानी बाइज़ेंटाइन साम्राज्य अरब जगत का दूसरा पड़ोसी था जो अपने समय में विश्व का सब से बड़ा और ताक़तवर साम्राज्य था लेकिन छठीं ईसवी सदी में " जस्टियन" के काल में रक्तरंजित घटनाओं में ग्रस्त था। इस रोमी सम्राट का एेश्वर्य पूर्ण जीवन उस काल के लोगों की दुखदायी परिस्थितियों को दर्शाता है। बाइज़ेंटाइन के लोगों ने जो अधिकांश ईसाई थे " जस्टियन " के काल में जो सत्ता को ईश्वर की धरोहर कहता था, अत्याधिक कठिन हालात का सामना किया।
इन हालात में इस्लाम का उदय हुआ और पूरी दुनिया को संदेश दिया कि वह ईश्वरीय संदेश के साथ आया है। इस संदेश से दुनिया बदल गयी। इस धर्म ने एकेश्वरवाद का नारा लगाया और लोगों के दिलों में उम्मीद की किरण जगायी। इस महान मिशन की बागडोर, पैगम्बरे इस्लाम हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहो अलैही व आलेही व सल्लम के हाथ में थी कि जिन्हें कुरआने मजीद ने प्रकाशमय चिराग़ की उपाधि दी है।
ईरान का तर्क वर्चस्ववादी मोर्चे के मुकाबले में डट जाना हैः इस्लामी क्रांति के सर्वोच्च नेता
आज गुरूवार को सर्वोच्च नेतृत्व का चयन करने वाली परिषद के अध्यक्ष और उसके सदस्यों ने इस्लामी क्रांति के सर्वोच्च नेता आयतुल्लाहिल उज़्मा सैयद अली ख़ामनेई से मुलाकात की।
इस मुलाकात में सर्वोच्च नेता ने कहा कि इस्लामी लोकतंत्र के गठन से पहले दुनिया में केवल पश्चिम की लिबरल डेमोक्रेसी से संबंधित डेमोक्रेसी मोर्चा मौजूद था परंतु इस्लामी क्रांति के सफल हो जाने के बाद इस्लामी लोकतंत्र पर आधारित नये मोर्चे का गठन हुआ जो स्वाभाविक रूप से पश्चिमी डेमोक्रेसी के मुकाबले में है।
इस्लामी क्रांति के सर्वोच्च नेता ने कहा कि ईरान में धार्मिक लोकतंत्र का सत्ता में आना पश्चिमी डेमोक्रेसी के हितों के खतरे में पड़ने का कारण बना। इसी प्रकार उन्होंने कहा कि उनके खतरा आभास करने का कारण यह था कि पश्चिमी डेमोक्रेसी के अस्तित्व व ज़ात में साम्रज्यवाद, अतिक्रमण और राष्ट्रों के अधिकारों पर अत्याचार, जंग, सीमारहित रक्तपात और सत्ता प्राप्त करने के लिए प्रतिबंधों को बहुत से एशियाई, अफ्रीकी और 19वीं शताब्दी में लैटिन अमेरिकी देशों में देखा जा सकता है।
ईरान की इस्लामी व्यवस्था क्यों वर्चस्ववादी शक्तियों का विरोधी है? इस सवाल के जवाब में सर्वोच्च नेता ने कहा कि इस्लामी ईरान दूसरे देशों, सरकारों और राष्ट्रों का अकारण विरोधी नहीं है बल्कि वह अत्याचार व अतिक्रमण का विरोधी है और वह जिस मोर्चे का विरोधी है उसके अंदर पश्चिमी डेमोक्रेसी मौजूद है।
सर्वोच्च नेता ने गज्जा पट्टी की दुःखदायी व हृदयविदारक घटनाओं को अत्याचारी मोर्चे के अत्याचार का स्पष्ट नमूना बताया और कहा कि इस्लामी गणतंत्र ईरान द्वारा विरोध वास्तव में इस प्रकार के अत्याचार व अपराध का विरोध है जबकि अमेरिका, ब्रिटेन और कुछ यूरोपीय देश इन अपराधों व अत्याचारों का समर्थन कर रहे हैं।
सर्वोच्च नेता ने कहा कि यह बात ज्ञात होनी चाहिये कि साम्राज्यवादी मोर्चा, अत्याचार, अतिक्रमण और हत्या को डेमोक्रेसी, मानवाधिकार और लिबरालिज़्म के नाम के नीचे छिपा रखा है। ईरान की इस्लामी क्रांति के सर्वोच्च नेता ने कहा कि इस्लामी गणतंत्र ईरान हमेशा साम्राज्यवाद से मुकाबले में अग्रणी रहा है और साम्राज्य से मुकाबले के ध्वज को हर रोज़ अधिक से अधिक विस्तृत होना चाहिये और किसी भी समय इस्लामी गणतंत्र ईरान से इस ध्वज को ले लिये जाने की अनुमति नहीं दी जानी चाहिये।
भारत ने मालदीव के पास खोला नया नौसैनिक अड्डा
भारत ने मालदीव के पास अपना "नया नौसैनिक अड्डा" खोल दिया है। भारत ने मालदीव से तनाव बढ़ने के बाद उसके पास अपना नया नौसैनिक अड्डा खोल दिया है।
अतीत में भारत के साथ मालदीव का परंपरागत रूप से घनिष्ठ संबंध रहा है मगर अक्टूबर में नए राष्ट्रपति मोहम्मद मुइज्जू के चुने जाने के बाद से संबंध बिगड़ गए हैं।
भारत ने मालदीव के पास अपना एक नया नौसैनिक अड्डा (नेवल बेस) बना दिया है, जहां से सभी तरह के समुद्री ऑपरेशन व युद्ध को अंजाम दिया जा सकता है। मालदीव और चीन दोनों वहां से भारत की जद में आ गए हैं। रॉयटर्स की एक रिपोर्ट के अनुसार भारत ने मालदीव और चीन में बढ़ती घनिष्ठता का जवाब देने के लिए यह बड़ा कदम उठाया है।
मालदीव से तनावपूर्ण संबंधों के बीच और बीजिंग पर नजर रखते हुए भारत ने बुधवार को यह नया नौसैनिक अड्डा खोला है।
ज्ञात रहे कि भारत ने मालदीव के करीब अपने हिंद महासागर द्वीप पर इस नए नौसैनिक अड्डे को खोला है। ऐसा माले के साथ तनावपूर्ण संबंध बने होने और चीन के साथ मालदीव की निकटता बढ़ने के मद्देनजर किया गया है।
लक्षद्वीप द्वीपसमूह के मिनिकॉय द्वीप पर यह नया नेवल बेस वर्षों से निर्माणाधीन था। अब इसे बुधवार को पूरा कर लिया गया। यह नौसैनिक अड्डा भारत के पश्चिमी तट पर सबसे दूर का बेस है। हालांकि दशकों से द्वीप पर नौसेना की छोटी टुकड़ी की उपस्थिति रही है। मगर भारत ने अब ऐसे वक्त में इसका उद्घाटन किया है जब मालदीव ने भारत पर अपने लगभग 80 सैनिकों को वापस बुलाने के लिए दबाव डाला है। यह सैनिक भारत ने दक्षिणी पड़ोसी राष्ट्र मालदीव को दिए गए तीन विमानों पर तकनीकी और चिकित्सा सहायता प्रदान करने के लिए तैनात किए थे।
रमज़ान अलमुबारक में मस्जिदों में इफ्तार टेबल लगाने पर रोक
सऊदी अरब के सफाई और सुरक्षा मंत्री ने रमज़ानुल मुबारक में मस्जिदों में इफ्तार टेबल लगाने पर माना कर दिया हैं।
हौज़ा न्यूज़ एजेंसी के अनुसार ,अरबी अलजरीरा का हवाला देते हुए सऊदी अरब ने खाना खाने के बाद मस्जिद क्षेत्र के अंदर सफाई की चिंताओं के कारण रमजान के पवित्र महीने से पहले मस्जिदों में इफ्तार की मेज पर प्रतिबंध लगा दिया है।
इस देश के इस्लामिक मामलों दावत और मार्गदर्शन के मंत्रालय ने एक बयान में घोषणा की कि स्वच्छता और स्वास्थ्य मुद्दों के कारण इफ्तार की योजना उनकी मस्जिदों के अंदर आयोजित नहीं की जानी चाहिए।
इस घोषणा में कहा गया है मंडलियों के इमामों और मुअज़्ज़िनों को मस्जिदों के प्रांगण में रोज़ा खोलने के लिए एक उपयुक्त जगह ढूंढनी चाहिए और इस उद्देश्य के लिए कोई अस्थायी कमरा या तम्बू नहीं बनाना चाहिए।
मंत्रालय ने इस बात पर भी जोर दिया कि मंडली के इमामों और मस्जिद मुअज्जिनों को इफ्तार कार्यक्रमों के लिए रोजेदारों से चंदा नहीं लेना चाहिए।
इन निषेधों के अलावा मस्जिद के अंदर कैमरों और फोटोग्राफी का उपयोग भी प्रतिबंधित है और ऑनलाइन मीडिया सहित किसी भी मीडिया में प्रार्थना प्रसारित करने की अनुमति नहीं है।
ज़ायोनी इलाक़ों पर हिज़बुल्लाह का बहुत बड़ा हमला
हिज़्बुल्लाह ने ज़ायोनी शासन की सामरिक बस्ती करियात शमूना पर दो कट्यूशा राकेटों और गाइडेड मिसाइलों से हमला किया। अफ़ीफ़ीम और कुछ दूसरी ज़ायोनी बस्तियों पर भी हिज़्बुल्लाह ने हमला किया।
यह हमला लेबनान के आवासीय क्षेत्रों पर ज़ायोनी शासन के हमलों के जवाब में किया गया। इस्राईली मीडिया ने एलान किया कि यह 2006 में होने वाले 33 दिवसीय युद्ध के बाद से अब तक का सबसे बड़ा हमला था।दक्षिणी लेबनान से इन ज़ायोनी बस्तियों पर 100 से अधिक मिसाइल फ़ायर किए गए।.....ज़ायोनी मीडिया के रिपोर्टर ने कहा कि हम नहीं चाहते कि 7 अक्तूबर जैसा हमला अब उत्तरी इलाक़ों में हो जाए। यहां सुरक्षा नाम की कोई चीज़ नहीं है किसी भी क्षण हिज़्बुल्लाह के मिसाइल गिरते हैं। हिज़्बुल्लाह ने अपने हमले जारी रखते हुए ज़ायोनी सैनिकों के एकत्रित होने की चार जगहों पर हमले किए। तैहात टीले पर ज़ायोनी सेना के दो मिरकावा टैंक भी हिज़्बुल्लाह के हमले का निशाना बने। शबआ और कफ़र शूबा में भी ज़ायोनी सेनाओं के ठिकानों पर हिज़्बुल्लाह के राकेट गिरे।....दक्षिणी लेबनान के एक नागरिक ने बहादुरी का परिचय देते हुए कहा कि हमारे इलाक़ों पर ज़ायोनी सेना के हमले होते हैं लेकिन हम अपने इलाक़ों को छोड़ने वाले नहीं हैं। हिज़्बुल्लाह ज़ायोनियों से हर हमले का इंतेक़ाम लेने में पूरी तरह सक्षम है।....दक्षिणी लेबनान में आठ जगहों पर ज़ायोनी सेना के युद्धक विमानों ने हमले किए। हौला पर इस बमबारी में एक परिवार के तीन लोग शहीद हो गए। एक अन्य हमले में चार लोग घायल हो गए। हिज़्बुल्लाह ने कहा है कि दक्षिणी लेबनान के आवासीय इलाक़ों पर ज़ायोनी सेना के हमलों के जवाब में हिज़्बुल्लाह ने कहा है मक़बूज़ा उत्तरी फ़िलिस्तीन के इलाक़ों में ज़ायोनी बस्तियों पर हमलों का दायरा बढ़ाया जाएगा।
चिली ने एयरोस्पेस प्रदर्शनी से ज़ायोनी शासन को हटाने की घोषणा की
चिली सरकार ने लैटिन अमेरिका की मुख्य एयरोस्पेस और रक्षा प्रदर्शनी से ज़ायोनी शासन की कंपनियों को हटाने की घोषणा की है।
ज़ायोनी कंपनियों को इस प्रदर्शनी से बाहर करने का मतलब इस्राईल और उसके समर्थकों विशेष रूप से अमरीका को बड़ा झटका लगा है।
7 अक्टूबर, 2023 से ग़ज़ा पट्टी पर ज़ायोनी सेना के हमलों में 30,717 फ़िलिस्तीनी शहीद और 72,156 अन्य घायल हो गए हैं। इन हमलों की दुनिया भर में व्यापक निंदा के बावजूद, ग़ज़ा में निर्दोष फ़िलिस्तीनियों पर हमले जारी हैं और उन्हें जानबूझकर भूखमरी का शिकार होने के लिए छोड़ दिया गया है।
फ्रांस प्रेस की रिपोर्ट के अनुसार, चिली के रक्षा मंत्रालय ने बुधवार को एक बयान जारी करके बताया कि चिली सरकार के निर्णय के बाद, 9 से 14 अप्रैल तक आयोजित होने वाली अंतर्राष्ट्रीय वायु और अंतरिक्ष प्रदर्शनी 2024, इस्राईली कंपनियों को बाहर का रास्ता दिखा दिया गया है।
हाल ही में, चिली उन देशों के समूह में शामिल हो गया है, जिन्होंने अंतर्राष्ट्रीय आपराधिक न्यायालय से ग़ज़ा पट्टी में ज़ायोनी शासन के युद्ध अपराधों की जांच की मांग की है।
ईरानी सहायता ग़ज़ा तक पहुंचने से रोक रहा है इस्राईल
ईरानी रेड क्रिसेंट सोसाइटी के प्रमुख का कहना कि ग़ज़ा में पीड़ित फ़िलिस्तीनियों और विस्थापितों की मदद के लिए ईरान द्वारा भेजी गई 10 हज़ार टन खाद्य सामग्री और दवाईयों में से सिर्फ़ 25 फ़ीसद को ही ग़ज़ा में प्रवेश की अनुमति दी गई है।
इस्लामी गणतंत्र ईरान की रेड क्रिसेंट सोसाइटी के प्रमुख पीर हुसैन कूलीवंद ने बुधवार को कहा कि ज़ायोनी शासन ग़ज़ा में पीड़ितों तक मानवीय सहायता के मार्ग में रुकावटें डाल रहा है।
उन्होंने कहा कि वह सहायता को भी दंडात्मक कार्यवाही के रूप में उपयोग कर रहा है। उन्होंने यह भी बताया कि ईरान ने अवैध ज़ायोनी शासन के 90 अपराधों को सूचिबद्ध किया है और इस संबंध में अंतर्राष्ट्रीय अदालत को एक पत्र लिखा है।
ग़ौरतलब है कि ग़ज़ा में युद्ध अपराधों और नरसंहार समेत 90 अपराधों के शिकायत पत्र पर अब तक 86 देश हस्ताक्षर कर चके हैं।
ईरान की रेड क्रिसेंट सोसाइटी के प्रमुख ने ग़ज़ा युद्ध में फ़िलिस्तीनियों के नरसंहार और मानवीय अधिकारों के हनन के विषय पर तेहरान में एक अंतरराष्ट्रीय कांफ़्रेंस आयोजित करने की घोषणा भी की।