رضوی

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तालेबान की सरकार के सेना प्रमुख ने अमरीकी क्रियाकलापों की कड़ी आलोचना की है।

तालेबान इस बात को लेकर काफ़ी नाराज़ हैं कि अमरीकी विमान, अफ़ग़ानिस्तान की वायुसीमा का उल्लंघन कर रहे हैं।

तालेबान की सरकार में सेना प्रमुख का पद संभालने वाले क़ारी फ़सीहुद्दीन फ़ितरत ने बताया है कि अफ़ग़ानिस्तान की वायुसीमा अब भी अमरीकी अतिक्रमण का शिकार है।  उन्होंने कहा कि अमरीका के चालक रहित विमान, आए दिन अफ़ग़ानिस्तान की वायुसीमा का उल्लंघन करते रहते हैं।

फ़सीहुद्दीन ने किसी भी देश का नाम लिए बिना कहा कि अमरीकी विमान हमारे एक पड़ोसी देश की सीमा से अफ़ग़ानिस्तान की वायुसीमा में प्रविष्ट होते हैं।  इस घटना से पहले तालेबान सरकार में विदेश उपमंत्री के पद पर आसीन शीर मुहम्मद ने भी शिकायत की थी कि अमरीका के चालक रहित विमान, सामान्यतः अफ़ग़ानिस्तान की वायु सीमा का उल्लंघन करते रहते हैं जिनको रोका जाना चाहिए।

याद रहे कि बीस वर्षों तक अफ़ग़ानिस्तान में अवैध रूप से विराजमान रहने के बाद अमरीका को बहुत ही बेइज़्ज़त होकर अगस्त 2021 में अफ़ग़ानिस्तान से वापस जाना पड़ा था।  अफ़ग़ानिस्तान से विदित रूप में वापस जाने के बावजूद अमरीका अब भी इस देश का पीछा नहीं छोड़ रहा है।  इस बात की अक्सर रिपोर्टें आती रहती हैं कि किसी न किसी बहाने अमरीका, अफ़ग़ानिस्तान के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप करता रहता है।

 

 

ओआईसी का कहना है कि अन्तर्राष्ट्रीय न्यायालय के आदेश को लागू करवाने के लिए ज़ायोनी शासन पर दबाव बनाया जाए।

इस्लामी देशों के संगठन ओआईसी के महासचिव ने मांग की है कि इस्राईल के हाथों फ़िलिस्तीनियों के जनसंहार के बारे में अन्तर्राष्ट्रीय न्यायालय के आदेश को लागू करवाने के लिए विश्व के देशों को अवैध ज़ायोनी शासन पर दबाव डालना चाहिए।

हुसैन इब्राहीम ताहा ने कहा कि ग़ज़्ज़ा पर ज़ायोनियों के हमलों में लगातार वृद्धि हो रही है।  यह शासन, सारे ही अन्तर्राष्ट्रीय नियमों का उल्लंघन करते हुए फ़िलिस्तीनियों के विरुद्ध मानवता विरोधी अपराध कर रहा है।  फ़िलिस्तीनी पलायनकर्ताओं की सहायता करने वाली संस्था की अमरीका सहित कुछ पश्चिमी देशों की ओर से सहायता रोके जाने की ओआईसी महासचिव ने कड़ी निंदा की।  उन्होंने कहा कि यह काम वास्तव में फ़िलिस्तीनियों के विरुद्ध एक षडयंत्र जैसा है।

सऊदी अरब के जद्दा नगर में फ़िलिस्तीन के मुद्दे पर आयोजित होने वाली ओआईसी के विदेश मंत्रियों की बैठक में दक्षिण अफ्रीका की ओर से इस्राईल की निंदा के लिए तैयार किये गए प्रस्ताव का समर्थन करते हुए इस अवैध शासन को दंडित किये जाने की मांग की गई।

सात अक्तूबर वाले अलअक़सा तूफ़ान नामक आपरेशन से बौखलाए ज़ायोनी शासन ने ग़ज्ज़ा पर हमलें आरंभ कर रखे हैं जो लगभग पिछले पांच महीनों से जारी हैं।  इन हमलों में अबतक 30500 से अधिक फ़िलिस्तीनी शहीद हो चुके हैं जबकि घायल फ़िलिस्तीनियों की संख्या लगभग 72 हज़ार हो चुकी है। 

अमरीका में रूस के राजदूत ने नेटो के साथ उनके देश की संभावित झड़प के प्रति सेचत किया है।

एनातोली एंतोनोफ़ ने सचेत करते हुए कहा है कि पूर्वी यूरोप में रूस तथा नेटो के बीच संशस्त्र झड़प का ख़तरा बढ रहा है।

रूस के दूतावास की वेबसाइट पर अमरीका में रुस के राजदूत ने लिखा है कि कुछ समय पहले तक इस बात की कल्पना तक नहीं की जा सकती थी कि अमरीका और जर्मनी के टैंक, रूस के एक पड़ोसी देश के भीतर मौजूद होंगे।

बाद में यह पता चला कि पश्चिम ने यूक्रेन की सेना की इसलिए सहायता की है कि अत्याधुनिक एवं बहुत मंहगे हथियारों से लक्ष्यों को भेदा जाए।  अब युद्ध अभियानों में नेटो के सैनिकों की भागीदारी के बारे में बातें की जा रही हैं।  अमरीका में मौजूद रूस के राजदूत ने कहा कि यह काम, वाशिंगटन की सहमति के बिना संभव नहीं है।  एनातोली ने बताया कि युद्धप्रेमी, विश्व जनमत को धोखा देकर संसार को विश्व युद्ध की ओर बढ़ा रहे हैं।  इस प्रकार के लोग आम लोगों की आकांक्षओं को अनदेखा करते हैं।

इससे पहले रूस के पूर्व राष्ट्रपति और वहां के वर्तमान राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद के प्रमुख देमेत्री मेदवेदेव ने कहा था कि अपनी सीमा की ओर नेटो के विस्तार को रोकने के लिए रूस ने सुरक्षा के पुख़्ता इंतेज़ाम किये हैं।

वृक्षारोपण दिवस और प्राकृतिक संसाधन सप्ताह पर इस्लामी इंक़ेलाब के नेता 3 पौधे लगाएइस्लामी इंक़ेलाब के नेता आयतुल्लाहिल उज़मा ख़ामेनेई ने प्राकृतिक संसाधन सप्ताह और वृक्षारोपण दिवस पर मंगलवार की सुबह 3 पौधे लगाए।

ईरान की इस्लामी क्रांति के सर्वोच्च नेता ने पहली मार्च को होने वाले चुनावों में मतदान केन्द्रों पर जनता की उपस्थिति की सराहना की और कहा कि चुनावों में ईरानी जनता की उपस्थिति एक सामाजिक और सांस्कृतिक दायित्व और एक जेहाद था।

आयतुल्लाहिल उज़्मा सैयद अली ख़ामनेई ने आज मंगलवार को तीन अदद वृक्षारोपण के बाद कहा कि दुश्मनों ने लगभग एक वर्ष तक प्रचार किया ताकि लोगों को चुनावों में भाग लेने से दूर रख सकें और चुनावों में गहमा- गहमी न हो परंतु लोगों ने पहली मार्च को होने वाले चुनावों में भाग लेकर दुश्मनों के प्रयासों को विफल बना दिया। इस आधार पर ईरानी राष्ट्र का यह प्रयास एक जेहाद था। इसी प्रकार सर्वोच्च नेता ने चुनावों से जुड़े अधिकारियों व ज़िम्मेदारों की प्रशंसा व सराहना की।

इस्लामी क्रांति के सर्वोच्च नेता ने इसी प्रकार सीस्तान व बलोचिस्तान प्रांत के दक्षिणी भागों और दक्षिण पूर्व ईरान में आने वाली बाढ़ और उससे लोगों को होने वाली क्षति की ओर संकेत किया और बल देकर कहा कि सरकारी और गैर सरकारी सतह पर जो सहायता व राहत कार्य हो रहे हैं उन्हें जारी रहना चाहिये और जो लोग सहायता कर सकते हैं उन्हें सहायता करना चाहिये।

इस्लामी क्रांति के सर्वोच्च नेता ने इसी प्रकार वृक्षारोपण दिवस की ओर संकेत किया और वृक्ष को मुनाफे वाली पूंजी का नाम दिया और कहा कि वृक्ष के बहुत फायदे हैं जैसे ऑक्सीजन में वृद्धि और प्रदूषण से मुकाबला इस आधार पर वृक्ष एक मुनाफे वाली पूंजी है। इस्लामी क्रांति के सर्वोच्च नेता ने प्रकृति और इंसान के संबंध और प्रकृति के ध्यान रखने पर इस्लाम के दृष्टिकोण की ओर संकेत किया और कहा कि फिलिस्तीन के मज़लूम लोगों से एकजुटता की घोषणा करने के लिए जो तीन वृक्ष लगाये उनमें से एक ज़ैतुन का वृक्ष था। इस्लामी इंक़ेलाब के नेता अपने कार्यालय के अहाते में जो तीन पौधे लगाए उनमें से एक, फ़िलिस्तीनी राष्ट्र के बेमिसाल प्रतिरोध की याद में ज़ैतून का पौधा था, जबकि दूसरे दो में एक सर्व और एक फल देने वाले पेड़ का पौधा था।

ज्ञात रहे कि पांच से 12 मार्च तक ईरान में "प्राकृतिक स्रोत सप्ताह" के रूप में मनाया जाता है और पहले दिन को यानी पांच मार्च को वृक्षारोपण दिवस के रूप में मनाया जाता है।

मंगलवार, 05 मार्च 2024 17:05

इस्लाम में बाल अधिकार- 2

बचपन शुरु होने के बारे में देशों के दृष्टिकोण को दो या तीन गुटों में बांटा जा सकता है।

पहला गुट उन देशों का है जो बचपन का आरंभ गर्भाधारण के समय से मानते हैं। जैसे लैटिन अमरीकी देश, आयरलैंड और वेटिकन। जैसा कि इस बात की ओर इशारा हुआ कि बाल अधिकार कन्वेन्शन के मसौदे के संकलन के समय इस विषय पर मसौदा तय्यार करने वाले देशों के बीच गंभीर बहस हुयी थी। ये देश इस बिन्दु पर बल देते हैं कि बच्चा दुनिया में आने से पहले जीवन रखता है इसलिए ज़रूरी है कि क़ानूनी दृष्टि से उसका समर्थन हो। जैसे अर्जेन्टिना ने बाल अधिकार कन्वेन्शन के पहले अनुच्छेद में कहा हैः "बच्चा शब्द का अर्थ हर इंसान पर गर्भाधारण के क्षण से 18 साल की उम्र तक लागू होता है।"

यह दृष्टिकोण अर्जेन्टिना के नागरिक क़ानून से प्रेरित है जिसमें आया हैः "इंसान का वजूद गर्भाधारण से शुरु हो जाता है और हर व्यक्ति पैदाइश से पहले स्पष्ट व निर्धारित अधिकार का उसी तरह स्वामी हो सकता है जिस तरह वह पैदाइश के बाद होता है। अगर गर्भ में मौजूद भ्रूण जीवित पैदा हो तो उक्त अधिकार उसके लिए हमेशा रहेंगे चाहे पैदाइश के समय उसे उसकी मां से अलग कर दिया जाए।"

दूसरा दृष्टिकोण बाल अधिकार कन्वेन्शन के संकलन के समय अमरीका ने पेश किया। अमरीकी सुप्रीम कोर्ट के अनुसार, बचपन उस समय शुरू होगा जब यह स्पष्ट हो जाए कि बच्चा पैदा होने के बाद ज़िन्दा बाक़ी रहेगा। उक्त दृष्टिकोण में न तो पैदाइश को बचपन का आरंभ माना गया है और न ही गर्भाधारण को बल्कि इस दृष्टिकोण के अनुसार, बचपन का अर्थ उस समय लागू होगा जब बच्चे का ज़िन्दा बाक़ी रहना स्पष्ट हो जाए, तब उसी क्षण से बच्चा अधिकार का स्वामी होगा। अमरीका के क़ानून में गर्भ के बाक़ी रहने की क्षमता उस समय व्यवहारिक मानी जाएगी जब यह कहा जा सके कि भ्रूण मां के पेट से निकल कर जीवित रह सकता है और डॉक्टरों का मानना है कि यह स्थिति उस समय पैदा होती है जब भ्रूण 7 महीने का हो जाता है।

इस बारे में एक और दृष्टिकोण है जो ज़्यादातर पश्चिमी देशों में प्रचलित है। इस दृष्टिकोण के अनुसार, बचपन बच्चे के पैदा होते ही शुरू होता है। बाल अधिकार कन्वेन्शन के मसौदे के लिए पोलैंड द्वारा पेश योजना में स्पष्ट शब्दों में आया हैः "इंसान का बचपन पैदा होने के क्षण से शुरू होता है।"              

फ़्रांस में भी भ्रूण के अधिकार के लिए दो शर्त मद्देनज़र रखी गयी है। एक भ्रूण का जीवित पैदा होना और दूसरा उसमें ज़िन्दा बाक़ी रहने की क्षमता। लेकिन जर्मनी में नागरिक अधिकार के पहले अनुच्छेद और स्वीज़रलैंड में नागरिक अधिकार क़ानून के अनुच्छेद 31 में भ्रूण के ज़िन्दा बाक़ी रहने की शर्त नहीं है बल्कि ईरान में बाल अधिकार की तरह, बच्चा ज़िन्दा पैदा होते ही अधिकार का स्वामी बन जाता है चाहे वह विकलांग या समय पूर्व पैदा हुआ हो। इटली में बाल अधिकार में भ्रुण का जीवित दुनिया में आना अधिकार से संपन्न होने के लिए काफ़ी नहीं है बल्कि ज़िन्दा बाक़ी रहना ज़रूरी है। अगर भ्रुण जीवित दुनिया में आए लेकिन किसी कारण से जीवित न रह सके और थोड़े ही समय बाद मर जाए, तो वह किसी अधिकार का मालिक नहीं हो सकता।

स्पेन के नागरिक अधिकार क़ानून में भ्रूण के अधिकार से संपन्न होने के संबंध में अलग शर्त है। इस क़ानून के अनुसारः "बच्चा इंसानी शक्ल में हो और मां के पेट से निकलने के बाद 24 घंटे ज़िन्दा रहे।"

ये जो शर्तें हैं कि बच्चा ज़िन्दा पैदा हो या पैदा होने के बाद ज़िन्दा बाक़ी रहने के योग्य हो, इनसे यह बात समझ में आती है कि बच्चा भ्रूण का रूप धारण करने के समय से कुछ अधिकार का स्वामी होता है यह अलग बात है कि ये अधिकार अस्थायी हैं।

स्वीडन, डेनमार्क, ब्रिटेन और ऑस्ट्रिया जैसे देशों के क़ानून में भ्रूण के जीवित रहने के अधिकार को माना गया है और किसी सीमा तक इसका समर्थन किया गया है। इसके साथ ही भ्रुण के जीवन के आरंभिक चरण में गर्भपात को भी क़ुबूल किया गया है। मिसाल के तौर पर फ़्रांस के 1974 के क़ानून के अनुच्छेद 40 में गर्भाधारण के 7 हफ़्ते और अमरीका में गर्भाधारण के समय से 6 महीने तक गर्भपात की इजाज़त दी गयी है।

गर्भ ठहरने के समय से भ्रुण के लिए जीवित रहने के अधिकार को मान्यता दिए जाने के मद्देनज़र उसके जीवन पर अतिक्रमण नहीं होना चाहिए क्योंकि यह उसका मूल अधिकार है। भ्रूण के जीवित रहने, मीरास पाने, वसीयत, वक़्फ़ और उसे पहुंचने वाले नुक़सान के बदले में हर्जाने के अधिकार से संपन्न होने के मद्देनज़र यह दावा किया जा सकता है कि भ्रूण का भी वास्तविक व्यक्तित्व होता और वह अधिकार से संपन्न होता है। बच्चे के पैदा होने से यह सच्चाई स्पष्ट होती है कि बच्चा आरंभ से अधिकार से संपन्न था।   

बचपन की समाप्ति भी बाल अधिकार की समीक्षा की नज़र से बहुत अहम है क्योंकि इससे बच्चे के अधिकार से संपन्न होने की सीमा भी स्पष्ट होती है। दुनिया के बहुत से देशों में बचपन की समाप्ति की उम्र 18 साल मानी गयी है अलबत्ता कुछ देशों में यह उम्र 19 और 21 भी मानी गयी है।

अमरीका के ज़्यादातर राज्यों में बचपन की समाप्ति की उम्र 18 साल मानी गयी है। कुछ राज्यों में वयस्कता की उम्र 19 और 21 मानी गयी है। फ्रांस में 13 साल से कम उम्र के बच्चे को दंडात्मक धारा से अपवाद रखा गया है और 13 से 18 साल तक की उम्र को भी बचपन कहा गया है लेकिन अपराध करने की स्थिति में उन्हें दंडित भी किया जाएगा लेकिन उन्हें दंडित किए जाने की शैली वयस्क लोगों से अलग है। जर्मनी में 21 साल को बचपन की समाप्ति की उम्र माना गया है। अलबत्ता अगर बच्चा 14 से 21 के बीच कोई जुर्म करता है तो उसे दंडित किया जाएगा  लेकिन वयस्क की तुलना में उसे दंडित करने की शैली अलग है। कुवैत, मिस्र, सीरिया, जॉर्डन, लेबनान और सऊदी अरब में बपचन की समाप्ति की उम्र 18 साल है। इन देशों में 7 साल से कम उम्र के बच्चे हर तरह की ज़िम्मेदारी से दूर हैं जबकि 7 से 18 साल के बीच के बच्चे अपेक्षाकृत ज़िम्मेदारी रखते हैं। बहरैन के क़ानून में बच्चा उसे कहते हैं जिसकी उम्र जुर्म करते वक़्त 15 साल को पार न की हो। मोरक्को के क़ानून के अनुसार, 12 साल से कम उम्र के बच्चे के ख़िलाफ़ दंडात्मक धारा लागू नहीं होगी और बचपन की उम्र 18 साल मानी गयी है। कैनडा में बचपन की समाप्ति की उम्र 19 साल है।

दक्षिणी अम्रीका के क़ानूनी तंत्र में 7 साल से कम उम्र के बच्चों पर किसी तरह की ज़िम्मेदारी नहीं है जबकि 7 से 14 साल के बीच के बच्चे दंडात्मक धारा से मुक्त हैं मगर यह कि न्यायवादी यह साबित कर सके कि अमुक बच्चा अपराध के समय अच्छे और बुरे में अंतर करने की क्षमता रखता था और उसने जान बूझ कर कृत्य किया है। इस स्थिति में उसके ख़िलाफ़ क़ानूनी कार्यवाही हो सकती है। स्वीज़रलैंड में इस देश के संविधान की धारा 64 के अनुसार, प्रांतों को 7 से 18 साल की उम्र के बच्चों के ख़िलाफ़ क़ानूनी कार्यवाही का अधिकार दिया गया है।

ब्रिटेन के क़ानूनी तंत्र में बच्चों को तीन हिस्सों में बांटा गया है। पहला गुट उन बच्चों का है जिनकी उम्र 10 साल से कम है। 1933 में बच्चों और नौजवानों से संबंधित पारित क़ानून में आया है कि इस उम्र के बच्चों के ख़िलाफ़ दंडात्मक धारा लागू नहीं होगी। दूसरा गुट उन बच्चों का है जिनकी उम्र 10 से 14 के बीच है। इस उम्र के बच्चे 1988 तक इस स्थिति में क़ानूनी कार्यवाही के पात्र बनते अगर मुक़द्दमा चलाने वाला यह साबित कर पाता कि बच्चे ने भलाई और बुराई को समझने के बावजूद जान बूझकर अपराध किया है। लेकिन 1988 में पारित विशेष क़ानून में उक्त मान्यता रद्द हो गयी। तीसरा गुट उन बच्चों का है जिनकी उम्र 14 से 18 साल है। इस उम्र के बच्चों के ख़िलाफ़ बड़ों की तरह क़ानूनी धारा लागू होगी लेकिन उनके ख़िलाफ़ कार्यवाही की शैली अलग है। इसमें उनके प्रशैक्षिक सुधार पर ख़ास तौर पर बल दिया गया है।        

बहरहाल इन सब बातों से यह बात स्पष्ट होती है कि बचपन की समाप्ति के लिए कोई उम्र निर्धारित होनी चाहिए।

 

 

मंगलवार, 05 मार्च 2024 17:03

क़ुरआनी क़िस्सेः 1

यहूदी दुनिया को दो भागों में बांटते हैं, इस्राईल-ग़ैर इस्राईल

एतिहासिक प्रमाण बताते हैं कि हज़रत दाऊद और हज़रत सुलैमान अलैहिमुस्सलाम के दौर में यहूदी, सत्ता के चरम पर थे।

इस प्रकार कहा जा सकता है कि यहूदी इस काल में सत्ता की दृष्टि से अबतक के सबसे शिखर पर थे।  वे तत्कालीन विश्व के महत्वपूर्ण क्षेत्रों पर हुकूमत किया करते थे।  ईश्वर के इन दोनो दूतों के काल के बाद फिर कभी भी यहूदियों को इस प्रकार का वैभव हासिल नहीं हो पाया।  प्राचीन किताबों के अनुसार हज़रत सुलैमान का शासन क्षेत्र, बहुत ही विस्तृत था।  फोरात नदी के किनारे बसने वाले तत्कालीन सारे ही देश उनकी सत्ता के अधीन थे।  इन क्षेत्रों के राजा,  हज़रत सुलैमान की आज्ञा का पालन किया करते थे।  यही कारण है कि यहूदियों का मानना है कि यह सब यहूदियों को ईश्वर की ओर से एक उपहार था।  वे स्वयं को ईश्वर का निकट का मित्र बताया करते थे।  यही कारण था कि यहूदी यह मानते थे कि पूरी दुनिया में हुकूमत करने का अधिकार केवल यहूदियों को ही है।

आदिकाल से ही यहूदी स्वयं को संसार की सबसे विशिष्ट जाति मानते रहे हैं।  उनकी यह सोच आज भी  है। यहूदियों के अनुसार पूरे संसार पर शासन करने का अधिकार केवल यहूदी जाति को ही प्राप्त है।  तौरेत और तलमूद नामक किताबों में "चुनी हुई क़ौम" शब्द कई बार आया है।  यही कारण है कि यहूदी स्वयं को चुनी हुई क़ौम मानते हैं।  वे संसार को इस्राईल और ग़ैर इस्राईल जैसे दो भागों में बांटते हैं।  उनका मानना है कि इस्राईल अर्थात यहूदियों को संसार की अन्य जातियों पर वरीयता प्राप्त है। यह अनुचित भावना आज भी यहूदियों के भीतर भरी हुई है। यही कारण है कि जब पैग़म्बरे इस्लाम ने यहूदियों को इस्लाम का निमंत्रण दिया और ईश्वरीय दंड से डराया तो यहूदियों ने कहा था कि हमें मत डराओ।  यहूदियों तथा इसाइयों ने कहा कि हम ईश्वर के पुत्र और उसके मित्र हैं।  अगर ईश्वर हमसे नाराज़ भी होगा तो वैसा ही है जैसे कोई बाप अपने बच्चे से होता है।  अर्थात थोड़ी देर के बाद उसका ग़ुस्सा ख़त्म हो जाता है।

इस्लामी शिक्षाओं के अनुसार दुनिया के सारे ही लोग एक समान हैं।  किसी भी व्यक्ति को किसी अन्य की तुलना में वरीयता हासिल नहीं है।  यही कारण है कि क़ुरआन के हिसाब से कोई व्यक्ति या कोई जाति किसी दूसरे पर वरीयता नहीं रखती।  धार्मिक विचारधारा के अनुसार किसी भी व्यक्ति को किसी पर श्रेष्ठता की दृष्टि से पैदा नहीं किया गया है।  इन बातों के विपरीत यहूदियों का यह मानना है कि वे सबसे अलग हैं और उनकी जाति संसार की सभी जातियों पर वरीयता रखती है जो ईश्वर के बहुत निकट है।  अर्थात ईश्वर उनको बहुत मानता है।  अब अगर कोई यहूदी कोई पाप करता है तो ईश्वर उसको हल्का सा दंड देकर माफ कर देगा जबकि यह सोच पूरी तरह से ग़लत है जो सत्य के मार्ग की सबसे बड़ी बाधा है।

निश्चित रूप में एसी घमण्डी जाति कभी भी किसी एसे व्यक्ति को ईश्वरीय दूत के रूप में स्वीकार नहीं करेगी जिसका संबन्ध उसकी जाति से न हो।  पैग़म्बरे इस्लाम (स) के आगमन से पहले यहूदी, एसे ईश्वरीय दूत की प्रतीक्षा कर रहे थे जो हज़रत सुलैमान के काल को वापस लाए और यहूदियों को उनकी पुरानी स्थिति में पहुंचा दे।  इस प्रकार से वे फिर से पूरी दुनिया पर राज करने लगें।  यही कारण था कि यहूदी, मक्के वालों से कहा करते थे कि भविष्य के हेजाज़ में ईश्वर का दूत आएगा जिसकी सहायता से हम पूरी दुनिया पर फिर से हुकूमत करेंगे।  जब उनको यह पता चला कि जो ईश्वरीय दूत आया है उसका संबन्ध हज़रत इस्माईल की नस्ल से है, तो यह सुनकर वे बहुत दुखी हुए।  हालांकि यहूदी अगर वास्तव में तौरेत को मानते तो फिर उनको पैग़म्बरे इस्लाम पर ईमान लाना चाहिए था किंतु उन्होंने ज़िद में एसा नहीं किया।  यही कारण था कि यहूदियों ने खुलकर पैग़म्बरे इस्लाम का विरोध शुरू कर दिया।

बहुत सी एतिहासिक घटनाओं को अनेदखा करते हुए यहूदियों ने कभी भी इस्लाम का अनुसरण नहीं किया।  उन्होंने कभी भी अपनी ग़लती नहीं मानी और अपनी बुराइयों को ईश्वर से जोड़ दिया।  इस संबन्ध में ईश्वर सूरे माएदा की 64वीं आयत में कहता हैः और यहूदियों ने कहा कि ईश्वर के हाथ बंधे हुए हैं जबकि वास्तव में स्वयं उन्हीं के हाथ बंधे हुए हैं और अपने इस कथन के कारण उनपर धिक्कार हुई। बल्कि ईश्वर के हाथ खुले हुए हैं और वह जिस प्रकार चाहता है, प्रदान करता है। और जब भी अपने पालनहार की ओर से आप पर कोई आदेश उतारता है तो अधिकांश यहूदियों में ईमान के स्थान पर उनकी उद्दंडता और कुफ़्र में निश्चित रूप से वृद्धि हो जाती है और हमने (उनकी इसी भावना के कारण) उनके बीच प्रलय तक के लिए द्वेष व शत्रुता डाल दी है। जब भी उन्होंने युद्ध की आग भड़कानी चाही, ईश्वर ने उसे बुझा दिया और वे धरती में बुराई तथा तबाही फ़ैलाना चाहते हैं और ईश्वर बुराई फैलाने वालों को पसंद नहीं करता।

यह आयत ईश्वर के बारे में यहूदियों की एक ग़लत धारणा और उनके अनुचित कथन की ओर संकेत करती है।  यहूदियों का विचार था कि सृष्टि के आरंभ में ईश्वर के हाथ खुले हुए थे और वह जिसे जो चाहता था प्रदान करता था परन्तु धीरे-धीरे उसकी शक्ति समाप्त होती गई और मनुष्य, का इरादा ईश्वर की इच्छा से प्रबल हो गया। यह ग़लत धारणा उनके बीच बहुत अधिक प्रचलित हो गई थी।  आगे चलकर आयत कहती है कि इस प्रकार की ग़लत आस्थाएं, यहूदियों के बीच द्वेष और शत्रुता फैलाने का कारण बनीं यहां तक कि वे आसमानी किताब रखने वालों और इस्लाम के अनुयाइयों से भी युद्ध करके, उन्हें पराजित करने के बारे में सोचने लगे। परन्तु इस्लाम के आरम्भिक दिनों में यहूदियों ने युद्ध की जो आग भड़काई, ईश्वर ने उसका अंत मुसलमानों के हित में किया। ख़ैबर के युद्ध में यहूदियों की पराजय इसका सबसे अच्छा उदाहरण है।  यह आयत बताती है कि ईश्वर को हर प्रकार के अवगुण, दोष और कमी से मुक्त समझना ही ईमान की शर्त है।  बुराई फैलाना और युद्ध की आग भड़काना, पूरे इतिहास में यहूदियों की विशेषता रही है परन्तु वे कभी भी ईश्वर के इरादे पर नियंत्रण नहीं पा सके।

सूरे माएदा की 70वीं आयत में ईश्वर कह रहा हैः निःसन्देह, हमने बनी इस्राईल से परीक्षा ली और उनकी ओर पैग़म्बर भेजे, तो जब भी कोई पैग़म्बर उनकी आंतरिक इच्छाओं के विरुद्ध कोई आदेश लेकर आता तो वे कुछ पैग़म्बरों को झुठला देते और कुछ की हत्या कर दिया करते थे।

इस आयत की व्याख्या में बताया गया है कि जब हज़रत मूसा अलैहिस्सलाम ने बनी इस्राईल को अत्याचरी फ़िरऔन के अत्याचारों से मुक्ति दिलाकर उन्हें स्वतंत्र करा दिया तो ईश्वर की आज्ञा से उन्होंने बनी इस्राईल से वचन लिया कि वे ईश्वरीय आदेशों का पालन करते हुए उनपर कटिबद्ध भी रहेंगे। बनी इस्राईल ने यह बात स्वीकार कर ली। परन्तु उन्होंने इस वचन को तोड़ दिया। जैसा कि क़ुरआने मजीद की अन्य आयतों में कहा गया है कि उन्होंने अपने इस वचन को तोड़ दिया।  उन्होंने न केवल ईश्वरीय आदेशों का उल्लंघन किया बल्कि ईश्वर के पैग़म्बरों को इस अपराध के बदले में झुठला दिया कि वे उनकी आंतरिक इच्छाओं के विरुद्ध आदेश लेकर आए हैं उन्होंने यहां तक कि कुछ ईश्वरीय दूतों की हत्या भी कर दी। यह आयत मुसलमानों के लिए एक चेतावनी है कि वे अपने उत्तराधिकारियों के बारे में पैग़म्बरे इस्लाम (स) की सिफ़ारिशों को भुला न दें। यह आयत बताती है कि काफ़िरों की ओर से पैग़म्बरे की पैग़म्बरी का इन्कार, बुद्धि तथा तर्क के आधार पर नहीं है। इन विरोधों का असली कारण यह है कि मनुष्य चाहता है कि उसका मन जो चाहे वही करे और वह अपनी ग़लत आंतरिक इच्छाओं की पूर्ति में स्वतंत्र रहे, जबकि ईश्वरीय धर्म, मनुष्य की इच्छाओं और भावनाओं को नियंत्रित करता है ताकि मनुष्य के मानवीय पहलू, प्रगति करके पूर्ण हो जाएं।  ग़लत समाजों में पवित्र और भले लोगों के व्यक्तित्व की हत्या की जाती है अर्थात उन्हें झुठलाया जाता है या फिर उनकी हत्या कर दी जाती है।

सूरे माएदा की 66वीं आयत में ईश्वर कह रहा है कि और यदि वे तौरेत, इंजील और जो कुछ उसके पालनहार की ओर से उन पर उतारा गया था सब को क़ाएम करते अर्थात उसपर कार्यबद्ध रहते तो निसन्देह वे अपने ऊपर और पैरों के नीचे से ईश्वरीय विभूतियां प्राप्त करते। उनमें से एक गुट मिथ्याचारी है परन्तु अधिकांश लोग बुरे कर्म करते हैं।

यह आयत कहती हैं कि ईश्वर का मार्ग बंद नहीं है और यदि वे तौबा कर लें और अपने ग़लत व्यवहार और कथनों को छोड़ दें तो ईश्वर उनके पिछले पापों को भी क्षमा कर देगा और भविष्य को भी सुनिश्चित बना देगा। वे इस संसार में भी धरती और आकाश से आने वाली ईश्वरीय विभूतियों से लाभान्वित होंगे और प्रलय में भी स्वर्ग की विभूतियों के पात्र बनेंगे।  यहां पर ईश्वर एक महत्वपूर्ण बात की ओर संकेत करते हुए कहता है कि अलबत्ता यह बात भी सच है कि आसमानी किताब वालों के बीच ऐसे ईमान वाले मौजूद हैं जो विचारों और कर्मों में हर प्रकार की कमी या अतिशयोक्ति से दूर हैं।  वे सही मार्ग पर अग्रसर हैं, परन्तु ऐसे लोग बहुत ही कम हैं। अधिकांश लोग अपने ग़लत मार्ग पर ही अड़े रहते हैं।  यद्यपि यह आयतें यहूदियों और ईसाइयों से संबंधित हैं परन्तु स्पष्ट है कि यह ख़तरे मुसलमानों को भी लगे रहते हैं। यदि वे भी यही कर्म करें तो उन्हें भी यही दण्ड भुगतने होंगे और इसी प्रकार यदि वे सही मार्ग पर दृढ़ता से अग्रसर रहें तो उन्हें ईश्वरीय सहायताएं भी प्राप्त होंगी और वे ईश्वरीय विभूतियों के भी पात्र बनेंगे।  आयत बताती है कि पवित्रता के बिना ईमान का कोई लाभ नहीं है। ईश्वर से भय, ईमान को सुरक्षित बनाता है। दयावान ईश्वर पापों को क्षमा करने के अतिरिक्त, पापियों के लिए अपनी कृपा के द्वार भी खोल देता है।  ईश्वर पर ईमान और भले कर्मों से, लोक-परलोक दोनों में कल्याण प्राप्त होता है। यदि संसार धार्मिक सिद्धातों का विरोध न करे तो धर्म, संसार के विरुद्ध नहीं है।  आसमानी किताबों को केवल पढ़ लेना ही काफ़ी नहीं है, उसके आदेशों को जीवन के सभी मामलों में लागू करना आवश्यक है।

सूरे माएदा की आयत संख्या 68 में ईश्वर कह रहा है कि (हे पैग़म्बर!) आसमानी किताब वालों से कह दीजिए कि (ईश्वर के निकट) तुम्हारा कोई महत्त्व और स्थान नहीं है, सिवाए इसके कि तौरैत, इंजील और जो कुछ तुम्हारी ओर ईश्वर ने भेजा है, उसपर कटिबद्ध रहो। (हे पैग़म्बर!) निसन्देह, ईश्वर ने जो क़ुरआन आप पर उतारा है (उसका इन्कार) इनमें से अधिकांश के कुफ़्र और उद्दंडता में वृद्धि कर देगा तो आप काफ़िर गुट के लिए दुखी मत होइए।

यह आयत एक बार फिर इस्लाम और मुसलमानों के संबंध में आसमानी किताब वालों की नीतियों का उल्लेख करती है और पैग़म्बरे इस्लाम को दायित्व सौंपती है कि उनसे कह दें कि केवल हज़रत मूसा और हज़रत ईसा जैसे पैग़म्बरों के अनुसरण का दावा पर्याप्त नहीं है बल्कि वास्तविक ईमान की निशानी सभी व्यक्तिगत व सामाजिक क्षेत्रों में ईश्वरीय आदेशों का पालन है। चूंकि पूरे इतिहास में पैग़म्बरों को भेजना एक ईश्वरीय परंपरा रही है अतः अगले पैग़म्बर को स्वीकार न करना स्वयं एक प्रकार की धार्मिक या जातीय सांप्रदायिक्ता है जो मनुष्य की प्रगति में बाधा और उद्दंडता तथा सत्य छिपाने का कारण बनती है।

ईश्वर इस आयत में सभी आसमानी किताबों को स्वीकार करने और उनपर ईमान लाने पर बल देता है और एक बार फिर पैग़म्बर को संबोधित करते हुए कहता है कि अधिकांश आसमानी किताब वाले क़ुरआन को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं हैं और यही बात तथा विरोध उनके कुफ़्र का कारण है और चूंकि उन्होंने जान-बूझ कर और ज्ञान के साथ इस मार्ग का चयन किया है अतः आप उनके कुफ़्र पर दुखी मत हों कि उनका हिसाब-किताब ईश्वर के हाथ में है।  यह आयत बताती है कि केवल ईमान का दावा काफ़ी नहीं है बल्कि ईमान को व्यवहारिक रूप में सिद्ध करना भी आवश्यक है। जिसके पास कर्म नहीं है वस्तुतः उसके पास धर्म नहीं है।  ईश्वर के निकट लोगों का मूल्य और महत्त्व, धार्मिक आदेशों से उनकी प्रतिबद्धता के अनुपात से है। समाज में भी ऐसा ही होना चाहिए। लोगों का महत्त्व, इसी आधार पर निर्धारित होना चाहिए।  हमारे भीतर अनुचित सांप्रदायिकता नहीं होनी चाहिए। हमें दूसरों की आस्थाओं का सम्मान करते हुए अपना मार्ग भी प्रस्तुत करना चाहिए।

 

 

ईरान के गृह मंत्री अहम वहीदी ने बताया कि दुश्मन ताक़तों ने ईरान के चुनाव को बेरंग और नाकाम करने के लिए पूरी ताक़त कई महीनों से झोंक रखी थी लेकिन इसके बावजूद 1 मार्च के चुनाव में 25 मिलियन मतदाताओं ने अपना वोट कास्ट किया।

अहमद वहीदी ने कहा कि ईरानी राष्ट्र चुनाव के मंच पर एक बार फिर शानदार दृष्य पेश करने में कामयाब रहा।

उनका कहना था कि पश्चिमी देशों का मीडिया मीडिया और लोकतंत्र के सारे उसूलों को तोड़ते हुए महीनों से दुष्प्रचार कर रहा था कि ईरान में लोग चुनावों में भाग न लें।

गृह मंत्री का कहना था कि चुनाव पूरी तरह शांतिपूर्ण रहे कहीं कोई अप्रिय घटना नहीं हुई। हालांकि दुश्मन ताक़तों की इंटेलीजेंस एजेंसियां और आतंकी संगठन इस कोशिश में थे कि ईरान में कई बड़ा हमला करें।

अहमद वहीदी ने कहा कि चुनाव पूरी तरह फ़्री एंड फ़ेयर रहे और एक एक वोट को पूरी अहमियत दी गई।

वहीं ईरान के चुनाव आयोग के प्रवक्ता ने बताया कि 1 मार्च को संसद और विशेषज्ञ असेंबली के लिए होने वाले चुनाव में वोट डालने वाले मतदाताओं में 48 प्रतिशत महिलाएं और 52 प्रतिशत पुरुष थे।

मोहसिन इस्लामी ने सोमवार की शाम मीडिया को बताया कि 45 सीटों पर मुक़ाबला दूसरे चरण में पहुंच गया है और निरीक्षक परिषद शूराए निगहबान की ओर से चुनावों के दुरुस्त आयोजन की पुष्टि हो जाने के बाद दूसरे चरण का चुनाव कराया जाएगा।

उन्होंने कहा कि विशेषज्ञ असेंबली की 88 सीटों का नतीजा सप्षट है और उम्मीदवार चुने जा चुके हैं।

1 मार्च को ईरान में संसद की 290 और विशेषज्ञ असेंबली की 88 सीटों के लिए चुनाव हुआ था।

 

इमाम रज़ा (अ) के हरम के संरक्षक ने कहा कि इस्लामी दुनिया की समस्याओं का एकमात्र समाधान पवित्र कुरान की उद्धारकारी शिक्षाओं की ओर रुजूअ करना है।

हौज़ा न्यूज़ एजेंसी की रिपोर्ट के अनुसार, हुज्जतुल इस्लाम वल मुस्लेमीन अहमद मरवी ने इमाम रज़ा (अ) के हरम मे 140 क़ारीयो की उपस्थिति में आयोजित क़ुरआन प्रतियोगिता के अंतिम चरण के उद्घाटन समारोह में कहा। पवित्र मस्जिद: पवित्र कुरान, ईश्वर के रसूल (स) में से एक, यह एक चमत्कार है जिसकी तुलना किसी और चीज़ से नहीं की जा सकती, यह एक ऐसी किताब है जिसका उत्तर किसी भी इंसान की पहुंच से परे है। शर्मिंदगी का सामना करना पड़ा और स्वीकार करना पड़ा कि कुरान जैसी दूसरी किताब लाना इंसान के बस की बात नहीं है।

उन्होंने आगे कहा: इतिहास में पैगंबरों के कई चमत्कार हैं, ईश्वर के पैगंबरों ने हमेशा अपने समाज, समय और परिस्थितियों के अनुसार अपनी नबूवत साबित करने के लिए चमत्कार प्रस्तुत किए हैं, ये सभी चमत्कार उस पैगंबर के जीवन तक सीमित हैं और पैगंबर के जीवन के अंत के साथ उनके चमत्कार भी समाप्त हो गए, लेकिन हमारे पैगंबर (स) का चमत्कार, पवित्र कुरान, एक ऐसा चमत्कार है जो पिछले 1400 वर्षों से लोगों का मार्गदर्शन कर रहा है और जीवन दे रहा है।

इमाम रज़ा (स) के हरम के संरक्षक ने कहा: पवित्र कुरान क़यामत के दिन तक सभी मानव जाति के लिए एक चमत्कार है, जो लोगों को गुमराही, अज्ञानता और दुख से बचाता है और समृद्धि, खुशी देता है। ईश्वर की निकटता। आयतें लोगों के दिल और आत्मा में परिवर्तन और परिवर्तन लाती हैं, यही कारण है कि इतिहास ऐसी घटनाओं से भरा है जहां कुरान की एक आयत को सुनने के बाद कई लोग बदल गए और गुमराह होने से बच गए और धन्य हो गए।

इमाम जुमा सिकंदराबाद (ज़हरा मस्जिद) और सेंट्रल शिया उलेमा काउंसिल हैदराबाद तेलंगाना के महासचिव मौलाना सैयद अफसर हुसैन रिज़वी ने तेहरान के इमाम जुमा आयतुल्लाह काशानी के निधन पर शोक व्यक्त किया है।

हौज़ा न्यूज़ एजेंसी की रिपोर्ट के अनुसार, इमाम जुमा सिकंदराबाद (बागे ज़हरा मस्जिद) और सेंट्रल शिया उलेमा काउंसिल हैदराबाद तेलंगाना के महासचिव मौलाना सैयद अफसर हुसैन रिज़वी ने तेहरान के इमाम जुमा आयतुल्लाह काशानी के निधन पर शोक व्यक्त किया है।

शोक संदेश का पाठ इस प्रकार है:

बिस्मिल्लाह अल रहमान अल रहीम

مَوتُ العالِمِ مُصيبَةٌ لا تُجبَرُ وثُلمَهٌ لا تُسَدُّ، وهُوَ نَجمٌ طـُمِسَ، ومَوتُ قَبيلَةٍ أيسَرُ مِن مَوتِ عالِمٍ मौत अल आलिमे मुसीबतुन ला तुजबरो व सुलमतुन ला तोसद्दो व होवा नजमुन तोमेसा व मौतुन कबीलतिन एयसरो मिन मौतो आलेमिन

जैसे ही खबर मिली कि तेहरान के इमाम जुमा आयतुल्लाह मोहम्मद इमामी काशानी का निधन हो गया, इस्लामिक समुदाय समेत पूरी दुनिया में शिया समुदाय में शोक की लहर फैल गई। दिवंगत अयातुल्ला इमामी काशानी को इमाम राहिल इमाम खुमैनी के वफादार साथियों में गिना जाता है और उन्होंने इस्लामी क्रांति में एक प्रमुख भूमिका निभाई और इस्लामी क्रांति के बाद भी उन्होंने विभिन्न क्षेत्रों में दृढ़ता से सेवा करना जारी रखा और अपने उपदेश से लोगों को जागृत किया और शत्रुओं को परेशान किया।

हम इस बड़ी त्रासदी को इस्लामी दुनिया के लिए एक बड़ी क्षति मानते हैं और सर्वोच्च नेता अयातुल्ला खामेनेई, विद्वानों, दिवंगत धार्मिक विद्वान के परिवार, उनके शिष्यों और शिया विद्वानों के प्रति अपनी संवेदना व्यक्त करते हैं।

सय्यद अफ़सर हुसैन रिज़वी

पिछले सालों में भारत के कई राज्यों में विभिन्न जगहों के नाम बदले गए हैं लेकिन मणिपुर की सरकार ने किसी भी स्थान का नाम बदलने पर सजा का प्रावधान किया है।

मणिपुर विधानसभा ने सक्षम प्राधिकार की मंजूरी के बिना स्थानों का नाम परिवर्तितन करने को दंडनीय अपराध बनाने संबंधी एक विधेयक पारित कर दिया है। मुख्यमंत्री एन. बीरेन सिंह ने सोमवार को विधानसभा में ‘मणिपुर स्थानों का नाम विधायक, 2024’ पेश किया था और इसे सदन में आम-सहमति से पारित कर दिया। इस मौके पर सीएम ने कहा कि पहले भी ऐसी घटनाएं सामने आई हैं लेकिन इन्हें हल्के में नहीं लिया जा सकता है।

सीएम एन बीरेन सिंह ने विधेयक पारित होने के बाद एक्स पर पोस्ट कर इसकी जानकारी दी। उन्होंने अपनी पोस्ट में कहा कि मणिपुर राज्य सरकार हमारे इतिहास, सांस्कृतिक धरोहर और पुरखों से चली आ रही विरासत की रक्षा करने को लेकर गंभीर है। उन्होंने कहा कि हम बिना सहमति के स्थानों का नाम बदलना और उनके नामों का दुरुपयोग करना बर्दाश्त नहीं करेंगे और इस अपराध के दोषियों को सख्त कानूनी दंड दिया जाएगा।

विधेयक के अनुसार, सरकार की सहमति के बिना गांवों/स्थानों का नाम बदलने के दोषियों को अधिकतम 3 साल की जेल की सजा दी जा सकती है और उन पर 3 लाख रुपये तक का जुर्माना लगाया जा सकता है।