
رضوی
मस्जिदुल अक़्सा में इस्राईली सैनिक तैनात
इस्राईल ने अभूतपूर्व क़दम उठाते हुए मस्जिदुल अक़्सा में ज़ायोनी सैनिकों को तैनात किया है।
मस्जिदुल अक़्सा में इस्राईली सैनिकों की तैनाती पर प्रतिक्रिया जताते हुए बैतुल मुक़द्दस की इस्लामी वक़्फ़ संस्था ने चेतावनी दी है कि इस क़दम की और उसके नतीजे की पूरी ज़िम्मेदारी इस्राईली सरकार की होगी।
फ़िलिस्तीनी संस्था ने एक बयान जारी कर कहा है कि इस्राईली सैनिकों ने मस्जिद के 4 चौकीदारों को गिरफ़्तार कर लिया है और उनके निर्वासन का आदेश जारी किया है।
रमज़ान के महीने में ज़ायोनी शासन ने मुसलमानों के मस्जिदुल अक़्सा में प्रवेश को बहुत सीमित कर दिया है।
धार्मिक नेतृत्व और इमाम ख़ुमैनी का दृष्टिकोण
ईरान के इतिहास में जून महीने का पहला सप्ताह और ईरानी कैलेंडर के तीसरे महीने ख़ुरदाद का मध्य भाग दो महत्वपूर्ण घटनाओं की याद ताज़ा करता है।
ईरान के इतिहास में जून महीने का पहला सप्ताह और ईरानी कैलेंडर के तीसरे महीने ख़ुरदाद का मध्य भाग दो महत्वपूर्ण घटनाओं की याद ताज़ा करता है। 3 जून 1989 को ईरान की इस्लामी लोकतांत्रिक व्यवस्था के रचनाकार और इस्लामी क्रान्ति के संस्थापक इमाम ख़ुमैनी का स्वर्गवास हुआ था जबकि 4 जून 1963 के लिए इमाम ख़ुमैनी ने तानाशाही पहलवी शासन के विरुद्ध अपना आंदोलन शुरू किया था।
वह आंदोलन जो 4 जून 1963 को शुरू हुआ, 15 साल बाद सन 1979 में ढाई हज़ार साल से चली आ रही शाही व्यवस्था के पतन पर समाप्त हुआ। इमाम ख़ुमैनी का आंदोलन ईरान और इस्लामी के इतिहास का बहुत महत्वपूर्ण अध्याय है। इमाम ख़ुमैनी इस्लामी क्रान्ति के संस्थापक होने के साथ ही एक प्रतिष्ठित धर्मगुरू भी थे अतः जनता और धर्मगुरुओं के बीच उनका बड़ा सम्मान था। इसी वजह से मोहम्मद रज़ा पहलवी की शाही सरकार के विरुद्ध उनके आंदोलन को भरपूर समर्थन मिला ईरान में इस्लामी क्रान्ति के सफल होने से पहले दूसरे भी अनेक देशों में विदेशी साम्राज्य और आंतरिक अत्याचारी शासनों के विरुद्ध कई क्रान्तियां आ चुकी थीं। इनमें अधिकांश क्रान्ति सोशलिस्ट नारों के साथ सफल हुईं। इन क्रान्तियों के नेता मार्कसिस्ट विचारधारा अपनाकर स्राज्यवाद विरोधी आंदोलन चलाते थे लेकिन यदि उनका आंदोलन सफल होता और वह सत्ता प्राप्त कर लेते तो ख़ुद भी अत्याचारी तानाशाह बन जाते थे। एसे समय जब दुनिया साम्राज्यवाद और मार्क्सवाद के बीच बंटी हुई थी, इमाम ख़ुमैनी ने इस्लाम धर्म को केन्द्र बनाकर दोनों विचारधारओं के विरुद्ध आंदोलन शुरू किया। इस प्रकार इमाम ख़ुमैनी ने साम्राज्यवाद और मार्क्सवाद का मुक़ाबला करने के लिए एक नया रास्ता बनाया।
ईरान की इस्लामी क्रान्ति के वरिष्ठ नेता आयतुल्लाहिल उज़्मा ख़ामेनई ने इमाम ख़ुमैनी की बीसवीं बर्सी के अवसर पर अपने एक संदेश में कहा था कि इमाम ख़ुमैनी ने शुद्ध इस्लाम धर्म की शिक्षाओं को आधार बनाकर और जनता की ईमान की शक्ति के सहारे और अपने साहस, निष्ठा तथा ईश्वर पर अपार भरोसे के माध्यम से अत्यंत कठिन व प्रतिकूल परिस्थितियों में संघर्ष करने का रास्ता खोजा, उसपर आगे बढ़े तथा पूरे धैर्य से क़दम बढ़ाते हुए लोगों के मन मस्तिष्क को कटु तथ्यों तथा उनसे निपटने के तरीक़ों से परिचित कराया। ईरान की जनता ने शुरू से ही इमाम ख़ुमैनी की आवाज़ पर अपनी आवाज़ बुलंद की तथा सत्य और ज्ञान से भरी उनकी बातों को ध्यान से सुना और दिल में उतारा।
लोगों ने इस्लाम से गहरे प्रेम और ईमान की शक्ति से त्याग और बलिदान की अविस्मरणीय कहानियां लिख दीं। इस बीच इमाम ख़ुमैनी ने जनता का मार्गदर्शन करने, सच्चाई सामने लाने के साथ ही और करोड़ों की संख्या में लोगों को कुछ कर गुज़रने के लिए मैदान में लाने के साथ ही साथ इस्लामी शासन की विचारधारा को परवान चढ़ाया तथा विश्व में प्रचलित दो विचारधाराओं के सामने इस्लामी शासन की नई राह पेश की जिसमें धर्म और इंसान दोनों ही तत्वों को मूल रूप से दृष्टिगत रखा गया तथा जनता का ईमान और इच्छा शक्ति उसकी महत्वपूर्ण पहचान बनी।
इस्लामी क्रान्ति की सफलता दुनिया के राजनैतिक पटल पर बिल्कुल अदभुत घटना थी। यह घटना अपनी विशेष प्रवृत्ति, लक्ष्यों और परिणाम के आधार पर दुनिया में प्रचलित राजनैतिक समीकरणों में किसी में भी नहीं समाई। इस्लामी क्रान्ति ने दुनिया में मान्यता प्राप्त कर चुके दो ब्लाकों तथा दो मोर्चों में बटी व्यवस्था को अस्त व्यस्त कर दिया। यही कारण था कि दोनों ब्लाक अपनी पुरानी और गहरी दुशमनी को भूलकर इस्लामी क्रान्ति के विरुद्ध एकजुट हो गये। सोवियत संघ, अमरीका तथा इन दोनों शुक्तियों से जुड़े देशों ने इस्लामी गणतंत्र ईरान के विरुद्ध इराक़ के सद्दाम शासन के युद्ध में सद्दाम का साथ दिया। इस्लामी जगत के अन्य विचारकों और धर्मगुरुओं के विपरीत इमाम ख़ुमैनी को यह अवसर मिला कि अपने विचारों को इस्लामी शासन के रूप में ढालें। शीया मुसलमानों, विद्वानों और दार्शनिकों की राजनैतिक विचार धारा का एक मूल सिद्धांत है पैग़म्बरे इस्लाम के स्वर्गवास के बाद इमामत का अक़ीदा। यानी उनका यह विचार है कि पैग़म्बरे इस्लाम के स्वर्गवास के बाद भी उनका मिशन इमामों द्वारा जारी है।
इसी आस्था को इमामत की आस्था कहा जाता है। इस्लाम में इस आस्था का महत्व इतना अधिक है कि इस आस्था के रूप और व्याख्या के आधार पर कई संप्रदाय बन गए हैं। इन संप्रदायों में इमामिया संप्रदाय का इमामत का नज़रिया कुछ विशेषताएं रखता है। इस अक़ीदे अनुसार इमामत वह पदवी है जो ईश्वर की ओर से तथा पैग़म्बर द्वारा दी जाती है और यह दायित्व पैग़म्बर के स्वर्गवास के बाद कि उस व्यक्ति को दिया जाता है जो मानव जाति का मार्गदर्शन करे।
इमाम वह हस्ती है जिसके हाथ में लोगों के भौतिक और अध्यात्मिक जीवन के सभी मामले होते हैं। क़ुरआन की आयतों और पैग़म्बरे इस्लाम के कथनों तथा शिष्टाचारों के अनुसार ईश्वर ने उन्हीं लक्ष्यों और कारणों के तहत जिनके आधार पर मानव जाति के मार्गदर्शन और उसे एकेश्वरवाद के मार्ग पर लाने के लिए पैग़म्बर को भेजा है उनके ही आधार पर मानव समाज को पैग़म्बर के स्वर्गवास के बाद मार्गदर्शन के लिए इमाम की ज़रूरत होती है।
ग़दीरे ख़ुम नामक स्थान की घटना जिसमें पैग़म्बरे इस्लाम ने हज़रत अली अलैहिस्सलाम को अपने स्वर्गवास से एक साल पहले तथा अपने जीवन की अंतिम हज यात्रा में लोगों का सरपरस्त बनाया। क़ुरआन की कई आयतें और इसी प्रकार पैग़म्बरे इस्लाम के कई कथन हैं जो शीया सुन्नी दोनों ही समुदायों के धर्मगुरुओं ने अपनी किताबों में दर्ज किए हैं इनमें साफ़ साफ़ कहा गया है कि पैग़म्बरी के सिलसिले को आगे बढ़ाने का माध्यम इमाम है। पैग़म्बरे इस्लाम ने अपनी प्रख्यात हदीसे सक़लैन में कहा कि मैं आप लोगों के बीच दो महान चीज़ें छोड़े जा रहा हूं। इनमें से हर एक दूसरे से महान है। एक है ईश्वरीय ग्रंथ जो आसमान से धरती तक फैली अल्लाह की रस्सी के समान है। दूसरी चीज़ है मेरे परिजन। यह दोनों कभी भी एक दूसरे से अलग नहीं होंगे यहां तक कि हौज़े कौसर पर मुझसे आ मिलेंगे। लगभग सभी धर्मगुरू जिनमें सुन्नी समुदाय के धर्मगुरू भी शामिल हैं इस बिंदु पर एकमत हैं कि इस कथन में परिजन से पैग़म्बरे इस्लाम का तात्पर्य हज़रत अली अलैहिस्सलाम से है।
हज़रत अली अलैहिस्सलाम के बाद उनके 11 उत्तराधिकारी हैं जो बारी बारी मानवजाति का मार्गदर्शन संभालते रहे हैं। 11वें उत्तराधिकारी मानवता के मोक्षदाता हज़रत इमाम महदी अलैहिस्सलाम हैं जो इस समय दुनिया की नज़रों से ओझल हैं और एक समय वह आएगा जब हज़रत इमाम महदी प्रकट होंगे और संसार में न्याय की स्थापना करेंगे। अंतिम समय में मोक्षदाता के प्रकट होने का विचार सभी ईश्वरीय धर्मों में पाया जाता है।
इस विचार का कारण एक तो मनुष्य की अपनी प्रवृत्ति है मनुष्य की प्रवृत्ति उसे न्याय, इंसाफ़ और शांति व सुरक्षा की स्थापना की दावत देती है। मानव जाति की हार्दिक इच्छा यह है कि दुनिया में न्याय की स्थापना हो। दूसरे यह है कि ईश्वरीय दूतों ने अपने अपने काल में अपने मिशन के एक भाग के रूप में यह शुभसूचना दी है कि अंतिम ज़माने में एक महान सुधारक आएगा जो इंसानों को अन्याय और अत्याचारों से मुक्ति दिलाएगा तथा दुनिया से भ्रष्टाचार और बुराइयों का सफ़ाया करेगा। क़ुरआन की आयतों और पैग़म्बरे इस्लाम के कथनों शीया समुदाय की मान्यता है कि वह महान सुधारक हज़रत इमाम महदी अलैहिस्सलाम हैं जो हज़रत अली और हज़रत फ़ातेमा जहेरा के वंशज हैं।
शीया समुदाय के धर्मगुरुओं के बीच बहस का एक बड़ा विषय यह है कि जब इमाम महदी अलैहिस्सलाम लोगों की आंखों से ओझल रहेंगे तो उस कालखंड में समाज का क्या होगा। इमाम ख़ुमैनी कहते हैं कि जिन कारणों से पैग़म्बरे इस्लाम के स्वर्गवास से पहले ईश्वर ने हज़रत अली अलैहिस्सलाम को उनका उत्तराधिकारी निर्धारित कर दिया उन्हीं कारणों से हज़रत अली अलैहिस्सलाम की शहादत के बाद उनके बेटों को उनका उत्तराधिकारी बनाया। हज़रत इमाम महदी अलैहिस्सलाम के नज़रों से ओझल रहने के कालखंड में भी जिसे ग़ैबत का ज़माना कहा जाता है समाज को उसके हाल पर नहीं छोड़ दिया गया है बल्कि समाज के लिए सरपरस्त निर्धारित किया गया है।
ग़ैबत दो चरणों पर आधारित है। इसका पहला चरण सीमित है जिसे ग़ैबते सुग़रा अर्थात छोटी ग़ैबत कहा जाता है इस कालखंड में हज़रत इमाम ज़माना अलैहिस्सलाम अपने प्रतिनिधियों के माध्यम से लोगों के संपर्क में थे लेकिन इसके बाद ग़ैबते कुबरा अर्थात बड़ी ग़ैबत शुरू हुई तो सवाल यह पैदा हुआ कि इस काल के लिए क्या उपाय है। इस काल के लिए लोगों को क़ुरआन तथा पैग़म्बरे इस्लाम के शिष्टाचारों व कथनों का ज्ञान रखने वालों से अपने सवाल पूछने की सलाह दी गई। इमाम ख़ुमैनी ने अपनी पुस्तक हुकूमते इस्लामी में विस्तार से लिखा है कि क़ुरआन की आयतों और पैग़म्बरे इस्लाम तथा इमामों के कथनों के आधार पर किस तरह इस्लामी सरकार का गठन किया जा सकता है।
यह पुस्तक वास्तव में इराक़ के पवित्र नगर नजफ़ में इमाम ख़ुमैनी के उन बयानों पर आधारित है जो उन्होंने अपनी क्लास में दिए। यह उस समय की बात है जब इमाम ख़ुमैनी नजफ़ में निर्वासन का जीवन बिता रहे थे।
इमाम ख़ुमैनी के दृष्टिकोण के अनुसार हर काल में इमाम की ज़रूरत बिल्कुल स्पष्ट है। इमाम के अस्तित्व के सहारे ही धर्म के नियमों को लागू किया जा सकता है और धर्म की रक्षा की जा सकती है क्योंकि इमाम धर्म और उसके नियमों का रक्षक होता है। इस प्रकार हर काल में इमाम का निर्धारण आवश्यक है और यह निर्धारण ईश्वर, पैग़म्बरे तथा पहले वाले इमाम के माध्यम से होना चाहिए। इमाम ख़ुमैनी कहते हैं कि इस्लाम धर्म के नियमों की रचना यदि किसी आम विद्वान ने की होती तो वह भी अपने बाद धर्म के अनुयायियों के लिए कोई न कोई बंदोबस्त ज़रूर करता।
अब यदि सर्वज्ञानी ईश्वर ने मानव जीवन के लिए कुछ क़ानून बनाए हैं, लोक व परलोक में इंसान के कल्याण के लिए नियम निर्धारत किए हैं तो अक़्ल कहती है कि एसे भी क़ानून और नियम ज़रूर होंगे जिनके बारे में ईश्वर व पैग़म्बर का यह मंशा होगी कि यह जारी रहें। जब दुनिया में क़ानून बनाने वाले आम विशेषज्ञ यह चाहते हैं कि उनका बनाया हुआ क़ानून उनके बाद भी लंबे समय तक चलता रहे तो निश्चित रूप से ईश्वर और पैग़म्बर की भी यही इच्छा होगी कि उनके क़ानून केवल किसी एक कलखंड तक सीमित न रहें। जब यह बात साबित हो गई तो यह भी समझ में आने वाली बात है कि पैग़म्बर के बाद भी एसी हस्ती का होना ज़रूरी है जो इन क़ानूनों को सही रूप से जानती हो।
वह हस्ती एसी है जो इन क़ानूनों को न तो भूले और न उनमें किसी भी प्रकार की कमी या बढ़ोत्तरी करे। एसी हस्ती हो जिसे प्रलोभन न दिया जा सकता हो। इमाम ख़ुमैनी के विचार मे इमाम वास्तव में ईश्वरीय निमयों और क़ानूनों को जारी रखने के लिए पैग़म्बरी की अगली कड़ी है। अतः इमामत के बिना धर्म अधूरा है तथा इमामत की मदद से ही उसे संपूर्ण बनाया जा सकता है।
इमाम ख़ुमैनी का विचार यह है कि इमाम महदी अलैहिस्सलाम की ग़ैबत के ज़माने में समाज के मार्गदर्शन की ज़िम्मेदारी धर्मगुरुओं पर है। ईरान में इस्लामी क्रान्ति की सफलता के बाद विशेषज्ञ एसेंबली बनी जिसका काम है समाज के नेतृत्व के लिए सबसे सदाचारी, सबसे न्यायी, और सबसे ज्ञानी व्यक्ति का चयन इस्लामी क्रान्ति और इस्लामी लोकतांत्रिक व्यवस्था के वास्तुकार इमाम खुमैनी ने अपनी विचारधारा से धार्मिक लोकतंत्र का सफल नमूना दुनिया के सामने पेश किया।
इराक़ में महत्वपूर्ण परिवर्तन, जाफ़री और अम्मार हकीम की मुलाक़ात
इराक़ के विदेशमंत्री और इराक़ की इस्लामी सुप्रिम काउंसिल के प्रमुख ने सुरक्षा की स्थापना में राष्ट्रीय गठबंधन की मज़बूती पर बल दिया।
सूमरिया न्यूज़ एजेन्सी की रिपोर्ट के अनुसार, विदेशमंत्री इब्राहीम जाफ़री के कार्यालय से जारी होने वाले बयान में कहा गया है कि इब्राहीम जाफ़री और अम्मार हकीम ने मुलाक़ात में राष्ट्रीय गठबंधन को मज़बूत करने, दृष्टिकोणों को निकट करने, राष्ट्रीय एकता की रक्षा, संविधान का सम्मान करने और सुरक्षा तंत्र की सहायता के लिए इस गठबंधन की भूमिका पर बल दिया। इस बयान में आया है कि दोनों नेताओं ने इसी प्रकार देश के राजनैतिक व सुरक्षा परिवर्तनों तथा दाइश से मुक़ाबले में सेना, स्वयंसेवी बलों, क़बीलों और कुर्द मिलिशिया की सफलता पर चर्चा की।
ज्ञात रहे कि प्रधानमंत्री हैदर अलएबादी के आदेश पर फल्लूजा शहर को दाइश के आतंकियों से मुक्ति दिलाने के लिए 23 मई से व्यापक अभियान आरंभ हुआ है।
तेल अवीव की घटना, फ़िलिस्तीनियों के प्रतिरोध की सूचकः हिज़्बुल्लाह
लेबनान के इस्लमी प्रतिरोध संगठन हिज़्बुल्लाह ने अतिग्रहित फ़िलिस्तीन में तेल अवीव के केंद्र में फ़िलिस्तीनी संघर्षकर्ताओं की साहसी कार्यवाही की सराहना करते हुए कहा है कि फ़िलिस्तीनी राष्ट्र ने इस कार्यवाही से यह सिद्ध कर दिया है कि वह सभी अतिग्रहित क्षेत्रों की स्वतंत्रता के लिए प्रतिरोध को स्थायी विकल्प के रूप में देखता है।
हिज़्बुल्लाह ने गुरुवार को एक बयान जारी करके कहा है कि तेल अवीव में दो फ़िलिस्तीनी युवाओं की कार्यवाही ने दर्शा दिया है कि क्षेत्र व संसार में ज़ायोनियों व उनके समर्थकों के अत्याचार, दबाव और अतिक्रमण, फ़िलिस्तीनियों के संकल्प में तनिक भी डिगा नहीं सकते और उन्हें अपने अधिकारों, मातृभूमि व अतीत की अनदेखी करने पर विवश नहीं कर सकते। हिज़्बुल्लाह ने इस्राईल के मुक़ाबले में प्रतिरोध की उपलब्धियों व सफलताओं की सराहना करते हुए सभी अरब व इस्लामी राष्ट्रों और इसी प्रकार संसार के सभी स्वतंत्रता प्रेमियों से अपील की है कि वे प्रचारिक, राजनैतिक व अन्य सभी मार्गों से फ़िलिस्तीनी राष्ट्र का समर्थन करें ताकि वह अतिग्रहणकारियों से मुक्ति के अपने लक्ष्य को प्राप्त कर सके।
अमरीका के ख़िलाफ़ क़ानूनी कार्यवाही करेगा ईरान
इस्लामी गणतंत्र ईरान के राष्ट्रपति डाक्टर हसन रूहानी ने कहा है देश के विरुद्ध अमरीकी सरकार की आपराधिक कार्यवाहियों के कारण जो नुक़सान हुआ है
उसके संबंध में अमरीका के विरुद्ध क़ानूनी कार्यवाही शुरू करने संबंधी क़ानून से विदेश मंत्रालय को अवगत करा दिया गया है। यह क़ानून ईरान की संसद से पास हुआ है जिसके तहत संसद ने देश और जनता के अधिकारों की रक्षा संबंधित कार्यसूचि निर्धारित की है। इस क़ानून का एक भाग अंतर्राष्ट्रीय कन्वेन्शनों से संबंधित है जो ईरानी नागरिकों के अधिकारों की रक्षा से जुड़े हैं।
ईरान जिन मामलों में अमरीका के ख़िलाफ़ क़ानूनी कार्यवाही करेगा उनमें वर्ष 1953 में अमरीका द्वारा ईरान के भीतर करवाई गई सैनिक बग़ावत है जिसमें ईरान की क़ानूनी सरकार गिर गई थी। इसी प्रकार अमरीकी बैंकों में ईरान की संपत्ति का ज़ब्त कर लिया जाना और उसका एक भाग लूट लेना भी उन मामलों में शामिल है जिसकी शिकायत अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं में की जा सकती है।
अमरीका की मानवता विरोधी कार्यवाहियों और ईरान के अधिकारों के हनन के बहुत से साक्ष्य मौजूद हैं जिनके आधार पर अमरीका के विरुद्ध क़ानूनी कार्यवाही की जा सकती है।
अमरीका ने ईरान पर इराक़ की सद्दाम सरकार की ओर से थोपे गए आठ वर्षीय युद्ध के दौरान सद्दाम शासन को रासायनिक हथियारों की सप्लाई में भूमिका निभाई थी। जो दस्तावेज़ मिले हैं उनके अनुसार अमरीका ने सद्दाम को रासायनिक आयुद्ध उपलब्ध कराने में प्रत्यक्ष रूप से भूमिका निभाई है।
सद्दाम के रासायनिक हमलों में ईरान के एक लाख से अधिक नागरिक शहीद और बीमार हो गए थे। इस मामले को कई साल पहले ही अंतर्राष्ट्रीय अदालतों में उठाया जा चुका है।
अमरीका ने ईरान के यात्री विमान को मिज़ाइल से मार गिराया था जिसमें 290 यात्री सवार थे। अमरीका ने ईरान पर आर्थिक प्रतिबंध लगाकर देश की जनता को बहुत परेशान किया है। अमरीका ने जो प्रतिबंध लगाए वह अंतर्राष्ट्रीय क़ानूनों की दृष्टि से अमानवीय हैं।
अमरीकी कांग्रेस में उन आतंकी सगठनों की सहायता के लिए बजट भी पास किया जाता है जो ईरान के विरुद्ध सक्रिय हैं।
हालांकि अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं पर अमरीका का दबाव है अतः उनकी ओर से कोई विशेष उम्मीद नहीं है लेकिन यह भी अपने आप में महत्वपूर्ण है कि अमरीका के विरुद्ध मानवता विरोधी अपराधों का मुक़द्दमा शुरू हो।
कुरआने मजीद के अर्थों को समकालीन भाषा में विश्व वासियों तक पहुंचाने की ज़रूरत है, वरिष्ठ नेता
इस्लामी क्रांति के वरिष्ठ नेता ने वर्तमान युग में वैचारिक व आस्था की पहचान को गंवाने की ओर से सावधान करते हुए कहा है कि अपने ईमान को मज़बूत करके और अन्य लोगों तक कुरआने के संदेश पहुंचाने के लिए उपयोगी भाषा का ज्ञान प्राप्त करके, कुरआनी अर्थों को वर्तमान विश्व के सामने पेश करने की ज़रूरत है।
वरिष्ठ नेता आयतुल्लाहिल उज़मा सैयद अली ख़ामेनई ने मंगलवार को रमज़ान के पवित्र महीने के पहले दिन, कुरआने मजीद की तिलावत की विशेष बैठक में कहा कि अगर कुरआन मजीद के उच्च अर्थ समकालीन भाषा में लोगों के सामने पेश किये जाएं तो उस बहुत प्रभाव होगा और इससे मानवता का सही अर्थ में विकास होगा क्योंकि भौतिक सुख, आध्यात्मिक विकास, वैचारिक विस्तार और आत्मिक शांति, कुरआने मजीद के आदेशों के पालन पर निर्भर है।
वरिष्ठ नेता ने कहा कि हालांकि कुरआने मजीद के शब्दों की सुन्दरता व आर्कषण एक चमत्कार है किंतु इन खूबसूरत लफ्ज़ों का उद्देश्य, कुरआने मजीद के उच्च अर्थों से परिचित कराना है।
वरिष्ठ नेता आयतुल्लाहिल उज़मा सैयद अली ख़ामेनई ने बल दिया कि अगर कुरआन के अर्थों का वर्णन किया जाए तो निश्चित रूप से कुरआन पूरी दुनिया में प्रभावशाली होगा और बड़ी शक्तियां, उनके हथियार, और ज़ायोनी शासन, कुछ नहीं बिगाड़ पाएंगे।
संसद, क्रांतिकारी रवैया अपनाएः वरिष्ठ नेता
इस्लामी क्रांति के वरिष्ठ नेता ने नव निर्वाचित सांसदों से कहा है कि वे क्रांतिकारी रवैया अपनाएं क्योंकि अमरीका के नेतृत्व में शत्रुओं की ओर से ख़तरे जारी हैं।
आयतुल्लाहिल उज़मा सैयद अली ख़ामेनेई ने रविवार को संसद सभापति और नव निर्वाचित सांसदों से मुलाक़ात में आंतरिक, क्षेत्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर संसद की प्राथमिकताओं का उल्लेख करते हुए कहा कि ईरान की संसद मजलिसे शूराए इस्लामी को क्रांतिकारी होना चाहिए, क्रांतिकारी व्यवहार करना चाहिए, अमरीका की शत्रुतापूर्ण नीतियों पर प्रतिक्रिया दिखाना चाहिए और साम्राज्य के षड्यंत्रों के मुक़ाबले में डट जाना चाहिए। उन्होंने कहा कि मजलिसे शूराए इस्लामी एक क्रांतिकारी और क्रांति के कोख से जन्म लेने वाली संस्था है और सांसदों को अपनी बातों और नीतियों में क्रांतिकारी रवैया अपनाना चाहिए।
इस्लामी क्रांति के वरिष्ठ नेता ने सांसदों द्वारा क्रांतिकारी रवैया अपनाने पर जो बल दिया है उसका कारण यह है कि इस्लामी गणतंत्र ईरान के ख़िलाफ़ अमरीका की शत्रुतापूर्ण नीतियां यथावत जारी हैं। संसद, ईरानी जनता के मतों से अस्तित्व में आती है इस लिए सांसदों का परम कर्तव्य है कि वे ईरान व विदेश स्तर पर समय पर ठोस व सटीक नीतियां अपनाएं। इस्लामी क्रांति की सफलता के साथ ही ईरान के साथ वर्चस्ववादी व्यवस्था की दुश्मनी शुरू हो गई थी जो अब भी जारी है। एेेसे में क़ानून बनाने वाली संस्था व जनता की आवाज़ के रूप में मजलिसे शूराए इस्लामी की, देश व राष्ट्र के हितों की रक्षा में महत्वपूर्ण भूमिका है।
वास्तविकता यह है परमाणु समझौते से पहले और उसके बाद भी ईरान के संबंध में अमरीका के रवैये में कोई परिवर्तन नहीं आया है और इस देश की सरकार, संसद और राष्ट्रपति चुनाव के प्रत्याशी अब भी ईरान को धमकियां दे रहे हैं। इस बात के दृष्टिगत ईरान की संसद को इस्लामी क्रांति की शिक्षाओं के आधार पर अमरीका के दुस्साहस पर चुप नहीं बैठना चाहिए। अगर मजलिसे शूराए इस्लामी, क़ानून बनाने वाली एक क्रांतिकारी संस्था के रूप में काम करे तो ईरान शत्रु की ओर से पहुंचाए जाने वाले संभावित नुक़सानों से सुरक्षित रहेगा।
ईरानी राष्ट्र अपनी उस 'क्रांतिकारी भावना' की हिफ़ाज़त करे, जिसने दुश्मन को घुटने टेकने पर मजबूर कर दिया
ईरान की इस्लामी क्रांति के वरिष्ठ नेता अयातुल्लाहिल उज़मा सैय्यद अली ख़ामेनई ने ईरानियों से आह्वान किया है कि अपनी उस 'क्रांतिकारी भावना' की हिफ़ाज़त करें जिसने 38 साल पहले देश से दुश्मनों को बाहर निकाल खड़ा किया था।
शुक्रवार को ईरान की इस्लामी क्रांति के संस्थापक इमाम ख़ुमैनी की 27वीं बरसी के अवसर पर उनके मज़ार में आयोजित शोकसभा को संभोधित करते हुए वरिष्ठ नेता ने कहा, हमारे अनेक छोटे और बड़े दुश्मन हैं, लेकिन उनमें सबसे दुष्ट अमरीका और ब्रिटेन हैं।
इस्लामी क्रांति के वरिष्ठ नेता ने ईरान के प्रति अमरीका की दुश्मनी के इतिहास का उल्लेख करते हुए कहा कि वाशिंगटन ने इस्लामी गणतंत्र के ख़िलाफ़ युद्ध में सद्दाम का समर्थन किया, ईरान के यात्री विमान को मार गिराया, ईरान के तेल प्लेटफ़ार्मों पर हमला किया और ईरान में सीआईए ने तख़्तापलट किया।
दास लाख से भी अधिक विदेशी एवं ईरानी नागरिकों एवं गणमान्य हस्तियों को संबोधित करते हुए उन्होंने कहा कि अगर कोई व्यक्ति इस्लाम के लिए काम करता है और अमरीका पर भरोसा करता है तो वह अपने चेहरे पर थप्पड़ ज़रूर खाएगा।
वरिष्ठ नेता का कहना था कि ईरान से दुश्मनी का कारण उसकी क्रांतिकारी भावना है। जो दबाव ईरान पर डाला जा रहा है वह इसी क्रांति की वजह से है, इसलिए कि दुश्मन इससे भयभीत है।
उन्होंने सवाल किया कि क्यों वे क्रांति का विरोध करते हैं, इसलिए कि इससे पहले देश पूर्ण रूप से उनके निंयत्रण में था। इसके अलावा, क्रांति के बाद अब यह अन्य देशों के लिए प्रेरणा का स्रोत बन गया है।
जब भी हमारा आंदलोन क्रांतिकारी रहा हम सफल हुए, लेकिन जब भी हमने इसकी उपेक्ष की हम पीछे धकेल दिए गए। अगर आप अपने मार्ग इस्लाम और क्रांति को छोड़ेंगे तो आपके चेहरे पर ज़ोरदार थप्पड़ पड़ेगा।
इमाम ख़ुमैनी की बरसी पर शोकसभा आयोजित कराने वाली संस्था के एक अधिकारी अली अंसारी का कहना है कि इस वर्ष क़रीब 13 लाख लोग देश विदेश से ईरान की इस्लामी क्रांति के संस्थापक के मज़ार पर एकत्रित हुए हैं।
आयतुल्लाहिल उज़मा ख़ामेनई ने कहा कि इमाम ख़ुमैनी ईश्वर में आस्था और लोगों पर विश्वास रखते थे, और ख़ुद को ईश्वर का सेवक मानते थे।
मस्जिदुल अक़सा का ऐतिहासिक दरवाज़ा “अल-रहमा” तबाह
मुसलमानों के पहले क़िबले मस्जिदुल अक़सा का ऐतिहासिक दरवाज़ा “अल-रहमा” उजड़ गया है।
प्राप्त समाचारों के अनुसार मस्जिदुल अक़सा का ऐतिहासिक द्वार अल-रहमा रख-रखाव पर ध्यान न दिए जाने के कारण तबाह हो गया है। अल-रहमा द्वार क़ुब्बतुस्सख़रा के निर्माण से पहले बना था।
उल्लेखनीय है कि क़ुब्बतुस्सख़रा मस्जिदुल अक़सा के पास एक ऐतिहासिक चट्टान के ऊपरी स्वर्ण गुंबद वाली इमारत है। क़ुब्बतुस्सख़रा जिसको (The Dome of the Rock) भी कहा जाता है पिछली 13 सदियों से दुनिया की सबसे सुन्दर इमारतों में से एक मानी जाती है। अल-रहमा द्वार क़ुब्बतुस्सख़रा से एक साल पुराना है।
वास्तव में यह एक ऐतिहासिक कब्रिस्तान है जो 1400 वर्ष पुराना है। अल-रहमा द्वार मस्जिदुल अक़सा के 12 दरवाज़ों में से एक बड़ा दरवाज़ा है। इतिहास में मिलता है कि उमवी और अब्बासी ख़लीफ़ाओं ने इस दरवाज़े का विस्तार किया था और उसके बिल्कुल ऊपर एक चबूतरा बनवाया था, जिस चबूतरे पर इमाम गज़ाली लंबे समय तक लेखन में व्यस्त रहे थे।
स्थानीय मीडिया और लोगों के अनुसार मुसलमानों के पहले क़िबले मस्जिदुल अक़सा के दरवाज़ों में सबसे पुराना और ऐतिहासिक द्वार अल-रहमा इस्राईल के प्रतिबंध के कारण फ़िलिस्तीनी मुसलमानों के लिए बंद कर दिया गया है, लेकिन ज़ायोनी अपने लिए इस दरवाज़े का प्रयोग करते हैं।
इतिहासकारों के अनुसार इस्राईली कब्ज़े से पहले मस्जिदुल अक़सा का ऐतिहासकि द्वार अल-रहमा शिक्षा का मुख्य केंद्र था जहां क़ुरान के साथ-साथ दूसरी इस्लामी शिक्षाएं दी जाती थीं, लेकिन अब इस दरवाज़े से मिले हुए दो बड़े हॉल पूरी तरह उजड़ चुके हैं।
साम्राज्यवादी मोर्चे के जाल में फंसने की ओर से राष्ट्रों को वरिष्ठ नेता की चेतावनी
वरिष्ठ नेता आयतुल्लाहिल उज़्मा सय्यद अली ख़ामेनई ने कहा है कि देश की वास्तविक पहचान और महासंघर्ष से, इस्लामी क्रान्ति के उद्देश्यों को प्राप्त करके व्यवस्था को बचाते हुए उसे आगे ले जाया जा सकता है।
वरिष्ठ नेता का चयन करने वाली पांचवीं विशेषज्ञ परिषद के सदस्यों ने गुरूवार को आयतुल्लाहिल उज़्मा सय्यद अली ख़ामेनई से मुलाक़ात की। उन्होंने कहा कि दुश्मन का अनुसरण न करना ही महासंघर्ष है।
उन्होंने ईरानी जनता के विभिन्न वर्गों के साथ, विशेषज्ञ परिषद के सदस्य धर्मगुरुओं व विद्वानों के संपर्क और इन वर्गों पर उनके प्रभाव की ओर इशारा करते हुए कहा कि संविधान में वर्णित कर्तव्यों को पूरा करने के लिए ज़रूरी समय के आने तक इस परिषद के सदस्यों को हाथ पर हाथ धरे बैठा नहीं रहना चाहिए।
वरिष्ठ नेता ने इस बात पर बल दिया कि विशेषज्ञ परिषद का मार्ग व लक्ष्य वही होना चाहिए जो क्रान्ति का मार्ग व लक्ष्य है। उन्होंने इस्लाम की प्रभुसत्ता, स्वतंत्रता, स्वाधीनता, सामाजिक न्याय, जनकल्याण, निर्धनता व निरक्षरता उन्मूलन, पश्चिम के अनैतिक भ्रष्टाचार से मुक़ाबला, आर्थिक, सामाजिक व राजनैतिक बुराइयों के ख़िलाफ़ प्रतिरोध और साम्राज्यवादी मोर्चे के मुक़ाबले में दृढ़ता को ईरानी राष्ट्र के महत्वपूर्ण लक्ष्य बताया।
आयतुल्लाहिल उज़्मा सय्यद अली ख़ामेनई ने वर्चस्ववाद को साम्राज्य की प्रवृत्ति का हिस्सा बताते हुए कहा कि साम्राज्यवादी मोर्चा राष्ट्रों पर वर्चस्व के दायरे को बढ़ाना चाहता है। उन्होंने कहा कि जो राष्ट्र उसका मुक़ाबला नहीं करेगा उसके जाल में फंस जाएगा।
वरिष्ठ नेता ने कहा कि इस बात में शक नहीं कि इस्लाम ही साम्राज्य व अत्याचार को ख़त्म करेगा। उन्होंने कहा कि वह इस्लाम ही दुनिया के वर्चस्ववादी मोर्चे को ख़त्म कर सकता है जो प्रशासनिक व्यवस्था के रूप में स्थापित हो और राजनीतिक, आर्थिक, सांस्कृतिक, मीडिया और सैन्य शक्ति के साधन से संपन्न हो।